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<s>[INST]स्वतंत्र भारत में भाषा संबंधी एक ऐसे प्रारूप को तैयार किया गया जिसमें अनेक भाषाओं को एक भाषा में मिलाकर अन्य भाषाओं को दबाने की कोशिश नहीं की गई। चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • भाषा संबंधी प्रारूप का वर्णन • निष्कर्ष स्वतंत्रता के पहले से ही कांग्रेस ने स्थानीय भाषाओं के महत्त्व को स्वीकार किया था लेकिन जिन परिस्थितियों में देश को स्वतंत्रता प्राप्त हुई उसने कांग्रेस तथा राष्ट्र के प्रमुख नेताओं की सिर्फ भाषा के आधार पर प्रांतों के निर्माण की अपेक्षा एक समग्र दृष्टिकोण विकसित करने की ओर प्रेरित किया। स्वतंत्रता के बाद एक लोकतांत्रिक देश के रूप में भारत ने सभी भाषाओं को उचित सम्मान प्रदान करने का प्रयास किया है। स्वतंत्रता के बाद भारत में भाषा संबंधी मामलों में राज्यों को भी व्यापक अधिकार दिये गए तथा संघ राज्य संबंधों में हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी को भी विशेष कालबोध के लिये मान्यता प्रदान की गई। राज्य पुनर्गठन आयोग ने भी राज्यों के पुनर्गठन में भाषा को आधार माना जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न राज्यों का गठन हुआ साथ ही विभिन्न भाषाओं को प्रोत्साहन मिला। विभिन्न राज्य अपने स्तर पर भाषा का चयन करने में सक्षम हैं जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं को भी उचित प्रोत्साहन मिला। एक राष्ट्र एक भाषा का सिद्धांत किसी भी राष्ट्र की एकता तथा अखंडता को मज़बूती प्रदान करता है। संविधान भी सरकारों से इस दिशा में प्रयास करने की उम्मीद करता है, लेकिन किसी भाषा को दबाकर कोई नई भाषा थोपा जाना लोकतांत्रिक भावना के विपरीत है। एक लोकतांत्रिक देश में विभिन्न भाषाओं के सम्मान के साथ-साथ एक राष्ट्र एक भाषा का दिशा में प्रयास किया जाना चािहये।</s>
<s>[INST]मौर्योत्तर काल में साहित्य के विभिन्न रूपों का विकास हुआ, टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • मौर्योत्तर काल में साहित्य के विभिन्न रूपों का विकास • निष्कर्ष मौर्योत्तर काल के विषय में जानकारी देने वाले स्रोतों में साहित्यिक स्रोत प्रमुख है। एक सातवाहन शासक द्वारा ‘हाल’ छद्म नाम से लिखी गई गाथा ‘सप्तशती’ प्राकृत भाषा की बहुत सुंदर काव्य रचना है, यद्यपि इस काल में साहित्य-रचना में संस्कृत भाषा का प्रचलन अधिक था। ई.पू. दूसरी सदी के मध्य में पतंजली ने अपना महाभाष्य लिखा जो उनके पूर्ववर्ती वैयाकरण पाणिनि की प्रसिद्ध रचना ‘अष्टाध्यायी’ की टीका है। चिकित्सा शास्त्र पर भी मौलिक ग्रंथ लिखे गए जिनमें सबसे प्रसिद्ध चरक-कृत ‘चरकसंहिता’ है। चरक, कुषाण शासक कनिष्क का समकालीन था। इस क्षेत्र में एक अन्य प्रसिद्ध व्यक्ति सुश्रुत है। चिकित्सा शास्त्र एवं ज्योतिष शास्त्र में भारत में पश्चिमी जगत से संपर्क द्वारा बहुत लाभ उठाया। कुछ विद्वानों के अनुसार भरत का ‘नाट्यशास्त्र’ तथा वात्स्यायन का ‘कामसूत्र’ भी इसी काल की रचनाएँ है। भारत की सर्वप्रसिद्ध स्मृति मनुस्मृति ई.पू. दूसरी शती से ईसा की दूसरी शती के मध्य लिखी गई। संस्कृत काव्य की प्रारंम्भिक शैली की महत्वपूर्ण कृति अश्वघोष का ‘बुद्धचरित’ है। अश्वघोष कनिष्क का समकालीन था। इसी का एक अन्य छंदबद्ध काव्य ‘सौन्दरानन्द’ है, जो बुद्ध के सौतेले भाई आनंद के बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के प्रसंग पर आधारित है। अश्वघोष के नाटकों के कुछ भाग मध्य एशिया के एक विहार में प्राप्त हुए थे। संभवत: सबसे पहले संपूर्ण नाटक रखने का श्रेय भाष को है। इसमें से सर्वप्रसिद्ध है ‘स्वप्नवासदत्तम’ जो राजा उदयन एवं वासवदत्ता की कथा पर आधारित है। इस काल में संस्कृत ब्राह्मणों की भाषा न रहकर शासक वर्ग की भाषा बन गई। रद्रदामन का गिरनार अभिलेख संस्कृत काव्य का अनूठा उदाहरण है। कुषाण साम्राज्य के सुई विहार अभिलेख में भी संस्कृत का प्रयोग हुआ है।</s>
<s>[INST]मौर्योत्तरकालीन कला व संस्कृति के विकास में सामाजिक तथा धार्मिक कारकों के महत्त्व का मूल्यांकन करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • कला व संस्कृति के विकास में सहायक सामाजिक तथा धार्मिक कारक • निष्कर्ष मौर्योत्तर काल में नए विचारों के साथ-साथ कला के नए स्वरूप अस्तित्व में आए और इसी परिदृश्य में विभिन्न सांस्कृतिक तत्त्वों के प्रचलन की शुरुआत हुई जिसकी परिणति भारत में मिली-जुली संस्कृति के विकास के रूप में हुई। मौर्यकाल में कला के विकास में राज्य अहम भूमिका निभाता था परंतु मौर्योत्तर काल की कला को विभिन्न सामाजिक समूहों द्वारा संरक्षण तथा प्रोत्साहन दिया गया। मौर्योत्तरकालीन कला तथा संस्कृति के विकास में महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में भारतीय समाज का व्यवसाय प्रधान होना था। व्यवसाय के क्षेत्र में दक्षिण भारत की स्थिति उत्तर भारत की तुलना में बेहतर थी। बाद में उत्तर भारत के आर्थिक ढाँचे में भी परिवर्तन हुए, जिसके कारण मौर्योत्तरयुगीन कला तथा संस्कृति में व्यापक परिवर्तन देखा गया। इस काल में कला का आधार मुख्यत: बौद्ध धर्म ही रहा। धनी व्यापारियों की विभिन्न श्रेणियों तथा शासकों द्वारा इसे बहुत प्रोत्साहन दिया गया। पर्वतों में खोदी गई गुफाएँ मंदिरों तथा भिक्षुओं के निवास स्थान के रूप में प्रयुक्त होती थी। इसी प्रकार जैन धर्म के अनुयायियों ने मथुरा में मूर्तिकला की एक शैली को प्रश्रय दिया जहाँ शिल्पियों ने महावीर की एक मूर्ति बनाई। जहाँ तक ब्राह्मण धर्म का प्रश्न है, उसके भी अवशेष कुछ कम नहीं हैं। मथुरा, लखनऊ, वाराणसी के अनेक संग्रहालयों में इस काल के विष्णु, शिव, स्कंद-कार्तिकेय के निरुपणों के उदाहरण प्राप्त होते हैं। मौर्योत्तरयुगीन कला में स्तूपों, चैत्यों तथा विहारों के निर्माण को लोकप्रियता मिली। बुद्ध की प्रतिमाओं के चेहरे के चारों ओर दिव्य प्रकाश को चक्र द्वारा प्रदर्शित करने का प्रयत्न मथुरा शैली के अंतर्गत किया गया। इस प्रकार मथुरा शैली ने भाव, भावना एवं शारीरिक सौंदर्य सभी को प्रदर्शित करना शुरू किया जिसके कारण कला धार्मिक विचार और शारीरिक सुख दोनों की अभिव्यक्ति का साधन बन गई।</s>
<s>[INST]भारत में जल संकट की गंभीर स्थिति, जल संरक्षण की दिशा में कुछ नवाचारी प्रयासों की मांग करती है। टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • जल संकट की गंभीर स्थिति के आँकड़े • जल संकट के कारण • जल संरक्षण के नवाचारी बिंदु • निष्कर्ष नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 600 मिलियन लोग, ‘अत्यधिक से अत्यंत गंभीर’ जल संकट की समस्या का सामना कर रहे हैं। 75 प्रतिशत घरों में आज भी पेयजल की सुविधा उपलब्ध नहीं है। भारत में जल की वार्षिक प्रति व्यक्ति उपलब्धता वर्ष 2001 के 1820 क्यूबिक मीटर से घटकर 2011 में 15.45 क्यूबिक मीटर रह गई है। वर्तमन में लगभग 70 प्रतिशत पेयजल प्रदूषित हो चुका है। भारत में बढ़ते जल संकट को ध्यान में रखते हुए सरकार का लक्ष्य जल संरक्षण एवं भविष्य को सुरक्षित रखने हेतु स्वच्छ भारत मिशन के समान एक जन आंदोलन की शुरुआत करना है। सरकार का लक्ष्य प्रत्येक परिवार को प्राथमिक तथा संधारणीय तरीके से पेयजल उपलब्ध कराना है। भारत में जल संरक्षण संबंधी विभिन्न मुद्दे नागरिकों के मध्य जागरूकता का अभाव अक्षम सरकारी नीतियाँ जल प्रदूषण में वृद्धि अवैज्ञानिक कृषि जल का पुन: उपयोग न किया जाना केंद्र सरकार तथा राज्य सरकारों द्वारा उठाए जा रहे कदमों के अतिरिक्त निम्नलिखित उपायों को अपनाए जाने का भी प्रयास किया जाना चाहिये: लोगों के व्यवहार में परिवर्तन हेतु स्थानीय सरकारों द्वारा प्रयास किया जाना चाहिये। जैसे- वैज्ञानिक तरीके से कृषि सिंचाई प्रणाली अपनाए जाने पर बल दिया जाए। बड़े किसानों पर व्यावसायिक दरों पर विद्युत उपभोग की वसूली की जानी चाहिये। जिससे वे मनमाने तरीके से सिंचाई हेतु जल का उपयोग न कर सके। इज़राइल तथा सिंगापुर के समान जल उपचार तथा पुन: उपयोग तकनीक को अपनाया जाना चाहिये। ग्रामीण लोगों को यह समझना चाहिये कि वे कैसे जल संरक्षण में प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं। नगरपालिकाओं द्वारा खराब जल प्रबंधन की समस्या के संदर्भ में अवसंरचनात्मक सुधारों पर ज़ोर दिया जाना चाहिये। एक सीमा से अधिक जल का उपयोग करने पर शुल्क आरोपित करना चाहिये तथा ऐसे परिवार जो आवंटित मात्रा से कम जल का उपयोग करते हैं उन्हें प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। उपरोक्त के अतिरिक्त सरकार द्वारा बड़े आवासीय ब्लॉकों, स्कूलों, अस्पतालों, होटलों तथा वाणिज्य परिसरों पर स्कूलों, अस्पतालों, होटलों तथा वाणिज्य परिसरों पर ग्रीन टैक्स लगाना चाहिये तथा अपशिष्ट जल के पुर्नप्रयोग को अनिवार्य बनाया जाना चाहिये।</s>
<s>[INST]‘किसी भी काल की चित्रकला न सिर्फ तत्समय के लोगों के चित्रकला की ज्ञान को दर्शाती है अपितु यह तत्कालीन समाज का भी प्रतिबिंब होती है।’ कथन के संदर्भ में पुरापाषाणकालीन चित्रकला पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • कथन के पक्ष में तर्क • निष्कर्ष में कथन का समर्थन किसी भी काल की चित्रकला न सिर्फ लोगों का चित्रकला के प्रति ज्ञान तथा रुचि का प्रदर्शन है अपितु यह तत्कालीन सामाजिक जीवन तथा सांस्कृतिक पहलुओं का भी प्रतिबिंब प्रस्तुत करती है। पुरापाषाणकालीन संस्कृति का उदय प्लीस्टोसीन युग में हुआ। पुरातत्वविद के अनुसार, पुरापाषाणकाल की अवधि बीस लाख वर्ष पूर्व से बारह हज़ार वर्ष पहले तक रही होगी। इस युग में मनुष्य खेती नहीं करता था बल्कि पत्थरों का प्रयोग कर शिकार करता था। लोग गुफाओं में रहते थे। ऐसा अनुमान है कि इस युग का अंत होते-होते जलवायु में परिवर्तन होने लगा तथा धीरे-धीरे तापमान में वृद्धि हुई होगी। इस युग का मनुष्य चित्रकारी करता था। इसका प्रमाण उन गुफाओं से मिलता है, जहाँ वह निवास करता था। इस काल की चित्रकारी में गुफाओं में पशुओं एवं फल-फूलों का चित्रण किया गया है। भीमबेटका, जो कि विंध्य क्षेत्र में स्थित है, इस काल की सबसे पुरानी चित्रकला की प्राप्ति का स्रोत है। उत्तर पुरापाषाणकाल में लाल तथा हरे रंगों के प्रयोग से जानवरों का चित्र बनाना इस काल के लोगों के रंगों के प्रयोग की समझ को दर्शाता है। गुफाओं से मिले चित्रों से पता चलता है कि शिकार जीवनयापन का प्रमुख साधन था। इन चित्रों में बने शारीरिक संरचना के आधार पर स्त्री तथा पुरुष के मध्य सरलता से भेद किया जा सकता है। इन सबके अतिरिक्त इस काल की चित्रकला से यह भी पता चलता है कि पुरापाषाण के लोग छोटे-छोटे समूहों में निवास करते थे तथा भोजन के लिये वे पशुओं तथा पेड़-पौधों पर निर्भर था। इस काल की चित्रकला से आर्थिक गतिविधियों के संदर्भ में पता चलता है कि लोग शिकारी तथा संग्रहकर्त्ता के रूप में जीवनयापन करते थे।</s>
<s>[INST]‘गार्बाचोव का स्थानीय लोकतंत्रीकरण रूस के विघटन का वास्तविक कारण था।’ टिप्पणी कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • गार्बाचोव की नीतियाँ • विघटन के कारण-परिणाम संबंध • निष्कर्ष वर्ष 1991 में सोवियत संघ का विघटन नि:संदेह 20वीं सदी की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना थी। इतिहासकारों का मानना है कि विघटन के बीज कहीं-न-कहीं रूस की स्थापना में ही निहित थे। गार्बाचोब की नीतियाँ विघटन का मात्र तात्कालिक कारण मानी जा सकती है। स्टालिन ने रूसी संघ को अपनी नीतियों द्वारा कठोरता से संगठित किया था जिसके कारण सोवियत संघ समर्थित राज्यों में रूसी भाषा, संस्कृति तथा आर्थिक नीतियाँ लागू की गई थी। धर्म को पूर्णत: अस्वीकार कर दिया गया था। इस साम्यवादी दौर में स्थानीय संस्कृतियों के विकसित होेने के आसार लगभग नगण्य थे। अत: इस्लामिक तथा ईसाई धर्मों तथा परंपराओं को मानने वाले समूहों में सोवियत संघ के खिलाफ तीव्र आक्रोश व्याप्त था। यही वजह थी कि गार्बाचोव द्वारा लागू की गई ग्लास्तननोव (खुलापन) तथा पेरेस्नाइका (आर्थिक उदारीकरण) के द्वारा सम्मिलित राज्यों को अपनी संस्कृति को अपनाने तथा आर्थिक स्तर को सुदृढ़ करने के उपाय प्राप्त हुए जो सोवियत संघ के विघटन का महत्त्वपूर्ण कारक बना। सोवियत संघ के समय स्थानीय निकायों से साम्यवादी लोकतंत्रीकरण की नींव डाली। इसके अनुसार पोलित ब्यूरो के सदस्यों को निकायों में जनता द्वारा निर्वाचित किया जाना था। इस प्रकार लोकतंत्रीकरण के स्वरूप ने अन्य सम्मिलित राज्यों में भी परिवर्तन की रूपरेखा निर्मित की तथा गार्बाचोव की नीतियों के कारण सर्वप्रथम लिथुआनिया बाद में क्रमश: एस्टोनिया, जॉर्जिया तथा यूक्रेन ने स्वतंत्रता की घोषणा की। वास्तविक स्तर पर देखा जाए तो इन देशों की स्वतंत्रता में एक अन्य प्रमुख कारक आर्थिक असंतोष भी, है इनके उत्पादन तथा राजस्व सहयोग के अनुरूप इन देशों को अधिक लाभ प्राप्त नहीं हुआ। शक्ति का मुख्य केंद्र मास्को था, जो असंतोष को बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुआ। कुछ इतिहासकारों का यह भी मानना है कि पूंजीवादी शक्तियों ने साम्यवाद के समापन के लिये विघटनकारी शक्तियों को अपना सहयोग प्रदान किया। इसलिये सोवियत संघ ने स्वतंत्र राज्य नाटो जैसे पूंजीवादी समर्थित संगठन में सम्मिलित होने के लिये तत्पर रहे।</s>
<s>[INST]‘मीमांसा दर्शन तर्कपूर्ण चिंतन, विवेचन तथा अनुप्रयोग की कला है।’ कथन को स्पष्ट करते हुए इस दर्शन के प्रमुख तत्त्वों की चर्चा करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • मीमांसा दर्शन का संक्षिप्त परिचय। • मीमांसा दर्शन के प्रमुख तत्त्वों को लिखते हुए निष्कर्ष दें। भारत के छ: आस्तिक दर्शनों में मीमांसा दर्शन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके प्रवर्तक जैमिनी हैं। मीमांसा शब्द का वास्तविक अर्थ तर्क-पूर्ण चिंतन, विवेचन तथा अनुप्रयोग की कला है। यह विचार पद्धति वैदिक साहित्य के भाग रहे संहिता तथा ब्राह्मणों के विश्लेषण पर केंद्रित थी। मीमांसा दर्शन के अनुसार वेदों में शाश्वत सत्य निहित है तथा यदि व्यक्ति को धार्मिक श्रेष्ठता, स्वर्ग और मुक्ति प्राप्त करनी है, तो उसे वेदों द्वारा नियत सभी कर्तव्य पूरे करने होंगे। इस दर्शन के अनुसार मुक्ति अनुष्ठानों के निष्पादन से ही संभव है। साथ ही, मुक्ति के उद्देश्य से किये जा रहे अनुष्ठानों को पूर्णता से संपन्न करने के लिये उनमें निहित तर्क को समझना भी आवश्यक है। मीमांसा दर्शन के अनुसार व्यक्ति के कर्म अपने गुण दोषों के लिये उत्तरदायी होेते हैं तथा गुणयुक्त कर्मों के प्रभाव की अवधि तक व्यक्ति स्वर्ग का आनंद प्राप्त कर सकता है, किंतु वे जन्म और मृत्यु से मुक्त नहीं होंगे। मुक्ति को प्राप्त करने के पश्चात् वे इस अनंत चक्र से छूट जाएंगे। मीमांसा में महासृष्टि तथा खंडसृष्टि नाम से दो सृष्टियों का उल्लेख है, जबकि प्रलय, महाप्रलय और खंडप्रलय नाम से तीन प्रलयों का उल्लेख है। किसी स्थल विशेष का भूकंप आदि से विनाश होना खंडप्रलय तथा वहाँ नए जीवन का उदय खंडसृष्टि है। महासृष्टि में परमाणुओं से द्वयणुकादि द्वारा पंचमहाभूत पर्यंत नवग्रहादिकों की सृष्टि होती है। विद्वानों ने अनुमान सिद्ध ईश्वर का निराकरण किया है तथा वेद सिद्ध ईश्वर को स्वीकार किया है। पदार्थ विवेचना की चार कोटियाँ मानी गई हैं- 1. प्रमाण: जिसके विषय का निश्चयात्मक ज्ञान हो और विषय का निर्धारण हो। 2. प्रमेय: प्रमाण के द्वारा जिसका ज्ञान हो। 3. प्रमिती: प्रमाण के द्वारा जिस किसी भी विषय का निश्चयात्मक ज्ञान हो। 4. प्रमाता: जो प्रमाण के द्वारा प्रमेय ज्ञान को जानता है। यद्यपि मीमांसा तर्क-पूर्ण चिंतन को प्रोत्साहित करती है परंतु साथ ही यह समाज में वर्ग विभेद को भी बढ़ावा देती है। चूँकि यह मुक्ति के लिये अनुष्ठानों को आवश्यक मानती है, जिसकी उचित समझ सामान्य लोगों को नहीं होती। अत: उन्हें पुरोहितों की सहायता लेनी पड़ती है, जो कि स्पष्ट रूप से ब्राह्मणाें के वर्चस्व को स्थापित करता है।</s>
<s>[INST]‘थाट’ से आप क्या समझते हैं? ‘थाट’ एवं ‘राग’ की मौलिक विशेषताओं पर तुलनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • ‘थाट’ (संगीत) का परिचय देते हुए इसकी विशेषताएँ लिखें। • ‘थॉट’ और ‘राग’ में समानता तथा विषमता बताते हुए निष्कर्ष लिखें। ‘थाट’ (संगीत) हिन्दुस्तानी संगीत की एक विधा है, जिसमें सदैव सात भिन्न अलाप होते हैं। इन्हें स्वर कहा जाता है। जैसे- सा, रे, गा, मा आदि। ‘थाट’ कला हिन्दुस्तानी संगीत का आधार है।भारतीय संगीत की प्रमुख पुस्तक ‘संगीत रत्नाकार’ में तत्कालीन संगीत की कुछ तकनीकी शब्दावलियों का प्रयोग किया गया है। जैसे ‘ग्राम’ और ‘मूर्घना’। 11वीं शताब्दी के पश्चात् भारतीय संगीत पर मध्य और पश्चिम एशिया का प्रभाव पड़ने लगा। 15वीं शताब्दी तक यह प्रभाव स्पष्ट हो गया। फलस्वरूप ‘ग्राम’ और ‘मूर्घना’ का स्थान ‘थाट’ ने ले लिया। ‘थाट’ संगीत की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं: इसमें सात स्वर होते हैं। (सा रे गा मा पा धा नि) यह आधुनिक राग बिलावल का मेल आरोह है। वर्तमान में उक्त सात स्वरों के अतिरिक्त पाँच अन्य स्वर भी प्रचलित हैं। ‘राग’ ‘थाट’ की अपेक्षा मौलिक संगीत विधा है। इस रूप में ‘राग’ और ‘थाट’ में समानताओं और विषमताओं को निम्नलिखित प्रकार से समझा जा सकता है- सभी ज्ञात ‘राग’ 12 ‘थाट’ स्वरों का ही समूह है। इस रूप में ‘थाट’ व्युत्पन्न है, जबकि ‘राग’ मौलिक है। जनजातियों और लोकगीतों ने अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति को रागों में व्यक्त किया है। इन्हीं रागों को कालांतर में संगीत विज्ञानियों ने स्वरग्राम या सरगम (थाट) में वर्गीकृत किया। विभिन्न रागों पर विदेशी प्रभाव पड़ने से ही ‘थाट’ का आविर्भाव हुआ। इस प्रकार ‘थाट’ और ‘राग’ संगीत विधा में भेद किया जा सकता है। ‘थाट’ संगीत विधा विशुद्ध रूप से भारतीय नहीं है किंतु यह भारतीय कला में इतनी रच गई कि अब भारत की पहचान बन गई है और हिन्दुस्तानी संगीत की महत्त्वपूर्ण विधा है।</s>
<s>[INST]यूनेस्को के ‘सांस्कृतिक विरासत संरक्षण कार्यक्रम’ के लिये ‘एशिया-प्रशांत अवॉर्ड’ की चर्चा करें। हाल ही में इससे सम्मानित भारतीय स्थापत्य की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • यूनेस्को द्वारा प्रदान किये जाने वाले ‘एशिया-प्रशांत अवॉर्ड’ का उल्लेख करें। • इससे सम्मानित भारतीय स्थापत्य कला की विशेषताएँ बताते हुए निष्कर्ष लिखें। ‘एशिया-प्रशांत विरासत पुरस्कार’ वर्ष 2000 से यूनेस्को द्वारा एशिया-प्रशांत क्षेत्र में रणनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु दिया जा रहा है। इस पुरस्कार का उद्देश्य सांस्कृतिक विरासत क्षेत्रों के संरक्षण को बढ़ावा देना है, जिसके प्रयास किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा प्रारंभ किये गए हैं। यह पुरस्कार पाँच श्रेणियों में दिया जाता है: उत्कृष्टता के लिये पुरस्कार। विशिष्टता के लिये पुरस्कार। वरीयता के लिये पुरस्कार। माननीय उल्लेख (Honourable Mention). विरासत के संदर्भ में नए डिज़ाइन के लिये पुरस्कार। वर्ष 2017 का विरासत पुरस्कार भारत के निम्नलिखित स्थापत्य कला को प्राप्त हुआ है- वरीयता के लिये पुरस्कार (Award of Merit) मुंबई का क्राइस्ट चर्च। रॉयल बॉम्बे ऑपेरा हाउस। श्रीरंगम का श्री रंगनाथ स्वामी मंदिर। सम्माननीय उल्लेख (Honourable Mention) वाडिया फाउण्टेन एवं क्लॉक टावर, मुंबई। गोहद किले का प्रवेशद्वारा, गोहद। दिल्ली की धर्मपुरा हवेली। मुंबई का वैलिंगटन फाउण्टेन 182 वर्ष पुराना मुंबई का क्राइस्ट चर्च इण्डो-सारसेनिक स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना है। मुंबई का रॉयल ऑपेरा हाउस भारत का एकमात्र ऑपेरा हाउस है, जिसका निर्माण ब्रिटिश राज के समय हुआ था। श्री रंगनाथ स्वामी मंदिर स्थापत्य कला की तमिल शैली में निर्मित है। इसका निर्माण छठी से नौवीं शताब्दी के मध्य हुआ था। मुंबई का वाडिया और क्लॉक टावर सार्वजनिक क्षेत्र में विरासत क्षेत्राें के संरक्षण के प्रति समर्पण को प्रदर्शित करता है। दिल्ली की धर्मपुरा हवेली रियासतकालीन स्थापत्य का उदाहरण है। इस प्रकार यूनेस्को का ‘एशिया-प्रशांत विरासत अवॉर्ड’ विरासत क्षेत्रों के संरक्षण हेतु किये गए प्रयासों को मान्यता, सराहना एवं प्रोत्साहन देने का एक महत्त्वपूर्ण साधन है।</s>
<s>[INST]पाश्चात्य जगत के लिये स्वामी विवेकानंद भारत के पहले सांस्कृतिक राजदूत थे, जिन्होंने भारत के सांस्कृतिक एकीकरण में अतुल्य योगदान दिया। विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • स्वामी विवेकानंद का संक्षिप्त परिचय देते हुए स्पष्ट करें कि वह किस प्रकार पाश्चात्य जगत् के लिये प्रथम सांस्कृतिक दूत थे? • भारत के सांस्कृतिक एकीकरण में उनके योगदान का उल्लेख करते हुए निष्कर्ष लिखें। स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी, 1863 में कोलकाता में हुआ था। स्वामी जी का मूल नाम नरेंद्र नाथ दत्त था, जिसे कालांतर में श्री रामकृष्ण परमहंस ने बदलकर विवेकानंद कर दिया। स्वामी जी ने अपनी भारत यात्रा में भारत में व्याप्त भुखमरी और गरीबी को देखा। वह पहले ऐसे नेतृत्वकर्त्ता थे जिन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त गरीबी और भुखमरी की मुखर आलोचना की थी। 1893 में शिकागो में आयोजित विश्व धर्म संसद में भाग लेना स्वामी जी के जीवन तथा उनके उद्देश्य को प्राप्त करने की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण चरण था। इसी संसद में दिये गए भाषण ने उन्हें पाश्चात्य जगत् का प्रथम सांस्कृतिक दूत बना दिया। इसे निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है: स्वामी जी ने हिन्दू दर्शन, जीवन शैली और संस्थाओं की व्याख्या पाश्चात्य जगत् में सरलतम शब्दों में की। जिससे कि पाश्चात्य समाज इसे भलीभाँति समझ सके। उन्होंने पाश्चात्य समाज को यह अनुभव करवाया कि वह स्वयं के उद्धार हेतु भारतीय आध्यात्मिकता से बहुत कुछ सीख सकता है। उन्होंने पाश्चात्य विश्व के समक्ष यह सिद्ध किया कि अपनी गरीबी और पिछड़ेपन के बावजूद भी भारत का विश्व संस्कृति को अमूल्य योगदान है। इस प्रकार स्वामी विवेकानंद ने भारत का अन्य विश्व के देशों के साथ सांस्कृतिक अलगाव समाप्त करने का प्रयास किया। वह भारत के प्रथम सांस्कृतिक राजदूत बनकर पाश्चात्य जगत् गए। इसके अतिरिक्त, भारत के सांस्कृतिक एकीकरण में भी विवेकानंद का अभूतपूर्व योगदान है। जैसे- स्वामी जी ने हिन्दू धर्म और दर्शन को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। हिन्दू धर्म के विभिन्न संप्रदायों के मध्य प्रतिस्पर्द्धा एवं विरोध को समाप्त कर एक राष्ट्रीय पहचान के सूत्र में बांधा। स्वामी जी ने पाश्चात्य संस्कृति के सर्वोत्तम तत्त्वों का भारतीय संस्कृति में विलय का कार्य किया। स्वामी जी ने भारतीय दर्शन में स्वयं के चिंतन और अनुभव से मौलिक विचारों को जोड़ा। इस प्रकार निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि स्वामी विवेकानंद ने पाश्चात्य जगत् में भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार तो किया ही, स्वयं के अकाट्य प्रयासों से भारत का सांस्कृतिक एकीकरण भी किया।</s>
<s>[INST]यूनेस्को के ‘क्रिएटिव सिटीज़ नेटवर्क’ की सूची में चेन्नई को किस रचनात्मक विधा के लिये शामिल किया गया है? चेन्नई की इस रचनात्मक विधा पर विस्तारपूर्वक चर्चा करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • एक संक्षिप्त भूमिका लिखें। • हाल ही में शामिल भारतीय नगर चेन्नई की संगीत कला का उल्लेख करते हुए उस कला की विशेषताओं का उल्लेख करें। • निष्कर्ष लिखें। यूनेस्को का ‘क्रिएटिव सिटीज़ नेटवर्क’ कार्यक्रम एक ऐसी पहल है जिसके अंतर्गत ऐसे शहरों के साथ और शहरों में सहकारिता को बढ़ावा दिया जाता है जिन्होंने रचनात्मकता को धारणीय शहरी विकास के लिये रणनीतिक कारक के रूप में स्वीकार किया है। हाल में चेन्नई को इसकी समृद्ध संगीत परंपरा के आधार पर इस नेटवर्क में शामिल किया गया है। इसका आधार कर्नाटक संगीत है। कर्नाटक संगीत की विशेषता इसकी राग पद्धति है जिसकी अवधारणा में पूर्णसंगीत अथवा आदर्श निहित होता है तथा यह अत्यंत विकसित और जटिल ताल पद्धति है जिसने इसे अत्यंत वैज्ञानिक और रीतिबद्ध तथा सभी दृष्टिकोणों से अनूठा बना दिया है। कर्नाटक संगीत में हिन्दुस्तानी संगीत के घरानों की तरह ही प्रस्तुतिकरण की शैली में स्पष्ट सीमांकन देखने को नहीं मिलता, फिर भी हमें भिन्न-भिन्न शैलियाँ देखने को मिलती हैं। इन शैलियों में शामिल हैं- गीतम, सुलादी, स्वराजाति, जातिस्वरम, वर्णम, कीर्तनम, कृति, पद, जवाली, तिल्लाना, पल्लवी और तनम। कर्नाटक संगीत ज़्यादातर भक्ति संगीत के रूप में होता है और अधिकतर रचनाएँ हिन्दू देवी-देवताओं को संबोधित होती हैं। इसके अतिरिक्त कुछ हिस्सा प्रेम और अन्य सामाजिक मुद्दों को भी समर्पित होता है। त्यागराज, मुथुस्वामी दीक्षितार और श्यामा शास्त्री को कर्नाटक संगीत शैली की त्रिमूर्ति कहा जाता है, जबकि पुरंदर दास को अक्सर कर्नाटक शैली का पिता कहा जाता है। निष्कर्षत: चेन्नई की कर्नाटक शैली में समृद्ध परंपरा समाहित है किंतु इस पर उच्च जातियों का वर्चस्व रहा है। वे ही इसके संरक्षक और दर्शक रहे हैं। कर्नाटक संगीत की चुनौती अपने प्रदर्शन स्थान और उसके संरक्षक को अन्य संगीत रूपों में खोलने और समाज के अन्य वर्गों से कलाकारों और दर्शकों को आकर्षित करने की आवश्यकता है। अतिरिक्त सूचना: यूनेस्को का ‘क्रिएटिव सिटीज़ नेटवर्क’ कार्यक्रम वर्ष 2004 में प्रारंभ किया गया था। यह पहल ऐसे शहरों के साथ और शहरों में सहकारिता को बढ़ावा देती है जिन्होंने रचनात्मकता को धारणीय शहरी विकास के लिये रणनीतिक कारक के रूप में स्वीकार किया है। वर्तमान में विश्व भर के 116 शहर इस नेटवर्क का निर्माण करते हैं। इन शहरों ने स्थानीय स्तर पर रचनात्मकता और सांस्कृतिक उद्यमों को अपने विकास कार्यक्रमों के केंद्र में रखा है। साथ ही, ये शहर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सहकारिता को भी बढ़ावा दे रहे हैं। ‘क्रिएटिव सिटी नेटवर्क’ के उद्देश्यों को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है: संस्कृति और रचनात्मकता को धारणीय विकास कार्यक्रमों से पूर्णत: अंत:संबद्ध करना। सांस्कृतिक जीवन में सीमांत या सुभेद्य वर्गों की भागीदारी को बढ़ाना। सांस्कृतिक क्षेत्र में रचनात्मकता और नवाचार को बढ़ावा देना तथा रचनाकारों एवं व्यवसायियों के लिये अवसरों को बढ़ाना। सांस्कृतिक गतिविधियों, वस्तुओं एवं सेवाओं की रचना, उत्पादन और वितरण को सुदृढ़ करना। वर्ष 2016 में भारत के दो शहरों को यूनेस्को द्वारा ‘क्रिएटिव सिटीज़ नेटवर्क’ में शामिल किया गया है। वाराणसी को नेटवर्क के संगीत वर्ग में शामिल किया गया है। वहीं, जयपुर को नेटवर्क के शिल्प एवं लोक कला वर्ग में सम्मिलित किया गया है। हाल ही में (नवंबर, 2017) चेन्नई शहर को इसकी समृद्ध संगीत परंपरा के आधार पर नेटवर्क में सम्मिलित किया गया है।</s>
<s>[INST]आज़ादी के 70 सालों के बाद भी अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति समुदाय जिन समस्याओं से ग्रसित हैं, क्या राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग तथा राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग उनका समाधान करने में असफल रहे हैं? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क प्रस्तुत कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण सर्वप्रथम संक्षेप में परिचय दें। अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग के कार्यों को संक्षेप में बताएँ। अनुसूचित जाति एवं जनजाति समुदाय द्वारा सामना की जाने वाली समस्याओं का उल्लेख करते हुए उपर्युक्त आयोगों का मूल्यांकन करें। अंत में निष्कर्ष दें। भारत में अनुसूचित जाति एवं जनजाति समुदाय सदियों से उपेक्षित, वंचित एवं शोषित रहा है। अत: इन्हें उत्पीड़न एवं शोषण से बचाने के लिये भारतीय संविधान अन्य प्रावधानों (जैसे-आरक्षण आदि) के अलावा अनुच्छेद 338 के तहत अलग आयोग के गठन की व्यवस्था करता है। अनुसूचित जाति आयोग (अनुच्छेद 338) तथा अनुसूचित जनजाति आयोग (अनुच्छेद 338-क) क्रमश: अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के संदर्भ में निम्नलिखित कार्य करते हैं- इनके हितों का उल्लंघन करने वाले किसी मामले की जाँच पड़ताल एवं सुनवाई करना। इनके सामाजिक-आर्थिक विकास की योजना प्रक्रिया में भाग लेना तथा उन पर सलाह देना। इनके संरक्षणात्मक उपायों के संदर्भ में केंद्र एवं राज्य सरकार द्वारा उठाए गए कदमों की समीक्षा करना तथा इस संदर्भ में आवश्यक सिफारिशों तथा सामाजिक-आर्थिक विकास के अन्य उपायों के बारे में संस्तुति करना। परंतु आज़ादी के सत्तर वर्षों बाद भी अनुसूचित जाति एवं जनजाति समुदाय ऐसी समस्याओं से ग्रसित है, जिसके आधार पर इन आयोगों को असफल माना जाता है, जैसे- दोनों समुदाय अपेक्षाकृत गरीब एवं भूमिहीनता की समस्या से ग्रस्त हैं जिसके कारण उन्हें बंधुआ मज़दूरी या अन्य प्रकार के शोषण का शिकार होना पड़ता है। स्वास्थ्य एवं कुपोषण की समस्या, जो कि आर्थिक पिछड़ेपन एवं असुरक्षित आजीविका के साधनों के कारण और गंभीर हो जाती है। अशिक्षा एवं बेरोज़गारी का उच्च स्तर, यद्यपि समुदाय का एक भाग उच्च शिक्षा ग्रहण कर ऊँचे पदों पर आसीन है, परंतु बहुसंख्यक भाग आज भी अशिक्षित एवं बेरोज़गार है। दलितों के उत्पीड़न की घटनाएँ आज भी होती रहती हैं, कभी ‘ऊना घटना’ के रूप में तो कभी ‘सहारनपुर’ मामले के रूप में। इसके अलावा, जनजाति समुदाय के पहचान का संकट भी गंभीर समस्या के रूप में उभरा है, इसके साथ ही विस्थापन भी एक प्रमुख समस्या है। लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि इन आयोगों की शक्तियाँ सीमित हैं, इनकी प्रकृति केवल सलाहकारी है। यद्यपि इन्हें सिविल न्यायालय की शक्तियाँ प्रदान की गई हैं, लेकिन ये शक्तियाँ उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय के समान नहीं हैं। वस्तुत: अनुसूचित जाति आयोग एवं जनजाति आयोग ने अपने सीमित अधिकार क्षेत्र में इन समुदायों के कल्याण के लिये महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। इनकी समस्याओं को निरतंर संसद के ध्यान में लाया गया तथा सरकार ने भी कई कल्याणकारी कार्यक्रमों एवं कानूनाें का निर्माण किया है। जैसे- अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989। निष्कर्षत: कह सकते हैं कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति समुदाय भले ही आज कई समस्याओं का सामना कर रहे हैं लेकिन इसे अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोगों की असफलता के रूप नहीं देखा जाना चाहिये बल्कि इनके अधिकारों एवं शक्तिओं में वृद्धि करने की ज़रूरत है ताकि वे बेहतर तरीके से कार्य कर सकें।</s>
<s>[INST]‘ठुमरी’ अर्द्ध-शास्त्रीय भारतीय संगीत की एक विशिष्ट शैली है जो आज भी अपनी जीवंतता को अक्षुण्ण रखे हुए है। इस शैली की मौलिक विशेषताओं की चर्चा करते हुए इससे संबंधित प्रमुख कलाकारों का उल्लेख करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • ‘ठुमरी’ का संक्षिप्त परिचय लिखते हुए इसके विशिष्ट अभिलक्षणों को बिंदुवार बताएँ। • इसके प्रमुख कलाकारों का उल्लेख करें। • वर्तमान में ‘ठुमरी’ की जीवंतता का उल्लेख करते हुए निष्कर्ष लिखें। ‘ठुमरी’ भारतीय शास्त्रीय संगीत की एक लोकप्रिय गायन शैली है। इस शैली की उत्पत्ति उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग में हुई थी। इसमें भगवान श्रीकृष्ण और राधा के जीवन के प्रसंगों का वर्णन किया जाता है। यह एक मुक्त गायन शैली है, जिसमें कम-से-कम शब्दों के द्वारा अधिकाधिक अर्थों को संगीत के माध्यम से व्यक्त किया जाता है। ठुमरी गायन शैली की चारित्रिक विशेषताओं को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है- यह अपनी संरचना और प्रस्तुति में अधिक गीतात्मक है। ये प्रेमगीत होते हैं, इसलिये शब्द रचना अति महत्त्वपूर्ण होती है। ठुमरी का गायन एक विशिष्ट मनोदशा में होता है। इसी आधार पर इसे खमाज़, काफी, भैरवी आदि रागों में प्रस्तुत किया जाता है। इसमें संगीतात्मक व्याकरण का सख्ती से पालन नहीं किया जाता है। ठुमरी गायन की दो शैलियाँ हैं- पूरब या बनारस शैली, यह धीमी और सौम्य शैली है और पंजाबी शैली, यह अधिक जीवंत है। रसूलन देवी, सिद्धेश्वरी देवी, गौहर जान, बेगम अख्तर, शोभा गुर्टू, नूरजहाँ और प्रभा आत्रे ठुमरी गायन शैली के प्रमुख कलाकार हैं। अक्तूबर 2017 में ठुमरी की रानी कही जाने वाली गिरिजा देवी का निधन हो गया। गिरिजा देवी ने ठुमरी गायन को देश-विदेश में प्रसिद्धि दिलवाई। गिरिजा देवी को पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्म विभूषण आदि पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। निष्कर्षत: ठुमरी शैली आज भी अपनी जीवंतता का अक्षुण्ण बनाए हुए हैं।</s>
<s>[INST]1967 का आम चुनाव कई मामलों में विशिष्ट था, जिसमें कुछ ऐसी नई प्रवृत्तियों का जन्म हुआ जिन्होंने भारतीय राजनीति पर मूलगामी एवं गहरी छाप छोड़ी। विवेचना करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • 1967 के आम चुनाव के समय भारत की राजनीतिक स्थिति का संक्षिप्त वर्णन करें। • चुनाव उपरांत नवीन प्रवृत्तियों का जन्म की चर्चा करें। • भारतीय राजनीति पर इनका प्रभाव को दर्शाते हुए निष्कर्ष दें। 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्र होने के पश्चात् संघीय ढाँचे के तहत भारत में संसदीय लोकतंत्र की स्थापना हुई। शुरुआती दौर में कॉन्ग्रेस पार्टी का केंद्र एवं राज्य सरकारों पर एकाधिकार रहा, क्योंकि लोग कॉन्ग्रेस को भारतीय स्वतंत्रता का मूल कारक मानते थे। पंरतु 1967 का आम चुनाव जवाहरलाल नेहरू तथा लाल बहादुर शास्त्री जैसे नेताओं की मृत्यु के बाद हो रहा था। कॉन्ग्रेस के भीतर भी सत्ता के लिये आपसी खींच-तान चल रही थी। 1967 का आम-चुनाव ‘नेहरू के बाद कौन’ का भी उत्तर देने जा रहा था। इस चुनाव के उपरांत नई प्रवृत्तियों का जन्म हुआ जिनका भारतीय राजनीति के ऊपर दूरगामी प्रभाव पड़ा, इनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं: 1967 के चुनाव में लोकसभा में कॉन्ग्रेस की सीटों की संख्या घटकर 284 रह गई थी तथा 8 राज्यों में गैर-कॉन्ग्रेसी सरकारों की स्थापना हुई। यह भारतीय राजनीति के ऊपर कॉन्ग्रेस के एकाधिकार के खत्म होने शुरुआत थी। जिन राज्यों में गैर-कॉन्ग्रेसी सरकार की स्थापना हुई थी वहाँ कोई विशेष दल स्पष्ट बहुमत नहीं पा सका था, अत: गठबंधन सरकारों की स्थापना एवं गठबंधन हेतु विपरीत विचारधारा के दल भी साथ आए। सत्ता के लालच में दल-बदल की प्रवृत्ति का जन्म हुआ। विधायकों की स्वामी-भक्ति स्थायी नहीं रही तथा अल्पकालिक सरकारों की स्थापना हुई। 1967-70 के मध्य बिहार में सात तथा उत्तर प्रदेश में चार सरकारों का गठन किया गया। इस पर 1986 के दलबदल निषेध अधिनियम के बाद लगाम लगाई जा सकी। कॉन्ग्रेस के भीतर भी शक्ति का निर्णय इस चुनाव के द्वारा हो गया था। सिंडीकेट गुट के नेता के. कामराज सहित उनके सभी सहयोगी चुनाव हार गए तथा इंदिरा निर्विवाद रूप से कॉन्ग्रेस की नेता के रूप में उभर कर सामने आई। 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया से अलग होकर सीपीएम ने नक्सली आंदोलन की शुरुआत की थी। सीपीएम ने 1967 के चुनावों में हिस्सा लिया तथा पश्चिम बंगाल में गठबंधन सरकार की स्थापना की। सीपीएम ने अपने बागी नेताओं के विरोध के दमन के लिये सरकारी मशीनरी का उपयोग किया परंतु यह नक्सली आंदोलन अन्य राज्यों में भी पैल गया, जो आज भी एक बड़ी समस्या है। 1967 के आम चुनाव में 61% वोटिंग हुई थी जो कि अब तक सर्वाधिक थी। 1962 में चीन तथा 1965 में पाकिस्तान के साथ युद्ध, खाद्यान्न संकट तथा नेहरू जैसे सर्वमान्य नेता की मृत्यु आदि बड़ी समस्याओं से जूझने के बावजूद भारत में लोकतंत्रात्मक प्रणाली अक्षुण्ण रही। यद्यपि कॉन्ग्रेस का प्रभुत्व कम हुआ था परंतु कमज़ोर विपक्ष के कारण अब भी यह सर्वाधिक प्रभावशाली पार्टी थी तथा ‘नेहरू के बाद कौन’ का उत्तर इंदिरा गांधी के रूप में मिल चुका था।</s>
<s>[INST]बीसवीं सदी का अंतिम दशक भारतीय सामाजिक-आर्थिक जीवन का एक महाप्रस्थान सिद्ध हुआ, जिसमें वैश्विक चुनौतियों एवं संभावनाओं के सांचे पर सरकार की नीतियों एवं कार्यक्रमों ने आकार ग्रहण किया, जो अपने चारित्रिक लक्षणों में पूर्ववर्ती नीतियों एवं कार्यक्रमों से नितांत भिन्न थे। व्याख्या करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • भारतीय सामाजिक-आर्थिक जीवन पर LPG नीतियों का प्रभाव। • सामाजिक-आर्थिक जीवन में परिवर्तन के संगत सरकारी नीतियों में बदलाव। • पूर्ववर्ती नीतियाें तथा समकालीन नीतियों की तुलना करते हुए निष्कर्ष लिखें। स्वतंत्रता के बाद बाह्य हस्तक्षेपों से स्वयं को मुक्त रखने के लिये भारत ने नियंत्रित आर्थिक नीति अपनाई थी परंतु 20वीं सदी के अंतिम दशक में जब भुगतान का संकट नियंत्रण से बाहर हो गया तो सरकार ने आर्थिक सुधारों की एक शृंखला की शुरुआत की जिसे उदारीकरण, निजीकरण तथा वैश्वीकरण (LPG) के नाम से जाना जाता है। इन सुधारों का भारतीय सामाजिक-आर्थिक जीवन पर निम्नलिखित प्रभाव हुआ- भारतीय अर्थव्यवस्था में निर्यात में वृद्धि हुई तथा चालू खाता घाटा कम हो गया, साथ ही विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि हुई, फलस्वरूप भारत में भुगतान की समस्या खत्म हुई। सरकारी नियंत्रण में कमी तथा लाइसेंस राज की समाप्ति के पश्चात् भारत में व्यापार करना आसान हुआ तथा नए रोज़गारों का सृजन हुआ। प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन से भारत में उपभोक्तावाद का प्रसार हुआ। कंपनियों के कुछ विशेष-क्षेत्रों में केंद्रित होने के कारण क्षेत्रीय असंतुलन उत्पन्न हुआ तथा प्रव्रजन में वृद्धि हुई। शिक्षा में निजीकरण के पश्चात् उच्च एवं तकनीकी शिक्षा का विस्तार हुआ परंतु गुणवत्ता एवं रोज़गार योग्यता में अपेक्षित वृद्धि नहीं हुई। संयुक्त परिवार जैसी संस्था कमज़ोर हुई तथा एकल परिवार का प्रचलन बढ़ा। देर से विवाह, तलाक जैसे मामलों में वृद्धि हुई तथा वृद्धाश्रमों की संख्या में भी इजाफा हुआ। भारतीय अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्द्धा में वृद्धि हुई तथा उपभोक्ताओं को अधिक विकल्प मिले। भारत के समक्ष नई वैश्विक चुनौतियाँ तथा संभावनाएँ उभरकर आईं जिसके अनुसार सरकार ने अपनी नीतियों में कई आवश्यक बदलाव भी किये: सरकार ने 1991 में नई आर्थिक नीति की घोषणा की एवं अप्रगतिशील कानूनों को खत्म किया। भारत में निवेश को नियंत्रित करने के लिये सेबी (SEBI), FIPB जैसी संस्थाओं का गठन हुआ ताकि निवेश की अस्थिरता से निपटा जा सके। वैश्विक चुनौतियों एवं संभावनाओं के आलोक में द्वितीय पीढ़ी के सुधार लागू किये गए। प्रदूषण तथा जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक समस्या से निपटने के लिये भारत सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय संधियों के सापेक्ष घरेलू नीतियों को लागू किया है। इसी संदर्भ में जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना अपनाई गई। अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार श्रम कानून लागू किये गए। महिलाओं के अधिकारों तथा अवसरों में वृद्धि करने हेतु विभिन्न स्तर पर महिलाओं को आरक्षण प्रदान किया गया । विकास की क्षेत्रीय विसंगतियाँ दूर करने के लिये गैर-विकसित क्षेत्रों में उद्योग स्थापित करने हेतु प्रोत्साहन दिया गया। जन-जन तक स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच सुनिश्चित करने के लिये राष्ट्रीय स्वास्थ्य अभियान की शुरुआत की गई। वैश्वीकरण के उपरांत भारत में आर्थिक तथा साइबर अपराधों में भी वृद्धि हुई, जिसके लिये भारत ने कार्यबल का गठन किया, साथ ही अंतर्राष्ट्रीय सहयोग पर भी ध्यान दिया। वैश्वीकरण ने भारत के समक्ष नए अवसर भी प्रस्तुत किये हैं, भारत आई.टी. सेवाओं का सर्वप्रमुख निर्यातक देश है। निर्यात को प्रोत्साहन देने के लिये भारत में कई नीतियों को लागू किया गया है। जैसे- विशेष आर्थिक क्षेत्रों का गठन, मेक इन इंडिया जैसे कायक्रमों को लागू करना तथा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की प्रक्रिया का सरलीकरण। वित्तीय क्षमता दुरुस्त रखने के लिये भारत ने FRBM अधिनियम लागू किया है तथा बेसेल प्रतिमान का पालन किया है। अन्य क्षेत्रों में भी आवश्यक पहल की गई है ताकि भारत में सामाजिक-आर्थिक गतिविधियाँ सुचारु रूप से चलें। भारत के सुधाराें की राह कठिन थी परंतु भारत ने अवसरों को भुनाया तथा चुनौतियों का बेहतर प्रबंधन किया। भारत जनसांख्यिकीय लाभांश को भुनाकर स्वयं को विश्व की श्रम-शक्ति की राजधानी के रूप में विकसित करने को प्रयासरत है। यद्यपि समाज पर कुछ नकारात्मक प्रभाव पड़े हैं परंतु भारतीय समाज एक न्यायसंगत समाज बनने की ओर अग्रसर हुआ है।</s>
