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<s>[INST]वर्तमान में कर्मचारियों की कार्य क्षमता एवं दक्षता में कमी की प्रवृत्ति देखी जा रही है। इस संबंध में कार्य संस्कृति की भूमिका का उल्लेख कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न-विच्छेद वर्तमान में कर्मचारियों की कार्य क्षमता एवं दक्षता में कमी की प्रवृत्ति को दर्शाना है। इस संबंध में कार्य संस्कृति की भूमिका का उल्लेख करना है। हल करने का दृष्टिकोण प्रभावी भूमिका लिखते हुए कर्मचारियों की कार्य क्षमता एवं दक्षता में कमी की प्रवृत्ति को बताएँ। तार्किक तथा संतुलित विषय-वस्तु में भूमिका से लिंक जोड़ते हुए कार्य संस्कृति को बताएँ तथा कर्मचारियों की कार्य क्षमता एवं दक्षता में कमी के कारणों की संक्षेप में चर्चा करें। किसी कर्मचारी की कार्यक्षमता एवं दक्षता पर कार्य संस्कृति के प्रभाव का उल्लेख करें। किसी कार्यालय के कार्य संचालन में वहाँ के कर्मचारियों एवं उनके द्वारा किये गए कार्य के साथ ही वहाँ की कार्य संस्कृति का भी योगदान होता है। वर्तमान में कर्मचारियों की कार्यक्षमता तथा दक्षता में कमी देखी जा रही है जिसका सीधा-सा कारण समुचित कार्य संस्कृति का न होना है। कार्य संस्कृति का अर्थ कार्यालय के उस संपूर्ण वातावरण से है जो कार्य के विषय में कर्मचारियों की मनोवृत्ति निर्धारित करता है। प्रायः प्रत्येक संगठन की एक विशिष्ट कार्य संस्कृति होती है। किसी संगठन की कार्य संस्कृति को समझने के लिये कुछ पक्षों का अवलोकन किया जा सकता है- लोग समयबद्धता का कितना ध्यान रखते हैं? अपने कार्य संबंधी दायित्वों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का स्तर कैसा है? कर्मचारी आपस में कैसी भाषा और संकेतों का प्रयोग करते हैं तथा उन सभी में पारस्परिक सहजता का क्या स्तर है? पुरुषों और महिलाओं, समाज के अन्य वर्गों (अल्पसंख्यक, दिव्यांग), विभिन्न आयु वर्गों के व्यक्तियों की आनुपातिक हिस्सेदारी का क्या स्तर है? प्रबंधन का कर्मचारियों के साथ व्यवहार कैसा है? उन्हें उनके जायज़ अधिकार मिलते हैं या नहीं आदि। यदि किसी कार्यालय में उपर्युक्त पक्ष अनुकूल दशा में पाए जाते हैं तो निस्संदेह वहाँ के कर्मचारियों की कार्यक्षमता व दक्षता का स्तर भी अच्छा होगा। ध्यातव्य है कि किसी भी पक्ष का प्रतिकूल होना कर्मचारियों की कार्यक्षमता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। आजकल यही देखने में भी आ रहा है। प्रबंधन द्वारा अपने कर्मचारियों के साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार, दफ्तरों में अनुशासनहीनता, वरिष्ठता को अधिक महत्त्व देना आदि कारक किसी भी कर्मचारी के मनोबल को तोड़ देते हैं। इसके साथ ही अच्छे कार्य के लिये विशिष्ट पहचान या प्रशंसा का अभाव तथा पदोन्नतियों एवं वेतन वृद्धि में कार्य निष्पादन और नैतिक व्यवहार की विशेष भूमिका का न होना प्रमुख कारण हैं जो कार्य के प्रति कर्मचारी के नैतिक दायित्व को कम कर देते हैं। एक अच्छी कार्य संस्कृति जहाँ किसी कर्मचारी की कार्य क्षमता को बढ़ाती है वहीं, एकाग्रता से किये जाने के कारण उसकी कार्य दक्षता को भी बढ़ाती है। एक अच्छी कार्य संस्कृति के आवश्यक तत्त्वों में निम्नलिखित को शामिल किया जाना चाहिये- वैविध्य के प्रति स्वीकृति व सहजता का भाव। कर्मचारियों के मध्य समानता का सिद्धांत लागू होना। सभी को उनकी क्षमताओं के अनुसार बराबर का मौका, सभी के मूल्यांकन के लिये समान प्रतिमान। कर्मचारियों के मन में इस बात का अनावश्यक भय न हो कि उन्हें पर्याप्त कारणों के बिना हटा दिया जाएगा। कर्मचारियों के कार्य निष्पादन का सतत् व वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन और उस मूल्यांकन के अनुसार उन्हें प्रोत्साहन मिलना आदि। अतः कार्यालय की कार्य संस्कृति का सकारात्मक होना आवश्यक है तभी कोई कर्मचारी अपने कार्य में अपना सौ प्रति प्रतिशत दे सकेगा।</s>
<s>[INST]गांधी के नैतिक विचार वर्तमान में भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने गांधी युग में थे। टिप्पणी कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न-विच्छेद गांधी के नैतिक विचारों की वर्तमान में प्रासंगिकता पर टिप्पणी करनी है। हल करने का दृष्टिकोण प्रभावी भूमिका लिखते हुए गांधी के दर्शन तथा उनकी विचारधारा को बताएँ। तार्किक तथा संतुलित विषय-वस्तु में गांधी के नैतिक विचारों को बताते हुए वर्तमान में उनकी प्रासंगिकता के विषय में लिखें। प्रश्नानुसार संक्षिप्त एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें। महात्मा गांधी नव्य वेदांत दर्शन की परंपरा में आने वाले प्रमुख विचारक हैं। उन्होंने सभी विचारधाराओं, दर्शनों को परखा और उनका सार ग्रहण किया, इसलिये उनके दर्शन पर अनेक विचारधाराओं का प्रभाव दिखाई देता है। महात्मा गांधी पर सर्वाधिक प्रभाव उपनिषद् तथा गीता का है। उपनिषदों से उन्होंने ‘ईशावास्यमिदं सर्वं’ मंत्र ग्रहण किया तो गीता से स्वधर्म की अवधारणा ली। बौद्ध तथा योग दर्शन के प्रभाव के साथ ही उन पर जैन धर्म के पंचव्रतों का भी गहरा प्रभाव दिखाई देता है। गांधी ने जैन धर्म के पंचव्रतों पर अपने विचारों के साथ-साथ अन्य नैतिक विचारों का भी प्रतिपादन किया जिनमें— साधन-साध्य संबंध, हृदय परिवर्तन, प्रकृति, धर्म और राजनीति का संबंध, नैतिक अर्थव्यवस्था, सर्वोच्च शुभ, राज्य संबंधी विचार, धर्मनिरपेक्षता एवं सर्वधर्म समभाव, वर्ण-व्यवस्था संबंधी विचार और जातिगत भेदभाव का विरोध शामिल हैं। गांधी के विचारों की वर्तमान प्रासंगिकता की यदि बात की जाए तो आज के जैव रासायनिक तथा परमाणु हथियारों के युग में उनका अहिंसा का आदर्श अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है। प्रकृति को गांधीवादी नजरिये से देखने पर वैश्विक तापन जैसी समस्याएँ कम हो सकती हैं। प्रत्येक व्यक्ति का स्वधर्म भिन्न है। यदि स्वधर्म का पारंपरिक अर्थ न लिया जाए तो हर व्यक्ति की प्रतिभा और रुचियाँ अलग-अलग हैं। व्यक्ति को अपने स्वधर्म के अनुसार ही काम करना चाहिये अर्थात् प्रतिभा और रुचि के साथ काम करना चाहिये, इससे रोजगार से असंतुष्टि की समस्या समाप्त हो जाएगी। शक्ति के विकेंद्रीकरण का सिद्धांत उनके राज्य को कम शक्तियाँ देने के विचार की वकालत करता है। उपर्युक्त सकारात्मक पक्ष होने के बावजूद भी गांधी के विचार वर्तमान में अप्रासंगिक हो चले हैं क्योंकि पूंजीवाद आज की स्वीकृत अर्थव्यवस्था है। यदि आज के दौर में गांधी के नैतिक अर्थव्यवस्था के विचार का पालन किया जाए तो विकास की दौड़ में पीछे रह जाएंगे। गांधी ने वर्ण व्यवस्था को गुरुत्वाकर्षण के नियम की तरह प्राकृतिक और सार्वभौमिक माना, जबकि सच यह है कि आज किसी भी रूप में वर्ण व्यवस्था का समर्थन तर्क के आधार पर नहीं किया जा सकता। गांधी का हृदय परिवर्तन का विाचर पर्याप्त नहीं माना जा सकता, क्योंकि जब गांधी जैसा राष्ट्र नायक सवर्ण हिंदुओं का हृदय परिवर्तन नहीं कर सका तो किसी और से ऐसी उम्मीद करना व्यर्थ है। भूमंडलीकरण के दौर में स्वावलंबी ग्रामीण व्यवस्था का रास्ता अव्यावहारिक प्रतीत होता है। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि गांधी के नैतिक विचार वर्तमान समय में न तो पूर्णतः प्रासंगिक हैं, न ही पूर्णतः अप्रासंगिक। उनके कुछ विचारों में परिवर्तन बदलते समय की मांग है।</s>
<s>[INST]संक्षिप्त टिप्पणी कीजिये- 1. स्व-जागरुकता 2. आत्म-अभिप्रेरण[/INST]उत्तर : 1.स्व-जागरुकताः इसका अर्थ है अपनी भावनाओं, अनुभूतियों, स्वभाव, मूल्यों, उद्देश्यों, क्षमताओं, कमज़ोरियों आदि का स्पष्ट ज्ञान। साथ ही यह भी समझना कि स्वयं के व्यक्तित्व के पक्षों का दूसरों पर क्या प्रभाव पड़ता है। हमारे बहुत से मनोभाव अत्यंत जटिल होते हैं तथा भावनात्मक रूप से बुद्धिमान व्यक्ति उन जटिल मनोभावों तथा उनमें शामिल अनुभूतियों को समझने और बाकी लोगों से खुद को अलग करने में सक्षम रहता है। गोलमैन के अनुसार व्यक्ति के निर्णय तभी सही होंगे जब वह अपने मूल व्यक्तित्व से परिचित होगा। जो व्यक्ति ठीक से यह समझ पाता है कि वास्तव में वह क्या चाहता है, उसके निर्णय सुलझे हुए होते हैं। दूसरी ओर जो व्यक्ति खुद को ठीक से समझ नहीं पाते, उनके अधिकांश निर्णय बाहरी दबावों या तात्कालिक प्रलोभनों पर आधारित रहते हैं और ऐसा हर निर्णय बाद में गलत साबित होता है। 2. आत्म अभिप्रेरणः जब व्यक्ति का उद्देश्य काफी दूर हो तथा उसे बाहर से पर्याप्त अभिप्रेरणाएँ उपलब्ध न हो पा रही हों तो उसमें यह क्षमता होनी चाहिये कि वह स्वयं को निरंतर प्रेरित कर सके। यही आत्म अभिप्रेरण है। इसमें कुछ पक्ष शामिल हैं, जैसे— बीच-बीच में मिलने वाले तात्कालिक लाभों के लालच को रोक पाना। अगर उद्देश्य बहुत बड़ा तथा चुनौतीपूर्ण हो तो कई बार मन में ऐसा भाव आना स्वाभाविक है कि सफलता नहीं मिलेगी। निराशा के ऐसे क्षणों में हार मानने की बजाय उचित समाधान की योजना बनाना। लंबे संघर्ष के दौरान होने वाली थकान व बोरियत से निरंतर जूझते रहना। आत्म-अभिप्रेरण के तरीके हैं— दिनचर्या को ऐसा बनाना कि उसमें मनोरंजन तथा अपनी रुचियों के लिये कुछ समय जरूर बचा रहे। ऐसे समूह में रहना जिसके उद्देश्य समान हों ताकि आपका उद्देश्य सही है इसकी अभिपुष्टि होती रहे। दूसरों की निराशा के क्षणों में उनके साथ खड़ा होना ताकि वे भी आपकी निराशा के क्षणों में आपके साथ खड़े हों। विफलता के डर की सहज अभिव्यक्ति के मार्ग खोजना ताकि वह मानसिक कुंठा न बन जाए, जैसे— किसी अंतरंग मित्र को बताना या कागज पर लिखकर फाड़ देना आदि। अपनी सफलता की संभावनाओं के प्रति सकारात्मक भाव बनाए रखना और आत्म अभिपुष्टि के लिये लिखने या मित्रें से कहने की आदत डालना। इसे Auto suggestive mode कहा जाता है।</s>
<s>[INST]उपयोगितावाद से आप क्या समझते है? संक्षेप में बताइये।[/INST]उत्तर : प्रश्न-विच्छेद उपयोगितावाद को संक्षेप में बताना है। हल करने का दृष्टिकोण प्रभावी भूमिका लिखते हुए उपयोगितावाद के विषय में बताएँ। तार्किक तथा संतुलित विषय-वस्तु लिखते हुए उपयोगितावाद के अर्थ को विश्लेषित करें तथा प्रकारों की चर्चा करें। उपयोगितावाद नीतिशास्त्र का एक आधुनिक सिद्धांत है तथा एक परिणाम सापेक्षवादी विचारधारा है। 18वीं शताब्दी में शेफ्टसबरी व बटलर तथा 19वीं शताब्दी में बेन्थम, मिल और सिज़विक इसके प्रमुख समर्थक माने जाते हैं। उपयोगितावादी मानते हैं कि वही कर्म शुभ है जो सिर्फ व्यक्ति विशेष के हित में न होकर व्यापक सामाजिक हित की पुष्टि करता है। यदि यह संभव नहीं है, तो वह कार्य शुभ है जो अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख को साधने में सहायक है। उपयोगितावाद में शुभ की मूल परिभाषा किसी वस्तु या कार्य की उपयोगिता से तय होती है। जो समाज के लिये उपयोगी है वह शुभ है, और शुभ वही है जो सुख प्रदान करता है। इसीलिये अधिकांश उपयोगितावादी सुखवादी भी हैं। किंतु अगर कोई यह माने कि सुख के अलावा कोई अन्य वस्तु है जो समाज के लिये उपयोगी है तो उपयोगितावाद सुखवाद से पृथक भी हो सकता है हेस्टिंग्स, रैश्डैल का उपयोगितावाद इसी प्रकार का है। किसी कार्य के शुभ या अशुभ होने का निर्णय उसके परिणामों या सामाजिक प्रभावों पर आधारित है। बेन्थम मानते हैं कि कोई कर्म या नियम अधिकतम व्यक्तियों के लिये अधिकतम उपयोगिता रखता है या नहीं इसका एकमात्र पैमाना सुख है। शेष सभी वांछनीय वस्तुएँ सुख के साधन के रूप में ही शुभ हो सकती हैं जैसे-ज्ञान, चरित्र इत्यादि। उपरोक्त आधार पर उपयोगितावाद के निम्न प्रकार हो सकते हैं- सुखवादी उपयोगितावाद- इसके समर्थक मानते हैं कि उपयोगिता का आधार सुख है। आदर्श मूलक उपयोगितावाद- इसमें उपयोगिता की धारणा व्यापक है, उसमें सुख तो शामिल है ही किंतु सुख के अलावा अन्य आधार भी हो सकते हैं जैसे-ज्ञान, सत्य, सद्गुण और चारित्रिक श्रेष्ठता को भी सुख की तरह स्वतः शुभ माना जा सकता है। कर्म संबंधी उपयोगितावाद- इसके अंतर्गत कर्म विशेष के संबंध में तय किया जाता है कि वह समाज के लिये उपयोगी है या नहीं। इसे निम्न दो उप प्रकारों में बाँटा गया है- (i) सीमित कर्म संबंधी उपयोगितावाद (ii) व्यापक कर्म संबंधी उपयोगितावाद। नियम संबंधी उपयोगितावाद- इसमें विशेष कृत्यों की नहीं बल्कि नियमों की उपयोगिता का निश्चय किया जाता है। निकृष्ट उपयोगितावाद- इसमें सुखों में गुणात्मक भेद नहीं माना जाता। उत्कृष्ट उपयोगितावाद- इसमें सुखों में गुणात्मक भेद स्वीकार किया जाता है।</s>
<s>[INST]भावनाओं का प्रबंधन किसी लोक सेवक की सफलता या असफलता का आधार है। स्पष्ट कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न-विच्छेद भावनाओं का प्रबंधन किसी लोक सेवक की सफलता या असफलता का आधार है, स्पष्ट करना है। हल करने का दृष्टिकोण प्रभावी भूमिका लिखते हुए भावनाओं के प्रबंधन को स्पष्ट करें। तार्किक तथा संतुलित विषय वस्तु में भावनात्मक प्रबंधन की सिविल सेवा में भूमिका को बताएँ। भावनाओं का प्रबंधन कैसे एक लोक सेवक की सफलता या असफलता का आधार होता है, इसे स्पष्ट करें। प्रश्नानुसार संक्षिप्त एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें। भावनाओं प्रबंधन भावनात्मक बुद्धिमत्ता का सबसे जटिल पक्ष है। इस क्षमता को साध लेना इस बात का प्रमाण है कि व्यक्ति भावनात्मक बुद्धिमत्ता के ऊँचे स्तर पर है। इसके दो पक्ष हैं- (i) भावनाओं को अभिव्यक्त करने से पहले ही प्रबंधित करना (ii) भावनाओं की अभिव्यक्ति को प्रबंधित करना। किसी लोक सेवक में इस क्षमता को होना अनिवार्य है। वर्तमान में सिविल सेवाओं में तनाव का स्तर ऊँचा है जिसका प्रमुख कारण कल्याणकारी राज्य की निरंतर बढ़ती हुई अपेक्षाएँ, गठबंधन की राजनीति के कारण परस्पर विरोध तथा अतिशय दबाव, सीमित बजट किंतु ऊँचे उद्देश्य, मीडिया का दबाव, सिविल सोसायटी के आंदोलन इत्यादि हैं। भावनात्मक प्रबंधन की क्षमता रखने वाले प्रशासक में एक सामर्थ्य होती है जिससे वह विवादों का रचनात्मक ढंग से समाधान कर सकता है। एक प्रशासक को प्रायः ऐसे कर्मचारियों के साथ काम करना होता है जिनके चयन में उसकी कोई भूमिका नहीं होती है। अतः दूसरे के संवेगों और उनकी अभिव्यक्तियों (क्रोध आदि) को व्यक्तिगत स्तर पर न लेकर अपने व्यवहार को नियंत्रित करना, किसी भी प्रकार की अनिश्चितता अथवा परिवर्तन के साथ अपनी समझ बनाना, निर्णयों को प्रभावित करने वाले नैतिक मूल्यों व विश्वासों को समझना और उनकी पहचान करना, दूसरे व्यक्ति के संवेगों और परिस्थितियों को समझ कर उनके प्रति सहानुभूति प्रकट करना, आदि अनेक ऐसी क्षमताएँ है जिनका विकास करना एक लोक सेवक के लिये आवश्यक है। संवेगात्मक बुद्धि के आधार पर अपने मनोवेगों को सही से जानना समझना और उन्हें काबू में रखकर जनता की समस्याओं के साथ-साथ अपने अधीनस्थों और वरिष्ठ अधिकारियों के व्यवहार पर संतुलित प्रतिक्रिया देना प्रशासन जैसे कठिन तथा बहुआयामी क्षेत्र में किसी लोक सेवक की धारणीयता को बताता है। अतः स्पष्ट है कि भावनात्मक प्रबंधन के माध्यम से एक लोक सेवक जहाँ अपने व्यक्तिगत विकास के साथ-साथ प्रशासन के क्षेत्र में भी सफलता प्राप्त करता है वहीं, इसके न होने से वह दोनों क्षेत्रों में से किसी में भी सफल नहीं हो सकता।</s>
<s>[INST]करुणा से आप क्या समझते हैं? एक प्रशासक के लिये इस गुण के महत्त्व को रेखांकित कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न-विच्छेद करुणा के अर्थ को स्पष्ट करना है। एक प्रशासक के लिये इस गुण के महत्त्व को रेखांकित करना है। हल करने का दृष्टिकोण प्रभावी भूमिका लिखते हुए करुणा का अर्थ स्पष्ट करें। तार्किक तथा संतुलित विषय-वस्तु प्रस्तुत करते हुए मानव जीवन में इसकी भूमिका तथा एक प्रशासक के लिये इसके महत्त्व को स्पष्ट करें। प्रश्नानुसार संक्षिप्त एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें। करुणा को अंतरात्मा का संरचनात्मक गुण कहा गया है। सामान्य भाषा में इसे दया, प्रेम और संवेदना कहा जाता है जो कि काफी हद तक समानुभूति से साम्य रखता है। कुछ मायनों में यह समानुभूति से भी एक कदम आगे प्रतीत होता है जिसमें दूसरों की तकलीफों/दुखों को समझने के साथ ही उन्हें उस दुख या तकलीफ से मुक्ति दिलवाने की तीव्र इच्छा विद्यमान होती है। भारतीय दर्शन में करुणा का बोध उन सब विकृतियों को पैदा होने से रोकता है जो कि दर्शन में विवेक और बुद्धि की जिम्मेदारियाँ हैं, अर्थात् करुणा की मात्रा मनुष्य में लोभ, मोह और लालच को घटाकर उसे निस्पृह और निष्पक्ष बनाती है। महापुरुषों की यही करुणा उनके अवतारों की कहानी बन जाती है। बुद्ध ने भी करुणा को मनुष्य का पहला और अंतिम गुण बताया है। सामान्य जीवन में एक करुणामय व्यक्ति के व्यक्तित्व में दूसरों को कष्ट से मुक्ति दिलाने का भाव होता है। वह दूसरों की मदद इसलिये नहीं करता कि यह उसके लिये बाध्यता है बल्कि वह इसे अपनी इच्छा से करता है। वह समझता है कि शायद वे लोग उतने भाग्यशाली नहीं हैं जितना कि वह, इसलिये वह अपनी दयालुता के बदले किसी से कुछ पाने की उम्मीद नहीं करता। यह सहज दयाभाव ही मनुष्य को पशुता से ऊपर उठाता है और वह पशुओं से भी प्यार करने लगता है। प्रशासन के क्षेत्र में करुणा एक अभिवृत्ति है जो एक लोक सेवक को जनता से जोड़ने तथा उसे लोक सेवा का अर्थ समझने में सहायता करती है। कठोर-से-कठोर और क्रूर-से-क्रूर कार्य करते समय भी करुणा एक कवच बनकर किसी भी प्रशासक की रक्षा करती है। यदि एक प्रशासक करुणा को मानव गुण के रूप में धारण कर लेता है, तो उसे किसी प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं रहेगी। अतः करुणा एक ऐसा गुण है जो किसी मनुष्य को उसकी चेतना के सामान्य स्तर से ऊपर उठाकर उसे जनहित में कार्य करने को प्रेरित करता है।</s>
<s>[INST]अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के संदर्भ में आदर्शवादी सिद्धांत से आप क्या समझते हैं? संक्षेप में बताइये।[/INST]उत्तर : प्रश्न-विच्छेद अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के आदर्शवादी सिद्धांत को बताना है।। हल करने का दृष्टिकोण अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में आदर्शवाद को स्प्ष्ट करें। सिद्धांत की संक्षिप्त व्याख्या करें। अंत में प्रश्नानुसार संक्षिप्त एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें। आदर्शवाद ऐसी भावना है जो किसी व्यक्ति या समूह को अपने आस-पास व्याप्त मानकों की तुलना में उदात्त नैतिक मानक अपनाने के लिये प्रेरित करती है। अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में आदर्शवाद राष्ट्रों या राज्यों के शासकों के बीच के संबंधों को अनुशासित करता है। प्राचीन काल में युद्ध करना प्रचलित कार्य था परंतु समय बीतने के साथ-साथ वे मानदंड बन गए जो युद्ध के आचरणों को युद्ध-बंदियों के साथ, हारे हुए या आत्मसमर्पण करने वालों के साथ किये जाने वाले व्यवहार को विनियमित करते थे। नैतिक विचारकों ने युद्धों में होने वाली अनियंत्रित क्रूरता की निंदा की जिस कारण नैतिक सिद्धांतों के पालन में आदर्शवाद उन संधियों के लिये भी प्रासंगिक हो गया जिनसे युद्ध समाप्त हो जाते थे या दो शासकों के मध्य करारनामे हो जाते थे। अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के संदर्भ में काण्ट द्वारा की गई टिप्पणियों के माध्यम से आदर्शवाद को और स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है, जो कि निम्न है- कोई भी देश, दूसरे देश के आंतरिक मामलों में ज़बरदस्ती हस्तक्षेप नहीं करेगा। देशों को सामंती मालिक तथा मातहतों के सिद्धांत के अनुसार बाँटना घातक होगा। युद्ध के दौरान कोई भी देश विरोध के ऐसे कार्यों की अनुमति नहीं देगा जिनसे बाद में होने वाली शांति में विश्वास करना असंभव हो जाए। सरकारों को सेना तथा हथियारों पर खर्चों को कम करना चाहिये। काण्ट की तरह 1920-30 के दशक में अनेक आदर्शवादियों ने अपने विचार प्रस्तुत किये। इनका उद्देश्य शांति को सुनिश्चित करना तथा एक अन्य विश्व युद्ध से बचना, अंतर्राष्ट्रीय संगठनों द्वारा समर्पित अंतर्राष्ट्रीय कानून की प्रणाली को विकसित करना, आदि था। अतः अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में आदर्शवाद अंतर्राष्ट्रीय सरकारों के मध्य सामंजस्य की स्थापना एवं युद्धों को रोकने का सशक्त माध्यम हो सकता है।</s>
<s>[INST]नैतिकता से संबंधित तीन सिद्धांतों- उपयोगितावाद, परोपकारिता और अहंवाद में उदाहरण सहित अंतर स्पष्ट करें।[/INST]उत्तर : उपयोगितावादः यह सिद्धांत ‘अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख’ की बात करता है। इस सिद्धांत अनुसार यदि किसी कार्य के होने से उससे प्रभावित लोगों में से अधिकतम लोग प्रसन्नता महसूस कर रहे हैं, तो वह कार्य नैतिक तौर पर उचित है। उदाहरण के तौर पर यदि सरकार एक जल-परियोजना के तहत ‘बांध’ का निर्माण करना चाहती है, जिससे उस राज्य के कुछ गाँव तो पानी में डूब जाएंगे परंतु राज्य के अधिकतर क्षेत्रों को सिंचाई के लिये जल व उपयोग हेतु विद्युत उपलब्ध हो सकेगी, तब उपयोगितावाद अनुसार सरकार द्वारा बांध का निर्माण करना नैतिक तौर पर उचित है, चाहे कुछ गाँव पानी में डूब जाएँ। बेंथम और मिल इस सिद्धांत के समर्थक हैं। परोपकारिताः परोपकारिता या परहितवाद वह सिद्धांत है जिसके अनुसार व्यक्ति को सदैव दूसरों के हितों को अपने स्वयं के हितों से ऊपर रखना चाहिये। परोपकारिता को अक्सर नैतिकता के केंद्रस्थ माना जाता है। इसमें व्यक्ति अपनी खुशी को दूसरों की खुशियों में खोजता है और दूसरों के हित में सदैव समर्पित रहता है। उदाहरण के लिये तेलंगाना राज्य के खम्मम जिले के एक छोटे से गाँव के दरिपल्ली रमैया वर्षों से अपनी जेब में बीज और साइकिल पर पौधे रखकर जिले का लंबा सफर तय करते हैं और जहाँ कहीं भी खाली भूमि दिखती है, वहीं पौधे लगा देते हैं। उन्होंने हजारों पेड़ों से अपने इलाके को हरा-भरा कर दिया है। वे ऐसा पूरे समाज व भविष्य की पीढ़ियों के लिये निःस्वार्थ भाव से कर रहे हैं। एक बार एक व्यक्ति ने रमैया को उसके काम से खुश होकर उनके बेटे की शादी पर 5000 रुपए दिये, परंतु रमैया ने उन पैसों को भी वृक्षारोपण के कार्य को आगे बढ़ाने में लगा दिया। अहंवादः अहंवाद या आत्म-केंद्रण ऐसी अभिरूचि है जिसके द्वारा कोई व्यक्ति अपने कल्याण को विशेष दर्जा देता है। अहंवादी का मूल उद्देश्य स्वयं के लिये आनन्द की प्राप्ति होती है। स्वार्थवाद और अहंवाद में मुख्य अंतर यही है कि जहाँ स्वार्थवादी अपने अलावा अपने संबंधितों के ‘स्वार्थों’ की प्राप्ति के लिये भी कार्य कर सकता है, वहीं अहंवादी केवल स्वयं के स्वार्थपूर्ति तक सीमित रहता है। उदाहरण के तौर पर उद्योगपति विजय माल्या आम जनता की बैंकों में जमा पूंजी को बैंकों से उधार लेकर, गबन कर ‘राजा जैसी जीन्दगी’ जी रहा है और उसे अपने कृत्य का बिलकुल भी अफ़सोस नहीं है। उपयोगितावादियों का मानना है कि सभी मानव बिलकुल ही स्वार्थी, अहंवादी नहीं होते और न ही दूसरों के आनंद/सुख के प्रति पूर्णतः उदासीन होते हैं क्योंकि सहानुभूतियाँ और सामाजिक अनुभूतियाँ मानव चरित्र में समाहित रहती है और मानव को अहंवाद से बाहर निकालने में सहायक होती हैं।</s>
<s>[INST]'हमें ईमानदारी से यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिये कि हमारा ज्ञान सीमित और सापेक्ष है।' इस कथन के संदर्भ में महावीर के स्यादवाद के सिद्धांत का विश्लेषण करें तथा वर्तमान में इसकी प्रासंगिकता पर चर्चा करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न-विच्छेद महावीर के स्यादवाद के सिद्धांत का विश्लेषण करना है। वर्तमान में इसकी प्रासंगिकता पर चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण प्रभावी भूमिका लिखते हुए प्रश्नगत कथन के संदर्भ में स्यादवाद के सिद्धांत को संक्षेप में बताएँ। तार्किक तथा संतुलित विषय-वस्तु में सिद्धांत का विश्लेषण करें तथा वर्तमान में इसकी प्रासंगिकता को बताएँ। प्रश्नानुसार संक्षिप्त एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें। जैन धर्म में स्यादवाद का सिद्धांत महावीर का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान माना जाता है जिसका अर्थ है हमारा ज्ञान सीमित और सापेक्ष है तथा हमें ईमानदारी से इसे स्वीकार करते हुए अपने ज्ञान के असीमित और अप्रश्नेय होने के निरर्थक दावों से बचना चाहिये। वस्तुतः ‘स्यादवाद’ मूलतः ‘स्यात्’ शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है ‘संभवतः’ या ‘हो सकता है’। किंतु महावीर ने इस शब्द का प्रयोग जिस अर्थ में किया है वह ‘सापेक्षतः’ है। सापेक्ष वह अवधारणा है जिसका अर्थ ‘वह, जो किसी से प्रभावित है’ से लिया जाता है; वहीं इसके विपरीत ‘निरपेक्ष’ का अर्थ , ‘वह, जो किसी से प्रभावित नहीं है’, से लिया जाता है। महावीर का स्यादवाद का सिद्धांत ज्ञान को सापेक्ष मानता है, अर्थात् हमारे पास जो ज्ञान है वह निरपेक्ष न होकर सापेक्ष है। यदि हम ऐसे ज्ञान का दावा करते हैं जिसके हर स्थिति में सही होने की गारंटी है तो हम अपने निरपेक्ष ज्ञान का दावा करते हैं और अगर यह मान लेते हैं कि हमारा ज्ञान विशेष परिस्थितियों के अनुसार ही सत्य है और स्थितियाँ बदलने पर यह गलत साबित हो सकता है तो हम ज्ञान की सापेक्षता स्वीकार करते हैं। साधारण मनुष्यों में संपूर्ण वास्तविकता को पहचानने की शक्ति नहीं होती। वे यह समझ ही नहीं पाते कि उनकी बातों में कोई सार है भी कि नहीं और इसी भ्रम में फँसकर अपने सीमित ज्ञान को ही पूर्ण निरपेक्ष ज्ञान की तरह प्रस्तुत करते हैं जो कि हास्यास्पद होता है। उदाहरणार्थ, जब कोई ईश्वरवादी बिना किसी प्रमाण या तथ्य के ईश्वर के होने की गारंटी देता है तो वह अपने सापेक्ष ज्ञान या समझ को निरपेक्ष मानने की भूल करता है। इसी प्रकार, जब कोई निरीश्वरवादी इस बात का दावा करता है कि ईश्वर नहीं है और यह जगत किसी संयोग से विकसित हुआ है तो भी वह अपनी सापेक्ष समझ को निरपेक्ष मानकर दूसरों पर थोपने का हास्यास्पद प्रयास करता है। इस संबंध में महावीर सुझाते हैं कि मनुष्य को अपने हर दावे से पहले यह स्पष्ट कर देना चाहिये कि उसकी बात सापेक्ष रूप में सही है। सरलतम शब्दों में व्यक्ति को अपनी राय देते हुए कुछ सापेक्षता सूचक वाक्यांशों जैसे ‘जहाँ तक मैं समझता हूँ’, ‘मेरा मानना है’, ‘मेरे ख्याल से’, ‘जितनी जानकारी मेरे पास है उसके अनुसार’ आदि का प्रयोग करते रहना चाहिये। ऐसी भाषा से विनम्रता तो झलकती ही है, साथ ही यह खतरा भी नहीं रहता कि व्यक्ति की बात गलत साबित होगी। महावीर का स्यादवाद का सिद्धांत वर्तमान के लिये ज़रूरी है। आज दुनिया के तमाम विवाद, जैसे— सांप्रदायिकता, आतंकवाद, नस्लवाद, नक्सलवाद, जातिवाद आदि के पीछे मूल बुनियादी समस्या यही है कि कोई भी व्यक्ति, देश या संस्था अपने दृष्टिकोण से जरा भी पीछे हटने को तैयार नहीं है। सभी को लगता है कि अंतिम सत्य उन्हीं के पास है, दूसरे के पक्ष को सुनने और समझने का धैर्य किसी के पास नहीं है और वे अपने निरपेक्ष ज्ञान के झूठे दावों के चलते दूसरे की जान लेने से भी नहीं कतराते। इस दृष्टि से चाहे इस्लामिक स्टेट जैसा अतिवादी समूह हो या किसी भी विचारधारा को कट्टर रूप में मानने वाला कोई अन्य समूह, सभी के साथ मूल समस्या नज़रिये की है। स्यादवाद को स्वीकार करते ही हमारा नैतिक दृष्टिकोण बेहतर हो जाता है तथा यह मान लेते हैं कि हम न तो पूरी तरह से सही हैं और न ही दूसरे पूरी तरह से गलत। हम उनके विचारों को स्वीकार करने लगते हैं, फलस्वरूप दो विरोधी समूहों के बीच सार्थक संवाद की गुंजाइश बन जाती है। अतः स्पष्ट है कि महावीर का स्यादवाद का सिद्धांत नैतिक जीवन के लिये व्यावहारिक है और वर्तमान के लिये प्रासंगिक भी।</s>
<s>[INST]वस्तुनिष्ठता से आप क्या समझते हैं? संक्षेप में बताइये।[/INST]उत्तर : प्रश्न-विच्छेद वस्तुनिष्ठता को संक्षेप में बताना है। हल करने का दृष्टिकोण प्रभावी भूमिका के साथ उत्तर-लेखन की शुरुआत करें। तार्किक एवं संतुलित विषय-वस्तु प्रस्तुत करें। प्रश्नानुसार संक्षिप्त एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें। वस्तुनिष्ठता शब्द का प्रयोग दर्शन, विधि तथा नीतिशास्त्र जैसे विषयों में विशिष्ट अर्थों में होता है। इसका सामान्य अर्थ है कि व्यक्ति को कोई निर्णय करते समय उन सभी आधारों से मुक्त होना चाहिये जो उसकी व्यक्तिगत चेतना में शामिल हैं, जैसे उसकी विचारधारा, कल्पनाएँ, दृष्टिकोण, पूर्वाग्रह, रूढ़ धारणाएँ, मान्यताएँ इत्यादि। दूसरे शब्दों में, वही नैतिक कथन वस्तुनिष्ठ कहलाएगा जिसकी सत्यता की स्थितियाँ किसी भी व्यक्ति विशेष के मस्तिष्क से स्वतंत्र हो। प्रशासन में वस्तुनिष्ठता का आदर्श जितना आवश्यक है उतना ही इसका यथार्थ भी विचारणीय होता है। यह एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण है जिसके माध्यम से प्रशासन में आदर्श और यथार्थ की स्थितियों के कारण परिणाम पैदा होते हैं। वस्तुनिष्ठता ईमानदारी के परिणाम देती है, क्योंकि यह ‘पक्ष’ अथवा ‘स्व’ के विश्लेषण से मुक्त होती है तथा इसे कानून की भावना के अधिक निकट माना जाता है। वस्तुनिष्ठता मूल्य-शून्यता नहीं है, वरन् अपने आत्मपरक मूल्यों को बाहर निकाल कर केवल वस्तुओं या तथ्यों को जोड़ना है। यह एक कठिन कार्य है क्योंकि व्यक्ति की आत्मपरकता उसकी बुद्धि को वस्तुपरक नहीं बनने देती है। अतः वस्तुपरक गतिविधियों को समझने के लिये गंभीर बौद्धिक प्रयास करना पड़ता है।</s>
<s>[INST]निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिये— 1. आत्मनियमन 2. समानुभूति[/INST]उत्तर : आत्मनियमनः इसका अर्थ है अपनी भावनाओं का स्वभाव, उनकी तीव्रता तथा उनकी अभिव्यक्ति को प्रबंधित करना। इसके तीन पक्ष हैं— 1. यदि भावना की प्रकृति उचित नहीं है तो उसे अभिव्यक्त होने से रोक देना। जैसे— बहुत क्रोध होने पर मन में हिंसा का भाव आए तो उसे रोक देना। 2. यदि भावना सही है किंतु उसकी तीव्रता गलत है तो उस तीव्रता को संतुलन के स्तर पर ले जाना। जैसे यदि कोई कर्मचारी रोज देर से आता हो तो उसे सीधे निलंबित करने का भाव मन में लाने की जगह उतनी ही तीव्रता रखना जितना उचित है। 3. भावनाओं को अभिव्यक्ति देते समय ध्यान रखना कि कहीं अभिव्यक्ति की अधिकता स्वयं एक समस्या न बन जाए। जो लोग अपने क्रोध को नियंत्रित नहीं कर पाते जीवन में उनकी सफलता की संभावनाएँ अत्यंत धूमिल हो जाती हैं। क्योंकि उनके क्रोधी स्वभाव के कारण लोग उनसे बात करना पसंद नहीं करते। अतः व्यक्ति को अपनी भावनाओं पर नियंत्रण के साथ ही संतुलन भी स्थापित करना चाहिये। वही आत्मनियमन है। समानुभूतिः समानुभूति का अर्थ है— दूसरों की अनुभूतियों और भावनाओं को सटीक रूप से पढ़ने की क्षमता, चाहे वह व्यक्ति अपनी भावना को छिपाना चाहता हो। किसी की मनःस्थिति को जानने के बाद उस जानकारी का प्रयोग सही निर्णय लेने के लिये किसी व्यक्ति का मूल्यांकन करते हुए खुद को उसकी जगह रखकर यह समझने का प्रयास करना कि वह ऐसा क्यों कर रहा है। इस प्रकार समानुभूति की क्षमता एक नैतिक गुण है जो व्यक्तित्व की ग्रहणशीलता, ईमानदारी और दूसरों की जिंदगी को समझने का एक रचनात्मक प्रयास है। यह क्षमता केवल मनुष्य में ही है और इसे चेतना का स्तर कहा जा सकता है।</s>
<s>[INST]किसी संगठन में नैतिकता के मानकों को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारकों की संक्षिप्त चर्चा करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा : नैतिकता के मानक क्या हैं? इसे प्रभावित करने वाले कारक। किसी संगठन में नैतिकता के मानकों को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारकों में हम निम्नलिखित की गणना कर सकते हैं- संगठन में प्रचलित परंपराएँ तथा पूर्ववर्ती दृष्टांत। संगठन में व्याप्त आंतरिक औपचारिक-अनौपचारिक संबंध। अनुशासनात्मक कार्यवाही की प्रभावशीलता। संगठन में संचार के माध्यम तथा पद्धतियाँ। उस समाज में प्रचलित नैतिक मूल्य तथा मानक। संगठन की सामाजिक छवि एवं प्रतिष्ठा। संगठन में पेशेवर चेतना लाने हेतु प्रशिक्षण की स्थिति। सेवा शर्तों (वेतन, अवकाश तथा पेंशन इत्यादि) की सुदृढ़ता। परिवर्तन के प्रति लोगों का दृष्टिकोण आदि। उपरोक्त बिंदुओं से स्पष्ट है कि संगठन में नैतिकता कई कारकों द्वारा निर्धारित होती है। वस्तुतः संगठनात्मक स्तर पर नैतिकता से आशय यह जानने से है कि संगठन के किसी कृत्य से किसे लाभ हो रहा है? कौन हानि उठा रहा है? यह संगठन किसके लिये है? इसे किसके लिये होना चाहिये? प्रबंधन विद्वानों का मानना है कि संगठन में नैतिकता एक प्रकार से गोंद (चिपकाने) या प्रगाढ़ता का कार्य करती है। नैतिकता के मापदंड अपनाकर ही कोई संगठन समाज के साथ दीर्घावधि तक संबंध बनाए रख सकता है।</s>
<s>[INST]‘कार्पोरेट सामाजिक जवाबदेही’(CSR) की संक्षिप्त चर्चा करते हुए भारत में इससे संबंधित नियमों तथा इस क्षेत्र में हुई प्रगति पर टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा : कार्पोरेट सामाजिक जवाबदेही’से क्या आशय है ? भारत में इससे संबंधित प्रवधान क्या है? इस क्षेत्र में हुई प्रगति का उल्लेख। सामान्य अर्थो में ‘कार्पोरेट सामाजिक जबावदेही’(CSR) कार्पोरेट घरानों का समाज के प्रति उत्तरदायित्व तथा जबावदेही को दर्शाता है। CSR व्यापारिक और औद्योगिक कंपनियों द्वारा अपनाया गया स्व-नियंत्रण है जिसके अंतर्गत वे ऐसे व्यापारिक मॉडल के अनुसार काम करती हैं जो कानून-सम्मत, नैतिक मानकों एवं अंतर्राष्ट्रीय रीति के अनुकूल हों। इसके अंतर्गत कंपनी द्वारा कुछ ऐसे कार्य किये जाते हैं जो पर्यावरण, आम जनता, उपभोक्ता, कर्मचारी तथा शेयरधारकों पर कुछ सकारात्मक प्रभाव डाले। भारत में CSR से संबंधित निश्चित कानूनी प्रावधान किये गए हैं। भारत विश्व का पहला देश है जहाँ कंपनियों को CSR पर निश्चित राशि खर्च करने की बाध्यता है। कंपनी एक्ट-2013 की धारा 135 CSR के संबंध में बात करती है। इसके अनुसार- प्रत्येक कंपनी जिसकी निवल संपत्ति 500 करोड़ या अधिक अथवा कारोबार 1000 करोड़ या अधिक अथवा किसी वित्तीय वर्ष में निवल लाभ 5 करोड़ या अधिक है, वह एक कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व समिति का गठन करेगी, जिसके बोर्ड में तीन या अधिक निदेशक होंगे और जिसमें कम-से-कम एक स्वतंत्र निदेशक होगा। यह बोर्ड CSR की रचना के संबंध में निर्णय लेगा। कंपनियों को अपने कुल निवल लाभ का 2% CSR पर खर्च करना अनिवार्य है। CSR के तहत गरीबी उन्मूलन, कुपोषण से मुक्ति, भुखमरी से मुक्ति, स्वास्थ्य स्वच्छता शिक्षा, पर्यावरण संरक्षण आदि के क्षेत्र में कार्य किये जा सकते हैं।</s>
