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<s>[INST]आत्महत्या काफी हद तक एक निवारण योग्य सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या है, जो सभी हिंसक मौतों के लगभग आधे का कारण बनता है। इस संदर्भ में भारत में आत्महत्या की प्रवृत्ति पर चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रति 40 सेकेंड में आत्महत्या से एक जान जाती है। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आँकड़ों के अनुसार भारत में प्रत्येक 5 मिनट में एक आत्महत्या की कोशिश की जाती है। हमारे समाज का सबसे उत्पादक आयु वर्ग (18 वर्ष से 45 वर्ष के मध्य) में आत्महत्या की प्रवृत्ति सर्वाधिक है। अतः इन असहाय लोगों को इस प्रवृत्ति से रोकने हेतु तत्काल इनकी सहायता एवं वैश्विक प्रयास को सघन करने की ज़रूरत है। आत्महत्या से परिवार एवं मित्रों को भी गंभीर क्षति पहुँचती है, जो इससे भावनात्मक, आर्थिक व सामाजिक रूप से जुड़े होते हैं। भारत में स्वास्थ्य एवं पारिवारिक समस्याएँ, आत्महत्याओं का प्रमुख कारण रहा है। इसके साथ ही गरीबी, बेरोज़गारी, प्रेम-प्रसंग तथा कर्ज़ इसके सहायक कारणों के रूप में शामिल हैं। आत्महत्या करने वालों में सर्वाधिक संख्या गृहणियों की है, जिनकी चिंताओं को, मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य में सुधार कर कम किया जा सकता है। यह आवश्यक है कि ऐसी पहल की जाए जो विभिन्न जनानांकी समूहों को लक्षित हो तथा जो ऋणग्रस्तता पर ध्यान केंद्रित करने तक ही सीमित न हो। भारत में किसानों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति लोक नीति के लिये गंभीर चिंता का विषय है। किसान आत्महत्या के प्रति सरकार का रवैया ज़्यादातर सरलीकृत होता है तथा कभी-कभी ठोस पहलें देखी जाती हैं। सरकार इसके लिये कोई प्रभावी दीर्घकालिक नीति लाने के स्थान पर विशेष आर्थिक पैकेजों की घोषणा करती है। विभिन्न अध्ययनों से यह जाहिर है कि आत्महत्या के व्यवहार के लिये मुख्यतः मानसिक कमज़ोरी उत्तरदायी होती है। इसके अलावा किशोरों में भी आत्महत्या की प्रवृत्ति देखी जा रही है, जो सामान्य मानसिक दबाव के स्थान पर विशेष परिस्थितियों पर आधारित होती है। जब कोई किशोर ऐसी समस्या से घिरा होता है जो उसके नियंत्रण में नहीं होती, तो वह विशेष परेशानी या दबाव महसूस करता है। इन परिस्थितियों में शामिल हैं- तलाक, सौतेली पारिवारिक संरचना, शारीरिक या लैंगिक हिंसा, भावनात्मक उपेक्षा, मादक द्रव्यों का सेवन आदि। बहुत सारी आत्महत्याओं का कारण अवसाद होता है। अवसाद एक मानसिक स्वास्थ्य संबंधी विकार है। यह दिमाग में रासायनिक असंतुलन उत्पन्न करता है, जो निराशा, उदासी, जीवन के प्रति सामान्य उदासीनता को जन्म देता है। निष्कर्षतः आत्महत्याओं पर रोक लगाने हेतु एक संरचनात्मक पहल की ज़रूरत है जो सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या को भी लक्षित करे।</s>
<s>[INST]डॉ. पद्मिनी मेहरा, नागपुर नगर निगम में म्युनिसिपल कमिश्नर के पद पर कार्यरत हैं। आलोक झपाटे वहाँ एक कनिष्ठ अधिकारी के रूप में कार्यरत हैं। डॉ. पद्मिनी को अपने मेल एवं निगम की वेबसाइट पर आलोक झपाटे के खिलाफ एक शिकायत प्राप्त होती है। शिकायत के अनुसार, पिछले दिनों मिस्टर आलोक अपनी शादी की सालगिरह मनाने हेतु शहर के मशहूर रेस्टोरेंट ‘वंशी विहार’ में पत्नी एवं बच्चों के साथ गए थे। लेकिन उस समय वहाँ एक भी टेबल खाली नहीं थी। शिकायत के अनुसार, वह मैनेजर को धमकाते हुए तत्काल एक टेबल उपलब्ध कराने के लिये कहते हैं। मैनेजर उनसे थोड़ा इंतज़ार करने के लिये कहता है लेकिन वह तत्काल कोई टेबल उपलब्ध नहीं करा पाया। इस पर मिस्टर आलोक उस पर क्रोधित हो जाते हैं तथा सभी ग्राहकों के सामने उससे एवं रेस्टोरेंट के अन्य कर्मचारियों से काफी अशिष्टता से पेश आते हैं। वह अपना परिचय एवं अपने संपर्क का हवाला देते हुए मैनेजर को रेस्टोरेंट का लाइसेंस रद्द कराने की धमकी देते हैं। शिकायतकर्त्ता के अनुसार, वह वैध तरीके से अपना व्यवसाय चलाता है तथा किसी लोक सेवक को उसे अनैतिक रूप से धमकाने का संवैधानिक अधिकार नहीं है। अतः जनता के हित में उस अधिकारी के खिलाफ उचित कार्रवाई की जाए। आपके विचार से कमिश्नर पद्मिनी मेहरा को उस आधिकारी के विरुद्ध निम्नांकित में से कौन-सी कार्यवाई करना सर्वाधिक उचित होगा? (a) वे मिस्टर आलोक को तत्काल बर्खास्त कर दें तथा उनके विरुद्ध अनुशासनात्मक जाँच का आदेश दें। (b) वे निगम के किसी अधिकारी को शिकायत की वैधता की जाँच करने को कहें तथा शिकायत के सही पाए जाने पर दोषी अधिकारी के विरुद्ध कार्रवाई शुरू करें। (c) वे शिकायतकर्त्ता से व्यक्तिगत रूप से मिलकर तथ्यों की सत्यता का पता करें।[/INST]उत्तर : (a) निःसंदेह, एक लोक सेवक के रूप में मिस्टर आलोक का व्यवहार निंदनीय है। उन्हें समझना चाहिये था कि रेस्टोरेंट मैनेजर टेबल पर बैठे ग्राहकों को उठाकर उन्हें टेबल उपलब्ध नहीं करा सकता। उन्हें मैनेजर के पक्ष को समझकर गंभीरता का परिचय देना चाहिये था। साथ ही मिस्टर आलोक को अपने पद एवं संपर्कों के आधार पर मैनेजर को धमकाने एवं अशिष्ट व्यवहार करने का कोई अधिकार नहीं है। यह लोक सेवा की नैतिकता के विरुद्ध है। वह दुर्भावनावश किसी के लाइसेंस को रद्द कराने का न तो अधिकार रखते हैं, न ही ऐसा आचरण नैतिक रूप से उचित है। लेकिन निगम का प्रशासनिक प्रमुख होने के कारण डॉ. पद्मिनी मेहरा शिकायत की अनदेखी नहीं कर सकती हैं। उन्हें कोई कार्रवाई शुरू करने से पहले वैध तथ्यों को एकत्र कर लेना चाहिये। लोक जीवन में इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सस्ती लोकप्रियता पाने के लिये तथ्यों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाए। साथ ही रेस्टोरेंट के किसी कर्मचारी ने उनके खिलाफ पुलिस में शिकायत भी दर्ज नहीं की है। यह नैतिक दुर्व्यवहार या