<s>[INST]राष्ट्रीय आंदोलन की तपिश में भी भारत-जापान संबंधों में एक निरंतरता बनी रही जिसे जवाहरलाल नेहरू के काल में एक नई स्पूर्ति प्राप्त हुई। विवेचन करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • एक संक्षिप्त भूमिका लिखें। • स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारत-जापान संबंधों का उल्लेख करें। • जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में इन संबंधों में आई प्रगाढ़ता को बताते हुए तार्किक निष्कर्ष लिखें। भारत और जापान के संबंध ऐतिहासिक काल से ही मज़बूत रहे हैं, जिसमें सांस्कृतिक संबंधों विशेषकर बौद्ध धर्म ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। ये संबंध राष्ट्रीय आंदोलन से लेकर वर्तमान में ‘जापानी-भारतीय भाईचारा’ तक विस्तृत हो गए हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारत-जापान संबंध: 20वीं सदी के प्रारंभ में जब जापान एक शक्ति के रूप में उभरा तो इसके सकारात्मक प्रभाव देखे गए और इसे एशिया के पुनरुत्थान के रूप में देखा गया। अनेक महत्त्वपूर्ण भारतीयों जैसे- सुरेशचंद्र बन्दोपाध्याय, मन्मथ नाथ घोष ने जापान की यात्रा की और वहाँ के अनुभवों को भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में प्रयोग किया। यद्यपि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन और जापान विरोधी थे किंतु जापान ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में विशेषकर आज़ाद हिन्द फौज के माध्यम से सहयोग प्रदान करने का प्रयास किया। इसके परिणामस्वरूप भारत-जापान संबंधों को बढ़ावा मिला। स्वतंत्रता के पश्चात् जहाँ भारत अनेक समस्याओं से पीड़ित था, वहीं जापान की स्थिति भी द्वितीय विश्व युद्ध के कारण कामोबेश समान थी। ऐसी स्थिति में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संबंधों को प्रगाढ़ करने के लिये विशेष प्रयास किये। भारत और जापान के मध्य आधुनिक संबंधों की शुरुआत भारतीय जज द्वारा सुदूर-पूर्व अंतर्राष्ट्रीय सैन्य न्यायाधिकरण में जापान के पक्ष में फैसला दिये जाने के कारण हुई। भारत ने 1951 में जापान की संप्रभुता और राष्ट्रीय स्वतंत्रता को सीमित किये जाने के प्रयासों के कारण सैन-फ्रांसिस्को शांति सम्मेलन में भाग लेने से इनकार कर दिया था। जापान की संप्रभुता बहाली के बाद भारत और जापान ने 1952 में राजनयिक संबंध स्थापित किये। इसके बाद 1957 में जापानी प्रधानमंत्री ने भारत की यात्रा की। इन्हीं मज़बूत संबंधों का परिणाम था कि जापान ने भारत के विकास को बढ़ावा देने के लिये येन ऋण प्रदान किया। यद्यपि शीत-युद्ध के दौरान जापान, अमेरिकी गठबंधन में शामिल था किंतु भारत ने ‘गुटनिरपेक्ष की नीति’ को स्वीकार किया। इसके बावजूद भारत और जापान संबंध लगातार मज़बूत होते गए। इसे जवाहरलाल नेहरू की कूटनीतिक सफलता ही माना जाएगा। निष्कर्षत: कह सकते हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान स्थापित हुए संबंध वर्तमान में सैन्य एवं समुद्री सुरक्षा, सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक, असैन्य परमाणु समझौता तक विस्तारित हो गए हैं। वर्तमान में क्षेत्रीय और वैश्विक शांति की स्थापना तथा शक्ति संतुलन के लिये भारत-जापान संबंधों का बेहतर होना आवश्यक है जिसके लिये निरंतर प्रयास किया जाना आवश्यक है।</s>
<s>[INST]मैकडोनाल्ड अवॉर्ड सरकार द्वारा सांप्रदायिक एवं संवैधानिक मुद्दों के समाधान की दिशा में एक गंभीर किंतु दूषित पहल थी, जिसने अपने अंतर्निहित दोषों के कारण परस्पर विरोधी हितों के मध्य खाई को और अधिक चौड़ा कर दिया। परीक्षण कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • मैकडोनाल्ड अवार्ड के प्रावधानों का संक्षिप्त परिचय देते हुए उत्तर प्रारंभ करें। • अवार्ड के नकारात्मक पक्ष का उल्लेख करें। • परस्पर विरोधी हितों में टकराव एवं इसके परिणाम की चर्चा करते हुए निष्कर्ष लिखें। गोलमेज सम्मेलन के पश्चात् ब्रिटिश शासन ने भारतीय राजनीतिक और सामाजिक स्थिति को सुधारने के लिये प्रयास किये। इन्हीं प्रयासों का परिणाम मैकडोनाल्ड घोषणा या सांप्रदायिक पंचाट था। इसके प्रावधान निम्नलिखित हैं: प्रांतीय व्यवस्थापिकाओं की सदस्य संख्या बढ़ाकर दुगुनी कर दी गई। अल्पसंख्यकों के लिये अलग निर्वाचन की व्यवस्था की गई। स्त्रियों के लिये भी कुछ स्थान आरक्षित किये गए। दलितों के लिये पृथक निर्वाचन और प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया गया। सरकार ने इस घोषणा के द्वारा दलितों की स्थिति को राजनीतिक प्रतिनिधित्व प्रदान करके सुधारने का प्रयास किया, किंतु इसने राष्ट्रवाद पर गहरा आघात किया। जैसे- इस निर्णय की योजना ही ऐसी बनाई गई थी कि प्रांतों में वास्तविक उत्तरदायी शासन का विकास न हो सके। केंद्रीय व्यवस्थापिका के संगठन में कोई परिवर्तन नहीं किया गया। यह निर्णय पक्षपात पर आधारित था क्योंकि इसमें यूरोपियनों और मुसलमानों को विशेष रियायतें दी गई थीं। अस्पृश्यों के लिये अलग निर्वाचन की व्यवस्था के द्वारा हिंदुओं में पूट डालने का प्रयास किया गया। इस निर्णय से मुस्लिम संाप्रदायिकता को बढ़ावा मिला। इस प्रकार मैक्डोनाल्ड अवार्ड ने हिंदू-मुस्लिम हितों में टकराहट तो उत्पन्न की ही, साथ ही हिन्दुओं में भी सवर्णों और अस्पृश्यों के मध्य हितों के टकराव को जन्म दिया। इसे निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है: मुस्लिम लीग ने मुस्लिमों के लिये अधिक सहूलियतें मांगना प्रारंभ कर दिया। हिंदुओं में अस्पृश्य वर्ग भी अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिये लालायित हो गया। इससे हिंदू समाज में भी हितों का टकराव बढ़ गया। इस प्रकार निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि मैकडोनाल्ड अवॉर्ड के द्वारा ब्रिटिश सत्ता ने दलितों की स्थिति में सुधार हेतु प्रयास किया था किंतु इसके नकारात्मक प्रभाव भारतीय राष्ट्रवाद पर गंभीर रूप से पड़े। इसने भारतीय समाज की विविधता में परस्पर विरोधी हितों के मध्य खाई को अधिक गहरा ही किया।</s>
<s>[INST]वायसराय लिटन की अफगान नीति नैतिक एवं सांप्रदायिक दोनों दृष्टिकोणों से निंदनीय थी तथा वह साम्राज्यवादी प्रधानमंत्री बेंजामिन डिज़रायली के हाथों की कठपुतली मात्र था। आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • वायसराय लिटन की अफगान नीति का संक्षिप्त परिचय लिखें। • इस नीति की नैतिक एवं सांप्रदायिक दृष्टिकोण से आलोचना लिखें। • स्पष्ट करें कि क्या प्रधानमंत्री बेंजामिन डिज़रायली वायसराय लिटन को नियंत्रित करते थे। • निष्कर्ष लिखें। लॉर्ड लिटन की अफगान नीति के अंतर्गत अफगानिस्तान के साथ एक अधिक, निश्चित, समानांतर और व्यावहारिक संधि करने का उद्देश्य समाहित था। लिटन तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री बेंजामिन डिज़रायली की रूढ़िवादी सरकार का मनोनीत सदस्य था। लिटन को भारत में निश्चित आदेश देकर भेजा गया था कि वह अफगानिस्तान के साथ गौरवपूर्ण पार्थक्य, वैज्ञानिक सीमाएँ और प्रभाव क्षेत्रों का निर्माण करे। साथ ही, एशिया और यूरोप में रूस की बढ़ती शक्ति को राकने का प्रयास करे। किंतु लिटन की अफगान नीति की सभी लोगों ने नैतिक तथा राजनैतिक कारणों से निंदा की। इसे निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है: लिटन को अफगानी समाज, राजनीति, संस्कृति आदि का लेशमात्र भी ज्ञान नहीं था। उसने इतिहास से शिक्षा प्राप्त नहीं की थी। काबुल में एक स्थायी अंग्रेज़ी दूत रखना अव्यवहारिक था और इसका परिणाम युद्ध ही था। लिटन की अफगान नीति के केवल दो ही परिणाम संभव थे। या तो अफगानिस्तान के टुकड़े हो जाएँ या काबुल की विदेश नीति अंग्रेज़ों के अधीन हो जाए। किंतु इसका अनिवार्य परिणाम युद्ध ही था। कुछ इतिहासकारों का मत है कि लिटन ने रूस के भय को अकारण ही गंभीर समझ लिया। इस प्रकार उपर्युक्त बिंदुओं के आधार पर लिटन की अफगान नीति की आलोचना की जाती थी। कुछ का यह विचार भी है कि लिटन साम्राज्यवादी प्रधानमंत्री बेंजामिन डिज़रायली के हाथों की कठपुतली था, क्योंकि डिज़रायली की सरकार ने ही उसे मनोनीत किया था। डिज़रायली के रूढ़िवादी एवं सांप्रदायिक दृष्टिकोण से वह पूरी तरह आच्छादित था। किंतु यह कहना उचित प्रतीत नहीं होता है क्योंकि डिज़रायली ने स्वयं अनेक अवसरों पर लिटन की आलोचना की थी और कुशल अकर्मण्यता की नीति को अस्वीकार किया। परंतु लिटन ने स्वयं स्थिति को बिगाड़ दिया। निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि लिटन की अफगान नीति अव्यवहारिक, दंभपूर्ण और अदूरदर्शी थी। यद्यपि डिज़रायली ने लिटन को वायसराय नियुक्त किया था, तथापि लिटन ने डिज़रायली की नीति का शब्दश: पालन नहीं किया था।</s>
<s>[INST]भारतीय राष्ट्रवाद की जो धारा असहयोग एवं खिलाफत आंदोलनों से निकली थी, वह नेहरू रिपोर्ट पर सर्वसहमति के अभाव में सतत् नहीं रह सकी। नेहरू रिपोर्ट की अनुशंसाओं के आधार पर कथन की विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • असहयोग और खिलाफत आंदोलनों से भारतीय राष्ट्रवाद पर पड़े प्रभाव की चर्चा से उत्तर प्रारंभ करें। • नेहरू रिपोर्ट की चर्चा करते हुए इसकी असफलता के कारण लिखें। • नेहरू रिपोर्ट की असफलता से भारतीय राष्ट्रवाद पर पड़े प्रभावाें की चर्चा करते हुए निष्कर्ष लिखें। असहयोग और खिलाफत आंदोलन भारतीय राष्ट्रवाद की यात्रा में महत्त्वपूर्ण चरण हैं। इनके परिणामस्वरूप भारतीय राष्ट्रवाद के चरित्र में बदलाव आया और इसके प्रसार तथा पहुँच का क्षेत्र विस्तृत हुआ। असहयोग आंदोलन के कारण राष्ट्रवाद की भावना महिलाओं, बच्चों, युवाओं, कृषकों आदि तक पहुँची। अभी तक जो भावना उच्च वर्ग या शहरों तक ही सीमित थी, वह अब ग्रामीण क्षेत्रों में भी विस्तृत हुई। वहीं, खिलाफत आंदोलन के परिणामस्वरूप हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रदर्शन हुआ। किंतु राष्ट्रवाद की यह धारा 20वीं शताब्दी के तीसरे दशक के अंत तक छिन्न-भिन्न हो गई। नेहरू रिपोर्ट की असफलता ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई। नेहरू रिपोर्ट में अनेक सिफारिशें की गईं। जैसे- डोमिनियन स्टेट्स का दर्जा देना। अधिकारों की एक ऐसी घोषणा की जाए, जिसमें भारत के सभी नागरिकों के लिये धार्मिक और राजनीतिक स्वतंत्रता का आश्वासन हो। सिंध और उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत, जहाँ मुसलमान बहुसंख्यक हैं, को नए प्रांत बना दिया जाए। इसमें सांप्रदायिक आधार पर अलग निर्वाचक मंडल की मांग को अस्वीकार किया गया था। इसमें सिफारिश की गई कि केवल अल्पमत वाले स्थानों पर ही मुस्लिम वर्ग के लिये स्थान आरक्षित होंगे न कि बहुमत वाले स्थानों पर भी। धर्म का हर प्रकार से राज्य से पृथक्करण। यद्यपि ये प्रगतिशील मांगें थीं किंतु मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम वर्ग ने आरक्षित स्थानों की मांग को नहीं छोड़ा और जिन्ना ने ‘चौदह सूत्री’ मांग पेश की जिसके कारण असहयोग आंदोलन और खिलाफत आंदोलन में स्थापित हुई। हिन्दू-मुस्लिम एकता ने सांप्रदायिक स्वरूप धारण कर लिया। इसके अतिरिक्त असहयोग और खिलाफत आंदोलन के दौरान अहिंसक और उचित तरीकों से स्वराज की मांग का लक्ष्य निर्धारित किया गया किंतु इसमें डोमिनियन स्टेट्स की मांग ने कॉन्ग्रेस के भीतर ही आक्रोश पैदा कर दिया। निष्कर्षत: कह सकते हैं कि ऐसा प्रस्ताव जिसको सभी भारतीयों का व्यापक राजनीतिक समर्थन प्राप्त हो, को तैयार करने के लिये नेहरू रिपोर्ट के रूप में किया गया प्रयास असफल रहा। यद्यपि यह रिपोर्ट स्वयं में प्रगतिशील विचारों (वयस्क मताधिकार, लैंगिक समता, धर्मनिरपेक्षता) को समाहित किये हुए थी किंतु तत्कालीन परिस्थितियों ने इसे असफल बना दिया। इसके परिणामस्वरूप उपजी सांप्रदायिकता अंतत: विकृत रूप धारण कर भारत के विभाजन के रूप में परिलक्षित हुई।</s>
<s>[INST]पश्चिम और दक्षिण भारत में धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आंदोलनों का प्रसार तथा उनका स्वरूप उत्तर भारत से काफी हद तक भिन्नता दर्शाता है। कथन की सकारण विवचेना करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आंदोलनों का सामान्य परिचय लिखते हुए उत्तर प्रारंभ करें। • उत्तर भारत में इसका प्रसार एवं स्वरूप बताएँ। • पश्चिम एवं दक्षिण भारत में प्रसार एवं स्वरूप बताते हुए निष्कर्ष दें। 19वीं शताब्दी के धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलनों का भारतीय इतिहास में विशेष स्थान है। यह आंदोलन बहुमुखी स्वरूप और व्यापकता लिये हुए था, इसी कारण इसने देश में व्याप्त तत्कालीन जड़ता को समाप्त करने और आम जन-जीवन को बदलने का प्रयास किया। इसके पथ प्रदर्शकों ने जहाँ एक ओर धार्मिक एवं सामाजिक सुधाराें का आह्वान किया, वहीं दूसरी ओर, इसने भारत के अतीत को उजागर करके भारतवासियों के मन में आत्मसम्मान एवं आत्मगौरव जगाने का प्रयास किया। इन आंदोलनों के पीछे दो शक्तियाँ कार्य कर रही थीं; प्रथम, अंग्रेज़ी शिक्षा और संस्कृति के प्रभाव से अवतरित हुई थी तो दूसरी, ईसाई मिशनरियों के कार्यों के विरुद्ध तीखी प्रतिक्रिया के रूप में हिंदुओं में उत्पन्न हुई। 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में ही इनका आविर्भाव हो चुका था, जो शताब्दी के अंत होते-होते संपूर्ण भारत (पश्चिम एवं दक्षिण) में पैल गया। किंतु उत्तर भारत के सुधार आंदोलन दक्षिण या पश्चिम भारत की तुलना में काफी भिन्नता लिये हुए था। इसे निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है। उत्तर भारत में धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आंदोलनों का प्रसार एवं स्वरूप: उत्तर एवं पूर्वी भारत में सुधारकों ने किताबी आदर्शवाद को यथार्थ बनाने का प्रयास किया (यंग बंगाल आंदोलन)। इनके आदर्श और सामाजिक यथार्थता में कोई मेल नहीं था। बंगाल में सुधारकों ने अंग्रेज़ी भाषा को प्रधानता दी न कि स्थानीय भाषा को। दक्षिण के विपरीत बंगाल में कुशल नेतृत्व उपलब्ध था। इस कारण इस क्षेत्र के सुधार आंदोलन सतत् एवं दूरगामी थे। पश्चिम एवं दक्षिण भारत में प्रसार एवं स्वरूप: पश्चिम भारत में बंगाल की तुलना में सुधारक अधिक व्यावहारिक और यथार्थवादी थे। पश्चिम भारत में सुधारकों ने देशी भाषाओं का प्रयोग किया जिस कारण यह अधिक लोकप्रिय हुआ एवं जनता के निकट पहुँचा। दक्षिण भारत में बंगाल के विपरीत आधुनिक शिक्षा की गति धीमी थी। दक्षिण भारत में ब्राह्मण ही प्रमुख उच्च पदों पर आसीन थे। ऐसे में वे सामाजिक ढाँचे में परिवर्तन लाकर स्वयं की सर्वोच्चता को क्षीण नहीं करना चाहते थे।</s>
<s>[INST]कई महत्त्वपूर्ण मोर्चों पर असफल रहनेे के बावजूद स्थायी बंदोबस्त एक प्रगतिशील व्यवस्था थी। टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • स्थायी बंदोबस्त का संक्षिप्त परिचय लिखते हुए उत्तर प्रारंभ करें। • स्थायी बंदोबस्त व्यवस्था के नकारात्मक पक्ष लिखें। • इस व्यवस्था के सकारात्मक पक्ष को बताते हुए निष्कर्ष लिखें। भारत में ब्रिटिश राज के सफल होने के पीछे उनके द्वारा लागू की गई भू-राजस्व नीतियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। स्थायी रूप से राजस्व की प्राप्ति और भू-स्वामियों का निष्ठावान वर्ग आदि कारकों ने ही ब्रिटिश सत्ता को सुदृढ़ किया। स्थायी बंदोबस्त या इस्तमरारी व्यवस्था इन भू-राजस्व नीतियों में सबसे महत्त्वपूर्ण थी। यह एक दीर्घकालिक (सामान्यत: 10 वर्ष) व्यवस्था थी। इसमें लगान की दर ज़मींदारों और उनके उत्तराधिकारियों के लिये निश्चित कर दी गई, जो भविष्य में बदली नहीं जा सकती थी। ज़मीदारों को भूमि का स्वामी स्वीकार कर लिया गया और कृषक अब केवल किरायेदार मात्र रह गए। स्थायी बंदोबस्त का शासन तथा जनता पर नकारात्मक और सकारात्मक दोनों प्रभाव पड़े। इन्हें निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है: नकारात्मक प्रभाव: शासन पर: भू-राजस्व स्थायी होने से कंपनी को अधिक उत्पादन की स्थिति में भी निश्चित राजस्व ही प्राप्त होता था और अतिरिक्त आय को भू-स्वामी या बिचौलिये हड़प कर जाते थे। कालांतर में यह स्थिति और भी विकराल हो गई। जब समय के साथ उत्पादन और वसूली तो बढ़ी किंतु कंपनी को इस बढ़े हुए उत्पादन का कोई लाभ नहीं प्राप्त हुआ। जनता पर: बहुत अधिक लगान एवं उसे निर्धारित समय पर न चुकाए जाने के कारण पुराने ज़मींदार भूमि से वंचित किये जाने लगे और किसान कर्ज़ में डूब गए। बिचौलियों का भूमि संबंधी मामलों में प्रवेश हुआ, जिससे उपसामंतीकरण बढ़ा तथा उनके द्वारा कृषकों का शोषण बढ़ता गया। अधिकांश ज़मींदार प्रवासी थे, जो दूरवर्ती शोषणकर्त्ता बन गए। यद्यपि स्थायी बंदोबस्त या इस्तमरारी व्यवस्था के ब्रिटिश शासन एवं आम जनता पर नकरात्मक प्रभाव पड़े, तथापि इसके कुछ सकारात्मक पक्ष भी थे। जैसे- वित्तीय दृष्टि से इसका प्रमुख लाभ यह था कि न्यून उत्पादन की दशा में भी कंपनी की आय घटती नहीं थी। इससे बचत की संभावना बढ़ी। स्थायी प्रबंध हो जाने पर इस व्यवस्था में लगे हुए सरकारी कर्मचारियों की कुछ संख्या शासन संबंधी अन्य कार्यों को करने के लिये मुक्त हो गई। कृषकों के लिये ऐसा माना गया कि इससे उत्पादन बढ़ेगा और अधिकाधिक भूमि जोती जाएगी। ज़मींदारों को कृषि क्षेत्र में नए प्रयोग, उर्वरक का इस्तेमाल तथा फसल बदलने के तरीकों को अपनाने का मौका मिलेगा। निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि स्थायी बंदोबस्त के जहाँ कुछ नकारात्मक पक्ष थे तो वहीं कुछ सकारात्मक पक्ष भी थे। फिर भी सामान्यत: यह व्यवस्था कंपनी हितैषी और कृषक विरोधी थी। इसने कृषकों के शोषण को बढ़ावा दिया। इस व्यवस्था से बंगाल के कृषकों की स्थिति खराब होती गई और स्थायी बंदोबस्त कृषकों के शोषण का साधन बन गया।</s>
<s>[INST]अंग्रेज़ों ने जिस प्रक्रिया से भारत को उपनिवेश में बदलकर उसका शोषण किया, उसी प्रक्रिया ने उन कारणों को भी जन्म दिया जो उस सत्ता के विरुद्ध शुरू हुए विभिन्न जन-विद्रोहों के पीछे निहित थे। विवेचना करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • भारतीय उपनिवेश की स्थापना हेतु अंग्रेज़ों की नीति का उल्लेख करते हुए उत्तर प्रारंभ करें। • स्पष्ट करें कि यही नीति किस प्रकार जन-विद्रोहों के लिये भी उत्तरदायी थी? साथ ही निष्कर्ष लिखें। भारतीय उपनिवेश से प्राप्त संसाधनों से अंग्रेज़ी साम्राज्य के अन्य उपनिवेशों को नियंत्रित करना आसान हो गया था। भारतीय उपनिवेश को प्राप्त करने एवं इसे बनाए रखने के लिये अंग्रेज़ों ने अनेक आर्थिक, प्रशासनिक, राजनीतिक और सामाजिक-धार्मिक नीतियों की सहायता ली। किंतु यही कारक कालांतर में अनेक जन-विद्रोहों का कारण भी बने। इन कारकों को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है: ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय समाज में अनेक सामाजिक और धार्मिक परिवर्तन हुए। अंग्रेज़ी को सरकारी भाषा बनाने के कारण फारसी और संस्कृत के ज्ञाता नौकरियों से हाथ धो बैठे। इसके अतिरिक्त, अंग्रेज़ों ने समाज की धार्मिक मान्यताओं पर भी चोट की। अंग्रेज़ों ने अपनी सत्ता को सशक्त करने के लिये एक ऐसी प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना की जो सेना और पुलिस, राजस्व विभाग, नौकरशाही एवं न्यायिक प्रणाली पर आधारित थी। इससे ब्रिटिश शासन की भारतीय उपनिवेश पर पकड़ मज़बूत हुई। अंग्रेज़ों ने भारतीय उपनिवेश पर अपने पैर जमाने के लिये एक सशक्त आर्थिक नीति को अपनाया जिसके तहत भू-राजस्व नीति, कृषि का वाणिज्यीकरण, अनौद्योगिकरण, रेलवे का विकास, आयात-निर्यात नीति आदि को स्वरूप प्रदान किया गया। इसी के तहत उन्होंने स्थानीय कृषकों से राजस्व वसूलना प्रारंभ किया। स्थानीय स्तर पर वसूल किये गए राजस्व से ही अंग्रेज़ों ने अपनी प्रशासनिक व्यवस्था को सुदृढ़ किया। उन्होंने ईसाई मिशनरियों को धर्मांतरण के लिये प्रेरित किया एवं आंग्ल शिक्षा पद्धति को अपनाया। इस प्रकार प्रशासनिक, आर्थिक और सामाजिक कारकों में परिवर्तन करके अंग्रेज़ों ने भारत को उपनिवेश में बदल दिया और उसका शोषण किया। किंतु कालांतर में इसी प्रक्रिया ने विभिन्न जन-विद्रोहों को भी जन्म दिया। जैसे- विभिन्न भू-राजस्व नीतियों एवं आदिवासी क्षेत्रों में हस्तक्षेप के कारण कृषकों एवं आदिवासियों का आर्थिक शोषण किया गया। जिसके परिणास्वरूप कृषकों एवं आदिवासियों ने विद्रोह कर दिया। नव स्थापित न्याय, नौकरशाही और राजस्व व्यवस्था को स्थानीय लोग समझ नहीं पाते थे। वहीं, अंग्रेज़ न्यायाधीश भी स्थानीय समस्याओं को नहीं समझ पाते थे, फलस्वरूप तनाव की स्थिति उत्पन्न हुई जो अंतत: जन-विद्रोहों में परिणत हुई। ब्रिटिश शासकों ने स्थानीय धार्मिक मान्यताओं, रूढ़ियों एवं परंपराओं को परिवर्तित करने का प्रयास किया। शोषकों ने शोषितों के धार्मिक स्थलों को भी क्षति पहुँचाईं परिणामस्वरूप तनाव की स्थिति में विरोध करने वाले व्यक्तियों ने प्रचलित धार्मिक मान्यताओं का प्रयोग किया। इस प्रकार निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जिन सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और प्रशासनिक व्यवस्थाओं में परिवर्तन करके अंग्रेज़ों ने भारत को उपनिवेश में बदला, उन्हीं के चलते उन कारणों का भी जन्म हुआ, जो ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध हुए विभिन्न जन-विद्रोहों के पीछे निहित थे।</s>
<s>[INST]प्रथम विश्व युद्ध के उपरांत सामाजिक संरचना में मौलिक परिवर्तन दर्ज किये गए, जिनमें कला एवं साहित्य के क्षेत्र में हुए परिवर्तन उल्लेखनीय थे। स्पष्ट करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् हुए सामाजिक परिवर्तनों का संक्षिप्त परिचय दें। • कला और साहित्य के क्षेत्र में हुए परिवर्तनों का विशेष उल्लेख करते हुए निष्कर्ष लिखें। प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम इतने व्यापक और प्रभावकारी थे कि इनके साथ ही एक युग का अंत हो गया। विश्व युद्ध के पश्चात् 19वीं शताब्दी की अनेक प्रवृत्तियाँ पुरानी पड़ गईं और मानव समाज उनसे आगे निकल गया था। राष्ट्रीयता की भावना क्षीण होने लगी थी और नवीन विचारधाराएँ सामाजिक संगठन को एक नए रूप में बांध रही थी। परिणामस्वरूप सामाजिक संरचना में मौलिक परिवर्तन दर्ज किये गए। इन मौलिक परिवर्तनों को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है- प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् विदेशों में रह रहे अल्पसंख्यकों की समस्या के समाधान का प्रयत्न किया गया। स्त्रियाँ कार्यालयों, कारखानों आदि में काम करने लगीं, जिससे उनकी स्थिति में सुधार हुआ। नस्लों की समानता की भावना उत्कृष्ट हुई। इस विचार द्वारा विश्व में अंतर्राष्ट्रीयता की भावना को बल मिला। धार्मिक सर्वोच्चता का स्थान राष्ट्रीय सर्वोच्चता ने ले लिया। विज्ञान के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण उन्नति दर्ज़ की गई। साथ ही शिक्षा के प्रसार ने समाज को तार्किक बनाया। सामाजिक संरचना में उपर्युक्त परिवर्तनाें के साथ कला और साहित्य के क्षेत्र में भी अद्वितीय परिवर्तन हुए। ये परिवर्तन निम्नलिखित है: कला के क्षेत्र में: संगीत के क्षेत्र में एडवर्ड मैकडोनल, रिचर्ड स्ट्रास, जासिकाल्यूज़ आदि संगीतकारों ने संगीत को नई दिशा दी। वास्तुशिल्प का विकास इस काल की प्रमुख घटना है। अमेरिका, इंग्लैंड आदि स्थानों पर बने चर्च आधुनिकता का एहसास करवाते हैं। चित्रकला को पाब्लो पिकासो, आनरे मातेस, ग्रांड वुड और जॉर्ज बिलोज आदि ख्याति प्राप्त कलाकारों ने आगे बढ़ाया। साहित्य के क्षेत्र में: इस काल का साहित्य 18वीं एवं 19वीं शताब्दी के साहित्य से भिन्न हो गया। साहित्य की विषय-वस्तु उच्च और धनी मध्यम वर्ग के स्थान पर निम्न वर्ग हो गया। ख्याति प्राप्त नाटककार जॉर्ज बनार्ड शॉ और ओ नील के नाम भी साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय हैं। निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि प्रथम विश्व युद्ध के नकारात्मक परिणामों के साथ सामाजिक परिवर्तन के सकारात्मक पक्ष ने आने वाली पीढ़ियों को महत्त्वपूर्ण रूप से बदला। इस सकारात्मक पक्ष में कला और साहित्य में हुए परिवर्तन विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।</s>
<s>[INST]इटली एवं जर्मनी में फासिस्ट शक्तियों का उदय तत्कालीन परिस्थितियों की एक अपरिहार्य परिणति थी। विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • फासीवाद का संक्षिप्त परिचय देते हुए उत्तर प्रारंभ करें। • फासीवाद के उदय की समकालीन परिस्थितियों का उल्लेख करें। • निष्कर्ष। फासीवाद एक राजनीतिक विचारधारा है जिसका उदय मुसोलिनी द्वारा इटली को प्राचीन रोमन साम्राज्य की तरह पुन: महान बनाने की भूख के साथ हुआ। फासीवाद मुख्यत: अतिराष्ट्रवाद पर आधारित है, जिसका ध्यान लोगों को नियंत्रित करने के लिये सैन्य शक्ति के प्रयोग पर केंद्रित है। यह सैन्य आदर्शों पर आधारित है जिसमें साहस, आज्ञाकारिता, अनुशासन और शारीरिक दक्षता सम्मलित है। 1919 के पश्चात् इटली एवं जर्मनी में फासीवाद एवं नाजीवाद के उदय के अनेक कारणों को इंगित किया जा सकता है। जैसे- मुसोलिनी की व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाएँ एवं उसका करिश्माई व्यक्तित्व, पेरिस शांति वार्ता में दोनों देशों की माँंगों का सही प्रतिनिधित्व न होना आदि। किंतु समकालीन यूरोपीय एवं इटली-जर्मनी की परिस्थितियों ने फासिस्ट शक्तियों के उदय को संभव बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन परिस्थितियों को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है: प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् इटली की अर्थव्यवस्था लगभग चौपट हो गई थी। महँगाई और बेरोज़गारी की दर उच्च थी। ऐसे में मुसोलिनी के करिश्माई व्यक्तित्व ने उन्हें समस्याओं से बाहर निकलने की आशा दी। प्रथम विश्व युद्ध के समय इटली को मित्र राष्ट्रों ने अपने पक्ष में करने के लिये अनेक वादे किये। किंतु पेरिस शांति सम्मेलन में इटली के साथ अलगावपूर्ण व्यवहार किया गया। इससे इटली स्वयं को ठगा महसूस करने लगा। फलस्वरूप फासिस्ट शक्ति को उत्प्रेरण मिला। इटली निवासियों के असंतोष को दूर करने तथा साम्राज्य प्रसार के उद्देश्य को लेकर मुसोलिनी ने फासिस्ट दल के नेतृत्व में अधिनायकवादी सत्ता की स्थापना की। राष्ट्र संघ की असफलता ने सामूहिक सुरक्षा प्रणाली को ठेस पहुँचाई। मुसोलिनी ने फासिस्ट दल के नेतृत्व में अबिसीनिया पर आक्रमण किया और राष्ट्रसंघ के आदेशों की अवहेलना की। नि:शस्त्रीकरण के प्रयासों की विफलता ने फासिस्ट दल की शस्त्रीकरण की नीति को बढ़ावा दिया। इंग्लैंड और फ्रांस की तुष्टीकरण की नीति ने फासिस्ट शक्ति को नाज़ी शक्ति के साथ आने का अवसर दिया। इस प्रकार निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि इटली एवं जर्मनी में फासिस्ट शक्तियों के उदय के लिये समकालीन यूरोपीय परिस्थितियाँ उत्तरदायी थीं और इन्हीं परिस्थितियों ने फासिस्ट शक्ति के उदय को अपरिहार्य बना दिया।</s>
<s>[INST]उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में संपन्न औद्योगिक क्रांति को संभव बनाने में वैज्ञानिक आविष्कारों एवं तकनीकी परिवर्तनों की भूमिका का परीक्षण करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • औद्योगिक क्रांति का संक्षिप्त परिचय देते हुए इस समय के विभिन्न अविष्कारों एवं तकनीकी परिवर्तनों की चर्चा करें। • इन आविष्कारों ने किस प्रकार औद्योगिक क्रांति को सफल बनाया, विभिन्न दृष्टिकोणों से चर्चा करें। • इन परिवर्तनों के कुछ नकारात्मक परिणामों का उल्लेख करते हुए निष्कर्ष लिखें। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आर्थिक और तकनीकी क्षेत्र में परिवर्तन ने समाज की सोच में भी परिवर्तन किया। कारखाना पद्धति घरेलू उत्पादन प्रणाली को प्रतिस्थापित करने लगी। शक्ति चालित मशीनों का अधिकाधिक उपयोग प्रारंभ हुआ और आधुनिक व्यापार तंत्र का विकास हुआ। इसके फलस्वरूप व्यापार में अप्रत्याशित वृद्धि हुई। इन्हीं व्यापक परिवर्तनों को इंगित करने के लिये ‘औद्योगिक क्रांति’ शब्द का प्रयोग किया गया। यद्यपि विज्ञान ने औद्योगिक क्रांति में कोई सीधी भूमिका नहीं निभाई, किंतु प्रौ़द्योगिकी ने यह भूमिका अवश्य अदा की। प्रौद्योगिकीय विकास विज्ञान पर ही निर्भर था। विज्ञान की बढ़ी हुई समझ ने ही कृषि, वस्त्र उद्योग, लौह एवं इस्पात उद्योग, परिवहन एवं संचार में सुधार आदि को संभव बनाया। इन सुधारों को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है: कृषि क्रांति के बिना औद्योगिक क्रांति संभव नहीं होती। ‘ड्रिल’ नामक यंत्र की खोज ने खेतों की बुवाई को आसान बनाया। पोटाश, नाइट्रोजन और फास्फोरस के प्रयोग ने कृषि उत्पादकता को बढ़ाया और कृषि को लाभ का कार्य बना दिया। फ्लांइग शटल, वाटर प्रेम, म्यूल आदि अविष्कारों ने वस्त्र उद्योग को नवीन उँचाइयों पर पहुँचा दिया। कम समय और कम लागत में अधिक उत्पादन होने लगा। पत्थर के कोयले (कोक) के प्रयोग ने लौह शुद्धिकरण तकनीक को आसान बनाया। इसके पश्चात् इस्पात के आविष्कार ने भारी उद्योगों को प्रगति दी। बड़ी-बड़ी मशीनों को इस्पात से बनाया जाना आसान हुआ। बढ़े हुए उत्पादन एवं व्यापार ने परिवहन के साधनों में आवश्यक परिवर्तनों को उत्प्रेरित किया। सड़क एवं नहर निर्माण किया जाने लगा। भाप इंजन और कालांतर में गैसोलीन (पेट्रोल) आधारित इंजन के विकास ने मोटर उद्योग की सफलता में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। रबर के टायरों से यात्रा आरामदेह हो गई। डाक-तार के विकास ने संचार के क्षेत्र में आमूल-चूल परिवर्तन किया।</s>
<s>[INST]आज़ादी के 70 सालों के उपरांत भी भारत ऐसी अनेक सामाजिक बुराइयों से जकड़ा हुआ है जो देश के सर्वांगीण विकास में अवरोधक सिद्ध हो रही हैं तथा स्वराज को सु-राज में बदलने की प्रक्रिया मंद है। उक्त संदर्भ में ‘भारत छोड़ो आंदोलन-2’ के निहितार्थ का परीक्षण करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • संक्षिप्त में परिचय दें। • सामाजिक बुराइयों एवं इसके कारणों पर प्रकाश डालें। • भारत छोड़ो आंदोलन-2 कैसे इन बुराइयों के उन्मूलन में सहायक होगा तथा स्वराज से सुराज की प्रक्रिया पूर्ण करेगा। • निष्कर्ष लिखें। 19वीं शताब्दी में शुरू हुए सामाजिक-धार्मिक पुनर्जागरण के फलस्वरूप शिक्षा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं तार्किकता का प्रचार-प्रसार आरंभ हुआ जिससे विभिन्न सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध आवाज उठनी शुरू हुई। परंतु आज़ादी के सत्तर साल बाद, आज भी भारत कई सामाजिक बुराइयों से जकड़ा है, जैसे- अंधविश्वास, दहेज प्रथा, डायन प्रथा, किसान आत्महत्या, पानी की बर्बादी, भ्रष्टाचार, युवाओं में नशे की समस्या आदि और इसके कारण स्वराज से सुराज की प्रक्रिया मंद पड़ी है। यदि इन सामाजिक बुराइयों के कारणों पर प्रकाश डालें तो ये निम्नलिखित हैं: राजनीतिक दृढ़ इच्छाशक्ति की कमी एवं धार्मिक कट्टरवादी संस्थाओं से गठजोड़। वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव एवं तर्क-वितर्क की कमी। अशिक्षा का प्रसार एवं जागरूकता की कमी आदि। इन्हीं कारणों का परिणाम है कि आज भी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाने वालों को हिंसा का शिकार होना पड़ता है तथा उनकी हत्या तक कर दी जाती है। जैसे- पंसारे, दाभोलकर आदि की हत्या। इसी संदर्भ में महाराष्ट्र सरकार ने भारत छोड़ो आंदोलन-2, ‘स्वराज से सुराज’ आंदोलन शुरू किया है। यह एक जागरूकता आंदोलन है तथा इसमें विभिन्न प्रकार की सामाजिक बुराइयों से स्वतंत्रता पर ज़ोर दिया गया। और जनभागीदारी के माध्यम से इन बुराइयों दूर कर सभी मोर्चों पर समावेशी प्रगति प्राप्त करने का लक्ष्य रखा गया है जिससे ‘स्वराज से सुराज’ की प्रक्रिया को तीव्र किया जा सके। निष्कर्षत: कह सकते हैं कि भारत छोड़ो आंदोलन-2 के माध्यम से एक बेेहतर परिणाम देखने को मिलेगा तथा साथ ही, इसे भारत के अन्य भागों में भी शुरू किये जाने की ज़रूरत है।</s>
<s>[INST]अभिवृत्ति एवं सिद्धांतों के मध्य संघर्ष ने अमेरिकी समाज को क्रांतिमय बना दिया। टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • अमेरिकी क्रांति का संक्षिप्त परिचय देते हुए उत्तर प्रारंभ करें। • स्पष्ट करें कि अभिवृत्ति और सिद्धांतों के मध्य संघर्ष किस प्रकार था और इसने कैसे अमेरिकी क्रांति को प्रेरित किया? • निष्कर्ष लिखें। अमेरिका की क्रांति उपनिवेशों और मातृ राज्य में मौलिक मतभेदों के कारण हुई। यद्यपि यह संग्राम आर्थिक हितों के संघर्ष के कारण उत्प्रेरित हुआ था, तथापि सामाजिक और राजनीतिक कारक भी समान रूप से उत्तरदायी थे। अभिवृत्ति और सिद्धांत का संघर्ष भी इन्हीं कारकों में से एक था। अमेरिकी उपनिवेश एवं इंग्लैंड की अभिवृत्तियों तथा सिद्धांतों में भिन्नता होना स्वाभाविक था। यहाँ यह धारणा कार्यरत थी कि एक पक्ष (ब्रिटिश संसद) मानता था कि कर लगाना उसका नैसर्गिक अधिकार है, जबकि दूसरा पक्ष (अमेरिकी उपनिवेशवासी) ऐसा मानने को तैयार नहीं था। इस अंतर्विरोध को निम्नलिखित प्रकार से समझा जा सकता है: इंग्लैंड की मान्यता के विपरीत अमेरिकी उपनिवेशवासी इंग्लिश संसद को निरंकुश नहीं मानते थे। उनकी धारणा थी कि संसद भी किसी मौलिक कानून से सीमित हो सकती है। क्राउन जिस प्रकार इंग्लैंड का है, उसी प्रकार उपनिवेशों का भी है, किंतु संसद को उपनिवेशों पर कोई क्षेत्राधिकार प्राप्त नहीं है। जबकि ब्रिटिश अधिकारी यह मानते थे कि संसद की शाही सत्ता उपनिवेशों पर भी अधिकार रखती है। उपनिवेशवासियों की सुरक्षा के लिये फौज रखना और चुंगी वसूली की प्रथा को दृढ़ बनाना आदि बातें लंदन में मंत्रिमंडल के लिये साधारण एवं तार्किक प्रतीत होती थी, किंतु इस सिद्धांत के विपरीत अमेरिकी उपनिवेशों की अभिवृत्ति भिन्न थी, वे इसे अतार्किक और अत्याचारपूर्ण मानते थे। इसी का परिणाम था कि अमेरिकी समाज ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध खड़ा हुआ और इसने अमेरिकी क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया।</s>
<s>[INST]चार्टिस्ट आंदोलन राजनीतिक सुधारों के वेश में सामाजिक क्रांति का प्रयत्न था। व्याख्या करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • चार्टिस्ट आंदोलन की पृष्ठभूमि से उत्तर प्रारंभ करें। • चार्टिस्ट आंदोलन के स्वरूप का परिचय दें। • राजनीतिक मांगों के सामाजिक आधार को स्पष्ट करते हुए निष्कर्ष लिखें। 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में इंग्लैंड में मज़दूर वर्ग के हितों के संरक्षण के लिये चलाया गया आंदोलन ही चार्टिस्ट आंदोलन कहलाता है। औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप इंग्लैंड में अनेक नवीन औद्योगिक केंद्रों की स्थापना हुई जिससे ब्रिटेन के विभिन्न क्षेत्रों से लोग यहाँ आकर बसने लगे। किंतु सामाजिक-आर्थिक विषमता के कारण श्रमिकों की स्थिति गंभीर से गंभीरतम होती गई। इसी दुरावस्था को दूर करने के लिये श्रमिक वर्ग ने संसद के समक्ष अपनी मांगें रखीं। चूँकि ये मांगें एक चार्टर के रूप में थीं, अत: यह आंदोलन चार्टिस्ट आंदोलन कहलाया। आंदोलनकारियों ने मांगों का एक दस्तावेज़ तैयार किया, जिसे ‘जनता का आज्ञापत्र’ कहा गया। इसमें छ: मांगें थीं। सभी को वयस्क मताधिकार प्राप्त हो। निचले सदन की सदस्यता के लिये न्यूनतम संपत्ति की शर्त समाप्त हो। संसद का वार्षिक चुनाव हो। मतदान गुप्त हो। संसद सदस्यों को वेतन दिया जाए। संसद क्षेत्र समान हों। उपर्युक्त मांगों से यह पूर्णतया स्पष्ट हो गया कि यह एक राजनीतिक कार्यक्रम था। किंतु इन राजनीतिक सुधारों की मांग के पीछे आर्थिक और सामाजिक विषमता ही उत्तरदायी थी। चूंकि नगरीय क्रांति के फलस्वरूप स्थापित औद्योगिक नगरों में मज़दूर वर्ग अनेक समस्याओं से ग्रसित था। अत: वयस्क मताधिकार और निचले सदन की सदस्यता प्राप्त कर वे अपने अधिकारों को सुनिश्चित कर सकते थे। राजनीतिक हिस्सेदारी के माध्यम से समाज विशेषकर मज़दूर वर्ग में जागरूकता आती और उनमें समता (संसद क्षेत्र समान हो) की भावना स्थापित होती। इससे सामाजिक क्रांति का आविर्भाव होता है। निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि चार्टिस्ट आंदोलन एक ऐसा प्रयत्न था, जिसके अंतर्गत राजनैतिक सुधारों के माध्यम से सामाजिक क्रांति लाने का उद्देश्य निहित था। इसका उद्देश्य समाज में आमूल-चूल परिवर्तन करके मज़दूरों की दशा में सुधार करना था। यद्यपि यह आंदोलन असफल रहा तथापि इसके दूरगामी परिणाम रहे।</s>
<s>[INST]हाल ही में ‘वाटर पॉलिसी’ नामक विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित एक शोध में पर्वतीय राज्यों में बढ़ते जल संकट पर चिंता व्यक्त की गई है। पर्वतीय राज्यों में जल संकट के प्रमुख कारणों पर प्रकाश डालते हुए इस समस्या के समाधान के लिये भारत सरकार द्वारा की गई पहलों की चर्चा करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका। • पर्वतीय राज्यों में जल संकट के प्रमुख कारण क्या हैं? • समस्या के समाधान के लिये भारत सरकार द्वारा की गयी पहल क्या है? • निष्कर्ष। हाल ही में ‘वाटर पॉलिसी’ नामक विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित एक शोध में पर्वतीय राज्यों में बढ़ते पानी के संकट पर चिंता व्यक्त की गई है। रिपोर्ट के अनुसार, मसूरी, देवप्रयाग, सिंगतम, कलिमपॉन्ग और दार्जिलिंग जैसे शहर जलसंकट से जूझ रहे हैं। प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन, संरक्षण का अभाव,अनियोजित शहरीकरण और जनसंख्या का दबाव इन क्षेत्रों में जल संकट के प्रमुख कारण हैं। उल्लेखनीय है कि नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, पर्वतीय राज्यों के 50% प्राकृतिक झरने सूख रहे हैं। जो प्रत्यक्ष रूप से इस क्षेत्र के अन्य जल स्रोतों और नदियों के सतत् प्रवाह को प्रभावित करते हैं। उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा ज़िले में जहाँ एक समय 500 से अधिक प्रकृतिक झरने हुआ करते थे परंतु वर्तमान में इस ज़िले में मात्र 57 झरने ही शेष बचे हुए हैं। पर्वतीय राज्यों में जल संकट के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं- इन क्षेत्रों में अनियोजित शहरीकरण से एक तरफ जहाँ प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ा है , वहीं औद्योगीकरण, कृषि और विकास की अन्य गतिविधियों से वनों की कटाई और भूमि के प्रयोग में परिवर्तनों से झरनों के प्राकृतिक मार्ग प्रभावित हुए हैं तथा जल संचयन के प्राकृतिक स्रोतों में कमी हुई है, जो पर्वतीय पारिस्थितिकी तंत्र के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। पिछले कुछ वर्षों में जलवायु परिवर्तन के कारण पर्यावरण में आए बदलाव ने संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्रों के संकट को और बढ़ा दिया है। इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटिग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट के एक अध्ययन के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप पिछले 60 वर्षों में पर्वतीय क्षेत्रों के तापमान में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। पर्वतीय क्षेत्रों के पारिस्थितिकी तंत्र में वर्ष का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। पर्वतीय क्षेत्रों की ढलान युक्त भूमि में वर्षा जल के रूकने के लिये धीमी और लंबे समय तक चलने वाली वर्षा सबसे उपयुक्त होती है, परंतु पिछले कुछ सालों में वर्षा की आवृत्ति तथा वर्षा दिवसों में हुई कमी ने इस क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र को बुरी तरह प्रभावित किया है। देश के पर्वतीय राज्यों में शहरीकरण के साथ ही भूमिगत खनिज पदार्थों के लिये खनन, फैक्टरी, बाँध के निर्माण जैसी गतिविधियों से क्षेत्र की प्राकृतिक संरचना के महत्त्वपूर्ण घटकों को अपूरणीय क्षति हुई है। इस क्षेत्र में खनन गतिविधियों में वृद्धि से प्राकृतिक जल के स्रोतों को नुकसान तो हुआ ही है, साथ ही खनन के कारण भू-स्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं के बढ़ जाने से जल के संचयन में भी कमी आई है, जिसने जल संकट की समस्या को और बढ़ा दिया है। हिमालयी क्षेत्र के वर्तमान जल संकट के मुख्य कारणों में जल की आपूर्ति के साथ ही उसके उचित प्रबंधन के लिये आवश्यक प्रयासों में कमी भी शामिल है। पर्वतीय राज्यों में जल संकट से निपटने के लिये भारत सरकार द्वारा की गयी पहलें: भारत सरकार ने नीति आयोग की अभिनव भारत @75 योजना के तहत वर्ष 2023 तक भारत में जल संरक्षण के लिये कई स्तरों पर कार्ययोजना की रूपरेखा प्रस्तुत की है। इस योजना के अंतर्गत पेयजल से लेकर कृषि और उद्योगों में प्रयोग होने वाले जल के संबंध में व्यवस्थित कार्ययोजना द्वारा जल का संरक्षण सुनिश्चित करना है। सिक्किम राज्य में वर्ष 2008 में शुरू हुई ‘धारा विकास’ योजना के माध्यम से प्राकृतिक झरनों के संरक्षण के लिये कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए। जल शक्ति अभियान: जल संकट से त्रस्त देश के 255 ज़िलों में जल-संरक्षण के लिये जुलाई 2019 को जल शक्ति अभियान की शुरुआत की गई है। इस पहल के तहत सरकार की विभिन्न योजनाओं जैसे-मनरेगा, एकीकृत जलसंभरण प्रबंधन कार्यक्रम आदि के समन्वय से इन क्षेत्रों में जल संरक्षण के प्रयासों को बढ़ावा देना है। साथ ही भारत सरकार द्वारा ‘जल जीवन मिशन’ परियोजना के अंतर्गत जल आपूर्ति के अतिरिक्त जल संरक्षण के लिये 1 लाख करोड़ रुपए का बजट निर्धारित किया गया है। इसके अतिरिक्त अटल भू-जल योजना तथा राष्ट्रीय जल नीति की भी शुरुआत की गयी है। निष्कर्षतः सरकार की योजनाएँ थोड़े समय के लिये राहत प्रदान करने में तो सफल हो सकती हैं परंतु एक समग्र कार्ययोजना और सभी हितधारकों के सहयोग के अभाव में समय के साथ-साथ इस क्षेत्र में जल-संकट की समस्या और अधिक गंभीर होने की संभावना भी है। अतः यह आवश्यक है कि क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण के लिये सभी हितधारकों द्वारा सामूहिक प्रयासों को बढ़ावा दिया जाए तथा भविष्य में विकास योजनाओं के क्रियान्वयन में विकास और प्रकृति के बीच समन्वय पर विशेष ध्यान दिया जाए।</s>