<s>[INST]आप एक दवा निर्माता कंपनी में कार्यकारी अधिकारी के रूप में कार्यरत हैं। कुछ ही दिनों पूर्व से लोग डेंगू के प्रकोप के कारण मृत्यु का शिकार हो रहे हैं। ऐसे में डेंगू की रोकथाम के लिये किसी विशेषीकृत टीके की मांग बढ़ती जा रही है। आपकी कंपनी डेंगू की रोकथाम के लिये टीका तैयार करने का निर्णय लेती है। कुछ दिनों के बाद आपको पता चलता है कि आपकी कंपनी गरीब लोगों को इलाज़ का लालच देकर अवैध रूप से टीके का परीक्षण कर रही है जिसके परिणामस्वरूप कुछ लोगों की मृत्यु हो चुकी है और उनको पर्याप्त मुआवज़ा भी नहीं दिया जा रहा है। आप जब अपने सीनियर्स से बात करते हैं तो वे आपसे चुप रहने को कहते हैं। इसके अलावा, आपको पता चलता है कि इसके पीछे बड़ा तंत्र कार्य कर रहा है। (a) ऐसी स्थिति में आपकी क्या-क्या कार्रवाइयाँ होगी? (b) सभी कार्रवाइयों के गुणों-अवगुणों का उल्लेख करते हुए बताएँ कि आपकी सर्वोत्तम कार्रवाई क्या होगी?[/INST]उत्तर : (a) ऐसी स्थिति में आपकी क्या-क्या कार्रवाइयाँ होगी? केस स्टडी में दी गई परिस्थितियों के अनुसार मेरे पास कार्रवाई के निम्नलिखित विकल्प होंगेः जो कुछ हो रहा है और जो सीनियर्स कह रहे हैं, उनकी बातों को मानते हुए, चुप रहूंगा। मैं इस संबंध में लोगों को जागरूक करूंगा और कंपनी के विरुद्ध आंदोलन करने के लिये लोगों को उकसाऊंगा। राष्ट्रीय/राज्य मानवाधिकार आयोग को इस बारे में सूचित करूंगा। राष्ट्रीय ड्रग मानक नियंत्रण संगठन को अपनी रिपोर्ट गुप्त तरीके से भेजूंगा। मीडिया और मानवाधिकारों के लिये कार्य करने वाले संगठनों को सूचित करूंगा। (b) सभी कार्रवाइयों के गुणों-अवगुणों का उल्लेख करते हुए बताएँ कि आपकी सर्वोत्तम कार्रवाई क्या होगी? विकल्प (1): इससे मैं किसी भी ऐसी कार्रवाई से बच सकूंगा जो मेरे कॅरियर के लिये अशुभ हो। इसके अलावा, दवा की आवश्यकता को देखते हुए, ऐसे परीक्षणों से कंपनी जल्द सफलता प्राप्त कर सकती है, जो बहुत से लोगों की जान बचा सकती है। किंतु गलत कार्य में साथ देना खुद को अनैतिक कार्यों में सहयोगी बनाना है। यह मेडिकल एथिक्स के विरुद्ध है। विकल्प (2): यह एक सही विकल्प हो सकता है क्योंकि लोगों को दवा परीक्षणों के वास्तविक प्रभावों के बारे में जानकारी नहीं दी गई। इससे उन्हें उचित मुआवजा प्राप्त हो सकेगा तथा कंपनी के विरुद्ध उचित कार्रवाई हो सकेगी। किंतु यह विकल्प चुनना सीधे-सीधे कंपनी के विरुद्ध खड़ा होना है, जो न केवल कॅरियर को दाँव पर लगा देगा बल्कि आवश्यक दवा के निर्माण की प्रक्रिया को भी समाप्त कर सकता है। विकल्प (3): इस विकल्प को चुनने से लोगों के मानवाधिकारों का संरक्षण हो सकेगा किंतु इस विकल्प की अपनी सीमा है। यह प्रत्यक्षतः दवा परीक्षण को नियंत्रित नहीं कर सकता। विकल्प (4): यह एक उचित विकल्प हो सकता है क्योंकि इसमें दवा के परीक्षण संबंधी प्रक्रिया में खामियाँ हैं। यदि सही कानून का पालन किया जाता है तो यह कंपनी और लोगों दोनों की दृष्टि से उचित विकल्प होगा। विकल्प (5): यद्यपि में विकल्प (4) को ही चुनूंगा किंतु जैसी केस स्टडी में संभावना व्यक्त की गई है कि इसके पीछे एक बड़ा तंत्र कार्य कर रहा है, तो संभव है विकल्प (4) कार्य न करे। अंततः मैं विकल्प (5) चुनूंगा ताकि वास्तविकता लोगों के सामने आ सके।</s>
<s>[INST]उच्च न्यायपालिका से संबंधित हालिया विवाद ने न्यायपालिका की साख व गरिमा को दुष्प्रभावित किया है। इस प्रकरण से संबंधित नैतिक मुद्दों की जाँच करें, साथ ही न्यायपालिका की गरिमा को सुनिश्चित करने के लिये कुछ प्रमुख उपायों की चर्चा करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा न्यायपालिका के कुछ विवादों का संक्षिप्त परिचय संबंधित नैतिक मुद्दे सुधार हेतु उपाय हाल के वर्षों में उच्च न्यायपालिका (सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालय) से संबंधित विवाद तथा उजागर हुए कुछ भ्रष्टाचार के मामलों ने न्यायपालिका की साख व गरिमा को गहरे स्तर पर दुष्प्रभावित किया है। आज न्यायपालिका में भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, अनियमितता ने लोकतंत्र के इस महत्त्वपूर्ण स्तंभ को कमज़ोर किया है और परिणामस्वरूप न्यायपालिका की विश्वसनीयता कम हुई है। हाल ही में न्यायपालिका की साख उस समय एक बार पुनः संदेह के घेरे में आ गई जब सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ जजों ने मीडिया के समक्ष आकर ‘चीफ जस्टिस’ के कार्यों के प्रति असहमति व असंतोष जताया। यह देश के इतिहास में पहली घटना है जब सर्वोच्च न्यायालय के जजों का आंतरिक विवाद मीडिया के समक्ष आया। इस प्रकरण ने कई नैतिक प्रश्नों को जन्म दिया। जैसे- पारदर्शिता व उत्तरदायित्व का अभाव। भावनात्मक बुद्धिमता की कमी। अविश्वास तथा सामंजस्य का अभाव। संस्था की सत्यनिष्ठा दुष्प्रभावित। केसों के अभिमान्य आवंटन से न्याय के रक्षक के रूप में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका पर संदेह। सर्वोच्च न्यायालय देश में न्याय व संविधान का सर्वप्रमुख रक्षक है। आम जनता में इसे उच्च सम्मान व गरिमा प्राप्त है। अतः इसकी गरिमा व प्रतिष्ठा को बनाए रखने की जिम्मेदारी सभी की है, इस संबंध में निम्नलिखित प्रयास किये जा सकते हैं- मुकदमों के आवंटन में नई रोस्टर प्रणाली अपनाई जा सकती है। ताकि आवंटन में पारदर्शिता का अनुपालन हो सके। वस्तुनिष्ठ आधारों पर प्रमुख नीतिगत फैसले लिये जाएँ। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्यायाधीशों के आचार संहिता के संबंध में दिये गए निर्णय का अनुपालन हो। न्यायाधीशों को मीडिया व राजनीतिक मामले तथा वाद-विवादों से दूर रहना चाहिये। न्यायाधीशों को कार्यकाल के दौरान व इसकी समाप्ति के बाद किसी दल, संघ, क्लब, सोसाइटी आदि से नहीं जुड़ना चाहिये।</s>
<s>[INST]ट्रोलिंग से आप क्या समझते हैं? इससे संबंधित नैतिकता के मुद्दों की चर्चा करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा : ट्रोलिंग का संक्षिप्त परिचय ट्रोलिंग से संबंधित क्या नैतिक मुद्दे हो सकते है ? इंटरनेट की दुनिया में ट्रोल का मतलब उन लोगों से होता है, जो किसी भी मुद्दे पर चल रही चर्चा में कूदते हैं और आक्रामक, अनर्गल व भड़काऊ बातों से लोगों को विषय से भटका देते हैं। इनका मुख्य उद्देश्य होता है पाठकों की भावुक प्रतिक्रिया तथा उत्तेजना को जन्म देना जिससे आक्रामक भावनात्मक प्रतिक्रिया की आड़ में मुख्य मुद्दे खो जाएँ अथवा गौण हो जाएँ। वर्त्तमान समय में ट्रोलिंग ने कई नैतिक चिंताओं को जन्म दिया है। ट्रोलिंग एक प्रकार की वैचारिक हिंसा है जिसके प्रभाव को कमतर आँकना एक बड़ी भूल होगी। सोशल मीडिया पर अश्लील कमेंट करना तथा किसी की निजी जिंदगी पर भद्दी टिप्पणी करना आज आम चलन सा हो गया है। आज सोशल मीडिया की पहुँच व प्रभाव संचार के किसी अन्य साधन से अधिक है और ट्रोल आमजन तक पहुँच के इस साधन को दुष्प्रभावित करने का एक बड़ा जरिया है। कई कंपनियाँ राजनीतिक दल व सरकारें अपने ट्रोल्स के माध्यम से सोशल मीडिया पर अपने फायदे के लिये आमजन की राय को प्रभावित करते हैं। फिर जहाँ एक ओर सोशल मीडिया ने आमजन को ताकतवर बनाया है वहीं, ट्रोल्स ने इसकी विश्वसनीयता पर महत्त्वपूर्ण प्रश्नचिह्न लगाया है। इसके अतिरिक्त ट्रोलिंग के क्रम में महिलाओं पर की जाने वाली गंदी व भद्दी टिप्पणियों ने भी समाज के नैतिक मानकों के समक्ष एक महत्त्वपूर्ण चुनौती उपस्थित की है।</s>
<s>[INST]मूल्य से आप क्या समझते हैं? अभिवृत्ति तथा मूल्य के बीच के संबंध को स्पष्ट करते हुए यह दर्शाएँ कि मूल्य किस प्रकार अभिवृत्ति को प्रभावित करते हैं?[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा : मूल्य क्या है ? अभिवृत्ति तथा मूल्य के बीच के संबंध क्या है? मूल्य किस प्रकार अभिवृत्ति को प्रभावित करते हैं? मूल्य एक मानक या मानदंड है। मूल्य किसी समाज या संगठन के उस उच्चतम स्तर को दर्शाता है जिसे प्राप्त करना उस समाज या संगठन का सर्वप्रमुख लक्ष्य होता है। यह व्यक्ति के व्यक्तित्व तथा सामाजिक व्यवस्था के साथ बहुत गहराई से जुड़ा होता है। यह हमारे जीवन के उद्देश्यों और उन्हें प्राप्त करने के साधनों को परिभाषित करता है। हमारे जीवन की जितनी भी उद्देश्यपूर्ण गतिविधियाँ होती हैं वे सभी मूल्यों से ही जुड़ी होती हैं। व्यक्ति के आचरण अथवा व्यवहार पर अभिवृत्ति तथा मूल्य दोनों का प्रभाव पड़ता है और वे दोनों व्यक्ति के अर्जित गुण हैं तथा दोनों में भावनात्मक पक्ष प्रधान होता है तथापि दोनों में कई मूलभूत अंतर हैं जिसे हम निम्नलिखित रूपों में देख सकते हैं। अभिवृत्ति की तुलना में मूल्य अधिक स्थिर होता है, परिणामस्वरूप मूल्य में परिवर्तन अपेक्षाकृत कठिन होता है। अभिवृत्ति की तुलना में मूल्य में भावनात्मक पक्ष अधिक प्रबल होता है। मूल्य में पहचान अथवा आत्मीकरण की प्रधानता होती है लेकिन अभिवृत्ति में नहीं। अभिवृत्ति के निर्माण पर मूल्य का निश्चित प्रभाव पड़ता है। इसे हम धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक आदि मूल्यों के प्रभाव से निर्मित अभिवृत्ति के संदर्भ में समझ सकते हैं। इसे हम उदाहरणों से अधिक स्पष्ट रूप में समझ सकते हैं। मान लीजिये किसी समाज का धार्मिक मूल्य पशु की सेवा से जुड़ा है तो इस बात की प्रबल संभावना है कि उस समाज के लोगों में पशु हिंसा के प्रति नकारात्मक अभिवृत्ति का विकास होगा। </s>
<s>[INST]मूल्य से आप क्या समझते हैं? अभिवृत्ति तथा मूल्य के बीच के संबंध को स्पष्ट करते हुए यह दर्शाएँ कि मूल्य किस प्रकार अभिवृत्ति को प्रभावित करते हैं?[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा : मूल्य क्या है ? अभिवृत्ति तथा मूल्य के बीच के संबंध क्या है? मूल्य किस प्रकार अभिवृत्ति को प्रभावित करते हैं? मूल्य एक मानक या मानदंड है। मूल्य किसी समाज या संगठन के उस उच्चतम स्तर को दर्शाता है जिसे प्राप्त करना उस समाज या संगठन का सर्वप्रमुख लक्ष्य होता है। यह व्यक्ति के व्यक्तित्व तथा सामाजिक व्यवस्था के साथ बहुत गहराई से जुड़ा होता है। यह हमारे जीवन के उद्देश्यों और उन्हें प्राप्त करने के साधनों को परिभाषित करता है। हमारे जीवन की जितनी भी उद्देश्यपूर्ण गतिविधियाँ होती हैं वे सभी मूल्यों से ही जुड़ी होती हैं। व्यक्ति के आचरण अथवा व्यवहार पर अभिवृत्ति तथा मूल्य दोनों का प्रभाव पड़ता है और वे दोनों व्यक्ति के अर्जित गुण हैं तथा दोनों में भावनात्मक पक्ष प्रधान होता है तथापि दोनों में कई मूलभूत अंतर हैं जिसे हम निम्नलिखित रूपों में देख सकते हैं अभिवृत्ति की तुलना में मूल्य अधिक स्थिर होता है, परिणामस्वरूप मूल्य में परिवर्तन अपेक्षाकृत कठिन होता है। अभिवृत्ति की तुलना में मूल्य में भावनात्मक पक्ष अधिक प्रबल होता है। मूल्य में पहचान अथवा आत्मीकरण की प्रधानता होती है लेकिन अभिवृत्ति में नहीं। अभिवृत्ति के निर्माण पर मूल्य का निश्चित प्रभाव पड़ता है। इसे हम धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक आदि मूल्यों के प्रभाव से निर्मित अभिवृत्ति के संदर्भ में समझ सकते हैं। इसे हम उदाहरणों से अधिक स्पष्ट रूप में समझ सकते हैं। मान लीजिये किसी समाज का धार्मिक मूल्य पशु की सेवा से जुड़ा है तो इस बात की प्रबल संभावना है कि उस समाज के लोगों में पशु हिंसा के प्रति नकारात्मक अभिवृत्ति का विकास होगा।</s>
<s>[INST]भावनात्मक भूख से आप क्या समझते हैं? यह प्रेम से किस प्रकार भिन्न है? वर्तमान समय में समाज में भावनात्मक भूख के बढ़ने के कारणों की जाँच करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा : भावनात्मक भूख क्या है? यह प्रेम से किस प्रकार भिन्न है? समाज में भावनात्मक भूख के बढ़ने के कारण। भावनात्मक भूख व्यक्ति की ऐसी मनोवैज्ञानिक स्थिति है जिसमें व्यक्ति को प्रबल भावनात्मक सहयोग व समर्थन की जरूरत होती है। भावनात्मक भूख के कई कारण हो सकते हैं, जैसे- बचपन में भावनात्मक सहयोग व समर्थन का अभाव, सामाजिक संपर्कों से अलगाव, किसी से बिछड़ने का दर्द अथवा अलगाव की लंबी अवधि आदि। प्रायः लोग भावनात्मक भूख तथा प्रेम को समानार्थी समझने की भूल करते हैं, परंतु दोनों में काफी अंतर है जिसे हम निम्नलिखित रूपों में देख सकते हैं- प्रेम में व्यक्ति अपने साथी की भावनाओं का समर्थन करता है और उसके व्यक्तित्व को निखारने में सहायता करता है, जबकि भावनात्मक भूख में व्यक्ति का पूरा संकेंद्रण स्वयं पर होता है और उसे साथी की भावनाओं से कोई लेना-देना नहीं होता है। भावनात्मक भूख व्यक्ति की भावनात्मक इच्छाओं के दमन के कारण उत्पन्न होती है, जबकि प्रेम एक प्राकृतिक व नैसर्गिक इच्छा है। भावनात्मक भूख के परिणाम रचनात्मक व विध्वंसात्मक दोनों हो सकते हैं, जबकि प्रेम रचनात्मक परिणाम देने वाला होता है। भावनात्मक भूख लोगों को ‘ओवरप्रोटेक्टिव’ तथा ‘तुनक मिजाजी’ बनाती है, जबकि प्रेम दूसरे की भावनाओं व व्यक्तिगत स्वतंत्रता को समझते हुए उसे ‘पर्सनल स्पेस’ प्रदान करता है। समाजशास्त्रियों का मानना है कि वर्तमान में समाज में भावनात्मक भूख पहले की तुलना में बढ़ी है। इसके कारणों में हम निम्नलिखित की गणना कर सकते हैं- वर्तमान उपभोक्तावादी समय में व्यक्ति-से-व्यक्ति का भावनात्मक लगाव कम हुआ है और मानवीय मूल्यों का पतन हुआ जिसने भावनात्मक बिलगाव की स्थिति उत्पन्न की है। नाभिकीय परिवार के विस्तार व माता-पिता दोनों के ‘वर्किंग’ होने के कारण बच्चों को पर्याप्त समय एवं भावनात्मक सहयोग और समर्थन न मिल पाने के कारण। तकनीकी पर अत्यधिक निर्भरता ने भी लोगों के सामाजिक जीवन में अलगाव की स्थिति उत्पन्न की है जिससे उनके अंदर एक प्रकार से भावनात्मक शून्यता की स्थिति उत्पन्न हुई है। गला-काट प्रतियोगिता, मानवीय व सामाजिक मूल्यों का पतन आदि अनेक कारणों ने लोगों को भावनात्मक रूप से एकाकी बना दिया है जिसके परिणामस्वरूप भी लोगों में भावनात्मक भूख बढ़ी है।</s>
<s>[INST]हाल के वर्षों में, देश में प्रतियोगी परीक्षाओं में भ्रष्टाचार के एक के बाद एक कई मामले प्रकाश में आए, इसने युवाओं में निराशा व गुस्से का संचार किया। इस पूरे प्रकरण में सम्मिलित नैतिक मुद्दों की जाँच करें तथा इस समस्या के समाधान के लिये कुछ प्रभावी व नवाचारी उपाय सुझाएँ।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा : प्रतियोगी परीक्षाओं में भ्रष्टाचार के मामलों की चर्चा। युवाओं की प्रतिक्रिया। नैतिक मुद्दे। समस्या तथा समाधान। हाल के वर्षों में देश में प्रतियोगी परिक्षाओं से संबंधित भ्रष्टाचार के कई मामले प्रकाश में आए, इनमें व्यापम घोटाला, एस.एस.सी. स्कैम आदि ने पूरे देश में छात्रों को उत्तेजित व आंदोलित कर दिया। इस प्रकार के प्रकरणों ने जहाँ एक ओर इन आयोगों की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगाया वहीं, दूसरी ओर छात्रों में निराशा व गुस्से का संचार भी किया। इस प्रकार की घटनाओं ने कई नैतिक प्रश्नों को जन्म दिया जिस पर विमर्श किया जाना आवश्यक प्रतीत होता है। इसने युवाओं के भविष्य को अंधकारमय करने का काम किया। यह कार्य प्रतिभा को तिरस्कृत करने के समान है। इसने प्रमुख संस्थाओं की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगाया। छात्रों में निराशा व उदासीनता का भाव बढ़ाया। युवा किसी भी राष्ट्र व समाज की प्रगति के प्रमुख इंजन होते हैं। अतः उनके हितों का प्रमुखता से ध्यान रखा जाना आवश्यक है। इस प्रकार की घटनाएँ देश की संस्थाओं के प्रति अविश्वास पैदा कर अराजक स्थिति को जन्म दे सकती हैं। अतः इस प्रकार के कृत्यों से सख्ती से निपटने की आवश्यकता है। इसके लिये निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं- विभिन्न आयोगों के परीक्षा विभागों को स्वच्छ व पारदर्शी परीक्षा करवाने हेतु विशेष रूप से प्रशिक्षित किये जाने की आवश्यकता है। आई.सी.टी. (ICT) तकनीक पर आधारित परीक्षा प्रणाली विकसित किये जाने की आवश्यकता है। कंप्यूटर आधारित टेस्ट के लिये विश्वसनीय व प्रतिष्ठित कंपनियों को हायर किया जाना चाहिये। परीक्षा संबंधी अनियमितता के लिये सख्त-से-सख्त सज़ा का प्रवाधान किया जाना चाहिये व ऐसे मामलों को फास्ट ट्रैक अदालतों के माध्यम से निपटाया जाना चाहिये। एक स्वतंत्र जाँच एजेंसी की नियुक्ति होनी चाहिये जो समय-समय पर परीक्षा प्रणाली की जाँच कर उसकी खामियों को उजागर करे और सुधार हेतु उपाय सुझाए। लोगों में उच्च नैतिक मानकों को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।</s>
<s>[INST]सत्यनिष्ठा जैसे मूल्य जितने प्रशासन के लिये आवश्यक है उतने ही व्यक्तिगत जीवन में भी। टिप्पणी कीजिये।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: सत्यनिष्ठा का अर्थ। सत्यनिष्ठा का प्रशासन में लाभ। व्यक्तिगत जीवन में सत्यनिष्ठा के लाभ। सत्यनिष्ठा से तात्पर्य किसी चीज के संपूर्ण रूप से जुड़े होने और आंतरिक सुसंगति से है। सत्यनिष्ठा के अंतर्गत नैतिक सिद्धांतों के बीच में आंतरिक सुसंगति और नैतिक सिद्धांतों तथा व्यवहार में सुसंगति दोनों आते हैं। सत्यनिष्ठा संपन्न व्यक्ति का आचरण लगभग हर स्थिति में उसके नैतिक सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिये। सत्यनिष्ठा का प्रशासन में लाभ: कल्याणकारी राज्य में सत्यनिष्ठा रखने वाले लोकसेवकों की उपस्थिति से इस बात की गारंटी होती है कि राज्य जिन वर्गों को लाभान्वित करना चाहता है वे लाभ सचमुच उन्हें प्राप्त होते हैं। प्रशासक को अपने कर्मचारियों और वरिष्ठ अधिकारियों का विश्वास प्राप्त हो जाता है। प्रशासक को जनता का विश्वास भी प्राप्त हो जाता है। अगर जनता को अधिकारियों पर विश्वास हो तो सामाजिक परिवर्तन तथा अन्य मामलों में उनका सक्रिय सहयोग मिलता है। व्यक्तिगत जीवन में सत्यनिष्ठा के लाभ: इससे व्यक्ति की विश्वसनीयता बढ़ती है। विश्वसनीयता बढ़ने से बाज़ार, रणनीति या प्रशासन में उसकी सफलता की संभावना बढ़ती है। सम्मान बढ़ने से उसे आत्मसंतोष प्राप्त होता है। इससे निष्पादन और बेहतर होता है। अगर ऐसे व्यक्ति से कोई गलती हो भी जाती है तो उसे अपवाद समझा जाता है या यह माना जाता है कि उसका इरादा गलत नहीं रहा होगा।</s>
<s>[INST]सभी मानव सुख की आकांक्षा करते हैं। क्या आप सहमत हैं?आपके लिये सुख का क्या अर्थ है?उदाहरण प्रस्तुत करते हुए स्पष्ट कीजिये।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा : सभी मानव सुख की आकांक्षा करते हैं?अपनी सहमति अथवा असहमति के संदर्भ में तर्क दें। सुख का अर्थ स्पष्ट करें तथा उदहारण दें। तार्किक निष्कर्ष लिखें। मैं बेंथम और मिल जैसे विचारकों की इस धारणा से सहमत हूँ कि सभी मानव सुख की आकांक्षा करते हैं;हालाँकि यह अवश्य है कि सभी के लिये सुख का अर्थ और उसकी परिधि-विस्तार भिन्न-भिन्न हो सकता है। किसी को दूसरों को पीडि़त करने में सुख मिल सकता है तो किसी को दूसरों के लिये त्याग करने में किसी को मदिरापान करने में तो किसी को शास्त्रीय संगीत सुनने में। अगर कोई व्यक्ति सुखों के त्याग को ही अपना उद्देश्य बना ले तो भी मैं जे. एस. मिल की तरह यही मानूँगा कि उसने बस सुख की परिभाषा बदल ली है। अब उसे त्याग से मिलने वाली संतुष्टि और प्रतिष्ठा में सुख मिलने लगा है। मेरे लिये ‘सुख’ बहुस्तरीय अर्थ रखता है, जैसे- निम्नवर्ती स्तर परः स्वादिष्ट भोजन, गहरी नींद जैसे दैहिक सुख; मध्यवर्ती स्तर परः सफलता, प्रेम, प्रतिष्ठा जैसे सुख; सर्वोच्च स्तर परः समाज सेवा, परोपकार का सुख। मैं प्रयास करता हूँ कि निम्नवर्ती सुखों की आकांक्षा कम होती जाए और उच्चस्तरीय सुखों की आकांक्षा बढ़ती जाए।</s>
<s>[INST]कल्याणकारी राज्य की स्थापना हेतु प्रशासनिक प्रतिबद्धता एक अति आवश्यक तत्त्व है। टिप्पणी कीजिये।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: प्रतिबद्धता का अर्थ क्यों कल्याणकारी राज्य की स्थापना हेतु प्रशासनिक प्रतिबद्धता एक आवश्यक तत्त्व है। प्रतिबद्धता (Commitment) एक आतंरिक गुण है। प्रतिबद्धता व्यक्ति, विचारधारा या मूल्यों के प्रति हो सकती है। प्रतिबद्धता में संज्ञात्मक व भावनात्मक पक्ष तो होता ही है, प्रायः व्यवहारात्मक पक्ष भी होता है। ब्रिटिश काल में संस्थागत रूप से स्थापित पुलिस तथा नौकरशाही, रूढि़वादी, असंवेदनशील एवं अभिजात्य थी। नेहरू ने 1964 में स्वयं को इस अर्थ में विफल माना कि वे नौकरशाही के रूढि़वादी चरित्र को नहीं बदल पाए। आजादी के बाद से वर्तमान समय तक यही प्रश्न बना हुआ है कि नौकरशाही को किसके प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिये। भारत एक कल्याणकारी राज्य है, पुलिस राज्य नहीं। कल्याण की प्रक्रिया में सिविल सेवक सबसे महत्त्वपूर्ण एजेंट होते हैं। अगर सिविल सेवकों का रवैया जनता के प्रति निष्क्रिय या उदासीन होगा तो हमारे संवैधानिक उद्देश्यों की पूर्ति कैसे हो पाएगी? कल्याणकारी राज्य की स्थापना हेतु सिविल सेवकों की प्रतिबद्धता किसके प्रति और कितनी होनी चाहिये, इसे हम निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर समझ सकते हैं- नौकरशाही की प्रतिबद्धता मूलतः संविधान के प्रति होनी चाहिये और निरपेक्ष रूप में होनी चाहिये। (अगर व्यक्ति की विचारधारा और संवैधानिक विचारधारा में विरोध है तो संविधान को प्राथमिकता देनी चाहिये) सामाजिक न्याय व कल्याणकारी उद्देश्यों के प्रति प्रतिबद्धता होनी चाहिये। इसके लिये जरूरी है कि लोकसेवक वंचित वर्ग के प्रति संवेदनशील तथा करुणावान हो। उन्हें इस बात से आंतरिक संतोष मिलना चाहिये कि वंचित समूहों को मुख्यधारा में लाने में उन्होंने सकारात्मक भूमिका निभाई है। संसद द्वारा पारित विधानों तथा नीतियों के प्रति भी सामान्यतः उसे प्रतिबद्ध होना चाहिये। अगर किसी संसदीय नीति की नैतिकता पर गहरा विवाद है और सर्वोच्च न्यायालय में वह नीति प्रश्नगत है तो कुछ समय के लिये उसके प्रति तटस्थ रहा जा सकता है। चूँकि लोकसेवक को किसी विशेष दल या गठबंधन की सरकार के अधीन काम करना होता है। इसलिये उसे साधारणतः सरकारी नीतियों, नियमों व आदेशों का प्रतिबद्धता से पालन करना चाहिये। सिविल सेवकों को अपनी आचरण संहिता (Code of Conduct) तथा नीति संहिता (Code of Ethics) के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिये। लोकसेवकों को किसी राजनीतिक दल या नेता विशेष के प्रति प्रतिबद्ध नहीं होना चाहिये।</s>
<s>[INST]चार्वाकों के अनुसार तत्काल मिलने वाला सीमित सुख बाद में मिलने वाले बड़े सुख से बेहतर है। समालोचनात्मक परीक्षण करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: चार्वाकों की नीतिमीमांशा का संक्षिप्त वर्णन। चार्वाक नीति के सकारात्मक पक्ष। चार्वाक नीति के नकारात्मक पक्ष। चार्वाक संप्रदाय जिस मूल सिद्धांत को आधार मानकर चली है, वह है सुखवाद (Hedoism)। सुखवाद का सरल अर्थ है कि सुखों की प्राप्ति करना ही नैतिक कर्म है। हमारे जो भी कार्य सुख प्रदान करते हैं, वे नैतिक हैं और दुख प्रदान करने वाले कार्य हैं वे अनैतिक है। भारतीय दर्शन के नौ संप्रदायों में से चार्वाक अकेला है जो सुखवाद के पक्ष में खड़ा है। शेष लगभग सभी संप्रदाय लौकिक सुखों को निंदा की भाव से देखते हैं और उन्हें अवांछनीय घोषित करते हैं। चार्वाक संप्रदाय का स्पष्ट मत है कि जब तक जियो सुख से जियो, उधार लेकर पियो, एक बार देह भस्म हो जाने के बाद वापस कोई लौटकर नहीं आता है। चार्वाकों ने सुखभोग के संबंध में कुछ स्पष्ट सिद्धांत भी बताए हैं। इनका पहला सिद्धांत है कि भविष्य की अनिश्चित सुख की बजाय वर्तमान के निश्चित सुख का भोग किया जाना चाहिये। दूसरा सिद्धांत है कि कोई भी सुख पूर्णतः शुद्ध नहीं होता, उसमें किसी-न-किसी मात्रा में दुख भी शामिल होता है। किंतु, उस छोटे-मोटे दुख से डरकर सुख की कामना छोड़ना निरर्थक है। उदाहरण के लिये मछली खाना इसलिये नहीं छोड़ना चाहिये कि उसमें काँटा होता है। चार्वाक पूर्णतः भौतिकवादी थे, वे पारलौकिक सत्ता को स्वीकार नहीं करते। उनका दावा है कि आत्मा नामक कोई वस्तु नहीं होती है। उन्होंने व्यंग्य में कहा है कि मृत्यु के अलावा कोई मोक्ष नहीं है। चार्वाक नीति के सकारात्मक पक्ष: चार्वाक नैतिकता पूरी तरह से इहलोकवाद पर टिकी है। इहलोकवाद का अर्थ है कि यह जगत ही अंतिम सत्य है। नैतिकता के संदर्भ में इसका अर्थ है कि हमें अपने नैतिक सिद्धांतों का निर्धारण लौकिक जीवन के आधार पर करना चाहिये, उसके लिये आलौकिक या पारलौकिक संदर्भ को आधार नहीं बनाना चाहिये। चार्वाक नीति का दूसरा सकारात्मक पहलू यह है कि वह मानव सहजता का सम्मान करती है। उदाहरण के लिये सांख्य, जैन, न्याय, वैशेषिक तथा अद्वैत सभी दर्शन मनुष्य को सलाह देते हैं कि वे सांसारिक सुखों से यथासंभव दूरी बनाए रखें। चार्वाक इस मामले में भारतीय दार्शनिक परंपरा का अकेला अपवाद है। सांसारिक जीवन को सहज रूप में स्वीकार करता है। वह सुखों और दुखों को जीवन के सहज हिस्सों के तौर पर देखता है। चार्वाक दर्शन की अन्य उपयोगी बात यह है कि वह व्यक्ति को अतीत या भविष्य की चिंताओं में डूबने की बजाय वर्तमान में जीने की सलाह देता है। कुछ लोग भविष्य में कुछ अच्छा हासिल करने की होड़ में वर्तमान को अनावश्यक रूप से बोझिल बना लेते हैं। आजकल कई मनोवैज्ञानिक सलाह देते हैं कि जहाँ तक संभव हो, व्यक्ति को अतीत की चिंताओं और भविष्य की योजनाओं से बचते हुए वर्तमान को अच्छे तरीके से जीने पर फोकस करना चाहिये। चार्वाक नीति के नकारात्मक पक्ष: चार्वाक नीति की कुछ अच्छी बातों के बावजूद सच यही है कि वह कई मायनों में समाज के लिये न केवल अप्रासंगिक है, बल्कि कई बिंदुओं पर घातक भी हो जाता है। चार्वाकों के नैतिक सिद्धांत में दूसरी बड़ी कमी यह है कि वे सिर्फ व्यक्ति के सुखों की बात करते हैं, समाज के सुखों की नहीं। यह बात मोटे तौर पर सही है कि संसार का हर व्यक्ति अपने लिये अधिकतम सुख चाहता है, पर यह भी उतना ही सही है कि अगर सभी व्यक्ति बिना किसी नैतिक नियमन के अंधाधुंध तरीके से सुखों की होड़ में लग जाएँ तो उनके बीच आपस में ही इतने संघर्ष हो जाएंगे कि अधिकांश के हिस्से में दुख आएगा। चार्वाकों के नैतिक दर्शन की तीसरी कमी यह है कि वह अतिवाद के स्तर को छूता है। वैदिक परंपरा के सिद्धांतों का विरोध करते-करते चार्वाक एक दूसरे छोर पर पहुँच जाते हैं और खुद भी एक तरह के रुढ़िवादी के शिकार हो जाते हैं। उदाहरण के लिये, जब वे कहते हैं कि ‘काम एकमात्र पुरुषार्थ है’ तो वे काम को इतना महिमामंडित कर देते हैं कि जैसे उसके अलावा जीवन में कुछ है ही नहीं।</s>
<s>[INST]हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने विशिष्ट परिस्थितियों में 24 सप्ताह बाद भी गर्भपात कराने की अनुमति प्रदान की है। क्या ऐसी स्थिति में भ्रूण के अधिकारों का हनन हो सकता है? क्या माता के प्रजनन की स्वायत्तता का अधिकार भ्रूण के अधिकार से ऊपर है? नैतिक समस्याओं को शामिल करते हुए मूल्यांकन करें। [/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: भ्रूण के अधिकार के संबंध में लिखें। माता के प्रजनन के अधिकार और भ्रूण के अधिकार की तुलना करते हुए निष्कर्ष लिखें। अधिकार कानूनी, सामाजिक, स्वतंत्रता या नैतिकता के नैतिक सिद्धांत है। भारतीय संविधान ‘प्राण और दैहिक स्वतंत्रता’ का प्रावधान करता है, जिसमें न्यायालय ने माता के प्रजनन के अधिकार को स्वीकारा है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने एक विशिष्ट स्थिति में 24 सप्ताह बाद गर्भपात कराने की अनुमति प्रदान की। ऐसी स्थिति में माता के अधिकार और भ्रूण के अधिकार से जुड़े नैतिक मुद्दे उभरे हैं। भ्रूण के अधिकारः मेडिकल साइंस के अनुसार, 24 सप्ताह के बाद एक भ्रूण जैविक मानव प्रजाति का सदस्य होता है। जिसका अर्थ है एक आनुवंशिक कोड, सोचने की क्षमता आदि का विकसित होना। यदि गर्भपात कराया जाता है तो निश्चित ही भ्रूण के अधिकारों का हनन होता है किंतु यदि शुद्ध नैतिक सिद्धांतों और विशिष्ट मेडिकल स्थिति में, जैसे कि भ्रूण का विकार युक्त होना, जो माता के जीवन को खतरा पैदा कर सकता है, गर्भपात कराना नैतिक दृष्टि से उचित है। यदि माता और भ्रूण के अधिकारों का तुलनात्मक अध्ययन करें तो इसे निम्नलिखित स्थितियों से समझा जा सकता हैः जब दोनों के अधिकार समान हैं: कुछ लोगों का मत है कि जीवन का अधिकार सदैव किसी व्यक्ति के समानता का अधिकार या अपने शरीर पर नियंत्रण से उच्च होता है। इसके अलावा, चूँकि एक भ्रूण 24 सप्ताह के बाद जैविक मानव जीवन में प्रवेश कर जाता है। अतः भ्रूण का अधिकार, माता के अधिकार के समान स्थिति प्राप्त कर लेता है। जब माता के अधिकार, भ्रूण के अधिकार से ऊपरः चूँकि एक माता को अपने शरीर के साथ क्या करना है, इसकी स्वतंत्रता प्राप्त है। साथ ही जब भ्रूण के कारण असामान्य स्थिति उत्पन्न हो जाती है और उससे माता के जीवन को खतरा हो सकता है, तो गर्भपात कराया जा सकता है। ऐसी स्थिति में भ्रूण के अधिकार गौण हो जाते हैं। इस तरह गर्भपात एक अत्यंत संवेदनशील नैतिक मुद्दा है, जिस पर पर्याप्त अनुसंधान किया जाना चाहिये। यदि एक महिला को गर्भपात का अधिकार प्राप्त होता है तो यह लैंगिक समानता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, अवैध गर्भपात और सही विकल्प चुनने में मदद करेगा।</s>
<s>[INST]एक सिविल सेवक अपने प्रशासनिक उत्तरदायित्वों के निर्वहन में सामान्यतः किस प्रकार के नकारात्मक मनोभावों से ग्रसित हो सकता है? ऐसे मनोभावों को दूर करने हेतु उसे क्या उपाय करने चाहिये?[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: लोक सेवकों द्वारा सामना किये जाने वाले नकारात्मक मनोभावों का उल्लेख करें इन नकारात्मक मनोभावों के कारण और इनके निराकरण के उपाय सुझाएँ। एक सिविल सेवक को अपने प्रशासनिक उत्तरदायित्व के निर्वहन में कई प्रकार की विपरीत परिस्थितियों में कार्य करना पड़ता है तथा कई बार अपने पद व शक्ति के कारण भी सिविल सेवकों में कई नकारात्मक भाव विकसित हो जाते हैं। इसे हम निम्नलिखित रूपों में देख सकते हैं: निराशा व प्रेरणा का अभावः कई बार अच्छे कार्य करने के बावजूद आपको विरोधियों की आलोचनाओं का शिकार होना पड़ता है। ऐसी स्थिति में निराशा का भाव जागृत होता है तथा अच्छे कार्य करने की प्रेरणा समाप्त होने लगती है। ऐसी स्थिति में हमें अपनी अभिप्रेरणा बनाए रखने के लिये सिविल सेवा के मूल उद्देश्यों को याद करना चाहिये। जनसेवा स्वयं एक बड़ा पुरस्कार है और फिर यदि आप लगातार अच्छे कार्य कर रहे हैं तो धीरे-धीरे आलोचक भी आधार विहीन हो जाएंगे और उनकी आलोचनाओं का कोई महत्त्व नहीं रह जाएगा। स्वार्थ व हित का संघर्षः अपने पद एवं शक्ति का दुरुपयोग कर लोग अपने निजी हित साधने में लग जाते हैं। मानव अपनी प्रकृति से स्वार्थी होता है, किंतु हमें अपनी स्वार्थी प्रवृत्तियों को ईश्वर व समाज सेवा की ओर मोड़कर लोकोत्तर बनाने का प्रयास करना चाहिये। पलायनवादिताः कई बार कठिन परिस्थितियों में सिविल सेवकों द्वारा पलायनवाद का सहारा लिया जाता है। वे समस्याओं से भागने लगते हैं। यह एक ऐसी समस्या है, जो मनुष्य की चुनौतियों से जूझने की क्षमता को कमजोर करती है। समस्याओं से भागना कोई समाधान नहीं है। अतः मनुष्य को धैर्य और साहसपूर्वक विपरीत परिस्थितियों का सामना करना चाहिये। ईर्ष्या व पाखंडः कई बार सिविल सेवकों में अपने सहकर्मी वरिष्ठ व कनिष्ठ अधिकारियों को लेकर निजी या अन्य कारणों से ईर्ष्या का भाव जागृत होता है और वे कई प्रकार की गुटबाजियों व पाखंड में लिप्त हो जाते हैं। इससे जनहित भी काफी दुष्प्रभावित होता है। ऐसी स्थिति का सामना करने के लिये सिविल सेवकों को अपने संकीर्ण हितों तथा पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर व्यापक जनहित को ध्यान में रखना चाहिये। घमंडः कई अधिकारियों को अपनी शक्ति तथा पद का अत्यधिक घमंड हो जाता है और वे इसका दुरुपयोग करने लगते हैं। उन्हें यह समझना चाहिये कि यह शक्ति उन्हें जनहित के लिये प्राप्त हुई है। अतः इस प्रकार अनावश्यक घमंड करना अनुचित है। इसी प्रकार के कई अन्य नकारात्मक मनोभावों का सिविल सेवकों को समय-समय पर सामना करना पड़ता है। इनसे निपटने के लिये उन्हें जनसेवा को अपना धर्म व निष्काम कर्म को अपना कर्त्तव्य मानते हुए निरंतर अपनी सकारात्मक ऊर्जा व अभिप्रेरणा बनाए रखनी चाहिये।</s>
<s>[INST]"सुशासन विकास को प्राप्त करने के लिये आवश्यक है जबकि सहभागितापूर्ण लोकतंत्र न्यायोचित और टिकाऊ विकास सुनिश्चित करता है।" दिये गए कथन के आलोक में ‘मन की बात’ और ‘मेरी सरकार’ पहल को आप किस तरह से देखते हैं, साथ ही साथ इस सन्दर्भ में अभी और क्या करने की आवश्यकता है? चर्चा करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: सुशासन को परिभाषित करते हुए सुशासन के प्रभावी संचालन हेतु जनता के सहयोग का ज़िक्र करना। सुशासन एवं सहभागितापूर्ण लोकतंत्र की दिशा में ‘मन की बात’ और ‘मेरी सरकार’ पहलों का योगदान। सुशासन प्राप्ति में बाधक तत्त्वों का उल्लेख करते हुए निष्कर्ष प्रस्तुत करना। सुशासन शब्द का प्रयोग एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में किया जाता है जिसमें शासन शक्ति के माध्यम से आर्थिक और सामाजिक संसाधनों का उपयोग राष्ट्र की उन्नति एवं विकास हेतु किया जाता है। अतः सुशासन विकास हेतु एक आवश्यक शर्त है। लोकतांत्रिक प्रणाली में सुशासन के सुचारु रूप से संचालन हेतु जनता एवं समाज के सभी वर्गों का सहयोग अति आवश्यक है। जनता की सहभागिता के बिना न्यायोचित और टिकाऊ विकास को प्राप्त नहीं किया जा सकता। सरकार द्वारा सुशासन एवं सहभागितापूर्ण लोकतंत्र की दिशा में आरंभ की गई ‘मन की बात’ और ‘मेरी सरकार’ पहलें देश के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका के रूप में जनता की समस्याओं, चिंताओं और अपेक्षाओं को जानने का प्रयास कर उनके निराकरण हेतु प्रयासरत हैं। सरकार छात्रों, युवाओं, किसानों एवं समाज के असंतुष्ट एवं वंचित सभी वर्गों से सीधा संवाद स्थापित कर उन्हें शासन की नीतियों, योजनाओं एवं पहलों से अवगत करा रही है और जनता के सुझावों के आधार पर अपनी दिशा निर्धारित करने का प्रयास कर रही है। साथ ही, जनता में नैतिकता, आपसी सहयोग, साम्प्रदायिक सद्भाव, भाईचारे की भावना आदि को मज़बूत बनाने का प्रयास कर रही है। इन पहलों से जनता सरकार के साथ और जुड़ाव महसूस कर रही है और उसे लोकतांत्रिक व्यवस्था के वास्तविक स्वरूप का एहसास हो रहा है। इस प्रकार ये पहलें सहभागितापूर्ण लोकतंत्र एवं सुशासन की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम हैं। यद्यपि ये पहलें स्वागतयोग्य हैं परंतु अभी भी सुशासन एवं सहभागितापूर्ण लोकतांत्रिक व्यवस्था के सम्मुख भ्रष्टाचार, लालफीताशाही, साम्प्रदायिकता, सामाजिक एवं जातिगत समस्याएँ, रूढ़िवादिता, आतंकवाद एवं नक्सलवाद जैसी कई समस्याएँ विद्यमान हैं जिनका राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सहभागिता के माध्यम से उचित समाधान करके ही वास्तविक सुशासन प्राप्त कर टिकाऊ विकास को साकार रूप दिया जा सकता है।</s>