लोक सेवा की गरिमा के विरुद्ध आचरण का मामला है, न कि कोई क्रिमिनल मामला। अतः कमिश्नर पद्मिनी को बर्खास्तगी जैसे कठोर कदम नहीं उठाना चाहिये। (b) यद्यपि वह किसी अधिकारी को तथ्यों की वैधता की जाँच के लिये कह सकती हैं। वह मिस्टर आलोक के ऑफिस रिकॉर्ड की पड़ताल कर यह पता कर सकती हैं कि मिस्टर आलोक क्रोधी प्रवृत्ति और धैर्यहीन स्वभाव के व्यक्ति हैं या नहीं। यदि वह ऐसे स्वभाव के व्यक्ति नहीं हैं तथा उनके विरुद्ध शिकायत भी सही है तो कमिश्नर द्वारा उन्हें भविष्य में ऐसा आचरण न करने की औपचारिक चेतावनी दी जा सकती है। चूँकि यह नैतिक आचरण एवं मिस्टर आलोक के निजी जीवन का मामला है। अतः कमिश्नर को अनावश्यक हस्तक्षेप न कर उचित प्रक्रिया द्वारा इसका समाधान करना चाहिये। (c) चूँकि डॉ. पद्मिनी मेहरा निगम की प्रशासनिक प्रमुख हैं। अतः उनका व्यक्तिगत रूप से शिकायतकर्त्ता से मिलना उचित नहीं है। वह अपने अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से शिकायत की वैधता की जाँच करा सकती हैं। साथ ही मिस्टर आलोक का नैतिक दुराचरण, उनके निजी जीवन से संबद्ध है तथा कमिश्नर को तत्काल किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचना चाहिये।</s>
<s>[INST]भावनात्मक बुद्धिमत्ता (Emotional Intelligence), बौद्धिक गुणक (Intelligence Quotient) की तुलना में अधिक मायने क्यों रखती है? क्या प्रशासन में भावनात्मक बुद्धिमत्ता की आवश्यकता है?[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: भावनात्मक बुद्धिमत्ता और बौद्धिक गुणक का अर्थ भावनात्मक बुद्धिमत्ता और बौद्धिक गुणक की तुलना प्रशासन में भावनात्मक बुद्धिमत्ता का महत्त्व अपनी भावनाओं को परिस्थिति के अनुसार नियंत्रित व निर्देशित कर, पारस्परिक संबंधों का विवेकानुसार और सामंजस्यपूर्ण तरीके से प्रबंधन करने की क्षमता भावनात्मक बुद्धिमत्ता (Emotional Intelligence) कहलाती है। यह मूल रूप से अपनी भावनाओं को पहचानने और प्रबंधित करने तथा दूसरे के मनोभावों को समझकर उन पर नियंत्रण करने की क्षमता है। बौद्धिक गुणक या इंटेलिजेंस कोशेंट (Intelligence quotient) कई अलग-अलग मानकीकृत परीक्षणों से प्राप्त एक गणना है जिससे बुद्धि का आकलन किया जाता है। भावनात्मक बुद्धिमत्ता और बौद्धिक गुणक की तुलना- एक अच्छी बौद्धिक गुणक वाला व्यक्ति अच्छी सफलता प्राप्त कर सकता है लेकिन तरक्की पाने के लिए भावनात्मक समझ का होना भी ज़रूरी है। अच्छी भावनात्मक समझ रखने वाला व्यक्ति कभी भी क्रोध और खुशी के अतिरेक में आकर अनुचित कदम नही उठाता है। बौद्धिक गुणक व्यक्ति को सिर्फ परीक्षा में अच्छे अंक दिलाता है, लेकिन भावनात्मक बुद्धिमत्ता व्यक्ति को जीवन की परीक्षा में सफलता दिलाती है। जिनकी भावनात्मक बुद्धिमत्ता ज़्यादा होती है, वे बदलते पर्यावरण के साथ जल्दी व्यवस्थित हो जाते हैं और इसलिये उनकी सफलता की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं। भावनात्मक बुद्धिमत्ता वाले लोग सिर्फ तथ्य नहीं देखते बल्कि उसके साथ भावनाओं से भी काम लेते हैं। उन्हें यह पता होता है कि हर कोई अलग है इसलिये उस अंतर को ध्यान में रखते हुए वे सबसे एक सा व्यवहार नहीं करते। वे अपनी भावनाओं के साथ-साथ दूसरों की भावनाओं का भी कद्र करते हैं। ऐसे लोग संचार-कौशल में अच्छे होते हैं और अच्छे अधिकारी बन सकते हैं। भावनात्मक बुद्धिमत्ता और बौद्धिक गुणक के बारे में सबसे पहले गोलमेन ने बताया था। उनका कहना था कि जीवन में 20 प्रतिशत सफलता बौद्धिक गुणक से मिलती है, जबकि 80 प्रतिशत सफलता भावनात्मक बुद्धिमत्ता के कारण मिलती है। प्रशासन में भावनात्मक बुद्धिमत्ता की आवश्यकता भावनात्मक बुद्धिमत्ता वाले व्यक्ति दूसरों की भावनाओं को सुनकर उन लोगों के साथ सहानुभूति व्यक्त करते हैं। अपनी गलतियों को स्वीकार करते हैं और उनसे सीख लेते हैं। नए विचारों और जानकारी के साथ सहज समायोजित हो जाते हैं। असहमति को आसानी से हल करते हैं। दूसरों की तुलना में अधिक उत्पादक होते हैं।</s>
<s>[INST]एक चीफ इंजीनियर के नेतृत्व में एक पुल का निर्माण किया जा रहा है, जो किसी ठेकेदार द्वारा बनाया जा रहा है। अचानक पुल की रेलिंग गिरने से कुछ लोग मर जाते हैं। चीफ इंजीनियर को इसकी सूचना मिलती है किंतु इसी समय आंधी के साथ बारिश शुरू हो जाती है। ऐसी स्थिति में चीफ इंजीनियर को निम्न में से किस तरह के कदम उठाने चाहियें- 1. घायलों को हॉस्पिटल पहुँचाने के निर्देश देने के साथ बारिश के बावजूद घटनास्थल पर पहुँचकर दुर्घटना के कारणों की जाँच करेंगे। 2. घायलों को हॉस्पिटल पहुँचाने के निर्देश देने के साथ बारिश के रुकने का इंतज़ार करेंगे, तत्पश्चात् घटनास्थल का दौरा करेंगे। 3. घायलों को मुआवज़ा देने की घोषणा के साथ अगले दिन जाने की कोशिश करेंगे। उपरोक्त सभी संकल्पों का मूल्यांकन करें तथा बताएँ कि आप किस विकल्प का चुनाव करेंगे और क्यों? तर्कों के साथ बताएँ।[/INST]उत्तर : प्रथम विकल्प का मूल्यांकन- घायलों को हॉस्पिटल पहुँचाने का निर्देश जनता के प्रति जवाबदेहिता को दर्शाता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता प्राथमिक है, अतः घायलों को बचाना नैतिक कार्य है। विषम परिस्थितियों के बावज़ूद भी यदि वह वहाँ पहुँच रहे हैं तो निश्चय ही उनमें संवेदनात्मक भावनाएँ हैं। दूसरों के समक्ष खुद को प्रस्तुत करना कुशल नेतृत्व का प्राथमिक लक्षण होता है, जो यहाँ उसमें दिखता है। दोष- चूँकि वर्षा आंधी के साथ हो रही है, अतः इस स्थिति में उनके साथ कुछ अप्रिय होने की सम्भावना है। ऐसी स्थिति में जहाँ एक तरफ प्रक्रिया की कुशल जाँच में समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं वहीं, दूसरी तरफ अन्य सदस्य ग्रुप लीडर की कमी से हतोत्साहित हो सकते हैं और उनका मनोबल टूट सकता है। घायलों को हॉस्पिटल पहुँचाने का निर्देश देना नैतिक भी है और