<s>[INST]‘जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाला विस्थापन युद्ध और हिंसक संघर्षों की वजह से होने वाले विस्थापन से ज़्यादा भयावह है।’ टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका। • ग्लोबल वार्मिंग के परिणाम। • विभिन्न संस्थाओं द्वारा दिए गए आंकड़ें। • निष्कर्ष। जब भी हम जलवायु परिवर्तन की चर्चा करते हैं, तो इसे बढ़ते तापमान, प्रदूषण, बंजर होती ज़मीन (मरुस्थलीकरण), अम्ल वर्षा और ध्रुवों पर बर्फ के पिघलना आदि से जोड़कर देखते हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण अस्तित्व में आई एक अनजान वास्तविकता से अधिकांश लोग परिचित नहीं हैं। वह है इसकी वजह से होने वाला विभिन्न देशों के लोगों का विस्थापन। वर्तमान में जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाला विस्थापन युद्ध और हिंसक संघर्षों की वजह होने वाले विस्थापन से भी ज़्यादा भयावह है। इससे विश्व के 148 देश प्रभावित है जिसमें भारत भी शामिल है, इन देशों मेंअधिकांश जनसंख्या निर्धन और वंचित लोगों की है। विशेषज्ञ इसे दुनिया के लिये एक गंभीर समस्या मानते हैं, जो वर्ष 2050 तक हमारी उम्मीद से ज़्यादा बढ़ जाएगी और प्रत्यक्ष तौर पर विस्थापन के परिणाम भी लोगों को दिखने लगेंगे। ग्लोबल वार्मिंग के परिणामों को दुनिया जलवायु परिवर्तन के रूप में देख रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण कहीं असमय बारिश हो रही है, तो कहीं अतिवृष्टि। बेमौसम पड़ने वाले ओले और बर्फ किसानों की फसल को खराब कर देते हैं। ग्लोबल वार्मिंग के कारण गर्म दिनों की संख्या बढ़ रही है, जिससे सर्दियों के दिन कम हो रहे हैं। गर्मी बढ़ने के कारण सूखे की समस्या बढ़ रही है। भारत की लगभग 30 प्रतिशत भूमि मरुस्थलीकरण की चपेट में आ चुकी है। जंगलों में प्रतिवर्ष आग लगने से लाखों हेक्टेयर वन संपदा नष्ट हो जाती है। तापमान बढ़ने का परिणाम हाल ही में पूरा विश्व आस्ट्रेलिया के बुश फायर और अमेज़न के जंगलों की आग के रूप में देख चुका है। तो वहीं अंटार्कटिका की बर्फ पिघलने सहित दुनिया भर के ग्लेशियर तेज़ी से पिघल रहे हैं। हर साल दुनिया भर में, विशेषकर भारत में बाढ़ भारी तबाही मचाती है। जलवायु परिवर्तन के कारण हो रही इन सभी घटनाओं की समय समय पर चर्चा तो होती है, लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण हो रहे विस्थापन का कोई ज़िक्र तक नहीं करता और न ही ये विस्थापन कभी चर्चा का विषय बनता है। इसी अनदेखी के कारण आज यह एक वैश्विक समस्या बन गई है। संयुक्त राष्ट्र की वर्ल्ड माइग्रेशन रिपोर्ट में 148 देशों पर किये गए सर्वेक्षण के आंकड़ों के आधार पर निष्कर्ष दिया गया है कि दुनिया में करीब 2.8 करोड़ लोग विस्थापित हुए हैं, जिनमें से 1.75 करोड़ लोग जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाली विभिन्न आपदाओं की वजह से विस्थापित हुए हैं, जबकि शेष लोग युद्ध और हिंसक संघर्षों की वजह से विस्थापित हुए हैं। वर्ष 2018 में विश्व बैंक ने अनुमान लगाते हुए कहा था कि जलवायु परिवर्तन के कारण वर्ष 2050 तक उप सहारा, अफ्रीका, दक्षिण एशिया और लैटिन अमेरिका में 14.3 करोड़ लोगों को अपना घर छोड़कर विस्थापित होने के लिए मज़बूर होना पड़ेगा। अंतर्राष्ट्रीय आंतरिक विस्थापन निगरानी केंद्र (आईडीएससी) के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण वर्ष 2018 के अंत तक 16 लाख लोग राहत शिविरों में थे। भारत के संदर्भ में तो यह आंकड़ा और गंभीर है। बीते वर्ष मैड्रिड में हुए काॅप 25 में विश्व मौसम संगठन ने वैश्विक जलवायु दशा रिपोर्ट 2019 जारी कर मौसमी घटनाओं के कारण हो रहे विस्थापन पर चिंता जताई। रिपोर्ट में बताया गया कि जनवरी 2019 से जून 2019 के बीच एक करोड़ लोग अपने देश में ही एक स्थान से दूसरे स्थान पर विस्थापित हुए हैं। इनमें से 70 लाख लोग बाढ़, हरिकेन और चक्रवात आदि के कारण विस्थापित हुए हैं। इससे आबादी वाले इलाकों, विशेषकर शहरों की जनसंख्या में तेज़ी से इज़ाफा हो रहा है। भारत में तो आपदाओं और इनकी भयावहता का रूप हम केदारनाथ आपदा के रूप में वर्ष 2013 में देख ही चुके हैं। तो वहीं वर्ष 2009 में बंगाल की खाड़ी में आया चक्रवात तथा 2004 की सुनामी का कहर सभी को याद है। कुछ वर्ष पूर्व ही नेपाल में भूकंप से मची तबाही के ज़ख्म आज भी हरे हैं। इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पिछले दो वर्षों में भारत में हर महीने एक प्राकृतिक आपदा अवश्य हुई है। पिछले साल एशिया में 93 प्राकृतिक आपदाएं आईं, जिनमें से 48 आपदाएं केवल भारत में ही आई थी। हांलाकि वर्ष 2019 में 2018 की अपेक्षा प्राकृतिक आपदाएं कम आईं, लेकिन आपदा में जान गँवाने वालों की संख्या में 48 प्रतिशत का इज़ाफा हुआ था। दुनिया भर में होने वाला विस्थापन न केवल अपने-अपने देश की सीमाओं के अंदर हुआ, बल्कि कई जगहों पर लोगों को अपना देश छोड़ने के लिए भी मज़बूर होना पड़ा। भारत का सुंदरबन का इसका जीता जागता उदाहरण है, जो धीरे-धीरे समुद्र के पानी में समा रहा है। इसी सूची में मुंबई सहित समुद्र के किनारे बसे सभी शहर हैं। ऐसे में जलवाुय परिवर्तन एक गंभीर मामला है। हर वर्ग इसके दुष्प्रभावों से प्रभावित है। इसका समाधान करने के लिए अभी से दुनिया के सभी देशों और हर नागरिक को प्रयास करना होगा, वरना हमें भविष्य में अपना घर या देश छोड़ने के लिए मज़बूर होना पड़ सकता है।</s>
<s>[INST]गांधीवादी राजनीति ने भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष को आदर्शवाद की परिधि में लाकर इसे एक नया आयाम प्रदान किया जहाँ समाज के सभी वर्ग आंशिक तौर पर एक-दूसरे से जुड़ सकते थे। आलोचनात्मक परीक्षण करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोणः • सर्वप्रथम गांधी के भारत आगमन एवं समकालीन संग्राम का परिचय दें। • गांधीवादी राजनीति के प्रमुख हथियारों, जैसे सत्याग्रह, अहिंसा आदि को उदाहरण एवं आंदोलन सहित वर्णित करें। • अंत में ये दिखाते हुए कि सभी वर्गों को एकजुट करने में गांधीजी सफल हुए, निष्कर्ष लिखिये। भारत गाँवों में बसता है। यह बात गांधीजी ने दो वर्षों के भारत भ्रमण के बाद कही। वे भारत के गरीब किसानों, अल्पसंख्यकों, बुनकरों आदि के निजी अनुभवों से भलीभाँति परिचित थे। इनको संगठित करने के उद्देश्य से गांधीजी ने कई नए प्रयोग किये जिनमें सत्याग्रह, असहयोग, सविनय अवज्ञा आदि शामिल हैं। भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में गांधीजी का आगमन 1917 में हुआ। हालाँकि वे 1915 में ही भारत आ चुके थे, किंतु सक्रिय रूप से उनका भारतीय आंदोलनों से जुड़ाव चंपारण के आंदोलन से ही शुरू हुआ। गांधीवादी राजनीति का अर्थ है गांधी के बताए मूल्यों एवं आदर्शों में विश्वास। गांधीजी ने अपने मूल्य एवं आदर्शों की स्थापना स्वयं के अनुभव से की थी। ‘सत्याग्रह’ नामक हथियार का विकास गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में सफलतापूर्वक किया था। सत्य एवं अहिंसा समूचे गांधीवादी आंदोलन का सार था जिसने आमलोगों को इन आंदोलनों से जुड़ने के लिये प्रेरित किया। गांधीवादी राजनीति मानवतावाद पर आधारित थी। असहयोग आंदोलन के लिये भारत में हिन्दू-मुस्लिम एकता की महती आवश्यकता थी। उस समय गांधीजी ने स्वयं को खिलाफत आंदोलन से जोड़कर स्वयं को मजबूत किया। दूसरा महत्त्वपूर्ण हथियार था- सत्याग्रह। तत्कालीन परिस्थितियों में भारतीय हथियार उठाने की स्थिति में नहीं थे। फिर भी बिना मनोबल नीचे किये, संघर्ष के लिये तत्पर रहने का असीम धैर्य उन्हें ‘सत्याग्रह’ के सिद्धांतों से ही मिला। तीसरी बात थी- गांधीवादी राजनीति की देशी अवधारणा, जिसमें गांधीजी ने हिंदी भाषा की वकालत की, कुटीर उद्योगों की बात की, खादी की बात की, जिसका भारत के विशाल जनसमूह ने समर्थन किया। किसानों एवं निम्न वर्ग के समर्थन के बाद भी बिना उच्च वर्ग के समर्थन के आंदोलन अधूरा रह जाता। ऐसे में गांधीजी ने वर्ण व्यवस्था का भी समर्थन किया एवं समाज के उच्च वर्ग का विश्वास जीता। 1932 में जब अंग्रेज़ों ने दलितों के लिये अलग प्रतिनिधित्व का कानून बनाया तो गांधीजी ने पूना जेल में आमरण अनशन शुरू कर दलितों को साथ लाने में सफलता प्राप्त की। इतना ही नहीं, गांधीजी ने महिलाओं को भी सक्रिय आंदोलन से जोड़ने में सफलता प्राप्त की। अतः कहा जा सकता है, गांधीवादी राजनीति के तत्त्वों में समाज के प्रत्येक वर्ग को बाँधे रखने की ताकत के साथ-साथ आत्मसंतुष्टि प्रदान करने की भी अद्भुत क्षमता समाहित है।</s>
<s>[INST]‘मैकाले ने भारत में न केवल अंग्रेज़ी शिक्षा की मज़बूत नींव में रखी बल्कि युवा मस्तिष्क को ज्ञान के माध्यम से प्रेरित कर सामाजिक सुधार आंदोलनों को भी दृढ़ किया।’ चर्चा करें।[/INST]उत्तर : हल करने के दृष्टिकोण: • मैकाले के घोषणा पत्र का उद्देश्य । • तत्कालीन समाज में व्याप्त रूढ़ियां। • पश्चिमी ज्ञान का प्रभाव से शुरू आंदोलन • स्पष्ट करें कि आंदोलनों का कारण अंग्रेज़ी शिक्षा पद्धति है। भारतीय इतिहास में लार्ड मैकाले द्वारा प्रस्तुत स्मरण पत्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 2 फरवरी, 1835 को पेश किये गए इस स्मरण पत्र से यह विवाद लगभग खत्म हो गया कि भारतीयों के लिये प्राच्य भाषा में शिक्षा की व्यवस्था की जाए या आधुनिक यूरोपीय भाषाओं में। भारतीयों के लिये विचार एवं संस्कृति का निर्माण यूरोपीय भाषाओं के आधार पर निश्चित होना अब स्वाभाविक था। इस नवीन अंग्रेज़ी शिक्षा पद्धति ने प्रगतिशील यूरोपीय विचारों तक भारतीयों की पहुँच बनाकर उनमें एक वैज्ञानिक, तर्कवादी दृष्टिकोण को जन्म दिया जिसका परिणाम सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन के रूप में प्रकट हुआ। 1835 के आसपास भारत में सामाजिक आंदोलनों का दौर शुरू हो चुका था। राजा राम मोहन राय के प्रयासों के परिणामस्वरूप 1829 में ही विधवा विवाह अधिनियम पारित हो चुका था। लेकिन यहाँ ये भी जानना ज़रूरी है कि राजा राम मोहन राय अंग्रेज़ी भाषा के विद्वान थे। मैकाले की शिक्षा पद्धति ने भारतीय मध्यमवर्ग को एक नई सोच दी। इसी भाषा ने जब रोज़गार के द्वार खोले तब जन सामान्य में यह भावना बैठ गई कि इनकी सोच का वैज्ञानिक आधार सही है। भारत में महिलाओं की शिक्षा, बाल विवाह, तंत्र-मंत्र का विश्वास, जाति व्यवस्था आदि ऐसी परंपराओं को वैज्ञानिक सोच से सीधी चुनौती मिली। कालांतर में कई ऐसे भारतीय बुद्धिजीवी पैदा हुए जिन्होंने वैज्ञानिक सोच को आधार बनाकर सामाजिक आंदोलन चलाए। दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज हो या सर सैयद अहमद खाँ का एंग्लो ओरियण्टल कॉलेज, सभी ने अंग्रेज़ी भाषा में उपलब्ध ज्ञान के आधार पर तत्कालीन सामाजिक रूढ़ियों को चुनौती दी। 1891 में सम्मति आयु अधिनियम पारित किया गया, जिसका तिलक जैसे कट्टर दक्षिणपंथियों ने विरोध किया, फिर भी यह अधिनियम सफलतापूर्वक लागू हुआ। विवेकानंद ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना करके एवं थियोसोफिकल सोसाइटी की मद्रास शाखा से शुरुआत ने भारतीय परम्पराओं में व्याप्त रूढ़ियों को वैज्ञानिक आधार पर परखने एवं समाज सुधार को नई दिशा देने का काम किया। अतः यूरोपीय भाषाओं द्वारा अर्जित वैज्ञानिक बोध एवं ज्ञान ने भारतीय समाज सुधारों को न सिर्फ तेज़ किया बल्कि कई रूढ़ियों को तोड़ते हुए एक नई दिशा भी प्रदान की।</s>
<s>[INST]"वायुमंडलीय प्रक्रमों तथा मौसमों एवं जलवायु के तत्त्वों ने जीवमंडल में विभिन्न पौधों और जंतुओं के उद्भव, विकास तथा संवर्द्धन को प्रभावित एवं नियंत्रित किया है।" उक्त कथन के संदर्भ में जीवमंडल में सौर्यिक ऊर्जा के निवेश और उसके महत्त्व की चर्चा करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोणः • वायुमंडल के महत्त्वपूर्ण संघटकों का उल्लेख तथा जीवमंडल एवं वायुमंडल में संबंध। • सौर्यिक ऊर्जा का वायुमंडल हेतु महत्त्व। • सौर्यिक ऊर्जा एवं पारिस्थितिकीय उत्पादकता में सह संबंध। • निष्कर्ष। संसार में मौसम और जलवायु की विविधता के कारण ही भिन्न-भिन्न जाति-प्रजाति के जीव-जन्तु पाए जाते हैं। सूर्य का प्रकाश तापमान, वायुमण्डलीय गैसें तथा आर्द्रता आदि वायुमंडल के कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण संघटक हैं जो जीवमंडल में विभिन्न पौधों तथा जंतुओं के उद्भव, विकास तथा संवर्द्धन को प्रभावित तथा नियंत्रित करते हैं। जीवमण्डल सामान्य रूप में पृथ्वी की सतह के चारों ओर व्याप्त एक आवरण है जिसके अंतर्गत पौधों तथा जंतुओं का जीवन बिना किसी रक्षक साधन के संभव होता है। सूर्य जीवमंडल में समस्त जीवों एवं वनस्पतियों को ऊर्जा प्रदान करता है। यद्यपि पृथ्वी सूर्य से विकीर्ण ऊर्जा का अल्पांश ही प्राप्त कर पाती है परंतु ऊर्जा की यह अल्प मात्रा ही जीवमण्डल में जीवों के अस्तित्व को कायम रखने में समर्थ होती है। वायुमंडल में स्थित कतिपय गैसें (यथा-ओज़ोन) सौर्यिक विकिरण तरंगों को बीच में ही रोक लेती हैं तथा धरातल को अति गर्म होने से बचाती हैं। सौर्यिक विकिरण, संबंधित मौसम (गर्मी, सर्दी, बरसात) और जलवायु (उष्ण कटिबंधीय, शीतोष्ण कटिबंधीय एवं शीत कटिबंधीय) का निर्धारण करता है जो जीव-जंतुओं के उद्भव एवं विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, क्योंकि विभिन्न जीव-जंतुओं एवं वनस्पतियों का विकास एक निश्चित मौसम या जलवायु परिस्थितियों में होता है। उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में प्रति इकाई क्षेत्र में सूर्यातप के अधिक निवेश से मृदा में ह्यूमस की अधिकता होती है जो पौधों के आदर्श विकास में सहायक होती है। शीत कटिबंधीय क्षेत्रों में सूर्यातप के न्यूनतम निवेश में ह्यूमस मर जाते हैं जिससे यहाँ अत्यल्प वनस्पतियों का विकास होता है। तदनुसार सामान्य रूप में भूमध्यरेखा से ध्रुवों की ओर पारिस्थितिकीय उत्पादकता में भी उसी क्रम से ह्रास होता जाता है। वस्तुतः पारिस्थितिकीय उत्पादकता का स्तर किसी क्षेत्र विशेष में पौधों एवं जीव-जंतुओं के विकास की अवस्था को निर्धारित करता है। सूर्यातप तथा आर्द्रता की सुलभता एवं पारिस्थितिकीय उत्पादकता में धनात्मक सहसंबंध होता है। वायुमण्डलीय आर्द्रता एवं वर्षा तथा तापमान के विभिन्न संयोगों के फलस्वरूप पारिस्थितिकीय उत्पादकता में भी प्रादेशिक विभिन्नता पाई जाती है। वर्ष भर पर्याप्त सौर्यिक प्रकाश एवं आर्द्रता की प्राप्ति के कारण विषुवतरेखीय वर्षा वनों की पारिस्थितिकीय उत्पादकता सर्वाधिक होती है। फलतः यहाँ पौधों एवं जंतुओं की अनेकों प्रजातियाँ उच्चतम जैव विविधता को प्रकट करती हैं। इसके विपरीत आर्द्रता एवं वर्षा के अभाव में उष्ण मरुस्थलीय जलवायु प्रदेशों की पारिस्थितिकीय उत्पादकता न्यूनतम होती है जिससे वहाँ वनीय बायोम का अभाव, न्यूनतम जैव विविधता को दर्शाता है। इसी तरह टुण्ड्रा जलवायु में न्यूनतम सूर्यातप के कारण वहाँ वनस्पति आवरण का अभाव होता है तथा कठोर जलवायविक दशा में जंतुओं के शरीर बालों से ढके रहते हैं।</s>
<s>[INST]पश्चिमी विक्षोभ की क्रियाविधि को स्पष्ट कीजिये। साथ ही भारत के संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोणः • पश्चिमी विक्षोभ की क्रियाविधि समझाएं। • इसकी प्रासंगिकता के बारे में बताएँ। ‘पश्चिमी विक्षोभ’ एक मौसमी परिघटना है जो पछुआ पवन के ऊपरी वायु परिसंरचरण क्षेत्र में विकसित एक निम्न वायुदाब का क्षेत्र या गर्त है, जो हवा के तापमान, दाब एवं वायु संचार प्रणाली में परिवर्तन लाकर वर्षण की दशा उत्पन्न करता है। ये हवाएं राजस्थान, पंजाब और हरियाणा में तीव्र गति से बहती हैं। ये उप-हिमालयी पट्टी के आस-पास पूर्व की ओर मुड़ जाती हैं और सीधे अरुणाचल प्रदेश तक पहुंच जाती हैं। जिससे गंगा के मैदानी इलाकों में हल्की वर्षा और हिमालयी पट्टी में हिमवर्षा होती है। क्रियाविधि: इसकी उत्पत्ति भूमध्यसागरीय क्षेत्र में सूर्य के दक्षिणायन होने के कारण ध्रुवीय वायुराशि का दक्षिण की ओर खिसकने एवं इसके उष्ण कटिबंधीय वायुराशि से समागम के परिणामस्वरूप, ध्रुवीय वाताग्र के सहारे शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात के जनन से होती है। ये चक्रवात पछुआ जेट स्ट्रीम के सहारे पश्चिमी एशिया से गुज़रते हुए भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवेश करते हैं। भारत में पहुँचकर ये चक्रवात संरोधावस्था को प्राप्त हो जाते हैं जिससे गर्म वायुराशि ऊपर की ओर विस्थापित हो जाती है तथा धरातल पर ठंडी पवनों का प्रसार हो जाता है। यद्यपि भारतीय उपमहाद्वीप में इसकी उपस्थिति पछुआ पवन के प्रभाव में सालभर होती है, तथापि शीतकाल में जनवरी तथा फरवरी महीने में पछुआ पवन के दक्षिण की ओर अवतलन से इसके विकास की आदर्श दशा होती है। प्रासंगिकता : ये विक्षोभ चक्रवातीय वर्षा लाते हैं जो भारत के शीतकालीन फसलों यथा गेहूँ, दलहन, तिलहन आदि के लिये लाभकारी होता है। ये हिमालय के ऊपरी क्षेत्र में हिमपात हेतु उत्तरदायी हैं जो भारत के सदाबहार नदियों की सततता एवं पर्यटन के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है। यह पश्चिमी तथा उत्तर-पश्चिमी भारत में रबी फसल की उत्पादन व उत्पादकता को बढ़ाने में सहायक है। यह शीतकाल में वर्षा लाकर भौम जल स्तर को ऊपर लाने एवं जल संचयन को बढ़ावा देता है। यह प्रवासी पक्षियों के लिये अनुकूल दशा प्रदान करता है। यह संपूर्ण पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी की उत्पादकता पोषण स्तर में वृद्धि लाता है।</s>
<s>[INST]‘राष्ट्रीय विरासत शहर विकास और विस्तार योजना (हृदय) का उद्देश्य विरासत नगरों की को संरक्षित एवं संवर्द्धित करना है।’ हमें अपने विरासत नगरों को संरक्षित करने की आवश्यकता क्यों है तथा इससे जुड़ी हुई समस्याओं पर प्रकाश डालें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोणः • भूमिका। • हृदय योजना को लागू करने के उद्देश्य। • विरासत संरक्षण की आवश्यकता क्यों है? • समस्याओं की विवेचना। • निष्कर्ष। किसी व्यक्ति का अपनी धरोहर से संबंध उसी प्रकार का है, जैसे एक बच्चे का अपनी माँ से संबंध होता है। हमारी धरोहर हमारा गौरव हैं और ये हमारे इतिहास-बोध को मज़बूत करते हैं। हमारी कला और संस्कृति की आधार शिला भी हमारे विरासत स्थल ही हैं। इतना ही नहीं हमारी विरासतें हमें विज्ञान और तकनीक से भी रूबरू कराती हैं, ये मनुष्यों तथा प्रकृति के मध्य जटिल सबंधों को दर्शाती हैं और मानव सभ्यता की विकास गाथा की कहानी भी बयां करती हैं। विरासत शहरों के समग्र विकास के लिये शहरी विकास मंत्रालय ने ‘हृदय’ योजना का शुभारंभ किया है। योजना का उद्देश्य है- शहर के विशिष्ट चरित्र को प्रदर्शित करते हुए विरासत शहर की आत्मा को संरक्षित एवं संवर्धित करना। यह कार्य सौंदर्य की दृष्टि से आकर्षक, पहुँच योग्य, सूचनापरक एवं संरक्षित पर्यावरण को प्रोत्साहन देकर किया जाएगा। यह योजना मुख्य विरासत अवसंरचना परियोजनाओं जिनमें संस्कृति विभाग, भारत सरकार एवं राज्य सरकारों द्वारा चिह्नित/स्वीकृत विरासत परिसम्पत्तियों के आसपास के क्षेत्रों के लिये शहरी अवस्थापना सुविधाओं का संवर्धन शामिल है, के विकास में सहायता करेगी। संरक्षण की आवश्यकता क्यों? मानवीय चेतना का विकास एक सतत् प्रक्रिया है। क्षेत्रीय नियमों एवं सामाजिक संरचनाओं को समझने के लिये इतिहास यहाँ एक प्रयोगशाला के रूप में कार्य करता है तथा भूतकाल एक सीमा रेखा के रूप में है। यह समझ एक आदर्श समाज की ओर हमारी प्रगति को समझने में सहायता करती है। विभिन्न संस्कृतियों की जानकारी हमें एक अच्छा वैश्विक नागरिक होने तथा आलोचनात्मक एवं विश्लेषणात्मक सोच विकसित करने में मदद करती है। विरासत स्थल हमें भूतकाल से जोड़ते हैं। इनका आर्थिक महत्त्व भी है। विरासत संरक्षण ने सिद्ध किया है कि वह उद्यमिता एवं नवाचार के लिये एक सम्पन्न स्थल है। यह रोजगार सृजन में सहायक है। समस्याएँ जनसंख्या एवं प्रदूषण में वृद्धि इन पुरातात्विक स्थलों को विनाश की ओर ढकेल रहा है। इनकी बिगड़ती स्थिति के लिये कई कारण ज़िम्मेदार हैं जिनमें लापरवाही एवं खराब प्रबंधन से लेकर दर्शकों की संख्या में वृद्धि एवं जानबूझ कर क्षति पहुँचाना, पूर्व के अनुपयुक्त उपचार तथा स्थगित रख-रखाव शामिल हैं। पर्यटन क्रियाकलापों की बढ़ती गतिविधियों तथा आर्थिक लाभों के हाल के दबावों ने ऐसे कई पुरातात्विक स्थलों के नुकसान की दर में वृद्धि की है। हमारे विरासत स्थलों की दयनीय स्थिति के ज़िम्मेदार वे संस्थाएँ और निकाय हैं जिन्हें इनके सरंक्षण का दायित्व दिया गया है। ये संस्थाएँ असफल इसलिये हैं क्योंकि लोग इनके आर्थिक संभावनाओं से अनजान हैं। निष्कर्षतः इन विरासत स्थलों की स्थिति सुधरने हेतु इस दिशा में पहला कदम यह सुनिश्चित करना होगा कि स्मारकों और पुरातात्त्विक स्थलों का दौरा आगंतुकों के लिये रोमांचक अनुभव साबित हों। दशकों के पुरातात्त्विक प्रयासों के बाद, भारत में हज़ारों विरासत स्थलों की खोज हुई हैं जो प्रसिद्ध हड़प्पा सभ्यता के समकालीन हैं। इन स्थलों के बारे में बहुत ही कम लोग जानते हैं, वहीं पर्यटन विभाग भी इन स्थलों के ऐतिहासिक महत्त्व का प्रचार-प्रसार करने में असफल रहा है, इस दिशा में तत्काल प्रभावी कदम उठाने होंगे।इस दिशा में ‘हृदय’ योजना महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।</s>
<s>[INST]'किसी राष्ट्र के लिये स्वाधीनता सर्वोपरि है; इस मूलमंत्र को नवयुवाओं की नसों में प्रवाहित कर,राष्ट्र के युवकों के लिये आज़ादी को आत्मप्रतिष्ठा का प्रश्न बना देने वाले नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने स्वाधीनता महासंग्राम के महायज्ञ में प्रमुख पुरोहित की भूमिका निभाई। टिप्पणी कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोणः 19वीं सदी में राष्ट्रवाद के विकास के कारण। राष्ट्रवादी चेतना के परिणामस्वरूप भारतीयों के मनोबल में हुई वृद्धि एवं इसके परिणामस्वरूप किये गए विभिन्न कार्य। सुभाष चंद्र बोस का स्वाधीनता संघर्ष में योगदान। निष्कर्ष। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में भारत में राष्ट्रवाद का तेज़ी से विकास हुआ और एक संगठित राष्ट्रीय आंदोलन का आरंभ हुआ। इस राष्ट्रवाद के विकास में ब्रिटिश शासन की शोषणपरक एवं प्रजातीय विभेद की नीतियों, आर्थिक और सामाजिक असंतोष, अंग्रेज़ों द्वारा किया गया भारत का प्रशासनिक और आर्थिक एकीकरण, पाश्चात्य चिंतन, अंग्रेज़ी शिक्षा एवं सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों से उत्पन्न चेतना आदि ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। राष्ट्रवादी चेतना के विकास के परिणामस्वरूप भारतीयों के मनोबल में वृद्धि हुई और उनमें एक तर्कवादी आलोचनात्मक दृष्टिकोण का विकास हुआ जिसके द्वारा उन्होंने शासन व उसकी नीतियों का स्वमूल्यांकन शुरू किया एवं उसके शोषणपरक स्वरूप की अनुभूति कर असंतोष से भर गए तथा सदियों से आच्छादित निष्क्रियता से बाहर आए। फलतः वे अंग्रेज़ों के विरुद्ध संगठित हुए, जिस कारण भारत में कई राजनीतिक संस्थाओं, जैसे- लैण्डहोल्डर्स सोसाइटी, मद्रास महाजन सभा और सबसे महत्त्वपूर्ण भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आदि की स्थापना हुई। कांग्रेस के नेतृत्व में चले राष्ट्रीय आंदोलन ने देश की जनता को संगठित किया और उन्हें औपनिवेशिक शासन के दुष्प्रभावों से अवगत कराया। सुभाष चंद्र बोस ने भी कांग्रेस से जुड़कर राष्ट्रीय आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। सुभाष चंद्र बोस ने जवाहरलाल नेहरू के साथ मिलकर कांग्रेस को समाजवादी दिशा प्रदान की और उसे सर्वहारा वर्ग के प्रति और अधिक प्रतिबद्ध बनाने का प्रयास किया। सुभाष ने नेहरू रिपोर्ट के निर्माण में योगदान दिया, कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन की अध्यक्षता की तथा राष्ट्रीय योजना समिति की स्थापना की। 1939 में कांग्रेस से अलग होकर उन्होंने फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की। द्वितीय विश्व युद्ध की परिस्थितियों से लाभ उठाकर भारत को स्वतंत्र कराने की इच्छा के साथ वे भारत के बाहर गए तथा ब्रिटिश विरोधी शक्तियों से भारत की स्वतंत्रता हेतु मदद मांगी, जिसके फलस्वरूप आज़ाद हिंद फौज का गठन हुआ। आज़ाद हिंद फौज के सर्वोच्च सेनापति के रूप में सुभाष ने ब्रिटिश विरोधी शक्तियों के साथ मिलकर भारत को अंग्रेज़ों से स्वतंत्र कराने का प्रयास किया। यद्यपि वे अपने प्रयास में सफल न हो सके परंतु उनके कार्यों ने देश की जनता को उद्वेलित किया जिसे आज़ाद हिंद फौज पर मुकदमे के दौरान महसूस किया गया। इस प्रकार राष्ट्रवाद की भावना के प्रसार एवं स्वतंत्रता आंदोलन में सुभाष चंद्र बोस ने बहुमूल्य योगदान दिया। राष्ट्र सदैव उनके प्रयत्नों के प्रति आभारी रहेगा।</s>
<s>[INST]"अगर इंग्लैंड, फ्राँस और रूस एक साथ मिलकर शांति के पक्ष में खड़े हो जाते तो नाजी ताकत को रोका जा सकता था, लेकिन फ्राँस और ब्रिटेन को हिटलर का साथ ज़्यादा पसंद था।" टिप्पणी कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोणः • द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में इंग्लैंड और फ्राँस की साम्यवाद एवं हिटलर के प्रति नीतियों पर चर्चा कीजिये। उक्त कथन फासीवादी शक्तियों के प्रति इंग्लैंड तथा फ्राँस की नीतियों में अंतर्विरोध एवं तुष्टीकरण की नीति के संदर्भ में कहा गया है। वर्साय की संधि के तहत जर्मनी का निःशस्त्रीकरण कर दिया गया, इस पर भारी आर्थिक जुर्माना लगाया गया एवं उसके उपनिवेशों को छीन लिया गया। इससे जर्मन जनता में असंतोष उत्पन्न हुआ एवं इसी को आधार बनाकर हिटलर सत्ता में आया। हिटलर ने सत्ता में आते ही वर्साय की संधि का एक-एक कर उल्लंघन करना शुरू किया। उसने उग्र विदेश नीति का अवलम्बन किया। उसने जर्मनी में सैनिक सेवा अनिवार्य कर दी और नए सिरे से जर्मनी का शस्त्रीकरण शुरू किया। उसने 1935 में ‘राइन क्षेत्र’ पर सैन्य अधिकार कर लिया, जिसका वर्साय की संधि के द्वारा असैन्यीकरण किया गया था। 1938 में उसने ऑस्ट्रिया पर अधिकार कर लिया। तत्पश्चात् उसने चेकोस्लोवाकिया के सुडेटनलैंड पर अधिकार कर लिया। लेकिन इंग्लैंड व फ्राँस ने तुष्टीकरण की नीति अपनाते हुए हिटलर का विरोध नहीं किया। वहीं जब हिटलर ने 1939 में डेजिंग गलियारा प्राप्त करने हेतु पोलैंड पर हमला किया तो इंग्लैंड तथा फ्राँस ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। वस्तुतः ये देश सोवियत संघ के साम्यवाद से भयभीत थे तथा उनकी नीति फासीवादी शक्तियों को साम्यवाद के विरुद्ध खड़ा करने की थी। इसी कारण उन्होंने साम्यवाद के विरुद्ध हिटलर का साथ दिया। इंग्लैंड के जर्मनी से घनिष्ठ व्यापारिक हित जुड़े हुए थे। साथ ही वह फ्राँस के साथ शक्ति संतुलन बनाए रखने हेतु जर्मनी के अस्तित्व को समाप्त करने का विरोधी था। अतः उपर्युक्त कारणों से इंग्लैंड तथा फ्राँस, नाजी अतिक्रमण के विरुद्ध खड़े नहीं हुए एवं साम्यवाद को ही अपना सबसे बड़ा शत्रु समझते रहे। इसके बजाय यदि इंग्लैंड और फ्राँस रूस के साथ मिलकर प्रयास करते तो हरसंभव नाजी अतिक्रमण को रोका जा सकता था।</s>
<s>[INST]रवीन्द्रनाथ टैगोर तथा महात्मा गांधी दोनों महान सुधारक थे एवं टैगोर, गांधीजी की नेतृत्व क्षमता के बड़े प्रशंसक थे, तथापि कई मुद्दों पर टैगोर की गांधीजी से गंभीर मतभिन्नता थी। विश्लेषित करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • टैगोर और गांधी के संबंधों की सामान्य चर्चा से उत्तर प्रारंभ करें। • दोनों के मतों में भिन्नता का उल्लेख करें। • निष्कर्ष। टैगोर और गांधी दोनों आधुनिक भारत के प्रमुख निर्माताओं में शुमार हैं। दोनों महान सुधारक थे तथा एक-दूसरे से बहुत प्रभावित भी थे। गांधीजी टैगोर को महान चिंतक व शिक्षक मानते थे, उन्होंने टैगोर को गुरुदेव की उपाधि दी। टैगोर गांधीजी की नेतृत्व क्षमता से बेहद प्रभावित थे तथा उन्होंने गांधीजी को महात्मा (महान आत्मा) कहा। इसके बावजूद गांधीजी तथा टैगोर में कई मुद्दों पर गंभीर मतभिन्नता थी, जिसे हम निम्नलिखित रूपों में देख सकते हैं- टैगोर तर्क तथा औचित्य पर डटे रहने की ज़रूरत पर बल देते थे। गांधीजी ने 1934 के बिहार के भूकंप, जिसमें अनेक लोग मारे गए थे, का उपयोग अपने अस्पृश्यता के विरुद्ध संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिये किया। उन्होंने भूकंप को ‘‘हमारे दोषों के लिये सज़ा देने हेतु भगवान द्वारा भेजा गया माना’’ विशेष रूप से अस्पृश्यता के पाप के लिये। टैगोर ने इसका विरोध किया और इसे दुर्भाग्यपूर्ण बताया और कहा कि यह एक अवैज्ञानिक तर्क है और इसे देश के एक बड़े वर्ग द्वारा हाथों-हाथ लिया जाता है। इसी प्रकार टैगोर गांधीजी की आर्थिक नीतियों से भी सहमत नहीं थे। टैगोर का विचार था कि आधुनिक प्रौद्योगिकी ने सामान्यत: कड़ी मानवीय मेहनत व निर्धनता को कम कर दिया है। टैगोर ने चरखा चलाने के आध्यात्मिक तर्क की निंदा की है। टैगोर और गांधी में आधुनिक औषधियों को लेकर भी मतभेद था गांधीजी का इन औषधियों पर विश्वास नहीं था। इसी प्रकार आधुनिकता के संदर्भ में कुछ अन्य मुद्दे भी थे जिन पर टैगोर और गांधी में मतभिन्नता थी तथापि ऐसे मतभेदों को भिन्न वैश्विक विचारों से उत्पन्न माना जाना चाहिये।</s>
<s>[INST]कश्मीर को शेष भारत से जोड़ने में दार्शनिक विचारों और परंपराओं की क्या भूमिका रही? चर्चा करें ।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोणः • कश्मीरी संस्कृति का संक्षिप्त परिचय। • दार्शनिक विचारों व परंपराओं पर प्रकाश डालें । • सूफी परंपरा से उत्पन्न सांस्कृतिक संबंधों का उल्लेख करें। कश्मीर अपनी प्राकृतिक सुंदरता और भौगोलिक स्थिति के समान कला, साहित्य, नाटक, नृत्य और चित्रकला में भी धनी रहा है। उल्लेखनीय है कि व्यापार एवं राजनीति के अतिरिक्त एक समान दार्शनिक विचारों और परंपराओं के कारण भी कश्मीर शेष भारत से सदैव जुड़ा रहा है। इस संबंध में प्रस्तुत तर्क निम्नलिखित हैं- शैवमत के अभिन्न अंग कश्मीरी शैव मत में वर्णित ‘शिव’ की अवधारणा, दक्षिण भारत में चर्चित शंकर के ‘अद्वैत दर्शन’ के ब्रह्म से समानता रखती है। यह प्रमाण कश्मीर के शैवमत व शेष भारत के दार्शनिक विचारों के आदान-प्रदान को प्रदर्शित करता है। कश्मीरी शैवमत के प्रमुख अभिनव गुप्त की ‘तंत्रलोक’ पुस्तिका में वर्णित ‘तंत्रों’ का प्रचार-प्रसार शेष भारत में हुआ। शंकराचार्य द्वारा स्थापित पीठों में पूजा हेतु ‘केसर’ का प्रयोग होता है। यह ‘केसर’ कश्मीर से मंगाया जाता है। भरत मुनि जो दक्षिण से संबंधित थे, ने नाट्यशास्त्र में 36 अध्यायों का वर्णन किया है जिसे विद्वान, कश्मीर शैवमत में वर्णित ‘36 तत्त्वों’ से संबंधित करते हैं जो निसंदेह एक समान दार्शनिक विचारों को प्रमाणित करता है। कुषाण शासक कनिष्क ने चौथी बुद्ध संगीति कश्मीर में आयोजित की। इसी में बौद्ध धर्म का हीनयान-महायान विभाजन हुआ तथा कश्मीर में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार हुआ। कश्मीर की एक पुस्तक ‘योग वशिष्ठ’ वाल्मिकी से संबंधित है, जिन्होंने रामायण की रचना की थी। यह कश्मीर और शेष भारत के सांस्कृतिक संबंधों को प्रदर्शित करती है। कश्मीर की प्रसिद्ध कवयित्री लालेश्वरी द्वारा रचित कविताओं ने शेष भारत को कश्मीरी भाषा से अवगत कराया। सूफी मत का प्रचार-प्रसार संपूर्ण भारत में हुआ था और कश्मीर भी इससे अछूता नहीं था। इसने कश्मीर व शेष भारत को एक सूत्र में पिरोने का कार्य किया। कश्मीर में नूरूद्दीन नूरानी और लल्ला आरिफी ने सूफी धर्म का प्रचार किया। उल्लेखनीय है कि लल्ला आरिफी को ‘लाल डेड’ (मदर लल्ला) के नाम से भी जाना जाता है। इस प्रकार इन तर्कों के आधार पर दार्शनिक विचारों एवं परंपराओं के संबंध में कश्मीर का शेष भारत से स्पष्ट संबंध दिखाई देता है। इन सब के अतिरिक्त चरक के आयुर्वेद, पाणिनी के व्याकरण, कल्हण की राजतरंगिणी विल्हण के संगीत में शेष भारत की परंपराएँ व दर्शन दृष्टिगत होते हैं।</s>
<s>[INST]प्लासी से विभाजन तक भारत के प्रति अंग्रेज़ों के कार्यक्रम, नीतियाँ और दृष्टिकोण न केवल घरेलू कारकों से निर्धारित होते थे बल्कि इन्हें अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के आयामों ने भी लगातार आकार दिया। टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोणः • प्लासी का युद्ध 1757 में हुआ था, उसके बाद के समय की प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं को संक्षेप में लिखते हुए भारतीय सामाजिक, संवैधानिक सुधारों से जोड़ें। • कुछ प्रमुख भारतीय आंदोलनों का भी जिक्र करें। • विश्वयुद्ध I, II, 1917 की रूसी क्रांति, 1905 में जापान की विजय आदि को भारतीय संवैधानिक सुधारों से जोड़ें। • निष्कर्ष लिखें। प्लासी का युद्ध 1757 में हुआ था। इसके बाद भारत में अंग्रेज़ों ने अपनी पकड़ और मजबूत करनी शुरू कर दी। अमेरिका की क्रांति का ब्रिटिश नीतियों पर स्पष्ट प्रभाव दिखता है। लार्ड कार्नवालिस को अमेरिका में सरेंडर करने के बाद भारत का गवर्नर जनरल बनाकर भारत भेजा गया। अमेरिका जैसी क्रांति भारत में न हो इसके लिये कार्नवालिस ने कठोर नियम एवं कानून बनाए। 1813 के चार्टर से ब्रिटिश नागरिकों को भारत में व्यापार करने की अनुमति मिल गई। इसके मूल में भी वे अंतर्राष्ट्रीय घटनाएँ ज़िम्मेदार थीं, जिसने ब्रिटिश नागरिकों के लिये व्यापार के अवसर सीमित किये थे। भारत में सामाजिक सुधार आंदोलन के परिणामस्वरूप भी अंग्रेज़ों को कई नियम बनाने या बदलने पड़े। 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध तक एक बड़ा मध्यम वर्ग पाश्चात्य चिंतकों से प्रभावित हो चुका था। ऐसे में अंग्रेज़ों को इन सुधार आंदोलनों की मांगों के हिसाब से सोचना पड़ता था। 20वीं सदी में लगभग सभी बड़े भारतीय नेता विदेशों से पढ़ाई पूरी करके आए थे, ऐसे में अंग्रेज़ उनकी संवैधानिक मांगों को खारिज नहीं कर सकते थे। फ्राँस की क्रांति के फलस्वरूप, विश्व भर में नए विचार फैले। उनका प्रभाव ब्रिटिश नीतियों पर पड़ना स्वाभाविक था। 1840 के दशक में जब ब्रिटिश सेना ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया तो वहाँ उसे हार का सामना करना पड़ा। अगले कुछ सालों तक अंग्रेज़ इसलिये चुप थे कि कहीं सोवियत संघ अफगानिस्तान के साथ खुलकर सामने न आ जाए। 1905 में जब जापान ने रूस को पराजित कर दिया तो भारतीयों की इस धारणा को बल मिला कि यूरोपीय अपराजेय नहीं हैं। संवैधानिक सुधारों की दशा में 1909 का मार्ले-मिंटो सुधार इसी का प्रतिफल था। प्रथम विश्वयुद्ध में भारतीय सेना ब्रिटिश सेना की ओर से लड़ी थी, जिसका परिणाम 1919 का मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार के रूप में मिला। भारत में रॉलेट एक्ट लगाने का एकमात्र कारण, अंग्रेज़ों का यह डर था कि कहीं सोवियत संघ की तरह भारत में भी सशस्त्र क्रांति न हो जाए। भारत में मार्क्सवादी अपनी जड़ें न जमा लें, इसके लिये अंग्रेज़ों ने हर किसी घटना का बर्बरतापूर्वक दमन किया। जैसे- कानपुर षड्यंत्र केस, मेरठ षड्यंत्र केस आदि। द्वितीय विश्वयुद्ध के परिणामस्वरूप अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों ने अंग्रेज़ों को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया। स्पष्ट है कि अंग्रेज़ों की नीतियाँ, कार्यक्रम एवं वैचारिक आधार राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं के संश्लेषित रूप का प्रतिफल थे।</s>
<s>[INST]अफगानिस्तान के प्रति ब्रिटिश ‘कुशल अकर्मण्यता’ की नीति 1860 के दशक में अफगानिस्तान में चल रही आंतरिक राजनीतिक उठा- पटक के प्रति ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा अपनाई गई कपटपूर्ण उदासीनता की प्रवृत्ति पर आधारित थी। चर्चा करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोणः • सर्वप्रथम अंग्रेज़ों के राज्य विस्तार के क्रम में उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र के बारे में बताएँ। • अफगानिस्तान के आंतरिक एवं अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के आधार पर ब्रिटिश हित एवं अहित पर चर्चा करें। • अंग्रेज़ों ने ‘चालाकीपूर्ण निष्क्रियता’ को कैसे स्थापित किया। अंग्रेज़ों ने भारत में अपनी पकड़ मजबूत करने के बाद उत्तर-पश्चिम की ओर रुख किया। अफगानिस्तान, भौगोलिक रूप से सोवियत संघ के लिये उपयुक्त था। अंग्रेज़ों ने इसकी परवाह न करते हुए अफगानिस्तान पर आक्रमण कर दिया। इसे प्रथम आंग्ल-अफगानिस्तान युद्ध कहा जाता है, जिसमें अंग्रेज़ों की हार हुई। रूस द्वारा भारत पर आक्रमण का पूर्वानुमान कर रूस से भारत की सुरक्षा हेतु अंग्रेजों द्वारा दो प्रकार की नीतियाँ अपनाई गई - 1.अग्रगामी विचारधारा और 2. कुशल अक्रियता या चालाकीपूर्ण निष्क्रियता’। अग्रगामी विचारधारा की नीति के तहत अंग्रेजों ने अफगानिस्तान के आतंरिक मामलों में हस्तक्षेप किया और परिणामस्वरूप अफगान अमीरों के बीच दो युद्ध लड़े गए। कुशल अक्रियता या ‘चालाकीपूर्ण निष्क्रियता’ की नीति, प्रथम अफगान अंग्रेज़ युद्ध की क्षति तथा पूर्व में हुई नीतिगत गलतियों को सुधारने हेतु अपनाई गई। भारत की ब्रिटिश सरकार ने समय-समय पर एन दोनों ही नीतियों का पालन किया इसके बाद सोवियत संघ की उपस्थिति तुर्की, ईरान एवं तुर्कमेनिस्तान में हो गई। वर्ष 1836 में लार्ड ऑकलैंड को भारत का गवर्नर जनरल बनाया गया और उसकी आक्रमण की नीति असफल हो चुकी थी। वर्ष 1864 में जब जॉन लारेंस भारत में गवर्नर जनरल बनकर आया तब उसने ‘चालाकीपूर्वक निष्क्रियता’ (Masterly Inactivity) की नीति अपनाई। ऐसा करना उसकी मजबूरी भी थी क्योंकि अगर सोवियत संघ हस्तक्षेप करना शुरू कर देता तो यह भारत में स्थापित साम्राज्य के लिये भी खतरा होता। जब अफगानिस्तान में शेर अली ने सत्ता संभाली तब जॉन लारेंस ने उससे मित्रतापूर्ण व्यवहार किया। इस मित्रतापूर्वक व्यवहार के पीछे की मंशा यह थी कि अफगानिस्तान की आंतरिक राजनीति को भली-भाँति समझना अब आसान हो गया था। इस प्रकार यह अंग्रेज़ों द्वारा जानबूझकर अपनाई गई निष्क्रियता थी।</s>