<s>[INST]हाल ही में मिलेनियम सिटी के नाम से प्रसिद्ध हरियाणा राज्य के गुड़गाँव (अब गुरुग्राम) शहर में भारी बारिश के बाद राष्ट्रीय राजमार्ग-8 पर पानी भरने के कारण लगभग 25 किमी.लंबा ट्रैफिक जाम लगा। 20 घण्टों से ज़्यादा समय तक लोग इस ट्रैफिक जाम में फँसे रहे। यह ट्रैफिक जाम न केवल राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चा का विषय बना, क्योंकि गुड़गाँव में हज़ारों राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों के मुख्य कार्यालय एवं बी.पी.ओ. इकाइयाँ हैं। इस जाम के कारण न केवल गुड़गाँव और दिल्ली अपितु कई देशों की आर्थिक-गतिविधियों में व्यवधान पड़ा। इस घटना ने गुड़गाँव के ‘विकास मॉडल’ पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया। आधारभूत संरचना की कमी तथा जल-निकासी के कुप्रबंधन के कारण NH-8 पर जलभराव हुआ और यह जाम लगा। नगर निगम अधिकारियों की योजनाओं में खामियों तथा भू-माफिया द्वारा अवैध भू-अतिक्रमण के चलते अनेक नाले तथा जल-निकासी के प्राकृतिक मार्ग अवरुद्ध हो गए। इसी कारण जल राजमार्ग पर आ गया। ट्रैफिक जाम की दूसरी तस्वीर यह थी कि इसमें फँसे बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं की स्थिति बहुत खराब हो गई थी। इस अव्यवस्था के बीच जाम में फँसे लोगों ने रोटी और पानी के लिये मजबूरी में 10 गुना से ज़्यादा कीमत चुकाई। अव्यवस्था का मंजर ऐसा था कि कई एंबुलेंस को डिवाइडर तोड़कर निकाला गया। राज्य सरकार ने तुरन्त प्रभाव से शहर के पुलिस कमिश्नर का तबादला दूसरे ज़िले में कर दिया तथा उसकी जगह दूसरे अधिकारी को नियुक्त किया। (a) इस केस स्टडी में कौन-कौन से नैतिक मुद्दे शामिल हैं? (b) यदि आप शहर के ज़िलाधिकारी होते तो ऐसी स्थिति में क्या-क्या कदम उठाते? ये भी बताएँ कि ऐसी स्थिति से निपटने के लिये एक सिविल सेवक में कौन-कौन से गुण होने चाहियें? (c) मान लीजिये, आप ही वह नवनियुक्त पुलिस कमिश्नर हैं। आपके ऊपर न सिर्फ इस स्थिति से निपटने अपितु दोबारा ऐसी अव्यवस्था न होने देने की दोहरी ज़िम्मेदारी है। आपको शहर एवं पुलिस दोनों की छवि भी सुधारनी है, क्योंकि जाम में फँसे अधिकतर लोगों की शिकायत थी कि पुलिस उनकी सहायता के लिये नहीं पहुँची। ऐसी स्थिति में आप कौन-कौन से कदम उठाएंगे?[/INST]उत्तर : (a) इस केस स्टडी में शहरी विकास प्राधिकरणों में व्याप्त भ्रष्टाचार, आपातस्थिति में मानवीय व्यवहार तथा लोकसेवकों की कर्त्तव्यनिष्ठा से संबंधित नैतिक मुद्दे शामिल हैं। नगर निगम के अधिकारियों द्वारा अपने कर्त्तव्य का समुचित तरीके से निर्वहन कर पाने के फलस्वरूप ही अतिक्रमण आदि से जलभराव की स्थिति आई। जिस प्रकार ट्रैफिक में फँसे लोगों से रोटी और पानी के लिये कुछ लालची लोगों ने 10 गुना तक कीमत वसूली; वह उनकी असंवेदनशीलता और निष्ठुरता की पराकाष्ठा दिखाती है। यह नैतिक तौर पर अधोपतन की स्थिति है। पुलिस और प्रशासन ने जिस लचर तरीके से बिगड़ती स्थिति में प्रतिक्रिया दी, वह उनकी अपने कर्त्तव्य के प्रति समर्पण की भावना के अभाव को दर्शाती है। (b) यदि मैं शहर का ज़िलाधिकारी होता, तो ऐसी स्थिति में निम्नलिखित कदम उठाता- सर्वप्रथम जल निकासी का प्रबंध कराता। ट्रैफिक में फँसे लोगों की सुरक्षा व्यवस्था के लिये पुलिस अधीक्षक को निर्देश देता। एफ.एम. रेडियो की मदद से हर संभव सहायता के आश्वासन तथा शांति व लोकव्यवस्था बनाए रखने का संदेश प्रसारित करवाता। पुलिसकर्मियों की संख्या कम पड़ने की स्थिति में सेना की सहायता मांगता। अपने वरिष्ठों को वस्तुस्थिति की गंभीरता से परिचित कराता। ट्रैफिक में फँसे लोगों से भोजन और पानी के लिये मनमर्जी की कीमत वसूलने वालों को सख्त कार्यवाही करने की चेतावनी देता, भोजन-पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करता। ऐसी परिस्थिति में लोग आक्रोशित रहते हैं, आपसे बहुत उम्मीदें होती हैं तथा हालात जटिल होते हैं। एक लोक सेवक में ऐसी परिस्थिति से जूझने के लिये निम्नलिखित गुण होने चाहियें- धैर्य भावनात्मक प्रज्ञता अनुनयन ईमानदारी सत्यनिष्ठा साहस (c) यदि मेरी नियुक्ति नए कमिश्नर के रूप में होती तो मैं निम्नलिखित कदम उठाता- एक पुलिसकर्मी को ऐसे हालातों में क्या करना चाहिये और कैसे करना चाहिये, संबंधी निर्देशों को जारी करता क्योंकि हालात पेचीदा तब ज़्यादा हो जाते हैं, जब स्पष्ट निर्देश मिलने का अभाव होता है। शहर में जल-निकासी और ट्रैफिक आवागमन के वैकल्पिक मार्गों का पता लगाता। ट्रैफिक की वास्तविक स्थिति बताने वाला ‘एप्प’ जारी करता, ताकि भविष्य में ट्रैफिक अवरुद्ध होने की पूर्व जानकारी पर लोग वैकल्पिक मार्ग से जाएँ। पुलिस की छवि को ‘नागरिक-मित्र’ की तरह प्रस्तुत करने का प्रयास करता।</s>
<s>[INST]सरकारी तथा निजी संस्थानों में नैतिक दुविधाओं को एक कुशल और प्रभावी प्रशासन के मार्ग में एक बड़ा अवरोध समझा जाता है। इसी आलोक में ‘नैतिक दुविधा’ को परिभाषित करते हुए सरकारी संस्थाओं में कार्यरत लोगों के समक्ष प्रायः उपस्थित होने वाली नैतिक दुविधाओं का उल्लेख कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रायः दुविधा उस स्थिति को कहते हैं जब किसी व्यक्ति के पास दो या अधिक विकल्प हों और विकल्प एक-दूसरे से पूर्णतः अलग हों अर्थात् उन्हें साथ-साथ चुना न जा सकता हो परंतु किसी एक विकल्प को चुनना अनिवार्य हो अर्थात् निर्णय को टाला न जा सकता हो और सारे विकल्प ऐसे हों कि किसी को भी चुनकर पूर्ण संतुष्टि मिलना संभव न हो। इस प्रकार, एक नैतिक दुविधा के मूल घटक निम्नवत् हैंः एकाधिक विकल्पों का होना। निश्चितता व स्थिर मस्तिष्क से किसी एक विकल्प को चुनने में असमर्थता। विकल्पों में से किसी एक को वरीयता दे पाने में असमर्थता। विकल्पों में उचित-अनुचित, सकारात्मक-नकारात्मक मान्यताओं में भेद कर पाने में असमर्थता। सरकारी संस्थाओं में कार्यरत लोगों के समक्ष प्रायः उपस्थित होने वाली नैतिक दुविधाएँः व्यक्तिगत लाभ तथा नैतिकता के मध्य द्वन्द्व की दुविधा में फँसते हुए यह सोचना कि रिश्वत लूँ या न लूँ। ऑफिस की किसी संपत्ति का व्यक्तिगत हित में प्रयोग करूँ या न करूँ। अगर अपने व्यक्तिगत काम के लिये कार्यालय से बाहर जाना पड़े तो उतने समय का औपचारिक अवकाश लूँ या नहीं। भ्रष्ट कर्मचारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करूँ या नहीं क्योंकि यदि वह गरीब है और पारिवारिक जिम्मेदारियों को उठाने वाला अकेला सदस्य है तो उसके परिवार पर बुरा असर पड़ेगा। अपने विभाग के मंत्रियों के साथ सकारात्मक संबंध बनाने चाहियें या नहीं। इस प्रकार की नैतिक दुविधाएँ एक कुशल एवं प्रभावी प्रशासन में अवरोध की तरह प्रस्तुत हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में एक कर्मचारी को विधि, नियमों, विनियमों एवं अंतरात्मा के मार्गदर्शन में अपनी दुविधाओं का निराकरण करने का प्रयास करना चाहिये।</s>
<s>[INST]आप भारतीय इंजीनियरिंग सेवा में अधिशासी अभियंता के रूप में कार्यरत हैं। आपको गंगा नदी पर बनाए जा रहे पुल के लिये प्रभारी नियुक्त किया गया है। आपके अधीन दो कनिष्ठ अभियंता कार्यरत हैं, जो प्रतिदिन निर्माण स्थल के निरीक्षण का कार्य देखते हैं और आपको प्रगति रिपोर्ट सौंपते हैं। निर्माण कार्य अंतिम चरण के दौरान आप एक दिन आकस्मिक निरीक्षण पर जाते हैं, तो देखते हैं कि कुछ गंभीर विसंगतियाँ व कमियाँ मौजूद हैं जिसका भविष्य में परिणाम अत्यंत गंभीर हो सकता है। चूँकि यह एक बाढ़ग्रस्त क्षेत्र है और जल्द ही वर्षा का मौसम आरंभ होने वाला है। अतः इस निर्माण कार्य को समय पर पूर्ण किया जाना आवश्यक है। लेकिन आपका मत है कि इसका पुनर्निर्माण किया जाना चाहिये। आप अपने मत से मुख्य अभियंता को अवगत कराते हैं लेकिन वह इसको बड़ा दोष न मानकर टालने की सलाह देते हैं। (a) ऐसी स्थिति में आपके पास क्या विकल्प होंगे? (b) इनमें से प्रत्येक विकल्प का गुण-दोष के आधार पर मूल्यांकन कर बताएँ कि अंततः आप क्या कार्यवाही करेंगे और क्यों?[/INST]उत्तर : (a) ऐसी स्थिति में आपके पास क्या विकल्प होंगे? केस स्टडी की परिस्थितियों को देखते हुए मैं निम्नलिखित विकल्पों पर विचार करूंगा: मुख्य अभियंता की सलाह को स्वीकार कर पुल के निर्माण को जारी रखूंगा। मुख्य अभियंता से लिखित में आदेश प्राप्त करूंगा और निर्माण कार्य समय पर होने दूंगा। सार्वजनिक निर्माण कार्य से जुड़ी सर्वोच्च अथॉरिटी को रिपोर्ट भेजूंगा। कनिष्ठ अभियंताओं को सस्पेंड करूंगा और निर्माण कार्य रोक दूंगा। परिस्थितियों को देखते हुए तत्काल एक तकनीकी विशेषज्ञों की समिति गठित करूंगा ताकि संभावनाओं का पता लगाया जा सके। (b) इनमें से प्रत्येक विकल्प का गुण-दोष के आधार पर मूल्यांकन कर बताएँ कि अंततः आप क्या कार्यवाही करेंगे और क्यों? विकल्प (1): इससे मैं न केवल मुख्य अभियंता के ‘गुड बुक’ में रहूंगा, साथ ही निर्माण कार्य भी समय पर हो सकेगा। किंतु इंजीनियरिंग कोड ऑफ एथिक्स, जो कहता है कि ईमानदारी, विवेक, गरिमा और सम्मान के साथ अपने पेशे का अभ्यास और पेशे की सबसे अच्छी परंपराओं (जैसे- लोगों की सुरक्षा, स्वास्थ्य और कल्याण की सर्वोपरिता का महत्त्व) का पालन करना चाहिये, के यह विरुद्ध है। अतः में यह विकल्प नहीं चुनूंगा। विकल्प (2): यह अच्छा विकल्प है। इससे मैं किसी भी उत्तरदायित्व और जिम्मेदारी से बच जाऊंगा किंतु नैतिक दृष्टि से यह सही विकल्प नहीं हो सकता, क्योंकि मैं जानता हूँ कि मुख्य अभियंता के लिखित में देने से भी यह मेरे पेशे की मूल नैतिकता की पूर्ति नहीं कर सकता। विकल्प (3): यह विकल्प मुद्दे की गंभीरता को सर्वोच्च अथॉरिटी के सामने लाने में सहायक होगा और उससे बेहतर कार्रवाई के विकल्प खुल सकेंगे। लेकिन, चूँकि पुल का निर्माण अत्यंत आवश्यक है और सर्वोच्च अथॉरिटी द्वारा जाँच में एक लंबा समय लग सकता है, जो लोगों की परेशानी को बढ़ा सकता है। विकल्प (4): यद्यपि कनिष्ठ अभियंताओं ने लापरवाही की है किंतु तुरंत सस्पेंड करना सही विकल्प नहीं हो सकता। हो सकता है कि वे किसी दबाव में कार्य कर रहे हों। इसलिये उन्हें नोटिस दिया जा सकता है। विकल्प (5): यह एक बेहतर विकल्प हो सकता है क्योंकि तकनीकी विशेषज्ञ ऐसा विकल्प सुझा सकते हैं कि उस संपूर्ण पुल के पुनर्निर्माण की बजाय उसमें कुछ बदलाव करना संभव हो जिससे उस पुल में असामान्यताएं भी नहीं रहेंगी और लोगों की परेशानी भी खत्म हो सकेगी।</s>
<s>[INST]किसी राष्ट्र की प्रगति को सुनिश्चित करने तथा प्रशासनिक व्यवस्था को कायम करने के लिये लोक सेवाओं में नैतिकता की उपस्थिति अपरिहार्य मानी जाती है। लेकिन, वर्तमान में लोक सेवाओं में ‘नैतिकता के पतन’ की स्थिति चिंतित करती है। आपकी दृष्टि में लोकसेवाओं में नैतिकता के पतन के क्या कारण हैं?[/INST]उत्तर : सरदार पटेल ने देश की व्यवस्था को कायम करने के लिये सार्वजनिक सेवाओं (लोक सेवाओं) को देश का ‘स्टीलफ्रेम’ कहा था। भारत जैसे विकाशील देश के लिये यह बहुत जरूरी है कि राष्ट्र के त्वरित विकास हेतु लोकसेवा तंत्र नैतिक मूल्यों का पालन करते हुए अपनी जिम्मेदारियों/कर्त्तव्यों को निष्ठापूर्वक निभाएँ। कौटिल्य ने भी सरकारी अधिकारियों (लोकसेवकों) में नैतिक-मूल्यों के समावेश की वकालत की थी और नैतिक जिम्मेदारी निभाने में असफल अधिकारियों के लिये सख्त सजा का प्रावधान किया था। आज हमारे देश के सामने विभिन्न प्रकार की चुनौतियाँ एवं समस्याएँ उपस्थित हैं, यथा- भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा, आतंकवाद, नक्सलवाद, राजनीति का अपराधीकरण, साम्प्रदायिकता, कुपोषण आदि। इन समस्याओं और चुनौतियों से निपटने पर ही राष्ट्र की प्रगति सुनिश्चित हो पाएगी। इसके लिये महज राजनीतिक इच्छाशक्ति से काम नहीं चलेगा अपितु एक निष्ठावान, कर्त्तव्यपरायण, जिम्मेदार एवं नैतिक प्रशासनिक संरचना का होना भी बहुत आवश्यक है। परंतु, वर्तमान में देश की लोक सेवाओं में नैतिकता के पतन की स्थिति चिंतित करती है। लोक सेवाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार, लालफीताशाही, स्वार्थपूर्ण राजनीति, लोक सेवाओं में संवेदनशीलता एवं देश के प्रति सेवाभाव व सत्यनिष्ठा का अभाव न केवल देश की प्रगति में बाधक है बल्कि स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था के संचालन में भी बड़ी बाधा है। लोकसेवाओं में नैतिकता के पतन के कारणः भारतीय नौकरशाही का सामन्तवादी आचरण। राजनीतिक विकेन्द्रीकरण का अभाव तथा प्रशासन का केन्द्रीकृत नियंत्रण। व्यवसायियों, राजनेताओं एवं नौकरशाही के मध्य गठजोड़। प्रशासन के पास अत्यधिक विवेकी शक्तियों का होना। राजनीतिक नेतृत्व की अक्षमता। भ्रष्टाचार निषेध कानूनों का उचित ढंग से लागू न हो पाना। लेखा-परीक्षण प्रणाली का कमजोर होना। आम जनता में लोक प्रशासन तथा कानून के सैद्धान्तिक पहलुओं की जानकारी की कमी। इन सब कारणों को दूर करके तथा लोकसेवाओं में नैतिक मूल्यों का गहराई से समावेश करके ही देश की प्रगति तथा सुशासन की संकल्पना, दोनों को साकारित किया जा सकता है।</s>
<s>[INST]आप एक दवा निर्माता कंपनी में कार्यकारी अधिकारी के रूप में कार्यरत हैं। कुछ ही दिनों पूर्व से लोग डेंगू के प्रकोप के कारण मृत्यु का शिकार हो रहे हैं। ऐसे में डेंगू की रोकथाम के लिये किसी विशेषीकृत टीके की मांग बढ़ती जा रही है। आपकी कंपनी डेंगू की रोकथाम के लिये टीका तैयार करने का निर्णय लेती है। कुछ दिनों के बाद आपको पता चलता है कि आपकी कंपनी गरीब लोगों को इलाज़ का लालच देकर अवैध रूप से टीके का परीक्षण कर रही है जिसके परिणामस्वरूप कुछ लोगों की मृत्यु हो चुकी है और उनको पर्याप्त मुआवज़ा भी नहीं दिया जा रहा है। आप जब अपने सीनियर्स से बात करते हैं तो वे आपसे चुप रहने को कहते हैं। इसके अलावा, आपको पता चलता है कि इसके पीछे बड़ा तंत्र कार्य कर रहा है। (a) ऐसी स्थिति में आपकी क्या-क्या कार्रवाइयाँ होगी? (b) सभी कार्रवाइयों के गुणों-अवगुणों का उल्लेख करते हुए बताएँ कि आपकी सर्वोत्तम कार्रवाई क्या होगी?[/INST]उत्तर : (a) ऐसी स्थिति में आपकी क्या-क्या कार्रवाइयाँ होगी? केस स्टडी में दी गई परिस्थितियों के अनुसार मेरे पास कार्रवाई के निम्नलिखित विकल्प होंगेः जो कुछ हो रहा है और जो सीनियर्स कह रहे हैं, उनकी बातों को मानते हुए, चुप रहूंगा। मैं इस संबंध में लोगों को जागरूक करूंगा और कंपनी के विरुद्ध आंदोलन करने के लिये लोगों को उकसाऊंगा। राष्ट्रीय/राज्य मानवाधिकार आयोग को इस बारे में सूचित करूंगा। राष्ट्रीय ड्रग मानक नियंत्रण संगठन को अपनी रिपोर्ट गुप्त तरीके से भेजूंगा। मीडिया और मानवाधिकारों के लिये कार्य करने वाले संगठनों को सूचित करूंगा। (b) सभी कार्रवाइयों के गुणों-अवगुणों का उल्लेख करते हुए बताएँ कि आपकी सर्वोत्तम कार्रवाई क्या होगी? विकल्प (1): इससे मैं किसी भी ऐसी कार्रवाई से बच सकूंगा जो मेरे कॅरियर के लिये अशुभ हो। इसके अलावा, दवा की आवश्यकता को देखते हुए, ऐसे परीक्षणों से कंपनी जल्द सफलता प्राप्त कर सकती है, जो बहुत से लोगों की जान बचा सकती है। किंतु गलत कार्य में साथ देना खुद को अनैतिक कार्यों में सहयोगी बनाना है। यह मेडिकल एथिक्स के विरुद्ध है। विकल्प (2): यह एक सही विकल्प हो सकता है क्योंकि लोगों को दवा परीक्षणों के वास्तविक प्रभावों के बारे में जानकारी नहीं दी गई। इससे उन्हें उचित मुआवजा प्राप्त हो सकेगा तथा कंपनी के विरुद्ध उचित कार्रवाई हो सकेगी। किंतु यह विकल्प चुनना सीधे-सीधे कंपनी के विरुद्ध खड़ा होना है, जो न केवल कॅरियर को दाँव पर लगा देगा बल्कि आवश्यक दवा के निर्माण की प्रक्रिया को भी समाप्त कर सकता है। विकल्प (3): इस विकल्प को चुनने से लोगों के मानवाधिकारों का संरक्षण हो सकेगा किंतु इस विकल्प की अपनी सीमा है। यह प्रत्यक्षतः दवा परीक्षण को नियंत्रित नहीं कर सकता। विकल्प (4): यह एक उचित विकल्प हो सकता है क्योंकि इसमें दवा के परीक्षण संबंधी प्रक्रिया में खामियाँ हैं। यदि सही कानून का पालन किया जाता है तो यह कंपनी और लोगों दोनों की दृष्टि से उचित विकल्प होगा। विकल्प (5): यद्यपि में विकल्प (4) को ही चुनूंगा किंतु जैसी केस स्टडी में संभावना व्यक्त की गई है कि इसके पीछे एक बड़ा तंत्र कार्य कर रहा है, तो संभव है विकल्प (4) कार्य न करे। अंततः मैं विकल्प (5) चुनूंगा ताकि वास्तविकता लोगों के सामने आ सके।</s>
<s>[INST]आप घर से दूर शहर में रहकर वकालत की पढ़ाई कर रहे हैं। आप कभी-कभार ही घर जा पाते हैं। आपके पिता की एक कपड़े की फैक्टरी है। एक बार जब आप घर जाते हैं, तो आपके पिता आपको फैक्टरी में लेकर जाते हैं। वहाँ आप देखते हैं कि बहुत से नाबालिग बच्चों को काम पर लगाया गया है। जब आप अपने पिता को इससे जुड़े मुद्दे को बताते हैं तो आपके पिता कहते हैं कि यदि वह इनको काम पर नहीं रखेंगे तो बहुत कम लाभ प्राप्त होगा, जिससे परिवार और तुम्हारी शिक्षा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। इसके अलावा, स्थानीय विधायक का सहयोग भी प्राप्त है, इसलिये किसी कानूनी कार्यवाही का डर भी नहीं है। जब आप उन बच्चों से बात करते हैं तो आपको पता चलता है कि वे बच्चे बहुत गरीब परिवार से हैं और यह उनकी मजबूरी है।आप घर से दूर शहर में रहकर वकालत की पढ़ाई कर रहे हैं। आप कभी-कभार ही घर जा पाते हैं। आपके पिता की एक कपड़े की फैक्टरी है। एक बार जब आप घर जाते हैं, तो आपके पिता आपको फैक्टरी में लेकर जाते हैं। वहाँ आप देखते हैं कि बहुत से नाबालिग बच्चों को काम पर लगाया गया है। जब आप अपने पिता को इससे जुड़े मुद्दे को बताते हैं तो आपके पिता कहते हैं कि यदि वह इनको काम पर नहीं रखेंगे तो बहुत कम लाभ प्राप्त होगा, जिससे परिवार और तुम्हारी शिक्षा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। इसके अलावा, स्थानीय विधायक का सहयोग भी प्राप्त है, इसलिये किसी कानूनी कार्यवाही का डर भी नहीं है। जब आप उन बच्चों से बात करते हैं तो आपको पता चलता है कि वे बच्चे बहुत गरीब परिवार से हैं और यह उनकी मजबूरी है।(a) ऐसी स्थिति में आप क्या-क्या कार्रवाई करेंगे ?(b) सभी कार्रवाइयों के गुणों-अवगुणों का उल्लेख करते हुए बताएँ कि आपका अंतिम फैसला क्या होगा और क्यों?[/INST]उत्तर : (a) ऐसी स्थिति में आप क्या-क्या कार्रवाई करेंगे ? केस स्टडी में दी गई परिस्थितियों के अनुसार मेरे पास कार्रवाई के निम्नलिखित विकल्प होंगे: मैं कोई कार्रवाई नहीं करूंगा। अपने पिता को कानूनी प्रावधानों और उससे जुड़ी सज़ा के बारे में बताऊंगा। बाल अधिकार संरक्षण आयोग को इस बारे में सूचित करूंगा। बच्चों को स्कूल में भेजूंगा तथा उनके माता-पिता या अन्य वयस्क पारिवारिक सदस्य को कार्य पर रखने के लिये पिता को मनाऊंगा। मीडिया को सूचित करूंगा ताकि पिता के कृत्यों को दुनिया के सामने ला सकूं और उन पर कठोर कार्रवाई हो सके। (b) सभी कार्रवाइयों के गुणों-अवगुणों का उल्लेख करते हुए बताएँ कि आपका अंतिम फैसला क्या होगा और क्यों? विकल्प (1): यह मेरे स्वार्थ की पूर्ति के दृष्टिकोण से बेहतर है। इससे मेरे परिवार को आर्थिक समृद्धि मिल रही है और मैं उच्च शिक्षा प्राप्त कर पा रहा हूँ। साथ ही, काम पर लगे बच्चों को भी लाभ प्राप्त हो रहा है। किंतु उपर्युक्त तर्क ‘न्याय’ के मूल्य के विरुद्ध है। यह बाल अधिकार कानून, जोकि 18 वर्ष से कम आयु के सभी बालकों को खतरनाक कार्य करने पर रोक लगाता है, का प्रत्यक्षतः उल्लंघन है। अतः यह विकल्प उपयुक्त नहीं है। विकल्प (2): यह विकल्प ठीक है। शायद पिता इससे बच्चों के अधिकारों के प्रति संवेदनशील हो सके। किंतु ऐसा संभव नहीं लग रहा क्योंकि पिता को पहले से ही राजनैतिक संरक्षण प्राप्त है। अतः इस विकल्प को भी नहीं चुना जा सकता। विकल्प (3): बाल अधिकार संरक्षण आयोग को सूचित करने से बच्चों के अधिकारों और हितों की पूर्ति हो सकेगी। इससे उनके भविष्य को उज्ज्वल बनाया जा सकेगा तथा पिता को भी उनके द्वारा किये गए गैरकानूनी कार्य की सज़ा मिल सकेगी। किंतु मैं यह विकल्प नहीं चुन सकता क्योंकि इससे मेरे संपूर्ण परिवार का भविष्य संकटमय हो जाएगा और मेरी शिक्षा भी रुक सकती है। विकल्प (4): इस विकल्प को चुनने से एक तरह जहाँ बच्चों के अधिकारों की प्राप्ति हो सकेगी (शिक्षा का अधिकार, गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार) वहीं उन गरीब परिवारों के वयस्क सदस्यों को नौकरी मिलने से उनकी आर्थिक स्थिति ठीक हो सकेगी। यद्यपि इससे मेरे परिवार को कुछ आर्थिक हानि होना निश्चित है लेकिन अन्य कार्रवाइयों की तुलना में यह सभी के हितों को संतुलित रूप से पूरा करती है। अतः मैं इस विकल्प को चुनूंगा। विकल्प (5): यह एक कठोर विकल्प होगा, जिसमें शायद ही सभी हितधारकों के हितों की पूर्ति हो। अतः नैतिक दृष्टिकोण से विकल्प (4), जो सर्वाधिक लोगों के सर्वोच्च हित को सुनिश्चित करता है, मेरे लिये उचित होगा।</s>
<s>[INST]आप घर से दूर शहर में रहकर वकालत की पढ़ाई कर रहे हैं। आप कभी-कभार ही घर जा पाते हैं। आपके पिता की एक कपड़े की फैक्टरी है। एक बार जब आप घर जाते हैं, तो आपके पिता आपको फैक्टरी में लेकर जाते हैं। वहाँ आप देखते हैं कि बहुत से नाबालिग बच्चों को काम पर लगाया गया है। जब आप अपने पिता को इससे जुड़े मुद्दे को बताते हैं तो आपके पिता कहते हैं कि यदि वह इनको काम पर नहीं रखेंगे तो बहुत कम लाभ प्राप्त होगा, जिससे परिवार और तुम्हारी शिक्षा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। इसके अलावा, स्थानीय विधायक का सहयोग भी प्राप्त है, इसलिये किसी कानूनी कार्यवाही का डर भी नहीं है। जब आप उन बच्चों से बात करते हैं तो आपको पता चलता है कि वे बच्चे बहुत गरीब परिवार से हैं और यह उनकी मजबूरी है।आप घर से दूर शहर में रहकर वकालत की पढ़ाई कर रहे हैं। आप कभी-कभार ही घर जा पाते हैं। आपके पिता की एक कपड़े की फैक्टरी है। एक बार जब आप घर जाते हैं, तो आपके पिता आपको फैक्टरी में लेकर जाते हैं। वहाँ आप देखते हैं कि बहुत से नाबालिग बच्चों को काम पर लगाया गया है। जब आप अपने पिता को इससे जुड़े मुद्दे को बताते हैं तो आपके पिता कहते हैं कि यदि वह इनको काम पर नहीं रखेंगे तो बहुत कम लाभ प्राप्त होगा, जिससे परिवार और तुम्हारी शिक्षा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। इसके अलावा, स्थानीय विधायक का सहयोग भी प्राप्त है, इसलिये किसी कानूनी कार्यवाही का डर भी नहीं है। जब आप उन बच्चों से बात करते हैं तो आपको पता चलता है कि वे बच्चे बहुत गरीब परिवार से हैं और यह उनकी मजबूरी है।(a) ऐसी स्थिति में आप क्या-क्या कार्रवाई करेंगे ?(b) सभी कार्रवाइयों के गुणों-अवगुणों का उल्लेख करते हुए बताएँ कि आपका अंतिम फैसला क्या होगा और क्यों?[/INST]उत्तर : (a) ऐसी स्थिति में आप क्या-क्या कार्रवाई करेंगे ? केस स्टडी में दी गई परिस्थितियों के अनुसार मेरे पास कार्रवाई के निम्नलिखित विकल्प होंगे: मैं कोई कार्रवाई नहीं करूंगा। अपने पिता को कानूनी प्रावधानों और उससे जुड़ी सज़ा के बारे में बताऊंगा। बाल अधिकार संरक्षण आयोग को इस बारे में सूचित करूंगा। बच्चों को स्कूल में भेजूंगा तथा उनके माता-पिता या अन्य वयस्क पारिवारिक सदस्य को कार्य पर रखने के लिये पिता को मनाऊंगा। मीडिया को सूचित करूंगा ताकि पिता के कृत्यों को दुनिया के सामने ला सकूं और उन पर कठोर कार्रवाई हो सके। (b) सभी कार्रवाइयों के गुणों-अवगुणों का उल्लेख करते हुए बताएँ कि आपका अंतिम फैसला क्या होगा और क्यों? विकल्प (1): यह मेरे स्वार्थ की पूर्ति के दृष्टिकोण से बेहतर है। इससे मेरे परिवार को आर्थिक समृद्धि मिल रही है और मैं उच्च शिक्षा प्राप्त कर पा रहा हूँ। साथ ही, काम पर लगे बच्चों को भी लाभ प्राप्त हो रहा है। किंतु उपर्युक्त तर्क ‘न्याय’ के मूल्य के विरुद्ध है। यह बाल अधिकार कानून, जोकि 18 वर्ष से कम आयु के सभी बालकों को खतरनाक कार्य करने पर रोक लगाता है, का प्रत्यक्षतः उल्लंघन है। अतः यह विकल्प उपयुक्त नहीं है। विकल्प (2): यह विकल्प ठीक है। शायद पिता इससे बच्चों के अधिकारों के प्रति संवेदनशील हो सके। किंतु ऐसा संभव नहीं लग रहा क्योंकि पिता को पहले से ही राजनैतिक संरक्षण प्राप्त है। अतः इस विकल्प को भी नहीं चुना जा सकता। विकल्प (3): बाल अधिकार संरक्षण आयोग को सूचित करने से बच्चों के अधिकारों और हितों की पूर्ति हो सकेगी। इससे उनके भविष्य को उज्ज्वल बनाया जा सकेगा तथा पिता को भी उनके द्वारा किये गए गैरकानूनी कार्य की सज़ा मिल सकेगी। किंतु मैं यह विकल्प नहीं चुन सकता क्योंकि इससे मेरे संपूर्ण परिवार का भविष्य संकटमय हो जाएगा और मेरी शिक्षा भी रुक सकती है। विकल्प (4): इस विकल्प को चुनने से एक तरह जहाँ बच्चों के अधिकारों की प्राप्ति हो सकेगी (शिक्षा का अधिकार, गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार) वहीं उन गरीब परिवारों के वयस्क सदस्यों को नौकरी मिलने से उनकी आर्थिक स्थिति ठीक हो सकेगी। यद्यपि इससे मेरे परिवार को कुछ आर्थिक हानि होना निश्चित है लेकिन अन्य कार्रवाइयों की तुलना में यह सभी के हितों को संतुलित रूप से पूरा करती है। अतः मैं इस विकल्प को चुनूंगा। विकल्प (5): यह एक कठोर विकल्प होगा, जिसमें शायद ही सभी हितधारकों के हितों की पूर्ति हो। अतः नैतिक दृष्टिकोण से विकल्प (4), जो सर्वाधिक लोगों के सर्वोच्च हित को सुनिश्चित करता है, मेरे लिये उचित होगा।</s>
<s>[INST]आप एक सिविल सेवक हैं। आपको नदी जोड़ो परियोजना की संभावनाओं का पता लगाने के लिये जाँच समिति में एक सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया है। संभावनाओं के सर्वेक्षण के दौरान पता चलता है कि इससे न केवल एक मुख्यधारा से दूर विशाल जनजातीय समूह प्रभावित होगा, बल्कि साथ ही यह एक नेशनल पार्क घोषित क्षेत्र के बड़े भाग को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करेगा। जाँच समिति को आप अपने विचारों से अवगत कराते हैं किंतु आपके विचारों को महत्त्व न देते हुए समिति के अन्य सदस्य आप पर उनके विचारों का समर्थन करने का दबाव डालते हैं। इसके अलावा वे आपको आर्थिक लाभ पहुँचाने की बात भी कहते हैं। जब आप जाँच की वास्तविकता का पता संबंधित मंत्री को बताने का फैसला करते हैं तो आपको पता चलता है कि यह मंत्री के इशारे पर ही हो रहा है क्योंकि इससे उन्हें अनुचित लाभ प्राप्त होने की संभावना है। (a)इसमें कौन-कौन से नैतिक मुद्दे शामिल हैं ? (b) आपकी कार्रवाई क्या होगी और क्यों?[/INST]उत्तर : दी गई केस स्टडी में निम्नलिखित नैतिक मुद्दे शामिल हैं: विकास बनाम पर्यावरणीय नैतिकताः नदी जोड़ो परियोजना का उद्देश्य कल्याण को बढ़ावा देना है। इसके अंतर्गत सरप्लस जल वाली नदियों के पानी को कम या न्यून जल वाली नदियों में स्थानांतरित किया जाएगा, किंतु यह पर्यावरणीय नैतिकता के विरुद्ध है। इससे जैव विविधता के संरक्षण को हानि पहुँच रही है, जो न केवल वहाँ के जीवित वन्य जीवों के लिये अपितु पर्यावरणीय अवकर्षण को बढ़ावा देगा। विकास बनाम जनजातीय समूहों के अधिकारः यद्यपि नदियों को जोड़ने से विकास को बढ़ावा मिलेगा किंतु किसी एक वर्ग के अधिकारों की कीमत पर दूसरे लोगों को लाभ पहुँचना नैतिक नहीं कहा जा सकता है। विविधता का सम्मान करना नैतिक दृष्टि से उत्कृष्ट है। चूँकि जनजातीय समूह अभी भी समाज की मुख्यधारा से अलग हैं उनकी अपनी संस्कृति और मूल्य हैं। वे इस विकास की प्रक्रिया से प्रभावित होंगे। अतः इसे नैतिक नहीं कहा जा सकता। भ्रष्टाचार का मुद्दाः वर्तमान में भ्रष्टाचार की समस्या नैतिकता में गिरावट के मुख्य कारकों में से एक है। यहाँ आर्थिक लाभ की संभावना ईमानदारी, सत्यनिष्ठा के विरुद्ध तथा पक्षपात की संभावनाओं को उत्पन्न करती है। अनुपालन और गवर्नेंस का मुद्दाः विकास के साथ पर्यावरणीय कानून, कल्याणवाद, सहकारिता, नागरिक अधिकार आदि मुद्दे जुड़े हैं। इनके बिना गुड गवर्नेंस और एथिकल गवर्नेंस की प्राप्ति संभव नहीं है। (b) आपकी कार्रवाई क्या होगी और क्यों? चूँकि यह एक अत्यंत संवेदनशील मुद्दा है, जिसमें अनेक वर्गों के हित जुड़े हैं। अतः मेरी कार्रवाई निम्न प्रकार होगीः मैं सर्वप्रथम किसी भी आर्थिक लाभ की संभावना को समाप्त करते हुए अपने मत पर डटा रहूंगा। इसके बाद मैं अनुनय का प्रयोग करते हुए उनके मत को परिवर्तित करने की कोशिश करूंगा। फिर भी यदि वह परियोजना के संबंध में अनुमति देते हैं तौ मैं अन्य विकल्पों पर कार्यवाही करूंगा। मैं संबंधित सर्वेक्षणों के वास्तविक डाटा को राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण और अनुसूचित जनजातीय कमीशन को अप्रत्यक्ष रूप से प्रेषित करने का प्रयास करूंगा, ताकि वास्तविक तथ्यों पर कार्रवाई हो सके।</s>
<s>[INST]आप एक सिविल सेवक हैं। आपको नदी जोड़ो परियोजना की संभावनाओं का पता लगाने के लिये जाँच समिति में एक सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया है। संभावनाओं के सर्वेक्षण के दौरान पता चलता है कि इससे न केवल एक मुख्यधारा से दूर विशाल जनजातीय समूह प्रभावित होगा, बल्कि साथ ही यह एक नेशनल पार्क घोषित क्षेत्र के बड़े भाग को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करेगा। जाँच समिति को आप अपने विचारों से अवगत कराते हैं किंतु आपके विचारों को महत्त्व न देते हुए समिति के अन्य सदस्य आप पर उनके विचारों का समर्थन करने का दबाव डालते हैं। इसके अलावा वे आपको आर्थिक लाभ पहुँचाने की बात भी कहते हैं। जब आप जाँच की वास्तविकता का पता संबंधित मंत्री को बताने का फैसला करते हैं तो आपको पता चलता है कि यह मंत्री के इशारे पर ही हो रहा है क्योंकि इससे उन्हें अनुचित लाभ प्राप्त होने की संभावना है। (a)इसमें कौन-कौन से नैतिक मुद्दे शामिल हैं ? (b) आपकी कार्रवाई क्या होगी और क्यों?[/INST]उत्तर : दी गई केस स्टडी में निम्नलिखित नैतिक मुद्दे शामिल हैं: विकास बनाम पर्यावरणीय नैतिकताः नदी जोड़ो परियोजना का उद्देश्य कल्याण को बढ़ावा देना है। इसके अंतर्गत सरप्लस जल वाली नदियों के पानी को कम या न्यून जल वाली नदियों में स्थानांतरित किया जाएगा, किंतु यह पर्यावरणीय नैतिकता के विरुद्ध है। इससे जैव विविधता के संरक्षण को हानि पहुँच रही है, जो न केवल वहाँ के जीवित वन्य जीवों के लिये अपितु पर्यावरणीय अवकर्षण को बढ़ावा देगा। विकास बनाम जनजातीय समूहों के अधिकारः यद्यपि नदियों को जोड़ने से विकास को बढ़ावा मिलेगा किंतु किसी एक वर्ग के अधिकारों की कीमत पर दूसरे लोगों को लाभ पहुँचना नैतिक नहीं कहा जा सकता है। विविधता का सम्मान करना नैतिक दृष्टि से उत्कृष्ट है। चूँकि जनजातीय समूह अभी भी समाज की मुख्यधारा से अलग हैं उनकी अपनी संस्कृति और मूल्य हैं। वे इस विकास की प्रक्रिया से प्रभावित होंगे। अतः इसे नैतिक नहीं कहा जा सकता। भ्रष्टाचार का मुद्दाः वर्तमान में भ्रष्टाचार की समस्या नैतिकता में गिरावट के मुख्य कारकों में से एक है। यहाँ आर्थिक लाभ की संभावना ईमानदारी, सत्यनिष्ठा के विरुद्ध तथा पक्षपात की संभावनाओं को उत्पन्न करती है। अनुपालन और गवर्नेंस का मुद्दाः विकास के साथ पर्यावरणीय कानून, कल्याणवाद, सहकारिता, नागरिक अधिकार आदि मुद्दे जुड़े हैं। इनके बिना गुड गवर्नेंस और एथिकल गवर्नेंस की प्राप्ति संभव नहीं है। (b) आपकी कार्रवाई क्या होगी और क्यों? चूँकि यह एक अत्यंत संवेदनशील मुद्दा है, जिसमें अनेक वर्गों के हित जुड़े हैं। अतः मेरी कार्रवाई निम्न प्रकार होगीः मैं सर्वप्रथम किसी भी आर्थिक लाभ की संभावना को समाप्त करते हुए अपने मत पर डटा रहूंगा। इसके बाद मैं अनुनय का प्रयोग करते हुए उनके मत को परिवर्तित करने की कोशिश करूंगा। फिर भी यदि वह परियोजना के संबंध में अनुमति देते हैं तौ मैं अन्य विकल्पों पर कार्यवाही करूंगा। मैं संबंधित सर्वेक्षणों के वास्तविक डाटा को राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण और अनुसूचित जनजातीय कमीशन को अप्रत्यक्ष रूप से प्रेषित करने का प्रयास करूंगा, ताकि वास्तविक तथ्यों पर कार्रवाई हो सके।</s>