जबावदेहिता का सूचक भी, अतः इस विकल्प में कोई दोष नहीं दिखता। लेकिन जहाँ तक वर्षा रुकने के बाद घर से निकलने का प्रश्न है तो उसको दो तरीके से देख सकते हैं- इंतज़ार करना जवाबदेहिता एवं उत्तरदायित्व से मुँह मोड़ने के बराबर है। कनिष्ठ सदस्यों पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। अतः यह नेतृत्व क्षमता की उपेक्षा के करीब दिखता है। लेकिन दूसरी तरफ यह भी ध्यान रखना चाहिये कि ऐसी विषम परिस्थिति में बाहर निकलने से खुद संकट में पड़ सकते हैं जिसकी दीर्घकालीन हानि ग्रुप को उठानी पड़ सकती है। घायलों को मुआवज़ा देने की घोषणा के साथ अगले दिन जाना, जहाँ तक इस विकल्प के मूल्यांकन का सवाल है, तो मुआवज़े की घोषणा एवं हॉस्पिटल में घायलों की निःशुल्क चिकित्सा की घोषणा प्रशासनिक तत्परता एवं सूझबूझ को दर्शाता है। साथ ही साथ ऐसा करने से संवेदनशील प्रशासन की छवि जनता के मन में बनेगी और कार्य निष्पादन में जनता का साथ मिलेगा, न कि विरोध। लेकिन अगले दिन घटनास्थल पर पहुँचना प्रशासनिक संवेदनहीनता एवं उदासीनता का द्योतक है। ऐसा करने से एक तो वह अपने ग्रुप के सदस्यों का विश्वास खो देंगे, वहीं दूसरी ओर जनता और प्रशासन के बीच भी दूरी बढ़ेगी जो दीर्घकालिक एवं तात्कालिक दोनों ही रूप से प्रशासन के लिये घातक होगा। निश्चय ही उपरोक्त सभी विकल्पों में कुछ-न-कुछ खामियाँ विद्यमान हैं। ऐसे में किसी विकल्प को चुननानैतिक नहीं होगा, फलतः हम विकल्प चुनाव में निम्नलिखित बातों का पालन करेंगे- घायलों को अस्पताल पहुँचाने का निर्देश एवं उनके लिये निःशुल्क चिकित्सा तथा मृतकों के लिये मुआवज़े की घोषणा करेंगे। प्रशासन से बात कर एक आपदा प्रबंधन टीम को अतिशीघ्र घटनास्थल पर पहुँचने का निर्देश देंगे ताकि दबे हुए लोगों को जल्द-से-जल्द निकाला जा सके। अंततः जल्द-से-जल्द घटनास्थल पर पहुँचने की कोशिश करेंगे और घटना की त्वरित जाँच की सार्वजानिक घोषणा करेंगे ताकि दोषियों को जल्द सजा दी जा सके। उपरोक्त प्रक्रिया का अनुपालन करने से एक तरफ जनता का प्रशासन में विश्वास बनाए रख पाना संभव हो सकेगा, तो दूसरी तरफ प्रशासनिक संवेदनशीलता का उदाहरण प्रस्तुत कर सकेंगे जिससे अंततः प्रशासन की वैधता एवं धारणीयता सतत् बनी रहेगी जो कि नैतिक समाज के निर्माण के लिये आवश्यक है।</s>
<s>[INST]निजी और सार्वजनिक संबंधों की विशेषताएँ अलग-अलग हैं, लेकिन सार्वजनिक संबंधों में नैतिक होने के लिये लोक सेवकों का व्यक्तिगत जीवन में नैतिक होना आवश्यक है। क्या आप सहमत हैं? औचित्य के साथ व्याख्या कीजिये।[/INST]उत्तर : माँ और बच्चे के बीच संबंध की प्रकृति और विशेषताएँ, कार्यालय में बॉस और अधीनस्थ के बीच संबंध से अलग है। निजी और सार्वजनिक संबंधों की विशेषताएँ अलग-अलग होने के बावजूद, सार्वजनिक और निजी संबंधों में नैतिकता के बीच का भेद अस्पष्ट है और दोनों में भिन्नता लाना मुश्किल है। निष्ठा, ईमानदारी, नैतिकता जैसे मूल्य सिविल सेवक के लिये आवश्यक तत्त्व हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या ये मूल्य किसी के निजी जीवन में भी आवश्यक हैं? कई लोगों का मानना है कि व्यक्ति के निजी जीवन से सार्वजनिक जीवन का कोई संबंध नहीं है। गांधीजी के अनुसार, हम एक पहलू में सही और दूसरे में गलत कृत्य नहीं कर सकते। जीवन अखंड है और सार्वजनिक तथा निजी आचरण के बीच का अंतर कृत्रिम माना जाता है। सार्वजनिक और निजी संबंधों में नैतिक आचरण लगातार एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। एक व्यक्ति के निजी जीवन में जो हो रहा है उससे उसके पेशेवर जीवन पर प्रभाव ज़रूर पड़ता है। निजी संबंधों में नैतिक आचारण सार्वजनिक संबंधों में मानवीयता बनाये रखने में मदद करता है और यह व्यक्ति की नैतिक व्यवस्था बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सार्वजनिक क्षेत्र में लोगों की सेवा करना होता है, यह केवल नैतिक व्यक्ति ही कर सकता है। इसलिये लोक सेवक को अपने निजी जीवन में भी नैतिक बनना आवश्यक है।</s>
<s>[INST]संविधान और कानून शासन का कानूनी ढाँचा प्रदान करते हैं, जबकि शासन में ईमानदारी शासन की प्रकृति तथा सरकार और शासित के बीच संबंध को निर्धारित करती है। व्याख्या कीजिये।[/INST]उत्तर : ईमानदारी सत्यता, निष्ठा जैसे उच्च नैतिक सिद्धांतों के होने की उच्च गुणवत्ता है। ईमानदारी प्रक्रिया में नैतिक व्यवहार का सबूत है। शासन में ईमानदारी बनाए रखना केवल भ्रष्ट या बेईमान आचरण से बचना ही नहीं है, साथ में निष्पक्षता, जवाबदेही और पारदर्शिता जैसे सार्वजनिक क्षेत्र के मूल्यों को भी लागू करना पड़ेगा। संविधान और कानून शासन को कानूनी ढाँचा प्रदान करते हैं, लेकिन देश में सुशासन सुनिश्चित करने के लिये शासन प्रणाली में ईमानदारी की आवश्यकता है और ईमानदारी ही सरकार और देश के लोगों के बीच बेहतर संबंध सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। शासन की कुशल और प्रभावी प्रणाली के लिये और विकास की समग्र प्रक्रिया के लिये शासन में ईमानदारी एक अनिवार्य और महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। यह कानूनों और नियमों का प्रभावी क्रियान्वयन करने में और सार्वजनिक अधिकारियों के बीच अनुशासन पैदा करने में मदद करती है। शासन में ईमानदारी सुनिश्चित करने के लिये भ्रष्टाचार का निर्मूलन अत्यावश्यक होगा, उसके साथ ही नियम-कानूनों को बनाना और उनका प्रभावी और निष्पक्ष कार्यान्वयन भी करना चाहिये।</s>