<s>[INST]बिस्मार्क की विदेश नीति उस समय तक सफल रही जब तक वह जर्मनी का चांसलर रहा। आलोचनात्मक विश्लेषण करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोणः • बिस्मार्क की विदेश नीति के उद्देश्य का संक्षिप्त परिचय दें। • विदेश नीतियों का संक्षिप्त वर्णन। • नीतियों का विश्लेषण करें व उत्तर को पुष्ट करें। 1871 ई. के बाद बिस्मार्क की विदेश नीति का प्रमुख उद्देश्य यूरोप में जर्मनी की प्रधानता को बनाए रखना था। जर्मनी को संगठित व शक्तिशाली बनाने के उपरांत बिस्मार्क ने ‘युद्ध-नीति’ त्यागकर और कूटनीतिज्ञ रणनीतियों को अपनाकर यूरोप में शांति स्थापित करने का प्रयास किया। बिस्मार्क की सफल कूटनीतिज्ञ रणनीतियाँ इस प्रकार हैंः तीन सम्राटों का संघः बिस्मार्क ने जर्मनी, ऑस्ट्रिया व रूस को मिलाकर तीन सम्राटों के संघ का गठन किया जो कि कुछ समय बाद बाल्कन की समस्या के परिणामस्वरूप विघटित हो गया। आस्ट्रो-जर्मन द्विगुटः यह बिस्मार्क की कूटनीति की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। इस संधि के अंतर्गत युद्ध अवस्था में एक-दूसरे की सहायता का संकल्प लिया गया। त्रिगुट संगठन का निर्माणः तत्पश्चात् बिस्मार्क ने इटली, जर्मनी व ऑस्ट्रिया का त्रिगुट संगठन बनाया। उल्लेखनीय है कि इटली व ऑस्ट्रिया शत्रु देश थे। पुनराश्वासन संधिः 1883 ई. में जर्मनी और ऑस्ट्रिया ने रूमानिया के साथ संधि की जो रूस के विरुद्ध थी। अतः रूस, फ्राँस से संधि न करे, इस कारण बिस्मार्क ने रूस से 1887 में पुनराश्वासन संधि की। ब्रिटेन के प्रति नीतिः ब्रिटेन की नाविक शक्ति की श्रेष्ठता के कारण बिस्मार्क ने उसे चुनौती नहीं दी। इस प्रकार उसने ब्रिटेन को यूरोपीय व्यवस्था से दूर रखा। रूस के साथ पुनराश्वासन संधि के उपरांत बिस्मार्क को 1890 में त्यागपत्र देना पड़ा। जर्मनी का एकीकरण पूरा होने के उपरांत उसने नए साम्राज्य की सुरक्षा नीति के अंतर्गत एक सशक्त विदेश नीति का अवलंबन किया। बिस्मार्क ने नई संधियों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में एक सर्वथा नवीन पद्धति का सूत्रपात किया और इस व्यवस्था को सफलतापूर्वक लागू किया। हालाँकि बिस्मार्क की समस्त संधियाँ अंतर्विरोधों से परिपूर्ण थीं। ऑस्ट्रिया, इटली व रूस के हित कई मामलों में टकराते थे तथा इनका समन्वय एक जटिल कार्य था जो बिस्मार्क जैसा कूटनीतिज्ञ ही कर सकता था। उसके पदत्याग के 4 वर्ष के भीतर संपूर्ण पद्धति का अंत हो गया। बिस्मार्क की पद्धति में इंग्लैंड सम्मिलित नहीं था जो एक दोष था। अपने कार्यकाल के दौरान बिस्मार्क ने फ्राँस को यूरोपीय राजनीति से अलग-थलग व मित्रविहीन तो रखा परंतु उसे न तो निर्बल बना सका और न ही उसके असंतोषों को दूर कर सका। यही कारण था कि बिस्मार्क की नीतियाँ लघुकालीन थीं। इस प्रकार यह उचित है कि बिस्मार्क के चांसलर रहने तक उसकी नीतियाँ सफल थीं परंतु यह सफलता दीर्घकालीन नहीं थी। क्योंकि बिस्मार्क के उपरांत जर्मनी में ऐसा कोई कूटनीतिज्ञ नहीं था जो गुप्त संधियों के सूक्ष्म संतुलन को बनाए रख सके। फलतः बिस्मार्क के उपरांत फ्राँस को यूरोपीय राजनीति में लौटने का सुअवसर प्राप्त हो गया जिसकी परिणति प्रथम विश्व युद्ध के रूप में हुई। साथ ही अंतर्विरोधों पर टिकी इस व्यवस्था को अत्यंत सफल कहना सर्वथा उचित न होगा।</s>
<s>[INST]19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में भारत की व्यापार प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन हुआ। इन परिवर्तनों और भारतीय अर्थव्यवस्था पर इनके प्रभावों का वर्णन करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोणः • सर्वप्रथम अंग्रेज़ों की आर्थिक नीतियों में परिवर्तन का मूल कारण बताएँ। • भारत के प्रमुख क्षेत्रों, जैसे कृषि, उद्योग, आत्मनिर्भरता, आयात-निर्यात आदि पर क्या प्रभाव पड़ा? विश्लेषण कीजिये। • निष्कर्ष। उन्नीसवीं सदी का उत्तरार्द्ध कई मायनों में प्रमुख था। ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप वहाँ सूती कपड़ों आदि की मशीनें स्थापित हो चुकी थीं। अब भारत को कच्चे माल के उत्पादक एवं मशीनी उत्पाद के बाज़ार के रूप में देखा जाने लगा था। इसके लिये अंग्रेज़ों ने भारत में रेलवे लाइनें बिछाईं ताकि इसका एकमात्र उद्देश्य भारत के कच्चे माल को आसानी से बंदरगाहों तक पहुँचाया जा सके। भारत परंपरागत रूप से कृषि एवं खाद्य सुरक्षा के मामले में आत्मनिर्भर था। लेकिन अब अंग्रेज़ी पूंजीपतियों ने भारत में व्यापारिक फसलों, जैसे चाय, कॉफी आदि के बागान लगाने शुरू कर दिये। अन्य औद्योगिकता महत्त्व की फसलें जैसे- नील आदि की खेती को अनिवार्य कर दिया गया। इससे परंपरागत कृषि का ढाँचा ही टूट गया। भारत में कुटीर उद्योग से लोगों को रोजगार भी मिलता था और उनकी मूलभूत ज़रूरतें भी पूरी हो जाती थीं। अब विलायत से बने उत्पादों से भारतीय बाज़ार पट गए। इससे न सिर्फ भारतीय उद्योगों का अंत हुआ बल्कि विलायती सामान खरीदने के कारण भारत का बहुत सारा पैसा विदेशी पूंजीपतियों के हाथ में गया। कुछ भारतीय आर्थिक विशेषज्ञों ने अंग्रेज़ों की इस नीति को भारतीय सम्पत्ति की लूट भी कहा है। स्पष्ट रूप से अब भारत विदेशी आयात पर निर्भर होता चला जा रहा था। यह भारत के व्यापारिक इतिहास में पहला अवसर था। इसने भारतीय अर्थव्यवस्था को पंगु कर दिया, जिसका परिणाम अगले कई दशकों तक परिलक्षित होता रहा।</s>
<s>[INST]आधुनिक भारतीय वास्तुकला के विकास पर टिप्पणी लिखें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका । • विभिन्न इमारतें तथा उनकी निर्माण शैली। औरंगज़ेब की मृत्यु के पश्चात धीरे-धीरे मुगल सत्ता कमज़ोर होने लगी ,इसका फायदा यूरोपीय कंपनियों ने उठाया। भारत में केंद्रीय मुगल सत्ता कमज़ोर होने के बाद क्षेत्रीय शासकों ने क्षेत्र विशेष पर कब्ज़ा कर शासन करना शुरू कर दिया, तत्पश्चात इन शासकों को हराकर अंग्रेज़ों ने 1947 तक भारत पर शासन किया। अतः आधुनिक काल में भारत पर यूरोपीय शक्तियों के आधिपत्य के साथ ही स्थापत्य में भी यूरोपीय प्रभाव पड़ना शुरू हो गया क्योंकि यूरोपीय लोगों के पास भी वास्तुकला का विपुल ज्ञान था जो भारतीय स्थापत्य में भी दृष्टिगोचर होता है। अंग्रेज़ों ने गोथिक एवं नवगोथिक, इम्पीरियल, क्रिश्चियन, विक्टोरियन, नवशास्त्रीय, रोमांसक्यू व पुनर्जागरण जैसी यूरोपीय शैलियों की इमारतें बनवाईं। अंग्रेज़ों ने भारतीय उपनिवेश को अपने घर जैसा माहौल देने के लिए, अपनी सांस्कृतिक श्रेष्ठता के प्रदर्शन तथा भारतीय लोगों से दूरी बनाए रखने हेतु यूरोपीय शैली को अपनाया। 1833 ई. में बना मुंबई का टाउन हॉल तथा 1860 के दशक में मुंबई में बनी कई इमारतें नवशास्त्रीय शैली के उदाहरण हैं इनमें बड़े-बड़े स्तंभों के पीछे रेखागणितीय संरचनाओं का निर्माण किया गया। नवगोथिक शैली में मुंबई के सचिवालय, विश्वविद्यालय, उच्च न्यायालय जैसी कई इमारतें बनीं जो तत्कालीन वणिक वर्ग को पसंद आईं। नवगोथिक शैली का सबसे अच्छा उदाहरण वर्तमान मुंबई का छत्रपति शिवाजी टर्मिनस है जो कभी ग्रेट इंडियन पेनिनसुलर रेलवे कंपनी का स्टेशन और मुख्यालय विक्टोरिया टर्मिनस था। इसे विश्व विरासत सूची में भी शामिल कर लिया गया है। इंडो-सारसेनिक शैली हिंदू, मुस्लिम और पश्चिमी तत्त्वों का मिश्रण है जिसमें गुंबदों, छतरियों, जालियों व मेहराबों को अपनाया गया है। अंग्रेज़ों ने इस शैली में सार्वजनिक भवन, जैसे- डाकखाना, रेलवे स्टेशन, विश्राम गृह, सरकारी दफ्तर आदि का निर्माण करवाया। विलियम इमरसन ने कलकत्ता के विक्टोरिया मेमोरियल को बनाने में ताजमहल से प्रेरणा ली, यह ब्रिटिश स्थापत्य में भारतीय तत्त्वों की बढ़ती मात्रा का प्रतीक है। आगे सेंट जॉन कॉलेज आगरा, इलाहाबाद विश्वविद्यालय (म्योर कॉलेज) तथा मद्रास उच्च न्यायालय के निर्माण में यह शैली निखरकर सामने आई। दिल्ली का स्थापत्य दिल्ली में कश्मीरी गेट क्षेत्र में मेटकॉफ हाउस (1835) तथा सेंट जेम्स चर्च (1836) दिल्ली के सबसे पुराने ब्रिटिश स्थापत्य के नमूने हैं। इसके अलावा टाउन हॉल (1866), घंटाघर (1868), सेंट स्टीफन कॉलेज (1881), हिंदू कॉलेज (1866), रामजस कॉलेज (1917) आदि उस दौर के महत्त्वपूर्ण स्थापत्य हैं। वर्ष 1911 में नई दिल्ली की देश की नई राजधानी की घोषित किये जाने से पहले ब्रिटिश अधिकारी सिविल लाइंस इलाके में रहते थे। नई राजधानी या नई दिल्ली के स्थापत्य का काम एडविन लैंडसिर लुटियन और हरबर्ट बेकर को सौंपा गया। वाइसरीगल लॉज वायसराय का पहला निवास बना, इसे बाद में दिल्ली विश्वविद्यालय (1922 ई.) बना दिया गया। लुटियन के ज़िम्मे नई दिल्ली शहर एवं गवर्नमेंट हाउस और हरबर्ट बेकर के ज़िम्मे सचिवालय के दो हिस्से (नॉर्थ और साउथ ब्लॉक) और काउंसिल हाउस को तैयार करने का भार आया। राष्ट्रपति भवन (1929 ई.) वायसराय पैलेस (अब राष्ट्रपति भवन) के वास्तुकार एडविन लुटियन थे। लुटियन के सहयोगी मुख्य इंजीनियर ह्यूज कीलिंग व भारतीय सहयोगियों में हारून अल रशीद, सुजान सिंह और उनके पुत्र शोभा सिंह (अंग्रेज़ी लेखक खुशवंत सिंह के पिता) शामिल थे। इस विशाल भवन में चार मंज़िलें और 340 कमरे हैं। लाल बलुआ पत्थर से निर्मित राष्ट्रपति भवन के मुख्य गुम्बद को साँची के बौद्ध स्तूप और जालियों को मुगल स्थापत्य कला की तर्ज़ पर बनाया गया है। राष्ट्रपति भवन की एक अन्य विशेषता इसके स्तंभों में भारतीय मंदिरों की घंटियों का प्रयोग है। राष्ट्रपति भवन रायसीना पहाड़ी पर बनाया गया दिल्ली का सबसे उँचा भवन है। संसद भवन संपदा (1927 ई.) इसके अंतर्गत संसद भवन, संसदीय ज्ञानपीठ (ग्रंथालय), संसदीय सौंध और इसके आस-पास के विस्तृत लॉन आदि शामिल हैं। इसके वास्तुकार एडविन लुटियन और हरबर्ट बेकर थे और इसे बनाने में 6 वर्ष (1921-27 ई.) लगे। इसके विशाल वृत्ताकार क्षेत्र में लोकसभा, राज्यसभा और पूर्ववर्ती ग्रंथालय (पहले यह प्रिंसेस चैम्बर था) हैं और इनके मध्य उद्यान प्रांगण है। केन्द्रीय कक्ष गोलाकार है और इसके 98 फुट व्यास वाले गुंबद को विश्व के भव्यतम गुंबदों में से एक माना जाता है। 15 अगस्त, 1947 ई. को ब्रिटिश शासन द्वारा भारत को सत्ता हस्तांतरण तथा संविधान सभा द्वारा भारतीय संविधान का निर्माण इसी कक्ष में हुआ था। इंडिया गेट यह एक युद्ध स्मारक है जिसका निर्माण 1931 ई. में प्रथम विश्वयुद्ध व अफगान युद्ध में शहीद हुए सैनिकों की स्मृति में किया गया। 43 मीटर उँचे इस विशाल द्वार का निर्माण राजपथ दिल्ली में लाल बलुआ पत्थर से हुआ है, जिसके वास्तुकार लुटियन थे। स्थापत्य की दृष्टि से इंडिया गेट की तुलना ट्रिम्फल आर्क, रोम; आर्क द ट्रिम्पे (पेरिस) तथा गेट-वे-ऑफ इंडिया से की गई है। कनॉट प्लेस (मौजूदा राजीव चौक) का डिज़ाइन ‘राबर्ट टोर रसेल’ ने तैयार किया था।</s>
<s>[INST]‘भारत और पाकिस्तान की वर्तमान दशाओं का मूल कारण वास्तव में नेहरू तथा जिन्ना के व्यक्तित्व में ढूंढा जा सकता है; टिप्पणी कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रत्येक राष्ट्र का भविष्य उसके नेतृत्वकर्त्ताओं के व्यक्तित्व में अवश्य प्रतिबिंबित होता है, भारत और पाकिस्तान भी इसके अपवाद नहीं हैं। जैसे-जैसे भारत का स्वतंत्रता संघर्ष निर्णायक स्तर पर पहुँचता गया वैसे-वैसे जिन्ना तथा नेहरू के व्यक्तित्व तथा कृतित्व ने दोनों देशों को प्रभावित किया। सर्वप्रथम यदि जिन्ना के व्यक्तित्व पर गौर करें तो उनमें एक वकील की कुशलता, एक राजनीतिज्ञ का चातुर्य तथा अवसरों के दक्षतापूर्ण प्रयोग की निपुणता अवश्य थी, किंतु जिन्ना में एक नेता की वह संगठनिक क्षमता नहीं दिखाई देती जो एक राष्ट्र को एकीकृत रखते हुए उसके संस्थापना के मूल्यों को अक्षुण्ण बना सके। ध्यातव्य है कि धर्म और राजनीति के गठजोड़ को आधार बनाकर असहयोग एवं खिलाफत आंदोलन का विरोध करने वाले जिन्ना आगे चलकर धर्म आधारित राष्ट्र के ही समर्थक बने। जिन्ना के सिद्धांतों पर गठित आधुनिक इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान न तो अपनी संप्रभुता, न ही अपनी धर्मनिरपेक्षता तथा लोकतांत्रिक व्यवस्था को अक्षुण्ण रख सका। बांग्लादेश का पाकिस्तान से अलगाव यह सिद्ध करता है कि एक आधुनिक राष्ट्र का गठन धर्म आधारित राष्ट्रवाद से नहीं बल्कि समावेशी स्वीकार्यतावादी एवं बहुसांस्कृतिक मूल्यों से होता है। इसी तरह कोई भी लोकतांत्रिक व्यवस्था बिना लोकतांत्रिक मूल्यों को आत्मसात किये तानाशाही एवं सैन्य तख्ता पलट में परिवर्तित हो जाती है। जिन्ना के बरक्स जब हम नेहरू के व्यक्तित्व पर नज़र डालते हैं तो हम पाते हैं कि वे स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान अर्जित गांधीवादी मूल्यों के स्वतंत्र भारत में वास्तविक संवाहक बनते हैं। नेहरू की बहुसांस्कृतिक दृष्टि संतुलित राष्ट्रवाद का निर्माण करती है, जिसकी झलक धर्मनिरपेक्ष भारतीय राष्ट्रवाद में आज भी विद्यमान है। नेहरू की अंतर्राष्ट्रीयतावादी मानवीय जीवन दृष्टि उनके पंचशील एवं गुटनिरपेक्षता के माध्यम से भारत की विदेश नीति एवं ‘सॉफ्टपावर’ को आज भी मज़बूत आधार प्रदान करती है। नेहरू ने आधुनिक, समग्रतावादी एवं आत्मनिर्भरतापरक प्रयासों से भारत को न सिर्फ आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से मज़बूत किया है बल्कि भारत की धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक व्यवस्था को भी अक्षुण्ण बनाये रखा है। नवस्वतंत्र राष्ट्र के रूप में नेहरू ने अपने प्रथम भाषण में अशिक्षा, भुखमरी तथा सांप्रदायिकता को भारत का प्रथम शत्रु माना तो दूसरी ओर जिन्ना ने कश्मीर को अपने लिये चुनौती मानकर कबीलाई युद्ध प्रारंभ कर दिया। निष्कर्षत: साथ ही स्वतंत्र हुए दोनों राष्ट्रों के प्रारंभिक नेतृत्वकर्ताओं के व्यक्तित्व तथा कृतित्व ने दोनों देशों को गहनता से प्रभावित किया है। एक सैन्य शक्ति के रूप में भारत को चुनौती देने में सक्षम पाकिस्तान गैर-लोकतांत्रिक एव गैर-राज्य अभिकर्त्ताओं के प्रभाव में ‘डीप-स्टेट’, बनने के मुहाने पर खड़ा है। मानव विकास, लोकतांत्रिक मूल्यों, स्वतंत्र विदेश नीति, सुरक्षित संप्रभुता, संगठित राष्ट्र एवं धर्मनिरपेक्षता के मूल्य पर नेहरूवादी दृष्टिकोण वर्तमान में जिन्ना के दृष्टिकोण से ज़्यादा प्रभावी सिद्ध हुआ। इसी क्रम में ‘ऑर्गनाइज़ेशन ऑफ इस्लामिक को-ऑपरेशन’ में भारत का प्रवेश कहीं-न-कहीं नेहरूवादी दृष्टिकोण की प्रबल प्रासंगिकता को सिद्ध करता है।</s>
<s>[INST]क्षेत्रवाद की भावना बढ़ने के पीछे निहित कारणों की चर्चा करते हुए बताएं कि क्या क्षेत्रवाद प्रत्येक रूप में राष्ट्र विरोधी है?[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका। • क्षेत्रवाद की भावना बढ़ने के पीछे निहित कारणों की चर्चा। • क्या क्षेत्रवाद प्रत्येक रूप में राष्ट्र विरोधी है? किसी राज्य अथवा क्षेत्र पर सांस्कृतिक वर्चस्व तथा भेदभाव मूलक व्यवहार क्षेत्रवाद को उत्पन्न करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वास्तव में जब एक राज्य अथवा क्षेत्र के हितों को पूरे देश अथवा दूसरे क्षेत्रों या राज्यों के विरुद्ध पेश करने की कोशिश की जाती है तो क्षेत्रवाद का जन्म होता है। भारत में क्षेत्रवाद की समस्या आज़ादी के बाद से ही विद्यमान रही जहाँ भाषा, संस्कृति व भौगोलिक आधारों पर टकराव देखने को मिला। इस संबंध में सरकारों द्वारा कुछ प्रयासों के माध्यम से समस्या का हल खोजने का प्रयास किया गया जैसे भाषायी आधार पर कुछ राज्यों का पुनर्गठन लेकिन इस समस्या का पूर्ण समाधान न हो सका। क्षेत्रवाद हेतु ज़िम्मेदार कारक: राज्यों के मध्य आर्थिक असमानता क्षेत्रवाद की भावना को बढ़ाती है। हालाँकि इस संदर्भ में सरकार द्वारा आज़ादी के बाद कई स्तरों पर प्रयास किये गए जिसमें पंचवर्षीय योजना एवं वित्त आयोग का गठन महत्त्वपूर्ण है किंतु इससे भी राज्यों के मध्य आर्थिक असमानता की खाई कम नहीं हुई। परिमणास्वरूप पिछड़े क्षेत्रों में असंतोष की भावना बलवती होती गई। राजनीतिक तथा प्रशासनिक तंत्र की विफलता भी क्षेत्रवाद को बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाती है। उदाहरण- भ्रष्टाचार का उच्च स्तर, कमज़ोर प्रशासन तथा गिरती कानून व्यवस्था की बारंबारता भी इसकी सक्रियता के लिये ज़िम्मेदार है। भौगोलिक एवं सांस्कृतिक विविधता को भी क्षेत्रवाद की भावना को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में देखा जा सकता है। क्षेत्रवाद की भावना को उत्पन्न करने में पलायनवादी प्रवृत्ति की भी भूमिका रही है। प्रवासी बेहतर रोज़गार तथा शिक्षा के लिये दूसरे राज्य की ओर पलायन करते हैं जिसके कारण स्थानीय समुदाय स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगता है। उपरोक्त कारणों से क्षेत्रवाद को बढ़ावा मिलता है। परिणामस्वरूप विभिन्न राज्यों में आर्थिक, राजनीतिक तथा मनोवैज्ञानिक संघर्ष बढ़ता चला जाता है। इससे देश की एकता, अखंडता के लिये खतरा उत्पन्न होने के साथ-साथ राष्ट्र निर्माण तथा विकास में बाधाएँ पहुँचती हैं। विकास की असमानता के कारण कई बार क्षेत्रों के मध्य तनाव का माहौल निर्मित हो जाता है। परिणामस्वरूप अलग राज्य की मांग व स्वायत्त क्षेत्र की स्थापना को लेकर आंदोलन चलाएं जाते हैं। उपरोक्त विश्लेषक से स्पष्ट होता है कि क्षेत्रवाद राष्ट्रवाद की भावना का प्रतिकूल है परंतु भारत के नीति निर्माताओं ने भाषा, धर्म तथा असमान विकास के आधार पर क्षेत्रवाद की बलवती होती भावना पर अपनी सूझबूझ तथा नीतियों से अंकुश लगाकर क्षेत्रवाद को कभी भी राष्ट्रवाद का विरोधी नहीं बनने दिया।</s>
<s>[INST]हाल ही में राज्यसभा के एक सदस्य द्वारा ‘दो बच्चों की नीति’ से संबंधित एक निजी विधेयक या गैर-सरकारी विधेयक सदन में प्रस्तुत किया गया है। विधेयक में निहित प्रमुख बिंदुओं की चर्चा करते हुए ‘दो बच्चों की नीति’ के पक्ष तथा विपक्ष में अपने विचार प्रस्तुत करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका। • ‘दो बच्चों की नीति’ से संबंधित एक निजी विधेयक का परिचय। • इसके प्रमुख बिंदु। • पक्ष तथा विपक्ष के बिंदु। • निष्कर्ष। हाल ही में राज्यसभा के एक सदस्य द्वारा’ दो बच्चों की नीति’ से संबंधित एक निजी विधेयक सदन के समक्ष प्रस्तुत किया गया जिसमें उल्लिखित कुछ प्रमुख बिंदु निम्नवत हैं- इस संविधान संशोधन विधेयक में उन लोगों के लिये कराधान, शिक्षा और रोज़गार को प्रोत्साहन दिए जाने का प्रस्ताव है जो अपने परिवार का आकार दो बच्चों तक सीमित रखते हैं। विधेयक में संविधान के भाग-IV में एक नए प्रावधान को शामिल करने की मांग की गई है, जो ऐसे लोगों से सभी रियायतें वापस लेने से संबंधित है जो ‘छोटे-परिवार’ के मानदंड का पालन करने में विफल रहते हैं। विधेयक संविधान में अनुच्छेद-47 के बाद अनुच्छेद-47A के सम्मिलन का प्रस्ताव करता है। प्रस्तावित अनुच्छेद 47A के अनुसार, “राज्य, बढ़ती जनसंख्या को नियंत्रित करने की दृष्टि से छोटे परिवार को बढ़ावा दें। जो लोग अपने परिवार को 2 बच्चों तक सीमित रखते हैं उन्हें कर, रोज़गार और शिक्षा आदि में प्रोत्साहन देकर बढ़ावा दिया जाए और जो लोग इस नीति का पालन न करें उनसे सभी तरह की छूट वापस ले ली जाए। उल्लेखनीय है कि इससे पूर्व मार्च 2018 में ‘दो बच्चों की नीति’ की आवश्यकता पर सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की गई थी। हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि नीति निर्माण न्यायालय का कार्य नहीं है। यह संसद से संबंधित मामला है और न्यायालय इसमें दखल नहीं दे सकता। नीति के पक्ष में तर्क जनसंख्या बढ़ने से बेरोज़गारी, गरीबी, अशिक्षा, खराब स्वास्थ्य और प्रदूषण जैसी समस्याएँ बढ़ती हैं। इसलिये ‘दो बच्चों की नीति’ उपरोक्त समस्याओं के हल की दिशा में एक कारगर उपाय सिद्ध हो सकती है। वर्ष 2050 तक देश की शहरी आबादी दोगुनी हो जाएगी, जिसके चलते शहरी सुविधाओं में सुधार किये जाने और सभी को आवास उपलब्ध कराने की चुनौती होगी। आय का असमान वितरण और लोगों के बीच बढ़ती असमानता अत्यधिक जनसंख्या के नकारात्मक परिणामों के रूप में देखें जा सकते हैं । जहाँ एक ओर जनसंख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है. तो वहीं दूसरी ओर कृषि योग्य भूमि तथा खाद्य फसलों के उत्पादन में कमी हो रही है जिससे लोगों के समक्ष खाद्यान्न का संकट उत्पन्न हो रहा है। नीति के विपक्ष में तर्क नीति के क्रियान्वयन में बड़े पैमाने पर ज़बरन नसबंदी और गर्भपात जैसे उपाय अपनाए जाने की भी आशंका है। इस नीति से वृद्ध लोगों की जनसंख्या बढ़ेगी तथा वृद्ध लोगों को सहारा देने के लिये युवा जनसंख्या में कमी आ आयेगी। इस नीति से हम जनसांख्यिकीय लाभांश की अवस्था को खो देंगे। जनसंख्या नियंत्रण के अन्य उपाय: आयु की एक निश्चित अवधि में मनुष्य की प्रजनन दर अधिक होती है। यदि विवाह की आयु में वृद्धि की जाए तो बच्चों की जन्म दर को नियंत्रित किया जा सकता है। शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार तथा लोगों के अधिक बच्चों को जन्म देने के दृष्टिकोण को परिवर्तित करना। भारतीय समाज में किसी भी दंपत्ति के लिये संतान की प्राप्ति को आवश्यक समझा जाता है तथा इसके बिना दंपत्ति को समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता है, यदि इस सोच में बदलाव किया जाना आवश्यक है। निष्कर्षतः जनसंख्या वृद्धि ने कई चुनौतियों को जन्म दिया है किंतु इस पर नियंत्रण के लिये कानूनी तरीका एक उपयुक्त कदम नहीं माना जा सकता। भारत की स्थिति चीन से पृथक है तथा चीन के विपरीत भारत एक लोकतांत्रिक देश है जहाँ हर किसी को अपने व्यक्तिगत जीवन के विषय में निर्णय लेने का अधिकार है। भारत में कानून का सहारा लेने के बजाय जागरूकता अभियान, शिक्षा के स्तर को बढ़ाकर तथा गरीबी को समाप्त करने जैसे उपाय अपनाकर जनसंख्या नियंत्रण के लिये प्रयास करना चाहिये। परिवार नियोजन से जुड़े परिवारों को आर्थिक प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये तथा ऐसे परिवार जिन्होंने परिवार नियोजन को नहीं अपनाया है उन्हें विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से परिवार नियोजन हेतु प्रेरित करना चाहिये।</s>
<s>[INST]भारत सरकार ने कृषि निर्यात नीति-2018 के तहत कृषि क्लस्टर को बढ़ावा देने का फैसला लिया है। कृषि क्लस्टर से क्या आशय है? भारत में कृषि क्लस्टर की संभावनाओं तथा चुनौतियों की चर्चा करते हुए समाधान के बिंदु प्रस्तुत करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका। • कृषि क्लस्टर क्या है ? • भारत में कृषि क्लस्टर की संभावनाएं। • चुनौतियाँ। बोसवर्थ और ब्रून के अनुसार, "उद्योगों की भौगोलिक विशेषता जो कि स्थान विशेष की परिस्थितियों के माध्यम से अधिक लाभ प्राप्त करती है" क्लस्टर कहलाती है। क्लस्टर से जुड़े उद्योगों और अन्य संस्थाओं की एक शृंखला होती है जिसमें संबंधित उद्योग के घटक, मशीनरी, सेवा और विशेष बुनियादी ढाँचा शामिल होता है। क्लस्टर अक्सर चैनलों के माध्यम से ग्राहकों, कंपनियों के साथ-साथ उद्योग विशेष से संबंधित कौशल एवं प्रौद्योगिकियों के मध्य एकीकृत दृष्टिकोण स्थापित करता है। क्लस्टर आधारित कृषि: विकासशील देशों में टिकाऊ विकास की सबसे बड़ी संभावना कृषि क्षेत्र में निहित है। यहाँ पर गरीबी व्यापक और खराब स्वरूप में विद्यमान है तथा किसान छोटे पैमाने पर सीमित क्षेत्रों में कृषि करते हैं। विकासशील देशों के ये किसान कम मार्जिन के "संतुलन के चक्र" (Cycle of Equilibrium) से घिरे हैं जहाँ पर सीमित क्षमता और कम निवेश के चलते कम उत्पादकता, कम बाज़ार उन्मुखीकरण जैसी परिस्थितियाँ व्याप्त हैं। इस चक्र को दीर्घकालीन प्रतिस्पर्द्धा के माध्यम से ही तोड़ा जा सकता है। भारत में कृषि क्लस्टर: भारत भौगोलिक, जलवायवीय और मृदा संबंधी विविधता वाले विशाल देशों में से एक है इसीलिये भारत के कृषि स्वरूप में पर्याप्त विविधता है। भारत के विभिन्न क्षेत्र किसी विशेष फसल की कृषि के लिये आदर्श स्थल हैं, उदाहरणस्वरूप गुजरात और महाराष्ट्र में कपास की फसल संबंधी आदर्श स्थितियाँ हैं। इसी प्रकार किसी फसल विशेष के संबंध में भी स्थानीय विविधता है, जैसे- मूँगे की विभिन्न किस्मों के लिये कर्नाटक, झारखंड और असम में विशेष परिस्थितियाँ पाई जाती हैं। धान की अमन, ओसों जैसी प्रजातियाँ विभिन्न कृषि क्षेत्रों में बेहतर उत्पादन करती हैं। भारत में कृषि अर्थव्यवस्था के क्षेत्रीकरण संबंधी पूर्व अध्ययनों की जाँच करने के बाद योजना आयोग द्वारा यह सिफारिश की गई थी कि कृषि-आयोजन संबंधी नीतियाँ कृषि-जलवायु क्षेत्रों के आधार पर तैयार की जानी चाहिये। इसी प्रकार संसाधन विकास के लिये देश को कृषि-जलवायु विशेषताओं, विशेष रूप से तापमान और वर्षा सहित मृदा कोटि, जलवायु एवं जल संसाधन उपलब्धता के आधार पर पंद्रह कृषि जलवायु क्षेत्रों में बाँटा गया है। इस प्रकार भारत की कृषि जलवायु विविधता को देखते हुए भारत में क्लस्टर आधारित कृषि की पर्याप्त संभावनाएँ हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में खाद्य और कृषि संगठन द्वारा महाराष्ट्र में क्लस्टर से संबंधित कई प्रतिस्पर्द्धा तथा कमी के कारणों की समीक्षा की। भारत में इस प्रकार की कृषि से संभावनाएँ: वे देश जो अधिक खाद्यान्न उत्पादन करते हैं, की अपेक्षा भारत में अधिक कृषि क्षेत्र है परंतु भारत में विस्तृत कृषि की कमी के कारण उत्पादन के अपेक्षित स्तर को प्राप्त नही किया जा सका है। हरित क्रांति का प्रभाव भी भारत के सीमित क्षेत्रों को ही लाभान्वित कर पाया है, इसी परिप्रेक्ष्य में भारत में विद्यमान सीमांत एवं छोटी जोत वाले कृषि क्षेत्र के मध्य क्लस्टर आधारित कृषि की असीम संभावनाएँ हैं। विभिन्न कृषि क्षेत्रों में आदर्श फसल और उससे संबंधित बुनियादों बातों को ध्यान में रखते हुए विशेष विनियामक रणनीति के माध्यम से कृषको की आय दुगुनी करने संबंधी प्रयोजनों में बेहतर सफलता प्राप्त की जा सकती है। इसके अतिरिक्त भारत में कृषकों की खाद्यान्न से संबंधित कृषि अवधारणा को व्यावसायिक कृषि में बदल कर स्थानीय प्रवास, रोज़गार और स्थानीय व्यवसाय जैसे सुधारों के माध्यम से कृषि पर निर्भर 50% जनसंख्या की समस्याओं के समाधान के साथ-साथ आर्थिक विकास में कृषि प्रासंगिक भूमिका निभा सकती है क्योंकि भारत अभी भी विकासशील व कृषि प्रधान देश है। समस्याएँ: भारत में कृषि परंपरागत दृष्टिकोण के आधार पर खाद्यान्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये की जाती है जिसमें कौशल, ज्ञान और नवीन तकनीकों का अभाव देखा जाता है। इसके अतिरिक्त कृषकों के समक्ष कृषि एवं फसल संबंधी जानकारियों का अभाव जैसी सामान्य समस्याएँ हैं। भारत में अभी भी समर्पित संस्थाओं, कृषि विशेष क्षेत्रों एवं अनुसंधानों तथा इन अनुसंधानों की जानकारी का कृषकों की पहुँच से दूरी जैसे कारक इस क्षेत्र की सफलता में बाधक बने हैं। खाद्य और कृषि संगठन द्वारा हाल के वर्षों में चिली और अर्जेंटीना जैसे देशों में इस प्रकार की कृषि के सफल प्रयोग किये गए हैं। इस प्रकार की कृषि के परिणामस्वरूप वहाँ पर कृषि उत्पादन और कृषकों की आय में बेहतर सुधार देखा गया हैं। समाधान: भारत में विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित समर्पित शोध संस्थाओं की स्थापना की जानी चाहिये इसके अतिरिक्त पहले से स्थापित संस्थानों के कार्य निष्पादन में अपेक्षित सुधार किया जाना चाहिये। इस प्रकार के संस्थानों के शोध के आधार पर पाठ्यक्रम एवं तकनीकी ज्ञान का भी प्रसार किया जाना चाहिये। किसी क्षेत्र से संबंधित स्वयं सहायता समूहों (SHG) एवं गैर-सरकारी संगठनों के माध्यम से सामान्य और तकनीकी जानकारी का प्रसार किया जाए इसके अतिरिक्त विभिन्न क्षेत्रों में कार्यशालाओं का आयोजन किया जाना चाहिये। क्षेत्र विशेष पर समर्पित एप भी बनाए जाने चाहिये ताकि सभी प्रकार की जानकारियों को अद्यतन किया जा सके। इस प्रकार के एप के परिचालन संबंधी क्रिया-कलापों हेतु ग्राम पंचायत और स्थानीय स्तर पर नियमित कार्यशालाओं का किया जाना चाहिये। वित्तीय प्रवाह, अवसंरचना और जागरूकता के साथ-साथ बाज़ार पहुँच जैसी अन्य आवश्यकताओं को पूरा कर भारत अपनी श्रम शक्ति और जनसंख्या का बेहतर प्रयोग अपने आर्थिक एवं मानव विकास के लिये कर सकता है।</s>
<s>[INST]शीत युद्ध से आप क्या समझते हैं? इसके उद्भव के कारणों का परीक्षण करते हुए शीत युद्ध के दौरान घटित प्रमुख घटनाओं का विवरण दीजिये ।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • शीतयुद्ध क्या है ? • उद्भव के कारण क्या रहें ? • शीतयुद्ध के दौरान घटित प्रमुख घटनाएँ। शीतयुद्ध शब्द वाल्टर लिपमैन नामक विद्वान द्वारा गढ़ा गया। शीतयुद्ध शब्द से सोवियत संघ-अमेरिकी शत्रुतापूर्ण एवं तनावपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की अभिव्यक्ति होती है। शीतयुद्ध एक प्रकार का वाक् युद्ध था इसमें वैचारिक घृणा, राजनैतिक अविश्वास, कूटनीतिक जोड़-तोड़, सैनिक प्रतिस्पर्धा, जासूसी और मनोवैज्ञानिक युद्ध जैसे तत्त्व शामिल थे। शीत युद्ध के कारण: द्वितीय विश्वयुद्ध में सहयोगी देश (अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस) तथा सोवियत संघ ने धुरी शक्तियों (नाज़ी जर्मनी, जापान, ऑस्ट्रिया) के विरुद्ध साथ मिलकर संघर्ष किया था। लेकिन विभिन्न कारणों से यह युद्धकालीन गठबंधन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद साथ नहीं रह सका। पॉट्सडैम सम्मेलन पॉट्सडैम सम्मेलन का आयोजन वर्ष 1945 में बर्लिन में अमेरिका, ब्रिटेन और सोवियत संघ के बीच निम्नलिखित प्रश्नों पर विचार करने के लिये किया गया था: पराजित जर्मनी में तत्काल प्रशासन की स्थापना। पोलैंड की सीमाओं का निर्धारण। ऑस्ट्रिया का आधिपत्य। पूर्वी यूरोप में सोवियत संघ की भूमिका। सोवियत संघ चाहता था कि पोलैंड के एक भाग (सोवियत संघ की सीमा से लगा क्षेत्र) को बफर ज़ोन के रूप में बनाए रखा जाए किंतु संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन इस मांग से सहमत नहीं थे। इसके साथ ही अमेरिका ने सोवियत संघ को जापान पर गिराए गए परमाणु बम की सटीक प्रकृति के बारे में कोई सूचना नहीं दी थी। इसने सोवियत संघ के अंदर पश्चिमी देशों की मंशा को लेकर एक संदेह पैदा किया जिसने गठबंधन संबंध को कटु बनाया। ट्रूमैन सिद्धांत ट्रूमैन सिद्धांत की घोषणा 12 मार्च, 1947 को अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी एस. ट्रूमैन द्वारा की गई थी। ट्रूमैन सिद्धांत सोवियत संघ के साम्यवादी और साम्राज्यवादी प्रयासों पर नियंत्रण की एक अमेरिकी नीति थी जिसमें दूसरे देशों को आर्थिक सहायता प्रदान करने जैसे विविध उपाय अपनाए गए। इतिहासकारों का मानना है कि इसी सिद्धांत की घोषणा से शीतयुद्ध के आरंभ की आधिकारिक घोषणा चिह्नित होती है। आयरन कर्टेन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सोवियत संघ द्वारा स्वयं को और उसके आश्रित पूर्वी एवं मध्य यूरोपीय देशों को पश्चिम एवं अन्य गैर-साम्यवादी देशों के साथ खुले संपर्क से अलग रखने के लिये एक राजनीतिक, सैन्य और वैचारिक अवरोध खड़ा किया गया जिसे ‘आयरन कर्टेन’ कहा गया। ‘आयरन कर्टेन’ शब्दावली का प्रयोग सर्वप्रथम ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल द्वारा किया गया था। इस आयरन कर्टेन के पूर्व में वे देश थे जो सोवियत संघ से जुड़े थे या उससे प्रभावित थे, जबकि पश्चिम में वे देश थे जो अमेरिका और ब्रिटेन के सहयोगी थे या लगभग तटस्थ थे। शीत युद्ध की अन्य महत्त्वपूर्ण घटनाएँ: बर्लिन की घेराबंदी: जैसे ही सोवियत संघ और सहयोगी देशों के बीच तनाव बढ़ा सोवियत संघ ने वर्ष 1948 में बर्लिन की घेराबंदी शुरू कर दी। बर्लिन की घेराबंदी सोवियत संघ द्वारा सहयोगी देशों के नियंत्रण वाले बर्लिन क्षेत्र में उनकी गतिशीलता को सीमित करने का एक प्रयास था। इसके अतिरिक्त 13 अगस्त, 1961 को जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक (पूर्वी जर्मनी) की साम्यवादी सरकार ने पूर्वी और पश्चिमी बर्लिन के बीच एक काँटेदार बाड़ और कंक्रीट की दीवार (बर्लिन की दीवार) का निर्माण भी शुरू कर दिया। इसने मुख्य रूप से पूर्वी बर्लिन से पश्चिमी बर्लिन में बड़े पैमाने पर प्रवसन को रोकने के उद्देश्य को पूरा किया। विशेष परिस्थितियों को छोड़कर पूर्वी और पश्चिमी बर्लिन के लोगों को सीमा पार करने की अनुमति नहीं दी गई थी। वर्ष 1989 में बर्लिन की दीवार के ध्वस्त होने से पहले तक यह अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रतीक या स्मारक बना रहा। मार्शल योजना बनाम कमिनफॉर्म: मार्शल योजना: वर्ष 1947 में अमेरिकी विदेश मंत्री जॉर्ज मार्शल ने यूरोपीय पुनर्निर्माण कार्यक्रम का अनावरण किया जिसमें आवश्यकतानुसार आर्थिक और वित्तीय मदद की पेशकश की गई। ERP का एक उद्देश्य यूरोप के आर्थिक पुनर्निर्माण को प्रोत्साहन देना था। हालाँकि यह ट्रूमैन सिद्धांत का ही आर्थिक विस्तार था। कमिनफॉर्म: सोवियत संघ ने मार्शल योजना के संपूर्ण विचार की 'डॉलर साम्राज्यवाद' के रूप में भर्त्सना की। मार्शल योजना पर सोवियत प्रतिक्रिया के रूप में वर्ष 1947 में कमिनफॉर्म की नींव पड़ी। यह मुख्य रूप से पूर्वी यूरोप के देशों को एक साथ रखने के लिये एक संगठन था। नाटो बनाम वारसा संधि: उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (NATO) सोवियत संघ द्वारा बर्लिन की घेराबंदी किये जाने की घटना ने पश्चिम की सैन्य कमज़ोरी को प्रकट किया था जिससे वे निश्चित तौर पर सैन्य तैयारी करने को प्रेरित हुए। परिणामस्वरूप वर्ष 1948 में मुख्य रूप से पश्चिमी यूरोप के देशों ने युद्ध के मामले में सैन्य सहयोग का वादा करते हुए ब्रुसेल्स रक्षा संधि पर हस्ताक्षर किये। बाद में ब्रुसेल्स रक्षा संधि में अमेरिका, कनाडा, पुर्तगाल, डेनमार्क, आइसलैंड, इटली और नॉर्वे भी शामिल हो गए तथा अप्रैल 1949 में नाटो का गठन हुआ। नाटो देश इनमें से किसी एक पर भी हमले को सभी देशों पर हमले के रूप में देखने और अपने सैन्य बलों को एक संयुक्त कमान के तहत रखने पर सहमत हुए। वारसा संधि नाटो में पश्चिम जर्मनी के शामिल होने के तुरंत बाद ही सोवियत संघ और उसके आश्रित राज्यों के बीच वारसा संधि पर हस्ताक्षर किये गए। यह एक पारस्परिक रक्षा समझौता था जिसे पश्चिमी देशों ने पश्चिमी जर्मनी की नाटो सदस्यता के विरुद्ध सोवियत प्रतिक्रिया के रूप में देखा था। अंतरिक्ष में प्रतिस्पर्द्धा शीतयुद्ध की प्रतिद्वंद्विता में अंतरिक्ष अन्वेषण का एक और नाटकीय क्षेत्र के रूप में उभार हुआ। वर्ष 1957 में सोवियत संघ ने स्पुतनिक1 का प्रक्षेपण किया, यह विश्व का पहला मानव निर्मित कृत्रिम उपग्रह था जिसे पृथ्वी की कक्षा में स्थापित किया गया। वर्ष 1958 में अमेरिका ने एक्सप्लोरर1 नामक अपना पहला उपग्रह प्रक्षेपित किया। इस अंतरिक्ष प्रतिस्पर्द्धा में अंततः जीत अमेरिका की हुई जब इसने वर्ष 1969 में सफलतापूर्वक चंद्रमा की सतह पर पहला मानव (नील आर्मस्ट्रांग) भेजा। हथियारों की प्रतिस्पर्द्धा सोवियत संघ पर अमेरिकी नियंत्रण रणनीति ने संयुक्त राज्य अमेरिका को वृहत पैमाने पर हथियारों का संग्रहकर्त्ता बना दिया और प्रतिक्रिया में सोवियत संघ ने भी यही किया। वृहत पैमाने पर परमाणु हथियारों का विकास हुआ और विश्व ने परमाणु युग में प्रवेश किया। क्यूबा मिसाइल संकट, 1962 क्यूबा भी तब इस शीत युद्ध में शामिल हो गया जब अमेरिका ने वर्ष 1961 में क्यूबा के साथ अपने राजनयिक संबंध तोड़ लिये और सोवियत संघ ने क्यूबा की आर्थिक सहायता में वृद्धि कर दी। वर्ष 1961 में अमेरिका ने क्यूबा में ‘बे ऑफ पिग्स’ आक्रमण की योजना बनाई जिसका उद्देश्य सोवियत समर्थित फिदेल कास्त्रो की सत्ता को उखाड़ फेंकना था किंतु अमेरिका का यह अभियान विफल रहा। इस घटना के बाद फिदेल कास्त्रो ने सोवियत संघ से सैन्य मदद की अपील की जिस पर सोवियत संघ ने क्यूबा में परमाणु मिसाइल लान्चर स्थापित करने का निर्णय लिया जिसका उद्देश्य अमेरिका को लक्ष्य बनाना था। क्यूबा मिसाइल संकट ने दोनों महाशक्तियों को परमाणु युद्ध के कगार पर पहुँचा दिया था। हालाँकि कूटनीतिक प्रयासों से इस संकट को टालने में सफलता मिली।</s>
<s>[INST]‘महिला संगठनों को लैंगिक भेदभाव से मुक्त रखने के लिए यह आवश्यक है की उसमें पुरुषों की भागीदारी भी सुनिश्चित की जाए’ टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका। • महिला संगठनों में पुरुषों की उपस्थिति बढ़ाने की आवश्यकता क्यों ? • निष्कर्ष। समाज में महिलाओं के प्रति भेदभाव रोकने तथा उन्हें सशक्त बनाने के लिये अनेक सरकारी तथा गैर-सरकारी प्रयास किये जा रहे हैं। इन प्रयासों में महिला संगठनों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है, किंतु अधिकतर यह देखा जा जाता है कि महिला संगठनों की सदस्य ज्यादातर महिलाएं ही होती हैं। पुरुष सदस्य की संख्या होती भी है तो केवल नाममात्र की। महिला संगठन समाज में व्याप्त लिंग-भेद को दूर करने के लिये संघर्षरत रहते हैं। किसी संगठन में केवल महिला सदस्यों का होना भी एक प्रकार का लिंग भेद ही है। अत: ऐसे संगठनों में पुरुषों को अनिवार्य रूप से शामिल किया जाना चाहिये। विशेषकर उन्हें जो महिला सशक्तीकरण के समर्थक हैं। ऐसा माना जाता है कि पुरुषों की मानसिकता को एक पुरुष ही भली-भाँति समझ सकता है। अत: महिला संगठन में उचित संख्या में पुरुषों की उपस्थिति अनिवार्य है, क्योंकि पुरुष सदस्य महिलाओं से जुड़े विभिन्न मुद्दों को समाज के अन्य पुरुष सदस्यों के समक्ष बेहतर ढंग से प्रकट कर सकते हैं। इसके अलावा यह भी विचारणीय प्रश्न है कि महिलाओं के सशक्तीकरण के लिये संघर्ष करना केवल महिलाओं का काम ही नहीं है। पुरुषों को भी इसमें बराबर की भागीदारी निभानी होगी। अत: इसके लिये महिला संगठनों में पुरुषों की भूमिका और भी ज़रूरी हो जाती है। कई बार इस संदर्भ में शिकायतें भी आती हैं कि महिलाओं ने दहेज, शारीरिक शोषण आदि के मामले में पुरुषों पर झूठा आरोप लगाया है जिसकी जाँच की मांग की जाती है एवं जाँच में महिला संगठनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। अत: इन संगठनों में पुरुषों को शामिल करने से उनमें लिये जाने वाले निर्णयों में तार्किक रूप से संतुलन स्थापित होगा तथा निर्णय पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं हांगे। अत: महिला संगठनों में पुरुषों की भागीदारी वांछनीय भी है और ज़रूरी भी।</s>