<s>[INST]आपको हाल ही में जयपुर (राजस्थान) का कमिश्नर नियुक्त किया गया है। नियुक्ति के बाद आपको लगातार वेश्यावृत्ति, चाइल्ड पोर्नोग्राफी और महिला एवं बच्चों की तस्करी की सूचना मिलती है। आपने इस संबंध में कार्रवाई के लिये कई प्रयास किये किंतु कोई ठोस नतीजा प्राप्त करने में असफल रहे हैं। कुछ दिनों बाद आपको पता चलता है कि इसमें आपके विभाग के ही कुछ कर्मचारियों का सहयोग है, जिससे छापामारी से पहले ही इस कार्य में संलिप्त लोगों को जानकारी मिल जाती है। अंततः आप गुप्त रूप से छानबीन करने का फैसला लेते हैं। इसी दौरान आपको पता चलता है कि इन कार्यों में संलग्न मुख्य व्यक्तियों में आपका एक घनिष्ठ मित्र भी है, जो किसी समय आपके साथ सिविल सेवा की तैयारी करता था। इसके अलावा, कुछ नेताओं के शामिल होने का भी पता चला है। (a) इस संबंध में आपकी कार्रवाई क्या-क्या होगी? (b) कार्रवाई के विभिन्न विकल्पों के गुणों-अवगुणों पर चर्चा करें।[/INST]उत्तर : (a) इस संबंध में आपकी कार्रवाई क्या-क्या होगी? दी गई परिस्थितियों के अनुसार मेरे पास निम्नलिखित विकल्प होंगेः मैं इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं करूंगा। मैं इन गतिविधियों में संलिप्त कुछ लोगों पर कार्रवाई करूंगा और अन्य लोगों, जैसे- दोस्त, नेताओं आदि को पहले से ही सूचित कर दूंगा। मैं वहाँ से अपना ट्रांसफर दूसरी जगह करवा लूंगा। मैं अलग-अलग टीमों का गठन करूंगा और सभी लोगों पर एक साथ कार्रवाई करूंगा। (b) कार्रवाई के विभिन्न विकल्पों के गुणों-अवगुणों पर चर्चा करें। विकल्प (1): चूँकि इसमें मेरा दोस्त जो उच्च शिक्षा प्राप्त है, शायद किसी मजबूरी में ही ऐसी गतिविधियों में शामिल हुआ है। इसके अलावा, मेरे स्टाफ के कुछ लोग और नेता भी शामिल हैं, इन पर कोई कार्रवाई मेरे कॅरियर और फैमिली के लिये घातक हो सकती है। अतः यह मेरे लिये अच्छा विकल्प है। किंतु यह विकल्प निष्क्रियता का सूचक है और इससे पराजयवाद की गंध आती है। ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर निष्क्रियता बरतना समाज में गलत गतिविधियों को बढ़ावा देने जैसा है, अतः मैं यह विकल्प स्वीकार नहीं करूंगा। विकल्प (2): इस विकल्प को चुनने से यद्यपि मैं दोस्त, स्टॉफ और नेताओं की नज़रों में अच्छा बन जाऊंगा किंतु यह सही नहीं होगा। कुछ लोगों पर कार्रवाई करना समस्या का समाधान नहीं है। अतः मैं यह विकल्प नहीं चुनूंगा। विकल्प (3): यह मेरे लिये सही विकल्प होगा क्योंकि इससे मैं नैतिक दुविधा से बच जाऊंगा। चूँकि मैं ऐसी गतिविधियों को स्वीकार नहीं कर सकता और मेरा ट्रांसफर हो जाता है तो मैं कोई भी असामान्य स्थिति से बच सकूंगा। लेकिन यह विकल्प प्रशासनिक और नैतिक मूल्यों के विरुद्ध है। यह परिहत की बजाय स्वार्थपरकता पर केंद्रित है। अतः मैं इस विकल्प को नहीं स्वीकार कर सकता। विकल्प (4): यह मेरे लिये सर्वोत्तम विकल्प होगा। यद्यपि दोस्त उच्च शिक्षित है किंतु इस आधार पर उस पर कार्रवाई न करना ऐसे लोगों को प्रोत्साहित करने के समान है। नेताओं पर ऐसी कार्रवाई राजनैतिक नैतिकता को बढ़ाने में सहयोग करेगी और कार्यालय के लोगों पर कार्रवाई कार्यस्थल पर नैतिकता को स्थापित करेगी। अतः मैं संवैधानिक प्रावधानों और प्रशासनिक कोड ऑफ एथिक्स के अनुसार सभी पर एक साथ कार्रवाई करूंगा।</s>
<s>[INST]आपको हाल ही में जयपुर (राजस्थान) का कमिश्नर नियुक्त किया गया है। नियुक्ति के बाद आपको लगातार वेश्यावृत्ति, चाइल्ड पोर्नोग्राफी और महिला एवं बच्चों की तस्करी की सूचना मिलती है। आपने इस संबंध में कार्रवाई के लिये कई प्रयास किये किंतु कोई ठोस नतीजा प्राप्त करने में असफल रहे हैं। कुछ दिनों बाद आपको पता चलता है कि इसमें आपके विभाग के ही कुछ कर्मचारियों का सहयोग है, जिससे छापामारी से पहले ही इस कार्य में संलिप्त लोगों को जानकारी मिल जाती है। अंततः आप गुप्त रूप से छानबीन करने का फैसला लेते हैं। इसी दौरान आपको पता चलता है कि इन कार्यों में संलग्न मुख्य व्यक्तियों में आपका एक घनिष्ठ मित्र भी है, जो किसी समय आपके साथ सिविल सेवा की तैयारी करता था। इसके अलावा, कुछ नेताओं के शामिल होने का भी पता चला है। (a) इस संबंध में आपकी कार्रवाई क्या-क्या होगी? (b) कार्रवाई के विभिन्न विकल्पों के गुणों-अवगुणों पर चर्चा करें।[/INST]उत्तर : (a) इस संबंध में आपकी कार्रवाई क्या-क्या होगी? दी गई परिस्थितियों के अनुसार मेरे पास निम्नलिखित विकल्प होंगेः मैं इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं करूंगा। मैं इन गतिविधियों में संलिप्त कुछ लोगों पर कार्रवाई करूंगा और अन्य लोगों, जैसे- दोस्त, नेताओं आदि को पहले से ही सूचित कर दूंगा। मैं वहाँ से अपना ट्रांसफर दूसरी जगह करवा लूंगा। मैं अलग-अलग टीमों का गठन करूंगा और सभी लोगों पर एक साथ कार्रवाई करूंगा। (b) कार्रवाई के विभिन्न विकल्पों के गुणों-अवगुणों पर चर्चा करें। विकल्प (1): चूँकि इसमें मेरा दोस्त जो उच्च शिक्षा प्राप्त है, शायद किसी मजबूरी में ही ऐसी गतिविधियों में शामिल हुआ है। इसके अलावा, मेरे स्टाफ के कुछ लोग और नेता भी शामिल हैं, इन पर कोई कार्रवाई मेरे कॅरियर और फैमिली के लिये घातक हो सकती है। अतः यह मेरे लिये अच्छा विकल्प है। किंतु यह विकल्प निष्क्रियता का सूचक है और इससे पराजयवाद की गंध आती है। ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर निष्क्रियता बरतना समाज में गलत गतिविधियों को बढ़ावा देने जैसा है, अतः मैं यह विकल्प स्वीकार नहीं करूंगा। विकल्प (2): इस विकल्प को चुनने से यद्यपि मैं दोस्त, स्टॉफ और नेताओं की नज़रों में अच्छा बन जाऊंगा किंतु यह सही नहीं होगा। कुछ लोगों पर कार्रवाई करना समस्या का समाधान नहीं है। अतः मैं यह विकल्प नहीं चुनूंगा। विकल्प (3): यह मेरे लिये सही विकल्प होगा क्योंकि इससे मैं नैतिक दुविधा से बच जाऊंगा। चूँकि मैं ऐसी गतिविधियों को स्वीकार नहीं कर सकता और मेरा ट्रांसफर हो जाता है तो मैं कोई भी असामान्य स्थिति से बच सकूंगा। लेकिन यह विकल्प प्रशासनिक और नैतिक मूल्यों के विरुद्ध है। यह परिहत की बजाय स्वार्थपरकता पर केंद्रित है। अतः मैं इस विकल्प को नहीं स्वीकार कर सकता। विकल्प (4): यह मेरे लिये सर्वोत्तम विकल्प होगा। यद्यपि दोस्त उच्च शिक्षित है किंतु इस आधार पर उस पर कार्रवाई न करना ऐसे लोगों को प्रोत्साहित करने के समान है। नेताओं पर ऐसी कार्रवाई राजनैतिक नैतिकता को बढ़ाने में सहयोग करेगी और कार्यालय के लोगों पर कार्रवाई कार्यस्थल पर नैतिकता को स्थापित करेगी। अतः मैं संवैधानिक प्रावधानों और प्रशासनिक कोड ऑफ एथिक्स के अनुसार सभी पर एक साथ कार्रवाई करूंगा।</s>
<s>[INST]भारत और पाकिस्तान के बीच लंबे समय बाद क्रिकेट मैच खेला जाना है, जो कि कूटनीतिक दृष्टि से दोनों देशों के मध्य संबंध सुधारने के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। आपको हाल में भारतीय क्रिकेट टीम में चुना गया है। मैच से एक दिन पहले आप अपने टीम के सदस्यों के बीच मैच फिक्सिंग को लेकर चर्चा सुनते हैं। कुछ समय बाद आपकी टीम का कप्तान आपको 1 करोड़ का ऑफर देता है तथा ऑफर स्वीकार न करने पर आपको टीम से बाहर निकालने की धमकी देता है। आप लंबे समय की मेहनत के बाद योग्यता के आधार पर टीम में चुने गए हैं और आप इस मौके को किसी भी हाल में खोना नहीं चाहते। साथ ही, आपके परिवार की आर्थिक स्थिति अत्यंत कमज़ोर है। प्रथमतः आप चुप रहने का फैसला करते हैं किंतु आपका अंतःकरण इसको स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं है। (a) आपके पास कौन-कौन से विकल्प हैं? (b) विभिन्न विकल्पों के गुण-अवगुण बताते हुए उच्चतम विकल्प बताएँ।[/INST]उत्तर : केस स्टडी में दी गई परिस्थितियों के अनुसार मेरे पास निम्न विकल्प होंगेः कप्तान द्वारा दिये गए ऑफर को स्वीकार कर लूंगा। दिये गए ऑफर को स्वीकार नहीं करूंगा। किंतु जैसा कप्तान कहेगा, उसी के अनुरूप खेलने के लिये तैयार हो जाऊंगा। टीम के सभी सदस्यों से बात करूंगा और उन्हें मैच फिक्सिंग न करने के लिये राजी करूंगा। टीम के वरिष्ठ पदाधिकारियों को सूचित करूंगा। मीडिया में जाकर मैच फिक्सिंग का खुलासा करूंगा। (b) विभिन्न विकल्पों के गुण-अवगुण बताते हुए उच्चतम विकल्प बताएँ। विकल्प (1): चूँकि मेरी आर्थिक स्थिति कमज़ोर है। अतः ऑफर की गई राशि से मेरी इस समस्या का हल हो जाएगा। किंतु मैं इस विकल्प को स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि एक तरफ यह मेरी सत्यनिष्ठा और गरिमा एवं अन्तःकरण के मूल्यों के विरुद्ध है। वहीं, दूसरी ओर यह प्रत्यक्षतः भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम का उल्लंघन करता है। विकल्प (2): यह विकल्प चुनने से यद्यपि मेरी आर्थिक समस्या को हल करने का मौका हाथ से निकल जाएगा किंतु मेरी अंतरात्मा और मेरे मूल्यों को बनाए रखा जा सकेगा। किंतु यह विकल्प भी गलत है। किसी मामले में निष्क्रिय हो जाना, जो कि नैतिक मूल्यों के विरुद्ध हो, तो भी अपने आप में एक भ्रष्ट गतिविधि है। विकल्प (3): हाँ यह एक अच्छा विकल्प हो सकता है। मैं अनुनय का प्रयोग करते हुए बताऊंगा कि यह कार्य करना भ्रष्ट गतिविधि है और यदि यह बात लीक हो जाती है तो सबका कॅरियर बर्बाद हो सकता है। यद्यपि यह कार्य आसान लगता है किंतु वास्तव में यह बहुत ही मुश्किल विकल्प है। चूँकि कप्तान पहले से ही निर्णय ले चुका है और उसने कहा भी है कि यदि में ऑफर स्वीकार नहीं करता हूँ तो टीम से निकाल दिया जाऊंगा। अतः यह विकल्प भी संभव नहीं है। विकल्प (4): यह विकल्प सर्वोत्तम होगा। इससे मामले को गुप्त भी रखा जा सकेगा और उचित कार्यवाही भी संभव है। यद्यपि यहाँ यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि वरिष्ठ पदाधिकारियों के इशारे पर ऐसा हो रहा हो, किंतु संभावनाओं के आधार पर निर्णय संभव नहीं है। विकल्प (5): मेरे पास यह भी विकल्प है कि इससे मैं मीडिया और देश में अच्छी छवि बना सकता हूँ। इससे अन्य लोगों को भी प्रेरणा मिलेगी कि वे गलत कार्यों का विरोध करें। किंतु, चूँकि यह भारत और पाकिस्तान के बीच कूटनीतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है तथा किसी भी असामान्य स्थिति में रिश्ते और बिगड़ सकते हैं। अतः मैं इस विकल्प को नहीं चुनूंगा।</s>
<s>[INST]भारत और पाकिस्तान के बीच लंबे समय बाद क्रिकेट मैच खेला जाना है, जो कि कूटनीतिक दृष्टि से दोनों देशों के मध्य संबंध सुधारने के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। आपको हाल में भारतीय क्रिकेट टीम में चुना गया है। मैच से एक दिन पहले आप अपने टीम के सदस्यों के बीच मैच फिक्सिंग को लेकर चर्चा सुनते हैं। कुछ समय बाद आपकी टीम का कप्तान आपको 1 करोड़ का ऑफर देता है तथा ऑफर स्वीकार न करने पर आपको टीम से बाहर निकालने की धमकी देता है। आप लंबे समय की मेहनत के बाद योग्यता के आधार पर टीम में चुने गए हैं और आप इस मौके को किसी भी हाल में खोना नहीं चाहते। साथ ही, आपके परिवार की आर्थिक स्थिति अत्यंत कमज़ोर है। प्रथमतः आप चुप रहने का फैसला करते हैं किंतु आपका अंतःकरण इसको स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं है। (a) आपके पास कौन-कौन से विकल्प हैं? (b) विभिन्न विकल्पों के गुण-अवगुण बताते हुए उच्चतम विकल्प बताएँ।[/INST]उत्तर : केस स्टडी में दी गई परिस्थितियों के अनुसार मेरे पास निम्न विकल्प होंगेः कप्तान द्वारा दिये गए ऑफर को स्वीकार कर लूंगा। दिये गए ऑफर को स्वीकार नहीं करूंगा। किंतु जैसा कप्तान कहेगा, उसी के अनुरूप खेलने के लिये तैयार हो जाऊंगा। टीम के सभी सदस्यों से बात करूंगा और उन्हें मैच फिक्सिंग न करने के लिये राजी करूंगा। टीम के वरिष्ठ पदाधिकारियों को सूचित करूंगा। मीडिया में जाकर मैच फिक्सिंग का खुलासा करूंगा। (b) विभिन्न विकल्पों के गुण-अवगुण बताते हुए उच्चतम विकल्प बताएँ। विकल्प (1): चूँकि मेरी आर्थिक स्थिति कमज़ोर है। अतः ऑफर की गई राशि से मेरी इस समस्या का हल हो जाएगा। किंतु मैं इस विकल्प को स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि एक तरफ यह मेरी सत्यनिष्ठा और गरिमा एवं अन्तःकरण के मूल्यों के विरुद्ध है। वहीं, दूसरी ओर यह प्रत्यक्षतः भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम का उल्लंघन करता है। विकल्प (2): यह विकल्प चुनने से यद्यपि मेरी आर्थिक समस्या को हल करने का मौका हाथ से निकल जाएगा किंतु मेरी अंतरात्मा और मेरे मूल्यों को बनाए रखा जा सकेगा। किंतु यह विकल्प भी गलत है। किसी मामले में निष्क्रिय हो जाना, जो कि नैतिक मूल्यों के विरुद्ध हो, तो भी अपने आप में एक भ्रष्ट गतिविधि है। विकल्प (3): हाँ यह एक अच्छा विकल्प हो सकता है। मैं अनुनय का प्रयोग करते हुए बताऊंगा कि यह कार्य करना भ्रष्ट गतिविधि है और यदि यह बात लीक हो जाती है तो सबका कॅरियर बर्बाद हो सकता है। यद्यपि यह कार्य आसान लगता है किंतु वास्तव में यह बहुत ही मुश्किल विकल्प है। चूँकि कप्तान पहले से ही निर्णय ले चुका है और उसने कहा भी है कि यदि में ऑफर स्वीकार नहीं करता हूँ तो टीम से निकाल दिया जाऊंगा। अतः यह विकल्प भी संभव नहीं है। विकल्प (4): यह विकल्प सर्वोत्तम होगा। इससे मामले को गुप्त भी रखा जा सकेगा और उचित कार्यवाही भी संभव है। यद्यपि यहाँ यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि वरिष्ठ पदाधिकारियों के इशारे पर ऐसा हो रहा हो, किंतु संभावनाओं के आधार पर निर्णय संभव नहीं है। विकल्प (5): मेरे पास यह भी विकल्प है कि इससे मैं मीडिया और देश में अच्छी छवि बना सकता हूँ। इससे अन्य लोगों को भी प्रेरणा मिलेगी कि वे गलत कार्यों का विरोध करें। किंतु, चूँकि यह भारत और पाकिस्तान के बीच कूटनीतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है तथा किसी भी असामान्य स्थिति में रिश्ते और बिगड़ सकते हैं। अतः मैं इस विकल्प को नहीं चुनूंगा।</s>
<s>[INST]नीचे नैतिक दार्शनिकों/विचारकों के दो अवतरण दिये गए हैं। प्रकाश डालिये कि इनमें से प्रत्येक का वर्तमान संदर्भ में आपके लिये क्या महत्त्व है? (a) दूसरों पर वह कभी न थोपो, जो तुम अपने लिये नहीं चुनोगे - कन्फ्यूशियस ।(b) मानवता की पहली शर्त है- जरा-सी विनयशीलता तथा व्यक्ति के आचरण के सही होने के बारे में जरा-सा संकोच और जरा-सी ग्रहणशीलता - गांधीजी।[/INST]उत्तर : (a) दूसरों पर वह कभी न थोपो, जो तुम अपने लिये नहीं चुनोगे - कन्फ्यूशियस । कन्फ्यूशियस का यह कथन ‘गोल्डन रूल’ से संबंधित है। यह नियम कहता है कि हर व्यक्ति को दूसरे के साथ दयालुता का व्यवहार करना चाहिये। प्रत्येक मानव को दूसरे के द्वारा दयालुता व परवाह का व्यवहार किया जाना पंसद है। यह नियम स्वतः ही नैतिक व्यवहार उत्पन्न करता है। लेकिन व्यावहारिक रूप से लोगों की रुचियाँ, ज़रूरतें और अभिवृत्तियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं। ऐसे में एक व्यक्ति के लिये यह मुश्किल हो सकता है कि वह कैसा व्यवहार करे। अतः ऐसी स्थिति में व्यक्ति को वही व्यवहार करना चाहिये, जो वह चाहता है कि लोग उसके साथ करें। वर्तमान में इसका अत्यंत महत्त्व है। बढ़ता धार्मिक उन्माद, लैंगिक भेदभाव, समाज के कमज़ोर और पिछड़े वर्ग पर अत्याचार, कार्यस्थल पर अमानवीय परिस्थितियाँ, भ्रष्टाचार आदि मुद्दे हैं, जोकि ‘गोल्डन रूल’ से दूर किये जा सकते हैं। उदाहरणस्वरूप, समाज में हर कोई दहेज़ लेने और देने का विरोध करता है किंतु जब खुद की बारी दहेज़ लेने की आती है, तो वह उसको सहर्ष स्वीकार करता है। इसी प्रकार जब समाज में उच्च वर्ग द्वारा पिछड़ी जातियों का शोषण किया जाता है, तो वह इस पर गर्व महसूस करता है किंतु जब वह स्वयं ऐसी स्थिति से गुजरता है तो यह उसके अहम् को चोट पहुँचाने वाला होता है, जो अंततः बुरे परिणाम जैसे हत्या के रूप में सामने आता है। अतः आवश्यक है कि व्यक्ति दूसरों के विचारों, व्यवहारों को उतना ही महत्त्व दे जितना कि वह स्वयं अपने लिये चाहता है। (b) मानवता की पहली शर्त है- जरा-सी विनयशीलता तथा व्यक्ति के आचरण के सही होने के बारे में जरा-सा संकोच और जरा-सी ग्रहणशीलता - गांधीजी। गांधी जी का यह कथन मानव के लिये विनयशीलता के महत्त्व को बताता है। विनयशीलता से तात्पर्य है कि हमें स्वंय को दूसरों से ऊँचे पायदान पर नहीं रखना चाहिये, चाहे हम योग्यताओं और उपलब्धियों में बहुत ज्यादा ही क्यों न हों। विनयशीलता का अर्थ स्वयं को तुच्छ मानना या अपने गुणों, योग्यताओं और उपलब्धियों को नकारना नहीं है, बल्कि यह एक सद्गुण है जो मानव में उच्च नैतिकता स्थापित करने का कार्य करता है। परंपरागततौर पर दंभ, गर्व और अकड़ को विनयशीलता के विपरीत अवगुण माना जाता रहा है। दंभ से आडंबर या दिखावा, घमण्ड और अन्यों को नीच समझने जैसे भाव आते हैं। इससे अपने को श्रेष्ठ समझने का भाव पैदा होता है, जिसे अन्य लोग असहज पाते हैं। विशेष रूप से शक्ति संपन्न लोग आत्म-संतुष्ट हो जाते हैं तथा आसानी से चापलूसी के आदी हो जाते हैं। जो लोग स्वंय का अच्छा सोचते हैं, वे दूसरों का बुरा सोचने लगते हैं। विनम्रता और विनयशीलता का भाव आडंबर और स्वयं को सही समझने जैसे भावों के सुधारक का काम करता है। वर्तमान प्रशासन और राजनीति में यह अत्यंत महत्त्चपूर्ण है। जब तक इन दोनों से जुड़े लोग विन्रमता का गुण ग्रहण नहीं कर लेते, वे आम आदमी की समस्याओं के लिये चिंता और विचार प्रदर्शित नहीं कर पाएंगे। इन्हें अपना कर्त्तव्य लोगों की सेवा समझना चाहिये। उन्हें स्वयं को शासक या मालिक नहीं समझना चाहिये। वे उस शक्ति के न्यासी हैं, जो अंततः लोगों से ही प्राप्त होती है।</s>
<s>[INST]नीचे नैतिक दार्शनिकों/विचारकों के दो अवतरण दिये गए हैं। प्रकाश डालिये कि इनमें से प्रत्येक का वर्तमान संदर्भ में आपके लिये क्या महत्त्व है? (a) दूसरों पर वह कभी न थोपो, जो तुम अपने लिये नहीं चुनोगे - कन्फ्यूशियस ।(b) मानवता की पहली शर्त है- जरा-सी विनयशीलता तथा व्यक्ति के आचरण के सही होने के बारे में जरा-सा संकोच और जरा-सी ग्रहणशीलता - गांधीजी।[/INST]उत्तर : (a) दूसरों पर वह कभी न थोपो, जो तुम अपने लिये नहीं चुनोगे - कन्फ्यूशियस । कन्फ्यूशियस का यह कथन ‘गोल्डन रूल’ से संबंधित है। यह नियम कहता है कि हर व्यक्ति को दूसरे के साथ दयालुता का व्यवहार करना चाहिये। प्रत्येक मानव को दूसरे के द्वारा दयालुता व परवाह का व्यवहार किया जाना पंसद है। यह नियम स्वतः ही नैतिक व्यवहार उत्पन्न करता है। लेकिन व्यावहारिक रूप से लोगों की रुचियाँ, ज़रूरतें और अभिवृत्तियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं। ऐसे में एक व्यक्ति के लिये यह मुश्किल हो सकता है कि वह कैसा व्यवहार करे। अतः ऐसी स्थिति में व्यक्ति को वही व्यवहार करना चाहिये, जो वह चाहता है कि लोग उसके साथ करें। वर्तमान में इसका अत्यंत महत्त्व है। बढ़ता धार्मिक उन्माद, लैंगिक भेदभाव, समाज के कमज़ोर और पिछड़े वर्ग पर अत्याचार, कार्यस्थल पर अमानवीय परिस्थितियाँ, भ्रष्टाचार आदि मुद्दे हैं, जोकि ‘गोल्डन रूल’ से दूर किये जा सकते हैं। उदाहरणस्वरूप, समाज में हर कोई दहेज़ लेने और देने का विरोध करता है किंतु जब खुद की बारी दहेज़ लेने की आती है, तो वह उसको सहर्ष स्वीकार करता है। इसी प्रकार जब समाज में उच्च वर्ग द्वारा पिछड़ी जातियों का शोषण किया जाता है, तो वह इस पर गर्व महसूस करता है किंतु जब वह स्वयं ऐसी स्थिति से गुजरता है तो यह उसके अहम् को चोट पहुँचाने वाला होता है, जो अंततः बुरे परिणाम जैसे हत्या के रूप में सामने आता है। अतः आवश्यक है कि व्यक्ति दूसरों के विचारों, व्यवहारों को उतना ही महत्त्व दे जितना कि वह स्वयं अपने लिये चाहता है। (b) मानवता की पहली शर्त है- जरा-सी विनयशीलता तथा व्यक्ति के आचरण के सही होने के बारे में जरा-सा संकोच और जरा-सी ग्रहणशीलता - गांधीजी। गांधी जी का यह कथन मानव के लिये विनयशीलता के महत्त्व को बताता है। विनयशीलता से तात्पर्य है कि हमें स्वंय को दूसरों से ऊँचे पायदान पर नहीं रखना चाहिये, चाहे हम योग्यताओं और उपलब्धियों में बहुत ज्यादा ही क्यों न हों। विनयशीलता का अर्थ स्वयं को तुच्छ मानना या अपने गुणों, योग्यताओं और उपलब्धियों को नकारना नहीं है, बल्कि यह एक सद्गुण है जो मानव में उच्च नैतिकता स्थापित करने का कार्य करता है। परंपरागततौर पर दंभ, गर्व और अकड़ को विनयशीलता के विपरीत अवगुण माना जाता रहा है। दंभ से आडंबर या दिखावा, घमण्ड और अन्यों को नीच समझने जैसे भाव आते हैं। इससे अपने को श्रेष्ठ समझने का भाव पैदा होता है, जिसे अन्य लोग असहज पाते हैं। विशेष रूप से शक्ति संपन्न लोग आत्म-संतुष्ट हो जाते हैं तथा आसानी से चापलूसी के आदी हो जाते हैं। जो लोग स्वंय का अच्छा सोचते हैं, वे दूसरों का बुरा सोचने लगते हैं। विनम्रता और विनयशीलता का भाव आडंबर और स्वयं को सही समझने जैसे भावों के सुधारक का काम करता है। वर्तमान प्रशासन और राजनीति में यह अत्यंत महत्त्चपूर्ण है। जब तक इन दोनों से जुड़े लोग विन्रमता का गुण ग्रहण नहीं कर लेते, वे आम आदमी की समस्याओं के लिये चिंता और विचार प्रदर्शित नहीं कर पाएंगे। इन्हें अपना कर्त्तव्य लोगों की सेवा समझना चाहिये। उन्हें स्वयं को शासक या मालिक नहीं समझना चाहिये। वे उस शक्ति के न्यासी हैं, जो अंततः लोगों से ही प्राप्त होती है।</s>
<s>[INST]"जब कोई व्यक्ति ठीक काम करता है, तो उसे पता तक नहीं चलता कि वह क्या कर रहा है, पर गलत काम करते समय उसे हर समय यह ख्याल रहता है कि वह जो कर रहा है, वह गलत है।" क्या आप इस कथन से सहमत हैं? उदाहरण के साथ स्पष्ट करें।[/INST]उत्तर : एक कहावत है- ‘यदि कोई व्यक्ति सदैव सत्य बोलता है तो उसे अपनी कही किसी बात को याद रखने की आवश्यकता नहीं होती। लेकिन, अपनी कही हर उस बात को याद रखना किसी व्यक्ति की मजबूरी होती है, जो झूठी हों।’ इसी प्रकार जब हम अपनी दिनचर्या में उचित, सामाजिक परम्पराओं के अनुकूल तथा वैध कार्य करते हैं तो हमें उस संबंध में ज्यादा सोचने-विचारने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि सही, उचित और वैध कृत्य करने से मानसिक संवेग बहुत अधिक उद्वेलित नहीं होते; लेकिन हाँ, यदि हम सीमाओं से परे जाकर कोई बहुत अच्छा कार्य करते हैं तब अवश्य हम अति उत्साहित होते हैं, उल्लासित होते हैं तथा उसकी स्मृति लंबे समय तक हमारे मस्तिष्क में रहती है। किंतु, जब भी कोई व्यक्ति गलत, अवैध, अनुचित या नैतिक सिद्धांतों के विपरीत कार्य करता है तब उसकी चेतना हमेशा सजग रहते हुए उसे इस तथ्य का एहसास अवश्य कराती रहती है कि वह गलत कर रहा है। व्यक्ति की स्वाभाविक प्रकृति ऐसे कृत्य के दौरान उद्वेलित होती है। यहाँ एक बात को स्मरण रखना आवश्यक है। ये प्रतिक्रियाएँ एक सामान्य मानसिक स्थिति वाले व्यक्ति की हैं जो ‘भावनात्मक प्रज्ञता’ भी रखता है। क्योंकि, अपने संवेगों को पहचानना एवं समझना, दूसरे के संवेगों केा पहचानना तथा अपने संवेगों पर नियंत्रण रखने जैसे गुण एक ‘भावनात्मक प्रज्ञता’ से युक्त व्यक्ति में ही होते हैं। प्रश्न में कहे गए कथन को एक उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं- एक व्यक्ति बहुत दयालु प्रकृति का है। वह जब भी किसी भूखे या जरूरतमंद को देखता है तो उसको खाना खिलाने या उसकी मदद करने में कभी संकोच नहीं करता है। यह सब उसकी दिनचर्या में स्वाभाविक तौर पर घटता है। लेकिन उस व्यक्ति की कुछ आर्थिक सीमाएँ हैं। कई बार जब उसके पास किसी की मदद के लिये पैसे नहीं होते, तब वह नजदीक के एक मंदिर से चढ़ावे में आए कुछ रुपये चुरा लेता है। उस व्यक्ति को स्वाभाविक तौर पर उसके द्वारा किये जा रहे अच्छे कार्यों की अपेक्षा इस अनुचित और गलत कृत्य का सदैव स्मरण रहता है। उसकी स्मृति में सदैव उसके गलत कार्यों की मौजूदगी उसे उद्वेलित करती रहती है।</s>
<s>[INST]स्पष्ट कीजिये कि आचारनीति समाज और मानव का किस प्रकार भला करती है।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: आचार नीति और समाज में अंतर्संबंध क्या है? ये किस प्रकार सामाजिक समंजस्य बनाने में मानव की मदद करते हैं। अगर इस विचार को निर्विवाद मान लें कि हर व्यक्ति सुख की आकांक्षा रखता है तो हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि बिना किसी नियंत्रण के ‘अपने-अपने’ सुखों के निर्धारण और उसकी प्राप्ति के तरीकों में व्यापक भिन्नता होगी, परिणामतः एक व्यापक संघर्ष का जन्म होगा जो अंततः बलशाली के पक्ष में झुक जाएगा। इससे एक प्रकार की अराजकता उत्पन्न होगी, जो मानव और समाज दोनों के अस्तित्व पर संकट उत्पन्न करेगी। इसी भयावह और अराजक स्थिति से बचने के लिये जिन अनेक व्यवस्थाओं का निर्माण हुआ, उनमें ‘आचारनीति’ एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। मानव और समाज कल्याण के संदर्भ में आचारनीति के महत्त्व को निम्नांकित बिंदुओं के माध्यम से व्यक्त किया जा सकता हैः इससे समाज की नैतिक व्यवस्था का निर्माण होता है जिसमें दया, करुणा, समानुभूति और परोपकार जैसे मूल्य समाहित होते हैं। इस प्रकार समाज वंचितों का पक्षधर बनता है। यह शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व पर बल देती है साथ ही निकृष्ट सुखों के ऊपर उत्कृष्ट सुखों को वरीयता देती है। इससे सामाजिक विचलन कम होता है तथा समाज में एक प्रकार का संतुलन बना रहता है। आचारनीति एक समय में समाज में आम सहमति का निर्माण करती है जिससे व्यक्ति ‘स्व-प्रेरणा’ से सत्य, न्याय जैसे उच्च मूल्यों का अनुगमन करता है। इस प्रकार आचारनीति स्थानिक विशेषताओं से युक्त और ऐतिहासिक रूप से निर्मित एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करती है, जो समाज को कल्याणकारी मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित करती है।</s>
<s>[INST]स्पष्ट कीजिये कि आचारनीति समाज और मानव का किस प्रकार भला करती है।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: आचार नीति और समाज में अंतर्संबंध क्या है? ये किस प्रकार सामाजिक समंजस्य बनाने में मानव की मदद करते हैं। अगर इस विचार को निर्विवाद मान लें कि हर व्यक्ति सुख की आकांक्षा रखता है तो हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि बिना किसी नियंत्रण के ‘अपने-अपने’ सुखों के निर्धारण और उसकी प्राप्ति के तरीकों में व्यापक भिन्नता होगी, परिणामतः एक व्यापक संघर्ष का जन्म होगा जो अंततः बलशाली के पक्ष में झुक जाएगा। इससे एक प्रकार की अराजकता उत्पन्न होगी, जो मानव और समाज दोनों के अस्तित्व पर संकट उत्पन्न करेगी। इसी भयावह और अराजक स्थिति से बचने के लिये जिन अनेक व्यवस्थाओं का निर्माण हुआ, उनमें ‘आचारनीति’ एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। मानव और समाज कल्याण के संदर्भ में आचारनीति के महत्त्व को निम्नांकित बिंदुओं के माध्यम से व्यक्त किया जा सकता हैः इससे समाज की नैतिक व्यवस्था का निर्माण होता है जिसमें दया, करुणा, समानुभूति और परोपकार जैसे मूल्य समाहित होते हैं। इस प्रकार समाज वंचितों का पक्षधर बनता है। यह शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व पर बल देती है साथ ही निकृष्ट सुखों के ऊपर उत्कृष्ट सुखों को वरीयता देती है। इससे सामाजिक विचलन कम होता है तथा समाज में एक प्रकार का संतुलन बना रहता है। आचारनीति एक समय में समाज में आम सहमति का निर्माण करती है जिससे व्यक्ति ‘स्व-प्रेरणा’ से सत्य, न्याय जैसे उच्च मूल्यों का अनुगमन करता है। इस प्रकार आचारनीति स्थानिक विशेषताओं से युक्त और ऐतिहासिक रूप से निर्मित एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करती है, जो समाज को कल्याणकारी मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित करती है।</s>
<s>[INST]हमें देश में महिलाओं के प्रति यौन-उत्पीड़न के बढ़ते हुए दृष्टांत दिखाई दे रहे हैं। इस कुकृत्य के विरुद्ध विद्यमान विधिक उपबंधों के होते हुए भी,ऐसी घटनाओं की संख्या बढ़ रही है। इस संकट से निपटने के लिये कुछ नवाचारी उपाय सुझाइये।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: बढ़ते यौन-उत्पीड़न को रोकने के लिए नये तथा प्रभावशाली उपायों का उल्लेख। किसी महिला को उसकी इच्छा के विरुद्ध छूने की कोशिश करना,उससे ज़बरदस्ती अश्लील बातें करना या उसे अश्लील फिल्म दिखाना...आदि महिला यौन उत्पीड़न के मुख्य कारक माने जाते हैं । सरकार तथा नागरिकों की यह ज़िम्मेदारी बनती है की वह महिलाओं के लिए सार्वजनिक तथा निजी दोनों कार्यस्थलों में सुरक्षित वातावरण उपलब्ध करायें, चाहे वह संगठित क्षेत्र हो या असंगठित। सरकार द्वारा कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न अधिनियम-2013 पारित किये जाने व इसके अतिरिक्त विभिन्न विधिक प्रावधानों के लागू होने के बावजूद महिलाओं के प्रति यौन-उत्पीड़न के मामलों में निरंतर वृद्धि दर्ज़ की जा रही है। महिलाओं के उत्पीड़न को रोकने के कुछ नवाचारी उपाय निम्नलिखित हैं- विद्यालय स्तर पर लड़कियों को अनिवार्यतः ऐसा शारीरिक प्रशिक्षण दिया जाए, जो आत्मरक्षा के लिये पर्याप्त हो। विद्यालयों में स्वस्थ यौन शिक्षा दी जाए, जो किशोरों को यौन-जीवन के प्रति क्रूर और कल्पनाजीवी नहीं, बल्कि संवेदनशील बनाए। विशेषतः लड़कियों को ऐसे यौन-संकेतों आदि से अवगत कराया जाना चाहिये, जिन्हें देखकर वे सही समय पर सजग हो सकें। मीडिया के माध्यम से बच्चों के माता-पिता को भी प्रशिक्षण दिया जाए ताकि वे अपने बच्चों के स्वस्थ मानसिक व संवेदनात्मक विकास में सहायक हो सकें। जो महिलाएँ उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाती हैं, उन्हें समाज व प्रशासन द्वारा यंत्रणा नहीं, सम्मान मिलना चाहिये ताकि महिलाओं में आत्मविश्वास का संचार हो सके। यौन उत्पीड़कों का सामाजिक बहिष्कार किया जाना चाहिये। इसके लिये सोशल मीडिया का सार्थक उपयोग किया जा सकता है। स्वयं महिलाएँ फेसबुक/ट्विटर आदि के माध्यम से दबाव बना सकती हैं।</s>
<s>[INST]हमें देश में महिलाओं के प्रति यौन-उत्पीड़न के बढ़ते हुए दृष्टांत दिखाई दे रहे हैं। इस कुकृत्य के विरुद्ध विद्यमान विधिक उपबंधों के होते हुए भी,ऐसी घटनाओं की संख्या बढ़ रही है। इस संकट से निपटने के लिये कुछ नवाचारी उपाय सुझाइये।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: बढ़ते यौन-उत्पीड़न को रोकने के लिए नये तथा प्रभावशाली उपायों का उल्लेख। किसी महिला को उसकी इच्छा के विरुद्ध छूने की कोशिश करना,उससे ज़बरदस्ती अश्लील बातें करना या उसे अश्लील फिल्म दिखाना...आदि महिला यौन उत्पीड़न के मुख्य कारक माने जाते हैं । सरकार तथा नागरिकों की यह ज़िम्मेदारी बनती है की वह महिलाओं के लिए सार्वजनिक तथा निजी दोनों कार्यस्थलों में सुरक्षित वातावरण उपलब्ध करायें, चाहे वह संगठित क्षेत्र हो या असंगठित। सरकार द्वारा कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न अधिनियम-2013 पारित किये जाने व इसके अतिरिक्त विभिन्न विधिक प्रावधानों के लागू होने के बावजूद महिलाओं के प्रति यौन-उत्पीड़न के मामलों में निरंतर वृद्धि दर्ज़ की जा रही है। महिलाओं के उत्पीड़न को रोकने के कुछ नवाचारी उपाय निम्नलिखित हैं- विद्यालय स्तर पर लड़कियों को अनिवार्यतः ऐसा शारीरिक प्रशिक्षण दिया जाए, जो आत्मरक्षा के लिये पर्याप्त हो। विद्यालयों में स्वस्थ यौन शिक्षा दी जाए, जो किशोरों को यौन-जीवन के प्रति क्रूर और कल्पनाजीवी नहीं, बल्कि संवेदनशील बनाए। विशेषतः लड़कियों को ऐसे यौन-संकेतों आदि से अवगत कराया जाना चाहिये, जिन्हें देखकर वे सही समय पर सजग हो सकें। मीडिया के माध्यम से बच्चों के माता-पिता को भी प्रशिक्षण दिया जाए ताकि वे अपने बच्चों के स्वस्थ मानसिक व संवेदनात्मक विकास में सहायक हो सकें। जो महिलाएँ उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाती हैं, उन्हें समाज व प्रशासन द्वारा यंत्रणा नहीं, सम्मान मिलना चाहिये ताकि महिलाओं में आत्मविश्वास का संचार हो सके। यौन उत्पीड़कों का सामाजिक बहिष्कार किया जाना चाहिये। इसके लिये सोशल मीडिया का सार्थक उपयोग किया जा सकता है। स्वयं महिलाएँ फेसबुक/ट्विटर आदि के माध्यम से दबाव बना सकती हैं।</s>
<s>[INST]लोक सेवा के संदर्भ में ‘जवाबदेही’ का क्या अर्थ है? लोक सेवकों की व्यक्तिगत और सामूहिक जवाबदेही को सुनिश्चित करने के लिये क्या उपाय अपनाए जा सकते हैं?[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: लोक सेवा के संदर्भ में ‘जवाबदेही’का अर्थ समझाएं। लोक सेवकों की व्यक्तिगत और सामूहिक जवाबदेही को सुनिश्चित करने के लिये क्या उचित उपाय किये जा सकते हैं। जवाबदेही का अर्थ है-किसी कार्य से जुड़ी संभावित विफलता या प्रक्रियागत भूलों के लिये किसी व्यक्ति विशेष की ज़िम्मेदारी का निर्धारित होना। ऐसे स्पष्ट निर्धारण से किसी भी कार्य या परियोजना की सफलता की संभावना बढ़ जाती है। लोक सेवा के संदर्भ में भी इसका यही अर्थ है अर्थात् यह निर्धारित करना कि किसी कार्य या परियोजना के संदर्भ में अंतिम ज़िम्मेदारी किस अधिकारी की होगी तथा किसके प्रति होगी? अगर कार्य विफल हुआ तो उसके खिलाफ क्या कदम उठाए जा सकेंगे और उन्हें उठाए जाने की क्या प्रक्रिया होगी? लोक सेवा के मामले में जवाबदेही अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसमें जनता का धन और सुविधाएँ दाँव पर होती हैं और लोकतंत्र में संपूर्ण प्रशासन की अंतिम जवाबदेही जनता के प्रति ही बनती है। लोक सेवकों की व्यक्तिगत और सामूहिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के निम्नलिखित उपाय हैं: सुनिश्चित सोपानक्रम होना चाहिये,जिसमें सभी पदों की शक्तियाँ और उत्तरदायित्व स्पष्टतः परिभाषित हों। किसी कार्य या परियोजना के संदर्भ में सभी अधिकारियों में स्पष्ट कार्य-विभाजन हो। संदेह की गुंजाइश नहीं रहनी चाहिये। ज़िम्मेदारी को निभाने की प्रतिबद्धता और निष्पादन के आधार पर समुचित पुरस्कारों तथा दंडों की वस्तुनिष्ठ व्यवस्था हो। प्रशासन को कर्तव्यनिष्ठ अधिकारियों/कर्मचारियों की संपूर्ण सुरक्षा की गारंटी देनी चाहिये,ताकि वे निर्भयतापूर्वक लोकहित में निर्णय कर सकें। सामूहिक जवाबदेही वाले समूह में ऐसे सदस्य हों,जिनमें पारस्परिक सहयोग की भावना हो, वैमनस्य नहीं। ऊर्ध्वाधर तथा क्षैतिज संचार हर समय उपलब्ध हो,ताकि संवादहीनता के कारण निर्णयन में विलंब न हो। वॉट्सऐप ग्रुप जैसे उपाय इसमें बेहद सहायक हैं।</s>
<s>[INST]लोक सेवा के संदर्भ में ‘जवाबदेही’ का क्या अर्थ है? लोक सेवकों की व्यक्तिगत और सामूहिक जवाबदेही को सुनिश्चित करने के लिये क्या उपाय अपनाए जा सकते हैं?[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: लोक सेवा के संदर्भ में ‘जवाबदेही’का अर्थ समझाएं। लोक सेवकों की व्यक्तिगत और सामूहिक जवाबदेही को सुनिश्चित करने के लिये क्या उचित उपाय किये जा सकते हैं। जवाबदेही का अर्थ है-किसी कार्य से जुड़ी संभावित विफलता या प्रक्रियागत भूलों के लिये किसी व्यक्ति विशेष की ज़िम्मेदारी का निर्धारित होना। ऐसे स्पष्ट निर्धारण से किसी भी कार्य या परियोजना की सफलता की संभावना बढ़ जाती है। लोक सेवा के संदर्भ में भी इसका यही अर्थ है अर्थात् यह निर्धारित करना कि किसी कार्य या परियोजना के संदर्भ में अंतिम ज़िम्मेदारी किस अधिकारी की होगी तथा किसके प्रति होगी? अगर कार्य विफल हुआ तो उसके खिलाफ क्या कदम उठाए जा सकेंगे और उन्हें उठाए जाने की क्या प्रक्रिया होगी? लोक सेवा के मामले में जवाबदेही अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसमें जनता का धन और सुविधाएँ दाँव पर होती हैं और लोकतंत्र में संपूर्ण प्रशासन की अंतिम जवाबदेही जनता के प्रति ही बनती है। लोक सेवकों की व्यक्तिगत और सामूहिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के निम्नलिखित उपाय हैं: सुनिश्चित सोपानक्रम होना चाहिये,जिसमें सभी पदों की शक्तियाँ और उत्तरदायित्व स्पष्टतः परिभाषित हों। किसी कार्य या परियोजना के संदर्भ में सभी अधिकारियों में स्पष्ट कार्य-विभाजन हो। संदेह की गुंजाइश नहीं रहनी चाहिये। ज़िम्मेदारी को निभाने की प्रतिबद्धता और निष्पादन के आधार पर समुचित पुरस्कारों तथा दंडों की वस्तुनिष्ठ व्यवस्था हो। प्रशासन को कर्तव्यनिष्ठ अधिकारियों/कर्मचारियों की संपूर्ण सुरक्षा की गारंटी देनी चाहिये,ताकि वे निर्भयतापूर्वक लोकहित में निर्णय कर सकें। सामूहिक जवाबदेही वाले समूह में ऐसे सदस्य हों,जिनमें पारस्परिक सहयोग की भावना हो, वैमनस्य नहीं। ऊर्ध्वाधर तथा क्षैतिज संचार हर समय उपलब्ध हो,ताकि संवादहीनता के कारण निर्णयन में विलंब न हो। वॉट्सऐप ग्रुप जैसे उपाय इसमें बेहद सहायक हैं।</s>