<s>[INST]लोगों के अभिवृत्ति परिवर्तन में विज्ञापन एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सोदाहरण स्पष्ट करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: अभिवृति का अर्थ अभिवृत्ति परिवर्तन में विज्ञापन की भूमिका निष्कर्ष अभिवृत्ति मनुष्य की वह मनोवैज्ञानिक दशा है जो वह किसी वस्तु, व्यक्ति, समूह, संस्था, मूल्य, मान्यता आदि के प्रति जाहिर करता है। अभिवृत्ति को व्यवहार से पूर्व की मनोदैहिक अवस्था या प्रवृत्ति के रूप में समझा जा सकता है। अभिवृत्तियाँ जन्मजात नहीं होती हैं, इन्हें अर्जित किया जाता है। अतः अभिवृत्तियों के विकास में अभिप्रेरणा की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण हो जाती है। विज्ञापन अभिप्रेरणा विकसित करने का एक मज़बूत साधन है। विज्ञापन किसी विशेष वस्तु या मान्यता, कार्य आदि के प्रति सकारात्मक या नकारात्मक अभिप्रेरणा के माध्यम से उसके प्रति सकारात्मक या नकारात्मक अभिवृत्ति विकसित करने में सहायक हो सकती है। इसे हम निम्नलिखित उदाहरणों से समझ सकते हैं: कई प्रसिद्ध सेलिब्रिटी द्वारा विभिन्न उत्पादों के विज्ञापन किये जाते हैं जिसका आमजन पर प्रायः सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और वे उसे खरीदने के लिये प्रेरित होते हैं। जैसे- क्रिकेटर व फिल्म स्टार आदि द्वारा रोजमर्रा की चीजों का विज्ञापन बड़े पैमाने पर किया जाता है। कई सरकारी कार्यक्रमों के प्रति आमजन में जागरूकता फैलाने के लिये प्रसिद्ध व्यक्तियों को लेकर विज्ञापन बनाए जाते हैं और इसका बहुत हद तक सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिये, स्वच्छ भारत अभियान, पल्स पोलियो, अतुल्य भारत आदि कार्यक्रमों के लिये बनाए गए विज्ञापन। सामाजिक संदेश देने के लिये भी अनेक विज्ञापन बनाए जाते हैं जो लोगों की अभिवृत्ति को गहरे स्तर पर प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिये, बाल श्रम, यौन हिंसा, शिक्षा आदि के महत्त्व को दर्शाने वाले विज्ञापन। विज्ञापन के माध्यम से कई नकारात्मक चीजों के लिये भी लोगों की अभिवृत्ति को बदला जा सकता है। उदाहरण के तौर पर तंबाकू, धूम्रपान, शराब आदि के विज्ञापन लोगों की अभिवृत्ति को प्रभावित करते हैं। यद्यपि वर्तमान समय में विज्ञापन लोगों की अभिवृत्ति को प्रभावित करने वाले सर्वप्रमुख माध्यमों में से एक है, किंतु निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता है कि विज्ञापन लोगों के कृत्य को निश्चित रूप से प्रभावित करेगा ही। यह कई अन्य कारकों पर भी निर्भर करता है जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिये, सिगरेट के पैकेट पर सड़े-गले अंगों की तस्वीर होने और साथ ही ‘यह जानलेवा है’ लिखे होने के बावजूद भी इसकी बिक्री पर बहुत अधिक प्रभाव नहीं पड़ता है।</s>
<s>[INST]मूल्यों के निर्माण व संरक्षण में परिवार की भूमिका पर टिप्पणी करें?[/INST]उत्तर : माँ बच्चों की प्राथमिक शिक्षिका है और परिवार प्रथम पाठशाला। यह एक परंपरागत मान्यता है और यह पूर्णतः सही भी है। परिवार से ही बच्चों का समाजीकरण प्रारंभ होता है। बच्चे परिवार का जैसा माहौल देखते हैं, वैसा ही सीखते हैं। मूल्यों के निर्माण व संरक्षण में परिवार की भूमिका अति महत्त्वपूर्ण है, इसे हम निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर देख सकते हैं: परिवार बच्चों के कार्यों का सबसे नज़दीकी प्रेक्षक होता है और वह उसके कार्यों के प्रति सही प्रतिक्रिया देकर बहुत कुछ सिखा सकता है, जैसे- बच्चों में झूठ, लालच आदि के प्रति नकारात्मक अभिवृत्ति विकसित करने में परिवार के सदस्यों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। परिवार बच्चों द्वारा किये गए अच्छे कार्यों के प्रति सकारात्मक प्रतिक्रिया देकर उनमें अच्छे मूल्यों को बढ़ावा दे सकता है। उदाहरण के लिये बच्चों में दूसरों की सहायता करने के भाव को बढ़ावा देकर उनमें सहानुभूति व करुणा जैसे मूल्यों को बढ़ाया जा सकता है। महिलाओं के प्रति सम्मान व आदर का भाव बच्चों को शुरू से ही सिखाया जाना चाहिये और इसमें परिवार की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण हो जाती है, वर्तमान समय में जब महिलाओं के प्रति हिंसा और उनका उपभोगवादी चित्रण काफी बढ़ा हुआ है। ऐसे समय में परिवार बच्चों को महिलाओं के समान व उनके समानता के अधिकार के संबंध में सजग व जागरूक बनाने में सहायक हो सकता है। इसके अतिरिक्त देशभक्ति, ईमानदारी, अहिंसा, पर्यावरण संरक्षण, वैज्ञानिक व तार्किक सोच के विकास में परिवार की भूमिका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। किंतु वर्तमान समय में सोशल मीडिया, इंटरनेट आदि के कारण बच्चों के पास सूचनाओं की बहुतायत उपलब्धता है। ‘पब्लिक डोमेन’ में बहुत सारी सूचनाएँ नकली व भ्रामक होती है जो बच्चों के चंचल मन को आसानी से भ्रमित कर सकती हैं। ऐसे में बच्चों को सही जानकारी परिवार के द्वारा ही प्रदान की जा सकती है। इस प्रकार परिवार, बच्चे व बाह्य विश्व के बीच संपर्क का पहला बिंदु है। अतः परिवार में बच्चों को जो सिखाया जाता है वह की धीरे-धीरे बच्चों की आदत बन जाती है। बच्चों के अंदर सामाजिक-नैतिक मूल्यों के विकास व संरक्षण में परिवार की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण हो जाती है।</s>
<s>[INST]कोई भी नैतिक नियम सार्वभौमिक नहीं हो सकता है। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? अपने उत्तर के पक्ष में प्रमाण प्रस्तुत करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: नैतिकता की परिभाषा कुछ ऐसे नैतिक नियमों के उदाहरण जो समय, काल एवं परिस्थिति के अनुसार बदल गये हों अर्थात सार्वभौमिक प्रकार के नहीं हैं। कुछ सार्वभौमिक प्रकार के नैतिक नियमों के उदाहरण निष्कर्ष नैतिकता से तात्पर्य सामाजिक नियमों का ऐसा संग्रह जो उस समाज के लोगों के आचरण, व्यवहार, कृत्य आदि को निर्देशित करता है और उसे सही और गलत के पैमाने पर तौलता है। कई ऐसी प्रथाएँ हैं जिन्हें एक समाज में नैतिक मान्यता प्राप्त है या यूँ कहें कि इन परंपराओं को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है, जबकि दूसरे समाज में इन्हीं परंपराओं को अनैतिक समझा जाता है। उदाहरण के लिये विवाह पूर्व यौन संबंध हमारे देश में अनैतिक समझे जाते हैं, जबकि पश्चिमी देशों में इसे सामाजिक मान्यता प्राप्त है। इसी प्रकार प्राचीन तथा मध्यकालीन भारतीय समाज में सती प्रथा को सामाजिक स्वीकृति भी प्राप्त थी और इसे नैतिक भी समझा जाता था, परंतु वर्तमान में इसे एक अमानवीय कृत्य समझा जाता है। ऐसे और भी कई उदाहरण है जहाँ नैतिकता देश, समय व काल से प्रभावित होती है, जैसे- महिलाओं की स्थिति, बहुविवाह व अन्य कई सामाजिक-धार्मिक मान्यताएँ। इससे यह सहज ही प्रतीत होता है कि कोई भी नैतिक नियम सार्वभौमिक नहीं है और यह देश, काल व परिस्थितियों पर निर्भर करता है। परंतु यदि हम संपूर्ण मानव सभ्यता के विकास पर नज़र दौड़ाते हैं तो पाते हैं कि कई ऐसी मान्यताएँ, प्रथाएँ व नियम हैं जिन्हें सार्वभौमिक स्वीकृति प्राप्त है, साथ ही कई नियम सार्वभौमिक रूप से गलत कहे जाते हैं। ये देश, काल व समाज से प्रभावित नहीं होते हैं। उदाहरण के लिये दया, करुणा, कष्ट में पड़े व्यक्ति की सहायता करना, वीरता आदि वे नैतिक मान्यताएँ हैं, जिन्हें प्रत्येक समाज व हर युग में नैतिक माना गया है। इसका प्रमाण हमें इस बात से मिलता है कि इन्हीं नैतिक मान्यताओं से प्रभावित होकर अशोक जैसे शासक ने आज से हज़ारों वर्ष पहले न केवल अपने राज्य बल्कि विदेशों में भी मनुष्यों व जानवरों तक के लिये करुणा और दया भाव दिखाते हुए अस्पताल आदि का निर्माण कराया तथा वर्तमान समय में भी इन्हीं मान्यताओं से प्रभावित होकर पेटा (PETA), रेडक्रास और यूनीसेफ (UNICEF) जैसी संस्थाएँ कार्य कर रही हैं। अतः निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि निश्चय ही नैतिक मान्यताएँ देश, काल व परिस्थितियों से प्रभावित होती हैं, परंतु कुछ ऐसी सार्वभौमिक नैतिक मान्यताएँ हैं जो संपूर्ण मानवता के लिये हर काल, समय व परिस्थिति में सर्वमान्य हैं।</s>
<s>[INST]कोई भी नैतिक नियम सार्वभौमिक नहीं हो सकता है। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? अपने उत्तर के पक्ष में प्रमाण प्रस्तुत करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: नैतिकता की परिभाषा कुछ ऐसे नैतिक नियमों के उदाहरण जो समय, काल एवं परिस्थिति के अनुसार बदल गये हों अर्थात सार्वभौमिक प्रकार के नहीं हैं। कुछ सार्वभौमिक प्रकार के नैतिक नियमों के उदाहरण निष्कर्ष नैतिकता से तात्पर्य सामाजिक नियमों का ऐसा संग्रह जो उस समाज के लोगों के आचरण, व्यवहार, कृत्य आदि को निर्देशित करता है और उसे सही और गलत के पैमाने पर तौलता है। कई ऐसी प्रथाएँ हैं जिन्हें एक समाज में नैतिक मान्यता प्राप्त है या यूँ कहें कि इन परंपराओं को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है, जबकि दूसरे समाज में इन्हीं परंपराओं को अनैतिक समझा जाता है। उदाहरण के लिये विवाह पूर्व यौन संबंध हमारे देश में अनैतिक समझे जाते हैं, जबकि पश्चिमी देशों में इसे सामाजिक मान्यता प्राप्त है। इसी प्रकार प्राचीन तथा मध्यकालीन भारतीय समाज में सती प्रथा को सामाजिक स्वीकृति भी प्राप्त थी और इसे नैतिक भी समझा जाता था, परंतु वर्तमान में इसे एक अमानवीय कृत्य समझा जाता है। ऐसे और भी कई उदाहरण है जहाँ नैतिकता देश, समय व काल से प्रभावित होती है, जैसे- महिलाओं की स्थिति, बहुविवाह व अन्य कई सामाजिक-धार्मिक मान्यताएँ। इससे यह सहज ही प्रतीत होता है कि कोई भी नैतिक नियम सार्वभौमिक नहीं है और यह देश, काल व परिस्थितियों पर निर्भर करता है। परंतु यदि हम संपूर्ण मानव सभ्यता के विकास पर नज़र दौड़ाते हैं तो पाते हैं कि कई ऐसी मान्यताएँ, प्रथाएँ व नियम हैं जिन्हें सार्वभौमिक स्वीकृति प्राप्त है, साथ ही कई नियम सार्वभौमिक रूप से गलत कहे जाते हैं। ये देश, काल व समाज से प्रभावित नहीं होते हैं। उदाहरण के लिये दया, करुणा, कष्ट में पड़े व्यक्ति की सहायता करना, वीरता आदि वे नैतिक मान्यताएँ हैं, जिन्हें प्रत्येक समाज व हर युग में नैतिक माना गया है। इसका प्रमाण हमें इस बात से मिलता है कि इन्हीं नैतिक मान्यताओं से प्रभावित होकर अशोक जैसे शासक ने आज से हज़ारों वर्ष पहले न केवल अपने राज्य बल्कि विदेशों में भी मनुष्यों व जानवरों तक के लिये करुणा और दया भाव दिखाते हुए अस्पताल आदि का निर्माण कराया तथा वर्तमान समय में भी इन्हीं मान्यताओं से प्रभावित होकर पेटा (PETA), रेडक्रास और यूनीसेफ (UNICEF) जैसी संस्थाएँ कार्य कर रही हैं। अतः निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि निश्चय ही नैतिक मान्यताएँ देश, काल व परिस्थितियों से प्रभावित होती हैं, परंतु कुछ ऐसी सार्वभौमिक नैतिक मान्यताएँ हैं जो संपूर्ण मानवता के लिये हर काल, समय व परिस्थिति में सर्वमान्य हैं।</s>
<s>[INST]व्यापार में लाभ और नैतिकता को विरोधाभासी माना जाता है क्योंकि लाभ में स्वार्थ की भावना है जबकि नैतिकता दूसरों की भावनाओं को भी मान्यता देती है, अतः व्यापार में लाभ और नैतिकता में किसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए?[/INST]उत्तर : निःसंदेह लाभ हर व्यापार संगठन के लिये महत्त्वपूर्ण पहलू है, लेकिन नैतिकता को दरकिनार करके लाभ पर एकाग्रता करने की सोच चिंताजनक है। परंपरागत रूप से लाभ और नैतिकता को विरोधाभासी माना जाता है क्योंकि व्यापार के निर्णय में हितों का टकराव बना रहता है। यह टकराव व्यापार में स्वार्थ और नैतिकता के बीच में हमेशा आता-जाता है। परंपरागत तौर पर यह माना जा रहा है कि लाभ स्वार्थ को दर्शाता है जबकि नैतिकता दूसरों की भावनाओं को भी मान्यता देती है, इसलिये दोनों के बीच में विरोधाभास होता है। हालाँकि, पिछले कुछ दशकों से नया विचार प्रचलित है, जिसमें किसी भी व्यवसाय का ध्यान केवल लाभ पर केंद्रित न करके अपने हितधारक (स्टेकहोल्डर) की भलाई पर ज़्यादा देना चाहिये। नैतिक व्यापार सभी के हितों का संतुलन बनाये रखता है। इसलिये नैतिकता और व्यापार दोनों आपस में विरोधाभासी नहीं, बल्कि पूरक हैं। नैतिक व्यापार लाभदायक व्यवसाय के विरोध में नहीं है, बल्कि हाल के घटनाक्रम में दिखता है कि नैतिक व्यापार दीर्घकालिक हित में है। नैतिक व्यापार से व्यवसाय की विश्वसनीयता बढ़ जाती है और इससे व्यापार में बहुत लाभ हो सकता है। यह विश्वास व्यापार में नवाचारों को वृद्धि के लिये प्रोत्साहित करता है, इससे संगठन की कुशलता और प्रभावशीलता बढ़ती है। इसीलिये, व्यापार लाभ और नैतिकता का परस्पर सह-संबंध है।</s>