<s>[INST]भारत छोड़ो आंदोलन में महिलाओं की भूमिका को रेखांकित करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका। • भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने वाली महिला नेताओं का योगदान। • निष्कर्ष। विश्व युद्ध के प्रारंभ होते ही भारत को उसमें शामिल कर लिया गया तथा इस संबंध में भारत के नेताओं से कोई परामर्श नहीं लिया गया था। उस समय भारत के वाइसरॉय लार्ड लिनलिथगो थे तथा उन्होंने तत्काल भारत के युद्ध में शामिल होने की औपचारिक घोषणा कर दी। इसके प्रत्युत्तर में वाइसरॉय के मत्रिमंडल में शामिल कॉन्ग्रेस के नेताओं ने तुरंत अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। कॉन्ग्रेस सहित कई राजनीतिक दलों ने अंग्रेजों की इस नीति का विरोध किया तथा जनसामान्य में यह भावना फैली कि ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों की भावनाओं की उपेक्षा की जा रही है। इसके विरोध के लिये कॉन्ग्रेस कार्य समिति ने 7-8 अगस्त, 1942 को मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान में सभा आयोजित की गई जिसमें महात्मा गांधी ने “करो या मरो”का नारा दिया और भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हुई। लेकिन अगली सुबह 9 अगस्त को महात्मा गांधी समेत कॉन्ग्रेस के सभी मुख्य नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया तथा उन्हें देश में अलग-अलग स्थानों पर जेलों में बंद कर दिया गया। इन परिस्थितियों में आंदोलन के मुख्य नेतृत्व के अभाव में स्थानीय स्तर के नेताओं तथा महिलाओं को इसका नेतृत्व संभालने का अवसर प्राप्त हो गया। भारत छोड़ो आंदोलन की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें जनसामान्य तथा महिलाओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसकी वजह से यह आंदोलन भारतीय इतिहास के सबसे सफलतम आंदोलनों में से गिना जाता है। भारत छोड़ो आंदोलन में निम्नलिखित महिला नेताओं ने अपना बहुमूल्य योगदान दिया: कनकलता बरुआ: कनकलता बरुआ असम के सोनितपुर ज़िले के गोहपुर की रहने वाली थीं। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उनकी आयु मात्र 18 वर्ष की थी। स्थानीय लोग उन्हें ‘बीरबाला’ के नाम से जानते हैं। 20 सितंबर, 1942 को भारी संख्या में लोग गोहपुर पुलिस चौकी पर पर शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन करने के लिये पहुँच रहे थे। उनका उद्देश्य पुलिस चौकी पर लगे यूनियन जैक को उतार कर भारतीय झंडा फहराना था। कनकलता महिलाओं के समूह का प्रतिनिधित्व कर रही थीं। थाने के दरोगा के धमकी देने पर भी वो नहीं मानी और झंडा लेकर आगे बढ़ती रहीं। आखिरकार वो पुलिस की गोली का शिकार हुईं और शहीद हो गईं। कल्पना दत्ता: कल्पना दत्ता बंगाल में वामपंथी राजनीति तथा क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय थीं। वर्ष 1930 के चटगाँव शस्त्रागार लूट में वो सूर्य सेन के साथ लड़ी थीं तथा वर्ष 1932 में उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई थी। वर्ष 1935 के भारत शासन अधिनियम के बाद राज्यों स्वायत्तता दी गई। जिसके बाद भारतीय नेताओं- रबींद्रनाथ टैगोर, सी.एफ. एंड्रू तथा महात्मा गांधी ने उनको जेल से छुड़ाने में मदद की तथा वर्ष 1939 में वो जेल से रिहा हुईं। जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने अपनी आगे की पढ़ाई पूरी की तथा बंगाल के धोबीपाड़ा में मज़दूरों के हक में कार्य करती रहीं। वे बाद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गईं । द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सरकार ने उनके बाहर निकलने पर प्रतिबंध लगा दिया था तथा 24 घंटे के अन्दर गिरफ्तार करने का आदेश दिया। लेकिन वो भूमिगत तरीके से पार्टी तथा आज़ादी के लिये लगातार कार्य करती रहीं। राजकुमारी अमृत कौर: राजकुमारी ने भारत छोड़ो आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वो पंजाब के कपूरथला राजघराने से संबंधित थीं तथा लंदन से पढ़ाई करने के बाद वो भारत लौटीं। वो गांधीजी के विचारों से काफी प्रभावित थीं तथा नमक सत्याग्रह में भी उन्होंने अपने योगदान दिया था। उनका मुख्य कार्यक्षेत्र शिक्षा के माध्यम से महिलाओं तथा हरिजन समाज को सशक्त बनाना था। वह अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संगठन की अध्यक्ष भी रही थीं। भारत छोड़ो आंदोलन में वो लोगों के साथ मिलकर जुलूस निकालती और विरोध प्रदर्शन करती थीं। शिमला में 9 से 16 अगस्त के बीच उन्होंने प्रतिदिन जुलूस निकला तथा पुलिस ने उनपर 15 बार लगातार निर्दयता से लाठीचार्ज किया। अंततः सरकार ने उन्हें बाहर छोड़ना उचित नहीं समझा तथा कालका में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इसके अलावा राजकुमारी वर्ष 1932 में अखिल भारतीय महिला सभा की स्थापना में मुख्य भूमिका निभाई। उन्होंने वर्ष 1932 में मताधिकारों के लिये बनी लोथियन समिति के विरोध में आवाज़ उठाई तथा सार्वभौम वयस्क मताधिकार की मांग की। सरोजिनी नायडू: सरोजिनी नायडू प्रारंभ से आज़ादी के संघर्ष में सक्रिय रहीं थीं। उन्होंने धरसाना नमक सत्याग्रह के दौरान गाँधीजी व सभी अन्य नेताओं की गिरफ्तारी के बाद सत्याग्रहियों का नेतृत्व किया था। 3 दिसंबर, 1940 को विनोबा भावे के नेतृत्व में हुए व्यक्तिगत सत्याग्रह में हिस्सा लेने के कारण पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया लेकिन स्वास्थ्य कारणों से उन्हें शीघ्र ही जेल से रिहा कर दिया गया। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गिरफ्तार हुए प्रमुख नेताओं में वो भी शामिल थीं। उन्हें पुणे के आगा खाँ महल में रखा गया था। 10 महीने के बाद जेल से वो रिहा हुई तथा फिर से राजनीति में सक्रिय हुईं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उन्हें उत्तर प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया गया तथा मार्च 1949 तक वो इस पद पर बनी रहीं एवं अपने कार्यकाल के दौरान ही उनकी मृत्यु हो गई। भारत में फैले प्लेग महामारी के दौरान लोगों की सेवा करने के लिये भारत सरकार ने कैसर-ए-हिंद की उपाधि दी थी जिसे उन्होंने जलियाँवाला बाग हत्याकांड के बाद वापस कर दिया था। सरोजिनी नायडू भारत में हिंदू-मुसलमान एकता की प्रबल समर्थक थीं और उन्हें उनकी कविताओं के लिये ‘भारत की बुलबुल’ (Nightingale of India) कहा जाता है। कमलादेवी चट्टोपाध्याय: कमलादेवी चट्टोपाध्याय नमक सत्याग्रह तथा सविनय अवज्ञा आंदोलन से ही राजनीति में सक्रिय रहीं थीं। अपने राजनीतिक संघर्ष के दौरान उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्हें भी गिरफ्तार किया गया। जेल से छूटने के बाद वो अमेरिका गईं तथा वहाँ के लोगों को भारत में ब्रिटिश हुकूमत की सच्चाई के बारे में बताया। उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य अकादमी, संगीत नाटक अकादमी तथा भारतीय दस्तकारी परिषद की स्थापना में अपना योगदान दिया। वर्ष 1955 में कला के क्षेत्र में योगदान के लिये उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। ऊषा मेहता: भारत छोड़ो आंदोलन के प्रारंभ होने के बाद जब सभी मुख्य कॉन्ग्रेसी नेता गिरफ्तार कर लिये गए तब जिन लोगों ने गुप्त तरीके से आंदोलन को चलाया उनमें से ऊषा मेहता प्रमुख नाम है। कॉन्ग्रेस के कुछ सदस्यों ने मिलकर भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान होने वाली सभी घटनाओं को जनता तक पहुँचाया। इस सदस्यों में ऊषा मेहता के अलावा, विट्ठलदास, चंद्रकांत झावेरी, बाबूभाई ठक्कर और शिकागो रेडियो, मुंबई के टेक्निशियन नानक मोटवानी शामिल थे। कॉन्ग्रेस रेडियो के माध्यम से ऊषा मेहता ने भारत छोड़ो आंदोलन में अभूतपूर्व योगदान दिया। उनके द्वारा देश भर के विभिन्न स्थानों से आने वाली क्रांति की खबरें इस पर प्रसारित की जाती थीं जिसकी वजह से स्थानीय स्तर पर आंदोलन कर रहे सत्याग्रहियों को हौसला मिलता था। सुचेता कृपलानी: सुचेता कृपलानी का राजनीतिक जीवन तब प्रारंभ होता है जब वह काशी हिंदू विश्वविद्यालय में इतिहास की लेक्चरर थीं। वर्ष 1936 में कॉन्ग्रेस के वरिष्ठ नेता आचार्य जे.बी. कृपलानी से उनका विवाह हुआ। उसके बाद वो सक्रिय राजनीति में भाग लेने लगीं और अपनी लेक्चरर की नौकरी छोड़ दी। उन्होंने आचार्य विनोबा भावे के नेतृत्व में व्यक्तिगत सत्याग्रह में हिस्सा लिया और जेल गईं। जेल से निकलने के बाद वो भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वो भूमिगत होकर प्रचार-प्रसार करती रहीं। वर्ष 1943 में जब कॉन्ग्रेस में महिला विभाग की स्थापना की गई तब सुचेता कृपलानी को उसका सचिव बनाया गया। उसके बाद उन्होंने महिला कॉन्ग्रेस के प्रचार तथा उसमे लोगों को जोड़ने के लिये लगातार प्रयास किये। वह उत्तर प्रदेश की विधानसभा में सदस्य तथा बाद में लोकसभा की सदस्य भी रहीं। वर्ष 1963 में वह उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं और वह भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री थीं। अरुणा आसफ अली: अरुणा नमक सत्याग्रह के दिनों से ही राजनैतिक रूप से सक्रिय रहीं थीं लेकिन उनकी पहचान 9 अगस्त, 1942 को मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान में बनी जब सभी नेताओं की गिरफ्तारी के बाद उन्होंने राष्ट्रीय ध्वजारोहण समारोह का नेतृत्व किया। उस समय बहुत बड़ी संख्या में भीड़ एकत्रित हुई थी और पुलिस ने उस पर नियंत्रण हेतु लाठी, आँसू गैस तथा गोली चलायी फिर भी अरुणा ने उस सभा सफलतापूर्वक नेतृत्व किया। भारत छोड़ो आंदोलन में अरुणा आसफ अली ने भी अन्य नेताओं की भाँति ही भूमिगत तरीके से भागीदारी की और आंदोलन के प्रचार में अपना योगदान किया। उन्होंने राममनोहर लोहिया के साथ मिलकर ‘इंकलाब’ नामक मासिक पत्रिका का संपादन किया। इसके अलावा असंख्य महिला नेताओं व स्थानीय महिलाओं ने भारत छोड़ो आंदोलन में अपनी भागीदारी दी जिसकी वजह यह आंदोलन सभी पूर्ववर्ती आंदोलनों से व्यापक तथा प्रभावशाली साबित हुआ। इसने द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद अंग्रेजों को भारत छोड़ने में भूमिका तैयार की।</s>
<s>[INST]उपनिवेशवाद तथा साम्राज्यवाद में अंतर स्पष्ट करते हुए नवीन साम्राज्यवाद के प्रेरक तत्त्वों पर प्रकाश डालें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • साम्राज्यवाद क्या है? यह उपनिवेशवाद से कैसे भिन्न है ? • नवीन साम्राज्यवाद से क्या आशय है? • नवीन साम्राज्यवाद के प्रेरक तत्त्वों का उल्लेख करें। विश्व इतिहास में साम्राज्यवाद शब्द का प्रयोग व्यापक स्तर पर हुआ है; इस कारण इसकी निश्चित परिभाषा दे पाना एक चुनौती है। चार्ल्स हाजस के अनुसार, ‘‘साम्राज्यवाद दूसरे राष्ट्रों के लोगों के आतंरिक जीवन में विदेशी राजनीतिक, आर्थिक या सांस्कृतिक स्तर पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सक्रिय हस्तक्षेप है अर्थात् एक देश के लोगों द्वारा दूसरे देश के लोगों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रण करना है।’’ उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद में अंतर: उपनिवेशवाद के तहत किसी क्षेत्र एवं वहां के नागरिकों पर राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक नियंत्रण बनाया जाता है जो दीर्घकालीन प्रक्रिया का प्रतिफल होता है। उदाहरण के तौर पर देखें तो भारत, इंडोनेशिया, मलेशिया पर यूरोप का शासन जबकि साम्राज्यवाद के तहत विदेशी शक्ति किसी क्षेत्र एवं वहां के नागरिकों के प्रमुख आर्थिक कारकों पर नियंत्रण रखती है। उदाहरण के तौर पर 1870 ई. के बाद यूरोप का अफ्रीका पर विस्तार या फिर संयुक्त राज्य अमेरिका का पोर्टरिकों एवं फिलीपींस पर अधिकार। साम्राज्यवाद का अस्तित्व सभ्यता के प्रारंभ से है जैसे-रोमन साम्राज्य, सिकंदर का साम्राज्य आदि। जबकि उपनिवेशवाद का उदय भौगोलिक खोजों एवं औद्योगिक क्रांति जैसे क्रांतिकारी परिवर्तनों से हुआ। साम्राज्यवाद राज्य के प्रयासों का प्रतिफल होता है जबकि उपनिवेशवाद व्यक्तिगत एवं संस्थागत दोनों के प्रयासों से भी संभव है। नवीन साम्राज्यवाद के प्रेरक तत्व- आर्थिक कारक: 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यूरोप में त्वरित औद्योगिक विकास हुआ। उत्पादन इतना अधिक होने लगा कि खपत के लिये बाज़ार की आवश्यकता महसूस हुई। साथ ही सतत रूप से उद्योगों को संचालित करने के लिये कच्चे माल की आवश्यकता बढ़ती चली गई। अत: यूरोपीय देशों में एशिया और अफ्रीका महाद्वीपों के अविकसित देशों पर नियंत्रण करने की प्रतिस्पर्द्धा प्रारंभ हो गई। यूरोप में जनसंख्या वृद्धि: 19वीं शताब्दी में औद्योगीकरण के विस्तार के साथ ही यूरोप के देशों में जनसंख्या वृद्धि हुई। ब्रिटेन एवं स्केंडेनेवियाई देशों में आबादी वृद्धि दर औसत से उच्च रही। अतिरिक्त जनसंख्या को रोज़गार देने तथा बसाने के क्रम में उपनिवेशों पर अधिकार को बढ़ावा मिला। साहसी खोजकर्ताओं का योगदान: साहसी व्यक्तियों तथा खोजकर्ताओं के कार्यों से भी उपनिवेशवाद को बढ़ावा मिला। कुछ प्रशासकों तथा सैनिक प्रमुखों ने भी उपनिवेश स्थापना को राष्ट्रीय दायित्व मानकर लगन एवं निष्ठा से इसे पूरा करने का प्रयास किया। विशेषकर अफ्रीकी महाद्वीप पर यूरोप के साम्राज्यवाद की स्थापना में साहसी खोजकर्ताओं की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। राष्ट्रवाद का प्रसार: आर्थिक उद्देश्यों को गतिशील तथा त्वरित बनाने ने राष्ट्रीयता की भावना निर्णायक रही। 19वीं सदी में यूरोप के देशों में अनेक राष्ट्रवादी राजनीतिज्ञ, लेखक, विचारक एवं अर्थशास्त्री हुए, जिन्होंने राष्ट्रीय गौरव, राष्ट्रीय सुरक्षा तथा आत्मनिर्भरता की दृष्टि से उपनिवेशवाद को निरंतर प्रोत्साहित किया। ईसाई धर्म प्रचारकों की भूमिका: ईसाई धर्म का प्रसार करने एवं पश्चिमी संस्कृति को विस्तारित करने में ईसाई मिशनरियों की भूमिका अहम रही। इंग्लैंड के डॉक्टर लिविंगस्टोन ने 20 वर्षों तक अफ्रीका के आंतरिक प्रदेशों तथा कांगो नदी घाटी के क्षेत्रों की खोज की। 1873 ई. लिविंगस्टोन ने मृत्यु से पूर्व इंग्लैंड वासियों को संदेश भेजा कि अफ्रीका की भूमि व्यापार करने एवं ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के लिये उपर्युक्त है। डार्विन के सामाजिक सिद्धांत का प्रभाव: हर्बट स्पेंसर ने डार्विन के सिद्धांत ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ को समाज तथा राष्ट्र स्तर पर लागू किया, जिसे सामाजिक सिद्धांत कहते है। इस आधार पर यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियों ने उपनिवेशों की स्थापना को तर्क संगत बताया। तकनीकी तथा चिकित्सकीय विकास की भूमिका: उन्नत तकनीक एवं मेडिकल ज्ञान के सतत विकास से साम्राज्यवाद की प्रक्रिया आसान हो गई। इससे यूरोपवासियों का एशिया तथा अफ्रीका में स्थायी निवास संभव हुआ। स्टीमबोट, टेलीग्राफ और बंदूक के विकास से यूरोपीय शक्तियों को उपनिवेशकों में शासन के विस्तार एवं विद्रोह के दमन में सफलता मिली।</s>
<s>[INST]‘पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार यद्यपि प्रशासनिक आवश्यकताओं के लिये किया गया था परंतु इससे नवशिक्षित वर्ग के लिये पाश्चात्य उदारवादी विचारधारा के द्वार खुल गए,’ टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका। • पाश्चात्य शिक्षा में निहित उद्देश्य। • भारतीयों पर इसका प्रभाव। • निष्कर्ष। आधुनिक शिक्षा प्रणाली के प्रचलन से आधुनिक पाश्चात्य विचारों को अपनाने में मदद मिली, जिससे भारतीय राजनीतिक चिंतन को एक नई दिशा मिली। जब ट्रेवेलियन, मैकाले तथा बेंटिक ने देश में अंग्रेजी शिक्षा का श्रीगणेश किया तो यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण निर्णय था। बेंथम, मिल, मिल्टन, रूसो तथा वाल्टेयर जैसे प्रसिद्ध यूरोपीय लेखकों के अतिवादी पश्चात्य विचारों ने भारतीय बुद्धिजीवियों में स्वतंत्र राष्ट्रीयता तथा स्वशासन की भावनाएँ जगा दीं तथा उन्हें अंग्रेज़ी साम्राज्य का विरोधाभास खलने लगा। इसके साथ ही अंग्रेज़ी भाषा ने संपूर्ण राष्ट्र के विभिन्न प्रांतों तथा स्थानों के लोगों के लिये संपर्क भाषा का कार्य किया। इसने भाषा-भाषियों को एक मंच पर लाकर खड़ा कर दिया, जिससे राष्ट्रवादी आंदोलन को एक अखिल भारतीय स्वरूप मिल सका। अंग्रेज़ी का ज्ञान प्राप्त कर नवशिक्षित भारतीयों जैसे- वकीलों, डॉक्टरों इत्यादि ने उच्च शिक्षा के लिये इंग्लैंड की यात्रा की। इन्होंने यहाँ एक स्वतंत्र देश में विभिन्न राजनैतिक संस्थाओं के विकास की प्रक्रिया देखी तथा वस्तुस्थिति का भारत से तुलनात्मक आकलन किया, जहाँ नागरिकों को विभिन्न प्रकार के स्वतंत्र अधिकारों से वंचित रखा गया था। इस नवपाश्चात्य भारतीय शिक्षित वर्ग ने भारत में नए बौद्धिक मध्यम वर्ग का विकास किया, कालांतर में जिसने राष्ट्रीय आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत की विभिन्न राजनीतिक एवं अन्य संस्थाओं को इसी मध्यमवर्ग से नेतृत्व मिला। इस प्रकार देखें तो अंग्रेज़ों ने जिस पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार प्रशासनिक आवश्यकताओं के लिये किया था, उसी ने नवशिक्षित वर्ग के लिये पाश्चात्य उदारवादी विचारधारा के द्वार खोल दिये। यह पढ़ा-लिखा वर्ग भारत की नवीन आत्मा बन गया तथा इसने समस्त देश में नई शक्ति का संचार किया। इसी वर्ग ने राष्ट्रीय आंदोलन को उसके सभी चरणों में नेतृत्व प्रदान किया।</s>
<s>[INST]भारत सहित विश्व के प्रमुख ऑटोमोबाइल विनिर्माण केंद्रों की पहचान कीजिये। इन क्षेत्रों में ऑटोमोबाइल उद्योग के विकास के कारकों की पहचान कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका। विश्व के प्रमुख ऑटोमोबाइल विनिर्माण केंद्रों का वर्णन। अवस्थिति में विभिन्न कारकों की भूमिका। द्वितीय विश्व युद्ध से पूर्व ऑटोमोबाइल उत्पादन यूरोप के कुछ देशों तक ही सीमित था, जिसमें जर्मनी का रूर क्षेत्र, यूनाइटेड किंगडम के लंदन, बर्मिंघम तथा इटली प्रांत प्रमुख थे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका ऑटोमोबाइल उत्पादन क्षेत्र में अग्रणी बन गया। महान झीलों के आस-पास के क्षेत्र जैसे-ड्रेटायट, क्लीवलैंड आदि में प्रमुख ऑटोमोबाइल उद्योग स्थापित किये गए। तीव्र औद्योगीकरण तथा तकनीकी परिवर्तन ने एशियाई देशों को भी इस क्षेत्र की ओर प्रेरित किया और शीघ्र ही जापान, दक्षिण कोरिया और चीन जैसे देश ऑटोमोबाइल के प्रमुख उत्पादक बन गए। वर्तमान में चीन विश्व का सबसे बड़ा ऑटोमोबाइल उत्पादक है। धीरे-धीरे वैश्वीकरण और आर्थिक सुधारों ने भारत का ध्यान भी इस क्षेत्र की ओर आकर्षित किया और तीव्र विकास करते हुए भारत के कई मेट्रोपोलिटन शहर ऑटोमोबाइल विनिर्माण के केंद्र बन गए। हैदराबाद, अहमदाबाद आदि क्षेत्रों ने भी इस दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रगति की है। विभिन्न कारकों की भूमिका: बाज़ार: ऑटोमोबाइल को एक लग्ज़री वस्तु समझा जाता है। इसलिये बाज़ार और खासकर बड़े शहरों के निकट इसकी स्थापना को प्राथमिकता दी जाती है। यह भारग्राही (Weight gaining) उद्योग भी है। इसलिये भी इसकी स्थापना बाज़ार के आस-पास ही की जाती है। परिवहन: नए उद्योगों को ऐसे क्षेत्रों में स्थापित किया जाता है जहाँ आंतरिक तथा बाह्य परिवहन की उत्तम व्यवस्था हो। इसके अलावा इससे संबंधित कच्चे माल (सीसा, टायर, प्लास्टिक, लोहा) को एक जगह लाने के लिये भी उन्नत व्यवस्था अनिवार्य है। श्रम: सस्ते किंतु कुशल श्रम की उपलब्धता। सरकारी नीतियाँ: कर संबंधी दरें और आसान नीतियाँ भी इनके स्थानीयकरण को प्रभावित करती हैं। औद्योगिक संकुल: एक जगह पर विभिन्न उद्योगों की अवस्थिति भी ऑटोमोबाइल के विभिन्न पुर्ज़ों की उपलब्धता को आसान तथा सस्ता बनाती है।</s>
<s>[INST]‘ब्रिटिश तलवार ने पूरे भारत को एक झंडे के नीचे एकत्र कर दिया।’ टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका। • ब्रिटिश सरकार द्वारा किये गए ऐसे कार्य जिससे एकीकरण को बढ़ावा मिला। • निष्कर्ष। भारत में ब्रिटिश शासन का विस्तार उत्तर में हिमालय से दक्षिण में कन्याकुमारी तक तथा पूर्व में असम से पश्चिम में रवैबर दर्रें तक था। अंग्रेज़ों ने मौर्यों तथा मुगलों से भी बड़े साम्राज्य की स्थापना की। कुछ भारतीय राज्य सीधे ब्रिटिश शासन के नियंत्रण में थे तो अन्य देशी रियासतें अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेज़ी शासन के अधीन थीं। एक दक्ष कार्यपालिका, संगठित न्यायपालिका तथा संहिताबद्ध फौजदारी तथा दीवानी कानून, जिन पर दृढ़ता से अमल किया जाता था, भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक लागू होते थे। इसने भारत की परंपरागत सांस्कृतिक एकता को एक नए प्रकार की राजनीतिक एकता प्रदान की। प्रशासनिक सुविधाओं, सैन्य रक्षा उद्देश्यों, आर्थिक तथा व्यापारिक शोषण को ध्यान में रखते हुए परिवहन के तीव्र साधनों का विकास किया गया। पक्के मार्गों का निर्माण हुआ जिससे स्थान एक-दूसरे से जुड़ गए। परंतु देश को एक सूत्र में बाँधने का सबसे बड़ा साधन रेल था। 1850 के पश्चात् रेल लाइनें बिछाने का कार्य आरंभ हुआ। रेलवे से कई अन्य लाभों के अलावा इसने देश को एकीकृत करने का भी कार्य किया। 1850 के बाद शुरू हुई आधुनिक डाक व्यवस्था तथा बिजली के तारों ने देश को समेकित करने में सहायता की। इसी प्रकार आधुनिक संचार साधनों ने भारत के विभिन्न भागों में रहने वाले लोगों को एक-दूसरे से संबंध बनाए रखने में सहायता दी जिससे राष्ट्रवाद को बढ़ावा मिला। राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से एकीकरण के इन प्रयासों को दो प्रकार से समझा जा सकता है- एकीकरण से विभिन्न भागों के लोगों के आर्थिक हित आपस में जुड़ गए जैसे- किसी एक भाग में अकाल पड़ने पर इसका प्रभाव दूसरे भाग में खाद्यानों के मूल्यों एवं आपूर्ति पर भी होता था। साथ ही यातायात एवं संचार के साधनों के विकास से दे देश के विभिन्न वर्गों के लोग मुख्यत: नेताओं का आपस में राजनीतिक संपर्क स्थापित हो गया। इससे राजनीतिक विचारों के आदान-प्रदान की प्रक्रिया को गति मिली तथा उनके मध्य विभिन्न सार्वजनिक तथा आर्थिक विषयों पर वाद-विवाद सरल हो गया। इस प्रकार ब्रिटिश तलवार ने पूरे भारत को एक झंडे के तले एकत्र करने का कार्य किया।</s>
<s>[INST]‘1885 से 1905 तक भारतीय राष्ट्रवाद का शैशवकाल था। प्रारंभिक राष्ट्रवादियों ने इस काल में राष्ट्रवाद की धरती को सींचा तथा उसमें गहरे तक राष्ट्रीयता के बीज बो दिये’ टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका। • 1885 से 1905 तक भारतीय राष्ट्रवाद का विकास। • प्रारंभिक राष्ट्रवादियों का योगदान। • निष्कर्ष। भारतीय इतिहास में 1885 से 1905 ई. तक का चरण उदारवादी चरण के नाम से जाना जाता है क्योंकि इस चरण में आंदोलन का नेतृत्व मुख्यत: उदारवादी नेताओं के हाथों में रहा। ये नेता उदारवादी नीतियों तथा अहिंसक विरोध प्रदर्शनों में विश्वास रखते थे। इनकी यही विशेषता इन्हें 20वीं सदी के प्रथम दशक में उभरने वाले नव-राष्ट्रवादियों से पृथक करती है। ये उदारवादी, कानून के दायरे में रहकर अहिंसक संवैधानिक प्रदर्शनों के पक्षधर थे। यद्यपि उदारवादियों को यह नीति अपेक्षाकृत धीमी थी किंतु इससे क्रमबद्ध राजनीतिक विकास की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। उदारवादियों का मत था कि अंग्रेज़ भारतीयों को शिक्षित बनाना चाहते हैं तथा वे भारतीयों की वास्तविक समस्याओं से बेखबर नहीं हैं। अत: सर्वसम्मति से सभी देशवासी प्रार्थनापत्रों, याचिकाओं एवं सभाओं आदि के माध्यम से सरकार से अनुरोध करें तो सरकार धीरे-धीरे उनकी मांगे स्वीकार कर लेगी। अपने इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये उदारवादियों ने दो प्रकार की नीतियों का अनुसरण किया। पहला, भारतीयों में राष्ट्रप्रेम तथा चेतना जागृत कर राजनीतिक मुद्दों पर उन्हें शिक्षित करना एवं उनमें एकता स्थापित करना। दूसरा, ब्रिटिश जनमत एवं ब्रिटिश सरकार को भारतीय पक्ष में करके भारत में सुधारों की प्रक्रिया प्रारंभ करना उदारवादियों का मानना था कि ब्रिटेन से भारत का संपर्क होना भारतीयों के हित में है तथा अभी ब्रिटिश शासन को प्रत्यक्ष रूप से चुनौती देने का यथोचित समय नहीं आया है इसलिये बेहतर होगा कि उपनिवेशी शासन को भारतीय शासन में परिवर्तित करने का प्रयास किया जाए। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में उदारवादियों का योगदान- ब्रिटिश साम्राज्यवाद की आर्थिक नीतियों की आलोचना कर एक सशक्त भारतीय जनमत तैयार किया जिसका मानना था कि भारत की गरीबी एवं आर्थिक पिछड़ेपन का कारण यही उपनिवेशी शासन है। भू-राजस्व में कमी करने, नमक कर का उन्मूलन करने, बागान श्रमिकों की दशा सुधारने एवं सैन्य खर्च में कटौती करने की भी मांग की गई। उदारवादियों के प्रयासों ने 1861 के एक्ट द्वारा भारत में केंद्रीय स्तर पर एक छोटी सी विधानसभा को जन्म दिया। प्रारंभिक राष्ट्रवादियों ने लोकतांत्रिक स्वशासन हेतु लंबी कार्ययोजना बनाई। इनकी संवैधानिक सुधारों की मांगों के प्रयास को सफलता तब मिली जब ब्रिटिश सरकार ने 1892 में भारतीय परिषद् का गठन किया। इस प्रकार राष्ट्रवादियों ने साम्राज्यवादी सरकार की वास्तविक मंशा को उजागर किया तथा स्वशासन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की। उन्होंने देश के लोगों में राजनीतिक एवं आर्थिक चेतना जगाने का कार्य किया। राष्ट्रवादियों के इन कार्यों से भारतीयों के साम्राज्यवाद विरोधी भावनाओं का प्रसार हुआ।</s>
<s>[INST]आप इस मत से कहाँ तक सहमत हैं कि पानीपत के दूसरे युद्ध ने भारतीय इतिहास की धारा को परिवर्तित कर दिया।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • पानीपत के दूसरे युद्ध की पृष्ठभूमि लिखिये। • पानीपत के दूसरे युद्ध ने भारतीय इतिहास की धारा को कैसे परिवर्तित किया, उल्लेख कीजिये। • निष्कर्ष । यद्यपि सूर साम्राज्य के बिखराव के बाद हुमायूँ ने दिल्ली पर पुन: आधिपत्य स्थापित कर लिया था लेकिन इसकी मृत्यु के पश्चात् ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित हुईं कि मुगल भारत से निष्काषित होने से बाल-बाल बचे। अत: 1556 ई. में पानीपत के दूसरे युद्ध में हेमू की पराजय के परिणाम दीर्घकालिक साबित हुए। पानीपत के दूसरे युद्ध ने भारतीय इतिहास की धारा को निम्नलिखित रूप से मुगलों के पक्ष में परिवर्तित किया- हेमू का उदय अफगानों के अधीन विकसित अपेक्षाकृत अधिक खुले समाज और हिंदू राजाओं के साथ अफगानों के बढ़ते हुए सामंजस्य का परिचायक था। अत: हेमू की विजय भारतीय इतिहास में अफगानों के लिये एक महत्त्वपूर्ण अवसर हो सकती थी। हेमू ने शस्त्रास्त्रों से युक्त एवं प्रशिक्षित हाथियों पर ज़रूरत से ज़्यादा विश्वास किया जिससे मुगलों को तोपखाने पर अधिकार करने का अवसर मिल गया, जिसका नुकासन हेमू को उठाना पड़ा। इस युद्ध में हेमू लगभग जीत की कगार पर था, लेकिन एक तीर उसकी आँख में लगी और वह बेहोश होकर गिर गया। अत: अकबर धैर्य एवं साहस के साथ-साथ भाग्य के आधार पर मुगल साम्राज्य को मज़बूती से स्थापित करने में सफल रहा। हेमू अफगान सरदारों के असंतोष, तोपखाने के प्रति लापरवाह होने के बावजूद मुगलों को महत्त्वपूर्ण क्षति पहुँचाने में सफल हुआ। लेकिन हेमू के बेहोश होने पर सेना उसे न देखकर घबरा गई और मैदान छोड़कर भाग खड़ी हुई जिसका फायदा मुगलों ने बखूबी उठाया। पानीपत का दूसरा युद्ध मुगलों के लिये निर्णायक सिद्ध हुआ। पानीपत के दूसरे युद्ध ने भारतीय इतिहास में मुगलों के उदय की वास्तविक शुरुआत की।</s>
<s>[INST]वनों की अंधाधुंध कटाई और पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाली इंसानी गतिविधियों के कारण धरती लगातार सिकुड़ती जा रही है तथा उपजाऊ ज़मीन मरुस्थल में बदल रही है।’ मरुस्थलीकरण के कारणों पर चर्चा करते हुए इससे निपटने के उपायों को बताएं।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • मरुस्थलीकरण क्या है ? • मरुस्थलीकरण के कारण। • इससे निपटने के उपाय। • निष्कर्ष। मरुस्थलीकरण एक ऐसी भौगोलिक घटना है, जिसमें उपजाऊ क्षेत्रों में भी मरुस्थल जैसी विशिष्टताएँ विकसित होने लगती हैं। इसमें जलवायु परिवर्तन तथा मानवीय गतिविधियों समेत अन्य कई कारणों से शुष्क, अर्द्ध-शुष्क, निर्जल इलाकों की ज़मीन रेगिस्तान में बदल जाती है। इससे ज़मीन की उत्पादन क्षमता का ह्रास होता है। मरुस्थलीकरण से प्राकृतिक वनस्पतियों का क्षरण तो होता ही है, साथ ही कृषि उत्पादकता, पशुधन एवं जलवायवीय घटनाएँ भी प्रभावित होती हैं। भारत में भू-क्षरण का दायरा 96.40 मिलियन हेक्टेयर है जो कुल भौगोलिक क्षेत्र का 29.30 प्रतिशत है। विज्ञान और पर्यावरण केंद्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2003-05 और 2011-13 के बीच 18.7 लाख हेक्टेयर भूमि का मरुस्थलीकरण हुआ है। मरुस्थलीकरण के कारण न केवल मानवीय जीवन बल्कि वन्यजीवन भी प्रभावित हो रहें है। भूमि के बंजर होने से लगातार कृषि क्षेत्र घटता जा रहा है और भू-क्षरण बढ़ रहा है जिससे निकट भविष्य में खाद्यान्न संकट गहराने की संभावना जताई जा रही है। यही कारण है कि पूरी दुनिया मरुस्थलीकरण को लेकर चिंतित है और इसी चिंता ने विश्व के सभी देशों को मरुस्थलीकरण से निपटने के लिये एकजुट किया। UNCCD की पार्टियों के 14वें सम्‍मेलन का लक्ष्य भी बढ़ते मरुस्थलीकरण को रोकना ही रखा गया है। मरुस्थलीकरण के प्रमुख कारण पानी से कटाव: नदियों से होने वाले ज़मीन के कटाव के कारण सौराष्ट्र और कच्छ के ऊपरी इलाकों के काफी बड़े क्षेत्र प्रभावित हुए हैं। कटाव के कारण ज़मीन की सतह में कई तरह के बदलाव आते हैं और भू-क्षरण बढ़ता है। हवा से मिट्टी का कटाव: हवा से मिट्टी के कटाव का सबसे बुरा असर थार के रेतीले टीलों और रेत की अन्य संरचनाओं पर पड़ा है। मरुस्थल के अन्य भागों में किसान यह बात स्वीकार करते हैं कि ट्रैक्टरों के जरिये गहरी जुताई, रेतीले पहाड़ी ढलानों में खेती, अधिक समय तक ज़मीन को खाली छोड़ने और अन्य परंपरागत कृषि प्रणालियों से रेत का प्रसार और ज़मीन के मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया तेज़ होती है। साथ ही जनसंख्या के दबाव और आर्थिक कारणों से पर्यावरण संबंधी मुद्दे पीछे छूट जाते हैं। एक प्रमुख समस्या ज़मीन में पानी जमा होने और लवणता एवं क्षारता बढ़ जाने की है। कछारी मैदानों में खारे भूमिगत जल से सिंचाई की वजह से लवणता और क्षारता की समस्या उत्पन्न हो गई है। कच्छ और सौराष्ट्र के कछारी तटवर्ती इलाकों में बहुत अधिक मात्रा में भूमिगत जल निकालने से कई स्थानों पर समुद्र का खारा पानी जल स्रोतों में भर गया है। थार मरुस्थल में इंदिरा गाँधी नहर के कमान क्षेत्र की ज़मीन में पानी जमा होने और लवणता-क्षारता जैसी समस्याएँ बड़ी तेज़ी से बढ़ रही हैं। औद्योगिक कचरा: हाल के वर्षों में राजस्थान में औद्योगिक कचरे से भूमि और जल प्रदूषण की गंभीर समस्या उत्पन्न हो गई है। जोधपुर, पाली और बलोत्रा कस्बों में कपड़ा रंगाई और छपाई उद्योगों से निकले कचरे को नदियों में छोड़े जाने से भू-तलीय और भूमिगत जल प्रदूषित हो गया है। निर्वनीकरण: वनों का कटाव मरुस्थल के प्रसार का प्रमुख कारण है। गुणात्मक रूप से बढ़ती जनसंख्या के कारण ज़मीन पर बढ़ते दबाव की वज़ह से पेड़-पौधों और वनस्पतियों के ह्रास में वृद्धि हो रही है। जंगल सिकुड़ रहे हैं और मरुस्थलीकरण को बढ़ावा मिल रहा है। नियन्त्रण के उपाय रेतीले टीलों का स्थिरीकरण: रेतीले टीलों वाला 80 प्रतिशत क्षेत्र किसानों के स्वामित्व में है और उस पर बरसात में खेती की जाती है। इस तरह के रेतीले टीलों को स्थिर बनाने की तकनीक एक जैसी है मगर समूचे टीले को पेड़ों से नहीं ढका जाना चाहिये। पेड़ों को पट्टियों के रूप में लगाया जाना चाहिये। रक्षक पट्टी वृक्षारोपण: रेतीली ज़मीन और हवा की तेज़ रफ्तार की वजह से खेती वाले समतल इलाकों में काफी मिट्टी का कटाव होता है। कई बार तो मिट्टी का क्षरण 5 टन प्रति हेक्टेयर तक पहुँच जाता है। अगर हवा के बहाव की दिशा में 3 से 5 कतारों में पेड़ लगाकर रक्षक पट्टियाँ बना दी जाएँ तो मिट्टी का कटाव काफी कम किया जा सकता है। विमानों से बीजों की बुवाई: जमीन की रेतीली प्रकृति के कारण उसमें पानी को रोककर रखने की क्षमता बहुत कम होती है। परिणामस्वरूप बीजों की बुवाई दो-तीन दिन में पूरी करना आवश्यक है ताकि उनका अंकुरण हो सके। विशाल दुर्गम इलाकों में नमी की कमी, वर्षा की अनिश्चितता और रेतीली ज़मीन की अस्थिरता की वजह से वनीकरण की परंपरागत विधियाँ अपर्याप्त हैं। इसलिये विमानों से बीज गिराकर वनों में पेड़ उगाने की विधि अपनाई जा सकती है। सिल्विपाश्चर प्रणाली: ईंधन और चारे की ज़रूरत पूरी करने के लिये पेड़-पौधों तथा वनस्पतियों की अंधाधुंध कटाई से भी मरुस्थलीकरण बढ़ रहा है। इस पर नियंत्रण के लिये सिल्विपाश्चर प्रणाली वाला दृष्टिकोण अपनाना जरूरी है। इससे धूप और हवा से ज़मीन के कटाव को कम करने तथा उत्पादकता बढ़ाने में मदद मिलती है। इसके अलावा इससे संसाधनों का संरक्षण करके आर्थिक स्थायित्व भी लाया जा सकता है न्यूनतम खुदाई: क्यारियाँ और खेत तैयार करने, ज़मीन में नमी बनाए रखने तथा खरपतवार पर नियंत्रण के लिए खेत की जुताई बहुत ज़रूरी है लेकिन शुष्क जलवायु वाले इलाकों में ज़्यादा जुताई करने से हवा से होने वाले मिट्टी के कटाव का खतरा बढ़ जाता है। जिन स्थानों में खेती में उर्वरकों का इस्तेमाल नहीं होता वहाँ आमतौर पर यह तरीका इस्तेमाल किया जाता है। संवेदनशील इलाकों में किसानों को गर्मियों के मौसम में खेतों की जुताई न करने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। पहली वर्षा के बाद जब ज़मीन में नमी उचित मात्रा में हो, कम जुताई करने से मिट्टी के ढेले बनने में मदद मिलती है। इससे खेत की सतह सपाट नहीं हो पाती और इस तरह हवा से होने वाला मिट्टी का कटाव कम होता है। दो फसलों के बीच की अवधि में कटी फसलों की जड़ें और तने हवा से होने वाले मिट्टी के कटाव को रोकते हैं। अगर इस विधि का ठीक से उपयोग किया जाए तो भू-क्षरण रोकने का यह शानदार उपाय है। सिंचाई के पानी का सही इस्तेमाल: मरुस्थलीकरण को रोकने में सिंचाई की महत्त्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि पेड़-पौधे और वनस्पतियाँ लगाने तथा उनके विकास में सिंचाई बड़ी उपयोगी साबित होती है। अत्यधिक रेतीले और टीले वाले इलाकों में फसल और पेड़-पौधे तथा वनस्पतियाँ उगाने हेतु सिंचाई के लिये स्प्रिंकलर प्रणाली का कारगर इस्तेमाल किया जा सकता है। खनन गतिविधियों पर नियंत्रण भी विचारणीय है इस समय बंद हो चुकी खानें या तो बंजर पड़ी हैं या उन पर बहुत कम वनस्पतियाँ हैं। इन्हें फिर से हरा-भरा करने की ज़रूरत है। शुष्क जलवायु में पेड़-पौधों और वनस्पतियों की कुछ प्रजातियाँ जैसे प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा, अकेसिया टार्टिलिस, कोलोफास्पर्नम और डिस्क्रोस्टैचिस काफी अच्छी तरह उग सकती हैं। इन्हें बंद हो चुकी खानों की बंजर भूमि को हरा-भरा करने के लिये उपयोग में लाया जा सकता है।</s>
<s>[INST]‘देश भर में आज कई ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ भू-जल का स्तर काफी नीचे चला गया है, जिसके कारण आम लोगों का जन-जीवन काफी प्रभावित हुआ है।’ कथन के संदर्भ में भारत में भू-जल की स्थिति की चर्चा करते हुए भू-जल प्रबंधन की आवश्यकता के बिंदुओं पर प्रकाश डालें। [/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका। • भारत में भू-जल की स्थिति। • भू-जल प्रबंधन की आवश्यकता क्यों है ? • निष्कर्ष। हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती पर नई दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में औपचारिक रूप से अटल भू-जल योजना (अटल जल) की शुरुआत की है। इस योजना का मुख्य उद्देश्य देश के भू-जल प्रबंधन में सुधार लाना है। भू-जल को भारत में पीने योग्य पानी का सबसे प्रमुख स्रोत माना जाता है। विभिन्न आँकड़ों के अनुसार, भू-जल देश के कुल सिंचित क्षेत्र में लगभग 65 प्रतिशत और ग्रामीण पेयजल आपूर्ति में लगभग 85 प्रतिशत योगदान देता है। इसके अलावा बढ़ती जनसंख्‍या, शहरीकरण और औद्योगिकीकरण की बढ़ती मांग के कारण देश के सीमित भू-जल संसाधन खतरे में हैं। देश के अधिकांश क्षेत्रों में व्‍यापक और अनियंत्रित भू-जल दोहन से इनके स्‍तर में तेज़ी से और व्‍यापक रूप से कमी दर्ज़ की जा रही है। आँकड़ों के अनुसार, भारत विश्व में भू-जल के दोहन के मामले में सबसे आगे है, हालाँकि 1960 के दशक में भू-जल को लेकर देश में यह स्थिति नहीं थी। जानकारों का मानना है कि हरित क्रांति ने भारत को भू-जल दोहन के मामले में शीर्ष स्थान पर पहुँचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। भू-जल प्रबंधन की आवश्यकता इज़राइल के मुकाबले भारत में जल की पर्याप्त उपलब्धता है, परंतु वहाँ का जल प्रबंधन भारत से कहीं अधिक बेहतर है। इज़राइल में खेती, उद्योग, सिंचाई आदि कार्यों में पुनर्चक्रित (Recycled) पानी का इस्तेमाल होता है, इसीलिये वहाँ लोगों को पेयजल की कमी का सामना नहीं करना पड़ता।भारत में 80% जनसंख्या की पानी की ज़रूरत भू-जल से पूरी होती है और यह भू-जल अधिकांशतः प्रदूषित होता है। ऐसे में बेहतर भू-जल प्रबंधन से ही जलसंकट से उबरा जा सकता है और जल संरक्षण भी किया जा सकता है। जल गुणवत्ता सूचकांक में भारत 122 देशों में 120वें स्थान पर था तथा यदि जल्द-से-जल्द इस संदर्भ में सरकार द्वारा कोई निर्णय नहीं लिया गया तो स्थिति और भी खराब हो सकती है। आज़ादी के बाद देश में तीन राष्ट्रीय जल नीतियाँ बनी हैं। पहली नीति वर्ष 1987 में बनी, दूसरी वर्ष 2002 में और तीसरी वर्ष 2012 में तैयार हुई। इसके अलावा कुछ राज्यों ने अपनी स्वयं की जल नीति भी बनाई है। राष्ट्रीय जल नीति में इस बात पर बल दिया गया है कि खाद्य सुरक्षा, जैविक तथा समान और स्थायी विकास के लिये राज्य सरकारों को सार्वजनिक धरोहर के सिद्धांत के अनुसार सामुदायिक संसाधन के रूप में जल का प्रबंधन करना चाहिये। निष्कर्षतः आवश्यक है कि हम भू-जल को एक व्यक्तिगत संसाधन के रूप में देखने के बजाय सामूहिक संसाधन के रूप में देखा जाए। अधिकांश लोग यह सोचते हैं कि ‘यदि यह ज़मीन मेरी है तो इसके नीचे का जल भी मेरा ही होगा’, परंतु जब तक हम इस धारणा को नहीं छोड़ेंगे तब तक भू-जल का उचित प्रबंधन संभव नहीं हो पाएगा।</s>
<s>[INST]‘‘भारत जहाँ एक ओर आर्थिक-राजनीतिक प्रगति की ओर अग्रसर है, वहीं देश में आज भी लैंगिक असमानता की स्थिति गंभीर बनी हुई है।’’ इस कथन के आलोक में भारत में लैंगिक असमानता के कारकों तथा इस असमानता को समाप्त करने के संदर्भ में किये गए प्रयासों को रेखांकित करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका। • भारत में लैंगिक असमानता के कारकों को बताएं। • असमानता को समाप्त करने के संदर्भ में किये गए प्रयास। • निष्कर्ष। हाल ही में प्रस्तुत वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक ने वैश्विक स्तर पर भी लैंगिक असमानता को समाप्त करने में सैकड़ों वर्ष लगने की संभावना व्यक्त की है। इन्ही परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में अमेरिका की राजनीतिज्ञ हिलैरी क्लिंटन ने कहा कि- “महिलाएँ संसार में सबसे अप्रयुक्त भंडार हैं”। किसी समाज की प्रगति का मानक केवल वहाँ का परिमाणात्मक विकास नहीं होना चाहिये। समाज के विकास में भाग ले रहे सभी व्यक्तियों के मध्य उस विकास का समावेशन भी होना ज़रूरी है। इसी परिदृश्य में नवीन विकासवादियों ने विकास की नवीन परिभाषा में वित्तीय, सामाजिक और राजनीतिक समावेशन को आत्मसात किया है। भारत में लैंगिक असमानता के कारक: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रगति के बावजूद वर्तमान भारतीय समाज में पितृसत्तात्मक मानसिकता जटिल रूप में व्याप्त है। इसके कारण महिलाओं को आज भी एक ज़िम्मेदारी समझा जाता है। महिलाओं को सामाजिक और पारिवारिक रूढ़ियों के कारण विकास के अवसर कम मिलते हैं, जिससे उनके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं हो पाता है। सबरीमाला और तीन तलाक जैसे मुद्दों पर सामाजिक मतभेद पितृसत्तात्मक मानसिकता को प्रतिबिंबित करता है। भारत में आज भी व्यावहारिक स्तर (वैधानिक स्तर पर सर्वोच्च न्यायालय के आदेशानुसार संपत्ति पर महिलाओं का समान अधिकार है) पर पारिवारिक संपत्ति पर महिलाओं का अधिकार प्रचलन में नहीं है, इसलिये उनके साथ विभेदकारी व्यवहार किया जाता है। राजनीतिक स्तर पर पंचायती राज व्यवस्था को छोड़कर उच्च वैधानिक संस्थाओं में महिलाओं के लिये किसी प्रकार के आरक्षण की व्यवस्था नहीं है। वर्ष 2017-18 के नवीनतम आधिकारिक आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण के अनुसार, भारतीय अर्थव्यवस्था में महिलाओं की श्रम शक्ति और कार्य सहभागिता दर कम है। ऐसी परिस्थितियों में आर्थिक मापदंड पर महिलाओं की आत्मनिर्भरता पुरुषों पर बनी हुई है। देश के लगभग सभी राज्यों में वर्ष 2011-12 की तुलना में वर्ष 2017-18 में महिलाओं की कार्य सहभागिता दर में गिरावट देखी गई है। इस गिरावट के विपरीत केवल कुछ राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों जैसे-मध्य प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, चंडीगढ़ और दमन-दीव में महिलाओं की कार्य सहभागिता दर में सुधार हुआ है। महिलाओं के रोज़गार की अंडर-रिपोर्टिंग की जाती है, अर्थात् महिलाओं द्वारा परिवार के खेतों और उद्यमों पर कार्य करने को तथा घरों के भीतर किये गए अवैतनिक कार्यों को सकल घरेलू उत्पाद में नहीं जोड़ा जाता है। शैक्षिक कारक जैसे मानकों पर महिलाओं की स्थिति पुरुषों की अपेक्षा कमज़ोर है। हालाँकि लड़कियों के शैक्षिक नामांकन में पिछले दो दशकों में वृद्धि हुई है तथा माध्यमिक शिक्षा स्तर पर लैंगिक समानता की स्थिति प्राप्त हो रही है लेकिन अभी भी उच्च शिक्षा तथा व्यावसायिक शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं का नामांकन पुरुषों की तुलना में काफी कम है। भारत में महिला असमानता को समाप्त करने के प्रयास: समाज की मानसिकता में धीरे-धीरे परिवर्तन आ रहा है जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं से संबंधित मुद्दों पर गंभीरता से विमर्श किया जा रहा है। तीन तलाक, हाज़ी अली जैसे मुद्दों पर सरकार तथा न्यायालय की सक्रियता के कारण महिलाओं को उनका अधिकार प्रदान किया जा रहा है। राजनीतिक प्रतिभाग के क्षेत्र में भारत लगातार अच्छा प्रयास कर रहा है, इसी के परिणामस्वरूप वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक- 2020 के राजनीतिक सशक्तीकरण और भागीदारी मानक पर अन्य बिंदुओं की अपेक्षा भारत को 18वाँ स्थान प्राप्त हुआ। भारत ने मेक्‍सिको कार्ययोजना, नैरोबी अग्रदर्शी रणनीतियाँ और लैगिक समानता, विकास एवं शांति पर संयुक्‍त राष्‍ट्र महासभा सत्र द्वारा 21वीं शताब्‍दी के लिये अंगीकृत "बीजिंग डिक्लरेशन एंड प्‍लेटफार्म फॉर एक्‍शन को कार्यान्‍वित करने के लिये और कार्रवाइयाँ एवं पहलें" जैसी लैंगिक समानता की वैश्विक पहलों की अभिपुष्टि की है। ‘बेटी बचाओ बेटी पढाओ’, ‘वन स्टॉप सेंटर योजना’, ‘महिला हेल्पलाइन योजना’ और ‘महिला शक्ति केंद्र’ जैसी योजनाओं के माध्यम से महिला सशक्तीकरण का प्रयास किया जा रहा है। इन योजनाओं के क्रियान्वयन के परिणामस्वरूप लिंगानुपात और लड़कियों के शैक्षिक नामांकन में प्रगति देखी जा रही है। आर्थिक क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हेतु मुद्रा और अन्य महिला केंद्रित योजनाएँ चलाई जा रही हैं। लैंगिक समानता का सिद्धांत भारतीय संविधान की प्रस्‍तावना, मौलिक अधिकारों, मौलिक कर्त्तव्यों और नीति निर्देशक सिद्धांतों में प्रतिपादित है। संविधान महिलाओं को न केवल समानता का दर्जा प्रदान करता है अपितु राज्‍य को महिलाओं के पक्ष में सकारात्‍मक भेदभाव के उपाय करने की शक्‍ति भी प्रदान करता है। प्रकृति द्वारा किसी भी प्रकार का लैंगिक विभेद नहीं किया जाता है। समाज में प्रचलित कुछ तथ्य जैसे- पुरुषों की अपेक्षा महिलाएँ जैविक रूप से कमज़ोर होती हैं इत्यादि केवल भ्रांतियाँ हैं। दरअसल महिलाओं में विशिष्ट जैविक अंतर, विभेद नहीं बल्कि प्रकृति प्रदत्त विशिष्टताएँ हैं, जिनमें समाज का सद्भाव और सृजन निहित हैं।</s>