<s>[INST]सभी मानव सुख की आकांक्षा करते हैं। क्या आप सहमत हैं?आपके लिये सुख का क्या अर्थ है?उदाहरण प्रस्तुत करते हुए स्पष्ट कीजिये।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा : सभी मानव सुख की आकांक्षा करते हैं?अपनी सहमति अथवा असहमति के संदर्भ में तर्क दें। सुख का अर्थ स्पष्ट करें तथा उदहारण दें। तार्किक निष्कर्ष लिखें। मैं बेंथम और मिल जैसे विचारकों की इस धारणा से सहमत हूँ कि सभी मानव सुख की आकांक्षा करते हैं;हालाँकि यह अवश्य है कि सभी के लिये सुख का अर्थ और उसकी परिधि-विस्तार भिन्न-भिन्न हो सकता है। किसी को दूसरों को पीडि़त करने में सुख मिल सकता है तो किसी को दूसरों के लिये त्याग करने में किसी को मदिरापान करने में तो किसी को शास्त्रीय संगीत सुनने में। अगर कोई व्यक्ति सुखों के त्याग को ही अपना उद्देश्य बना ले तो भी मैं जे. एस. मिल की तरह यही मानूँगा कि उसने बस सुख की परिभाषा बदल ली है। अब उसे त्याग से मिलने वाली संतुष्टि और प्रतिष्ठा में सुख मिलने लगा है। मेरे लिये ‘सुख’ बहुस्तरीय अर्थ रखता है, जैसे- निम्नवर्ती स्तर परः स्वादिष्ट भोजन, गहरी नींद जैसे दैहिक सुख; मध्यवर्ती स्तर परः सफलता, प्रेम, प्रतिष्ठा जैसे सुख; सर्वोच्च स्तर परः समाज सेवा, परोपकार का सुख। मैं प्रयास करता हूँ कि निम्नवर्ती सुखों की आकांक्षा कम होती जाए और उच्चस्तरीय सुखों की आकांक्षा बढ़ती जाए।</s>
<s>[INST]चिकित्सकीय नैतिकता से क्या तात्पर्य है? एक चिकित्सक में किन मूल्यों का होना आवश्यक है? चर्चा करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: चिकित्सकीय नैतिकता क्या है ? चिकित्सकीय मूल्यों की चर्चा। इन मूल्यों की आवश्यकता क्यों? चिकित्सकीय नैतिकता नैतिक सिद्धांतों की एक प्रणाली है, जो नैदानिक चिकित्सा अभ्यास और वैज्ञानिक अनुसंधान में मूल्यों और निर्णयों को लागू करती है। चिकित्सकीय नैतिकता वंश, लिंग या धर्म की परवाह किये बिना सभी लोगों को गुणवत्ता युक्त व सैद्धांतिक देखभाल की अनुमति देती है। यह जीवित और निर्जीव दोनों पर लागू होती है। जैसे- शवों पर चिकित्सा अनुसंधान। इसमें पालन किये जाने वाले मूल्यों का स्पष्ट सेट होता है जो किसी भी भ्रम या संघर्ष के मामलें में पेशेवर के लिये मानक का कार्य करते हैं। एक चिकित्सक में निम्नलिखित मूल्यों का होना आवश्यक हैः स्वायत्तता का सम्मानः मरीज को अपने उपचार से मना करने या चुनने का अधिकार है। एक चिकित्सक को रोगी के सर्वोत्तम हित में कार्य करना चाहिये। ‘उपयोगिता’ नुकसान की तुलना में अच्छाई को बढ़ाने वाली होनी चाहिये। न्यायः दुर्लभ स्वास्थ्य संसाधनों के वितरण और किसके लिये कौन-सा उपचार जैसे विषय (निष्पक्षता और समानता) के प्रति जागरूक होना। व्यक्तियों का सम्मानः मरीज और उसका उपचार करने वाला, दोनों गरिमापूर्ण व्यवहार के हकदार हैं। सच्चाई और ईमानदारी। गोपनीयताः एक चिकित्सक को अपने मरीज से जुड़ी जानकारी को गोपनीय रखना चाहिये। यद्यपि उपर्युक्त मूल्य किसी स्थिति से निपटने में भूमिका नहीं निभाते किंतु उस संघर्ष को समझने के लिये उपयोगी ढाँचा उपलब्ध कराते हैं, जब नैतिक मूल्यों में संघर्ष होता है। ऐसी स्थिति में एक चिकित्सक के लिये नैतिकता के उच्च मानदंडों का पालन करना अनिवार्य हो जाता है।</s>
<s>[INST]चिकित्सकीय नैतिकता से क्या तात्पर्य है? एक चिकित्सक में किन मूल्यों का होना आवश्यक है? चर्चा करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: चिकित्सकीय नैतिकता क्या है ? चिकित्सकीय मूल्यों की चर्चा। इन मूल्यों की आवश्यकता क्यों? चिकित्सकीय नैतिकता नैतिक सिद्धांतों की एक प्रणाली है, जो नैदानिक चिकित्सा अभ्यास और वैज्ञानिक अनुसंधान में मूल्यों और निर्णयों को लागू करती है। चिकित्सकीय नैतिकता वंश, लिंग या धर्म की परवाह किये बिना सभी लोगों को गुणवत्ता युक्त व सैद्धांतिक देखभाल की अनुमति देती है। यह जीवित और निर्जीव दोनों पर लागू होती है। जैसे- शवों पर चिकित्सा अनुसंधान। इसमें पालन किये जाने वाले मूल्यों का स्पष्ट सेट होता है जो किसी भी भ्रम या संघर्ष के मामलें में पेशेवर के लिये मानक का कार्य करते हैं। एक चिकित्सक में निम्नलिखित मूल्यों का होना आवश्यक हैः स्वायत्तता का सम्मानः मरीज को अपने उपचार से मना करने या चुनने का अधिकार है। एक चिकित्सक को रोगी के सर्वोत्तम हित में कार्य करना चाहिये। ‘उपयोगिता’ नुकसान की तुलना में अच्छाई को बढ़ाने वाली होनी चाहिये। न्यायः दुर्लभ स्वास्थ्य संसाधनों के वितरण और किसके लिये कौन-सा उपचार जैसे विषय (निष्पक्षता और समानता) के प्रति जागरूक होना। व्यक्तियों का सम्मानः मरीज और उसका उपचार करने वाला, दोनों गरिमापूर्ण व्यवहार के हकदार हैं। सच्चाई और ईमानदारी। गोपनीयताः एक चिकित्सक को अपने मरीज से जुड़ी जानकारी को गोपनीय रखना चाहिये। यद्यपि उपर्युक्त मूल्य किसी स्थिति से निपटने में भूमिका नहीं निभाते किंतु उस संघर्ष को समझने के लिये उपयोगी ढाँचा उपलब्ध कराते हैं, जब नैतिक मूल्यों में संघर्ष होता है। ऐसी स्थिति में एक चिकित्सक के लिये नैतिकता के उच्च मानदंडों का पालन करना अनिवार्य हो जाता है।</s>
<s>[INST]हाल के वर्षों में न्यायपालिका की नैतिकता में गिरावट देखने को मिली है। इसमें कौन-कौन से नैतिक मुद्दे शामिल हैं? एक न्यायाधीश में किन नैतिक मूल्यों का होना आवश्यक है? सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्यायाधीशों के संबंध में जारी आचरण संबंधी गाइडलाइन की पर्याप्तता का मूल्यांकन कीजिये।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा : भूमिका। न्यायपालिका से जुड़े नैतिक मुद्दों को बताएँ। एक न्यायाधीश के लिये आवश्यक नैतिक मूल्यों का उल्लेख करें। न्यायाधीशों के लिये न्यायालय द्वारा जारी गाइडलाइन की पर्याप्तता के संबंध में तर्क दें। निष्कर्ष। लोकतंत्र में न्यायपालिका संवैधानिक अधिकारों और दायित्त्वों के अभिभावक व संरक्षक के रूप में कार्य करती है। इन उत्तरदायित्त्वों को पूरा करने के लिये न्यायालय का उच्च नैतिक मूल्यों से युक्त होना आवश्यक है किंतु हाल में न्यायिक प्रणाली में कुछ नैतिक मुद्दे उभर कर आए है। इसमें मुख्य रूप से शामिल हैं- भ्रष्टाचार, कॉलेजियम व्यवस्था का दुरुपयोग, न्याय में देरी, शक्तिशाली लोगों के पक्ष में निर्णय, प्रसिद्धि पाने के लिये न्यायिक सीमा क्षेत्र से बाहर जाकर निर्णय देना और पूर्वाग्रह के प्रभाव में निर्णय देना आदि। इन नैतिक मुद्दों को प्रभावी गाइडलाइन के क्रियान्वयन, पारदर्शिता और जवाबदेही के उपायों, कॉलेजियम व्यवस्था की समीक्षा करने तथा संविधान और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को शामिल करते हुए हल किया जा सकता है। इसके अलावा, सर्वोच्च आवश्यकता है एक न्यायाधीश का नैतिक मूल्यों से युक्त होना। एक न्यायाधीश में निम्न नैतिक मूल्य होने आवश्यक हैं: एक न्यायाधीश को सभी लोगों के संदर्भ में निष्पक्ष होना चाहिये। यदि किसी मामले में उसका हित जुड़ा हो, तो उसे निर्णय नहीं करना चाहिये। न्यायाधीश को न्याय का संचालन करने में भय नहीं होना चाहिये। उसे राज्य या राजनीतिक परिणामों से परे कानून का पालन करना चाहिये। संबंधियों और परिचितों, विवाद के पक्षों तथा उनके वकीलों से दूरी बनाए रखनी चाहिये। न्यायाधीशों को उनके दृष्टिकोण के संदर्भ में सतर्क रहना चाहिये। सामाजिक गतिविधियों में अधिक सक्रियता और भागीदारी से परहेज करना चाहिये। मीडिया प्रचार से बचना चाहिये। न्यायाधीशों को वकीलों के विवेकपूर्ण रणनीति का सहयोगी नहीं बनाना चाहिये। यह न्यायाधीश का कर्त्तव्य है कि वकील जानबूझकर आदलत की कार्यवाही को विलम्बित न करे। उपर्युक्त नैतिक मूल्यों के वास्तविक क्रियान्वयन हेतु ही 1997 में 16 प्वॉइंट में कोड ऑफ कंडक्ट जारी किया गया। जिसमें निष्पक्षता, गैर भागीदारी, कार्यालय की गरिमा, लाभों की प्राप्ति पर अकुंश, पूर्वाग्रह रहित जैसे मूल्य शामिल थे। यद्यपि इस कोड ऑफ कंडक्ट के फलस्वरूप न्यायपालिका में नैतिकता के स्तर में वृद्धि हुई है और न्यायपालिका में लोगों के विश्वास को बनाए रखने में मदद मिली है किंतु फिर भी ये पूर्णतः अपने उद्देश्यों में सफल नहीं रहे हैं अनेक बार भ्रष्टाचार के मुद्दे उभरे हैं। हाल में कर्नाटक के एक पूर्व न्यायाधीश को सजा सुनाई गई जो इस की कमियों को दर्शाता है। अतः न्यायापालिका के लिये एक सुस्पष्ट कोड ऑफ कंडक्ट और कोड ऑफ एथिक्स की आवश्यकता है इसके अलावा भ्रष्टाचार रोकथाम और निवारण अधिनियम, 1988 की प्रभावशीलता को बढ़ाया जाना चाहिये। तभी न्यायपालिका संवैधानिक प्रावधानों की प्राप्ति का वाहक बन सकेगी।</s>
<s>[INST]हाल के वर्षों में न्यायपालिका की नैतिकता में गिरावट देखने को मिली है। इसमें कौन-कौन से नैतिक मुद्दे शामिल हैं? एक न्यायाधीश में किन नैतिक मूल्यों का होना आवश्यक है? सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्यायाधीशों के संबंध में जारी आचरण संबंधी गाइडलाइन की पर्याप्तता का मूल्यांकन कीजिये।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा : भूमिका। न्यायपालिका से जुड़े नैतिक मुद्दों को बताएँ। एक न्यायाधीश के लिये आवश्यक नैतिक मूल्यों का उल्लेख करें। न्यायाधीशों के लिये न्यायालय द्वारा जारी गाइडलाइन की पर्याप्तता के संबंध में तर्क दें। निष्कर्ष। लोकतंत्र में न्यायपालिका संवैधानिक अधिकारों और दायित्त्वों के अभिभावक व संरक्षक के रूप में कार्य करती है। इन उत्तरदायित्त्वों को पूरा करने के लिये न्यायालय का उच्च नैतिक मूल्यों से युक्त होना आवश्यक है किंतु हाल में न्यायिक प्रणाली में कुछ नैतिक मुद्दे उभर कर आए है। इसमें मुख्य रूप से शामिल हैं- भ्रष्टाचार, कॉलेजियम व्यवस्था का दुरुपयोग, न्याय में देरी, शक्तिशाली लोगों के पक्ष में निर्णय, प्रसिद्धि पाने के लिये न्यायिक सीमा क्षेत्र से बाहर जाकर निर्णय देना और पूर्वाग्रह के प्रभाव में निर्णय देना आदि। इन नैतिक मुद्दों को प्रभावी गाइडलाइन के क्रियान्वयन, पारदर्शिता और जवाबदेही के उपायों, कॉलेजियम व्यवस्था की समीक्षा करने तथा संविधान और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को शामिल करते हुए हल किया जा सकता है। इसके अलावा, सर्वोच्च आवश्यकता है एक न्यायाधीश का नैतिक मूल्यों से युक्त होना। एक न्यायाधीश में निम्न नैतिक मूल्य होने आवश्यक हैं: एक न्यायाधीश को सभी लोगों के संदर्भ में निष्पक्ष होना चाहिये। यदि किसी मामले में उसका हित जुड़ा हो, तो उसे निर्णय नहीं करना चाहिये। न्यायाधीश को न्याय का संचालन करने में भय नहीं होना चाहिये। उसे राज्य या राजनीतिक परिणामों से परे कानून का पालन करना चाहिये। संबंधियों और परिचितों, विवाद के पक्षों तथा उनके वकीलों से दूरी बनाए रखनी चाहिये। न्यायाधीशों को उनके दृष्टिकोण के संदर्भ में सतर्क रहना चाहिये। सामाजिक गतिविधियों में अधिक सक्रियता और भागीदारी से परहेज करना चाहिये। मीडिया प्रचार से बचना चाहिये। न्यायाधीशों को वकीलों के विवेकपूर्ण रणनीति का सहयोगी नहीं बनाना चाहिये। यह न्यायाधीश का कर्त्तव्य है कि वकील जानबूझकर आदलत की कार्यवाही को विलम्बित न करे। उपर्युक्त नैतिक मूल्यों के वास्तविक क्रियान्वयन हेतु ही 1997 में 16 प्वॉइंट में कोड ऑफ कंडक्ट जारी किया गया। जिसमें निष्पक्षता, गैर भागीदारी, कार्यालय की गरिमा, लाभों की प्राप्ति पर अकुंश, पूर्वाग्रह रहित जैसे मूल्य शामिल थे। यद्यपि इस कोड ऑफ कंडक्ट के फलस्वरूप न्यायपालिका में नैतिकता के स्तर में वृद्धि हुई है और न्यायपालिका में लोगों के विश्वास को बनाए रखने में मदद मिली है किंतु फिर भी ये पूर्णतः अपने उद्देश्यों में सफल नहीं रहे हैं अनेक बार भ्रष्टाचार के मुद्दे उभरे हैं। हाल में कर्नाटक के एक पूर्व न्यायाधीश को सजा सुनाई गई जो इस की कमियों को दर्शाता है। अतः न्यायापालिका के लिये एक सुस्पष्ट कोड ऑफ कंडक्ट और कोड ऑफ एथिक्स की आवश्यकता है इसके अलावा भ्रष्टाचार रोकथाम और निवारण अधिनियम, 1988 की प्रभावशीलता को बढ़ाया जाना चाहिये। तभी न्यायपालिका संवैधानिक प्रावधानों की प्राप्ति का वाहक बन सकेगी।</s>
<s>[INST]निम्नलिखित को परिभाषित करते हुए प्रशासन में इनके महत्त्व को बताएँ। 1) पारदर्शिता 2) जवाबदेही 3) निष्पक्षता 4) गैर-पक्षपात[/INST]उत्तर : 1. पारदर्शिताः पारदर्शिता का अर्थ है, खुलापन, सूचना की आसानी से प्राप्ति और उत्तरदायित्व। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में पारदर्शिता बुनियादी मूल्य है। प्रशासन में पारदर्शिता होने से सरकार के प्रदर्शन, विभिन्न कार्यों पर किये जाने वाले खर्च और सरकार की गतिविधियों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है, जो प्रशासन में जवाबदेही को सुनिश्चित करती है तथा अनैतिक गतिविधियों, जैसे- भ्रष्टाचार पर अकुंश लगता है। 2. जवाबदेहीः सामान्य अर्थ में इसका संबंध की गई कार्रवाई या फैसले के औचित्य को निर्धारित करना है किंतु प्रशासन के संदर्भ में इसका अर्थ भिन्न है। इस संदर्भ में इसका अर्थ है कि लोगों द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों को उनके द्वारा निर्मित नीतियों और किये जाने वाले कार्यों के लिये मतदाताओं को स्पष्टीकरण देना चाहिये। यह लोकतांत्रिक व्यवस्था में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। प्रशासन में इसका महत्त्व निम्नलिखित रूप में हैः यह सार्वजनिक हित के प्रति प्रतिबद्धता को सुनिश्चित करती है। यह राजनैतिक तटस्थता बनाए रखने में सहायक है। लोकतंत्र को बढ़ावा देती है। प्रशासनिक नैतिकता को बढ़ावा देती है। 3. निष्पक्षताः यह एक न्याय का सिद्धांत है, जो कहता है कि कोई भी निर्णय वस्तुनिष्ठ मानदंडों पर आधारित होना चाहिये न कि पक्षपात, पूर्वाग्रह या अनुचित कारणों के आधार पर एक व्यक्ति के ऊपर दूसरे को लाभ प्रदान करने वाला। प्रशासनिक महत्त्वः यह सरकार और विषय के बीच विश्वास की कमी के अंतराल को भरने में मदद करता है। यह किये गए कार्यों को वैधता प्रदान करता है और इसे अधिक प्रभावशाली बनाता है। यह भ्रष्टाचार और पक्षपात से बचाता है। यह राजनीतिक संबद्धता के आधार पर भेदभाव को रोकने में सहायता करता है। यह सहकारिता की भावना को विकसित करता है। 4. गैर-पक्षपातः गैर पक्षपात राजनीतिक तटस्थता को संदर्भित करता है या इसे राजनीतिक निष्पक्षता के रूप में परिभाषित किया जाता है। प्रशासनिक महत्त्वः यह प्रशासन को किसी राजनीतिक दल से डरे बिना पक्ष में या विपक्ष में कार्य करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। यह प्रशासन को किसी दल की विचारधारा के बजाय संविधान और नियमों, विनियमों के अनुसार कार्य करने के लिये प्रोत्साहित करता है। यह राजनेता और जनता के मध्य विश्वास के अंतराल को भरने में मदद करता है। इससे संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण को बढ़ावा मिलता है।</s>
<s>[INST]निम्नलिखित को परिभाषित करते हुए प्रशासन में इनके महत्त्व को बताएँ। 1) पारदर्शिता 2) जवाबदेही 3) निष्पक्षता 4) गैर-पक्षपात[/INST]उत्तर : 1. पारदर्शिताः पारदर्शिता का अर्थ है, खुलापन, सूचना की आसानी से प्राप्ति और उत्तरदायित्व। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में पारदर्शिता बुनियादी मूल्य है। प्रशासन में पारदर्शिता होने से सरकार के प्रदर्शन, विभिन्न कार्यों पर किये जाने वाले खर्च और सरकार की गतिविधियों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है, जो प्रशासन में जवाबदेही को सुनिश्चित करती है तथा अनैतिक गतिविधियों, जैसे- भ्रष्टाचार पर अकुंश लगता है। 2. जवाबदेहीः सामान्य अर्थ में इसका संबंध की गई कार्रवाई या फैसले के औचित्य को निर्धारित करना है किंतु प्रशासन के संदर्भ में इसका अर्थ भिन्न है। इस संदर्भ में इसका अर्थ है कि लोगों द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों को उनके द्वारा निर्मित नीतियों और किये जाने वाले कार्यों के लिये मतदाताओं को स्पष्टीकरण देना चाहिये। यह लोकतांत्रिक व्यवस्था में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। प्रशासन में इसका महत्त्व निम्नलिखित रूप में हैः यह सार्वजनिक हित के प्रति प्रतिबद्धता को सुनिश्चित करती है। यह राजनैतिक तटस्थता बनाए रखने में सहायक है। लोकतंत्र को बढ़ावा देती है। प्रशासनिक नैतिकता को बढ़ावा देती है। 3. निष्पक्षताः यह एक न्याय का सिद्धांत है, जो कहता है कि कोई भी निर्णय वस्तुनिष्ठ मानदंडों पर आधारित होना चाहिये न कि पक्षपात, पूर्वाग्रह या अनुचित कारणों के आधार पर एक व्यक्ति के ऊपर दूसरे को लाभ प्रदान करने वाला। प्रशासनिक महत्त्वः यह सरकार और विषय के बीच विश्वास की कमी के अंतराल को भरने में मदद करता है। यह किये गए कार्यों को वैधता प्रदान करता है और इसे अधिक प्रभावशाली बनाता है। यह भ्रष्टाचार और पक्षपात से बचाता है। यह राजनीतिक संबद्धता के आधार पर भेदभाव को रोकने में सहायता करता है। यह सहकारिता की भावना को विकसित करता है। 4. गैर-पक्षपातः गैर पक्षपात राजनीतिक तटस्थता को संदर्भित करता है या इसे राजनीतिक निष्पक्षता के रूप में परिभाषित किया जाता है। प्रशासनिक महत्त्वः यह प्रशासन को किसी राजनीतिक दल से डरे बिना पक्ष में या विपक्ष में कार्य करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। यह प्रशासन को किसी दल की विचारधारा के बजाय संविधान और नियमों, विनियमों के अनुसार कार्य करने के लिये प्रोत्साहित करता है। यह राजनेता और जनता के मध्य विश्वास के अंतराल को भरने में मदद करता है। इससे संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण को बढ़ावा मिलता है।</s>
<s>[INST]सत्यनिष्ठा और ईमानदारी से क्या तात्पर्य है? एक प्रशासक के लिये इनका क्या महत्त्व है? चर्चा करें।[/INST]उत्तर : सत्यनिष्ठा का तात्पर्य यह है कि नैतिक कर्त्ता अपनी अंतः मान्यताओं के अनुसार कार्य करता है। उसका काम पाखंड या धोखे से मुक्त होता है और साथ ही, उसके द्वारा निर्धारित मूल्यों के अनुरूप होता है। वहीं ईमानदारी नैतिक चरित्र के एक पहलू को संदर्भित करती है और सकारात्मक एवं पवित्र गुणों जैसे- सत्यनिष्ठा, सच्चाई, सरलता, वफादारी, निष्पक्ष आदि मूल्यों से जुड़ी है। प्रशासन में ईमानदारी का तात्पर्य है कि सरकारी कर्मचारी को अपने कर्त्तव्यों का पालन वास्तविक ढंग से बिना किसी वित्तीय प्रलोभन में पड़े करना चाहिये। सत्यनिष्ठा और ईमानदारी, विशेषकर एक लोक सेवक के लिये सर्वोच्च महत्त्व के हैं। एक लोक सेवक का कार्य क्षेत्र लोगों के लिये कार्य करने से जुड़ा है और उसकी क्रियाएँ लाखों लोगों के जीवन को प्रभावित करती हैं। ये क्रियाएँ अनेक फैसलों, दिन-प्रतिदिन का प्रशासन और लोगों के विकास में वृद्धि करने से संबंधित हैं जिनकी सफलता लोक सेवक की सत्यनिष्ठा और ईमानदारी से जुड़ी है। यदि लोक सेवक में इन मूल्यों का अभाव है तो गरीब, अशिक्षित, सीमांत और कभी-कभी सम्भ्रांत वर्ग भी इससे प्रभावित होता है। उदाहरणस्वरूप, सड़क निर्माण में भ्रष्टाचार, कम गुणवत्ता की सड़क के निर्माण का कारक बन सकता है। ऐसी स्थिति में एक लोक सेवक को सत्यनिष्ठा और ईमानदारी के प्रति हमेशा जागरूक रहना चाहिये। लोक सेवक में इन मूल्यों का होना भ्रष्टाचार जैसी समस्या के समाधान में सहायक होगा जिससे संविधान में उल्लिखित ‘न्याय’ की प्राप्ति हो सकेगी। अतः इन मूल्यों को बढ़ाए जाने के उपाय करने चाहिये।</s>
<s>[INST]भारत की कार्यपालिका में अधिकारी वर्ग एक महत्त्वपूर्ण स्तंभ है, जो संवैधानिक उद्देश्यों की प्राप्ति में महत्त्वपूर्ण सहयोगी है। हालाँकि इसके लिये सिविल सेवक में लोकतांत्रिक अभिवृत्ति का होना आवश्यक है। चर्चा करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: भूमिका। लोकतांत्रिक अभिवृत्ति को परिभाषित करते हुए इसका महत्त्व बताएँ। इसको कैसे बढ़ाया जा सकता है? सुझाव दें। निष्कर्ष। भारतीय संविधान न्याय और कल्याण की प्राप्ति के लिये लोकतंत्र के तीन स्तंभों के रूप में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की स्थापना करती है। इसमें नीतियों, योजनाओं को लागू करने वाली कार्यपालिका में सिविल सेवक की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। एक सिविल सेवक के लिये सबसे महत्त्वपूर्ण है- लोकतांत्रिक अभिवृत्ति। लोकतांत्रिक अभिवृत्ति से तात्पर्य ऐसी अभिवृत्ति से है, जो लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देती है। इसमें शामिल हैं: फैसले लोकप्रिय मत पर आधारित हों। बहुमत के विचारों को मान्यता देना। अधिकाधिक लोगों के हितों को बढ़ावा देना। निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा समर्थित। लोकतांत्रिक अभिवृत्ति के फलस्वरूप अधिकतम लोगों के कल्याण हेतु कार्य किया जाता है। हमारे संविधान में उल्लेखित पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदाय के विकास के प्रयासों को इस अभिवृत्ति के माध्यम से वास्तविक धरातल पर लाया जा सकता है। वर्तमान में शक्ति के केंद्रीयकरण की प्रवृत्ति और विवेकाधीन शक्तियाँ इसमें बाधक बन रही हैं। लोकतांत्रिक अभिवृत्ति को निम्नलिखित उपायों द्वारा बढ़ाया जा सकता हैः शैक्षिक पाठ्यक्रम में ऐसी अभिवृत्तियों को शामिल करना। प्रशिक्षण हेतु इस अभिवृत्ति से जुड़े मूल्यों पर अनुसंधान को बढ़ावा देना और एक सेट तैयार करना। कार्यस्थल पर सभी कर्मचारियों को निर्णय-निर्माण में भागीदारी हेतु प्रोत्साहित करना। प्रशासन में लोगों की भागीदारी बढ़ाने हेतु सूचना और संचार प्रौद्योगिकी का अधिकाधिक प्रयोग करना। लोकतांत्रिक अभिवृत्ति वर्तमान विश्व की सफलता के लिये कुंजी है। एक व्यक्ति, जो लोकतांत्रिक अभिवृत्ति रखता है, एक दूसरे के सहयोग और मदद को बढ़ावा देता है, जो समाज में न्याय की अवधारणा को मज़बूत करता है। अतः संविधान के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये एक लोक सेवक में लोकतांत्रिक अभिवृत्ति का होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।</s>
<s>[INST]नैतिक शासन और नैतिक प्रबंधन को परिभाषित करते हुए इनके महत्त्व को रेखांकित करें।[/INST]उत्तर : नैतिक शासनः यह शासन का एक तरीका है, जिसका संबंध व्यवसाय, सरकार, राजनीति, अंतर्राष्ट्रीय संबंध, देखभाल आदि में प्रबंधन और नीति बनाने से संबंधित गतिविधियों के सही और उचित आचरण से है। नैतिक शासन सतत् विकास, वित्तीय मंदी एवं आर्थिक गिरावट, गरीबी उन्मूलन तथा असमानता को रोकने, मानवाधिकार, श्रम, पर्यावरण और भ्रष्टाचार विरोधी गतिविधियों से घनिष्ठता से जुड़ा है। नैतिक शासन की सफलता के लिये पारदर्शिता, खुलापन, सूचना प्रवाह और संचार में संगतता होनी चाहिये। यद्यपि व्यापक जानकारी का प्रवाह और सूचनाओं तक पहुँच पाना कई लोगों के लिये मुश्किल हो सकती है, जिसे सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के प्रभावी उपयोग और ई-शासन के कार्यान्वयन के माध्यम से हल किया जा सकता है। नैतिक प्रबंधनः नैतिक प्रबंधन से तात्पर्य है, एक सकारात्मक और व्यक्तिपरक अभिवृत्ति। इसमें शामिल हैं- प्रशासक/व्यक्ति द्वारा संबंधित संस्था के आर्थिक और विधिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन, संस्था के दायित्वों को व्यक्तिगत ज़िम्मेदारियों के रूप में मान्यता, निजी लाभ के स्थान पर परहित के उच्च नैतिक मानकों का पालन करना। वास्तव में सार्वजनिक क्षेत्र में नैतिक प्रबंधन की शुरुआत भ्रष्टाचार की समस्या को हल करने से जुड़ी है। जब एक व्यक्ति/प्रशासक नैतिक प्रबंधन के नियमों का पालन करता है, तो इससे सेवा की गुणवत्ता, पारदर्शिता, प्रदर्शन में सुधार, समाज में अच्छी छवि आदि उद्देश्यों की प्राप्ति होती है। किसी भी संस्थान में निम्नलिखित उपायों द्वारा नैतिक प्रबंधन को बढ़ाया जा सकता हैः नीतिशास्त्रीय और आचार संहिता को लागू करना और नियमित तौर पर इसकी समीक्षा करना। कर्मचारियों के लिये नैतिक प्रशिक्षण का आयोजन करना। एथिकल हॉटलाइन को सक्रिय करना। शिक्षा में नैतिक पहलुओं को शामिल किया जाना।</s>
<s>[INST]निम्नलिखित पर चर्चा करें: i. व्यापारिक नैतिकता ii. मीडिया नैतिकता[/INST]उत्तर : i. व्यापारिक नैतिकता नैतिकता का यह रूप कारोबारी माहौल में पैदा हुए नैतिक सिद्धांतों और नैतिक समस्याओं की जाँच करता है तथा उसके संदर्भ में कुछ मानकों की स्थापना करता है। यह व्यवसाय के आचरण से जुड़े सभी पहलुओं पर लागू होता है और व्यक्तियों एवं व्यापार संगठनों के आचरण के लिये समग्र रूप से प्रासंगिक है। व्यापारिक नैतिकता से जुड़े मुद्देः लेखांकन संबंधी नीतिशास्त्र। मानव संसाधन प्रबंधन का नीतिशास्त्र। बिक्री और विपणन संबंधी। उत्पादन संबंधी। बौद्धिक सम्पदा, ज्ञान और कौशल से जुड़े मुद्दे। परस्पर विरोधी हित-कर्मचारी के परिप्रेक्ष्य में व्यावसायिक उद्यम, समाज और शेयरधारक। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और आर्थिक प्रणाली से जुड़े मुद्दे। उपर्युक्त नैतिक मुद्दों का समाधान नैतिकता से जुड़ी नीतियों का अधिक व्यापक अनुपालन और नैतिकता संबंधी कार्यक्रम, आचार अधिकारी की नियुक्ति, स्थिरता पहल, शैक्षिक अनुशासन इत्यादि द्वारा संभव है। ii. मीडिया नैतिकता मीडिया एथिक्स, अनुप्रयुक्त नैतिकता का एक उपभाग है, जो प्रसारण मीडिया, फिल्म, थियेटर, कला, प्रिंट मीडिया और इंटरनेट को शामिल करते हुए मीडिया के विशिष्ट नैतिक सिद्धांतों और मानकों से जुड़ा है। मीडिया एथिक्स से जुड़े मुद्देः आचरण, भूमिका और मास मीडिया विशेषकर ‘पत्रकारिता नीति’ और ‘विज्ञापन नैतिकता की सामग्री’ के लिये नैतिक सिद्धांत और मूल्यों से जुड़े मुद्दे। समाचार कवरेज के संबंध में, जैसे- निष्पक्षता, वस्तुनिष्ठता, संतुलन, पूर्वाग्रह, गोपनीयता और सार्वजनिक हित इत्यादि। संस्थागत स्तर से जुड़े मुद्दे, जैसे- मीडिया स्वामित्व और नियंत्रण, व्यावसायीकरण, जवाबदेही, राजनीति-मीडिया गठजोड़ विनियमन (जैसे सेंसरशिप) आदि। उपर्युक्त मीडिया से जुड़े नैतिक मुद्दों को प्रभावी नीतिशास्त्रीय संहिता तथा आचरण संहिता, नियमों, विनियमों और कानून इत्यादि द्वारा हल किया जा सकता है।</s>
<s>[INST]वर्तमान में राजनैतिक और प्रशासनिक स्तर पर नैतिकता में गिरावट दर्ज की जा रही है, जो सामाजिक और आर्थिक न्याय की प्राप्ति में बाधक कारक बन गया है। इस नैतिकता में गिरावट के कारणों को बताएँ तथा राजनैतिक और प्रशासनिक जीवन में नैतिकता की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए इसमें सुधार हेतु सुझाव दें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: भूमिका को स्पष्ट करते हुए नैतिकता में गिरावट के कारणों का उल्लेख करें। नैतिकता की आवश्यकताओं को बताएँ तथा इसको बढ़ाने के संबंध में सुझाव देते हुए निष्कर्ष लिखें। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में, जहाँ जनसंख्या का एक बड़ा भाग अब भी मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित है और संविधान सामाजिक तथा आर्थिक न्याय की बात करता है, वहाँ नीति निर्माण और क्रियान्वयन में मुख्य भूमिका निभाने वाले राजनेताओं और प्रशासकों में उच्च नैतिक मूल्यों का होना आवश्यक है किंतु वर्तमान में इनमें नैतिकता में गिरावट देखने को मिल रही है। भारत में राजनैतिक और प्रशासनिक स्तर पर नैतिकता में गिरावट के मूल कारण सामान्यतः समान हैं जिसमें अधिकतम भौतिक सुख की प्राप्ति, शक्ति का केंद्रीकरण (कुछ ही हाथों में), भ्रष्ट गतिविधियाँ, किसी भी स्थिति में नाम कमाने की लालसा, नेता-प्रशासक गठजोड़, सार्वजनिक नैतिक मूल्यों की अपेक्षा व्यक्तिगत मूल्यों का हावी होना इत्यादि प्रमुख हैं। इसके अलावा, राजनीति का अपराधीकरण, धन बल का प्रयोग बढ़ने से भी राजनैतिक नैतिकता में गिरावट देखने को मिल रही है वहीं, प्रशासकों की शिक्षा और चयन प्रक्रिया में खामियों की वजह से नैतिक मूल्यों से शून्य व्यक्तियों का प्रवेश हो जाता है। चूँकि भारत में जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा है। इसके अलावा, भारत एक विविधता से भरा देश है, अलग-अलग वर्गों, व्यक्तियों की अलग-अलग समस्याएँ हैं। ऐसी स्थिति में राजनैतिक और प्रशासनिक स्तर पर नैतिकता के उच्च मानकों का होना आवश्यक है। यदि राजनीतिज्ञों और प्रशासकों में सत्यनिष्ठा, ईमानदारी, निष्पक्षता और गैर भागीदारी, वस्तुनिष्ठता, समानुभूति, सहनशीलता और दया जैसे नैतिक मूल्य होंगे तब वे सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और पर्यावरणीय समस्याओं के प्रति अधिक संवेदनशील होंगे। अतः राजनैतिक और प्रशासनिक स्तर पर नैतिक मूल्यों में वृद्धि के लिये निम्न लिखित उपाय किये जा सकते हैं: 1- राजनैतिक स्तर परः i. प्रभावशाली नीतिशास्त्रीय संहिता तथा आचरण संहिता का क्रियान्वयन किया जाए। ii. जन प्रतिनिधि अधिनियम, 1951 में संशोधन कर राजनीति के अपराधीकरण संबंधी प्रावधान का प्रभावी क्रियान्वयन। iii. संसदीय विशेषाधिकारों को पुनः परिभाषित करना और उनको संहिताबद्ध करना। iv. नोलन समिति द्वारा निर्धारित नैतिक मानकों को लागू करना। 2- प्रशासनिक स्तर परः i. नीतिशास्त्रीय संहिता और आचार संहिता में बदलाव कर अधिक प्रभावशाली क्रियान्वयन करना। ii. शिक्षा और चयन प्रक्रिया में उच्च मूल्यों को शामिल करना। iii. समस्याओं के प्रति अनुकूल नैतिक मूल्यों के विकास हेतु प्रभावी प्रशिक्षण प्रदान करना। उपर्युक्त के अलावा, राजनैतिक व प्रशासनिक स्तर पर नैतिकता को बढ़ावा देने हेतु भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम को कठोर बनाना, लोकपाल और लोकायुक्त की नियुक्ति, द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट लागू करना, इत्यादि उपाय किये जा सकते हैं। निष्कर्षः कोई भी सिस्टम (तंत्र) या समाज दोषहीन नहीं है और न ही हो सकता है किंतु उपर्युक्त सुझावों को सम्मिलित करते हुए यदि प्रयास किये जाएँ तो न केवल सतत् और समावेशी विकास की प्राप्ति संभव है अपितु संविधान में उल्लिखित न्याय की प्राप्ति भी संभव हो सकेगी।</s>
<s>[INST]मूल्य, धर्म और आचार-नीति मानवीय व्यवहार को नियंत्रित करने वाले महत्त्वपूर्ण कारक हैं। उपरोक्त कथन के आधार पर नीचे दिये गए प्रश्नों का उत्तर दें- 1) चर्चा कीजिये कि ये कैसे मानवीय व्यवहार को नियंत्रित करते हैं?[/INST]उत्तर : मानवीय व्यवहार के निर्धारक कारक और स्रोत वे साधन हैं, जिन्हें मनुष्य परिवार और सामाजिक परिवेश से प्राप्त करता है। इनमें प्रमुख हैं: मूल्य, धर्म और आचार-नीति। सभी मूल्य, धर्म और आचार-नीतियों का मूल उद्देश्य एक उत्पीड़न रहित समाज का निर्माण करना है। समाज में निर्णय-निर्माण, रहन-सहन, व्यवहार आदि के संबंध में गलत या सही, अच्छा या बुरा आदि के लिये ये मानक के रूप में कार्य करते हैं। ये किसी व्यक्ति को समाज के कल्याण के विपरीत कार्य करने से रोकते हैं। इसके फलस्वरूप व्यक्ति स्वहित के स्थान पर दूसरे लोगों के हित, समाज का हित और अंततः परम शुभ की प्राप्ति के लिये कार्य करने को प्रेरित होता है। वर्तमान में अनेक समस्याओं, जैसे- आतंकवाद, नागरिक युद्ध, महिला और बाल उत्पीड़न, जातिवाद, धार्मिक उन्माद आदि इन्हीं मूल्यों, धर्मों और आचार-नीतियों से विमुख होने का परिणाम है। अतः उच्च नैतिक मूल्यों से युक्त एक समाज के निर्माण के लिये इनको पुनः स्थापित किये जाने की आवश्यकता है। 2) उदाहरण देते हुए बताएँ कि ये एक-दूसरे से कैसे भिन्न और समान हैं? उत्तरः यद्यपि मूल्य, धर्म और आचार-नीति के अंतिम उद्देश्य समान हैं किंतु सैद्धांतिक रूप से ये भिन्नता रखते हैं। उदाहरणस्वरूप, ये सभी व्यक्ति और समाज के कल्याण को बढ़ावा देते हैं। समाज में परम शुभ की प्राप्ति के लिये कार्य करने हेतु मार्गदर्शक का कार्य करते हैं और उस कार्य को करने से रोकते हैं, जो समाज के लिये अशुभ है। वहीं, यदि सैद्धांतिक रूप से देखें तो ये भिन्नता लिये हुए होते हैं। मूल्य व्यक्ति को व्यक्तिगत स्तर पर उत्तम निर्णय लेने के लिये मार्गदर्शक का कार्य करते हैं। ये व्यक्ति-दर-व्यक्ति अलग-अलग होते हैं। वहीं, सभी धर्मों की शिक्षाएँ समान हैं किंतु इसमें निहित मार्ग अलग-अलग होते हैं। इसके अलावा, धर्म अनेक मूल्यों और आचार-नीति का स्रोत है किंतु यह सदैव आवश्यक नहीं होता। उदाहरणस्वरूप, किसी धर्म में पशुबलि देना मान्य हो सकता है लेकिन यह आचार-नीति की दृष्टि से गलत हो सकता है (पशुओं के अधिकार के संदर्भ में)। इसके अलावा, संबंधित धर्म के किसी व्यक्ति में जीवों के प्रति दया और रक्षण का मूल्य हो सकता है। इसी तरह आचार-नीति भी मूल्य और धर्म से अलग हो सकती है। यह सार्वभौमिक, गलत और सही के लिये मानक एवं व्यवहार को प्रतिबंधित करने वाली हो सकती है, जबकि मूल्य इसके विपरीत स्थिति रखते हैं। </s>