<s>[INST]सार्वजनिक सेवाओं की ‘सार्वजनिकता’ नीति निर्माताओं और सार्वजनिक प्रबंधकों पर अपने निर्णय लेने में पारदर्शी होने की एक महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी देती है। दिये गये कथन के संदर्भ में सार्वजनिक सेवाओं जो कि निजी सेवाओं से भिन्न हैं, की प्रमुख विशेषताओं की चर्चा कीजये।[/INST]उत्तर : पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग लोक सेवाओं के नैतिक अधिकार का स्रोत है जो उन्हें राज्य के प्रावधानों के आधार पर सार्वजनिक संपत्ति एवं लोक मूल्य को विकसित करने का अधिकार प्रदान करती है। लोकनीति और प्रबंधन के निर्णय नागरिकों के हित में हों, यह लोकतांत्रिक सरकार के लोक दर्शन की विशेषता है। निजी क्षेत्र से अंतरः निष्पक्षता, पारदर्शिता, समानता और प्रतिनिधित्व स्पष्टतः लोक सेवाओं के गुण हैं। सेवा प्राप्तकर्ताओं की व्यापकता और संयोजनः सेवा प्राप्तकर्ताओं की अधिक संख्या और व्यापकता है, सार्वजनिकता का पहलू छयादा होता है, और यह एक ‘नागरिकों के हित से जुड़े साझा और सर्वत्र सुलभ प्रभाव क्षेत्र’ को दर्शाता है। सामाजिक-आर्थिक भूमिका की मात्रा और गहनता के सदर्भ में: सेवा के सामाजिक प्रभाव की व्यापकता इसकी सार्वजनिकता की सीमा को बढ़ाती है। अपनी सार्वजनिक जवाबदेही की सीमाः संस्थानों को प्रभावित करने वाले विशेष वर्ग या सामाजिक समूह के दायरे से बाहर तक इसकी जवाबदेही होती है। जनता के विश्वास का स्तरः एक सेवा की विश्वसनीयता, नेतृत्व या जवाबदेही पर लोग कितना भरोसा करते हैं। सहभागितापूर्ण लोकतंत्र सार्वजनिक सेवाओं का ढाँचा, कार्यान्वयन और स्थिरता में सुधार ला सकता है और जनता के विश्वास को बढ़ा सकता है।</s>
<s>[INST]लोगों की एक सामान्य मान्यता है कि त्रुटिहीन सत्यनिष्ठा वाले व्यक्ति लोक सेवा में अधिक समय तक टिक नहीं पाते हैं। इस संबंध में आपकी मान्यता क्या है? स्पष्ट करें।[/INST]उत्तर : सत्यनिष्ठा व्यक्ति की निजी विशेषता होती है बशर्ते की वह बेईमान, अनैतिक या दुष्ट किस्म का न हो। यह चरित्र की पूर्णता को निर्दिष्ट करती है जिसके सभी अवयवों में आतंरिक सुसंगति होती है। लोक सेवा में सत्यनिष्ठा के सर्वोच्च प्रतिमानों की अपेक्षा की जाती है,क्योंकि एक पब्लिक ऑफिस में बैठने वाले व्यक्ति को एक ही साथ प्रलोभन, भय, डर, धमकी इत्यादि सभी प्रकार के उपायों द्वारा उसके निर्णय को प्रभावित करने की कोशिश की जाती है। लेकिन आजकल आमजन में और कुछ सिविल सेवकों में भी यह धारणा बैठ चुकी है कि ‘त्रुटिहीन सत्यनिष्ठा’ एक अकादमिक शब्द है तथा यह व्यवहारिकता से परे है। अतः वे सभी ‘त्रुटिहीन सत्यनिष्ठा’ की बजाय ‘व्यवहारिक सत्यनिष्ठा’ को अधिक अपनाते हैं। इसके लिये कुछ वस्तुगत कारण हैं जो निम्न हैं त्रुटिहीन सत्यनिष्ठा एवं समझौता न करने वाले लोक सेवक एवं राजनेता को अक्सर तात्कालिक रूप से कई समस्याओं से गुज़रना पड़ता है। लोक सेवकों को तो इसके लिये कई ट्रांसफर, पदोन्नति में देरी, विभागीय जाँच इत्यादि का भी सामना करना पड़ता है। उन्हें अपने मित्रों एवं परिजनों से भी कट जाना पड़ता है, क्योंकि बड़ी पोस्ट वाले लोक सेवकों से लोग बड़ी उम्मीदें पाल लेते हैं, जिनकी पूर्ति न होने पर लोग ताना मारते हैं। पर यह स्थापित सत्य है कि ‘सत्य परेशान हो सकता है, पर पराजित नही’। अतः समझौतावादी लोगों को शुरुआती बढ़त भले ही मिल जाए, पर वे लंबी रेस के घोड़े साबित नही होते हैं। हमारे सामने ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहाँ त्रुटिहीन सत्यनिष्ठा वाले व्यक्ति नें सार्वजनिक जीवन में रहते हुए बड़े से बड़े पदों को छुआ है। टी. एन. शेषन, मनमोहन सिंह इत्यादि ऐसे ही उदाहरण हैं। अन्य कारणों से भी त्रुटिहीन सत्यनिष्ठा आवश्यक है। उच्च सत्यनिष्ठा वाले व्यक्ति आतंरिक एवं बाह्य रूप से काफी मज़बूत होते हैं। वे सार्वजनिक जीवन में रहते हुए विभिन्न दबावों से मुक्त रहते हैं। उनके कार्यों की गुणवक्ता एवं उत्पादकता सर्वोच्च होती है। अतः त्रुटिहीन सत्यनिष्ठा वाले व्यक्ति ही लोक सेवा में अधिक समय तक टिक पाते हैं और देश-समाज के विकास में अपना अनन्य योगदान भी दे पाते हैं।</s>
<s>[INST]क्या किसी सैनिक अथवा सरकारी कर्मचारी का मीडिया के माध्यम से सरकार के विरुद्ध शिकायत करना उचित है? चर्चा करें।[/INST]उत्तर : इंटरनेट के बढ़ते प्रयोग से सोशल मीडिया अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने का एक सशक्त माध्यम बनकर उभरा है। ऐसे समय में सरकारी कर्मचारियों तथा सैनिकों के द्वारा इसका प्रयोग अपने अधिकारियों के विरुद्ध शिकायत करने के लिये भी किया गया है। उदाहरण के लिये, हाल ही में एक सेवानिवृत्त बीडीओ द्वारा अपने अधिकारियों की शिकायत तथा पिछले वर्ष भारतीय सेना के जवान तेज बहादुर के द्वारा पदाधिकारियों के भ्रष्टाचार की शिकायत को देखा जा सकता है। यहाँ दो मुद्दे महत्त्वपूर्ण हैं- प्रथम, सरकारी कर्मचारियों तथा सेना के जवानों के मौलिक अधिकार का मामला तथा दूसरा, सरकार तथा सेना में अनुशासन बनाए रखने का मुद्दा। इन दोनों के बीच का द्वंद्व यहां नैतिक दुविधा की स्थिति को उत्पन्न करता है। सामान्यतः नैतिकता की दृष्टि से अपने साथ किये गए अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना किसी व्यक्ति के लिये उचित है। हमारे संविधान