<s>[INST]स्वराजवादी परिषद को राजनीतिक संघर्ष का मैदान बनाने में कहाँ तक सफल हुए, चर्चा कीजिये। परिषद में प्रवेश न करने के संबंध में अपरिवर्तनवादियों के तर्कों को समझाते हुए स्वराज दल के पतन के कारणों को रेखांकित करें ।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • स्वराज दल के गठन की पृष्ठभूमि । • उद्देश्यों को प्राप्त करने में इसकी सफलता एवं असफलता का मूल्यांकन । • काउंसिल में प्रवेश के प्रति अपरिवर्तनवादियों के क्या तर्क थे। • स्वराज दल के पतन के मुख्य कारण। • निष्कर्ष । गांधी जी द्वारा फरवरी 1922 में असहयोग आंदोलन समाप्त कर देने के कारण राष्ट्रीय आंदोलन में शून्यता आ गई थी। स्वतंत्रता संघर्ष के लिये गांधीवादी तरीके से लोगों का विश्वास अब उठने लगा था। भारत सरकार अधिनियम 1919 के तहत 1923 ई. में चुनाव होने थे। इस मुद्दे पर कॉन्ग्रेस दो भागों में बँट गई, एक भाग काउंसिल में प्रवेश के पक्ष में था तथा दूसरा इसके विरुद्ध। अंततः 1923 ई. में चुनावों में भाग लेने के लिये स्वराज दल की स्थापना की गई चितरंजन दास इसके अध्यक्ष बने तथा मोतीलाल नेहरू इसके सचिव। स्वराज दल को केंद्रीय विधानसभा में 48 सीटें प्राप्त हुईं तथा मध्य भारत में उसका बहुमत रहा। स्वराज दल की उपलब्धियाँः स्वराजवादियों ने राष्ट्रीय एजेंडे का पालन किया तथा अपनी तरह के समूहों के साथ मिलकर राष्ट्र विरोधी कानूनों के पारित होने में अवरोध उत्पन्न किया। उन्होंने प्रांतीय स्तर पर द्वैध शासन के खोखलेपन को उजागर किया क्योंकि वास्तविक शक्तियाँ अब भी गवर्नर तथा गवर्नर जनरल के पास थीं। स्वराज दल द्वारा पारित एक प्रस्ताव के फलस्वरूप 1924 ई. में द्वैध शासन की कार्य-पद्धति की समीक्षा हेतु मड्डीमैन कमेटी का गठन किया गया। इसने व्यापक जन आंदोलन की अनुपस्थिति में भी ब्रिटिश विरोधी भावना को जीवित रखा। 1928 ई. में पब्लिक सेफ्टी बिल पारित नहीं होने दिया गया। विट्ठलभाई पटेल केंद्रीय विधानसभा के सभापति नियुक्त हुए तथा चुनावों में भाग लेने और काउंसिल में प्रवेश के फलस्वरूप प्राप्त अनुभवों से भारत में राजनीतिक परिपक्वता विकसित हुई एवं भारतीय और अधिक प्रभावशाली ढंग से संघर्ष करने के लिये प्रेरित हुए। अपरिवर्तनवादी समूह के प्रमुख नेता वल्लभभाई पटेल तथा राजेन्द्र प्रसाद थे। उनका तर्क था कि काउंसिल में प्रवेश का उद्देश्य भले ही सकारात्मक हो परंतु एक बार जब सत्ता-सुख भोग लेंगे तो स्वतंत्रता-संघर्ष के उद्देश्यों के प्रति प्रतिबद्धता कम हो जाएगी। साथ ही उनका यह भी मानना था कि चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने से हम भारत सरकार अधिनियम 1919 को कमियों के साथ ही स्वीकार कर लेंगे तथा इसके प्रति विरोध कमज़ोर पड़ जाएगा। परंतु वे 1907 ई- की तरह का विभाजन भी नहीं चाहते थे अतः कॉन्ग्रेस के भीतर ही एक गुट के रूप में उन्हें चुनाव लड़ने की आज्ञा दे दी गई। यद्यपि स्वराजवादियों ने अपनी राजनीतिक यात्रा बड़े ही उत्साह के साथ शुरू की थी परंतु 1926 तक उनका उत्साह ठंडा पड़ गया। यह उनकी अनुभवहीनता तथा गलतियों का परिणाम था। स्वराजवादियों के पतन के प्रमुख कारण निम्नलिखित थेः स्वराजवादियों की कुछ गतिविधियों से ऐसा प्रतीत होता था कि वे सरकार के साथ सहयोगपूर्ण रवैया अपना रहे हैं जैसे विट्ठल भाई पटेल द्वारा केंद्रीय विधानसभा के सभापति का पद स्वीकार करना तथा मोतीलाल नेहरू का स्कीन कमेटी का सदस्य बनना इत्यादि। इस कारण उनकी विश्वसनीयता घटी तथा जनाधार का भी कम हुआ। स्वराजवादियों के आपसी मतभेद भी सतह पर आने लग गए थे तथा उनमें सत्ता-सुख की लालसा बलवती होती जा रही थी। 1925 ई. में चितरंजन दास की मृत्यु के पश्चात् स्वराज दल को बड़ा झटका लगाए क्योंकि वे स्वराज दल के सबसे लोकप्रिय नेता थे। 1927 ई. में साइमन कमीशन की नियुक्ति के फलस्वरूप स्वराज दल की प्रासंगिकता समाप्त हो गई तथा स्वराजवादी पुनः कॉन्ग्रेस की मुख्यधारा में शामिल हो गए। अतः यह कहा जा सकता है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में स्वराज दल कोई उल्लेखनीय योगदान करने में असफल रहा परंतु इसने राजनीतिक शून्यता को भरा तथा ब्रिटिश विरोधी भावना को जीवित रखा।</s>
<s>[INST]वर्ष 1962 में भारत पर चीनी आक्रमण मात्र द्विपक्षीय संबंधों में तनावों का परिणाम न होकर, चीन की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति से त्यक्तता, अलगाव एवं निराशा की भी उपज थी। टिप्पणी कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • संक्षिप्त भूमिका। • स्वतंत्रता के बाद भारत-चीन संबंधों की पृष्ठभूमि। • अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में चीन का अलगाव। • निष्कर्ष। भारत और चीन के मध्य सीमा विवाद आज़ादी के समय से ही चला आ रहा था। 1962 का भारत-चीन युद्ध मूलतः सीमा युद्ध था, परंतु इसके लिये कई अन्य कारण भी ज़िम्मेदार थे। इस युद्ध का संबंध अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में चीन की स्थिति से भी है। अमेरिका ने फारमोसा (ताइवान) को वैध चीन के रूप में मान्यता दी तथा कम्युनिस्ट चीन की सरकार को मान्यता देने से इंकार कर दिया। इस कारण से चीन का संयुक्त राष्ट्र में प्रतिनिधित्व अधिक मुश्किल हो गया। कोरियाई युद्ध में चीन ने दक्षिण कोरिया का पक्ष लिया था, इस युद्ध में अमेरिका के हाथों चीन और दक्षिण कोरिया की संयुक्त सेना को हार का सामना करना पड़ा था। चीन ने ‘वन चाइना पॉलिसी’ (पूर्व में चीन का हिस्सा रहे भू-भागों का एकीकरण) अपनाई, जिसका अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तीव्र विरोध हुआ। स्टालिन की मृत्यु के बाद रूस-चीन संबंधों में खटास बढ़ती जा रही थी, इससे चीन बिल्कुल अलग-थलग पड़ गया था। एशिया तथा अफ्रीका के नव-स्वतंत्र राष्ट्र चीन की साम्यवादी विचारधारा के विरुद्ध गुट निरपेक्ष आंदोलन के प्रति अधिक आकर्षित थे। जहाँ प्रधानमंत्री नेहरू के नेतृत्व में भारत अंतर्राष्ट्रीय पटल पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था, वहीं माओ की राजनीतिक शक्ति एवं जनसमर्थन घट रहा था। चीन ने दलाई लामा एवं अन्य तिब्बतियों को भारत में शरण देने की घटना को पंचशील संधि का उल्लंघन माना तथा इसका कड़ा विरोध किया। भारत और चीन बिगड़ते संबंधों को कूटनीतिक तरीके से सुलझाने में विफल रहे थे। अतः उपरोक्त कारणों के संयुक्त प्रभाव से चीन ने पर 1962 में हमला कर दिया। इस युद्ध में भारत की हार ने रणनीतिक तथा कूटनीतिक विफलता को उजागर किया तथा गुट-निरपेक्ष आंदोलन को भी असफल साबित किया। भारत-चीन संबंधों में अविश्वास की स्थिति अब भी दोनों राष्ट्रों के द्विपक्षीय संबंध को प्रभावित करती है तथा सीमा विवाद को अब भी सुलझाया जाना बाकी है।</s>
<s>[INST]क्या कारण है कि वर्तमान में चीनी उद्योग उत्तर से दक्षिण भारत की ओर खिसक रहा है? भारत में चीनी उद्योग से संबंधित समस्याओं की चर्चा करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण : • भूमिका। • दक्षिण भारत में चीनी उद्योग की संभावनाएँ। • उत्तर भारत की तुलना में दक्षिण भारत में चीनी उद्योग की धीमी प्रगति के कारण। • भारत में चीनी उद्योग से संबंधित समस्याएँ। भारत, विश्व में गन्ना और गन्ना उत्पादों का अग्रणी उत्पादक देश है। 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में चीनी उद्योग की शुरुआत उत्तर प्रदेश और बिहार में नील की मांग में कमी आने के बाद की गई है। चीनी उद्योग के लिये मूलभूत कच्चा माल गन्ना है, जिसकी कुछ विशेषताएँ निम्नलिखित हैं- गन्ने को लंबे समय तक भंडारित नहीं किया जा सकता, क्योंकि उस स्थिति में यह सुक्रोज़ का क्षय कर देता है। इसका परिवहन लंबी दूरी तक नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसकी परिवहन लागत अधिक होती है और इसके सूखने की भी आशंका रहती है। इन कारणों से चीनी मिलों की स्थापना गन्ना उत्पादक क्षेत्रों के आसपास ही की जाती है। इसके अतिरिक्त गन्ने की कटाई का एक विशेष समय होता है। दक्षिण भारत में मुख्यतः महाराष्ट्र में सहकारी क्षेत्र के अंतर्गत चीनी मिलों एवं गन्ने की खेती का प्रबंधन किया जाता है। इसके अतिरिक्त कर्नाटक, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में भी सीमित मात्रा में गन्ने की खेती की जाती है। दक्षिण भारत में चीनी उद्योग की संभावनाएँ: उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में उच्च उत्पादकता। दक्षिण भारत में उत्पादित गन्ने में सुकोज़ की अधिक मात्रा पाई जाती है। उत्तर भारत की तुलना में दक्षिण भारत में पेराई सत्र अधिक लंबा होता है। उत्तर भारत की तुलना में दक्षिण भारत में चीनी उद्योग की धीमी प्रगति के कारण: इस क्षेत्र में नकदी फसल के लिये अधिक विकल्प हैं इसलिये किसान कपास, मूंगफली, नारियल, तंबाकू इत्यादि में अधिक रूचि रखते हैं। महाराष्ट्र जैसे राज्यों में पानी की कमी के कारण उच्च सिंचाई दरें। उत्तर भारत की तुलना में दक्षिण भारत में गन्ने की खेती कम विस्तृत क्षेत्रों में होती है। भारत में चीनी उद्योग से संबंधित समस्याएँ: उचित एवं लाभकारी मूल्य के निर्धारण से संबंधित समस्याएँ, साथ ही किसानों को दी जाने वाली अतिरिक्त सहायता को लेकर केंद्र और राज्यों के मध्य समन्वय का अभाव। अधिकांश चीनी मिलों की पेराई क्षमता सीमित है। पुरानी मशीनरी, वसूली की न्यून दर, उत्पादन की उच्च लागत आदि लाभ को कम कर देते हैं। बिना किसी नियंत्रण के गुड़/खांडसारी उद्योग द्वारा गन्ना के एक-तिहाई भाग का उपयोग किया जाता है, जो चीनी मिलों में गन्ने की कमी का कारण बनता है। गन्ने की पेराई अवधि 4-6 महीने की होती है, अतः इसकी प्रकृति मौसमी है, जो श्रमिकों के लिये वित्तीय समस्याएँ उत्पन्न करती है। भारत में इस उद्योग पर निर्भर एक बड़ी जनसंख्या को ध्यान में रखते हुए सरकार, किसानों और गन्ना मिल मालिकों के मध्य समन्वय होना चाहिये।</s>
<s>[INST]भारत में तेज़ी से बढ़ते आंतरिक प्रवासन के कारणों की चर्चा करते हुए इसके महत्त्व पर प्रकाश डालें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • संक्षिप्त भूमिका। • आतंरिक प्रवासन के कारण। • आंतरिक प्रवासन का महत्त्व 2017 में आतंरिक प्रवासियों की संख्या 139 मिलियन है जो 2001 के (33 मिलियन) के मुकाबले बहुत अधिक है। आंतरिक प्रवासन के कारण: शहरों में बेहतर शिक्षा, रोज़गार के साधन, उन्नत स्वास्थ्य सुविधा आदि ने बड़े पैमाने पर ग्रामीण जनसंख्या को आकर्षित किया है। हाल के वर्षों में भारत की औसत वार्षिक वृद्धि दर 7 प्रतिशत से अधिक रही है जिसने लोगों को ऐसे स्थानों की ओर आकर्षित किया है जहाँ विनिर्माण और सेवा क्षेत्र तेज़ी से आगे बढ़ रहा है। ग्रामीण जनसंख्या के लिये कृषि योग्य भूमि घटकर मात्र 0.02 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति रह गई है। ऐसे में क्षेत्र में अधिशेष श्रमिक काम की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। आंतरिक प्रवासन का महत्त्व प्रवासन समावेशी तथा समन्वयपरक समाज की स्थापना करने में सहायक होता है क्योंकि यह जातिगत तथा धार्मिक विभाजनों को कम करता है। इससे समाज के वंचित वर्ग तथा महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा मिलता है जिससे उनका सशक्तीकारण होता है। निर्माण, विनिर्माण, वस्त्र उद्योग, खनन, घरेलू कार्यों आदि क्षेत्रों में अर्द्ध-कौशल एवं निम्न कौशल वाली नौकरियाँ होती हैं जिनसे संबद्ध होकर प्रवासी श्रमिक इन क्षेत्रों के विकास में महत्त्वपूर्ण भागीदारी निभाते हैं। प्रवासी लोगों द्वारा अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के एक बड़े भाग का गठन किया जाता है जो भारतीय अर्थव्यवस्थाका लगभग 85% है।</s>
<s>[INST]‘अंग्रेजों द्वारा प्लासी तथा बक्सर दोनों युद्धों के माध्यम से बंगाल में राजनीतिक सर्वोच्चता स्थापित करने के अलावा भी इन युद्धों का अपना कुछ निश्चित महत्त्व था।’ चर्चा करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण : • संक्षिप्त भूमिका। • प्लासी के युद्ध का महत्त्व। • बक्सर के युद्ध का महत्त्व । • निष्कर्ष । प्लासी (वर्ष 1757 ई.) तथा बक्सर (वर्ष 1764 ई.) के युद्धों में विजय प्राप्त करने के पश्चात् अंग्रेज़ों ने बंगाल में राजनीतिक सत्ता स्थापित की। अंग्रेज़ों की राजनीतिक सर्वोच्चता के अतिरिक्त इन युद्धों का महत्त्व अन्य संदर्भों में भी रहा जिन्हें निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत समझा जा सकता है- प्लासी के युद्ध का महत्त्व: अंग्रेज़ों की इस विजय से बंगाल के नवाब की स्थिति कमज़ोर पड़ गई। प्रत्यक्ष रूप से तो सरकार में कोई परिवर्तन नहीं हुआ और नवाब अभी भी सर्वोच्च अधिकारी बना रहा था। लेकिन व्यावहारिक रूप से वह कंपनी के प्रभुत्व पर निर्भर था, अब कंपनी ने नवाब के अधिकारियों की नियुक्ति में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया। नवाब के प्रशासन की आंतरिक कलह स्पष्ट रूप से प्रकट होने लगी और अंग्रेज़ों के साथ मिलकर विरोधियों द्वारा किये गए षडयंत्र ने अंतत: प्रशासन की शक्ति को कमज़ोर किया। राजस्व के नियमित/निश्चित स्त्रोत के अतिरिक्त ईस्ट इंडिया कंपनी ने फ्रांसीसी और डच कंपनियों को कमज़ोर बनाकर बंगाल के व्यापार पर सफलतापूर्वक अपनी इज़ारेदारी को स्थापित कर लिया। बक्सर के युद्ध का महत्त्व: बक्सर के युद्ध के माध्यम से अंग्रेजों ने बंगाल पर पूर्ण राजनीतिक नियंत्रण स्थापित कर लिया। वास्तव में, हस्तांतरण की इस प्रक्रिया का प्रारंभ प्लासी के युद्ध से हुआ और इसकी चरम परिणति बक्सर के युद्ध में हुईं। बक्सर के युद्ध ने नवाब के भाग्य का सूर्य अस्त कर दिया और अंग्रेजों का बंगाल में एक शासक शक्ति के रूप में उदय हुआ। इस प्रकार बंगाल की राजनीति में अन्तर्निहित कमज़ोरी ने अंग्रेजों को नवाब के विरुद्ध विजय प्राप्त करने में मदद की। विभिन्न गुटों के शासकों से अलगाव ने बाह्य शक्तियों को व्यवस्था तोड़ने को प्रेरित किया।</s>
<s>[INST]‘नेपोलियन के नेतृत्व में जहां फ्रांसीसियों ने विश्व में अपनी शक्ति का लोहा मनवाया वहीं भारत में फ्रांसीसियों की सभी योजनाएं धूल-धुसरित हो गई’ कथन का विश्लेष्ण करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका। • भारत में फ्रॉसीसियों की विफलता के कारण। • निष्कर्ष। नेपोलियन के नेतृत्व में फ्रॉसीसियों ने संपूर्ण विश्व में अपनी शक्ति का लोहा मनवाया तथा डूप्ले के नेतृत्व में भी वे साम्राज्य विस्तार की ओर तीव्र गति से बढ़ रहे थे। किंतु 1758 ई. में काउंट डी लाली को गवर्नर बनाकर भेजे जाने के बाद सभी योजनाएं विफल हो गई। डूप्ले ने लगातार संघर्ष तथा अपनी कूटनीतिक सूझ-बूझ द्वारा भारत में फ्रॉसीसियों के अनुकूल जिस वातावरण का निर्माण किया था, उसे उसके देश के ही अयोग्य अधिकारियों ने प्रतिकूल बना दिया। भारत में फ्रॉसीसियों की पराजय के लिये निम्नलिखित कारण उत्तरदायी रहे- अंग्रेजी व्यापारिक तथा आर्थिक दृष्टि से प्रांसीसियों की तुलना में सुदृढ़ थे। फ्रॉसीसियों की तुलना में अंग्रेजों ने 1756 ई. के मध्य लगभग ढ़ाई गुना अधिक व्यापार किया। युद्ध होने की स्थिति में भी अंग्रेजों ने अपना पूरा ध्यान व्यापार पर केंद्रित रखा जिससे उनकी आर्थिक स्थिति कमज़ोर नहीं हुई। फ्रांसीसी कंपनी एक सरकारी संस्था थी जबकि ब्रिटिश कंपनी एक प्राइवेट कंपनी थी। फ्रांसीसी कंपनी को ब्याज एक निश्चित दर पर प्राप्त होता था, इसलिये वह कंपनी के कार्यों में अधिक रुचि नहीं लेती थी। फ्रांसीसी कंपनी पर सरकार की नीतियों का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता था जबकि अंग्रेज कंपनी का स्वरूप निजी होने के कारण उस पर निर्णयों का विशेष प्रभाव नहीं पड़ता था। बंगाल विजय से प्राप्त धन से अंग्रेजों की प्रतिष्ठा बढ़ी, साथ ही बंगाल पर अपार धन तथा जनशक्ति भी प्राप्त हुई। डूप्ले की फ्रॉस वापसी के कारण फ्रॉसीसियों का वर्चस्व समाप्त होना तय हो गया क्योंकि भारतीय परिवेश की जितनी जानकारी उसे थी उतनी काउण्ट डी लाली को नहीं थी। काउण्ट डी लाली एक क्रोधी, अदूरदर्शी तथा कटुभाषी व्यक्ति था, इसलिये उसके नेतृत्व में फ्रॉसीसी अधिकारियों ने पूर्ण निष्ठा नहीं दिखाई। अंग्रेजों में परस्पर सहयोग की भावना विद्यमान थी, जबकि फ़्रांसीसियों के नेतृत्व का मुद्दा और एकता का अभाव अंग्रेजों के लिये लाभदायक सिद्ध हुआ।</s>
<s>[INST] ‘इस दुर्दशा का व्यापार के इतिहास में कोई दूसरा जोड़ नहीं है। भारतीय बुनकरों की हड्डियाँ भारत के मैदानों में बिखरी पड़ी हैं’ कथन का विश्लेषण करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण : • भूमिका। • भारत में परंपरागत हस्तशिल्प उद्योग का ह्यस क्यों हुआ। • भारत एक संपूर्ण निर्यातक से संपूर्ण आयातक देश कैसे बना । • निष्कर्ष। भारत में आरंभिक आक्रमणकारियों तथा ब्रिटिश साम्राज्यवादियों में मुख्य अंतर यह था कि अंग्रेजों के अतिरिक्त किसी अन्य प्रारंम्भिक आक्रमणकारी ने न तो भारतीय अर्थव्यवस्था की संरचना में परिवर्तन किया और न ही धन की निरंतर निकासी का सिंद्धांत अपनाया। भारत में ब्रिटिश शासन के फलस्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था, उपनिवेशी अर्थव्यवस्था में रूपांतरित हो गई तथा भारतीय अर्थव्यवस्था की सभी नीतियाँ एवं कार्यक्रम उपनिवेशी हितों के अनुरूप बनने लगे। 1813 के चार्टर एक्ट द्वारा ब्रिटिश नागरिकों को भारत से व्यापार करने की छूट मिलने के कारण भारतीय बाजार सस्ते तथा मशीन निर्मित आयातित वस्तुओं से भर गया। दूसरी ओर, भारतीय उत्पादों के लिये यूरोपीय बाज़ारों में प्रवेश करना अत्यंत कठिन हो गया । 1820 के पश्चात् तो यूरोपीय बाजार भारतीय उत्पादों के लिये लगभग बंद ही हो गए। भारत में रेलवे के विकास ने यूरोपीय उत्पादों को भारत के दूर-दराज के क्षेत्रों तक पहुँचने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत में परंपरागत हस्तशिल्प उद्योग का ह्यस इसलिये नहीं हुआ कि यहाँ औद्योगीकरण या औद्योगिक क्रांति हुई। बल्कि यह ह्यस अंग्रेजी माल के भारतीय बाजारों में भर जाने से हुआ, क्योंकि हस्तशिल्प, अंग्रेज़ों के सस्ते माल का मुकाबला नहीं कर सका। यह वह समय था जब एक ओर भारतीय हस्तशिल्प उद्योग तेज़ी से पतन की ओर अग्रसर था तथा वह अपनी मृत्यु की कगार पर पहुँच गया था, वहीं दूसरी ओर इस काल में इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति तेजी से पैर जमा रही थी तथा देश का तेजी से औद्योगीकरण हो रहा था। इस समय भारतीय दस्तकार और शिल्पकार पर्याप्त संरक्षण के अभाव में विषम परिस्थितियों के दौर से गुज़र रहे थे। वहीं नए पाश्चात्य अनुप्रयोगों तथा तकनीक ने उनके संकट को और गंभीर बना दिया। अंग्रेज़ों की शोषणकारी तथा भेदभावमूलक नीतियों के कारण बहुत से भारतीय दस्तकारों ने अपने परंपरागत व्यवसाय को त्याग दिया तथा वे गाँवों में जाकर वे खेती करने लगे। धीरे-धीरे भारत एक संपूर्ण निर्यातक से संपूर्ण आयातक देश बन गया।</s>
<s>[INST]‘अंग्रेजों की विदेश नीति ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हितों की संरक्षक थी, किंतु इसने समय-समय पर पड़ोसी देशों के साथ विवादों को भी जन्म दिया’ चर्चा करें।[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s>
<s>[INST]आर्थिक विकास का नेहरूवियन मॉडल बेहद उत्साहजनक होने के बावजूद कुछ सीमाओं से बंधा था जिसके कारण यह अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में पूर्णतः सफल न हो सका किंतु इसकी प्रासंगिकता आज भी है। चर्चा करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोणः • नेहरु मॉडल का संक्षिप्त परिचय। • उद्देश्य तथा सीमाएँ। • प्रासंगिकता। नेहरु समाजवादी विचारों से प्रभावित थे तथा उनके द्वारा प्रस्तुत अर्थव्यवस्था का मॉडल सार्वजनिक क्षेत्र को नेतृत्वकता तथा निजी क्षेत्र को सहायक की भूमिका प्रदान करने का पक्षधर था। राज्य द्वारा संचालित नौकरशाही को इसमें मुख्य भूमिका निभानी थी। नेहरु की नीति के अनुरूप चलकर- भारत ने धीरे-धीरे ही सही किंतु उत्पादन में आत्मनिर्भरता तथा विविधता की ओर कदम बढ़ाए। घरेलू उद्योगों को भी आगे बढ़ने का अवसर प्रदान किया गया। सार्वजनिक क्षेत्र मज़बूत हुआ जिससे रोज़गार सृजन की संभावनाएँ भी बढ़ी। किंतु इस नीति की कुछ सीमाएँ भी रही; जैसे - प्रारंभिक दौर में संवृद्धि दर का अपेक्षानुरूप न बढ़ना, उच्च मुद्रास्फिति, नवाचार की कमी, नौकरशाही का अत्यधिक हस्तक्षेप तथा निर्यात की उपेक्षा आदि। उपरोक्त सीमाओं के बावजूद नेहरुवियन मॉडल के प्रमुख तत्त्व, जैसे- गरीबी उन्मूलन में राज्य की भूमिका, पूंजी निर्माण पर बल देना, बचत को महत्त्व देना तथा सार्वजनिक उद्यमों को मज़बूत कर रोज़गार की संभावनाओं को बढ़ावा देना आज भी भारत के विकास हेतु महत्त्वपूर्ण कारक है।</s>
<s>[INST]हाल ही में भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा महानगरों से एकत्र किये गए पेयजल के नमूने गुणवत्ता मानकों पर खरे नहीं उतरे जो चिन्ता का विषय है, भारत में पेयजल की खराब गुणवत्ता के कारणों पर चर्चा करते हुए संभावित समाधान सुझायें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • नीति आयोग द्वारा जारी रिपोर्ट का संक्षिप्त परिचय। • भारत में पेयजल की खराब गुणवत्ता के कारणों की चर्चा करें। • संभावित समाधानॉन का उल्लेख करें। भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा हाल ही में दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता तथा चेन्नई जैसे महानगरों के पेयजल का परीक्षण किया जिसमें 11 में से 10 शहरों के नमूने मानकों पर खरे नहीं उतरे। इससे पूर्व नीति आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में माना था कि भारत जल संकट का सामना कर रहा है। खराब गुणवत्ता के कारण जल शोधन में केवल क्लोरीनेशन का प्रयोग जिससे जीवाणुओं तथा अन्य सूक्ष्मजीवों को नष्ट किया जाता है किंतु इससे जल में घुलित लवण, क्षारीयता, विषाक्त धातुओं को समाप्त नहीं किया जा सकता। जल आपूर्ति हेतु प्रयुक्त पुराने पाइपों में रिसाव या लीकेज की स्थिति में जल दूषित हो जाता है। जल की माँग तथा आपूर्ति में अंतर होने के कारण जल की आपूर्ति में कमी की भरपाई सतही जल तथा भूजल से की जाती है, जिसमें आर्सेनिक की मात्रा अधिक पाई जाती है। जल राज्य सूची का विषय है। इससे केंद्र, राज्य तथा स्थानीय सकरार के मध्य समन्वय की समस्या पैदा होती है। समाधान के बिंदु जल की गुणवत्ता का बार-बार परीक्षण किया जाना चाहिये। स्थानीय निकायों हेतु जल की गुणवत्ता के भारतीय मानकों का अनुपालन अनिवार्य किया जाना चाहिये। समाज के समृद्ध वर्ग के लिये जल हेतु मूल्य निर्धारित किया जाना चाहिये। जल उपचार को अधिकाधिक स्थानीयकृत किया जाना चाहिये। कृषि क्षेत्र में जल का उपयोग विवेकपूर्ण ढंग से किया जाना चाहिये। उपरोक्त के अलावा ज़हरीले अकार्बनिक प्रदूषकों तथा ठोस घुलित पदार्थों को हटा सकने की सक्षमता हेतु जल उपचार को अधिकाधिक स्थानीयकृत किया जाना चाहिये तथा वर्षा जल संचयन पर अधिकाधिक जागरूकता फैलाकर समस्या का समाधान सुनिश्चित किया जाना चाहिये।</s>
<s>[INST]यूरोपीय देशों की तुलना में विलंब से शुरू हुई जापान की औद्योगिक क्रांति की प्रकृति किन संदर्भों में पश्चिम से भिन्न थी? चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • जापान की औद्योगिक क्रांति की परिस्थितियों का उल्लेख करें। • पश्चिम की परिस्थितियों की चर्चा करें। • दोनों में भिन्नता के बिन्दुओं को स्पष्ट करें। औद्योगिक क्रांति की शुरुआत 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध तथा 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में इंग्लैंड में हुई, तत्पश्चात् इसका प्रभाव अन्य देशों में देखा गया। जापान में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत 1868 में मेइजी शासन की पुर्नस्थापना के बाद शुरू हुई जिसमें पश्चिमी देशों से भिन्नता के गुण मौजूद थे। पश्चिमी देशों में औद्योगिक क्रांति की शुरूआत में निजी कंपनियों की प्रमुख भूमिका थी, जबकि जापान के औद्योगीकरण में राज्य की भूमिका केंद्र में रही। सरकार ने भारी मात्रा में विदेशों से ऋण लेकर उद्योगों का विकास किया तथा बाद में उन्हें निजी कंपनियों को सौंप दिया। इस प्रकार जापान में औद्योगिक पूंजी का स्वतंत्र रूप से विकास नहीं हुआ क्योंकि निजी उद्यमियों का संबंध बैंकिंग घराने से था इसलिये नए औद्योगिक वर्ग का उदय यहाँ नहीं हुआ। इसके अतिरिक्त पश्चिमी औद्योगिक क्रांति के पीछे उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन एक प्रमुख कारक था जबकि जापान में औद्योगीकरण की प्रक्रिया युद्ध उपकरणों के निर्माण की आवश्यकता से प्रेरित थी। पश्चिमी औद्योगिक क्रांति जहाँ एक सहज प्रक्रिया का परिणाम थी, वही जापान में इन परिस्थितियों का अभाव था। जापान का संपर्क बाहरी दुनिया से देर से स्थापित होने के कारण अन्य देशों के मुकाबले उसके माल की मांग का सृजन भी देर से हुआं इसके अतिरिक्त क्योंकि जापान में औद्योगिक क्षेत्र से जुड़े मध्यम वर्ग का उदय नहीं हुआ जिसने राज्य की निरंकुशता पर नियंत्रण करने का प्रयास किया हो ऐसे में राज्य के अंतर्गत ही औद्योगिक पूंजीवाद का विकास हुआ। निष्कर्षत उपरोक्त बिंदुओं से यह समझा जा सकता है कि जापान की औद्योगिक क्रांति बिंदुओं के पश्चिमी औद्योगिक क्रांति से भिन्न थी।</s>
<s>[INST]दुर्लभ खगोलीय घटना ‘सुपरमून’, ‘ब्लूमून’ और ‘ब्लडमून’ की संक्षिप्त चर्चा करें। (200 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • सुपरमून, ब्लूमून और ब्लडमून की चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण • सुपरमून, ब्लूमून और ब्लडमून का संक्षिप्त परिचय दें। 31 जनवरी, 2018 को एक दुर्लभ खगोलीय घटना देखने को मिली जिसे ‘सुपर ब्लू ब्लड मून’ कहा जाता है। ऐसी घटना 35 वर्ष पूर्व दिसंबर 1982 में देखी गई थी। इस कारण यह घटना न केवल सामान्य लोगों के लिये महत्त्वपूर्ण है बल्कि विश्व भर के वैज्ञानिकों के लिये शोध हेतु भी महत्त्वपूर्ण थी। सूर्य और चंद्रमा के बीच पृथ्वी के आ जाने से उसकी छाया चंद्रमा पर पड़ती है। इससे चंद्रमा का छाया वाला भाग काला दिखाई पड़ता है। इसी घटना को चंद्रग्रहण कहा जाता है। घटना की प्रकृति के अनुसार, चंद्रग्रहण को सुपरमून, ब्लूमून और ब्लडमून के रूप में जाना जाता है। सुपरमून: यह खगोलीय घटना तब होती है जब चंद्रमा पृथ्वी से सबसे नज़दीक (3,56,500 किमी.) होता है। घटना के दौरान चंद्रमा पृथ्वी के सबसे करीब होता है, परिणामस्वरूप वह 14 फीसदी बड़ा और 30 फीसदी अधिक चमकीला दिखाई पड़ता है। ब्लूमून: जब एक ही महीने में दो बार पूर्णचंद्र की घटना होती है तो दूसरे वाले पूर्णचंद्र को ब्लूमून कहते हैं। ब्लडमून: इस दुर्लभ घटना में चंद्रमा लाल दिखता है। चूँकि लाल रंग सबसे लंबी तरंगदैर्ध्य वाला होता है, इसलिये परावर्तन के नियम के अनुसार, लाल रंग सबसे पहले चंद्रमा तक पहुँचता है और टकरा कर हमारी आँखों तक आता है। यह तभी संभव हो पाता है जब सूर्य, पृथ्वी और चंद्रमा की स्थिति अपनी कक्षा में एक-दूसरे के बिल्कुल सीध में हो। यह दुर्लभ खगोलीय घटना खगोल वैज्ञानिकों के लिये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही। इस घटना से उन्हें यह समझने में सहायता मिली कि जब चंद्रमा की सतह ठंडी होगी तो इसके क्या परिणाम होंगे।</s>
<s>[INST]‘संगम साहित्य से प्राचीन तमिल देश के समाज व संस्कृति का ज्ञान प्राप्त होता है।’ विश्लेषण कीजिये। (200 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • संगम साहित्य को संक्षेप में बताते हुए इससे तमिल देश के समाज एवं संस्कृति के पक्षों को उजागर करना। हल करने का दृष्टिकोण • उत्तर के प्रारंभ में संगम साहित्य की संक्षिप्त चर्चा करनी है। • संगम साहित्य में वर्णित तमिल समाज एवं संस्कृति की चर्चा करनी है। • संक्षिप्त निष्कर्ष लिखें। ऐतिहासिक युग के प्रारंभ में दक्षिण भारत का क्रमबद्ध इतिहास हमें जिस साहित्य से ज्ञात होता है उसे संगम साहित्य कहते हैं। प्रमुख संगम ग्रंथ जिनमें हमें तत्कालीन समाज एवं संस्कृति की जानकारी मिलती है- शिलप्पादिकारम् और मणिमैखले हैं। संगम साहित्य से तत्कालीन समाज एवं संस्कृति आदि के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। यह साहित्य हमारे आर्य एवं द्रविड़ संस्कृति के समन्वय का चित्र उपस्थित करता है। उत्तर भारतीय समाज की कई परंपराओं को तमिल वासियों ने अपना लिया था। तमिल समाज उत्तर भारतीय समाज की भाँति वर्ग भेद पर आधारित था। सर्वोच्च स्थान राजा का ही होता था जिसे समाज में सर्वाधिक प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त था। संगम साहित्य की तत्कालीन समाज के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करने वाली शिलप्पादिकारम् और मणिमैखले जैसी रचनाएँ उस समय की सामाजिक स्थिति को भाँति-भाँति उजागर करती हैं। इन ग्रंथो में तत्कालीन समाज में नारी की स्थिति, दार्शनिक एवं शास्त्रार्थ संबंधित बातों को शामिल किया गया है। संगमकालीन समाज में वर्ण एवं जाति व्यवस्था उतनी सख्त नही थी जितनी उत्तर भारत में थी सामाजिक वर्गों में ब्राह्मणों को समाज में सर्वाधिक प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त था। ब्राह्मणों के पश्चात् वेल्लार वर्ग का स्थान था। संगम युग के तमिल शाकाहार एवं मांसाहार दोनों तरह के भोजन करते थे। वे लोक संगीत, नृत्य एवं विविध प्रकार के वाद्यों द्वारा मनोरंजन किया करते थे। धनी वर्ग पक्के तथा निर्धन वर्ग कच्चे मकानों में रहते थे। संगमकालीन तमिल-वासी अपनी स्थिति के अनुरूप कार्य करते थे। महिलाओं को अपना जीवन साथी चुनने की छूट थी। तमिल ग्रन्थ तोलकाप्पियम में आठ प्रकार के विवाहों का भी उल्लेख मिलता है। विधवाओं की स्थिति अधिक शोचनीय थी। उच्च जातियों में सती प्रथा के प्रचलन के भी संकेत मिलते हैं। तमिल साहित्य में संस्कृतिक पक्षों की भी जानकारी प्राप्त होती है। इस काल में मृतक के संस्कारों की जानकारी प्राप्त होती है। अग्निदाह एवं समाधीकरण दोनों ही विधियों द्वारा शव का अंतिम संस्कार किया जाता था। कभी-कभी शवों को खुले में जानवरों के खाने के लिये छोड़ दिया जाता था। संगम साहित्य से पता चलता है कि ब्राह्मण अपना समय अध्ययन एवं अध्यापन में व्यतीत करते थे, साथ ही अन्य धर्मों के अनुयायियों से उनका वाद-विवाद होता रहता था। तमिल देश के प्राचीन देवता मुरूगन को माना जाता है। कालांतर में इनका नाम सुब्रह्यण्य हो गया और स्कंद कार्तिकेय के साथ उनका तादात्म्य स्थापित कर दिया गया। तमिल प्रदेश में देवताओं की पूजा विधियाँ उत्तर भारत के ही समान थीं। कावेरी पत्तन में इंद्र की पूजा होती थी तथा इसके लिये विशेष समारोह का आयोजन किया जाता था। संगम साहित्य के अध्ययन से तमिल समाज तथा संस्कृति की अच्छी जानकारी प्राप्त होती है। सामान्य मनुष्यों की दिनचर्या का जितना सूक्ष्म विवरण इन साहित्यों में प्राप्त होता है, वह बहुत ही कम ग्रंथो में दिखाई पड़ता है। अत: संगम साहित्य सामाजिक एवं संस्कृतिक जानकारी के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।</s>
<s>[INST]‘अमरावती मूर्तिकला अपने धार्मिक तत्त्व को आत्मसात करते हुए लोकोन्मुखी रही है।’ विश्लेषण कीजिये। (200 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • अमरावती मूर्तिकला के धार्मिक तत्त्वों के साथ इसमें स्थानीय प्रभावों की चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण • संक्षिप्त एवं प्रभावी भूमिका। • अमरावती मूर्तिकला को स्पष्ट करते हुए उसके धार्मिक तत्त्वों की व्याख्या करनी है। • अमरावती मूर्ति कला में स्थानीयता के प्रभाव की भी चर्चा करनी है। मूर्तिकला भारतीय उपमहाद्वीप में हमेशा से कलात्मक अभिव्यक्ति का प्रिय माध्यम रही है। भारतीय मूर्तिकला का स्वरूप अधिक रोचक, सहज, धार्मिक और स्थानीयता से युक्त है। भारत में मूर्तिकला का विकास अन्य ललित कलाओं जैसे- स्थापत्य एवं चित्रकला के साथ ही हुआ। भारत में मूर्तिकला का विकास अनेक रूपों जैसे- मृण्मूर्तिकला, धातु मूर्तिकला, पाषाण मूर्तिकला आदि के रूप में हुआ। सातवाहन काल के दौरान द्वितीय शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अमरावती मूर्तिकला का प्रादुर्भाव हुआ। इस मूर्तिकला का विकास अमरावती में होने के कारण इसे अमरावती मूर्तिकला शैली कहा गया। अमरावती दक्षिण भारत के गुंटूर ज़िले के पास स्थित है। अमरावती मूर्तिकला शैली बाह्य संस्कृतियों से प्रभावित नहीं थी, यह स्वदेशी शैली से विकसित हुई थी। यह मूर्तिकला आंध्र प्रदेश के जग्गबयापेट, नागार्जुन कोंडा तथा महाराष्ट्र में तेर के स्तूप के अवशेषों में देखी जा सकती है। अमरावती मूर्तिकला में ज़्यादातर बुद्ध के जीवन की घटनाओें, पूर्वजन्म की कथाओं (जातक कथाओं) का चित्रण है। हाव-भाव तथा सौंदर्य की दृष्टि से अमरावती कला-शैली की मूर्तियाँ सभी मूर्तियों में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं। इस कला में धार्मिक तत्त्वों के प्रभाव के रूप में बौद्ध का प्रभाव मुख्य रूप से दिखाई देता है जिसमें बुद्ध की व्यक्तिगत विशेषताओं पर कम बल दिया गया है। परंतु बौद्ध मूर्तियों में उनके जीवन एवं जातक कथाओं की कहानियाँ इस कला के धार्मिक पक्षों को व्यक्त करती हैं। अमरावती मूर्तिकला की कुछ मूर्तियों में स्त्रियों को उनके पाँव पूजते हुए दर्शाया गया है, यहाँ पाँवों का पूजन धार्मिक महत्त्व को व्यक्त करता है। अमरावती मूर्तिकला में लिंगराज पल्ली से प्राप्त धम्मचक्र, बोधिसत्व तथा बौद्धमत के रत्नों को दर्शाने वाली एक गुंबजाकार पट्टी प्राप्त हुई है जिसमें बौद्ध, धम्म एवं संघ तीनों को निरूपित किया गया है। अमरावती मूर्तिकला में धार्मिक तत्त्वों के समावेश के साथ-साथ लोकोन्मुखी तत्त्व भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते हैं। अमरावती, मूर्तिकला के माध्यम से पहली बार शारीरिक एवं भावनात्मक अभिव्यक्तियों में निकटता आई। अमरावती मूर्तिकला में आभूषणों की न्यूनतम संख्या स्त्रियों में आभूषणों के प्रति कम आकर्षण को इंगित करती है। अमरावती शैली में सजीवता एवं भक्तिभाव के साथ कुछ मूर्तियों में काम विषयक अभिव्यक्तियाँ देखने को मिलती हैं जो इसे लोकोन्मुखी बनाती हैं। अमरावती मूर्तिकला ने कला के माध्यम से धर्म प्रधान की जगह मनुष्य प्रधान बनने का प्रयत्न किया। इस परिवर्तन का मुख्य कारण भारतीय समाज का व्यवसाय प्रधान होना था, अत: इस कला पर धर्म का प्रभाव कम होने के साथ ही यह लोकोन्मुखी बनती चली गई।</s>
<s>[INST]बलबन का राजत्व प्रतिष्ठा, शक्ति तथा न्याय पर आधारित था। चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद कथन बलबन का राजत्व प्रतिष्ठा, शक्ति एवं न्याय पर आधारित होने की चर्चा से संबंधित है। हल करने का दृष्टिकोण बलबन के राजत्व के विषय में संक्षिप्त उल्लेख के साथ परिचय लिखिये। बलबन का राजत्व प्रतिष्ठा, शक्ति एवं न्याय पर आधारित होने की चर्चा कीजिये। उचित निष्कर्ष लिखिये। बलबन को अमीरों की शक्ति का एहसास सुल्तान नासिरूद्दीन महमूद के नायब या संरक्षक के रूप में कार्य करने के समय से ही था। अत: उस समय उसने समस्त सैनिक एवं असैनिक शक्तियों से युक्त शासक की आवश्यकता का अनुभव करते हुए इसी के अनुरूप राजत्व को आकार दिया। बलबन का राजत्व प्रतिष्ठा, शक्ति एवं न्याय पर आधारित होने का वर्णन निम्नलिखित आधार पर किया गया है- बलबन का मानना था कि आतंरिक एवं बाह्य संकट का सामना करने का एकमात्र उपाय सम्राट की प्रतिष्ठा एवं शक्ति को बढ़ाना है जिसके लिये वह निरंतर प्रयत्नशील रहा। बलबन ने राजा के पद को विशेष स्थान प्रदान किया ताकि अपनी शक्ति एवं सत्ता के लिये अभिजात वर्ग पर निर्भर न रहना पड़े। बलबन के अनुसार, सुल्तान पृथ्वी पर ईश्वर की छाया और परमात्मा की कृपा को ग्रहण करने वाला होता है। उसका मानना था कि जनहित के कल्याण के लिये राजा के पद एवं प्रतिष्ठा को बनाए रखना उसका सर्वोच्च कर्त्तव्य है। बलबन ने अमीरों पर अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिये सिजदा एवं पायबोस जैसी कठोर दरबारी शिष्टाचार एवं नई प्रथाओं को लागू किया। दिल्ली सल्तनत की प्रतिष्ठा को ऊँचा उठाने के लिये बलबन ने फारस के इस्लामी राजत्व के सिद्धांतों एवं परंपराओं के आधार पर अपने शासन को संगठित किया। राजत्व की प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुए बलबन का विश्वास था कि कुलीन घरानों और प्राचीन वंशों के व्यक्तियों को ही प्रभुत्व और शक्ति का अधिकार था। हालाँकि बलबन ने तुर्क अमीरों की शक्ति एवं एकाधिकार को ध्यान में रखते हुए निम्न वर्ग के तुर्कों को न केवल महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया बल्कि उन्हें ‘चालीस’ के समकक्ष स्थान भी दिया। बलबन ने जनता का विश्वास प्राप्त करने के लिये न्याय देने में थोड़ा भी पक्षपात नहीं किया। अपने अधिकारों की अवहेलना करने वाले बड़े-से-बड़े व्यक्ति को भी बलबन नहीं छोड़ता था। निष्कर्षत: बलबन का राजत्व शक्ति, प्रतिष्ठा एवं न्याय पर आधारित था। शासन की प्रतिष्ठा को पुन: कायम करने में बलबन को बहुत अधिक समय नहीं लगा। बलबन ने अपने व्यक्तित्व को राजत्व के लिये बलिदान कर दिया।</s>
<s>[INST]चीन के साथ 1962 का युद्ध चीनी आक्रामकता की बजाय एक व्यावहारिक भारतीय विदेश नीति की अनुपस्थिति का परिणाम अधिक था। टिप्पणी कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • 1962 के भारत-चीन युद्ध के संदर्भ में बताएँ कि यह चीनी आक्रामकता का परिणाम था या फिर व्यावहारिक भारतीय विदेशी नीति की अनुपस्थिति का। हल करने का दृष्टिकोण • 1962 के भारत-चीन युद्ध की पृष्ठभूमि बताते हुए उत्तर आरंभ करें। • क्या यह युद्ध चीनी आक्रामकता की बजाय भारतीय कुशल विदेश नीति की अनुपस्थिति का परिणाम था? • प्रभावी निष्कर्ष लिखें। भारत-चीन के मध्य हुए 1962 के युद्ध में भारत की पराजय भारतीयों के स्वाभिमान पर गहरा धक्का था। वस्तुत: तिब्बत मुद्दे से उपजे विवाद व दलाई लामा का भारत प्रवासन चीन को रास नहीं आया परिणामस्वरूप कटुता का दौर पुरज़ोर तरीके से आरंभ हो गया, जिसकी परिणति के रूप में युद्ध आरंभ हुआ। इस युद्ध में भारी संख्या में चीनी फौजियों द्वारा नेफा चौकी पर हमला कर कब्ज़ा कर लिया गया। इस युद्ध को लेकर विद्वानों द्वारा नेहरू को ज़िम्मेदार ठहराया गया। उनके द्वारा यहाँ तक कहा गया कि यह युद्ध नेहरू की विदेश नीति की अदूरदर्शिता का परिणाम है। लेकिन यदि तत्कालीन परिस्थितियों पर गौर करें तो उपरोक्त आरोप उचित प्रतीत होता दिखाई नहीं देता। वस्तुत: भारत चीन के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध का पक्षधर रहा है और प्रत्येक स्तर पर चीन के पुरज़ोर समर्थन का हिमायती भी। भारत ने अपनी आंतरिक समस्याओं के निराकरण पर अधिक बल देने को प्राथमिकता प्रदान की क्योंकि यह तत्कालीन समय की आवश्यकता भी थी। पाकिस्तान से भी भारत के संबंध कटु थे, ऐसे में चीन के साथ भी संबंध खराब कर भारत दोनों का शत्रु नहीं बनाना चाहता था क्योंकि इससे आर्थिक विकास संभव नहीं हो पाता। अत: भारत युद्ध जैसी परिस्थिति को टालने का प्रयास कर रहा था और शांति स्थापना हेतु लगातार प्रयास कर रहा था। यही कारण था कि भारत द्वारा चीन को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता हेतु समर्थन भी दिया गया। दूसरी तरफ चीन द्वारा तिब्बत पर कब्ज़ा किये जाने से लगातार झड़प होने की भी आशंका बनी हुई थी परंतु भारत इस बात से भी पूरी तरह आश्वस्त था कि चीन अभी विस्तारवाद के पक्ष में नहीं है क्योंकि अभी उसके समक्ष कई सारी समस्याएँ विद्यमान थीं। लेकिन फिर भी अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने व चीन पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से भारत ने सोवियत संघ के साथ राजनयिक संबंध बेहतर करने पर बल अवश्य दिया। चीन के साथ बिगड़ते रिश्ते को देखते हुए भारत को लग रहा था कि यह छोटी-मोटी झड़प जैसा होगी लेकिन उसे इतनी विशालता का अनुमान नहीं था जितना कि देखने को मिला। इस संदर्भ में देखा जाए तो नेहरू ने हमले के स्वरूप को समझने में गलती अवश्य की लेकिन यह कहना कि व्यावहारिक भारतीय विदेशी नीति अनुपस्थित थी, तार्किक नहीं हैं। यदि इसके विश्लेषण पर सूक्ष्मता से गौर किया जाए तो भारत को इस युद्ध का अंदाजा तक नहीं था वैसे भी भारत को इससे कुछ प्राप्त होने वाला नहीं था। यह तो चीन के उद्देश्यों की परिपूर्ति करने में निहित था जिसका प्रमुख कारण दलाई लामा का भारत में शरण लेना था। दूसरी तरफ, चीन भारत को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कमज़ोर करना चाहता था। साथ ही, चीन दर्शाना चाहता था कि भारत कि शांति और गुटनिरपेक्षता की नीति अव्यावहारिक है, जिसके पीछे उद्देश्य था कि दबाव में आकर भारत गुटनिरपेक्षता व शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की नीति को त्याग देगा और फिर एशिया तथा अप्रीका के अन्य देश चीन का नेतृत्व स्वीकार कर लेंगे। इस प्रकार 1962 का युद्ध चीनी आक्रामकता का परिचायक था, न कि भारतीय विदेश नीति की विफलता का परिणाम। हालाँकि इस संदर्भ में कुछ स्तरों पर भारत से चूक अवश्य हुई जिसे युद्ध के स्वरूप व युद्ध की पूर्ण तैयारी न होने के संदर्भ में समझा जा सकता है।</s>