<s>[INST]निजी संस्थाओं से जुड़ी हुई नैतिक दुविधाओं पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिये।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: नैतिक दुविधा का अर्थ। निजी संस्थानों में नैतिक दुविधा। नैतिक दुविधा (Ethical Dilemma) उस जटिल परिस्थिति को कहते हैं, जब किसी व्यक्ति के पास दो या दो से अधिक विकल्प हों और वे विकल्प एक-दूसरे से पूर्णतः अलग हों अर्थात् उन्हें साथ-साथ न चुना जा सकता हो, परंतु किसी एक विकल्प को चुनना अनिवार्य हो अर्थात् निर्णय को टाला न जा सकता हो और सारे विकल्प ऐसे हों कि किसी को भी चुनकर पूर्ण संतुष्टि मिलना संभव न हो। निजी संस्थानों की नैतिक दुविधा: मालिकों की दुविधाएँ- कंपनी का लाभ अधिकतम स्तर तक ले जाने की कोशिश की जाए या इस पक्ष को सीमित रखते हुए सामाजिक दायित्व निभाने पर विशेष बल दिया जाए। जैसे- एक कंपनी के पास दो तकनीकी विकल्प हैं– तकनीक ‘क’ प्रयोग करने से कंपनी का लाभ 2 प्रतिशत बढ़ता है, किंतु आसपास के पर्यावरण को 20 प्रतिशत से अधिक का नुकसान होता है। तकनीक ‘ख’ से पर्यावरण को हानि नहीं होती परंतु उसकी लागत अधिक है। तब कंपनी को क्या करना चाहिये? अगर कर्मचारियों के हितों और व्यापक सामाजिक हितों में अंतर्विरोध हो तो किसे प्राथमिकता दी जानी चाहिये? जैसे कंपनी आर्थिक रूप से समृद्ध है और हर कर्मचारी के केबिन में वातानुकूलित यंत्र लगवा सकती है और ऐसा करने में उसे झिझक भी नहीं है। किंतु उस इलाके में बिजली की आपूर्ति काफी कम है और यहाँ इतने वातानुकूलन यंत्र चलने का मतलब है कि कई घरों में पंखा भी नहीं चलेगा। ऐसे में किनके हितों को वरीयता दी जानी चाहिये? कर्मचारी को चुनते समय सिर्फ योग्यता को महत्त्व दिया जाए या सामाजिक न्याय जैसे नैतिक पक्षों का भी ध्यान रखा जाए। अगर दो कर्मचारियों में से एक अधिक योग्य किंतु कम नैतिक है जिसके बिना कार्यालय की परियोजनाएँ पूरी नहीं हो पाती, जबकि दूसरा बेहद ईमानदार किंतु कुछ कम योग्य है तो इनमें से किसके कार्य या महत्त्व को प्राथमिकता देनी चाहिये। क्या ग्राहक को अपने उत्पादों की सारी अच्छाइयाँ व कमियाँ ईमानदारी से बताई जाएँ, विशेषतः तब जब आपके प्रतिस्पर्द्धी इतने ईमानदार न हों? कर्मचारियो की दुविधाएँ- अपना हित बनाम कंपनी का हित। अच्छा काम बनाम उच्च कर्मियों से अच्छे संबंध। अगर प्रतिस्पर्द्धी कंपनी कोई ऐसा प्रस्ताव दे जिसमें आर्थिक लाभ ज्यादा हो और वह प्रस्ताव इसलिये दिया जा रहा हो कि यह कर्मचारी इस कंपनी के अस्तित्व के लिये काफी महत्त्वपूर्ण है तो कर्मचारी को अपनी निष्ठा किसके प्रति रखनी चाहिये?</s>
<s>[INST]परीक्षण कीजिये कि आदर्श व्यक्तित्व (रोल मॉडल), नैतिक व्यवहार को कैसे प्रभावित करते हैं? अपने संगठनों में नैतिक आचरण समाहित करने के लिये नेतृत्वकर्त्ताओं द्वारा क्या कदम उठाए जा सकते हैं?[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: आदर्श व्यक्तित्व (रोल मॉडल) कौन होते हैं? रोल मॉडल नैतिक व्यवहार को कैसे प्रभावित करते हैं? किसी नेतृत्वकारी संगठन में नैतिक आचरण को समाहित करने की रूपरेखा प्रस्तुत करें? रोल मॉडल वह व्यक्ति है जो किसी और के द्वारा आदरणीय और श्रद्धेय होता है। वह ऐसा व्यक्ति है जिसकी तरह दूसरे व्यक्ति या तो वर्तमान में या भविष्य में बनने की अभिलाषा रखते हैं। एक रोल मॉडल ऐसा कोई हो सकता हैं जिसे आप जानते हैं और नियमित आधार पर उसके साथ बातचीत करते हैं या कोई ऐसा जिससे आप कभी नहीं मिले, जैसे कि कोई प्रसिद्ध व्यक्ति (celebrity)। सामान्यतः रोल मॉडल में ख्यातिप्राप्त अभिनेता/अभिनेत्री, लोकप्रिय व्यक्ति जैसे कि पुलिस या राजनीतिज्ञ, शिक्षक या अन्य शिक्षाविशारद और माता-पिता या परिवार के अन्य सदस्य सम्मिलित होते हैं। ये लोगों के नैतिक व्यवहार को आकार देने में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह से महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। विभिन्न रोल मॉडल भिन्न-भिन्न तरीकों से नैतिक व्यवहार को प्रभावित करते हैं: प्राथमिकताएँ और सिद्धांत जो कि किसी व्यक्ति का रोल मॉडल अपने दैनिक जीवन में प्रदर्शित करता है अवचेतन एकीकरण के माध्यम से हस्तांतरित कर दिये जाते हैं। रोल मॉडल की सफलता और असफलताओं से मिली परोक्ष शिक्षा नैतिक और गैर-नैतिक कार्यों के परिणामों को सीखने में मदद करती है। उदाहरण के लिये यदि माता-पिता अपने प्रतिदिन के जीवन में ईमानदार हैं, तो बच्चों द्वारा आचरण में ईमानदारी का अनुकरण किया जाता है। चूँकि रोल मॉडल हमारे आदर्श रहे हैं, तो उनके नैतिक और अनैतिक सिद्धांत हमारे द्वारा आत्मसात् किये जाते हैं। उदाहरण के लिये धार्मिक नेताओं द्वारा धार्मिक ग्रंथों की उनकी व्याख्या समाज में नैतिक व्यवहार को प्रभावित करती है। दक्षिण अफ्रीका में विभिन्न चर्चों के नेतृत्व ने रंगभेद को कायम रखने और इसका विरोध करने दोनों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसी तरह खिलाड़ी व्यवहार के कुछ मानकों को प्रोत्साहित करने में एक प्रभावशाली भूमिका निभाते हैं। जहाँ एक ओर वे अनुशासन, सहयोग और स्वास्थ्य के आदर्शों की शिक्षा देते हैं वहीं मैच फिक्सिंग या डोपिंग में उनकी भागीदारी एक गलत संदेश भी प्रस्तुत करती है। एक संगठनात्मक विन्यास में नेतृत्वकर्त्ता अधिकार और उत्तरदायित्वों को धारण करते हुए संगठनात्मक प्रक्रियाओं को ऐसे मोड सकता है जिससे कर्मचारियों के विचार और व्यवहार पर असर पड़े। इस प्रकार उनमें अपने संगठन में नैतिक व्यवहार को समाहित करने के उत्तरदायित्व के साथ ही क्षमता भी है। इसे निम्नलिखित तरीकों से किया जा सकता हैः संगठन के नैतिक कोड की समीक्षा। क्या स्वीकार्य है और क्या नहीं के बीच स्पष्ट रूप से भेद। सत्यनिष्ठा, सम्मान, ईमानदारी और सभी के साथ निष्पक्षता के आधार पर नैतिक मानकों को सुनिश्चित करना। ध्येय वाक्य और संगठन के बुनियादी मूल्यों की स्थापना। शब्दों और कार्यों के माध्यम से प्रत्येक कर्मचारी और ग्राहक से लक्ष्य और बुनियादी मूल्यों का संचार करना। उदाहरण के द्वारा प्रेरित करना– यदि उसके अपने कार्य और निर्णय नैतिक है, तो यह उसके कर्मचारियों के कार्यों में भी भली-भाँति परिलक्षित होगा। यह सुनिश्चित करना कि संगठन प्रतिभायुक्त (meritocratic) सिद्धांतों पर आधारित हो और भाई-भतीजावाद हतोत्साहित हो। इसके साथ ही यह भी सुनिश्चित करना कि वहाँ हितों का कोई टकराव न हो। एक आचार पैन की स्थापना जो कि संगठनात्मक नैतिकता के उल्लंघन और संदिग्ध फैसलों की समीक्षा करेगा। यह न निर्णयन के दौरान कर्मचारियों को दबावयुक्त कर सकता है।</s>
<s>[INST]राजनैतिक भ्रष्टाचार को प्रभावशाली ढंग से रोकने के लिये किन संवैधानिक (Constitutional / संस्थागत (institutional / प्रशासनिक (Administrative) उपायों की आवश्यकता है?[/INST]उत्तर : महात्मा गांधी द्वारा 1925 में ‘यंग इंडिया’ अखबार में ‘सात सामाजिक पाप’ का जिक्र किया गया था जिनमें से एक बिना सिद्धांतों की राजनीति भी है। वर्तमान में, राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार गहन चिंता का विषय है जो अमीरी और गरीबी की बढ़ती खाई का एक प्रमुख कारण भी है। खुशहाली और समानता की तलाश में राजनैतिक रूप से भ्रष्ट शासन को एक कमजोर कड़ी माना जाता है। हर दिन बढ़ते इस राजनैतिक भ्रष्टाचार को दूर करना एक नैतिक अनिवार्यता ही नहीं है, बल्कि किसी भी देश को दुनिया के बाकी हिस्सों के साथ गठजोड़ के लिये एक आर्थिक आवश्यकता भी है। भ्रष्ट राजनीति के द्वारा ही प्रशासन तथा शासन के अन्य महत्त्वपूर्ण तंत्र भ्रष्ट हो जाते हैं और न्यायपालिका की स्वतंत्रता भी खतरे में पड़ती है। शासन के किसी अन्य मुद्दे की अपेक्षा भ्रष्टाचार की समस्या का हल अधिक सर्वांगीण होना चाहिये। ऐसी सभी कार्य-पद्धतियों, कानूनों और विनियमों को समाप्त किया जाना चाहिये जिनसे भ्रष्टाचार फैलता है और व्यवस्था के कुशल संचालन में बाधा पड़ती है। सार्वजनिक जीवन में हमारे राजनेताओं के लिये नैतिकता के कड़े मानदंड स्थापित किया जाना जरूरी है। ई-गवर्नेंस के माध्यम से सर्वांगी परिवर्तन पर ध्यान केंद्रित किए जाने की आवश्यकता है। शासन की एक ईमानदार व्यवस्था बेईमान व्यक्तियों को हटा देगी। ग्लैडस्टोन ने कहा भी है- सरकार का उद्देश्य लोगों को अच्छा काम करना आसान कर देना तथा बुरा काम करना कठिन कर देना होता है। ब्रिटेन की टोनी ब्लेयर की सरकार में ऐसे तमाम मंत्रियों को त्यागपत्र देना पड़ा था जिन्होंने अपने छोटे-छोटे व्यक्तिगत स्वार्थों के लिये अपने पद का दुरुपयोग किया था। भ्रष्टाचार के आरोपी राजनेताओं को कानूनी प्रक्रिया के माध्यम से दंडित किया जाना चाहिये जिससे की एक सार्वजनिक उदाहरण कायम किया जा सके। बिगड़ती हुई लोकतांत्रिक राजनीति की संघर्षमय परिस्थितियों के बीच जहाँ हमारे राजनेता अपने दोषों के बचाव के लिये लोकतंत्र के ही विभिन्न संस्थानों पर दोष मढ़ते नजर आते हैं और संविधान का अनुच्छेद 311 कई बार बेईमान व्यक्तियों द्वारा दुरुपयोग में लाया जा रहा है वहाँ इस बात की आवश्यकता है कि हमारे राजनेताओं में वित्तीय ईमानदारी से ज्यादा जोर सत्यनिष्ठता और नैतिकता पर दिया जाए जिनके स्वभाव में ही पारदर्शिता, खुलापन, निर्भीकता, निष्पक्षता और न्यायपूर्णता का समावेशन किया जाए। महज कानूनी नियम और प्रावधान राजनैतिक भ्रष्टाचार को मिटाने के लिये अपर्याप्त हैं। महान चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस ने सदाचार को अच्छे शासन और शांति की आधारशिला माना है एक अच्छा शासक ध्रुव तारे के समान होता है जो स्वयं ईमानदारी का उदाहरण अपने अन्य समकक्षों में पेश करता है। आवश्यकता है कि हमारे राजनेता अपने अधिकारों का अनुभव करके अपने जिम्मेदारियों का ईमानदारीपूर्वक निर्वहन करें, जवाबदेही और उत्तरदायित्व की भावना से युक्त हों। भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम-1947 में अब तक तमाम संशोधन किए जा चुके हैं, परंतु कुछ अन्य ऐसे सुधारों की आवश्यकता है जिससे रिश्वत के लेन-देन की संस्कृति और राजनीतिक व्यक्तियों के साथ ही अन्य महत्त्वपूर्ण संस्थानों की मिली-भगत को खत्म किया जा सके। सूचना का अधिकार अधिनियम, सूचना व संचार की विभिन्न तकनीकें तथा घोटालों व भ्रष्टाचार की सूचना देने वाले व्हिसल-ब्लोअर को सुरक्षा देकर हम बढ़ते राजनीतिक भ्रष्टाचार को कम कर सकते हैं। भ्रष्टाचार के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अक्तूबर 2003 में ‘संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन (United Nation Convention)’ को अपना लिया जिसमें ए.डी.बी.ओ.ई.सी.डी. अन्तर्राष्ट्रीय भ्रष्टाचार निरोधक कार्यवाही योजना के माध्यम से भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक जंग छेड़ी गई जिस पर भारत ने भी हस्ताक्षर किया है।</s>
<s>[INST]नागरिक घोषणा-पत्र और सूचना के अधिकार ने कुछ हद तक सरकार के कामकाज के प्रति लोगों के मन में उत्पन्न विश्वास की कमी को कम करने के लिये अच्छा प्रयास किया है। टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : नागरिक घोषणा-पत्र और आरटीआई को सार्वजनिक सेवा वितरण प्रणाली में सुधार करने के लिये और शासन की प्रभावशीलता में सुधार करने के लिये अधिनियमित किया गया है। इन दोनों कानूनों से पारदर्शिता, जवाबदेही में कुछ हद तक सुधार हुआ है, लेकिन इन दोनों कानूनों का पूरा लाभ नहीं मिल पाया है। सफलता: नागरिक घोषणा-पत्र ने सेवाओं को आपूर्ति की बजाय मांग आधारित करके जन-केंद्रित बनाया है, जिससे लोगों को समयबद्ध तरीके से सेवाओं का लाभ मिल रहा है। आरटीआई से लोग आसानी से संबंधित जानकारी प्राप्त कर रहे हैं, इस अधिकार से लोग सशक्त बन गए हैं। इससे लोगों को अपने अधिकारों का लाभ उठाने और भ्रष्टाचार को कम करने में भी मदद मिली है। आलोचना: इन कानूनों को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिये आवश्यक संख्या में कर्मचारी नहीं हैं और इससे मौजूदा कर्मचारियों पर अतिरिक्त बोझ पड़ रहा है। कई बार अधिनियम में परिभाषित नियम के अनुरूप सेवा प्रदान करने में बाधा आती है। शिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण सभी लोगों को इसका फायदा नहीं मिल रहा है। दोनों कृत्यों में समय निर्धारित किया गया है, लेकिन कई उप प्रणालियों के कारण इसमें अनेक कठिनाइयाँ आ रही हैं।</s>
<s>[INST]आप अपने विभाग में पी.एच.डी. कर रहे एक छात्र के गाइड हैं। वह छात्र किसी अन्य विभाग में कुछ कक्षाएँ कर रहा है जिसके लिये लिखित निबंधों की आवश्यकता है। वह इन्हें जमा करने से पहले आपसे अपने निबंध पढ़ने के लिये कहता है। आप सामान्य तौर पर उसके कार्य की गूगल पर जाँच करते हैं और पाते हैं कि एक बड़े अंश को वेब से अक्षरशः उठाया गया है और किसी प्रकार का उद्धरण चिह्न या अवतरण नहीं दिया गया है। (a) आपके समक्ष क्या विकल्प उपलब्ध हैं? प्रत्येक विकल्प का मूल्यांकन कीजिये और कारण बताते हुए सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चयन कीजिये। (b) दुर्भाग्यपूर्ण रूप से यह सत्य है कि कई छात्र यह नहीं समझते हैं कि वेब पर उपलब्ध सामग्री मुक्त नहीं है लेकिन मुद्रित सामग्री में प्रयुक्त समान उद्धरण संरचना के प्रति जानकारी होनी आवश्यक है। क्या इसका उल्लंघन करने के लिये कानून की अनभिज्ञता एक बचाव हो सकता है? समीक्षा कीजिये।[/INST]उत्तर : (a) मेरे पास निम्नलिखित विकल्प हैं- प्रथम, मैं समस्या की उपेक्षा कर निबंध को जमा कर दूंगा। इससे संदर्भित छात्र के कार्य में रुकावट नहीं आएगी, परंतु यह ईमानदार छात्रों के मनोबल को कम कर सकता है। अतः यह विकल्प त्याज्य है। दूसरे विकल्प के तौर पर, मैं दूसरे विभाग के सबंधित प्रशिक्षक से संपर्क कर समस्या पर चर्चा करूंगा। इससे मेरी ईमानदार छवि को बल मिलेगा परन्तु अन्य विभाग के समझ मेरे विभाग की साख को नुकसान पहुँच सकता है। यह मेरे विभागीय उत्तरदायित्व की अवहेलना करता है। अतः यह विकल्प भी अधिक उचित नहीं है। तीसरे विकल्प के तौर पर, अपने विभाग के प्रमुख को इस विषय में सूचित करूंगा। इससे विभागीय गोपनीयता को बनाए रखने में मदद मिलेगी परन्तु यह छात्र की प्रथम गलती है। अतः उसे अपना पक्ष रखने का मौका नहीं मिल सकेगा। अतः यह विकल्प भी पूर्णतया सही नहीं है। चतुर्थ विकल्प के तौर पर, मैं शुरुआत में किसी को बताए बिना संबंधित छात्र को विषय की गंभीरता समझाऊंगा तथा उसे सही करने में उसकी सहायता करूंगा। मेंटर होने के नाते यह मेरा कर्त्तव्य है कि मैं छात्र को सही दिशा दिखाऊँ और साथ ही इसे एक सीखने की प्रक्रिया मानते हुए उसे अपनी गलती सुधारने का मौका दूं। इन चारों विकल्पों में अन्तिम विकल्प सर्वोत्तम है। यह एक तरफ छात्रों के प्रति शिक्षक के कर्त्तव्य को संरक्षित करता है, वहीं छात्र में सही मूल्यों के सवंर्धन में सहायता करेगा। इस परिस्थिति में यही विकल्प सही उदाहरण प्रस्तुत करता है। (b) वैसे, कानून की अज्ञानता उसे तोड़ने की अनुमति प्रदान नहीं करती है क्योंकि कई मामलों में कानून तोड़ने की मंशा नहीं होती है। यह भी संभव है कि यह छात्र जानता है कि वह ‘धोखा’ दे रहा है, परन्तु अज्ञानता का दावा कर, अपने कृत्य के परिणाम से बचने की उम्मीद कर रहा है। इसलिये, अज्ञानता सजा की गंभीरता को कम कर सकती है परन्तु यह पूर्ण राहत का आधार नहीं हो सकती है। ऐसी परिस्थितियों में ‘कार्य के इरादे के आधार पर’ प्रत्येक मामले का मूल्यांकन अलग-अलग किया जाना चाहिये।</s>
<s>[INST]लोकतंत्र में कुशल सिविल सेवा के लिये कुछ मूल्य अवश्य होने चाहियें, जो इसे अन्य व्यवसायों से अलग करती है। दिये गए कथन के आलोक में सार्वजनिक सेवाओं के लिये मूलभूत मूल्यों की व्याख्या कीजिये।[/INST]उत्तर : लोकतंत्र में सिविल सेवकों के विशेष दायित्व होते हैं, क्योंकि उन्हें सामुदायिक संसाधनों का प्रबंधन करना और समुदाय के लिये सेवाएँ प्रदान करना जैसी प्रमुख ज़िम्मेदारियाँ निभानी होती हैं। स्वाभाविक रूप से नागरिक, सिविल सेवकों से समाज में कुशलता से काम करने के क्रम में कुछ मूल्यों को बनाए रखने की उम्मीद करता है। सार्वजनिक सेवाओं के लिये आवश्यक मूलभूत मूल्य- निःस्वार्थता- सार्वजनिक पदधारकों को जनता के हितों के मामलों में पूरी तरह निःस्वार्थ भाव से कार्य करना चाहिये। उन्हें खुद के लिये वित्तीय या अन्य लाभ, उनके परिवार या अपने दोस्तों द्वारा हासिल करने के क्रम में ऐसा नहीं करना चाहिये। वफ़ादारी- सार्वजनिक पद धारकों को उनके सरकारी कर्त्तव्यों के निष्पादन में उन्हें प्रभावित करने की कोशिश हो सकती है, अतः उन्हें बाहर के व्यक्तियों या संगठनों को किसी भी वित्तीय या अन्य दायित्वों के अधीन खुद की जगह नहीं रखना चाहिये। निष्पक्षता- सार्वजनिक पद धारकों को योग्यता के आधार पर विकल्प बनाने चाहिये, सार्वजनिक नियुक्तियों, ठेके देने या पुरस्कार और लाभ के लिये व्यक्तियों के चयन में निष्पक्षता होनी चाहिये। जवाबदेही- सार्वजनिक पद धारक अपने फैसलों और कार्यों के लिये जनता के प्रति जवाबदेह हैं और उनके कार्यालय के लिये उपयुक्त जो कुछ भी जाँच के लिये उपलब्ध हों, स्वयं प्रस्तुत करना चाहिये। खुलापन- सार्वजनिक पद धारकों को लिये गए सभी फैसलों और कार्यों के बारे में संभव रूप में खुला होना चाहिये। उन्हें अपने निर्णय के लिये कारण स्पष्ट रूप से देने चाहिये और जानकारी को सीमित तभी करना चाहिये, जब व्यापक सार्वजनिक हित प्रभावित हों। ईमानदारी- सार्वजनिक कार्यालय के धारकों के लिये अपने सार्वजनिक कर्त्तव्यों से संबंधित किसी भी निजी हितों की घोषणा करना एक कर्त्तव्य है और यह जनता के हित की रक्षा करता है। नेतृत्व- सार्वजनिक पद धारकों को सार्वजनिक हितों को बढ़ावा देने और कुशल नेतृत्व उदाहरण के द्वारा इस सिद्धांत का समर्थन करना चाहिये।</s>
<s>[INST]भारतीय डाक सेवा को निजी कंपनियों से बहुत कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है और यह अपने अस्तित्व के लिये लड़ रही है। सोनिया, भारतीय डाक वितरण विभाग की नगर प्रमुख है। अजय, हाल ही में डाक सेवा में शामिल हुए हैं और सोनिया के विभाग में काम कर रहे हैं। अजय को भविष्य में डाक सेवा में कोई विकास नहीं दिख रहा है और वह अपनी नौकरी से असंतुष्ट हैं। इसीलिये अजय अपने काम के प्रति गंभीर नहीं हैं और वह प्रेषित माल को समय पर नहीं पहुँचा रहे हैं। ग्राहक नियमित रूप से इस बारे में शिकायत कर रहे हैं। जब सोनिया ने अजय से पूछताछ की तो उसने गैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार दिखाया और अपनी गलतियों को स्वीकार करने की बजाय दूसरों पर आरोप लगाया तथा यह क्रम पिछले दो महीने से चल रहा है। किसी भी आलोचना के लिये अजय की सामान्य प्रतिक्रिया है कि यह उसकी गलती नहीं है। उसका व्यवहार विभाग में सबके लिये अस्वीकार्य हो गया है और वह किसी भी काम की ज़िम्मेदारी कभी नहीं लेता। अजय के व्यवहार और कार्यों से अन्य सदस्य नैतिक रूप से प्रभावित हो रहे हैं तथा यह विभाग में काम के माहौल को खराब कर सकता है। ऐसी स्थिति में सोनिया के लिये नीचे दिये गए कुछ विकल्प हैं। इन विकल्पों का विश्लेषण करें। (a) क्या सोनिया को अजय की सेवा से बर्खास्तगी के लिये सिफारिश करनी चाहिये? (b) अजय को किसी अन्य विभाग में स्थानांतरित करने के विचार का क्या आप समर्थन करते हैं? (c) आपकी राय में सोनिया को क्या करना चाहिये?[/INST]उत्तर : (a) नए कर्मचारी अजय का व्यवहार गैर-ज़िम्मेदाराना है और यह काम के प्रति उसके दृष्टिकोण को दर्शाता है। विभाग के किसी भी मुखिया को इस तरह का एक गैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार स्वीकार नहीं होगा। यह अन्य कर्मचारियों की नैतिकता को भी प्रभावित करता है। अजय सोनिया के विभाग के तहत काम कर रहे हैं, यहाँ सोनिया की अपने अधीनस्थों के साथ-साथ संगठन के प्रति भी कुछ ज़िम्मेदारी है। यहाँ पर कतई अजय का व्यवहार स्वीकार्य नहीं हैं। अजय के व्यवहार का संगठन में काम कर रहे बाकी लोगों पर असर पड़ता है और इससे संगठन के काम का माहौल खराब हो जाता है। सबसे पहले सोनिया को अजय को उनकी ज़िम्मेदारियाँ निभाने में मदद करनी चाहिये। उन्हें अजय के व्यवहार के कारणों को समझने और काम के प्रति उनके दृष्टिकोण और व्यवहार को बदलने की कोशिश करनी चाहिये। अजय का व्यवहार न तो संगठन के हित में है और न ही खुद के हित में, इस बात का एहसास करवाना चाहिये। सोनिया को अजय के व्यवहार को बदलने के लिये हरसंभव कदम उठाने चाहिये। अगर उन्हें डाक सेवा में अपने भविष्य के विकास को लेकर समस्या है, तो सोनिया को डाक सेवा में कैरियर के विकास के बारे में उन्हें समझाने की कोशिश करनी चाहिये। इसके बावजूद वह असंतुष्ट हैं तो वह इस्तीफा देने के लिये उन्हें पूछ सकती हैं। अजय का वही व्यवहार सोनिया के सारे प्रयासों के बाद भी जारी रहा तो सोनिया के पास उनकी बर्खास्तगी के लिये सिफारिश करने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं बचता है, लेकिन यह अंतिम विकल्प होना चाहिये। (b) नई भर्ती अजय को दूसरे विभाग में स्थानांतरण करना संगठन के हित की दृष्टि से हानिकारक है। अजय केवल एक विभाग के ही सदस्य नहीं, बल्कि पूरे संगठन के सदस्य हैं और हर सदस्य की अखंडता से ही संगठनात्मक अखंडता बनती है। अगर सोनिया अजय को दूसरे विभाग में स्थानांतरण के लिये सिफारिश करती हैं तो अजय अपने व्यवहार से उस विभाग के भी माहौल को खराब कर सकते हैं। इससे अंततः संगठन की प्रभावशीलता पर ही असर पड़ेगा। यहाँ स्थानांतरण के लिये सिफारिश करने का मतलब सोनिया द्वारा अपनी ज़िम्मेदारी को किसी दूसरे पर डालना होगा। इसलिये संगठन के हित की दृष्टि से स्थानांतरण के लिये सिफारिश करना अच्छा विकल्प नहीं माना जाता है। (c) अजय सोनिया के अधीनस्थ हैं, सोनिया को न्यायोचित होकर इस विषय को हल करना चाहिये। उनके साथ अनौपचारिक वार्ता के लिये प्रयास करना चाहिये। अजय को किसी भी समस्या का सामना करना पड़ रहा है तो उनकी मदद करने की कोशिश करनी चाहिये। अपने विभाग में अनुकूल माहौल बनाकर रखना यह सोनिया की ज़िम्मेदारी है। उनके सारे प्रयासों के बाद भी अजय अपना पुराना व्यवहार जारी रखे तो सोनिया को अजय की बर्खास्तगी के लिये सिफारिश करनी चाहिये।</s>
<s>[INST]किन परिस्थितियों में एक देश की सरकार को अन्य देश के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करनी चाहिये? क्या ऐसी कार्यवाही किसी भी दशा में नैतिक ठहराई जा सकती है?[/INST]उत्तर : युद्ध मूलतः एक अनैतिक कार्रवाई है, क्योंकि इससे बहुत से निर्दोष लोगों का जीवन खत्म होता है। युद्ध कितना अनैतिक है, यह इस बात पर निर्भर होगा कि परिस्थितियाँ कितनी गंभीर थी? सबसे कम अनैतिक युद्ध जिसे कुछ लोग नैतिक भी कह सकते हैं, निम्नांकित स्थितियों में ही हो सकते हैं- यदि युद्ध के बिना इस देश का अस्तित्व ही खतरे में हो, जैसे- अगर किसी देश के पास जल का एक ही स्रोत नदी है जो दूसरे देश से आती है और दूसरा देश उसे रोक दे और अंतर्राष्ट्रीय दबाव व सद्भाव की नीति के तहत सभी उपाय विफल हो जाए और युद्ध अंतिम विकल्प बचे तो यहाँ युद्ध अनैतिक होने के बावजूद भी नैतिक माना जा सकता है, क्योंकि यहाँ अनैतिक शुभ, नैतिक शुभ से अधिक है। अगर दूसरे देश ने युद्ध जैसी परिस्थिति बना दी हो और युद्ध घोषित किये बिना अपने नागरिकों को बचाना संभव नहीं रह गया हो, जैसे- कोई देश दूसरे देश में आतंकवादियों को भेजे और हजारों निर्दोष लोग काल की गाल में समा रहे हों तथा वह देश अपनी जिम्मेदारी लेने के बजाय ऐसी कार्रवाई को लगातार प्रोत्साहित करे, तो ऐसी स्थिति में युद्ध अंतिम विकल्प बचता है। यदि कोई देश अपनी विस्तारवादी नीति के तहत युद्ध छेड़ दे और राज्य का अस्तित्व ही खतरे में हो तो प्रतिरक्षा में युद्ध की घोषणा की जा सकती है। एक और स्थिति भी बन सकती है, जिसमें वैश्विक आतंकवाद का अंग होने के कारण यदि हम शांति वाहिनी सेनाओं के माध्यम से किसी अन्य देश के आतंकवाद को खत्म करने के लिये उस देश पर मानवता और मानवाधिकारों के नाते मिलकर हमला करें, वह नैतिक दृष्टि से उचित माना जा सकता है, इत्यादि। निष्कर्ष रूप में किसी स्थिति में हम यह अवश्य देखें कि युद्ध में होने वाला नैतिक अशुभ युद्ध के बिना हो रहे नैतिक अशुभ से कम है या अधिक। अर्थात् जब परिस्थितियाँ पूर्णतया प्रतिकूल हों और अंतिम विकल्प युद्ध ही बचा हो तभी युद्ध करना चाहिये। यह युद्ध धर्म (मानवता) की रक्षा के लिये हो सकता है, जैसा कि गीता में कहा गया है। साथ ही यदि हम इतिहास को देखें तो सम्राट अशोक ने भी अपनी ‘धम्म’ की नीति के तहत सेना खत्म नहीं की थी। गांधीजी ने और संविधान में भी कहीं यह नहीं कहा गया कि सेना नहीं रखनी है, बस सेना को आक्रामकता की बजाय प्रतिरक्षा की ओर ध्यान देना है। इसलिये भारतीय सेना सामान्य परिस्थितियों में बाढ़, सूखे आदि जैसे लोक-कल्याणकारी कार्य करती है, किंतु प्रतिकूल होने या अन्य देशों के द्वारा युद्ध की घोषणा पर (जैसे–1962, 1965, 1971 और कारगिल युद्ध के अंदर हुआ) प्रतिरक्षा के लिये युद्ध करती हैं।</s>
<s>[INST]एक सकारात्मक कार्य संस्कृति की क्या विशेषताएँ होती हैं? इसके निर्माण में कॉर्पोरेट गवर्नेंस की क्या भूमिका हो सकती है?[/INST]उत्तर : एक सकारात्मक कार्य संस्कृति की मुख्य विशेषताएँ निम्नवत् हैं: विभिन्न कर्मचारियों में समानता का सिद्धांत लागू करना, बिना भेदभाव के सभी को अपनी क्षमताएँ विकसित करने का मौका देना। विविधता के प्रति स्वीकृति तथा प्रशंसा का भाव। कर्मचारियों के मन में अनावश्यक भय न हो, फिर चाहे वह पद से हटाने, शिकायत करने, नवाचार को अस्वीकार करने से संबंधित ही क्यों न हो। अधिक काम करने पर ओवरटाइम या अन्य सुविधाओं का आश्वासन। कर्मचारियों के निष्पादन का सतत् एवं वस्तुनिष्ठ तथा उसके अनुसार उन्हें प्रोत्साहन मिलना। नियमों में थोड़ा बहुत लचीलापन बना रहना चाहिये। कंपनी के उच्च कर्मचारियों तथा मालिकों का व्यवहार, उन मानकों के अनुरूप हो, जैसा वे कर्मचारियों से उम्मीद करते हैं। एकता की भावना तथा सामूहिकता की भावना लाने के लिये विशेष प्रयास किया जाना, जैसे- वर्कशॉप, औपचारिक बैठकें आदि। कॉर्पोरेट संस्कृति में सबसे अहम लक्ष्य लाभ प्राप्त करना होता है। लगातार लाभ प्राप्त करने के लिये सकारात्मक अभिवृत्ति वाले कुशल मानव संसाधनों की आवश्यकता होती है। अपने कर्मचारियों की क्षमताओं को संवर्धित करने में लगातार सहायक रहते हुए तथा कार्य-निष्पादन के आधार पर आकर्षक प्रोत्साहन देते हुए ही कॉर्पोरेट्स अपनी उत्पादकता और गुणवत्ता में लगातार सुधार करते रहे हैं। कॉर्पोरेट गवर्नेंस के अंतर्गत किसी कंपनी को चलाने के तरीके, सिद्धांत, प्रक्रियाएँ तथा निर्देश आते हैं जिनके अनुपालन से कंपनी के प्रशासकों, शेयरधारकों, ग्राहकों तथा समाज सभी का भला हो। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये ज़रूरी है कि एक सकारात्मक कार्य-संस्कृति विकसित करने के लिये जो अहम कदम उठाने हों, उन्हें प्रभावी तरीके से लागू किया जाए। एक सकारात्मक माहौल ही सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न करता है जो एक स्वस्थ कार्य-संस्कृति की विशेषता है।</s>
<s>[INST]हमारा ज्ञान सीमित और सापेक्ष होता है तथा हमें ईमानदारी से यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिये। महावीर द्वारा दिया गया स्यादवाद का यह सिद्धांत प्राचीन समय से वर्तमान समय तक प्रासंगिक रहा है। चर्चा करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: स्यादवाद’ के सिद्धांत को स्पष्ट करें। स्यादवाद वर्तमान काल किस तरह से प्रासंगिक है। दर्शन के क्षेत्र में महावीर का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान है- ‘स्यादवाद का सिद्धांत।’ इस सिद्धांत का सीधा सा अर्थ यह है कि हमारा ज्ञान सीमित और सापेक्ष होता है तथा हमें ईमानदारी से यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिये। हमें ऐसे दावे करने से बचना चाहिए कि हमारा ज्ञान असीमित है। ‘स्यादवाद’ मूलतः ‘स्यात्’ शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है- ‘संभवतः’ या ‘हो सकता है’। किंतु महावीर ने इस शब्द का प्रयोग जिस अर्थ में किया, वह है ‘सापेक्षतः’। इसका अर्थ है कि हमारे पास जो ज्ञान है, वह निरपेक्ष न होकर सापेक्ष है। जैन धर्म में स्यादवाद को समझाने के लिए एक कथा का जिक्र किया जाता है जिसे अन्य दार्शनिकों ने भी अपने तरीके से इस्तेमाल किया है। कथा इतनी सी है कि एक बार छः अंधे एक हाथी के सामने पड़ गए और वे अनुमान करना चाह रहे थे कि उनके सामने क्या है? एक ने हाथी की भारी-भरकम टांग को छुआ और घोषणा कर दी कि यह एक खंभा है। दूसरे का हाथ हाथी की सूंड पर चला गया और उसने दावा किया कि यह एक अजगर है। तीसरे के हाथ हाथी की पूँछ आई तो उसने बताया कि यह एक मोटी रस्सी है। चौथे ने उसके पेट को छुआ और घोषणा की कि यह एक दीवार है। इसी प्रकार एक ने उसके कान को छूकर कहा कि यह एक बहुत बड़ा पंखा है। इस कहानी से पता चलता है कि साधारण मनुष्यों में संपूर्ण वास्तविकता को पहचानने की शक्ति नहीं होती है किंतु वे अपने ज्ञान की पूर्णता का दावा ठोकने के लालच में अपने सीमित ज्ञान को ही निरपेक्ष ज्ञान की तरह पेश करते हैं। जिस तरह छहों अंधे नहीं समझ पा रहे कि उनके दावे सत्य से बहुत दूर हैं, उसी प्रकार सामान्य मनुष्य भी जीवन भर निरर्थक दावे करता रहता है किंतु यह नहीं समझ पाता कि उसकी बातों में कोई सार नहीं है। महावीर सुझाते हैं कि मनुष्य को अपने हर दावे से पहले यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि उसकी बात सापेक्ष रूप में ही सही है। सरल भाषा में कहें तो व्यक्ति को अपनी राय देते हुए कुछ सापेक्षतासूचक वाक्यांशों जैसे ‘जहाँ तक मैं समझता हूँ’, ‘मेरा मानना है’, ‘मेरे ख्याल से’, ‘जितनी जानकारी मेरे पास है, उसके अनुसार’ आदि का प्रयोग करते रहना चाहिए। ऐसी भाषा से विनम्रता तो झलकती ही है, यह खतरा भी नहीं रहता कि व्यक्ति की बात गलत साबित होगी। अगर ध्यान से देखें तो स्यादवाद वर्तमान काल के लिए एक बेहद जरूरी विचार है। आज दुनिया में तमाम तरह के झगड़े हैं, जैसे- सांप्रदायिकता, आतंकवाद, नक्सलवाद, नस्लवाद तथा जातिवाद इत्यादि। इन सारे झगड़ों के मूल में बुनियादी दार्शनिक समस्या यही है कि कोई भी व्यक्ति, देश या संस्था अपने दृष्टिकोण से टस से मस होने को तैयार नहीं है। सभी को लगता है कि अंतिम सत्य उन्हीं के पास है। दूसरे के पक्ष को सुनने और समझने का धैर्य किसी के पास नहीं है। अधैर्य इतना अधिक है कि वे अपने निरपेक्ष दावों के लिए दूसरों की जान लेने से भी नहीं चूकते। इस दृष्टि से चाहे इस्लामिक स्टेट जैसा अतिवादी समूह हो या किसी भी विचारधारा को कट्टर रूप में स्वीकार करने वाला कोई अन्य समूह- सभी के साथ मूल समस्या नजरिये की ही है। स्यादवाद को स्वीकार करते ही हमारा नैतिक दृष्टिकोण बेहतर हो जाता है। हम यह मान लेते हैं कि न तो हम पूरी तरह सही हैं और न ही दूसरे पूरी तरह गलत। हम उनके विचारों को भी स्वीकार करने लगते हैं और दो विरोधी समूहों के बीच सार्थक संवाद की गुंजाइश बन जाती है। अगर विभिन्न धर्मों के बीच ऐसा संवाद होने लगे तो धार्मिक सहिष्णुता और सर्वधर्मसमभाव सिर्फ किताबी बातें नहीं रहेंगी बल्कि हमारी दुनिया का सच बन जाएंगी।</s>
<s>[INST]विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत की राजधानी दिल्ली को विश्व के बड़े शहरों में दूसरा सबसे प्रदूषित शहर पाया गया है। दिल्ली में वायु-प्रदूषण का स्तर ज़्यादा होने के कारण यहाँ के निवासियों में फेफड़ों और दिल की बीमारियाँ होने का खतरा बहुत बढ़ गया है। दिल्ली में प्रदूषण का मुख्य कारण वाहनों से प्रदूषण कारी गैसों का अत्यधिक उत्सर्जन, कूड़े को खुले में जलाना तथा दिल्ली के चारों ओर औद्योगिक इकाइयों की उपस्थिति है। दिल्ली प्रशासन वाहनों की संख्या को नियंत्रित करने के लिये ‘ऑड-ईवन’ योजना भी लागू करके देख चुका है, परंतु उससे वायु की गुणवत्ता में कोई विशेष सुधार परिलक्षित नहीं हुआ। एक प्रशासक के तौर पर कुछ ऐसे नवाचारों और साध्य रणनीतियों की चर्चा कीजिये, जिन्हें लागू किया जा सके तथा जिससे वायु प्रदूषण की इस विकट स्थिति में सुधार लाया जा सके।[/INST]उत्तर : भारत की राजधानी दिल्ली को विश्व के बड़े शहरों में दूसरा सबसे प्रदूषित शहर पाया जाना निश्चित तौर पर एक चिंता का विषय है। वायु प्रदूषण न केवल कई बीमारियों को जन्म देता है बल्कि यह जीवन-प्रत्याशा एवं जीवन की गुणवत्ता दोनों पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। यह तथ्य तो प्रश्न में ही दिया गया है कि वायु प्रदूषण के मुख्य कारण वाहनों से धुएँ का उत्सर्जन, कूड़े को खुले में जलाना और औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाली गैसें हैं। परंतु इनके अतिरिक्त भी वायु प्रदूषण के कुछ अन्य कारण हैं, जैसे- शहर में अत्यधिक मात्रा में मौजूद तंदूर की भट्टियों से निकलने वाला धुआँ, पुराने वाहनों से अधिक मात्रा में निकलने वाला धुआँ, टूटी-फूटी सड़क के कारण वाहनों के गुज़रने से उठने वाली धूल, बिना ढके होने वाले नव निर्माण से उड़ने वाली सीमेंट व धूल तथा अत्यधिक जाम लगने से होने वाला प्रदूषण आदि हैं। ये बाकी के कारण देखने में मामूली लग रहे हैं परंतु वायु प्रदूषण फैलाने में इनकी भी अहम भूमिका है। एक प्रशासक के तौर पर मैं प्रदूषण को कम करने के लिये निम्नलिखित कदम उठाऊंगा- शहर के सभी रेस्टोरेंट्स में ‘बिजली के तंदूर’ लगवाने का प्रयास करूंगा। यह कार्य कठिन है, विरोध को भी आमंत्रित करता है परंतु लोगों को समझाऊंगा कि अच्छी सेहत से समझौता करने की बजाय स्वाद से समझौता किया जा सकता है। समय-समय पर ‘कृत्रिम वर्षा’ करवाने का प्रबंध करूंगा। यह विकल्प भी थोड़ा महँगा पड़ेगा, परंतु यह निश्चित तौर पर प्रदूषण को कम करेगा। शहर की सभी सड़कें ठीक कराऊंगा ताकि वाहनों के गुज़रने पर धूल न उड़े। किसी भी नवनिर्माण या पुरानी इमारत को तोड़ने की स्थिति में उस स्थान को चारों ओर से ढकने के नियम को सख्ती से लागू करवाना। सीएनजी और इलेक्ट्रिक वाहन खरीदने के लिये लोगों को प्रोत्साहित करूंगा। बदले में उनके बिजली के बिल कम कर देना या किसी टैक्स में छूट देने जैसे लाभ देने की पेशकश करूंगा। किसी भी स्थिति में कूड़े को खुले में न जलाने देना तथा वैज्ञानिक तरीके से उसके निस्तारण का प्रबंध करूंगा। लोगों को मेट्रो या सार्वजनिक परिवहन के अधिक-से-अधिक इस्तेमाल के लिये प्रोत्साहित करूंगा, लेकिन इससे पहले यह सुनिश्चित करूंगा कि यह व्यवस्था सम्यक् तरीके से व्यवस्थित हो। निष्कर्षतः वायु प्रदूषण जैसी समस्या का हल कोई व्यक्ति विशेष के बस की बात नहीं है; इसमें जन-भागीदारी की अहम भूमिका होती है। इसलिये इस मिशन में लोगों को साथ जोड़ना सबसे अहम, नवाचारी और साध्य कदम होगा।</s>