के अनुच्छेद 19 में भी अभिव्यक्ति के अधिकार को महत्त्व प्रदान किया गया है। इस दृष्टि से देखा जाए तो सरकारी कर्मचारियों द्वारा अन्याय के विरुद्ध सोशल मीडिया के माध्यम से आवाज उठाया जाना उचित जान पड़ता है। किंतु हमारी अभिव्यक्ति की आजादी असीमित नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 19(2) के अनुसार लोक व्यवस्था तथा देश की सुरक्षा पर खतरा आने की स्थिति में इसे प्रतिबंधित किया जा सकता है। सरकारी अधिकारियों द्वारा मीडिया के माध्यम से सरकार के विरुद्ध शिकायत करने पर लोगों का लोक व्यवस्था पर विश्वास कमजोर होगा, वहीं सैनिकों के द्वारा आवाज उठाए जाने से इसका प्रयोग शत्रु देश अपने हितों को साधने के लिये भी कर सकते हैं। इससे भारत की सुरक्षा पर खतरा बढ़ेगा। साथ ही आंतरिक अनुशासन को बनाए रखने की दृष्टि से भी मीडिया के माध्यम से शिकायत करना उचित नहीं। इसके अलावा इसका प्रयोग जानबूझकर लोक व्यवस्था को प्रभावित करने के लिये भी किया जा सकता है। इसके अलावा सेना की विशेष परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए हमारे संविधान के अनुच्छेद 33 में सेना के अधिकारों को प्रतिबंधित करने की बात भी की गई है। अतः सामान्य परिस्थिति में सरकारी कर्मचारियों को सोशल मीडिया के माध्यम से शिकायत करने से बचना चाहिये। जहाँ तक उनकी मौलिक अधिकारों का प्रश्न है सरकारी तंत्र तथा सेना में आंतरिक रुप से शिकायत दर्ज करवाने के प्रावधान किये गए हैं। इन नियमों के तहत कोई भी सरकारी कर्मचारी शिकायत दर्ज करवाकर अपने मौलिक अधिकारों को सुनिश्चित कर सकता है।</s>
<s>[INST]क्या आप मानते हैं कि महज उच्च नैतिक मानक स्थापित करने से एक नैतिक समाज का निर्माण संभव है? उचित उदाहरण के द्वारा अपने उत्तर की पुष्टि करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: नैतिक मानकों को स्पष्ट करें। इसके महत्त्व और सीमाओं को सचित उदाहरण के माध्यम से समझाएँ निष्कर्ष लिखें। नैतिक मानक का तात्पर्य उन मानदंडों से है जिनके आधार पर व्यक्ति के व्यवहार का मूल्यांकन किया जाता है। ये बताते हैं कि व्यक्ति का व्यवहार नैतिकता की दृष्टि से उचित है अथवा अनुचित। सभ्य समाजों में सामान्यतः नैतिकता के उच्च मानक स्थापित किए जाते हैं, ताकि लोग उन मानकों पर चलकर समाज के लक्ष्यों की पूर्ति में सहायक हो सकें। नैतिकता के यह मानक व्यक्ति को स्वयं की तुलना में औरों के बारे में सोचने के लिये प्रेरित करते हैं जिससे समाज में विश्वास पर आधारित एक सौहार्द्रपूर्ण वातावरण का निर्माण होता है। उदाहरण के लिये सत्यवादिता को नैतिकता का एक उच्च मानक माना जाता है। यदि समाज के सभी लोग एक दूसरे से सत्य बोले तो समाज में अविश्वास, भ्रष्टाचार तथा पाखंड जैसी समस्याओं का समाधान हो जाएगा और समाज का विकास अपेक्षाकृत तेजी से होगा। स्पष्ट है कि उच्च मानक नैतिक समाज के निर्माण में सहायक हैं। किंतु केवल उच्च नैतिक मानकों को स्थापित करने से ही एक नैतिक समाज का निर्माण संभव नहीं क्योंकि यह आवश्यक नहीं कि लोग उन नैतिक मानकों का पालन ही करें। उदाहरण के लिये सत्यवादिता को नैतिक मानक के रूप में स्थापित किए जाने के बाद भी समाज के लोग अपने स्वार्थों के लिये झूठ बोलते हैं। उसी प्रकार दहेज प्रथा तथा भ्रष्टाचार जैसी समस्याएँ नैतिक रुप से अनुचित होने पर भी समाज में प्रचलित हैं। यह दर्शाता है कि महज नैतिक मानकों का निर्माण नैतिक समाज के निर्माण की गारंटी नहीं है। नैतिक समाज के लिये यह आवश्यक है कि व्यक्ति के सुपर-ईगो को इतना मजबूत किया जाए कि वह नैतिक मानकों का पालन कर सके। इसके लिये एक समाज में सभी सदस्यों द्वारा समन्वित नीति को बनाए जाने की आवश्यकता है ताकि व्यक्तियों में नैतिक अभिवृति का विकास हो सके।</s>
<s>[INST]सुशासन की मुख्य विशेषताओं को बताएँ तथा सुशासन में नागरिक समाज की भूमिका का उल्लेख करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: सुशासन की मुख्य विशेषताओं को बताएँ। सुशासन में नागरिक समाज की भूमिका को बताएँ। सामान्य अर्थों में सुशासन का तात्पर्य जनता के प्रति उत्तरदायी एक अच्छे शासन से है।व्यवहार में इसका संबंध उन सभी प्रक्रियाओं से है; जिनके द्वारा समाज में ऐसे वातावरण का निर्माण किया जाता है जिसमें सभी व्यक्तियों को उनकी क्षमता के अनुरूप उत्कृष्टता की ओर बढ़ने का मौका मिले। योजना आयोग तथा विश्व बैंक जैसी संस्थाओं द्वारा सुशासन की विशेषताओं को स्पष्ट किया गया है। सुशासन की मुख्य विशेषताओं को निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है- स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव और सत्ता का लोकतांत्रिक हस्तांतरण। सरकारी संस्थाओं की जवाबदेहिता तथा पारदर्शिता। सत्ता का विकेंद्रीकरण तथा प्रशासन में जनता की भागीदारी। सामाजिक-आर्थिक सेवाओं की समयबद्ध उपलब्धता। प्रशासन की मितव्ययता तथा कार्यकुशलता। प्रशासन में नैतिकता। विधि के शासन की स्थापना। समाज के वंचित वर्गों के हितों का संवर्धन। पर्यावरण की दृष्टि से धारणीय विकास पर बल । नागरिक समाज का तात्पर्य सरकार तथा व्यावसायिक संगठनों से इतर ऐसे सामाजिक संगठनों से है जो स्वेच्छा तथा सामाजिक कल्याण की भावना से जनता की सेवा करते हैं। गैर सरकारी संगठन, उपभोक्ता संगठन, पर्यावरणीय समूह तथा सामाजिक उद्देश्य से निर्मित सहकारी संगठन नागरिक समाज के उदाहरण है। वर्तमान में एक लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को लागू करने में इनकी भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। ये संगठन जनता से जुड़कर जनता की वास्तविक इच्छा को सरकार के सामने रखते हैं और शासन में जनभागीदारी को बढ़ावा देकर सुशासन की अवधारणा को लागू करते हैं। पारदर्शिता की दिशा में मील का पत्थर माने जाने वाला सूचना का अधिकार कानून, सिविल सोसाइटी के सूचना अधिकार आंदोलन का ही परिणाम है। इसके अलावा प्रसिद्ध लोकपाल बिल को पारित किये जाने में भी अन्ना हजारे के नेतृत्व में सिविल सोसाइटी ने अहम योगदान दिया है। ये जनता को सरकारी नीतियों, कार्यक्रम और कमियों से परिचित करा कर शासन में जवाबदेहिता को भी बढ़ाते हैं। नैतिक रुझानों से प्रतिबद्ध होने के कारण कई निःस्वार्थ संगठन प्रशासन में नैतिक मूल्यों की स्थापना भी करते हैं। इसके अलावा गैर-सरकारी संगठन के रूप में सरकार की कई योजनाओं का कुशल क्रियान्वयन कर ये प्रशासन की गुणवत्ता भी बढ़ाते हैं। उदाहरण के लिये झारखंड में प्रदान संस्था के द्वारा प्रधानमंत्री आजीविका मिशन का क्रियान्वयन अत्यंत कुशलता के साथ किया गया है। स्पष्ट है कि सुशासन में नागरिक समाज की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।</s>