<s>[INST]भारत के एकीकरण में राज्यों के जन आंदोलन की भूमिका का आकलन कीजिये। लोकतांत्रिक विचारधारा की वाहक होने के बावजूद कॉन्ग्रेस देशी रियासतों में लोकतांत्रिक विचारों को ले जाने में अग्रसक्रिय क्यों नहीं रही? (250 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद भारत के एकीकरण में राज्यों के जन-आंदोलन की भूमिका को बताना है। कॉन्ग्रेस द्वारा देशी रियासतों में लोकतांत्रिक विचारधारा को ले जाने में अग्रसक्रिय न होने के कारणों को स्पष्ट करना है। हल करने का दृष्टिकोण भारत के एकीकरण की पृष्ठभूमि के साथ परिचय दें। एकीकरण में राज्यों के जन-आंदोलन की भूमिका को स्पष्ट करें। लोकतांत्रिक विचारधारा को कॉन्ग्रेस द्वारा रियासतों में ले जाने की अग्रसक्रियता न होने के कारणों को बताएँ। आज़ादी के पूर्व से ही रियासतों में जन-आंदोलनों का उभार हो गया था। स्वतंत्रता की प्राप्ति से प्रेरित इन आंदोलनों का ही परिणाम था कि आज़ादी के बाद अधिकांश रियासतों ने अपना विलय भारत में कर लिया। परंतु कुछ ऐसी भी रियासतें थीं (हैदराबाद, जूनागढ़, कश्मीर) जो जन भावना के विपरीत जाना चाहती थीं। ऐसे में इन राज्यों में जन-आंदोलनों के उभार ने भारत के एकीकरण को पूर्ण किया। कश्मीर को छोड़कर इन रियासतों की जनता भारत संघ में शामिल होना चाहती थी। उदाहरण के तौर पर देखें तो हैदराबाद रियासत की जनता निजाम के शासन के खिलाफ थी और सशक्त विद्रोह पर उतर आई। महिलाएँ निजाम के शासन में काफी शोषित महसूस कर रही थी, अत: उन्होंने आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। आंदोलन के बढ़ते स्वरूप को देखते हुए निजाम द्वारा इसे दबाने के लिये अर्द्धसैनिक बल को भेजा गया जिसने जनता पर काफी अत्याचार किये और अंतत: भारत सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ा तथा सैनिक कार्रवाई द्वारा हैदराबाद को भारत संघ में मिला लिया गया। आंतरिक स्वायत्तता के करार के साथ जनता के इच्छानुरूप मणिपुर भी सहमति-पत्र पर हस्ताक्षर के बाद भारतीय संघ का हिस्सा बन गया। कश्मीर की स्थिति में जन-आंदोलन व कबायली हमले ज़िम्मेदार रहे हैं। परिणामस्वरूप कश्मीर का भी भारत में विलय कर लिया गया। कुल मिलाकर यदि देखा जाए तो भारत के एकीकरण में इन रियासतों में उत्पन्न हुए जन-आंदोलनों ने प्रमुख भूमिका निभाई जिसने एक भारत का सपना साकार करने मेें तत्कालीन राष्ट्र निर्माताओं के रास्ते को आसान कर दिया। लेकिन यदि कॉन्ग्रेस की बात की जाए तो वह लोकतांत्रिक विचारधारा की हिमायती होते हुए भी इस विचारधारा को देशी रियासतों में प्रसारित करने में विफल रही जिसे निम्नलिखित प्रमुख बिंदुओं से समझा जा सकता है: तत्कालीन परिस्थितियाँ जटिल अवस्था में थीं। भारत के समक्ष एकीकरण व लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पुष्ट करने की स्मस्या स्वयंमेव विद्यमान थी। आर्थिक विकास जो कि राष्ट्रीय एकीकरण के लिये आवश्यक था, उसे भी सुनिश्चित किया जाना अभी बाकी था। भारत कई टुकड़ों में बँटा था और कई तरह की विविधताएँ मौजूद थीं, भारत का एकीकरण इन्हीं विविधताओं को ध्यान में रखकर समुचित तरीके से किया जाना था। अत: उपरोक्त कारणों के अलावा भी कुछ अन्य ऐसी स्थितियाँ विद्यमान थीं जिसके कारण कॉन्ग्रेस द्वारा रियासतों में अपनी लोकतांत्रिक विचारधारा को प्रचारित-प्रसारित नहीं किया जा सका था। हालाँकि रियासतों का विलय व राज्यों के पुनर्गठन के पश्चात् संपूर्ण भारत पूरी तरह से विविधताओं को धारण किये हुए लोकतांत्रिक प्रक्रिया का वाहक बन गया।</s>
<s>[INST]किसी भी संगठन की प्रामाणिकता, व्यापक महत्त्व के मुद्दों को हल करने की इसकी क्षमता द्वारा निर्धारित होती है। उन कारणों का उल्लेख कीजिये जिनके चलते राष्ट्र संघ अपनी क्षमता के अनुरूप प्रदर्शन करने में विफल रहा, संयुक्त राष्ट्र के संदर्भ में इस तरह के परिणामों से बचने के लिये इससे क्या सबक लिया जा सकता है। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • राष्ट्र संघ की असफलता के कारणों को स्पष्ट कीजिये। • संयुक्त राष्ट्र संघ, राष्ट्र संघ के परिणामों से क्या सबक ले सकता है? हल करने का दृष्टिकोण • सर्वप्रथम भूमिका लिखिये। • राष्ट्र संघ से अपेक्षाएँ तथा विफलता के कारण। • संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा राष्ट्र संघ की विफलताओं से बचने के लिये किया जाने वाला प्रयास। • निष्कर्ष दीजिये। प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् राष्ट्र संघ की स्थापना का उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना में वृद्धि करना, पुन: विश्वयुद्ध की व्यापक विनाशक परिस्थिति से विश्व को बचाना तथा विश्व में शांति की स्थापना करना था। राष्ट्र संघ की सफलता-असफलता को इन व्यापक महत्त्व के मुद्दों को हल करने की इसकी क्षमता द्वारा परखा जा सकता है। राष्ट्र संघ की असफलता को द्वितीय विश्वयुद्ध की विनाशक परिस्थिति में देखा जा सकता है जब राष्ट्र संघ ने वैश्विक महाशक्तियों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करके तथा तुष्टीकरण की नीति अपना कर विश्वयुद्ध के लिये आधारशिला का कार्य किया। वहीं दूसरी तरफ, द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् गठित संयुक्त राष्ट्र संघ ने विभिन्न विपरीत परिस्थितियों में अपनी प्रामाणिकता को सिद्ध किया है तथा राष्ट्रों के मध्य उचित मध्यस्थता द्वारा विवादों का समाधान किया है किंतु फिर भी संयुक्त राष्ट्र को अपने उज्ज्वल भविष्य हेतु राष्ट्र संघ की विफलता के कारणों से सबक लेने पर ध्यान देना होगा। राष्ट्र संघ की विफलता का मुख्य कारण जहाँ जर्मनी, जापान, इटली द्वारा इसकी सदस्यता को त्यागना था, तो वहीं अमेरिका (जिसे राष्ट्र संघ की जननी कहा जाता है) द्वारा राष्ट्र संघ की सदस्यता ग्रहण नहीं करना था। इसी तरह वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र संघ के पाँच स्थायी सदस्यों के अतिरिक्त अन्य सदस्यों (भारत, जापान आदि) को स्थायी सदस्यता (सुरक्षा परिषद) प्रदान न करना संयुक्त राष्ट्र संघ के अलोकतांत्रिक रवैये को दर्शाता है। अत: इस दिशा में उचित प्रयास किया जाना चाहिये। राष्ट्र संघ पर पूंजीवादी राष्ट्रों का प्रभुत्व था तथा पूंजीवादी विचारधारा को स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा था। इसी तरह वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र संघ के भीतर विकसित देशों का प्रभुत्व है तथा अविकसित व विकासशील राष्ट्रों की स्थिति उचित नहीं है। अत: सभी की भागीदारी सुनिश्चित की जाए। राष्ट्र संघ के भीतर फ्राँस का बोलबाला था, जिसे फ्राँस के विदेश मंत्रालय के रूप में जाना जाता था। इसी तरह वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र संघ पर सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी देशों चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका, फ्राँस, रूस, यूनाइटेड किंगडम का व्यापक प्रभाव है। अत: इसे और अधिक लोकतांत्रिक बनाया जाना चाहिये। राष्ट्र संघ की विफलता में राष्ट्र संघ की अहस्तक्षेप की नीति भी एक प्रमुख कारण थी जिसके अनुसार राष्ट्र संघ किसी भी बड़े राष्ट्र के मामले में तटस्थता की नीति अपना लेता था। वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र संघ अपनी प्रभावी भूमिका वैदेशिक संबंधों में निभा रहा है लेकिन फिर भी कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर संयुक्त राष्ट्र संघ अधिक प्रभावी भूमिका निभाकर वैश्विक सहयोग को बढ़ा सकता है, जैसे- दक्षिण चीन सागर विवाद, उत्तर कोरिया विवाद आदि। स्पष्ट है कि राष्ट्र संघ की असफलता से सीख लेते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ अपनी कार्यप्रणाली तथा सांगठनिक क्षमता में परिवर्तन के माध्यम से वर्तमान में उन नकारात्मक परिणामों से बच सकता है जिन्हें राष्ट्र संघ ने 20वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में देखा था।</s>
<s>[INST]बर्लिन की दीवार के पतन ने पूंजीवादी विचारधारा को बल प्रदान किया और साम्यवाद की हार का प्रतीक बना। चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • जर्मनी के एकीकरण को पूंजीवाद व साम्यवाद के संदर्भ में विश्लेषित करना है। हल करने का दृष्टिकोण • सर्वप्रथम भूमिका लिखिये। • जर्मनी के विभाजन की चर्चा करते हुए साम्यवाद के प्रभाव को बताइये। • बर्लिन की दीवार के पतन को पूंजीवाद के उभार व साम्यवाद के अवसान के रूप में बताइये। • निष्कर्ष दीजिये। बर्लिन की दीवार को शीतयुद्ध की उत्पत्ति माना जाता है। पूर्वी यूरोप में साम्यवादी विचारधारा के प्रसरण के फलस्वरूप बर्लिन की दीवार को निर्मित किया गया जिसे 1980 के दशक में ढहाकर साम्यवाद के पतन के प्रतीक के रूप में स्थापित किया गया। बर्लिन की दीवार का पतन जर्मनी के एकीकरण के साथ-साथ जर्मनी के लोगों की विचारधाराओं को भी एकीकृत करता है। द्वितीय विश्वयुद्ध में नाजी जर्मनी की हार के पश्चात् जर्मनी पूर्व तथा पश्चिम दो भागों में विभाजित हो गया। पश्चिमी जर्मनी (जर्मन संघीय गणराज्य) में पश्चिमी पूंजीवादी राष्ट्रों की सहयोगी सरकार थी, जबकि पूर्वी जर्मनी (जर्मन जनतांत्रिक गणराज्य) पर सोवियत यूनियन का प्रभाव था। पश्चिमी जर्मनी प्रदेश में लोकतांत्रिक सरकार, पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली, स्वतंत्र चर्च तथा श्रमिक संगठनों की व्यवस्था ने विकास की राह मज़बूती प्रदान की थी तो वहीं दूसरी तरफ, पूर्वी जर्मनी पर मार्क्स-लेनिन के प्रभाव से युक्त साम्यवादी तानाशाही सरकार स्थापित थी। कमज़ोर आर्थिक स्थिति तथा नकारात्मक राजनैतिक परिस्थितियों के कारण पूर्वी जर्मनी से सैकड़ों श्रमिक तथा व्यवसायी पश्चिमी जर्मनी की तरफ आय अर्जन हेतु जाते थे। जर्मनी के विभाजन के उपरांत भी लोगों का आवागमन न रुकने से पूर्वी जर्मनी को आर्थिक व राजनैतिक हानि का सामना करना पड़ रहा था। 1949 से 1961 के मध्य 25 लाख लोगों ने पूर्वी जर्मनी से पश्चिमी जर्मनी की तरफ प्रवास किया, जिसका नकारात्मक प्रभाव पूर्वी जर्मनी की अर्थव्यवस्था को उठाना पड़ा। इसी परिप्रेक्ष्य में साम्यवादी सरकार ने 1961 में बर्लिन की दीवार का निर्माण करने का आदेश दिया ताकि सीमाओं को बंद कर दिया जाए। बर्लिन की दीवार के निर्माण का मुख्य उद्देश्य पूर्वी जर्मनी में बाहर से आने वालों को रोकना नहीं अपितु भीतर से बाहर जाने वालों को रोकना था। बर्लिन की दीवार का निर्माण साम्यवाद के लिये अत्यधिक बुरा सिद्ध हुआ। पूर्वी व पश्चिमी जर्मनी के लोगों के लिये यह दीवार समाजवादी शोषण का प्रतीक बन गई। 1980 का दशक जनमानस को चेतना की जागृति का काल था जब पूर्वी यूरोप में साम्यवादी सत्ता के विरुद्ध जनता ने व्यापक प्रदर्शन किये। इसी दौर में 9 नवंबर, 1984 का दिन बर्लिन की दीवार के ढ़हने के लिये जाना जाता है। इसी के साथ ही पूर्वी जर्मनी की सोशलिस्ट सरकार का पतन हो गया तथा जर्मनी के पुन: एकीकरण के साथ ही जर्मन राष्ट्र-राज्य की पुनर्स्थापना संभव हो सकी। ध्यातव्य है कि साम्यवादी सरकार की आय की समानता, मुफ्त जन-कल्याण, पूर्ण रोज़गार जैसे आदर्शों के स्थान पर पूंजीवादी विचारधारा में विद्यमान उच्च स्तरीय विषमता, बेरोज़गारी तथा सामाजिक जोखिम को अपनाने का मुख्य कारण जनता को मिलने वाली आज़ादी थी। पूंजीवादी विचारधारा की स्वतंत्रता की अवधारणा ने साम्यवाद के पतन में अहम भूमिका निभाई। स्पष्ट है कि बर्लिन की दीवार बनने से लेकर इसके गिरने तक में साम्यवादी विचारधारा का प्रभाव था। साम्यवाद को बचाने के उद्देश्य से शीतयुद्ध के दौर में खड़ी की गई दीवार को जनमानस की जागरूकता ने 28 वर्षों के शोषण के उपरांत गिरने को विवश कर दिया, जिसका परिणाम जर्मनी के साथ-साथ पूर्वी यूरोप से साम्यवाद के पतन के रूप में देखा गया।</s>
<s>[INST]20वीं शताब्दी की शुरुआत में अतिवादी प्रवृत्तियों के उदय के पीछे निहित कारणों की चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद उग्रवाद के उदय के कारणों की चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण भूमिका लिखिये। उग्रवाद के उदय के कारणों को स्पष्ट कीजिये। निष्कर्ष दीजिये। कॉन्ग्रेस की स्थापना के समय उदारवादियों ने अपने उदार साध्य व साधन के माध्यम से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को दिशा प्रदान की। 20वीं शताब्दी के आरंभ में उपस्थित परिस्थितियों में जब उदारवादी नेता राष्ट्रीय आंदोलन को आगे नहीं ले जा पा रहे थे तब उपजे असंतोष की दशा में अतिवादियों का उदय हुआ। उदारवाद से उग्रवाद की ओर स्वतंत्रता आंदोलन के गतिमान होने के संदर्भ में निम्नलिखित कारणों का अवलोकन किया जा सकता है: भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के आंरभिक नेताओं ने अंग्रेज़ों की शोषक आर्थिक नीतियों को उजागर करने का कार्य किया तथा भारत की दरिद्रता का मूल कारण अंग्रेज़ी राज को सिद्ध किया। इस संदर्भ में उदारवादी नेताओं ने भेदभावपूर्ण आयात-निर्यात की नीति, शोषणपूर्ण भू-राजस्व नीति, उच्च पदों पर नियुक्ति के लिये भारतीयों को अयोग्य मानने की नीति तथा धन के निष्कासन जैसे मुद्दों को जनमानस के समक्ष प्रस्तुत किया। उग्रवादी नेताओं ने इन्हीं मुद्दों को लेकर ब्रिटिश साम्राज्य की उग्र आलोचना की तथा भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को आक्रमकता प्रदान करने का कार्य किया। नई पीढ़ी के इन नेताओं के उदय के कारणों में, भारत में बढ़ता पश्चिमीकरण भी था। बढ़ते पश्चिमीकरण के विरुद्ध प्रतिक्रियास्वरूप जब बंकिमचन्द्र, विवेकानंद, दयानंद सरस्वती जैसे चिंतकों ने श्वेत जातियों की ब्राउन जातियों से वरिष्ठता की भावना को चुनौती प्रस्तुत की तो भारतीयों में आत्मविश्वास का प्रसार हुआ तथा यह राजनीतिक संदेश ‘भारत-भारतीयों के लिये है’ के माध्यम से उग्रवादी नेताओं ने जनता को ब्रिटिश साम्राज्य के विरोध में खड़ा कर दिया। उग्रवादी नेताओं की उत्पत्ति के पीछे कॉन्ग्रेस के आरंभिक पंद्रह-बीस वर्षों की याचना, प्रार्थना तथा प्रतिवाद (Petition, Prayer and Protest) करने की नीति भी थी। नवीन पीढ़ी के नेता उदारवादियों के संवैधानिक ढंगों से स्वशासन प्राप्त करने के आलोचक बन गए थे। 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध व 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में भारत से बाहर घटित वैश्विक घटनाओं ने उग्रवादी विचारधारा को मज़बूती प्रदान की। इटली-अबीसीनिया युद्ध में इटली की पराजय, रूस-जापान युद्ध में रूस की हार, अफ्रीका का बोअर युद्ध तथा मिस्र, ईरान, तुर्की व रूस में राष्ट्रवादी आंदोलन का भारतीय राष्ट्रवादी नेताओं पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा, जिससे यूरोप की अजेयता का मिथक टूटा। इसके अतिरिक्त लॉर्ड कर्ज़न की प्रतिक्रियावादी नीतियों ने भी उग्रवादी विचारधारा के प्रसार का कार्य किया। कर्ज़न ने भारतीय विश्वविद्यालय एक्ट के माध्यम से उच्च शिक्षा पर ब्रिटिश नियंत्रण बढ़ा दिया, समाचार पत्रों (प्रेस) पर प्रतिबंध लगाया, उच्च सरकारी पदों पर भारतीयो को अयोग्य घोषित किया तथा बंगाल विभाजन के माध्यम से हिंदू-मुस्लिम एकता में विद्वेष पैदा करने का कार्य किया। ताकि राष्ट्रीयता की भावना को कुचला जा सके लेकिन इन्हीं प्रतिक्रियावादी नीतियों ने उग्रवादियों के नेतृत्व में भारतीय आंदोलन को व्यापक आधार प्रदान किया। स्पष्ट है कि उदारवाद से उग्रवाद का यह विकास प्रक्रियात्मक विकास माना जाना चाहिये। इसमें भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की पुरानी अभिव्यक्तियों को अधिक उग्र भाषा में व्यक्त किया गया तथा व्यापक जनाधार को सम्मिलित किया गया।</s>
<s>[INST]जेट प्रवाह के विकास चक्र की चर्चा करते हुए स्थानीय एवं प्रादेशिक मौसम पर इसके प्रभाव को स्पष्ट कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद जेट प्रवाह का विकास चक्र तथा स्थानीय एवं प्रादेशिक मौसम पर उसका प्रभाव। हल करने का दृष्टिकोण जेट प्रवाह का सामान्य परिचय दीजिये। जेट प्रवाह के विकास चक्र की चर्चा कीजिये। जेट प्रवाह का स्थानीय एवं प्रादेशिक मौसम पर प्रभाव का उल्लेख करते हुए निष्कर्ष लिखिये। क्षोभ सीमा में तीव्र गति से चलने वाली परिध्रुवीय विसर्पी वायु प्रणाली को जेट प्रवाह कहते हैं। यह सामान्यत: पश्चिम से पूर्व की ओर संकरी पट्टी में प्रवाहित होती है। इसकी लंबाई हज़ारों किलोमीटर तथा चौड़ाई 150 से 450 किलोमीटर तक होती है। जेट प्रवाह में ऋतु के अनुसार परिवर्तन होता है। शीत ऋतु में यह भूमध्यरेखा की ओर तथा ग्रीष्म ऋतु में ध्रुवों की ओर विस्थापित होती है। जेट प्रवाह का उद्भव एवं विकास एक क्रमिक प्रक्रिया है, जिसका संबंध भूमध्यरेखा से ध्रुवों की ओर ताप प्रवणता तथा ध्रुव के निकट भूतल पर उच्च वायुदाब के कारण उत्पन्न परिध्रुवीय भँवर की अवस्था से है। जेट प्रवाह के उद्भव एवं विकास को चार अवस्थाओं में वर्गीकृत किया गया है: प्रथम अवस्था: इस अवस्था में जेट प्रवाह ध्रुवों के निकट सामान्यत: पश्चिम से पूर्व की ओर होता है। इस समय रॉजबी तरंगों का अधिक विस्तार नहीं होने के कारण इसका मार्ग अधिक विसर्पी नहीं होता है। इसके उत्तर में ध्रुवीय ठंडी वायु तथा दक्षिण में गर्म पछुआ वायु होती है। द्वितीय अवस्था: रॉजबी तरंगों का विकास प्रारंभ हो जाने के कारण इस अवस्था में जेट प्रवाह की तरंगों के आयाम में वृद्धि होने लगती है जिससे जेट प्रवाह भूमध्यरेखा की ओर स्थानांतरित होने लगता है। इस समय गर्म उष्णकटिबंधीय वायु ध्रुवों की ओर तथा ठंडी ध्रुवीय वायु भूमध्यरेखा की ओर बढ़ने लगती है। तृतीय अवस्था: जेट तरंगों के आयाम अत्यधिक हो जाने से जेट प्रवाह भूमध्यरेखा के काफी निकट पहुँच जाता है। इसकी वजह से गर्म उष्णकटिबंधीय वायुराशि का ध्रुव की ओर तथा ठंडी ध्रुवीय वायुराशियों का भूमध्यरेखा की ओर विस्थापन और प्रबल हो जाता है। इस समय पूर्व-पश्चिम दिशा में तापमान तथा वायुदाब में विषमता और भी अधिक हो जाती है। चतुर्थ अवस्था: इस अवस्था में जेट प्रवाह का पूर्ण विकास हो जाता है। जेट तरंगों का आयाम इतना अधिक हो जाता है कि मूल धारा विच्छिन्न होकर चन्द्राकार मार्ग में प्रवाहित होने लगती है, जिससे चंद्राकार वायु प्रवाह प्रणाली की कई धाराएँ विकसित हो जाती हैं। जेट प्रवाह के दक्षिण में निम्न वायुभार वाली चक्रवातीय धाराएँ तथा उत्तर में उच्च वायुभार वाली प्रतिचक्रवातीय धाराएँ विकसित हो जाती हैं, जो पश्चिम-पूर्व दिशा में जेट प्रवाह में बाधा उत्पन्न करती हैं। जेट प्रवाह की सक्रियता का स्थानीय एवं प्रादेशिक मौसम पर गहरा प्रभाव पड़ता है। जेट प्रवाह की सक्रियता शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों को अधिक शक्तिशाली बना देती है। जेट प्रवाह का पूर्ण विकास धरातलीय चक्रवातों एवं प्रतिचक्रवातों का स्वरूप परिवर्तित कर देता है, जिससे स्थानीय मौसम व्यापक रूप से प्रभावित होता है। वे क्षेत्र जो जेट प्रवाह के नीचे स्थित होते हैं वहाँ चक्रवातों का अधिक विकास होता है, परिणामस्वरूप ये क्षेत्र अधिक वर्षा प्राप्त करते हैं। ध्यातव्य है कि अभी तक जेट प्रवाह का स्थानीय एवं प्रादेशिक मौसम पर पड़ने वाले प्रभाव की स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है, इस पर अनुसंधान जारी है।</s>
<s>[INST]गांधीजी को एक जन नेता के रूप में स्थापित करने में चंपारण सत्याग्रह के महत्त्व का मूल्यांकन कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • चंपारण सत्याग्रह ने किस प्रकार गांधी को जन-नेता के रूप में स्थापित कर दिया, इस संबंध में उल्लेख करना है। हल करने का दृष्टिकोण • सर्वप्रथम भूमिका लिखें। • चंपारण सत्याग्रह व गांधी की भूमिका का विश्लेषण कीजिये। • उचित निष्कर्ष लिखें। दक्षिण अफ्रीका से भारत आगमन के साथ ही गांधीजी ने संपूर्ण भारत के भ्रमण को प्राथमिकता दी तथा जनता की मनोदशा को समझने का प्रयत्न किया। इसी दौरान गांधी ने आम जनता को राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ने तथा दमनात्मक कार्यवाही को सहन करने की जनमानस की क्षमता का भी अवलोकन किया। इसी संदर्भ में गांधीजी का भारत में प्रथम सत्याग्रह चंपारण में संपन्न हुआ, जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को गांधी जैसा जन-नेता प्रदान किया। चंपारण के नीलहों का मामला 19वीं शताब्दी से चला आ रहा था। तिनकठिया पद्धति के अंतर्गत कृषकों को 3/20वें हिस्से पर नील की खेती अनिवार्य रूप से करनी होती थी। लेकिन जब रासायनिक रंगों की खोज कर ली गई तब नील की खेती अनावश्यक हो गई। लेकिन अंग्रेज़ों ने किसानों का शोषण करने के लिये उन्हें नील अनुबंध से मुक्त करने के एवज में लगान व गैर-कानूनी करों की दरों में अत्यधिक वृद्धि कर दी। इसी शोषण से मुक्ति पाने के लिये 1917 में चंपारण के आंदोलनकारी राजकुमार शुक्ल ने गांधीजी को चंपारण बुलाने का फैसला किया। गांधीजी के चंपारण पहुँचने के साथ ही तत्कालीन ब्रिटिश कमिश्नर ने उन्हें चंपारण से चले जाने का आदेश दिया लेकिन गांधी ने आदेश को मानने के स्थान पर दंड को भुगतने का फैसला किया। गांधीजी का उपर्युक्त निर्णय तिलक व बेसेन्ट जैसे नेताओं के लिये नया था क्योंकि अभी तक राष्ट्रवादी नेता विरोध के साथ-साथ आदेश का पालन भी करते थे लेकिन गांधी ने किसी अनुचित आदेश के शांतिपूर्ण ढंग से प्रतिरोध व अवज्ञा की रणनीति अपनाकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सत्याग्रह की नींव रखी। ब्रिटिश प्रशासन द्वारा गांधीजी के मुद्दे को ज़्यादा तूल न देकर उन्हें चंपारण जाने की छूट दे दी गई, यह गांधीजी की जीत थी। चंपारण में प्रवेश के दौरान गांधी जी अपने सहयोगियों ब्रज किशोर, राजेन्द्र प्रसाद, महादेव देसाई, जे.बी. कृपलानी, नरहरि पारेख आदि के साथ सवेरे गाँव की और निकल जाते तथा गाँवों में घूम-घूम कर ग्रामीणों से पूछताछ करते और बयान दर्ज करते। इसी दौरान ब्रिटिश सरकार ने चंपारण मामले की जाँच के लिये आयोग गठित किया, जिसमें गांधीजी को भी सदस्यता प्रदान की गई। गांधीजी के पास आठ सौ किसानों के बयान दर्ज थे, जिसके आधार गांधीजी ने तिनकठिया पद्धति को समाप्त करने तथा किसानों से की गई अवैध वसूली के बदले में क्षतिपूर्ति की बात रखी। बागान मालिक अवैध वसूली का 25 फीसदी वापस करने को तैयार हो गए तथा 10 वर्षों के भीतर ही उन्होंने चंपारण भी छोड़ दिया। इस प्रकार चंपारण सत्याग्रह ने गांधी को जनता के मध्य पहुँचा दिया तथा उन्होंने जनता की मांगों व तकलीफों को जानकर ब्रिटिश सरकार के समक्ष मज़बूती से जनता के पक्ष को रखने का कार्य किया। इसके अलावा गांधीजी की सत्याग्रह व शांतिपूर्ण विरोध की रणनीति ने भी गांधी को जनमानस के निकट पहुँचा दिया। फलस्वरूप राष्ट्रीय आंदोलन में गांधीजी जन-नेता के रूप में स्थापित हो गए।</s>
<s>[INST]फ्राँस की राज्य क्रांति विश्व इतिहास की एक अवश्यंभावी घटना थी तथा क्रांति का स्रोत तत्कालीन सामाजिक जीवन के दोषों एवं सरकार की भूलों में निहित था। विवेचना कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • फ्राँस की राज्य क्रांति को विश्व इतिहास की अवश्यंभावी घटना मानने का कारण। • क्रांति के स्रोत के रूप में तत्कालीन राष्ट्रीय जीवन के दोष एवं सरकार की भूलों को दिखाना है। हल करने का दृष्टिकोण • संक्षिप्त परिचय लिखिये। • फ्राँस की क्रांति को विश्व इतिहास की अवश्यंभावी घटना मानने के कारण बताइये। • क्रांति के स्रोत के रूप में तत्कालीन राष्ट्रीय जीवन के दोषों एवं सरकार की भूलों को बताएँ तथा अंत में निष्कर्ष लिखिये। 1789 की फ्राँसीसी राज्य क्रांति अपने स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व के आदर्श के कारण विश्व जगत के लिये आज भी प्रेरणास्रोत है। फ्राँस की क्रांति को विश्व की अवश्यंभावी घटना मानने के पीछे मुख्यत: दो कारण माने जा सकते हैं: 1688 की इंग्लैड की गौरवपूर्ण क्रांति जिसके माध्यम से इंग्लैंड में निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी शासन के स्थान पर संसदीय शासन की स्थापना हुई। 1776 की अमेरिकी क्रांति जिसके माध्यम से फ्राँसीसियों में भी स्वतंत्रता एवं समानता को लेकर जागरूकता बढ़ी। उपर्युक्त दोनों घटनाओं एवं इनके परिणामों से यह स्पष्ट हो गया कि निरकुंश एवं शोषणकारी व्यवस्था को समाप्त किया जा सकता है। अत: फ्राँस की क्रांति भी अवश्यंभावी हो गई। इसे तत्कालीन राष्ट्रीय जीवन के दोषों एवं सरकार की भूलों में देखा जा सकता है। तत्कालीन राष्ट्रीय जीवन के दोषों को निम्नलिखित संदर्भों में देखा जा सकता है: राजनीतिक क्षेत्र में निरकुंश राजतंत्र विद्यमान था तथा प्रतिनिधि सभा का अभाव था। शासन प्रणाली जनसमस्याओं के प्रति संवेदनहीन थी। आर्थिक दृष्टि से राजा एवं राज्य के आय-व्यय में कोई अंतर नहीं था। कर प्रणाली दोषपूर्ण थी तथा करों का बोझ वर्ग विशेष (मध्य वर्ग, किसान आदि) पर था। समाज के स्तर पर वर्ग विभाजित और विषमतामूलक थे। मध्य वर्ग आर्थिक रूप से सक्षम होने के बावजूद सामाजिक दृष्टि से निम्न था। पादरी एवं कुलीन वर्ग जनसंख्या का 6 प्रतिशत होने के बावजूद भूमि पर दो-तिहाई मालिकाना हक रखते थे। उपर्युक्त दोषपूर्ण जीवन को सरकार की भूलों ने और जटिल एवं विषम बना दिया, जैसे: लुई 16वें ने सप्तवर्षीय (1756-63) युद्ध में भागीदारी कर वित्तीय बोझ को बढ़ाया। फलत: जनता पर करों के बोझ में वृद्धि हुई, जिससे जन समस्याएँ और बढ़ गईं। लुई 16वें द्वारा अपने वित्तीय सलाहकारों तुर्गो, नेकर आदि के सुधार प्रस्तावों पर ध्यान न देना, जिसके कारण राजतंत्र के दिवालियेपन में और वृद्धि हुई। शासक ने मध्य वर्ग द्वारा प्रस्तुत सुधारों को गंभीरता से नहीं लिया। अंतत: विभिन्न अधिकारों की पुनर्व्याख्या तथा कर सुधार के प्रस्ताव को पास करने के लिये बुलाई गई स्टेट जनरल की बैठक से क्रांति की शुरुआत हुई क्योंकि इस समय तक परिस्थितियाँ नियत्रंण से बाहर हो चुकी थीं, जिसे एक दूरदर्शी एवं योग्य शासक द्वारा रोका जा सकता था। निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि फ्राँस की क्रांति एक अवश्यंभावी घटना थी जिसे तत्कालीन परिस्थितियों एवं सरकार की भूलों ने संभव बनाया।</s>
<s>[INST]द्वितीय विश्वयुद्ध ने उस भू-राजनीतिक वातावरण का निर्माण किया, जिसने वि-औपनिवेशीकरण को बल दिया। उन कारणों को तुलनात्मक रूप से स्पष्ट कीजिये जिनके चलते इस संदर्भ में प्रथम विश्वयुद्ध विफल रहा। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • वि-औपनिवेशीकरण के संदर्भ में द्वितीय विश्वयुद्ध की सफलता तथा प्रथम विश्वयुद्ध की विफलता के कारणों को स्पष्ट कीजिये। हल करने का दृष्टिकोण • सर्वप्रथम भूमिका लिखिये। • प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान की परिस्थितियों को स्पष्ट कीजिये। • द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् वि-औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया पर चर्चा कीजिये। • निष्कर्ष दें। उपनिवेशवाद की समाप्ति को अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में क्रांति की संज्ञा दी गई है। पूंजीवादी देशों को औद्योगिक क्रांति को सफल बनाने के लिये निरंतर कच्चे माल की आवश्यकता थी। साथ ही, कारखानों में तैयार माल को बेचने के लिये बाज़ार की भी ज़रूरत थी। अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये साम्राज्यवादी देशों द्वारा तृतीय विश्व के देशों को उपनिवेश बनाया गया। औपनिवेशिक प्रक्रिया का उद्देश्य साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा मातृ देश का हित तथा गुलाम राष्ट्र का अधिकाधिक शोषण करना था। शोषणकारी इसी प्रवृत्ति ने तृतीय विश्व के देशों में राष्ट्रवाद की भावना को जागृत किया, जिससे वि-औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत हुई। वि-औपनिवेशीकरण के संदर्भ में प्रथम विश्वयुद्ध तथा द्वितीय विश्वयुद्ध ने भिन्न-भिन्न वातावरण सृजित किया। बीसवीं शताब्दी के आरंभ से ही विश्व में दो प्रकार की स्थितियों उभर रही थीं। एक तरफ वे देश थे जिनका तीव्र गति से औद्योगीकरण हो रहा था, इनमें इंग्लैंड, अमेरिका व जर्मनी प्रमुख थे। इन पूंजीवादी राष्ट्रों को बाज़ार की आवश्यकता ने औपनिवेशिक विस्तार के लिये प्रेरित किया। वहीं, दूसरी तरफ कुछ ऐसे भी देश थे जो अभी-अभी औद्योगीकरण की दौड़ में शामिल हुए थे तथा कृषि व उद्योग में संतुलन बनाए रखने की स्थिति का प्रयास कर रहे थे। फलत: ये देश भी एशिया और अफ्रीका पर अपना अधिकार स्थापित करना चाहते थे। स्पष्ट है कि नए राष्ट्रों पर अधिकार करने की होड़ और अपने धन व उत्पादों की खपत करने की अभिलाषा ने औपनिवेशिक संघर्ष को आरंभ किया, जिसका परिणाम प्रथम विश्वयुद्ध था। इस प्रकार प्रथम विश्वयुद्ध ने औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया को तीव्रता प्रदान की तथा तृतीय विश्व के अधिकतर राष्ट्र पूंजीवादी राष्ट्रों के अधीन हो गए। ध्यातव्य है कि पूंजीवादी राष्ट्रों ने तृतीय विश्व के देशों से युद्ध की समाप्ति के पश्चात् स्वशासन प्रदान करने का वायदा किया था लेकिन इन राष्ट्रों ने आज़ादी के स्थान पर शोषण की तीव्रता को बढ़ाकर औपनिवेशिक सत्ता को मज़बूत करना चाहा। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् बदलती परिस्थितियों ने साम्राज्यवादी शक्तियों को कमज़ोर किया तथा अधीनस्थ देशों में राष्ट्रवाद की भावना का प्रसार किया, जिससे वि-औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया का आरंभ हुआ। औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध तृतीय विश्व के देशों में राष्ट्रवादी आंदोलनों में तेजी आने तथा अमेरिका व सोवियत संघ का अन्य साम्राज्यवादी राष्ट्रों पर दबाव बनाने की रणनीति ने वि-औपनिवेशीकरण को मजबूत किया। द्वितीय विश्वयुद्ध में कुछ यूरोपीय शक्तियों की हार ने इनकी अजेयता के भ्रम को तोड़ दिया। साथ ही, युद्ध के पश्चात् पूंजीवादी राष्ट्रों की सैनिक व आर्थिक स्थिति कमज़ोर होने लगी, जिसका प्रभाव तृतीय विश्व के देशों (एशिया व अफ्रीका) में स्वतंत्रता आंदोलन के विस्तार के रूप में देखा जा सकता है। स्पष्ट है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् गुलाम देशों में राजनैतिक चेतना जागृत होने तथा राष्ट्रीय विद्रोह की तीव्रता ने वि-औपनिवेशीकरण को मज़बूत किया। स्पष्ट है कि प्रथम विश्वयुद्ध के घटित होने का मुख्य कारण उपनिवेशों की प्राप्ति तथा आर्थिक प्रतिद्वंद्विता थी जिसने औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया को बाल प्रदान किया। वहीं, दूसरी तरफ द्वितीय विश्वयुद्ध ने गुलाम राष्ट्रों में राष्ट्रवाद तथा स्वतंत्रता आंदोलनों को सुदृढ़ किया, जिसका परिणाम वि-औपनिवेशीकरण के रूप में प्रकट हुआ।</s>
<s>[INST]अंग्रेज़ों की भू-राजस्व नीतियों ने ग्रामीण क्षेत्रों पर नियंत्रण स्थापित करने और ब्रिटिश खजाने को भरने के उपकरण के रूप में कार्य किया। टिप्पणी कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद ब्रिटिशकालीन भू-राजस्व नीतियों के भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों का विश्लेषण कीजिये। हल करने का दृष्टिकोण सर्वप्रथम भूमिका लिखिये। ब्रिटिशकालीन भू-राजस्व नीतियों के ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों का विश्लेषण कीजिये। भू-राजस्व नीतियों के माध्यम से आर्थिक शोषण को बताइये। निष्कर्ष दीजिये। ब्रिटिशकालीन औपनिवेशिक नीति का उद्देश्य भारत के संसाधनों का अधिकतम प्रयोग करके ब्रिटिश हितों की पूर्ति करना था। अपने इसी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु अंग्रेज़ों ने तत्कालीन भारत की अर्थव्यवस्था में गाँवों की आत्मनिर्भरता तथा कृषि की प्राथमिकता को स्वीकार करते हुए शोषणपूर्ण भू-राजस्व नीति को लागू किया, जिसके माध्यम से ग्रामीण भारत को आत्मनिर्भरता से परनिर्भरता की तरफ मोड़ दिया गया तथा अधिकतम राजस्व वसूली द्वारा धन का निष्कासन ब्रिटिश खजाने को भरने के लिये किया गया, जिन्हें निम्नानुसार समझा जा सकता है: ब्रिटिशकालीन भू-राजस्व नीतियों में स्थायी बंदोबस्त, रैयतवाड़ी व्यवस्था तथा महालवाड़ी व्यवस्था को प्रचलित किया गया। स्थायी बंदोबस्त प्रणाली के अंतर्गत ज़मींदारों को भूमि का वास्तविक स्वामी तथा कृषकों को अधीनस्थ रैयताें के रूप में बदल दिया गया। वर्ष 1794 के ‘सूर्यास्त के नियम’ के तहत निश्चित तिथि तक राजस्व जमा न करने पर ज़मींदारी नीलामी की व्यवस्था ने अनुपस्थित ज़मींदारी के माध्यम से कृषकों के शोषण को और बढ़ाया। वर्ष 1799 व 1812 के ‘बंगाल रेग्यूलेशन’ ने ज़मीदाराें को किसानों की भूमि नीलाम करने का अधिकार दे दिया, जिससे कृषि भूमि को पण्य की वस्तु के रूप में स्थापित करके बिचौलियों के माध्यम से उपसामंतीकरण को ग्रामीण समाज में स्थापित किया गया। इसी प्रकार रैयतवाड़ी व महालवाड़ी व्यवस्था की शोषणकारी नीतियों ने भी भारतीय कृषकों का शोषण किया। स्थायी बंदोबस्त की तरह यह प्रणाली भी ऊँची दर से राजस्व की वसूली करती थी, जिससे ग्रामीण ऋण-ग्रस्तता में वृद्धि हुई। फलत: ज़मींदार-कृषक संबंध संरक्षक-संरक्षित से बदलकर स्वामी-दास संबंध के रूप में स्थापित हुए। इसके अतिरिक्त ब्रिटिशों की भू-राजस्व नीतियों ने ग्रामीण क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित करने हेतु कृषि के वाणिज्यीकरण को ज़बरदस्ती कृषकों को अपनाने के लिये बाध्य किया। इससे आत्मनिर्भर कृषि अर्थव्यवस्था बाज़ार प्रेरित व्यवस्था में परिवर्तित होकर पर-निर्भरता के रूप में स्थापित हो गई, इसके कारण ग्रामीण उद्योग व हस्तकला तथा शिल्पकला पर भी दबाव बढ़ा। फलत: कृषि भूमि पर दबाव बढ़ने लगा, जोत सीमाएँ छोटी होने लगीं तथा इसका प्रभाव ग्रामीण समाज पर भी पड़ा। ग्रामीण कृषि तंत्र की जर्जरता ने अकाल, गरीबी, भुखमरी की बारंबारता को बढ़ाया तथा समाज का आर्थिक विभाजन करके धनी को और अधिक धनी व गरीब को और अधिक गरीब बना दिया। ब्रिटिश भारत में स्थायित्व के लिये ग्रामीण क्षेत्रों पर नियंत्रण के साथ-साथ औपनिवेशिक शक्ति के विस्तार व प्रशासन के सुदृढ़ीकरण हेतु अधिक धन की प्राप्ति की लालसा ने भू-राजस्व प्रणाली को अपनाने के लिये प्रेरित किया। लगान वसूली के संदर्भ में निश्चितता ने अंग्रेज़ों को मज़बूत आधार दिया, जिसने उनकी साम्राज्यवादी विस्तार की नीति को आक्रमकता प्रदान की। भू-राजस्व नीति के माध्यम से राजस्व की अधिकाधिक वसूली को ही उदारवादी नेता दादाभाई नौरोजी ने धन के निष्कासन के ज़रिये स्पष्ट किया तथा औपनिवेशिक नीति के तृतीय चरण वित्तीय पूंजीवाद द्वारा भारत से अर्जित की गई पूंजी का पुन: भारत में ही निवेश किया गया। इस प्रकार स्पष्ट है कि औपनिवेशिक काल की भू-राजस्व नीति ने एक तरफ ग्रामीण क्षेत्र की आत्मनिर्भरता को समाप्त करके ब्रिटिश नियंत्रण को स्थापित किया तथा गाँवों को कच्चे माल के स्रोत व तैयार माल के बाज़ार की आवश्यकता पूर्ति का साधन माना जाने लगा। वहीं, दूसरी तरफ राजस्व की अधिकाधिक वसूली ने गंगा के स्रोतों को सुखाकर टेम्स/थेम्स नदी में उड़ेलने का कार्य किया।</s>
<s>[INST]मोहन राकेश के नाटक ‘आधे-अधूरे’ के महत्त्व पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : अपनी यथार्थवादी अंतर्वस्तु, हरकत भरी सशक्त नाट्यभाषा, असीम रंगमंचीय संभावनाओं तथा नवीन नाट्य प्रयोगों के कारण हिन्दी नाटक की विकासयात्रा में मोहन राकेश के नाटक आधे-अधूरे का ऐतिहासिक महत्त्व है। ‘आधे-अधूरे’ में मोहन राकेश ने आज की संत्रासपूर्ण परिस्थितियों की कटु सम्भावनाओं का संकेत दिया है। स्त्री-पुरुष के लगाव व तनाव तथा पारिवारिक विघटन की यह कथा अपने में अधूरे मनुष्य की काल्पनिक पूर्णता की खोज की महत्त्वाकांक्षा की यातना को उजागर करती है। महेन्द्र और सावित्री अपना आधा-अधूरा जीवन जीते रहने के लिये अभिशप्त हैं। मध्यवर्गीय जीवन में आने वाली शुष्क और विनाशकारी रिक्तता को उभारने वाला यह नाटक मनुष्य के खोखलेपन, संबंधों के सतहीपन तथा जीवन-आदर्शों व आस्थाओं के लड़खड़ाते मानदण्डों को सजीव रूप से प्रस्तुत करता है। पात्रों की योजना में भी मोहन राकेश ने नया प्रयोग किया है। एक ही पुरुष से अत्यंत सामान्य परिवर्तनों के साथ चार भूमिकाएँ करवा ली गई हैं। राकेश के अन्य नाटकों की तरह इसमें भी भरपूर रंग संकेत दिये गए हैं। मंच प्रस्तुतीकरण संबंधी संकेत भी कथ्य की मानसिकता के साथ प्रत्यक्ष रूप से सीधे जुड़े हुए हैं। बीज-शब्दों से युक्त हरकत भरी नाट्यभाषा इसकी रंगमंचीय क्षमता में अभिवृद्धि करती है। कुल मिलाकर आधे-अधूरे का महत्त्व इस बात में है कि उसने हिन्दी नाटक को यथार्थबोध से जोड़ते हुए वास्तविक अर्थ में समसामयिक युग का प्रतिबिम्ब बनाने का कार्य किया तथा नाटक एवं रंगमंच के बीच की दूरी को पूर्णतया समाप्त कर दिया।</s>
<s>[INST]महासागरीय धाराओं के महत्त्व को बताइये। वैश्विक तापन की समस्या किस प्रकार समुद्री धाराओं को प्रभावित कर सकती है? (200 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • महासागरीय धाराओं का महत्त्व एवं इस पर वैश्विक तापन के प्रभाव की चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण • महासागरीय धाराओं का सामान्य परिचय दीजिये। • धाराओं के महत्त्व का उल्लेख कीजिये। • धाराओं पर वैश्विक तापन के प्रभाव की चर्चा कीजिये। समुद्री जल के एक निश्चित सीमा और एक निश्चित दिशा में तीव्र प्रवाह को ही महासागरीय धारा कहा जाता है। इसकी उत्पत्ति मुख्यत: पवनों के तीव्र प्रवाह के कारण होती है। धाराओं की प्रकृति गर्म और ठंडी होती है। पृथ्वी पर जीवन को क्रियाशील बनाए रखने में इसका प्रमुख योगदान है। धाराओं का महत्त्व पृथ्वी पर क्षैतिज ऊष्मा संतुलन स्थापित करती है। गर्म धाराएँ उष्ण कटिबंधीय उच्च तापमान को उच्च अक्षांशों तक ले जाती है। ठंडी धाराएँ अपने प्रवाह मार्ग-क्षेत्र के तापमान को कम कर देती हैं, जबकि गर्म धाराएँ अपने साथ आर्द्रता लाती हैं जिससे वर्षा प्राप्त होती है। ठंडी व गर्म धाराओं के मिलने से प्लवकों का विकास होता है। इससे कई मत्स्यन बैंकों का विकास हुआ है। ग्रांड बैंक व जॉर्जेज़ बैंक इसके प्रमुख उदाहरण हैं। समुद्री धाराएँ जलयानों के लिये जलमार्गों को निश्चित करती हैं। भारतीय मानसून को निर्धारित करने में भी समुद्री जलधाराओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वैश्विक तापन का समुद्री धाराओं पर प्रभाव महासागर ग्रीनहाउस प्रभाव को कम करने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। महासागर में वायुमंडलीय CO2 की वृद्धि धाराओं को धीमा कर सकती है इससे थर्मोहेलाइन परिसंचरण प्रभावित होगा। इसके परिणामस्वरूप ऊष्मा के क्षैतिज संतुलन में बाधा उत्पन्न होगी जो ग्लोबल वार्मिंग को और अधिक त्वरित करेगा। महासागर का तापमान बढ़ने से आर्कटिक की बर्फ पिघलती है, इससे जल का घनत्व कम हो जाएगा जो थर्मोहेलाइन परिसंचरण को धीमा कर देगा। इससे महासागर की कार्बन सिंक क्षमता कम हो जाएगी। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि वैश्विक तापन से समुद्री धाराएँ कमज़ोर हो जाएंगी। सागरीय धाराओं का परिसंचरण पृथ्वी पर मानव सभ्यता के विकास का आधार है। अत: अतिशीघ्र वैश्विक तापन से निपटने की आवश्यकता है।</s>