<s>[INST]अभिवृत्ति के अर्थ को स्पष्ट करते हुए इसकी प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख करें।[/INST]उत्तर : अभिवृत्ति का सामान्य अर्थ किसी मनोवैज्ञानिक विषय (अर्थात् व्यक्ति, वस्तु, समूह, विचार, स्थिति या कुछ और जिसके बारे में भाव आ सके) के प्रति सकारात्मक या नकारात्मक भाव की उपस्थिति है। उदाहरण के लिये वर्तमान भारत में पश्चिमी संस्कृति और ज्ञान के प्रति सकारात्मक अभिवृत्ति है, जबकि पारंपरिक तथा रूढि़वादी मान्यताओं के प्रति आमतौर पर नकारात्मक अभिवृत्ति दिखाई पड़ती है। अभिवृत्ति की प्रमुख विशेषताएँ: अभिवृत्तियों को सामान्यतः सीखा जाता है अर्थात् ये सामान्यतः जन्मजात नहीं होती है। परंतु आनुवंशिक कारकों के प्रभाव के कारण ये सीमित रूप से जन्मजात भी हो सकती है। अभिवृत्ति अनिवार्यतः किसी मनोवैज्ञानिक विषय से संबंधित होती है। अभिवृत्ति अपेक्षाकृत स्थायी होती है। एक बार बनने के बाद यह आसानी से परिवर्तित नहीं होती है। अभिवृत्ति में व्यक्ति को प्रेरित करने की क्षमता होती है। जैसे- यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के प्रति सकारात्मक अभिवृत्ति रखता है तो वह उसके जैसा बनने के लिये प्रेरित हो सकता है। अभिवृत्ति में सामान्यतः तीन तत्त्व होते हैं- संज्ञानात्मक, भावनात्मक व व्यवहारात्मक। विभिन्न अभिवृत्तियों की तीव्रता भिन्न-भिन्न होती है।</s>
<s>[INST]निम्नलिखित समकालिक मुद्दों को ध्यान में रखते हुए अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में नैतिकता की आवश्यकता का आलोचनात्मक विश्लेषण करें। I. शरणार्थी समस्या II. जलवायु परिवर्तन समझौते III. नाभिकीय निःशस्त्रीकरण और हथियारों की होड़[/INST]उत्तर : नैतिकता जो कि किसी व्यक्ति विशेष के लिये एक मार्गदर्शक स्रोत के रूप में कार्य करती है यह समाज व देशों के बीच खुशनुमा व स्वस्थ्य संबंध बनाने में भी सहायक होती है। अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में नैतिकता को अंतर्राष्ट्रीय नैतिकता कहते हैं, जिसके तहत वैश्वीकरण के इस दौर में राज्यों के बीच नैतिक दायित्वों की सीमा व संभावनाओं की चर्चा की जाती है। विश्व में ऐसे कई मुद्दे हैं जिनमें अंतर्राष्ट्रीय नैतिकता की आवश्यकता है। जैसे शरणार्थी समस्या, जलवायु परिवर्तन समझौते, नाभिकीय निःशस्त्रीकरण और हथियारों की होड़ आदि। 1. शरणार्थी समस्याः पश्चिमी एशिया एवं म्यांमार में गृहयुद्ध, आईएसआईएस जैसे अनेक आतंकी समूहों के उदय के कारण वहाँ के लोगों शरणार्थी के रूप में एक अच्छे भविष्य के लिये अन्य देशों की ओर पलायन कर रहे हैं लेकिन इस बड़े स्तर के प्रवास की पड़ोसी या अन्य विकसित या विकासशील देशों के द्वारा स्वीकार नहीं किया जा रहा है। हंगरी जैसे देशों ने तो बल का प्रयोग करके शरणार्थियों के प्रवेश को रोका। यह यूरोपीय एवं अन्य देशों के लिये एक नैतिक दुविधा बन गई है कि वे मानवता के आधार पर शरणार्थियों को स्वीकार करें या अपने नागरिकों के हितों व अर्थव्यवस्था की रक्षा करें। फिर भी शरणार्थियों को मारना, उन्हें सागर के बीच में खाने व पीने के पानी के बिना रोकना विकसित देशों की समानुभूति व दया भाव की कमी को दिखाता है। राष्ट्रों को ऐसी समस्याओं जो कि गृहयुद्ध व आतंकी समूहों के कारण हो रही हो उनके प्रति संवेदनशील होना चाहिये और उन्हें आपस में संगठित होकर मजबूती के साथ अपनी क्षमताओं के अनुसार दूर करने का प्रयास करना चाहिये। 2. जलवायु परिवर्तन समझौतेः जलवायु परिवर्तन से संबंधित सभी समझौते जैसे पेरिस सम्मेलन इत्यादि की सफलता तभी तय की जा सकेगी जब विश्व के सभी देश समान रूप से इस समस्या को महत्त्व दें तथा समान लेकिन अलग-अलग उत्तरदायित्व (CBDR) के सिद्धांत पर सहमत हों। इससे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में विकसित देशों के अधिक उत्सर्जन के कारण अधिक जवाबदेही व विश्व के सभी देशों की गरीब, कमजोर व सुभेद्य जनसंख्या के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित होगी। 3. नाभिकीय निःशस्त्रीकरण और हथियारों की होड़: विश्व परमाणु बम से होने वाली क्षति को देख चुका है। इसके बावजूद भी वैश्विक शक्तियाँ व अन्य राष्ट्रों की नाभिकीय हथियारों के स्टॉक बढ़ाने की असंवेदनशीलता यह दर्शाती है कि वे पृथ्वी एवं मानव जाति के भविष्य के बारे में गंभीर नहीं है। उपरोक्त मुद्दों की चर्चा के बाद यह कहा जा सकता है कि पृथ्वी इस वैश्वीकरण के युग में एक बड़े घर की तरह है जिसमें एक किनारे पर घटित होने वाली घटना घर के दूसरे किनारे को प्रभावित करेगी। समय की मांग यह है कि एक-दूसरे को समझा जाए, शांति के लिये एकत्रित हुआ जाए और वैश्विक व द्विपक्षीय समस्याओं का मिलकर हल निकाला जाए।</s>
<s>[INST]बुद्ध के विचारों की वर्तमान समय में प्रासंगिकता पर संक्षिप्त टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : महात्मा बुद्ध भारतीय विरासत की अनमोल धरोहर हैं। बुद्ध अपनी मृत्यु के लगभग 2500 वर्षों के बाद आज भी हमारे समाज के लिये प्रासंगिक बने हुए हैं। बुद्ध का सबसे महत्त्वपूर्ण विचार है- ‘आत्म दीपो भव’ यानी ‘अपने दीपक स्वयं बनो।’ इसका अर्थ है कि व्यक्ति को अपने जीवन का उद्देश्य या किसी नैतिक-अनैतिक प्रश्न का फैसला स्वयं करना चाहिये। यह विचार वर्तमान समय में बेहद प्रासंगिक है। हमारे विश्वविद्यालय जो हर बच्चे को ठोक-पीटकर एक जैसा बना देने के कारखानें बन गए हैं, उन्हें यह समझना बहेद ज़रूरी है कि हर बच्चे का स्वधर्म या स्वभाव अलग होता है और उसे अपना रास्ता चुनने का मौका दिया जाना चाहिये। इसका फायदा यह होगा कि समाज में ज्यादा-से-ज्यादा नवाचार होगें, हर व्यक्ति बिना किसी भय के अपनी सृजनात्मकता को प्रदर्शित कर सकेगा। बुद्ध के नैतिक दृष्टिकोण का दूसरा प्रमुख विचार ‘मध्यम मार्ग’ के नाम से जाना जाता है। सूक्ष्म दार्शनिक स्तर पर तो इसका अर्थ भिन्न है, कितु लोक नैतिकता के स्तर पर इसका अभिप्राय सिर्फ इतना है कि व्यक्ति को किसी भी प्रकार के अतिवादी व्यवहार से बचना चाहिये। मध्यम मार्ग का विचार आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना बुद्ध के समय रहा होगा। आज जिस तरह से उपभोक्तावाद हमारे सामने तरह-तरह का भोग आकांक्षाएँ परोस रहा है, जिस तरह से मुक्त मीडिया हमारी इच्छाओं को भड़काने वाले दृश्य दिखा रहा है, स्वाभाविक है कि आज का मनुष्य भोग करने की इच्छाओं के मामले में इतिहास के किसी भी दौर के मनुष्य की तुलना में ज्यादा भूखा और आक्रामक है। इच्छाओं के अनियंत्रित विस्फोट के इस दौर में बहुत जरूरी है कि व्यक्ति, व्यक्ति अपनी इंद्रियों का दास न बन जाए, बल्कि वह लालसाओं और बुद्धि के नियंत्रण के बीच का रासता निकालने की कोशिश करे। बुद्ध के विचारों का प्रेरणादायी पक्ष यह है कि वे व्यक्ति को अहंकार से मुक्त होने की सलाह देते हैं। अहंकार का अर्थ है मैं की भावना। यह मैं ही संसार के अधिकांश झगड़ों की जड़ है, जो शायद बुद्ध के काल में भी रही होगी और वर्तमान समय में भी है। जिन लोगों के भीतर मैं की भावना बहुत अधिक होती है वे प्रायः बाकी लोगों को अपने साथ लेकर नहीं चल पाते; उन्हें प्रायः हर व्यक्ति में अपना प्रतिस्पर्धी या शत्रु ही नज़र आता है, दोस्त या शुभचिंतक नहीं। बुद्ध नीति की अन्य प्रेरणादायी बात यह है कि इसमें परिवर्तनों के प्रति बेहद सकारात्मक रुझान दिखाई पड़ता है। बुद्ध कहते हैं कि संसार में परिवर्तन के अलावा कुछ भी स्थायी नहीं है। बुद्ध की यह बात हमें रूढि़वादी होने से बचाती है। समाज के अधिकांश संकटों की जड़ इसी बात में छिपी है कि लोग समय के अनुसार खुद को बदल नहीं पाते। यदि बुद्ध की इस बात को हम समझ लें तो शायद हम यथास्थितिवादी होने से बच सकते हैं।</s>
<s>[INST]वास्तव में मात्र धन-संपत्ति, बिना इस पर ध्यान दिये कि इसे कैसे अर्जित किया गया है, कंपनियों और व्यक्तियों की सामाजिक स्थिति को आँकने का एक मानक बन गया है और इसने कई कॉर्पोरेट घोटालों को प्रेरित किया है। यह निगम प्रशासन में नैतिकता की ज़रूरत की ओर इशारा कर रहा है। इस पृष्ठभूमि में इस तरह के चलन का अंत करने के लिये सेबी की पहलों को समझाएँ।[/INST]उत्तर : व्यापार में नैतिकता के विषय के कई आयाम हैं तथा इसका दायरा बहुत विशाल है। हाल के दिनों में, दुनिया भर में बहुत सारे कॉर्पोरेट घोटाले और बहुत सी कंपनियों का पतन देखा गया है। भारत में हाल ही में नीरव मोदी द्वारा किया गया बैंक घोटाला, सत्यम, किंगफिशर, सहारा घोटाला इसके प्रमुख उदाहरण हैं। इन सभी घटनाओं ने एक मुक्त बाज़ार के विश्वास को विनियमित करने की ओर अग्रसर कर दिया है। इस पृष्ठभूमि में कॉर्पोरेट गवर्नेंस का महत्त्व काफी बढ़ गया है। संक्षिप्त रूप में, कॉर्पोरेट गवर्नेंस कंपनी के प्रबंधन, निदेशकों, इसके शेयरधारकों, लेखा परीक्षकों और अन्य हितधारकों तथा अपने बोर्ड के बीच संबंधों का एक लेखा-जोखा है। ये संबंध, जिनमें विभिन्न नियम और प्रोत्साहन शामिल हैं, कंपनी को एक संरचना प्रदान करते हैं। कॉर्पोरेट गवर्नेंस द्वारा कंपनी अपने उद्देश्यों को स्थापित करती है तथा इसके माध्यम से इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के प्रयास के साथ ही निगरानी के साधन भी मुहैया कराती है। व्यापक अर्थ में, एक अच्छा कॉर्पोरेट प्रशासन कंपनियों को दीर्घकालिक सामरिक लक्ष्यों को प्राप्त करने की दृष्टि से संरचना, संचालन और कंपनी के नियंत्रण की प्रणाली है, ताकि शेयरधारकों, लेनदारों, कर्मचारियों, उपभोक्ताओं और आपूर्तिकर्त्ताओं की संतुष्टि एवं क़ानूनी तथा नियामक अपेक्षाओं के अनुपालन के अतिरिक्त पर्यावरण तथा स्थानीय सामुदायिक आवश्यकताओं की पूर्ति संभव हो सके। इस प्रकार यह औद्योगिक विकास तथा देश के विकास को सुनिश्चित कर सके। इस प्रकार सेबी ने कॉर्पोरेट जगत में कॉर्पोरेट गवर्नेंस लाकर एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन का कार्य शुरू किया। सेबी की रिपोर्ट का आधार ब्रिटेन के कॉर्पोरेट गवर्नेंस पर कैडबरी समिति की रिपोर्ट तथा अमेरिका के ओईसीडी समिति की रिपोर्ट थी। इसकी मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं- कंपनियों के बोर्ड में स्वतंत्र निदेशकों की कम-से-कम 50% के साथ स्वतंत्र समितियाँ बनाईं जानी चाहियें। कुछ महत्त्वपूर्ण मामलों को बोर्ड के समक्ष लाया जाना चाहिये जो मुख्य रूप से स्वतंत्र हैं। इससे पहले इस मामले में ऐसा नहीं होता था। जो कंपनियाँ होल्डिंग्स खातों और सहायक कंपनियों के समेकन की संभावना रखती हैं, उनके लिये नए लेखा मानदंडों का पालन अनिवार्य हो गया है। इस लेखा प्रणाली के साथ भारत अंतर्राष्ट्रीय लेखा प्रणाली का पालन करेगा। बोर्ड कई महत्त्वपूर्ण समितियों की नियुक्ति करेगा और इनमें से एक लेखा परीक्षा समिति होगी, जिसमें तीन स्वतंत्र निदेशक शामिल होंगे। यह समिति लेखांकन नीतियों को परिभाषित करेगी, उनकी समीक्षा करेगी तथा सांविधिक लेखा परीक्षकों की नियुक्ति की सिफारिश करेगी और यह ऑडिट रिपोर्ट पर भी विचार करेगी। यह कॉर्पोरेट प्रशासन कोड नैतिकता के सिद्धांत का प्रतीक है। कई कंपनियों ने, न केवल कानूनी दृष्टि से बल्कि व्यावहारिक रूप में भी कॉर्पोरेट प्रशासन कोड के महत्त्व को महसूस किया है। मजबूत प्रतियोगिता और एकाधिकार विरोधी कानून व्यापार में नैतिकता लागू करने के लिये एक महत्त्वपूर्ण तरीका है। सेबी को इन मामलों में अधिक ध्यान देने की जरूरत है तथा व्यापार में नैतिकता लाने के लिये सेबी को और शक्ति-संपन्न बनाने की जरूरत है।</s>
<s>[INST]‘स्वच्छ भारत अभियान’ व्यापक प्रचार-प्रसार के वावजूद लोगों को उनके घर के बाहर साफ-सफाई के प्रति उनका दृष्टिकोण बदलने और उन्हें समझाने में असफल हो रहा है। आप इस तरह के दृष्टिकोण को बदलने के लिये क्या करेंगे?[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा : लोगों को उनके घर के बाहर साफ-सफाई के प्रति दृष्टिकोण को बदलने में इस अभियान की असफलता के कारण । इस दृष्टिकोण को बदलने के उपायों की चर्चा करें। इस मिशन का उद्देश्य सभी ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों को आच्छादित करना है ताकि दुनिया के सामने हम एक आदर्श देश का उदाहरण प्रस्तुत कर सकें। भौतिक, मानसिक, सामाजिक और बौद्धिक कल्याण के लिये भारत के लोगों में इसका एहसास होना बेहद आवश्यक है। मिशन के उद्देश्यों में से कुछ उद्देश्य हैं, खुले में शौच समाप्त करना, अस्वास्थ्यकर शौचालयों को फ्लश शौचालयों के रूप में परिवर्तित करना, हाथ से मल की सफाई किये जाने से रोकना, ठोस और तरल कचरे का पुनः उपयोग, लोगों को सफाई के प्रति जागरूक करना, उन्हें अच्छी आदतों को अपनाने के लिये प्रेरित करना, शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में सफाई व्यवस्था अनुकूल बनाना व भारत में निवेश के प्रति रुचि रखने वाले सभी निजी क्षेत्रों के निवेशकों के लिये अनुकूल वातावरण प्रदान करना आदि। स्वच्छ जीवनशैली किसी भी समाज की संस्कृति में घुली-मिली होनी चाहिये। अगर खुद शासन की नीतियाँ और व्यवहार ऐसे सामाजिक बदलाव को लक्षित हों तो आम जनता भी इससे प्रभावित होगी। शुरुआती दौर में शासन से लेकर आम जनता के बीच इस मसले पर काफी उत्साह देखा गया। लेकिन पिछले कुछ समय से इस मामले में उदासीनता देखी जा रही है। स्वच्छता रखने के प्रति लोग धीरे-धीरे उदासीन होते जा रहे हैं। सरकारी और गैर-सरकारी प्रयासों द्वारा लोगों में यह भावना ज़रूर पैदा की जानी चाहिये और जागरूकता लाई जानी चाहिये कि स्वास्थ्य जीवन के लिये सफाई बेहद महत्त्वपूर्ण काम है। यह सच है कि आम लोग अपने आसपास के माहौल से प्रभावित होते हैं और उसी के मुताबिक उनकी जीवनशैली तय होती है। इसलिये सरकार या शासन को अपनी ओर से इस तरह का माहौल बनाना चाहिये। दिल्ली में मेट्रो रेल इसका उदाहरण है। मेट्रो रेल प्रबंधन की ओर से साफ-सफाई का बेहतर माहौल बनाया गया है और लगभग सभी लोग कम से कम मेट्रो परिसर के भीतर स्वच्छता का ध्यान रखते हैं। कोई भी व्यक्ति कितना ही बड़ा क्यों न हो अगर वह किसी तरह की गंदगी करता है तो उसको समाज में नीचा दर्जा मिलना चाहिये। साथ ही स्वच्छता रखने वाले व्यक्ति को प्रोत्साहन मिलना चाहिये एवं गंदगी फ़ैलाने वाले को सामाजिक दंड मिलना चाहिए। जहाँ पर साफ-सफाई नहीं है, वहाँ विकास इत्यादि से भी हाथ खींचने जैसे प्रावधान हों ताकि लोग स्वच्छता की दिशा में सक्रिय रहें। इसके लिये प्रोत्साहन एवं प्रताड़ना के अनगिनत तरीके हैं गंदगी फैलाने वालों से जुर्माना वसूलना एक उपाय है, मगर ज़्यादा बेहतर और स्थायी नतीजे के लिये ज़रूरी है कि सफाई को समाज की संस्कृति के रूप में विकसित किया जाए।</s>
<s>[INST]संसार के इतिहास में अशोक इसलिये विख्यात है कि उसने मानव की नैतिक उन्नति के लिये निरंतर प्रयास किया। स्पष्ट कीजिये।[/INST]उत्तर : भारत के मध्य-प्राचीन शासकों में अशोक का नाम सबसे उल्लेखनीय है। कलिग युद्ध में हुए नरसंहार तथा विजित देश की जनता के कष्टों से अशोक की अंतरात्मा को तीव्र आघात पहुँचा। इसी घटना के पश्चात् अशोक ने लोगों के सामाजिक नैतिक उत्थान के लिये निरंतर कार्य किया। जिन सिद्धांतों के पालन से यह नैतिक उत्थान संभव था, अशोक के लेखों में उन्हें ‘धम्म’ कहा गया है। दूसरे तथा सातवें स्तंभ लेखों में अशोक ने धम्म की व्याख्या इस प्रकार की है- “धम्म- साधुता है, बहुत से कल्याणकारी कार्य करना, पाप रहित होना, दूसरों के प्रति व्यवहार में मधुरता, दया दान तथा शुचिता का पालन करना है।” अपनी धम्म नीति के तहत अशोक शांति और अहिंसा को बढ़ावा देता है। साथ ही अपने प्रथम शिलालेख में जीव हत्या पर प्रतिबंध लगाया और आदेश दिया कि कोई बलि नहीं दी जाए। अशोक ने अपने धम्म के माध्यम से प्रजा को संबोधित करते हुए कहा कि वे माता-पिता तथा बड़ों की आज्ञा माने, गुरुजनों के प्रति आदर भाव रखें, मित्र परिचितों, संबंधियों ब्राह्मण तथा श्रमणों के प्रति दानशीलता तथा उचित व्यवहार रखें। इस तरह अशोक की धम्म नीति से जनता की नैतिकता में वृद्धि हुई और लोक व्यवस्था को बनाए रखना आसान हो गया। धम्म के सिद्धांतों का अनुसरण करने के संबंध में कोई संदेह नहीं रह जाता है कि यह मानव के सर्वांगणीय विकास हेतु एक आवश्यक तत्त्व था।</s>
<s>[INST](a) सहिष्णुता (b) निष्पक्षता (c) वस्तुनिष्ठता (d) अध्यवसाय उपरोक्त शब्दावलियों को संक्षिप्त रूप में परिभाषित करते हुए सिविल सेवकों के लिये इसके महत्त्व पर टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : (a) सहिष्णुता का शाब्दिक अर्थ सहन करना है। इसका अंग्रेजी समानार्थ (Tolerance) भी सहन करने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इस दृष्टि से सहिष्णुता का अर्थ व्यक्ति की आदतों, विचारों, धर्म, राष्ट्रीयता आदि से यदि कोई दूसरा व्यक्ति भिन्नता या विरोध रखता है तो उसके प्रति भी वस्तुनिष्ठ, न्यायोचित तथा सम्मानपूर्ण अभिवृत्ति बनाए रखना व आक्रामकता से बचना है। सिविल सेवकों को विभिन्न विचारधारा, धर्म, जाति के लोगों के साथ सामंजस्य बनाकर राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखकर कार्य करना होता है। इस कारण सहिष्णुता सिविल सेवकों हेतु एक अनिवार्य गुण है। (b) निष्पक्षताः निष्पक्षता से तात्पर्य एक ऐसा मूल्य जो बिना किसी पूर्वाग्रह के, वस्तुनिष्ठ आधार पर तार्किक रूप से चलने के लिये प्रेरित करे तथा किसी को मनमाने ढंग से लाभ पहुँचाने पर रोक लगाए अर्थात् यह ‘प्राकृतिक न्याय’ को संदर्भित करता है। एक सिविल सेवक हेतु किसी क्षेत्र के विकास के लिये सभी संबद्ध हित समूहों, यथा- सिविल सोसायटी, एनजीओ, उद्योगपति इत्यादि से अपने प्राधिकार के अंतर्गत संपर्क स्थापित करना किंतु किसी के पक्ष में व्यक्तिगत झुकाव न रखना आवश्यक है। (c) वस्तुनिष्ठता: वस्तुनिष्ठता शब्द का प्रयोग दर्शन, विधि तथा नीतिशास्त्र जैसे विषयों में विशिष्ट अर्थों में होता है। इसका सामान्य अर्थ है कि व्यक्ति को कोई निर्णय करते समय उन सभी आधारों से मुक्त होना चाहिये जो उसकी व्यक्तिगत चेतना में शामिल हैं, जैसे- उसकी विचारधारा, कल्पनाएँ, दृष्टिकोण, पूर्वाग्रह, रूढ़ धारणाएँ, मान्यताएँ इत्यादि। यदि कोई सिविल सेवक इन आधारों से मुक्त होकर निर्णय करेगा तथा वह अपने निर्णय के मूल में केवल उन आधारों को रखेगा जो तथ्यात्मक एवं तार्किक हैं और जिन्हें प्रत्येक व्यक्ति मानने को बाध्य है तो उसका निर्णय वस्तुनिष्ठता होगा। किसी भी लोक सेवक को सार्वजनिक हित के फैसले लेते वक्त वस्तुनिष्ठ होना चाहिये। (d) अध्यवसायः अध्यवसाय का अर्थ है निरंतर उद्यमशील बने रहना अर्थात् किसी दूरगामी तथा कठिन उद्देश्य की प्राप्ति होने तक धैर्य और आंतरिक प्रेरणा बनाए रखना। बीच-बीच में आने वाली चुनौतियों व बाधाओं से सकारात्मक तथा आशावादी मानसिकता से निपटना। उद्देश्य की स्पष्टता और उसकी महानता में गहरा विश्वास अध्यवसाय बढ़ाने के कुछ सामान्य उपाय हैं। एक लोक सेवक हेतु अध्यवसायी होना आवश्यक है, क्योंकि इससे वह औरों के लिये प्रेरणा बनेगा और विभाग को भी लाभ पहुँचाएगा।</s>
<s>[INST]संविधान और कानून शासन का कानूनी ढाँचा प्रदान करते हैं, जबकि शासन में ईमानदारी शासन की प्रकृति तथा सरकार और शासित के बीच संबंध को निर्धारित करती है। व्याख्या कीजिये।[/INST]उत्तर : ईमानदारी- सत्यता, निष्ठा जैसे उच्च नैतिक सिद्धांतों के होने की उच्च गुणवत्ता है। ईमानदारी प्रक्रिया में नैतिक व्यवहार का सबूत है। शासन में ईमानदारी बनाए रखना केवल भ्रष्ट या बेईमान आचरण से बचाना ही नहीं है, साथ में निष्पक्षता, जवाबदेही और पारदर्शिता जैसे सार्वजनिक क्षेत्र के मूल्यों को भी लागू करना पड़ेगा। संविधान और कानून शासन को कानूनी ढाँचा प्रदान करते हैं, लेकिन देश में सुशासन सुनिश्चित करने के लिये शासन प्रणाली में ईमानदारी की आवश्यकता है और ईमानदारी ही सरकार और देश के लोगों के बीच बेहतर संबंध सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। शासन की कुशल और प्रभावी प्रणाली के लिये और विकास की समग्र प्रक्रिया के लिये शासन में ईमानदारी एक अनिवार्य और महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। यह कानूनों और नियमों का प्रभावी क्रियान्वयन करने में और सार्वजनिक अधिकारियों के बीच अनुशासन पैदा करने में मदद करती है। शासन में ईमानदारी सुनिश्चित करने के लिये भ्रष्टाचार का निर्मूलन अत्यावश्यक होगा, उसके साथ ही नियम-कानूनों को बनाना और उनका प्रभावी और निष्पक्ष कार्यान्वयन भी करना चाहिये।</s>
<s>[INST]नैतिकता के अर्थ को स्पष्ट करते हुए मानवीय कृत्यों में नैतिकता को निर्धारित करने वाले तत्त्वों का वर्णन करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा नैतिकता का अर्थ नैतिकता को निर्धारित करने वाले तत्त्व नैतिकता का तात्पर्य नियमों की उस व्यवस्था से है जिसके द्वारा व्यक्ति का अंतःकरण अच्छे और बुरे का बोध प्राप्त करता है। नैतिकता का संदर्भ समाज में रहने वाले किसी सामान्य व्यक्ति के आचरण, समाज की परंपराओं या किसी राष्ट्र की नीतियों के विशेष अर्थ में मूल्यांकन से है। सभी विषयों में मूल्यांकन उपरांत उचित-अनुचित, अच्छा-बुरा, शुभ-अशुभ आदि नैतिकता के प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता है। सामान्य जीवन में नैतिकता के लिये प्रायः मोरैलिटी शब्द का प्रयोग किया जाता है जबकि अध्ययन के क्षेत्र में एथिक्स का। अब प्रश्न यह है कि किसी कर्म को नैतिक या अनैतिक सिद्ध करने वाले तत्त्व कौन-से हैं? विभिन्न समाजों एवं विभिन्न कालों में इन निर्धारक तत्त्वों में बदलाव होता रहा है। प्रायः ये निर्धारक तत्त्व निम्नलिखित माने गए हैं– कृत्यः कई बार समाज कुछ कृत्यों को स्पष्टतौर पर अनैतिक घोषित कर देता है। चाहे वह कृत्य किसी के द्वारा तथा किसी भी परिस्थिति में क्यों ना किया गया हो। वर्तमान समय में सती प्रथा, बाल विवाह पूर्णतः प्रतिबंधित है, जबकि मध्यकालीन भारत में ये प्रथाएँ समाज में प्रचलित थीं। कर्त्ता: निश्चित तौर पर किसी कृत्य के नैतिक या अनैतिक होने के निर्धारण में कर्त्ता की एक बड़ी भूमिका होती है। मान लीजिये किसी व्यक्ति ने अपनी गरीबी से तंग आकर चोरी जैसा अनैतिक कृत्य किया। ऐसे में इस व्यक्ति का कृत्य उस अमीर व्यक्ति के कृत्य से कम अनैतिक समझा जाएगा जिसने ऐशो-आराम के लिये कोई घोटाला किया हो। इरादा/प्रयोजनः इरादे की भूमिका आधुनिक समाज में किसी कृत्य के नैतिक या अनैतिक होने के निर्धारण में बहुत महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। परिस्थितियाँ: किन परिस्थितियों में कोई कृत्य हुआ है, यह उस कृत्य के नैतिक या अनैतिक होने के निर्धारण में निर्णायक भूमिका निभाता है। उदाहरणतः किसी की हत्या करना अनैतिक समझा जाता है, किंतु कोई व्यक्ति किसी महिला से बलात्कार की कोशिश कर रहा है और उस महिला के हाथ में धारदार हथियार आ जाने से महिला उस व्यक्ति की हत्या कर देती है। ऐसी स्थिति में वह कृत्य अनैतिक नहीं समझा जा सकता। परिणामः परिणाम के आधार पर किसी कृत्य को नैतिक या अनैतिक नहीं कहा जा सकता है। किसी कृत्य का परिणाम यदि बुरा आता है तो हमें यह देखना जरूरी है कि कर्त्ता ने किन परिस्थितियों में तथा किस इरादे से यह कृत्य किया है। आधुनिक समाज एवं न्याय व्यवस्था भी प्रयोजन एवं परिस्थिति को परिणाम से प्राथमिक मानती है।</s>
<s>[INST]"सदैव इस प्रकार कार्य करो कि तुम भी इच्छा कर सको कि तुम्हारे कार्य का चरम सार्वभौमिक कानून हो जाए।"[/INST]उत्तर : कांट के मूलदर्शन के अनुसार अपने कर्त्तव्य का पालन पूर्ण कर्त्तव्यनिष्ठा से करना चाहिये ताकि किसी भी परिस्थिति में यह कर्त्तव्य पूर्णतया नैतिक कार्रवाई ही दृष्टिगत हो। यह उन सभी कार्यवाहियों का निषेध करता है जिन्हें सन्दर्भ व परिस्थितियों के अनुसार नैतिक या अनैतिक ठहराया जाता है। यह धारणा ‘झूठ बोलने’ जैसे अनैतिक कार्यों को करने के लिये पूर्णतया मना करती है। वर्तमान प्रणाली में लैंगिक समानता मूल्य (Gender parity value) को दिये हुए कथन से समझा जा सकता है। कुछ देशों में राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में पुरुषों और महिलाओं में समानता की मनाही है और इसे वह अपने सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश के आधार पर तार्किक ठहराते हैं। उदाहरण के लिये 2015 तक सउदी अरब की महिलाओं को वोट डालने का अधिकार नहीं था। किसी को भी अपने कार्यों को उचित नहीं ठहराना चाहिये यदि वह राजनैतिक स्तर पर महिलाओं के 33% आरक्षण को समर्थन देता हो परंतु सामाजिक तौर पर "लड़के, लड़के है" उन्हें बलात्कार के लिये दण्ड नहीं दिया जाना चाहिये "जैसी असंवेदनशील टिप्पणी करें। नैतिक रूप से न्यायसंगत कर्त्तव्यों को समतावादी होने के साथ सभी क्षेत्रों में लागू किया जाना चाहिये।</s>
<s>[INST]वैश्वीकरण के इस युग में कौन-सी नैतिक दुविधाएँ उत्पन्न हुई हैं?[/INST]उत्तर : ‘नैतिक दुविधा’ ऐसी परिस्थिति होती है जिसमें निर्णयन में दो या दो से अधिक नैतिक सिद्धांतों में टकराव होता है। इन परिस्थितियों में निर्णयकर्त्ता अपने आपको दुविधा में पाता है क्योंकि उसे दो नैतिक मानदंडों में से किसी एक को चुनना होता है, जबकि दोनों बराबर की स्थिति के होते हैं तथा किसी भी एक को चुन लेने से पूर्ण संतुष्टि मिलना संभव नहीं होता है। वैश्वीकरण के कारण उत्पन्न नैतिक दुविधा वैश्वीकरण की प्रक्रिया गरीबी न्यूनीकरण में तीव्रता और उच्चतर विकास दर के रूप में लाभ के साथ-साथ बढ़ती असमानता तथा संसाधन कुप्रबंधन के रूप में हानि दोनों से संबंधित है। वैश्वीकरण ने न सिर्फ संपूर्ण विश्व की अर्थव्यवस्थाओं को बल्कि राजनीति, समाज और संस्कृति को भी प्रभावित किया है। वैश्वीकरण के इस युग में राज्य की भूमिका बदल गई है। आर्थिक उदारीकरण ने जहाँ एक ओर राज्य की भूमिका को कम किया है वहीं, दूसरी ओर निजी क्षेत्र की भूमिका को बढ़ाया है। निजी उद्यमों के लाभ को अधिक-से-अधिक बढ़ाने का मूल उद्देश्य हमेशा व्यापक सामाजिक सरोकारों के साथ मेल नहीं खाता। वैश्वीकरण ने समाज के एक वर्ग को जो कि वैश्वीकरण द्वारा प्रदत्त आर्थिक अवसरों का लाभ उठाने में सक्षम नहीं हो पाया, हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया है। यहाँ नैतिक दुविधा एक ही समय में कानून के शासन के अनुपालन के साथ लोगों की मदद में समानुभूति और संवेदना प्रकट करने की आवश्यकता को लेकर है।</s>
<s>[INST]आपके अनुसार स्वतंत्रता क्या है? क्या आपको लगता है कि आप एक स्वतंत्र जीवन जी रहे हैं? अपने उत्तर के पक्ष में तर्क प्रस्तुत करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: स्वतंत्रता का अर्थ उदाहरण के माध्यम से बताएँ की आप एक स्वतंत्र जीवन जी रहें हैं मेरे विचार में स्वतंत्रता का अर्थ बंधनों से मुक्त होना है। एक व्यक्ति का अपने सोच-विचार, निर्णय और कृत्यों पर किसी प्रकार के बाह्य दबावों से मुक्त होना स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता व्यक्ति को अपनी क्षमताओं के अनुरूप पूर्ण विकास का अवसर प्रदान करती है। परंतु स्वतंत्रता की भी अपनी एक निश्चित सीमा है। कहा भी गया है कि आपकी स्वतंत्रता वहाँ समाप्त होती है, जहाँ से दूसरों की स्वतंत्रता बाधित होती है। अर्थात् किसी भी व्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित नहीं है क्योंकि एक व्यक्ति की असीमित स्वतंत्रता अन्य व्यक्तियों की स्वतंत्रता को कुप्रभावित कर सकती है। अतः सबको समान स्वतंत्र अधिकार प्राप्त हो इसलिये व्यक्ति की स्वतंत्रता की कुछ सीमाएँ निर्धारित की जानी चाहिये। मुझे लगता है कि मैं एक स्वतंत्र जीवन जी रहा हूँ। मेरा जन्म एक स्वतंत्र देश में हुआ है। संविधान से मुझे अपने मौलिक अधिकारों की गारंटी प्राप्त हुई है। मुझे अपना करियर, जीवनशैली, देश में कही भी निवास करने आदि की स्वतंत्रता प्राप्त है। फिर मुझे सरकार चुनने, धर्म, आस्था, विश्वास आदि की भी स्वतंत्रता प्राप्त हुई है। मुझे सोचने-विचारने, बोलने आदि की भी स्वतंत्रता प्राप्त हुई है। अतः मुझे लगता है कि अब तक मैने एक स्वतंत्र जीवन व्यतीत किया है।</s>
<s>[INST]आपकी नियुक्ति एक ज़िले में ज़िलाधिकारी के रूप में होती है। आपको जानकारी मिलती है कि जिले के कुछ कस्बों में ट्रांसजेंडरो द्वारा लोगों से जबरन पैसे मांगे जाते हैं और पैसे नहीं देने पर वे लोगों के साथ गाली-गलौज व दुर्व्यवहार करते हैं। साथ ही आपको यह भी जानकारी मिलती है कि इनमें से कई ट्रांसजेंडर वेश्यावृत्ति में भी संलिप्त हैं। उपरोक्त परिस्थिति ने सामाजिक समस्याओं के साथ-साथ स्वास्थ्य चिंताओं को भी जन्म दिया है। (a) आप इस समस्या को किस रूप में देखते हैं? (b) उपरोक्त परिस्थिति से निपटने के लिये आप कौन-से कदम उठाएंगे? (c) ट्रांसजेंडरों की बेहतरी के लिये कौन-से कदम उठाए जाने की आवश्यकता है?[/INST]उत्तर : (a) यह एक अत्यंत ही जटिल समस्या है। साथ ही यह एक सामाजिक समस्या, कानून-व्यवस्था व यौन रोगों से संबंधित स्वास्थ्य की समस्याओं को जन्म देती है। इस समस्या के मूल में लोगों की विकृत मानसिकता है। परंपरागत रूप से किन्नरों/ट्रांसजेंडरों को समाज में एक दोयम दर्जा मिला हुआ है। परिवार व समाज द्वारा वे सदैव बहिष्कृत किये गए हैं। उनके पास शिक्षा व रोजगार के अवसर न के बराबर होते हैं। ऐसे में वे जीवनयापन के लिये भिक्षावृत्ति और वेश्यावृत्ति जैसे कृत्यों में सम्मिलित हो जाते हैं। इसलिये इस समस्या को समग्र रूप में देखे जाने की आवश्यकता है। (b) दी गई परिस्थिति में सबसे पहले मैं आम लोगों को होने वाली परेशानियों को कम करने का प्रयास करुंगा। इसके तहत अवैध पैसे की मांग को रोकने के लिये पुलिस द्वारा नियमित पेट्रोलिंग की व्यवस्था करवाऊँगा और नजदीकी पुलिस चौकी को इस संबंध में विशेष निर्देश दूँगा। किन्नरों/ट्रांसजेंडरों के लिये कुछ संभावित रोजगार की व्यवस्था करवाने का प्रयास करुंगा। इस संबंध में ट्रांसजेंडरों के लिये कार्य करने वाले एन.जी.ओ. की मदद ली जा सकती है। किन्नरों को छोटे उद्यमों को चलाने के लिये भी प्रशिक्षित किया जा सकता है। स्वयं सहायता समूह की मदद से उनके लिये वित्त की भी व्यवस्था की जा सकती है। यौन रोगों की जाँच के लिये कैंप लगाने का प्रयास करुंगा और इस संबंध में लोगों के बीच जागरूकता फैलाने का प्रयास करुंगा। इस प्रकार समस्या के समाधान के लिये एक समन्वित दृष्टिकोण अपनाने का प्रयास करुंगा। (c) ट्रांसजेंडरों की बेहतरी के लिये एक समन्वित दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है जिसमें विभिन्न वर्गों की अपनी भूमिका है। इसे हम निम्नलिखित रूपों में देख सकते हैं: सबसे पहले समाज में मानसिकता बदलने की आवश्यकता है क्योंकि ट्रांसजेंडरों से संबंधित समस्या तथा इस प्रकार की अन्य समस्याओं के मूल में परंपरागत नकारात्मक मानसिकता ही है। ट्रांसजेंडरों को सामान्य नागरिक जैसी आम सुविधाएँ नहीं मिल पाती है। उन्हें परिवार व समाज द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता है और उनके लिये शिक्षा और रोजगार के अवसर भी सीमित होते हैं। इसे दूर करने के लिये लोगों की अभिवृत्ति में परिवर्तन किया जाना आवश्यक है। इसके लिये शिक्षा तथा जागरूकता आवश्यक है। बच्चों को ट्रांसजेंडरों के समान अधिकार के संबंध में शिक्षित किया जाना चाहिये। वर्तमान समय में विज्ञापनों की अभिवृत्ति निर्माण व परिवर्तन में काफी अहम भूमिका है। अतः ट्रांसजेंडरों की समस्याओं पर केन्द्रित संवेदनशील व ज्ञानवर्द्धक विज्ञापनों के माध्यम से भी जागरूकता फैलाई जा सकती है। ट्रांसजेंडरों को उनका अधिकार दिलाने, उन्हें शिक्षित करने, उनमें कौशल विकास करने, रोजगार मुहैया कराने तथा उनके संबंध में आम लोगों को जागरूक व संवेदनशील बनाने में एन.जी.ओ. की भी काफी महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। अतः ट्रासजेंडरों के लिये कार्य करने वाले एन.जी.ओ. की भी मदद ली जा सकती है। सरकार द्वारा ट्रांसजेंडरों के अधिकार सुनिश्चित करने के लिये विशेष प्रयास किये जाने की आवश्यकता है। कानूनी प्रावधानों के माध्यम से ट्रासजेंडरों के हितों की सुरक्षा की जानी चाहिये। उनकी शिक्षा व रोजगार की विशेष व्यवस्था की जानी चाहिये और उन्हें समाज की मुख्य धारा में लाने का प्रयास किया जाना चाहिये। इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट का वह निर्णय जिसके तहत ट्रांसजेंडरां के लिये तीसरे जेंडर तथा आरक्षण के प्रावधान की बात कही गई है, महत्वपूर्ण है। विभिन्न राज्यों द्वारा समय-समय पर ट्रांसजेंडरों के अधिकार सुनिश्चित करने के लिये कुछ कदम उठाये गए हैं। हाल ही में राज्य सभा द्वारा ट्रांसजेंडरों व्यक्तियों का अधिकार बिल पारित किया गया। ये कदम ट्रांसजेंडरो के अधिकारों को सुनिश्चित करने की दिशा में महत्वपूर्ण सिद्ध होंगे।</s>
<s>[INST]“सदैव इस प्रकार कार्य करो कि तुम भी इच्छा कर सको कि तुम्हारे कार्य का चरम सार्वभौमिक कानून हो जाए।" कथन पर विचार करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: कथन का आशय स्पष्ट करें उदाहरण से साथ कथन के महत्त्व और कमियों पर प्रकाश डालें। प्रस्तुत कथन पश्चिम के प्रसिद्ध दार्शनिक कांट के निरपेक्ष नैतिकता के सिद्धांत से संबंधित है। कथन के अनुसार व्यक्ति को सदैव ऐसे कार्य करने चाहिये जो नैतिकता की दृष्टि से हर परिस्थिति में उचित हों। वास्तव में व्यक्ति के कार्य का चरम तभी सार्वभौमिक क़ानून हो सकता है जब वह सभी परिस्थितियों में नैतिक और उचित हो। उदाहरण के लिये प्राणी मात्र के लिये प्रेम की भावना पर आधारित सेवा के कार्य को सार्वभौमिक रूप से उचित माना जा सकता है। विवेकानंद, मदर टेरेसा जैसे लोगों ने प्रेम और सेवा की भावना से परिचालित होकर ऐसे कार्य कियें कि उनके काम का चरम विश्व के लिये अपने आप में प्रतिमान बन गया। इस कथन का एक आशय यह भी है कि जो कार्य नैतिक है वह अपने आप में परिणाम निरपेक्ष है। अर्थात नैतिकता का संबंध इस बात से नहीं है कि उसके किये जाने से क्या परिणाम प्राप्त होते हैं। उदाहरण के लिये सामान्यतः सच बोलना नैतिक माना जाता है। ऐसे में किसी भी परिस्थिति में झूठ बोलना अनैतिक होगा। उदाहरण के लिये यदि किसी अपराधी द्वारा किसी व्यक्ति का पता पूछे जाने पर यदि व्यक्ति सच-सच बता दें तो संबंधित व्यक्ति को खतरा हो सकता है। परिणाम की दृष्टि से यह उचित नहीं जान पड़ता किंतु कांट के निरपेक्ष नैतिकता इसे भी उचित बताती है। उपयोगितावादी दृष्टिकोण जो अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख पर बल देता है के अनुसार अधिकतम व्यक्तियों के हित के अनुसार नैतिकता परिवर्तित हो सकती है। ऐसे में कोई भी कार्य अपने आप में सार्वभौमिक रूप से नैतिक नहीं हो सकता। स्पष्ट है कि नैतिकता एक सापेक्षिक अवधारणा है जो समाज तथा परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होती रहती है। अतः इस दृष्टि से देखा जाए तो व्यक्ति द्वारा किया गया कोई कार्य अपने चरम रूप में पूर्ण रूप से नैतिक हो ही नहीं सकता। इसके अलावा, यह सिद्धांत कृष्ण की निष्काम कर्म के सिद्धांत के विरुद्ध भी है क्योंकि यह व्यक्ति में उसके कर्म के सार्वभौमिक रूप से नैतिक होने की अपेक्षा भी उत्पन्न करता है। किंतु गहराई में देखा जाए तो कांट का यह कथन व्यक्ति को सदैव नैतिक कार्य करने के लिये प्रेरित करता है जो कि समाज की दृष्टि से आवश्यक भी है। जैसा कि पूर्वलिखित है प्राणी मात्र के लिये निस्वार्थ प्रेम जैसे भाव सार्वभौमिक रूप से नैतिक हो सकते हैं।</s>
<s>[INST]ज्ञान के बिना ईमानदारी कमजोर और व्यर्थ है, परंतु ईमानदारी के बिना ज्ञान खतरनाक और भयानक होता है।" सोदाहरण स्पष्ट करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: ज्ञान तथा ईमानदारी को परिभाषित करें। बताएँ कि किस प्रकार ज्ञान के बिना ईमानदारी कमजोर है तथा ईमानदारी के बिना ज्ञान खतरनाक और भयानक है। ज्ञान का तात्पर्य किसी विषय से संबंधित सैद्धांतिक अथवा व्यवहारिक जानकारी से है। यह बताता है कि विभिन्न परिस्थितियों में कार्यों का निष्पादन किस प्रकार करना है। जबकि ईमानदारी एक नैतिक अवधारणा है। समान रूप में इसका तात्पर्य सच बोलने से किंतु विस्तृत रूप में ईमानदारी मन वचन तथा कर्म से प्रेम, अहिंसा, अखंडता, विश्वास जैसे गुणों के पालन पर बल देती है। यह व्यक्ति को भरोसेमंद वफादार तथा निष्पक्ष बनाता है। ज्ञान के बिना ईमानदारी कमजोर है क्योंकि बिना उचित ज्ञान के व्यक्ति सूचनाओं तथा तर्क के अभाव में चाहकर भी कार्य का निष्पादन नहीं कर पाता। उदाहरण के लिये यदि किसी शिक्षक में ज्ञान का अभाव हो तो अपनी तरफ से ईमानदार होकर भी छात्रों को उचित ढंग से नहीं पढ़ा पाएगा। उसी प्रकार ज्ञान के अभाव में डॉक्टर, इंजीनियर तथा अन्य व्यवसायी अपने-अपने कार्यों को प्रभावी ढंग से नहीं कर पाएँगे। किंतु ईमानदारी के अभाव में यह ज्ञान खतरनाक हो जाता है। वस्तुतः ईमानदारी एक ऐसा गुण है जो इस ज्ञान के उचित प्रयोग को सुनिश्चित करती है। उदाहरण के लिये ज्ञान से युक्त एक अधिकारी ईमानदारी के अभाव में भ्रष्ट होकर संपूर्ण समाज का नुकसान कर सकता है। इसके अलावा ईमानदारी से रहित एक ज्ञानी व्यक्ति अपने ज्ञान का प्रयोग समाज के नुकसान के लिये भी कर सकता है। उदाहरण के लिये संसद हमले के आरोपी अफजल गुरु के माध्यम से इसे देखा जा सकता है। अन्य शिक्षित अपराधियों के लिये भी इसे देखा जा सकता है। वस्तुतः ज्ञान का संबंध व्यक्ति की क्षमता से है। जबकि ईमानदारी का संबंध उचित ढंग से कार्य करने की आंतरिक प्रेरणा से है। कार्य की प्रभाविता के लिये ज्ञान तथा ईमानदारी इन दोनों का समन्वय आवश्यक है।</s>
<s>[INST]एक कनिष्ठ कर्मचारी अपनी वृद्ध माँ की देखभाल के लिये विशेष छुट्टी के बाद काम पर वापस लौटी है। वित्तीय कारणों से इसे पूर्णकालिक तौर पर काम करने की आवश्यकता है। उसे घर में अपनी माँ की देखभाल के लिये प्रबंधन करने के कारण कठिनाइयाँ हो रही हैं जिससे उसे कई मिटिंग में (जो प्रायः प्रतिदिन के आरंभ में होती हैं) से अनुपस्थित रहना पड़ रहा है और जल्दी ही कार्य बंद कर देना पड़ता है। वह अपने कार्य में बहुत दक्ष है लेकिन उसकी अनुपस्थिति के कारण उस पर दबाव बन रहा है और उसके सहकर्मियों पर काम का बोझ और बढ़ गया है। आप उसके प्रबंधक हैं और आपको ज्ञात है कि दैनंदिन काम की गति पर दबाव आ रहा है। उसके एक पुरुष सहकर्मी ने ऐसी टिप्पणी करने भी शुरू कर दिये हैं कि "औरत का स्थान घर में है" और प्रत्येक अवसर पर उसे नीचा दिखाता है, जिससे वह और अधिक तनाव में आ रही है। आप इस परिस्थिति में क्या कदम उठाएंगे? कारण बताइये।[/INST]उत्तर : उपरोक्त परिस्थिति में मै निन्न्लिखित कदम उठाऊंगा। सर्वप्रथम, मैं सभी प्रासंगिक तथ्यों की जाँच करूंगा। यदि आवश्यक हुआ तो कार्मिक विभाग के साथ कर्मचारियों से संबंधित प्रक्रियाओं को स्पष्ट रूप से जानने का प्रयास करूंगा। मैं, कनिष्ठ सदस्या के साथ इस मामले पर चर्चा करूंगा। इस क्रम में बैठकों के समय को अधिक लचीला बनाने, घर के कार्य करने जैसे विकल्पों पर विचार करूंगा। स्टाफ के अन्य सदस्यों को, कनिष्ठ सदस्या की समस्या के विषय में बताकर उन्हें यथोचित आचरण को अपनाने की सलाह दूंगा। साथ ही कार्यस्थल पर उत्पीड़न संबंधी ‘विशाखा नियमों’ को उल्लेखित करूंगा। साथ ही साथ स्टाफ को गोपनीयता संबंधी व्यावसायिक मूल्य से परिचित करवाऊंगा। इसप्रकार, परिस्थितियों को समझने का प्रयास करते हुए, मैं समस्या का समाधान निकालने का प्रयास करूंगा और कनिष्ठ सदस्या व अन्य सहकर्मियों के मध्य सदैव न्यायसंगत (Fair) रहने का प्रयास करूंगा। यह मेरे ‘सत्यनिष्ठा’ रूपी व्यवहार हेतु महत्त्वपूर्ण है। सभी प्रकार के प्रयासों व समझौते के उपरान्त यदि कनिष्ठ सदस्या निर्धारित कार्यों को पूर्ण करने में सफल नहीं होती है तो मैं कार्मिक विभाग को सभी तथ्यों से अवगत करा दूंगा क्योंकि एक सीमा के बाहर अन्तिम निर्णय का अधिकार उच्च अधिकारियों/मालिकों को होगा। यह कदम मेरे व्यावसायिक व्यवहार को सुनिश्चित करता है। मैं, यह सुनिश्चित करूंगा कि हर समय गोपनीयता को बनाए रखा जाए। इस प्रकार पूरे प्रकरण में मैं निष्पक्षता, वस्तुनिष्ठता जैसे मूल्यों के साथ अपनी भावनात्मक बुद्धिमत्ता का प्रयोग करूंगा। इसके साथ अपने क्षेत्राधिकार में कनिष्ठ सदस्या को सहयोगपूर्ण वातावरण प्रदान कर एक अच्छी कार्यसंस्कृति के विकास का प्रयास करूंगा।</s>
<s>[INST]राज्य के संबंध में गांधी जी के विचारों पर संक्षिप्त टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : महात्मा गांधी का दर्शन अनेक विचारधाराओं से मिलकर बना है। उन्होंने सभी विचारधाराओं और दर्शनों को परखा और उसका सार ग्रहण किया परंतु किसी भी विचारधारा में बहे नहीं। दर्शन के स्तर पर गांधी जी अराजकतावादी विचारक हैं और यह धारणा उनके नीतिशास्त्र से जुड़ी है। इसका अर्थ है कि वे आदर्श स्थिति में राज्य के अस्तित्व का निषेध करते हैं। गांधी जी के अनुसार राज्य दो कारणों से बुरा है- राज्य के होने का अर्थ ही है कि वह हिंसा की ताकत (सेना और पुलिस) के सहारे टिका होगा जो कि अहिंसा के आदर्श के विपरीत है। राज्य अनिवार्य रूप से ऐसे कानून बनाता है जो सभी व्यक्तियों को एक जैसे ढाँचे में बाँधते हैं। इससे व्यक्तियों की आत्मिक स्वतंत्रता बाधित होती है। अराजकतावाद की स्थिति तक पहुँचने के लिये गांधी जी मार्क्स की तरह हिंसा का समर्थन नहीं करते और न ही पीटर क्रोपाटकिन की तरह राज्य के साथ-साथ धर्म के निषेध की बात करते हैं। उनका अराजकतावाद धर्म और शांति से सुसंगत है। गांधी जी जानते थे कि अराजकतावाद का आदर्श उपलब्ध होना आसान नहीं है। मार्क्स ने जिस तरह से मार्क्सवाद के आने की गारंटी दी है वैसा दावा गांधी जी नहीं करते हैं। उन्हें विश्वास है कि रामराज्य (अर्थात् अराजकतावाद) आएगा जरूर पर कब और कैसे का दावा करना संभव नहीं है। जब तक रामराज्य नहीं आता तब तक के लिये उन्होंने नैतिक राजव्यवस्था के सूत्र दिये हैं- राज्य की शक्तियाँ जितनी कम हों उतना बेहतर (थोरो का प्रभाव)। लोकतंत्र का समर्थन किंतु दलविहीन लोकतंत्र के पक्ष में। सत्ता का स्थानांतरण नीचे से ऊपर की ओर होना चाहिये। प्रत्यक्ष चुनाव सिर्फ ग्रामीण पंचायत के स्तर पर हो जिसके पास विधायी, कार्यपालक तथा न्यायिक शक्तियाँ हों। इसके ऊपर के सभी चुनाव इस तरह से हों कि नीचे के पदाधिकारी अपने से ऊपरी स्तर के सदस्यों को चुनें। गाँवों के ऊपर तालुका, उसके ऊपर जनपद, उसके ऊपर प्रदेश तथा उसके ऊपर देश की पंचायत होनी चाहिये। राष्ट्रीय पंचायत या देश की सरकार का मुख्य कार्य सिर्फ यह होना चाहिये कि वह देश को एक रख सके। इसी विचार को स्पष्ट करते हुए जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि राज्य ट्रेन की खतरे की जंजीर के समान हो, यात्रियों का ध्यान सदैव इस जंजीर पर केंद्रित नहीं रहता किंतु संकट के समय वे इसका प्रयोग करते हैं। गांधी जी लोक कल्याणकारी राज्य का भी उत्साहपूर्वक समर्थन नहीं करते क्योंकि लोक कल्याण के नाम पर राज्य की शक्तियाँ बढ़ जाती हैं और व्यक्ति की आत्मिक स्वतंत्रता बाधित होती है।</s>
<s>[INST]दया और करुणा में क्या अंतर है? उपयुक्त उदाहरणों के माध्यम से इसे स्पष्ट करें। चर्चा करें कि एक जन नेता के जीवन में करुणा का महत्त्व किस सीमा तक है?[/INST]उत्तर : सहानुभूति और करुणा के मध्य अंतर मात्रा और स्तर का है। दोनों ही कमजोर वर्ग के लिये लगाव और ‘सॉफ्ट कॉर्नर’ की भावना से संबंधित है। इसे इस प्रकार देखा जा सकता हैः सहानुभूति < समानुभूति < करुणा सहानुभूति का आशय दूसरों की पीड़ा की भावना को महसूस करना है। यह एक सामाजिक अभिव्यक्ति है। सहानुभूति का आशय दूसरे की पीड़ा को समझने से है परंतु यह अवस्था क्षणिक होती है। समानुभूति में आप दूसरे व्यक्ति के कष्ट को, उसके स्थान पर स्वयं को रखकर अनुभव करते हैं। यह सहानुभूति से अधिक स्थायी होती है। सहानुभूति और समानुभूति से इतर करुणा में आप दूसरों के कष्ट को महसूस करने के साथ, इस परिप्रेक्ष्य में कोई कार्य भी करते हैं। उदाहरण के तौर पर जब आप किसी कमजोर व्यक्ति को सड़क किनारे देखते हैं तो- सहानुभूतिः उस व्यक्ति के कष्ट को आप महसूस करते हैं। समानुभूतिः उस व्यक्ति की सहायता करना चाहते हैं। करुणाः आप वास्तव में उसके कष्ट निवारण हेतु कोई कार्य करते हैं। करुणा, किसी जननेता के लिये अतिमहत्वपूर्ण है क्योंकि यह उनके और जनता के मध्य एक आत्मीय संवाद को स्थापित करने में सहायता प्रदान करता है। करुणा, जननेता में भावनात्मक बुद्धिमत्ता को भी बढ़ाती है। ऐसी स्थिति में जननेता व्यावहारिक तौर पर जनता के मध्य अधिक जुड़ाव व ख्याति महसूस करता है। करुणा का महत्व महात्मा गांधी और भारतीय जनता के संबंधों के तौर पर देखा जा सकता है।</s>
<s>[INST]क्या निगमित शासन के अंतर्गत निगम सामाजिक उत्तरदायित्व परोपकारिता के समान है? उदाहरण के साथ विश्लेषण करें।[/INST]उत्तर : कार्पोरेट सोशल रिसपांसिबिलिटी (सीएसआर), परोपकार से लक्ष्य के मामले में समानता रखता है। दोनों का लक्ष्य समाज का हित है परन्तु प्रकृति, उद्देश्य व आयाम को लेकर भिन्नता देखी जा सकती है है। इसे निम्नलिखित रूपों में देखा जा सकता है- भिन्नता के बिन्दु सीएसआर परोपकार प्रकृति (Nature) कर्त्तव्य व उत्तरदायित्व सेवाभाव उद्देश्य (Purpose) प्राकृतिक-सामाजिक संसाधनों के उपयोग से होने वाले प्रभाव, जो लाभ-हानि की गणना से परे होते हैं, के बदले समाज को कुछ वापस करने के उद्देश्य से किया जाता है। दया और दान के भाव से कमजोर वर्गो की सहायता करना। यह मुख्यतः आत्मसंतुष्टि हेतु किया जाता है। आयाम (Dimension) सामाजिक-आर्थिक परोपकारी और नैतिक क्षेत्र (Scope) यह प्रायः देश की भौगोलिक सीमा के भीतर होता है। यह किसी क्षेत्रीय बंधन/भौगोलिक सीमा से परे होता है। उदाहरण 1. टाटा के द्वारा शुरू किया गया जीवन रक्षा पहल (MANSI) 2. भारत पेट्रोलियम द्वारा शुरू किया गया बूंद कार्यक्रम मेलिंडा और गेट्स फाउंडेशन द्वारा विभिन्न देशों जैसे अफ्रीका में स्वास्थ्य सेवा हेतु किये जा रहे प्रयास।</s>
<s>[INST]श्रीवत्स ने हाल ही में प्रतिष्ठित सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण की जिसमें वो शामिल होने के लिये उत्सुक था। लेकिन जल्द ही यह समझने लगा कि चीज़ें उतनी बेहतरीन नहीं हैं जैसी कि उसने कल्पना की थी। उसने पाया कि उसके विभाग के कर्मचारी, विशेषकर निचले स्तर के, बेहद उदासीन और लोगों की आवश्यकताओं के प्रति बेपरवाह हैं। वे स्वयं भी कई विभागीय और प्रकार्यात्मक समस्याओं, जैसे- असमय कार्य, खराब जीवनगत और कार्यगत परिस्थितियों इत्यादि से जूझ रहे हैं। प्रशासन ने समिति गठित कर और समीक्षा रिपोर्ट्स को व्यवस्थित कर उनकी समस्याओं को सामने रखने का प्रयत्न किया, लेकिन ज़मीनी स्तर पर कोई प्रभावपूर्ण परिवर्तन न आ सका। आपके विचार से कार्यगत और जीवनगत परिस्थितियों में सुधार, साथ ही कार्मिकों तथा अन्य क्षेत्र अधिकारियों के मनोबल और अभिप्रेरणा को उच्च स्तर तक पहुँचाने के लिये कौन-से अन्य उपाय आवश्यक हैं ताकि वे जटिल विषयों को व्यावसायिक क्षमता लेकिन मानवीय व्यवहार के साथ हल करने में सक्षम हो सकें?[/INST]उत्तर : निचले स्तर के कर्मचारियों की ड्यूटी प्रायः मेकेनिकल किस्म की होती है, जिसमें किसी विवेक अथवा बुद्धि के प्रयोग की ज़रूरत नहीं होती है। हालाँकि, आजकल इन कर्मचारियों को लोगों के साथ अन्योन्यक्रिया करनी होती है तथा लोग व नागरिक उनसे सम्मान बरतने और अपनी समस्याओं के प्रति संवेदनशीलता की उम्मीद करते हैं। ऐसे कई अवसर आते हैं जब इन कर्मचारियों को अपने वरिष्ठ अधिकारियों से अनुदेशों की प्रतीक्षा किए बगैर निर्णय लेना पड़ सकता है। अतः निचले स्तर के कर्मचारियों को संवेदनशील बनाने व असंतोषजनक रहन-सहन व अन्य समस्याओं को दूर करने हेतु निम्न कदम उठाए जा सकते हैं- 1.स्वच्छता कारक (Hygiene Factors): लोक सेवक में सुधार, विशेष रूप से निचले स्तर के कार्यकर्त्ताओं के मनोबल में सुधार के साथ निकट रूप से जुड़ा है, जो बदले में उनके कामकाजी माहौल और सेवा शर्तों पर निर्भर करता है। इनके मनोबल को सुधारने, नैराश्य को खत्म करने और उनकी व्यावसायिकता में वृद्धि करने के लिये उनकी भर्ती, प्रशिक्षण, परिलब्धियों, कामकाजी और रहन-सहन की स्थितियों में आमूल रूप से सुधार करना आवश्यक है। इसके लिये प्रवेश स्तर पदों पर अर्हताओं में वृद्धि और वर्तमान की अपेक्षा उच्च स्तर पर भर्ती करने और अर्दली जैसी पद्धति को समाप्त किया जाना चाहिये। बेहतर कामकाजी स्थितियों, सुधरी पदोन्नति संभवनाओं और रोज़गार समृद्धि को साथ मिलाकर इन सभी से मनोबल और निष्पादन में सुधार करने की दिशा में मदद मिल सकती है। इसके अलावा, कल्याण उपायों को प्राथमिक प्रदान करनी होगी जबकि बच्चों के लिये बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएँ, आवास आदि जिससे उनकी कामकाजी और रहन-सहन स्थितियों में कुल मिलाकर सुधार हो सके। साथ ही, सशस्त्र सेनाओं की पद्धति पर पर्याप्त छुट्टी, काम के नियत घंटे जैसे उपायों से इन कर्मचारियों की कठिन स्थितियों से उत्पन्न शारीरिक व मानसिक थकान को कम किया जा सकता है। कर्मचारी-आबादी अनुपात में सुधार कर मानव शक्ति प्रबंधन की दिशा में कार्य करना आवश्यक है ताकि कर्मचारियों को अधिकार प्रेरित, कार्यकुशल व कारगर बनाया जा सके। 2. अधिकारियों को अपने अधीनस्थों के साथ सम्मान व शिष्टाचार से पेश आना चाहिये। इससे अधीनस्थों में स्व-अनुशासन की भावना का विकास होता है। 3. अधिकारियों को अपने अधीनस्थों पर विश्वास करना चाहिये। इससे समन्वय तंत्र विकसित होता है तथा कार्यकुशलता बेहतर होती है। 4. निचले स्तर के (कटिंग एज) कर्मचारियों का कानूनी सशक्तीकरण महत्त्वपूर्ण है ताकि वे जनता की समस्या को हल करने में स्वनिर्णय ले सकें तथा इसके लिये उन्हें जवाबदेह ठहराया जा सके। 5. अच्छा कार्य करने वाले कर्मचारियों के ‘कार्यों को मान्यता प्रदान’ करनी चाहिये। यह अन्य कर्मचारियों को कार्यकुशलता हेतु प्रेरित करेगा। 6. क्षेत्रीय समस्याओं को समझने हेतु आवश्यक विश्लेषणपरक दक्षता व न्याय-निर्णयन क्षमताओं को बढ़ावा देने हेतु समय-समय पर प्रशिक्षण होना चाहिये। 7. इन उपायों के अतिरिक्त, छवि पुनर्निर्माण, आधुनिकीकरण व प्रौद्योगिकी के विकास से इन ‘कटिंग एज’ कर्मचारियों में आत्मविश्वास को बढ़ाकर, इन्हें नागरिक केन्द्रित सेवा हेतु प्रेरित किया जा सकता है। इन सुधारों के ज़रिये श्रीवित्स निचले स्तर (कटिंग एज) कर्मचारियों में पेशेवर दक्षता व मानवीय चेहरे के साथ नागरिकों की जटिल समस्याओं से निपटने में सक्षम बना सकता है।</s>
<s>[INST]‘नैतिक सापेक्षतावाद’और‘नैतिक वस्तुनिष्ठतावाद’ से आप क्या समझते हैं? क्या आप मानते हैं कि ये अवधारणाएँ भारत जैसे बहुलवादी समाज में सामाजिक विवादों का समाधान करने में सहायक हो सकती है?[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: ‘नैतिक सापेक्षतावाद’और‘नैतिक वस्तुनिष्ठतावाद’को उदाहरण की सहायता से स्पष्ट करें। भारतीय समाज में इन संकल्पनाओं के महत्त्व को स्पष्ट करें। सापेक्षवाद एक अवधारणा है जिसमे किसी स्थिति का आकलन परिस्थितियों पर निर्भर करता है। नैतिक सापेक्षवाद का आशय आत्मनिष्ठ मान्यताओं से है। इस अवधारणा के तहत किसी व्यक्ति य समुदाय के लिये नैतिक माने जाने वाला कार्य किसी अन्य व्यक्ति या समुदाय के लिये अनैतिक हो सकता है। इसे निम्नलिखित रूपों में देखा जा सकता है- व्यक्ति सापेक्षः व्यक्तिगत स्तर पर मान्य सही/गलत ही नैतिक रूप से सही-गलत होता है। यह व्यक्ति सापेक्ष अवधारणा है।जैसे- लिव-इन रिलेशनशिप का मुद्दा। समाज सापेक्षः इसमें नैतिकता समाज व संस्कृति के आधार पर निर्धारित होती है। यह समाज सापेक्ष अवधारणा है। जैसे-माँसाहार जैन समाज के लिये अनैतिक तो अन्य धर्म में नैतिक माना जाता है। नैतिक सापेक्षवाद से इतर नैतिक निष्पक्षतावाद में मूल्य देश,काल,समाज,संस्कृति से निरपेक्ष होते है हैं। यह प्रत्येक स्थिति में एक समान मान्य होते हैं। जैसे-सत्यनिष्ठा,ईमानदारी, प्रेम इत्यादि मूल्य। मेरी राय में भारत जैसे बहुलतावादी समाज में झगड़ों के समाधान में नैतिक सापेक्षवाद और नैतिक निष्पक्षतावाद दोनों ही महत्त्वपूर्ण है। जहाँ राज्य,मीडिया व प्रशासन के स्तर पर प्राथमिक तौर पर नैतिक निष्पक्षतावाद के मूल्यों को समाहित करना महत्त्वपूर्ण इससे राज्य, मीडिया व प्रशासन में अपने कार्यों के प्रति निष्पक्षता,वस्तुनिष्ठता, सत्यनिष्ठा, जवाबदेही जैसे मूल्यों को समावेशित करने का भाव बढ़ेगा। साथ ही,सांस्कृतिक विविधता से सामंजस्य बैठाने के लिये नैतिक सापेक्षतावाद का समन्वय महत्त्वपूर्ण है। वहीं व्यक्तिगत व सामाजिक स्तर पर नैतिक सापेक्षवाद के मूल्यों को नागरिकों में समावेशित करना आवश्यक है। इससे नागरिकों में एक-दूसरे की मान्यताओं के प्रति सहिष्णुता का प्रचार होगा जो भारत में सांस्कृतिक समरसता के प्रसार के लिये महत्त्वपूर्ण है। व्यक्तिगत स्तर पर नैतिक निष्पक्षता संबंधी मूल्य जैसे- सत्यनिष्ठा, ईमानदारी, करूणा इत्यदि का होना आवश्यक है। यदि यह नैतिक सापेक्षतावाद और नैतिक निष्पक्षतावाद के मूल्यों का राज्य, प्रशासन व मीडिया और भारतीय जनता में प्रवाह बढ़ जाये तो दंगों,आपसी असद्भाव इत्यादि समस्याओें का व्यापक समाधान हो सकता है जो सशक्त राष्ट्र के निर्माण हेतु वांछनीय है।</s>
<s>[INST]आत्महत्या से संबंधित नैतिक मुद्दों पर चर्चा करें। क्या ऐसे कदम को किसी भी दशा में नैतिक रूप से उचित ठहराया जा सकता है?[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: आत्महत्या से संबंधित नैतिक मुद्दों पर प्रकाश डालें। विभिन्न परिस्थितियों के आलोक में आत्महत्या की नैतिकता पर विचार करें। आत्महत्या एक ऐसी स्थिति है जिसमें व्यक्ति स्वेच्छा से स्वयं मृत्यु का वरण करता है। अवसाद, जीवन के प्रति नकारात्मक भाव, परिजनों से अलगाव, भौतिक जीवन में असफलता, तथा जीवन से तटस्थता जैसे भाव आत्महत्या के प्रमुख कारण हैं। नैतिकता की दृष्टि से देखा जाए तो सामान्य परिस्थिति में आत्महत्या अनैतिक नजर आती है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तथा उसके अस्तित्व के निर्माण में उसके अलावा उसके माता-पिता, उसके परिवार के अन्य सदस्य, उसके मित्र तथा संपूर्ण समाज का योगदान होता है। इसके अलावा एक व्यक्ति के रूप में अन्य लोग उससे भावनात्मक रूप से भी जुड़े होते हैं। ऐसे में आत्महत्या की घटना से उसके कारण से जुड़े सभी व्यक्ति नकारात्मक रूप से प्रभावित होंगे। यह नैतिकता की भारत पारस्परिकता की अवधारणा के विरुद्ध है। इसके अलावा गांधी की नैतिकता की अवधारणा के अनुसार ऐसा हर कार्य जो आप दूसरों से स्वयं के प्रति अपेक्षा नहीं करते उसे स्वयं भी दूसरों के साथ नहीं करना चाहिए। एक आत्महत्या करने वाले व्यक्ति के निकटतम संबंधी यदि आत्महत्या कर लें तो उस पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और सामान्य रूप में वह स्वयं नहीं चाहेगा कि उसके निकटतम संबंधी आत्महत्या करें। ऐसे में यह गांधीवादी नैतिकता के विरुद्ध है। इसके अलावा कांट के निरपेक्ष आदेश के सिद्धांत के अनुसार भी आत्महत्या की अवधारणा नैतिकता के विरुद्ध है ।यदि ईश्वर के आधार पर नैतिकता को देखा जाए तो यह जीवन हमें ईश्वर की इच्छा से प्राप्त हुआ है ऐसे में इसे नष्ट करना अनैतिक है। इसके अलावा हर व्यक्ति अपने आप में एक संसाधन होता है ऐसे में उपयोगितावादी दृष्टिकोण से भी आत्महत्या नैतिकता के विरुद्ध है। ऐसे में एक प्रश्न यह उठता है कि यदि व्यक्ति का जीवन अत्यंत दुखद है और वर्तमान समय में इस दु:ख का कोई समाधान संभव नहीं तो केवल समाज अथवा अपने निकटतम व्यक्तियों की इच्छा के लिये आत्महत्या न करना क्या उस व्यक्ति के हित कि दृष्टि से अनैतिक नहीं है? उदाहरण के लिये अत्यंत कष्टदायक असाध्य रोगों से पीड़ित लोगों के संबंध में इस स्थिति को देखा जा सकता है। इसके अलावा विरल परिस्थितियों में कई बार व्यक्ति अपने परिवार, समाज तथा देश के हित के लिये स्वयं मृत्यु का वरण करता है। इसे अनैतिक नहीं माना जाना चाहिए किन्तु व्यापकता में देखा जाये तो यह आत्महत्या विवशता पर आधारित होती है। अतः इसे आत्महत्या का निरपेक्ष प्रयास नहीं माना जाना चाहिए। वास्तव में आत्महत्या से संबंधित नैतिकता कि अवधारणा अपने आप में आत्मनिष्ठ है जो व्यक्ति, परिवार, समाज और परिस्थितियों पर निर्भर करती है। कई बार आत्महत्या कि घटना के लिये व्यक्ति के तुलना में समाज और परिस्थितियां अधिक दोषी होती है। आत्महत्या जैसी स्थिति से बचने के लिये इसके नैतिक आधार पर विचार करने के साथ-साथ इसका समग्र मूल्यांकन अधिक आवश्यक है।</s>
<s>[INST]आप किसी चिकित्सा महाविद्यालय के डीन हैं। हाल ही में एक शिशु के जन्म के समय गर्भपात की सूचना मिलीऔर शिशु का जन्म अभी होना बाकी ही था। इस शिशु के माता-पिता और उनके परिवार को इससे आशाएँ थीं और वे पिछले 7 वर्षों से एक बच्चे के लिये प्रयासरत थे। उन्होंने प्रसूति के स्तर पर अनियमितता और नजरअंदाजी का आरोप लगाया जिसकी कीमत उनके शिशु को चुकानी पड़ी। कुछ मीडिया समूहों और स्थानीय लोगों ने इस घटना को दुर्भाग्यपूर्ण बताया है। अस्पताल के कर्मचारी चिकित्सक के पक्ष में एकजुट हो गए हैं और चिकित्सक के विरुद्ध कोई भी कदम उठाए जाने की स्थिति में हड़ताल पर जाने को तैयार हैं। निकट भविष्य में शहर में चिकनगुनिया का संक्रमण होने की संभावना की रिपोर्ट आई है और आप इस स्थिति में हड़ताल का वहन नहीं कर सकते। आपके समक्ष कौन-से विकल्प हैं? प्रत्येक के गुण-अवगुण बताएँ। आप क्या करेंगे और क्यों?[/INST]उत्तर : यहाँ मेरा उद्देश्य निर्णय प्रक्रिया को वस्तुनिष्ठ व निष्पक्ष बनाना होगा ताकि पीड़ित को समय पर न्याय मिल सके। विकल्पः इस केस स्टडी में निम्नलिखित विकल्प उपस्थित हैं- व्यक्तिगत नेतृत्व में इस मामले के लिये एक जाँच प्रक्रिया का प्रारम्भ करना। गुणः यह विकल्प मेरी निष्पक्षता को इंगित करता है। साथ ही ऐसी परिस्थितियों में मेरी नेतृत्व क्षमता को उद्घाटित करता है। इससे तथ्यों की सत्यता के आधार पर निर्णय हो सकेगा। दोषः यह भुक्तभोगी को त्वरित न्याय प्रदान करने में असफल है। चिकित्सक को निलंबित करना व पुनः बहाली के लिये आश्वस्त करना। गुणः इस विकल्प द्वारा चिकित्सक के निलबंन से संभावित अन्य चिकित्सकों की हड़ताल को नियंत्रित किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में यह कार्यवाही भावनात्मक बुद्धिमत्ता संबंधी मूल्य के प्रयोग से संबंधित है। दोषः भविष्य में होने वाली चिकनगुनिया की महामारी को देखते हुए एक डाक्टर को टीम से हटाना एक अदूरदर्शितापूर्ण निर्णय हो सकता है। पीड़ित परिवार के आरोपों को अनसुना करना और परिवार को बताना कि प्रक्रिया में यथोचित परिश्रम (One diligence) किया गया है। गुणः भविष्य में चिकनगुनिया की महामारी से बचाव हेतु व्यापक समाज के हित के लिये परिवार के आरोपों को अनसुना किया जा सकता है। यह उपयोगितावादी नैतिकता के सिद्धान्त पर सही प्रतीत होता है। दोषः यह विकल्प मेरी वस्तुनिष्ठता पर प्रश्न खड़े करता है साथ ही भविष्य में होने वाली ऐसी गलतियों के लिये एक अनुचित उदाहरण प्रस्तुत करता है। ऐसे विकल्पों की अवस्था में मेरी कार्यविधि निम्न प्रकार होगीः कार्यविधिः मैं, तथ्यों और रिपोर्ट की सत्यता की जांच करूंगा ताकि निष्पक्षता को सुनिश्चित किया जा सके। मैं, चिकित्सक को अस्थायी तौर पर निलंबित करूंगा ताकि हितों के टकराव को रोका जा सके। मैं, पीड़ित परिवार, और मीडिया से मिलूंगा ताकि अपनी करूणा को व्यक्त कर सकूं और व्यावसायिक संहिता को सुनिश्चित करूंगा। यदि जांच में किसी प्रकार की लापरवाही सामने आती है तो उचित दंड की व्यवस्था की जाएगी ताकि जनता व पीड़ित परिवार के विश्वास को बहाल किया जा सके। इन सारी कार्यवाहियों के मध्य अपने स्टाफॅ की औपचारिक/अनौपचारिक बैठकें आयोजित करूंगा ताकि उनका मनोबल बढ़ाया जा सके।</s>
<s>[INST]वंशवादी राजनीति पर प्रकाश डालते हुए बताएँ कि यह नैतिकता की दृष्टि से कितनी उचित है?[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: वंशवादी राजनीति को स्पष्ट करें। इस पर नैतिकता की दृष्टि से विचार करें। वंशवादी राजनीति का तात्पर्य ऐसी स्थिति से है जिसमें राजनीति में किसी एक वंश अथवा परिवार के लोगों को अधिक महत्त्व दिया जाता है। इसमें महत्त्वपूर्ण राजनीतिक पद एक वंश से जुड़े हुए लोगों के लिये ही आरक्षित होते हैं। भारत में केंद्र में काँन्ग्रेस तथा उत्तर प्रदेश एवं बिहार के कुछ राजनीतिक दलों में इस प्रवृत्ति को देखा जा सकता है। नैतिकता की दृष्टि से देखा जाए तो वंशवादी राजनीति लोकतंत्र की मूल भावना के विरुद्ध होने के कारण अनैतिक है। इसमें चयन का अधिकार सीमित हो जाता है तथा राजनीतिक दल आंतरिक लोकतंत्र के स्थान पर एक वंश की तानाशाही से संचालित होते है। इसके अलावा वंश आधारित राजनीति में योग्यता के स्थान पर जन्म को अधिक महत्त्व दिया जाता है। योग्यता के स्थान पर जन्म को महत्त्व दिया जाना नैतिकता के आधारभूत सिद्धांतों का उल्लंघन है। वर्तमान समय में जाति प्रथा तथा नस्लीय भेदभाव जैसी अनैतिक समस्याओं के मूल में इस कारण को देखा जा सकता है। इसके अलावा वंशवादी राजनीति, दल में चाटुकारिता तथा चापलूसी की अवधारणा को भी बढ़ावा देती है क्योंकि परिवार विशेष का पक्ष लेने वाले व्यक्तियों को दल के महत्त्वपूर्ण पद प्राप्त होते हैं। ये दोनों ही अवधारणाएँ नैतिकता की दृष्टि से अनुचित हैं। इसके अलावा कई देशों के अध्ययन बताते हैं कि वंशवादी राजनीति से दक्षता नकारात्मक ढंग से प्रभावित होती है तथा जन कल्याण के कार्यों में भी अवरोध उत्पन्न होता है। अतः यह सत्ता तथा सरकार की दृष्टि से भी नुकसानदेह है। यदि वंशवादी राजनीति से लाभ भी हो तो भी यह कांट के ‘निरपेक्ष नैतिकता’ के सिद्धांत तथा गांधी के ‘साध्य तथा साधन की पवित्रता’ के सिद्धांत के अनुसार नैतिकता की दृष्टि से अनुचित होगा। किंतु इस आधार पर एक वंश से जुड़े लोगों को राजनीति से अलग किया जाना भी अनुचित होगा। यदि किसी एक वंश के लोग योग्यता के आधार पर राजनीतिक रूप से उपयुक्त हों और उनका चयन आतंरिक लोकतंत्र के आधार पर किया जाए तो इसे वंशवादी राजनीति नहीं माना जाना चाहिये।</s>
<s>[INST]पूर्वाग्रह एवं भेदभाव कई सामाजिक समस्याओं के मूल में है। स्पष्ट करें। इसे किस प्रकार नियंत्रित किया जा सकता है?[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: पूर्वाग्रह को परिभाषित करते हुए भेदभाव से संबंधित सामाजिक संमस्याओं को स्पष्ट करें। बताएँ कि इसे किस प्रकार नियंत्रित किया जा सकता है। पूर्वाग्रह का तात्पर्य किसी व्यक्ति में संचित उन भावनाओं से है जिसके कारण वह किसी व्यक्ति अथवा समूह के प्रति सकारात्मक व नकारात्मक रुझान रखता है। सामान्य रूप में सामाजिक विकास के दौरान व्यक्ति जिन परिस्थितियों में पलता है उनके आधार पर उसके मन में पूर्वाग्रह का निर्माण होता है। बचपन में जिन चीजों अथवा व्यक्तियों से उसे लाभ होता है वह उसे सकारात्मक रूप में देखता है; वहीं जिन चीजों के बारे में उन्हें गलत ढंग से बताया जाता है उनके बारे में उसके मन में नकारात्मक रुझान उत्पन्न हो जाते हैं। पूर्वाग्रह से प्रभावित व्यक्ति वास्तविकता से अनभिज्ञ रहते हुए विशेष समूह और लोगों के प्रति भेदभाव पूर्ण व्यवहार करने लगता है। इससे संबंधित समस्याओं को निम्नलिखित रूपों में देखा जा सकता है- पितृसत्तात्मक समाज में पूर्वाग्रह महिलाओं के प्रति एक हीन भावना उत्पन्न करता है। इससे महिलाएँ सामाजिक विकास में पीछे छूट जाती हैं और उनके प्रति भेदभाव, यौन हिंसा, घरेलू हिंसा जैसे सामाजिक अपराध होते हैं। उसी प्रकार नस्लीय भेदभाव का एक प्रमुख कारण पूर्वाग्रह है। द्वितीय विश्व युद्ध से पूर्व जर्मनी में नाजियों द्वारा यहूदियों के नरसंहार तथा अमेरिका में अश्वेतों के प्रति बुरा व्यवहार के मूल में भी यह नस्लीय भेदभाव ही है। हमारे देश में जाति के आधार पर भेदभाव एक बड़ी समस्या रही है। जाति आधारित भेदभाव तथा शोषण के मूल में पूर्वाग्रह की मानसिकता ही कार्य करती है। उसी प्रकार सांप्रदायिकता की समस्या के मूल में भी दूसरे धर्म के लोगों के प्रति पूर्वाग्रह की भावना ही कार्य करती है। पूर्वाग्रह आधारित भेदभाव को कानूनी-वैधानिक, मनोवैज्ञानिक तथा व्यावहारात्मक विज्ञान आदि के प्रयोग से नियंत्रित किया जा सकता है। कानूनी-वैधानिक प्रावधानों के तहत धर्म, लिंग, नस्ल, जन्म-स्थान आदि के आधार पर विरोध करने पर दंड के प्रावधान किए गए हैं। किंतु दंड पर आधारित पूर्वाग्रह का विरोध पूर्वाग्रह की समस्या का स्थाई समाधान नहीं है। मनोवैज्ञानिक तथा व्यावहारात्मक विज्ञान के द्वारा पूर्वाग्रह की समस्या का समाधान धारणीय रूप से किया जा सकता है। इसके तहत रोल-प्ले तथा सन्दर्भ समूह में परिवर्तन जैसे उपाय किये जासकते हैं। पूर्वाग्रह की समस्या के समाधान के लिये तर्क पर आधारित वैज्ञानिक शिक्षा और नैतिकता तथा मानवतावादी भावनाओं का प्रसार भी आवश्यक है।</s>
<s>[INST]उत्कृष्टता वह कला है जो प्रशिक्षण और आदत से आती है। हम इसलिये सही कार्य नहीं करते कि हमारे अन्दर अच्छाई या उत्कृष्टता है, बल्कि वह हमारे अन्दर इसलिये है क्योंकि हमने सही कार्य किया है। हम वह हैं जो हम बार-बार करते हैं, इसलिये उत्कृष्टता कोई कार्य नहीं बल्कि एक आदत है। आप इस कथन से क्या समझते हैं?[/INST]उत्तर : दिये गए कथन व्यक्ति को उत्कृष्ट बनने के रास्ते के बारे में हैं। अरस्तू के अनुसार, सद्गुण सुखी जीवन के लिये एक माध्यम है। सद्गुण में नैतिक सद्गुण और बौद्धिक सद्गुण जैसे दो प्रकार होते हैं। बौद्धिक सद्गुण की प्राप्ति के लिये व्यक्ति को सीखना-पढ़ना चाहिये। बौद्धिक सद्गुण व्यक्ति को सही-गलत का परिचय नहीं दिलाता है लेकिन नैतिक सद्गुण व्यक्ति को सही काम करने के लिये प्रोत्साहित करता है। नैतिक सद्गुण प्राप्त करने के लिये सतत् अभ्यास ही एकमात्र तरीका है। इस नैतिक सद्गुण की प्राप्ति के लिये व्यक्ति को इस तरह लगातार अभ्यास करना चाहिये कि वह व्यक्ति की आदत बन जाए। अरस्तू के लिये नैतिक सद्गुण ही वास्तविक सद्गुण है और इन्हें पाने का एकमात्र तरीका सतत् अभ्यास है। हम जो आज बने हैं वह लंबी अवधि में लगातार अभ्यास का फल है। एक बुरे व्यवहार से व्यक्ति बुरा नहीं बनता है लेकिन लगातार बुरे व्यवहार का अभ्यास व्यक्ति को बुरा बना देता है। एक बुरा व्यक्ति प्रशिक्षण के माध्यम से एक अच्छा व्यक्ति बन सकता है। उदाहरण के लिये जेल में कैदियों को सुधरने के लिये लगातार उनसे नैतिक रूप से अच्छे कार्य करवाने पर बल दिया जाता है। नैतिक सद्गुण युक्त व्यक्ति बनने के लिये अच्छे व्यवहार का लगातार अभ्यास करना और उसे अपनी आदत बनाने की आवश्यकता होती है।</s>
<s>[INST]एक व्यक्ति अपने कृत्यों में नैतिकता की जाँच किस आधार पर कर सकता है?[/INST]उत्तर : समाज में नैतिकता के उच्च प्रतिमान को बनाए रखने के लिये सभी व्यक्तियों द्वारा अपने कृत्यों में नैतिकता की जाँच आवश्यक होती है। ऐसे में कुछ मुख्य आधार स्रोत की आवश्यकता होती है जो व्यक्ति के कृत्यों के नैतिक प्रतिमान को परखने में सहायक हो। ऐसे प्रमुख स्रोतों में हम निम्नलिखित की गणना कर सकते हैं- संविधान व कानूनः संविधान उन आधारभूत दिशा-निर्देशों का संकलन होता है जिसके आधार पर कोई राष्ट्र प्रशासित होता है। साथ ही इसमें उन लक्ष्यों और उसे प्राप्त करने के मार्ग की भी चर्चा होती है, जिसे राष्ट्र को प्राप्त करना होता है। इसी प्रकार कानूनों का भी नैतिक अर्थ होता है। यह लोगों को किसी कार्य को करने या उससे स्वयं को अलग रखने के लिये प्रेरित करता है। चूँकि, कानून व संविधान सार्वजनिक हितों को निजी हितों पर वरीयता देते हैं इसलिये ये व्यक्ति के कृत्य को परखने के लिये एक वृहद् आधार प्रस्तुत करते हैं। विवेकः विवेक व्यक्ति के सही और गलत के बीच अंतर स्पष्ट करने वाली सर्वप्रमुख नैतिक भावना है। जहाँ कानून कार्यों के विषय में सामान्य नियम घोषित करते हैं, वहीं विवेक विशिष्ट कार्यवाही के लिये व्यावहारिक नियम निर्धारित करता है। विवेक कानूनों को विशिष्ट कार्यों के प्रति लागू करता है। इसलिये यह कानून की तुलना में अधिक व्यापक होता है। धर्मः सभी धर्मों में नैतिकता के प्रति एक उच्च मानक स्थापित किया गया है। धर्म व्यक्ति के कृत्यों को परखने का एक महत्त्वपूर्ण ज़रिया है। अंतरात्माः व्यक्ति की अंतरात्मा उसके कृत्यों को निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अंतरात्मा की आवाज़ प्रायः नैतिक कृत्यों के लिये दिशा-निर्देशों का कार्य करती है। सामान्यतः संविधान व कानून लोगों के कार्यों को जाँचने-परखने का महत्त्वपूर्ण माध्यम होता है, परंतु कई बार कानूनी प्रावधान अपर्याप्त होते हैं और कुछ विशेष परिस्थितियों में व्यक्ति का विवेक व उसके अंतरात्मा की आवाज़ कार्यों की नैतिकता निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।</s>