<s>[INST]औपनिवेशिक काल के दौरान तिब्बत व अफगान के साथ अंग्रेज़ों का संघर्ष भारत की सीमाओं का विस्तार न होकर ब्रिटिश साम्राज्य के स्थायित्व की लालसा से अभिप्रेरित था। विश्लेषण कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • अंग्रेज़ों के वैदेशिक संबधों (तिब्बत व अफगान के संदर्भ में) को साम्राज्य के स्थायित्व के संदर्भ में विश्लेषित कीजिये। हल करने का दृष्टिकोण • सर्वप्रथम भूमिका लिखिये। • तिब्बत तथा अफगानिस्तान से अंग्रेज़ों के संबंधों की चर्चा अंतर्निहित उद्देश्यों के संबंध में कीजिये। • निष्कर्ष दीजिये। भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के स्थायित्व के लिये अंग्रेज़ों ने देशी रियासतों के विलय की नीति को अपनाया। सहायक संधि व हड़प नीति के माध्यम से भारत की सीमा के भीतर अंग्रेज़ों ने अपने साम्राज्य को विस्तारित किया। इसी क्रम में भारत में औपनिवेशिक साम्राज्य की सीमाएँ उन देशों को छूने लगीं जो साम्राज्यवादी शक्तियों की क्रीड़ास्थली थे। ऐसे में ब्रिटिश शासकों का उक्त क्षेत्रों में हस्तक्षेप, भारतीय सीमाओं के स्थायित्व के संदर्भ में देखा जाना चाहिये। यद्यपि इसमें साम्राज्य विस्तार की भावना निहित होने के संबंध में भी पूरी तरह से इनकार नहीं किया जा सकता। इसे निम्न घटनाओं के आधार पर मूल्यांकित किया जा सकता है: 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से ही तिब्बत में रूसी प्रभाव का निरंतर विस्तार हो रहा था। 1898 ई. में दलाई लामा ने रूस की बौद्ध जनता से धार्मिक कार्यों के लिये अनुदान देने का प्रस्ताव रखा था। भारत की ब्रिटिश सरकार के लिये तिब्बत में रूस का बढ़ता प्रभाव साम्राज्यवादी शक्ति के विस्तार के लिये खतरा था। वहीं, दूसरी तरफ इसी दौर में यूरोप में जर्मनी की बढ़ती शक्ति पर रोक लगाने के लिये अंग्रेज़ाें को रूस के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करने की आवश्यकता थी। उपर्युक्त विरोधाभाषी परिस्थितियों में ब्रिटिश सरकार ने आंग्ल-तिब्बत युद्ध (1904 ई.) की नींव रखी तथा तिब्बत को विजित करके भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को सुरक्षित किया और लॉर्ड कर्ज़न की दूरदर्शितापूर्ण नीति के कारण तिब्बत में रूसी प्रभाव के विस्तार मार्गों को अवरुद्ध कर दिया गया। वहीं, दूसरी तरफ भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमा पर अवस्थित अफगानिस्तान राज्य पर भी रूस का प्रभाव तीव्र गति से बढ़ रहा था। रूस का फारस की सीमा तक पहुँचना ब्रिटिशों के लिये भारत में साम्राज्य के स्थिरीकरण को लेकर खतरा था। रूस द्वारा भारत पर आक्रमण की रणनीति का पूर्वानुमान लगाकर अंग्रेज़ों ने भारत में अपने साम्राज्य की सुरक्षा हेतु दो प्रकार की नीतियाँ बनाईं- अग्रगामी विचारधारा की नीति: इसके तहत अंग्रेज़ों ने अफगान राज्य के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप किया, फलत: दो आंग्ल-अफगान युद्ध लड़े गए। कुशल अक्रियता की नीति: इसके द्वारा अंग्रेज़ों ने अफगानिस्तान में तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए रूस के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों की स्थापना की और यथासंभव अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने की नीति का अनुसरण किया। स्पष्ट है कि भारत में ब्रिटिशों ने अपने साम्राज्य को स्थायित्व व मज़बूती प्रदान करने के लिये वैदेशिक संबंधों की सुनियोजित व दीर्घकालिक रणनीति बनाई थी जो अपने परिणामों में सफल भी रही।</s>
<s>[INST]गांधी-इरविन समझौता वस्तुत: राष्ट्रीय आंदोलन की पलायनवादी मनोवृत्ति का परिचायक न होकर गांधीवादी रणनीति का एक अहम हिस्सा था, जिसे तत्कालीन राष्ट्रवादी धाराओं के अदूरदर्शी दृष्टिकोण द्वारा पहचाना न जा सका। परीक्षण करें। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • गांधी-इर्विन समझौते को राष्ट्रीय आंदोलन के पलायनकारी मानने का कारण। • गांधीवादी रणनीति के संदर्भ में इसका मूल्याकंन। हल करने का दृष्टिकोण • गांधी-इर्विन समझौते का परिचय। • इसे राष्ट्रीय आंदोलन की पलायनकारी मनोवृत्ति मानने के कारणों का उल्लेख करें। • गांधीवादी रणनीति को बताते हुए मूल्यांकन करें और निष्कर्ष लिखें। 5 मार्च, 1931 को हुए गांधी-इर्विन समझौते के तहत गांधी द्वारा सविनय अवज्ञा आंदोलन को स्थगित करने तथा कॉन्ग्रेस द्वारा द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने का आश्वासन तत्कालीन वायसराय लार्ड इर्विन को दिया गया। गांधी-इर्विन समझौते को राष्ट्रीय आंदोलन की पलायनकारी मनोवृत्ति मानने के निम्नलिखित कारण है: इस समझौते में पूर्ण स्वराज्य का कोई उल्लेख नहीं था, जिसे कॉन्ग्रेस ने अपने लाहौर अधिवेशन (1929) में तय किया था। इस आधार पर विरोध करने वालों में जवाहरलाल नेहरू एवं सुभाष चन्द्र बोस प्रमुख थे। कुछ लोगों ने इसे पूंजीपति वर्ग के दबाव के रूप में देखा और माना कि इसके माध्यम से केवल पूंजीपतियों के हित को ध्यान में रखा गया। वहीं, कुछ युवा क्रांतिकारी भगत सिंह एवं उनके साथियों की सज़ा माफ न करवा पाने में असफल होने पर इसे औपनिवेशिक शासन के समक्ष समर्पण के रूप में देखा। लेकिन गाँधी-इर्विन समझौते को गाँधीवादी रणनीति के निम्नलिखित संदर्भों में देखे जाने की ज़रूरत है: संघर्ष-विराम संघर्ष की रणनीति के तहत यह मान्यता थी कि जनांदोलन लंबे समय तक नहीं चल सकता क्योंकि जनसामान्य के त्याग करने की सीमा एवं उसकी ऊर्जा सीमित होती है। इस समय तक सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी विरक्तता के लक्षण दिखने लगे थे, विशेषकर उन दुकानदारों एवं व्यापारियों में जिनमें आंदोलन के प्रति अभूतपूर्व उत्साह था। गांधी जी अहिंसात्मक एवं नियंत्रित जनांदोलन में विश्वास करते थे और आंदोलन पर शीर्ष नेतृत्व की पकड़ कमज़ोर होती जा रही थी, जैसे संयुक्त प्रांत में लगान रोको अभियान तथा देश के अन्य भागों में जंगल कानूनों का उल्लघंन। ये सविनय अवज्ञा आंदोलन के कार्यक्रम में निहित नहीं थे। गांधी ने दबाव-समझौता-दबाव की रणनीति अपनाई। इस समझौते के माध्यम से भी गांधी जी ने समुद्र तट की एक निश्चित सीमा के भीतर नमक बनाने की अनुमति, ज़ब्त की गई संपत्ति को वापस करने, शराब की दुकानों के सामने शांतिपूर्ण विरोध की अनुमति आदि को मांगों मनवाया। लेकिन आगे गोलमेज सम्मेलन में निराशा हाथ लगने के बाद दुबारा सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने को इसी रणनीति के तहत देखा जा सकता है। वस्तुत: गांधी-इर्विन समझौतो को समग्रता में देखे जाने की ज़रूरत है। इससे यह भी स्पष्ट था कि उपनिवेशी सरकार ने राष्ट्रीय आंदोलन के महत्त्व को स्वीकारा तथा उसके नेतृत्वकर्त्ताओं को बराबरी का दर्जा प्रदान किया।</s>
<s>[INST]‘मैडेन-जूलियन दोलन परिघटना’ क्या है तथा भारतीय मानसून को यह किस प्रकार प्रभावित करती है? (200 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • मैडेन जूलियन दोलन के भारतीय मानसून पर प्रभाव की चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण • मैडेन जूलियन दोलन परिघटना का सामान्य परिचय दीजिये। • MJO के भारतीय मानसून पर प्रभाव की चर्चा कीजिये। मैडेन जूलियन दोलन (MJO) उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में वायुमंडल-सागर युग्म की एक महत्त्वपूर्ण परिघटना होती है। यह भूमध्य रेखा के आसपास बारिश के लिये उत्तरदायी होती है। यह 4 से 8 मीटर प्रति सेकेंड की गति से पूर्व दिशा में बढ़ती है। इसकी अवधि आमतौर पर 30 से 60 दिनों की होती है। MJO की पहचान 1971 में रोलैंड मैडेन और पॉल जूलियन ने की थी। समुद्र में होने वाली कुछ मौसमी घटनाएँ जिनमें मैडेन जूलियन ऑसीलेशन (MJO) भी शामिल है, दक्षिण-पश्चिम मानसून के लिये ज़िम्मेदार होती हैं। दक्षिण-पश्चिम मानसून के बनने में इसकी अहम भूमिका होती है। MJO में दो चरण होते हैं- एक बढ़ी हुई वर्षा चरण होता है और दूसरा, दबाने वाला वर्षा चरण होता है। प्राय: यह पृथ्वी को दो हिस्सों में बाँट देता है, जहाँ यह सक्रिय होता है वहाँ बारिश कराता है तथा जहाँ यह निष्क्रिय होता है वहाँ औसत से कम वर्षा होती है। भारतीय मानसून पर प्रभाव दक्षिण पश्चिम मानसून के समय MJO के सक्रिय होने से भारतीय मानसून से अच्छी बारिश प्राप्त होती है। यह ला-निना से मिलकर बारिश को बढ़ा देता है। दूसरी ओर यह अल नीनो के प्रभाव को भी खत्म करने की क्षमता रखता है। इसके विपरीत दबाने वाले संवहनी चरण मानसून को निष्प्रभावी कर देता है, परिणामस्वरूप भारतीय मानसून से पर्याप्त वर्षा प्राप्त नहीं हो पाती है।</s>
<s>[INST]यह कहना कहाँ तक समीचीन है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बीज हिटलर की विदेश नीति में अंतर्निहित थे? हिटलर की विदेश नीति के सिद्धांतों के आधार पर अपने तर्कों को प्रस्तुत करें। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • द्वितीय विश्वयुद्ध के लिये ज़िम्मेदार कारणों में हिटलर की विदेश नीति की भूमिका बतानी है। हल करने का दृष्टिकोण • सर्वप्रथम भूमिका लिखें। • हिटलर की विदेश नीति के उद्देश्यों तथा कार्रवाइयों का उल्लेख करें। • द्वितीय विश्वयुद्ध के लिये ज़िम्मेदार अन्य कारणों का भी उल्लेख करते हुए निष्कर्ष लिखें। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद उत्पन्न परिस्थितियों से फासिस्ट शक्तियों का उदय हुआ, जिसकी अभिव्यक्ति जर्मनी में हिटलर के नेतृत्व में नाजीवाद के रूप में हुई। हिटलर की विदेश नीति जर्मन साम्राज्य के विस्तार पर आधारित थी, जो अंतत: द्वितीय विश्वयुद्ध का कारण बनी। वस्तुत: हिटलर जर्मनी को विश्व का सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र बनाना चाहता था। इसलिये उसने अपनी विदेश नीति के लिये निम्नलिखित उद्देश्य अपनाए: वर्साय की संधि का उल्लंघन करना। इस संधि के प्रावधान जर्मनी के लिये अपमानजनक थे तथा उस पर आरोपित किये गए थे। अखिल जर्मन साम्राज्य की स्थापना करना तथा इसके लिये वह विश्व की समस्त जर्मन जातियों को एकसूत्र में संगठित करना चाहता था। साम्यवाद के प्रसार को रोकना। अपनी विदेश नीति की अभिव्यक्ति तथा उसे अमलीजामा पहनाने के लिये उसने कई आक्रामक कदम उठाए, जो अंतत: द्वितीय विश्वयुद्ध का कारण बनीं, जैसे: 1933 में राष्ट्र संघ से अलग होना। 1935 में राइनलैंड का सैन्यीकरण करना। 1936 में रोम-बर्लिन धुरी का निर्माण करना जिसमें जापान के शामिल होने पर यह रोम-बर्लिन-टोकियो धुरी बन गया। यह साम्यवाद विरोधी गुट था। 1938 में ऑस्ट्रिया पर हमला तथा बाद में चेकोस्लोवाकिया पर नियत्रंण। 1 सितंबर, 1939 को पोलैंड पर आक्रमण जिससे द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत हुई। लेकिन सिक्के के दूसरे पहलू को देखें तो द्वितीय विश्वयुद्ध के बीज पेरिस शांति सम्मेलन (1919) में हुई विभिन्न संधियों में ही निहित थे, जिसमें सबसे प्रमुख वर्साय की संधि थी। इस सम्मेलन से असंतुष्ट जर्मनी एवं इटली में फासिस्ट शक्तियों का उदय हुआ, जिन्होंने रोम-बर्लिन गुट का निर्माण किया और द्वितीय विश्वयुद्ध के लिये परिस्थितियाँ तैयार कीं। इन परिस्थितियों को तैयार करने में ब्रिटेन एवं फ्राँस की तुष्टीकरण की नीति भी ज़िम्मेदार थी। निष्कर्षत: कह सकते हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बीज पेरिस शांति सम्मेलन में ही निहित थे, जिसे पुष्पित-पल्लवित करने में हिटलर की विदेश नीति ने भूमिका निभाई, जिसका फल द्वितीय विश्वयुद्ध के रूप में सामने आया।</s>
<s>[INST]भिन्न-भिन्न उद्देश्य होने के बावजूद खिलाफत और असहयोग आंदोलन के गठबंधन ने ब्रिटिश शासन के समक्ष एक मज़बूत चुनौती पेश की। वे कौन-सी परिस्थितियाँ थीं जिन्होंने इस गठजोड़ को संभव बनाया? (150 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • खिलाफत व असहयोग आंदोलन के उद्देश्यों व प्रभावों को बताना है • उन परिस्थितियों का उल्लेख कीजिये, जिनके कारण खिलाफत व असहयोग आंदोलन का गठजोड़ हुआ। हल करने का दृष्टिकोण • सर्वप्रथम भूमिका लिखें। • खिलाफत व असहयोग आंदोलन के गठजोड़ की परिस्थितियों को स्पष्ट कीजिये। • खिलाफत व असहयोग आंदोलन के उद्देश्यों की चर्चा करें। • आंदोलन के प्रभावों को विश्लेषण कीजिये। • निष्कर्ष दें। गांधी के भारतीय राजनीति में प्रवेश के साथ ही व्यापक जन-संघर्षों की शुरुआत हो गई। गांधी ने समाज के सभी वर्गो की सहभागिता के साथ-साथ हिन्दू-मुस्लिम एकीकरण के लिये भी प्रयास किये। इसी संदर्भ में भिन्न-भिन्न लक्ष्यों के बावजूद असहयोग व खिलाफत आंदोलन ने एकीकृत रूप से शांतिपूर्ण व अहिंसक तरीकों का प्रयोग कर ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के समक्ष मज़बूत चुनौती प्रस्तुत की। 20वीं शताब्दी का द्वितीय दशक हिंदू-मुस्लिम राजनैतिक एकीकरण के संदर्भ में व्यापक पृष्ठभूमि तैयार किये जाने से संबंधित है। वर्ष 1916 के लखनऊ समझौते ने कॉन्ग्रेस व मुस्लिम लीग के बीच सहयोग बढ़ाने का कार्य किया, तो वहीं रौलेट एक्ट के प्रभावों ने समाज के अन्य वर्गों के साथ ही हिंदू-मुस्लिम एकता को स्थापित किया। इन्हीं सब गतिविधियों के दौरान खिलाफत आंदोलन का जन्म हुआ जिसके साथ ही असहयोग आंदोलन भी राष्ट्रीय पटल पर उभरा। प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् तुर्की के प्रति अंग्रेज़ों के अपमानजनक रवैये के कारण भारतीय मुसलमान क्षुब्ध व उत्तेजित थे। इसी संदर्भ में मुसलमानों के धार्मिक स्थलों पर ख़लीफा के प्रभुत्व को पुनर्स्थापित करने तथा खलीफा को प्रदेशों की पुनर्व्यव्यस्था कर अधिक भू-क्षेत्र प्रदान करने के उद्देश्य से भारत में मोहम्मद अली, शौकत अली, मौलाना आज़ाद जैसे नेताओं ने खिलाफत कमेटी (1919 ई.) का गठन कर देशव्यापी आंदोलन की नींव रखी। इसी दौरान औपनिवेशिक नीतियों की शोषणकारी प्रवृत्तियों के कारण गांधी के नेतृत्व में जन आधारित संघर्ष के रूप में असहयोग आंदोलन की नींव रखी गई, जिसके अंतर्गत गांधी ने ‘एक वर्ष के अंदर स्वराज्य’ का लक्ष्य रखा। आंदोलन की शुरुआत में कुछ समय तक खिलाफत के नेता असहयोग आंदोलन के पक्ष में सभाओं, धरनों, प्रदर्शनों का प्रयोग करते रहे लेकिन ब्रिटिश शासन के विरुद्ध सशक्त प्रदर्शन के लिये खिलाफत व असहयोग आंदोलन का एकीकरण आवश्यक हो गया। गांधी ने भी खिलाफत आंदोलन को सत्य व न्याय पर आधारित मानकर इसे असहयोग आंदोलन के साथ सम्मिलित करने की रणनीति को अनुमोदित कर दिया ताकि अंग्रेज़ों की ‘फूट डालो-राज करो’ की नीति पर चोट की जा सके। खिलाफत-असहयोग आंदोलन से प्रारंभ हुए व्यापक जनसंघर्षो ने ब्रिटिश शासन के समक्ष कड़ी चुनौती प्रस्तुत की। इससे एक तरफ हिंदू-मुस्लिम एकीकरण को तोड़ पाना अंग्रेज़ों के लिये मुश्किल हो गया, तो वहीं मुस्लिमों की राष्ट्रीय आंदोलन में सहभागिता ने स्वतंत्रता संग्राम में जनता की भागीदारी को बढ़ाया। इस आंदोलन के दौरान जहाँ 90 हज़ार छात्रों ने स्कूल कॉलेजों का बहिष्कार किया वहीं उसी समय राष्ट्रीय शिक्षण संस्थानों (जामिया मिलिया, काशी विद्यापीठ आदि) की स्थापना को भी प्रोत्साहन दिया गया। वकीलों ने वकालत छोड़ दी तथा विदेशी कपड़ों के बहिष्कार ने आयात को घटाकर आधा कर दिया। शराब की दुकानों पर धरना-प्रदर्शन हुए तथा चरखा-खादी का प्रसार किया गया। स्पष्ट है कि असहयोग-खिलाफत आंदोलन के एकीकरण ने पूरे राष्ट्र की जनता को एकसूत्र में बांधने का कार्य किया। इसने जनता को आधुनिक राजनीति से परिचित करवाया तथा हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा देकर स्वतंत्रता आंदोलन में रूढ़िवादी विचारों से मुक्त राष्ट्रवादी मुस्लिम नेताओं का समर्थन प्राप्त किया।</s>
<s>[INST]भारत में पुलिस व सशस्त्र बलों के संदर्भ में महिलाओं की स्थिति पर प्रकाश डालिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : मानव इतिहास पर गौर करें तो जब भी देश की रक्षा की बात आई है तब नारी शक्ति किसी-न-किसी रूप में इसका हिस्सा रही है। आज महिलाएँ पूरी दुनिया में सैन्य क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दे रही हैं साथ ही भारत भी युद्धक भूमिकाओं में महिलाओं को शामिल करने की ओर तेज़ी से कदम उठा रहा है। भारत में महिलाओं ने 1990 के दशक में आर्मी में जाना शुरू किया। भारतीय नौसेना की पहली महिला लेफ्टिनेंट पुनीता अरोड़ा व पहली महिला आई.पी.एस. अधिकारी किरण बेदी से लेकर वर्तमान तक पुलिस व सशस्त्र बलों की स्थिति में सुधार आया है और ये परिवर्तन पिछले 35 वर्षों में तीव्रता से परिलक्षित हुए हैं। आज भारतीय महिलाएँ सक्रिय कार्यबल का हिस्सा बनने में एक लंबा सफर तय कर चुकी हैं। उन्होंने पुलिस और पैरा-मिलिट्री जैसे विभागों में सभी बाधाओं को पार किया है। गत दिनों सरकार ने सैन्य पुलिस बल में अधिकारी से नीचे के पदों पर महिलाओं की भर्ती करने का निर्णय लिया है, यह कदम महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने में सहायक होगा। 12 राज्यों में पुलिस बल में महिलाओं के लिये 30% या अधिक का आरक्षण निर्धारित करने वाले नियम वर्षों से लागू हैं। परंतु इन उपायों के बावजूद आज भी स्थिति संतोषजनक नहीं है। महिलाओं का अल्प प्रतिनिधित्व इस तथ्य को उजागर करता है कि सुरक्षाबलों में उन्हें अभी भी सभी रैंकों पर ‘वे’ बनाम ‘हम’ के रूप में माना जाता है। महिलाओं की तैनाती का निर्णय आज भी लैंगिक रूढ़िवादिता से मुक्त नहीं है जो महिलाओं को अग्रणी भूमिका निभाने से रोकता है। अलग शौचालयों की व्यवस्था न होना, महिलाओं के लिये पृथक आरामगृहों की कमी, अलग आवासों का अभाव आदि के कारण लैंगिक उदासीनता की स्थिति आज भी विद्यमान है। सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयास आज भी पितृसत्तात्मक मानसिक विचारधारा का सामना कर रहे हैं। मानसिक व शारीरिक दुर्बलता का हवाला देकर उनकी भागीदारी को रोकने की कोशिश हमारी मानसिक दुर्बलता की परिचायक है। जिस दिन यह विचारधारा बदल जाएगी उस दिन हर क्षेत्र में महिलाओं की समान एवं सशक्त भागीदारी के साथ-साथ महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराधों की संख्या में भी आश्चर्यजनक कमी आ जाएगी। एक विकसित विचारधारा पाले सशक्त ढेरा के निर्माण में इस पक्ष की भागीदारी अत्यंत आवश्यक है।</s>
<s>[INST]‘‘नए भारत के निर्माण में अग्रसर नारी शक्ति’’ ये कथन कहाँ तक सत्य है, चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : राष्ट्र के निर्माण में उसके समग्र विकास में महिलाओं का लेखा-जोखा और उनके योगदान का दायरा असीमित है। अपने अस्तित्व की स्वतंत्रता कायम रखते हुए आज नारी पुरुषों के समकक्ष खड़ी है। आज विकास पथ पर अग्रसर होती नारी विधि, अकादमिक, साहित्य, संगीत, नृत्य, खेल, मीडिया, उद्योग आदि भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में नए भारत के निर्माण में योगदान दे रही हैं। नए भारत की तस्वीर पेश करती अग्नि-पुत्री डॉ. टेसी थॉमस, चंद्रयान-2 के सफल प्रक्षेपण में शामिल एम. वनिता और रितु भारत के अंतरिक्ष में नए कदमों की सहभागी बन रही है। वही पहली पूर्णकालिक रक्षामंत्री व वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण राजनीति के नए आयाम खोल रही है। छ: बार की विश्व विजेता बॉक्सर एम.सी. मैरीकॉम, एशियन सैटेलाइट चैंपियनशीप को दो बार जीतने वाली साइना नेहवाल, ग्रैंड मास्टर तानिया सचदेव, लगातार छ: स्वर्ण पदक जीतने वाली एथलीट हीमा दास नारी सशक्तीकरण के साथ-साथ भारत को विश्व पटल पर गौरान्वित कर रही हैं। एफ.ए.ओ. (FAO) के अनुसार भारतीय कृषि में महिलाओं की भूमिका लगभग 32: है जो ग्रामीण परिवेश में महिलाओं की अर्थव्यवस्था में भागीदारी की सूचक है। रूढ़िवादिता को दरकिनार करते हुए मीडिया में महिलाओं की भागीदारी अमेरिका, ब्रिटेन जैसे विकसित देशों के समकक्ष है। पुलिस एवं सशस्त्र बलों जहाँ एक समय पुरुषाें का ही वर्चस्व हुआ करता था आज वहाँ तनुश्री पारिक, भावना कांत, अपनी चतुर्वेदी जैसे नाम सुनाई देने लगे हैं जो नए भारत निर्माण में सशक्त नारी की भागदारी का परिणाम है। किरण मजुमदार शाह, इंदु जैन, अदिति गुप्ता जैसी उद्यमी महिलाएँ और पारिवारिक जिम्मेदारियों के निर्वहन के साथ कार्यस्थलीय उत्तरदायित्व को निभाती महिलाएँ आज नए युग के भारत को नींव दे रही हैं। लेकिन भारत में आज भी महिलाएँ मानसिक, शारीरिक, सामाजिक शोषण से मुक्त नहीं हो पाई हैं, जो नारी-उत्थान के साथ-साथ देश के समग्र एवं यथेष्ट विकास में बाधा बन रहा है। सामाजिक एवं मानसिक पूर्वाग्रहों की बाधाओं को दूर करते हुए विकासशील से विकसित की खाई को पाटना वर्तमान की जरूरत है।</s>
<s>[INST]भारत के भू-जल परिदृश्य में आए बदलाव से उत्पन्न समस्याओं एवं उपायों को गिनाइये। (200 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • भू-जल परिदृश्य में बदलाव से उत्पन्न समस्याओं की चर्चा करनी है। समाधान भी बताना है। हल करने का दृष्टिकोण • भू-जल परिदृश्य में आए बदलाव को संक्षेप में बताएँ। • समस्याओं का उल्लेख करें। • समस्या से निपटने के उपाय बताएँ। देश में पिछले दशकों के दौरान भू-जल के इस्तेमाल में कई गुना वृद्धि हुई है जिससे पंजाब, राजस्थान, हरियाणा और बुंदेलखंड सहित कई क्षेत्रों में कृषि कार्यों हेतु खतरा उत्पन्न हो रहा है। इससे भविष्य में खाद्य सुरक्षा के लिये गंभीर खतरा पैदा होने की संभावना है। वर्तमान में देश में गाँवों की घरेलू आवश्यकता का 80 प्रतिशत, सिंचाई एवं औद्योगिक आवश्यकता का 65 प्रतिशत तथा शहरी जल की आवश्यकता का 50 प्रतिशत भू-जल संसाधन से पूरा किया जा रहा है। भू-जल के निरंतर और अंधाधुंध दोहन ने विभिन्न समस्याओं को जन्म दिया है जिसे निम्नलिखित संदर्भ में देखा जा सकता है- भू-जल स्तर के अधिक नीचे चले जाने के कारण कुओं और सामान्य हैंडपंपों के पेल हो जाने से पेयजल संकट। प्रमुख खाद्यान्न उत्पादक क्षेत्रों में कृषि कार्यों के लिये जल की अनुपलब्धता के कारण भविष्य में खाद्य सुरक्षा के संकट की आशंका। जलभराव और खारापन की समस्या से फसल की उत्पादकता कम होती है। भू-जल के पुनर्भरण की स्थिति में बदलाव आ सकता है। अत्यधिक दोहन से भू-जल की गुणवत्ता में ह्रास। उपर्युक्त समस्याओं से निपटने के लिये निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं- प्रभावकारी प्रबंधन योजनाओं को व्यवहार में लाना। इज़राइल से शुष्क खेती और जल संरक्षण से संबंधित तकनीक प्राप्त करना। वर्षा जल संचयन एवं भूजल पुनर्भरण हेतु प्रभावी नीति का निर्माण। अतिदोहन वाले अथवा भूमिगत जल गुणवत्ता प्रभावित क्षेत्रों में दीर्घकालिक प्रबंधन एवं नियोजन की रणनीति। कृषि सिंचाई के लिये नहर सिंचाई सुविधा का विकास। आम लोगों को जागरूक कर जल संरक्षण में उनकी भागीदारी को सुनिश्चित करना। देश में भू-जल संसाधनों के संरक्षण एवं पूनर्भरण के लिये वर्षा जल संचयन एवं रिचार्ज कार्यक्रमों को एकीकृत ढंग से लागू करने की आवश्यकता है। इन कार्यक्रमों में जनता की भागीदारी को सुनिश्चित कर वर्तमान एवं भविष्य की संभावित समस्याओं से निपटना आसान हो जाएगा।</s>
<s>[INST]भारत के रेगिस्तानी इलाकों में सूखे की समस्या से निपटने एवं किसानों की अनुकूलन क्षमता को बढ़ाने में वर्षा जल संग्रहण ढाँचा और बागवानी-चरागाह प्रणाली कारगर साबित हो सकती है। विवेचना करें। (200 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • भारत के रेगिस्तानी इलाकों में सूखे की समस्या से निपटने में वर्षा जल संग्रहण ढाँचा और बागवानी-चरागाह प्रणाली की प्रयोज्यता की चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण • एक प्रभावी भूमिका लिखें। • रेगिस्तानी परिस्थितियों की संक्षिप्त चर्चा करते हुए उक्त प्रणाली की प्रयोज्यता को बताएँ। • प्रभावी निष्कर्ष लिखें। भारत के रेगिस्तानी इलाकों में विशेषकर पश्चिमी राजस्थान में रहने वाले लोगों को सूखे की मार के चलते आजीविका की तलाश में इधर-उधर विस्थापित होना पड़ता है। इन क्षेत्रों में खेती के लिये प्रतिकूल दशा होने के कारण बागवानी को प्रोत्साहित करना अप्रासंगिक माना जाता रहा है। किंतु वर्तमान में इन क्षेत्रों में वर्षा जल संग्रहण ढाँचा और बागवानी-चरागाह प्रणाली की सफलता ने सभी भ्रांतियों को दूर कर दिया है। भारत में 60 फीसदी से भी अधिक कृषि क्षेत्र सिंचाई के लिये वर्षा से प्राप्त जल पर निर्भर है। अत्यधिक कम वर्षा, मिट्टी में पोषक तत्त्वों की कमी तथा मिट्टी में नमी की काफी कम मात्रा के कारण बागवानी को प्रोत्साहित नहीं किया जा सका है। वर्तमान में परिस्थिति बदल चुकी है। सीपीआर पश्चिमी राजस्थान में बागवानी-चारा भूखंडों और वर्षा जल संचयन ढाँचा विकसित करने के लिये छोटे और हाशिये पर बैठे किसानों की मदद कर रहा है। केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान परिषद और विभिन्न किसान विकास केंद्रों द्वारा किसानों को नियमित आधार पर प्रशिक्षण और विशेषज्ञता उपलब्ध कराई जा रही है। विभिन्न प्रयासों द्वारा वर्षा जल संग्रहण ढाँचा और बागवानी-चरागाह भूखंड को छोटे और वंचित किसानों के लिये सुलभ बनाया गया है। घेवर राम और गौरी देवी का उदाहरण इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। वे जल संग्रहण ढाँचा और बागवानी-चरागाह प्रणाली को अपनाकर चारा, फल, सब्ज़ियाँ और कई अन्य उत्पाद प्राप्त कर रहे हैं। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि रेगिस्तानी इलाकों में सूखे की समस्या से निपटने में इनका विशेष योगदान है। उक्त प्रणाली रेगिस्तानी इलाकों में सूखे की समस्या से निपटने एवं किसानों की अनुकूलन क्षमता को बढ़ाने में कारगर साबित हो रही है।</s>
<s>[INST]दुर्लभ खगोलीय घटना ‘सुपरमून’, ‘ब्लूमून’ और ‘ब्लडमून’ की संक्षिप्त चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद सुपरमून, ब्लूमून और ब्लडमून की चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण हाल ही में घटित सुपरमून, ब्लूमून और ब्लडमून की घटना के संदर्भ में संक्षिप्त परिचय दें। 31 जनवरी, 2018 को एक दुर्लभ खगोलीय घटना देखने को मिली जिसे ‘सुपर ब्लू ब्लड मून’ कहा जाता है। ऐसी घटना 35 वर्ष पूर्व दिसंबर 1982 में देखी गई थी। इस कारण यह घटना न केवल सामान्य लोगों के लिये महत्त्वपूर्ण है बल्कि विश्व भर के वैज्ञानिकों के लिये शोध हेतु भी महत्त्वपूर्ण थी। सूर्य और चंद्रमा के बीच पृथ्वी के आ जाने से उसकी छाया चंद्रमा पर पड़ती है। इससे चंद्रमा का छाया वाला भाग काला दिखाई पड़ता है। इसी घटना को चंद्रग्रहण कहा जाता है। घटना की प्रकृति के अनुसार चंद्रग्रहण को सुपरमून, ब्लूमून और ब्लडमून के रूप में जाना जाता है। सुपरमून: यह वह खगोलीय घटना है जब चंद्रमा पृथ्वी से सबसे नज़दीक वाली स्थिति (3,56,500 किमी) में होता है। घटना के दौरान चंद्रमा पृथ्वी के सबसे करीब होता है, परिणामस्वरूप वह 14 फीसदी बड़ा और 30 फीसदी अधिक चमकीला दिखाई पड़ता है। ब्लूमून: जब एक ही महीने में दो बार पूर्णचंद्र की घटनाएँ होती हैं तो दूसरे वाले पूर्णचंद्र को ब्लूमून कहते हैं। ब्लडमून: इस दुर्लभ घटना में चंद्रमा लाल दिखता है। चूँकि लाल रंग सबसे लंबी तरंगदैर्ध्य वाला होता है, इसलिये परावर्तन के नियम के अनुसार लाल रंग सबसे पहले चंद्रमा तक पहुँचता है और टकराकर हमारी आँखों तक आता है। यह तभी संभव हो पाता है जब सूर्य, पृथ्वी और चंद्रमा की स्थिति अपनी कक्षा में एक-दूसरे के बिल्कुल सीध में हो। यह दुर्लभ खगोलीय घटना खगोल वैज्ञानिकों के लिये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही। इस घटना से उन्हें यह समझने में सहायता मिली कि जब चंद्रमा की सतह ठंडी होगी तो इसके क्या परिणाम होंगे।</s>
<s>[INST]विश्वव्यापी राष्ट्रवाद के विकास पर फ्राँसीसी क्रांति के प्रभाव की चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • फ्राँसीसी क्रांति का वैश्विक स्तर पर राष्ट्रवाद के विकास में योगदान को स्पष्ट करें। हल करने का दृष्टिकोण • भूमिका में राष्ट्रवाद की अवधारणा को बताएँ। • फ्राँसीसी क्रांति तथा राष्ट्रवाद का उदय। • वैश्विक स्तर पर राष्ट्रवाद के उत्थान में फ्राँसीसी क्रांति के योगदानों की चर्चा कीजिये। • निष्कर्ष दें। राष्ट्रवाद एक ऐसी भावना है जिसमें आम जनता की स्वामी भक्ति राजा में समर्पित न होकर राष्ट्र के प्रति समर्पित होती है। राष्ट्रवाद की सशक्त अभिव्यक्ति तथा स्वतंत्रता की अवधारणा का उदय अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम (1776) में देखा गया, लेकिन फ्राँस की क्रांति (1789) ने राष्ट्रवाद की अवधारणा को अपने राष्ट्र की सीमाओं से बाहर निकालकर यूरोप में प्रसारित किया, जिसका प्रभाव आने वाले समय में विश्व के अन्य देशों पर भी देखा गया। 1789 में संपन्न फ्राँसीसी क्रांति ने फ्राँस से बूर्वो राजवंश का अंत करके राजवंश के दैवीय अधिकार की समाप्ति की घोषणा कर दी। इसके साथ ही संवैधानिक गणतंत्र की स्थापना तथा लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली की नींव ने फ्राँस को राष्ट्र-राज्य के रूप में स्थापित किया। फ्राँसीसी क्रांति ने मानवाधिकारों की घोषणा करने के साथ ही स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व की भावना को प्रतिपादित कर व्यक्ति की महत्ता को स्थापित किया। इसके फलस्वरूप जनसंप्रभुता की अवधारणा ने राजतंत्रीय संप्रभुता को समाप्त कर तथा राष्ट्र-राज्य के आदर्श को स्थापित करके राष्ट्रवाद की विचारधारा को बल प्रदान किया। इस प्रकार एक तरफ फ्राँसीसी क्रांति ने फ्राँस में राष्ट्रीयता व देशभक्ति की भावना को जागृत किया, तो वहीं दूसरी तरफ यूरोप के अन्य देशों में भी प्रतिक्रियावादी नीतियों के स्थान पर राष्ट्रीयता की भावना का संचार होने लगा। फ्राँसीसी क्रांति के आदर्शों के प्रसार स्वरूप इंग्लैंड ने अपनी प्रतिक्रियावादी नीतियों में सुधार किया तथा संसदीय सुधारों की मांगों को स्वीकार किया जिसे आगे चलकर चार्टिस्ट आंदोलन में स्पष्टत: देखा जा सकता है। फ्राँस की क्रांति ने इंग्लैंड के प्रभुत्व वाले आयरलैंड की जनता में राष्ट्रीयता की भावना को जगाकर उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन हेतु खड़ा करने में सहायता की। राष्ट्रवाद की भावना को संपूर्ण यूरोप में प्रसारित करने तथा पुरातन व्यवस्था की जड़ों पर प्रहार करने का कार्य नेपोलियन ने किया। 1815 के वियना कॉन्ग्रेस में राष्ट्रवाद की विचारधारा को दबाकर राजतंत्रीय व्यवस्था को पुन: यूरोप में स्थापित किया गया लेकिन यूरोपीय बुद्धिजीवियों व चिंतकों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से राष्ट्रवाद की भावना को आम जनता तक पहुँचाने का प्रयत्न किया। राष्ट्रवाद की अवधारणा के आधार पर राष्ट्र-राज्य के निर्माण के संदर्भ में इटली व जर्मनी का एकीकरण अभूतपूर्व है। नेपोलियन वह प्रथम व्यक्ति था जिसने इटली व जर्मनी के राज्यों के भौगोलिक नामों के स्थान पर राष्ट्र के रूप में वास्तविक रूपरेखा को प्रस्तुत किया, जिसके परिणामस्वरूप इटली व जर्मनी के एकीकरण का मार्ग प्रशस्त हुआ तथा राष्ट्रवाद की उत्कृष्ट भावना का प्रसार हुआ। इसके अतिरिक्त राष्ट्रवाद की भावना का प्रसार तब स्पेन व पुर्तगाल में भी देखा गया जब नेपोलियन की सेना ने इन पर आक्रमण (1808 ई. में) किया। लेकिन राष्ट्रीयता की भावना के आगे नेपोलियन को हार मानकर भागना पड़ा। राष्ट्रीयता की भावना के संचार के कारण ही रूस की सेना ने 1812 ई. में अपनी भूमि से फ्राँसीसी सेना को भगाया। राष्ट्रवाद की विचारधारा ने अब यह स्पष्ट कर दिया था कि ताकतवर सेना के आगे राष्ट्र-राज्य की अवधारणा अधिक बलशाली होती है। निष्कर्षत: आधुनिक राष्ट्रवाद की अवधारणा का विकास फ्राँस के राष्ट्र-राज्य के आदर्श में प्रस्तुत किया गया। फ्राँसीसी क्रांति के आदर्शों (स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व) ने राष्ट्रवाद की विचारधारा को स्थायित्व प्रदान किया। साथ ही इसे विश्व के अन्य राष्ट्रों तक प्रसारित किया।</s>
<s>[INST]भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था को पुनर्जीवित करने में आपातकाल का दौर एक मील का पत्थर सिद्ध हुआ। आकलन कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद आपातकाल ने भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को किस प्रकार पुनर्जीवित किया, बताएँ? हल करने का दृष्टिकोण आपातकाल से पूर्व की स्थिति को संक्षेप में बताते हुए उत्तर प्रारंभ करें। आपातकाल के दौरान विद्यमान स्थिति को संक्षेप में बताएँ। इसने किस प्रकार लोकतांत्रिक व्यवस्था को पुनर्जीवित करने में भूमिका निभाई, बताएँ? निष्कर्ष लिखें। भारत में सबसे बड़े राजनीतिक संकट के तौर पर 1975 के आपातकाल को भारतीय राजनीति के इतिहास में काला अध्याय के रूप में जाना जाता है। वस्तुत: 1973 की शुरुआत से ही लोकतांत्रिक व्यवस्था में गिरावट आने लगी थी। समाज मेें असमानता में वृद्धि हो रही थी तथा जनता की आकांक्षाएँ पूरी नहीं हो पा रही थीं। आर्थिक स्थिति में स्पष्ट गिरावट दर्ज हो रही थी। बेरोज़गारी का स्तर, महँगाई, खाद्य संकट बढ़ता ही जा रहा था, ऐसी परिस्थिति में जनता तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार के शासन से असंतुष्ट होने लगी। परिणामस्वरूप हड़तालें, जुलूस इत्यादि में बढ़ोतरी होने लगी, जिससे कानून व व्यवस्था चरमराने लगी। किसी मज़बूत नेतृत्त्व के अभाव में राजनीतिक व्यवस्था कमज़ोर होने लगी। अत: इस परिस्थिति में 1975 में आपातकाल की घोषणा कर दी गई। इस दौरान संसद को अप्रभावी बना दिया गया न्यायपालिका पर भी अंकुश लगा दिया गया और कई राजनीतिक नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। हालाँकि तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार द्वारा अपने इस निर्णय के औचित्य को सिद्ध करने के लिये इसे जनतांत्रिक प्रक्रिया को बेहतर करने हेतु लिया फैसला बताया गया। बावज़ूद इसके आपातकाल का निर्णय गलत था। परंतु यदि इसके सकारात्मक पहलुओं पर गौर करें तो कुछ बुद्धिजीवियों को छोड़कर अधिकांश जनता की इस निर्णय में सहमति थी। इस दौरान सार्वजनिक व्यवस्था और अनुशासन को फिर से कायम कर लिया गया तथा लगातार हड़तालों, धरना-प्रदर्शनों पर अंकुश लगा दिया गया। सामान्य जीवन को पूरी तरह से व्यवस्थित कर दिया गया, सरकारी कर्मचारी समय से दफ्तर आने लगे, तस्करी, कालाबाज़ारी, जमाखोरी इत्यादि पर अंकुश लगा दिया गया और कई जनकल्याणकारी कार्यक्रम आरंभ किये गए जिसमें सभी वर्गों के उत्थान को प्रश्रय दिया गया। लेकिन यह व्यवस्था ज्यादा दिन तक नहीं रह पाई, जनता का आपातकाल से मोहभंग होने लगा तथा वह अब इसे निरंकुशतंत्र स्थापित करने के रूप में देखने लगी। इस संदर्भ में कुछ आलोचकों द्वारा यहाँ तक कहा गया कि भारत से लोकतंत्र अब समाप्त होने के कगार पर है। लेकिन 1977 में आपातकाल को वापस लेना व चुनाव कराने की घोषणा, आशा की किरण के रूप में प्रतीत होने लगी। इसके उपरांत हुए चुनाव आज़ादी के बाद के भारतीय इतिहास के निर्णायक चुनाव के रूप में रहा। जनता द्वारा चुनावी प्रक्रिया में बढ़-चढ़कर भाग लिया गया। इन चुनावों ने दिखा दिया कि भारतीय जनता में लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति कितना लगाव छुपा हुआ है जो भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के प्रभाव और स्वतंत्र चुनावों के साथ-साथ जनवादी क्रियाकलापों में भाग लेने के अनुभव का स्पष्ट परिणाम था। इस प्रकार कहा जा सकता है कि आपातकालीन शासन व्यवस्था का स्वरूप जैसा भी रहा हो परंतु इसमें कोई संदेह नहीं है कि इसके बाद हुए चुनाव में भारी संख्या में जनमानस का शामिल होना और विपक्ष की विजय भारतीय लोकतंत्र की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में है, जिसने वास्तव में लोकतांत्रिक व्यवस्था को पुनर्जीवित करने में सहयोग दिया।</s>
<s>[INST]क्षेत्रवाद के बढ़ते ज्वार के पीछे निहित कारकों को सविस्तार स्पष्ट कीजिये। क्या क्षेत्रवाद राष्ट्रवाद का विरोधी है? (250 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • उन कारणों को बताएँ जिसने क्षेत्रवाद को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। • क्या राष्ट्रवाद के मार्ग में क्षेत्रवाद विरोधी है? स्पष्ट करें। हल करने का दृष्टिकोण • क्षेत्रवाद को स्पष्ट करते हुए उत्तर प्रारंभ करें। • विद्यमान क्षेत्रवाद की समस्या पर संक्षेप में प्रकाश डालें। • ज़िम्मेदार कारणों को बताएँ। • स्पष्ट करें की यह राष्ट्रवाद का विरोधी है। • उपयुक्त समाधान बताते हुए निष्कर्ष लिखें। किसी राज्य अथवा क्षेत्र पर सांस्कृतिक वर्चस्व व भेदभाव मूलक व्यवहार क्षेत्रीयतावाद को उत्पन्न करने में प्रमुख भूमिका निभाता है। वास्तव में जब एक राज्य अथवा क्षेत्र के हितों को पूरे देश अथवा दूसरे क्षेत्रों या राज्यों के विरुद्ध पेश करने की कोशिश की जाती है तो क्षेत्रवाद का जन्म होता है। भारत में क्षेत्रीयतावाद की समस्या आज़ादी के बाद से ही विद्यमान रही है जहाँ भाषा, संस्कृति व भौगोलिक आधारों पर टकराहट की वारदातें होती रही हैं। इस संदर्भ में डीएमके द्वारा चलाया गया आंदोलन व 1950 के दशक में ही ‘धरती का बेटा सिद्धांत’ उल्लेखनीय हैं। इस संबंध में सरकारों ने कुछ उल्लेखनीय प्रयासों द्वारा समाधान करने की कोशिश की, जिनमें भाषायी आधार पर राज्यों का पुनर्गठन महत्त्वपूर्ण है। लेकिन अभी भी किसी-न-किसी मुद्दे को लेकर राज्यों व क्षेत्रों के बीच विवाद का महौल निर्मित हो जाता है। क्षेत्रीयतावाद के लिये ज़िम्मेदार कारकों को निम्नलिखित रूपों में देखा जा सकता है- राज्यों व क्षेत्रों के बीच आर्थिक असमानता क्षेत्रीयतावाद की भावना को प्रबल करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हालाँकि इस संदर्भ में सरकार द्वारा आज़ादी के बाद कई स्तरों पर प्रयास किये गए जिनमें पंचवर्षीय योजना व वित्त आयोग का गठन महत्त्वपूर्ण हैं। इसके वाबजूद राज्यों के मध्य आर्थिक असमानता की खाई कम नहीं हुई है। परिणामस्वरूप पिछड़े क्षेत्रों में असंतोष की भावना बलवती हुई है। राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र की असफलता भी क्षेत्रीयतावाद को बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाती है। उदाहरणस्वरूप भ्रष्टाचार का उच्च स्तर, कमज़ोर प्रशासन तथा गिरती कानून व्यवस्था की बारंबारता इसे उत्तेजित करने का कार्य करती है। भौगोलिक एवं सांस्कृतिक विविधता को भी क्षेत्रीयतावाद की भावना को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में देखा जा सकता है। क्षेत्रीयतावाद की भावना को उत्पन्न करने में पलायनवादी प्रवृत्ति की भी भूमिका रही है। प्रवासी बेहतर रोज़गार व शिक्षा के लिये दूसरे राज्य की ओर पलायन करते हैं जिसको लेकर स्थानीय समुदाय खुद को असुरक्षित महसूस करने लगते हैं और उन्हें अपने संसाधनों पर दबाव के रूप में देखते हैं। उपरोक्त कारणों की वजह से क्षेत्रीयतावाद की भावना में बढ़ोतरी होने लगती है। परिणामस्वरूप विभिन्न राज्यों में आर्थिक, राजनीतिक व मनोवैज्ञानिक संघर्ष बढ़ता चला जाता है। इससे देश की एकता, अखंडता के लिये खतरा उत्पन्न होने के साथ-साथ राष्ट्र निर्माण और विकास में भी बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। विकास की असमान रफ्तार के कारण कई बार क्षेत्रों के बीच तनाव का माहौल निर्मित हो जाता है। परिणामस्वरूप अलग राज्य की मांग व स्वायत्त क्षेत्र की स्थापना को लेकर आंदोलन इत्यादि को माध्यम के रूप मे चुना जाता है। हालाँकि ऐसे मामलों में सरकारों की उपेक्षा की भावना नगण्य होती है। इस संदर्भ में तेलंगाना, आंध्र प्रदेश इत्यादि का उदाहरण दिया जा सकता है। इसके अलावा भी कई ऐसे क्षेत्र हैं, जैसे- गोरखालैंड, मिथिलांचल इत्यादि की एक अलग राज्य के रूप में मांग की जाती रही है। उपरोक्त के विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि क्षेत्रवाद राष्ट्रवाद के अनुकूल नहीं है परंतु भारत के नीति निर्माताओं ने भाषा, धर्म और असमान विकास के आधार पर क्षेत्रवाद की बलवती होती भावना पर अपने सूझबूझ से अंकुश लगाकर क्षेत्रवाद को कभी भी राष्ट्रवाद का विरोधी नहीं बनने दिया।</s>