<s>[INST]वर्तमान समय में संवेदनहीनता तथा हिंसक घटनाओं में तेजी़ से वृद्धि हुई है। इसके कारणों पर प्रकाश डालते हुए बताएँ कि क्या नैतिक शिक्षा को बढ़ावा देकर ऐसी घटनाओं को रोका जा सकता है।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: संवेदनहीनता और हिंसक घटनाओं का उल्लेख करते हुए इसके कारणों पर प्रकाश डालें। बताएं कि नैतिक शिक्षा किस प्रकार लोगों में संवेदना का विकास कर सकती है। वर्तमान समय में विश्व में लोगों में संवेदनशीलता की कमी तथा टॉलरेंस के अभाव के कारण हिंसात्मक घटनाओं में वृद्धि हुई है। विभिन्न देशो में आतंकवादी घटनाओं का प्रसार, विभिन्न नस्ल के लोगों के साथ हिंसक घटनाएँ, पत्रकारों तथा समाजशास्त्रियों की हत्या तथा सरकार एवं सेना तथा नागरिकों के बीच होने वाला विद्वेष इसके प्रत्यक्ष उदाहरण है। भारत के संदर्भ में ऑनर किलिंग की बढ़ती घटनाएँ, माता-पिता द्वारा अपने संतान की हत्या का प्रयास(शीना बोरा हत्याकांड), संप्रदायिकता की बढ़ती घटनाएँ( बंगाल तथा उत्तर प्रदेश में ) तथा जाति के नाम पर हिंसक घटनाएँ आदि के रूप में इसे देखा जा सकता है कारण नगरीकरण तथा व्यस्त जीवन शैली। टूटते पारिवारिक संबंध तथा लोगों में मूल्य तथा नैतिकता का पतन। व्यवहार में अनैतिक प्रक्रियाओं का अपेक्षाकृत अधिक सफल होना। सहिष्णुता में कमी तथा आपसी प्रतिस्पर्धा मैं वृद्धि। आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक हितों में टकराव। समाज का एक मूल्य के रूप में संवेदनशीलता को नकारात्मक रूप में लेना। संकीर्ण रूप में नैतिक शिक्षा का तात्पर्य व्यक्ति को अच्छे-बुरे का ज्ञान करवाने से है। किन्तु व्यवहार में देखा जाए तो अच्छे-बुरे का ज्ञान होने पर भी व्यक्ति अपने स्वार्थों के कारण गलत तरीका अपनाने से नहीं चूकते। उदाहरण के लिये हम सभी जानते हैं कि प्लास्टिक का प्रयोग करना पर्यावरण के अनुकूल नहीं है इसके बाद भी हम अपनी सुविधा के लिये प्लास्टिक का प्रयोग करते हैं। अतः केवल अच्छे -बुरे का ज्ञान व्यक्ति को संवेदनशील नहीं बना सकता। वास्तव में नैतिक शिक्षा को एक व्यापक रूप रूप में लिये जाने की आवश्यकता है जो व्यक्ति को ना केवल अच्छे बुरे का ज्ञान करवाए बल्कि उसमें ऐसी प्रवृतियों का विकास करे जो उसे अच्छाई के पथ पर चलने के लिये बाध्य करे। गांधी तथा कांट ने भी ऐसी शिक्षा प्रणाली पर बल देने के लिये कहा था जो व्यक्ति के आचरण को नैतिक बना पाए। यदि ऐसा किया जाता है तो नैतिक शिक्षा से युक्त व्यक्ति अपने स्वाथो के लिये हिंसा तथा असंवेदनशीलता जैसी प्रवृति में संलग्न नहीं होंगे और ऐसी घटनाओं में कमी आएगी।</s>
<s>[INST]नैदानिक परीक्षण (clinical trial) से संबंधित नैतिक मुद्दों पर प्रकाश डालें। क्या यह चिकित्सकों के हिप्पोक्रेटिक शपथ के अनुकूल है?[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा- नैदानिक परिक्षण से संबंधित नैतिक मुद्दों को स्पष्ट करें। हिप्पोक्रेटिक शपथ के संबंध में इस पर विचार करें। नैदानिक परीक्षण वस्तुतः एक शोध कार्य है जिसमें शोधकर्ता दवाओं तथा संक्रियाओं का परीक्षण कर उपचार हेतु बेहतर तकनीक खोजने का प्रयास करता है। एक परीक्षण होने के कारण दवाइयों तथा क्रियाविधियों के परिणाम स्पष्ट नहीं होते जिससे परीक्षण के लिये प्रयोग किया जाने वाला व्यक्ति प्रभावित हो सकता है। नैदानिक परीक्षण से संबंधित नैतिक मुद्दों को निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है- धोखाधड़ी : नैदानिक परीक्षण के लिये व्यक्ति को तैयार करने के लिये उसे इसके प्रभाव के बारे में नहीं बताया जाता और उन्हें भ्रम की स्थिति में रखा जाता है जो नैतिकता के विरुद्ध है। उपयोगितावाद : एक मुद्दा उपयोगितावाद से भी जुड़ा है जहाँ समाज के हित के लिये एक व्यक्ति का प्रयोग किया जाता है। यह गांधी के साधन की पवित्रता के सिद्धांत के विरुद्ध है। आर्थिक नैतिकता : यह देखा गया है कि डॉक्टर तथा शोधकर्ता अपने आर्थिक हित के लिये व्यक्ति पर हानिकारक परीक्षण करने से भी नहीं चूकते यहाँ आर्थिक लाभ के लिये दूसरों का प्रयोग किया जाना कार्य को और भी अनैतिक बना देता है। अंतर्राष्ट्रीय नैतिकता : इसके तहत कोई राष्ट्र जानबूझकर अन्य राष्ट्रों में ऐसी गतिविधियों का प्रयोग नहीं करेगा जो वहाँ के नागरिकों के हित को प्रभावित करे। किंतु देखा गया है कि अमीर राष्ट्र अफ्रीका तथा एशिया के गरीब राष्ट्रों का प्रयोग नैदानिक परीक्षण के लिये कर रहे हैं। मजबूरी का लाभ उठाना: नैतिकता का एक तकाजा यह है कि एक व्यक्ति किसी व्यक्ति की मजबूरी का लाभ नहीं उठाएगा, किंतु व्यवहार में आर्थिक रूप से कमजोर लोगों की मजबूरी का लाभ उठाकर उन्हें नैदानिक परीक्षण के लिये प्रयुक्त किया जाता है। यह संविधान के अनुच्छेद-23 की भावना के विरुद्ध भी है। हिप्पोक्रेटिक शपथ के अनुसार इस बात को स्वीकार किया गया है कि कोई डॉक्टर किसी व्यक्ति द्वारा मांगे जाने पर भी उसे ऐसी दवा नहीं देगा जिससे उसके जीवन पर खतरा हो। इसके अलावा इसमें बिना प्रयाप्त जानकारी और विशेषज्ञता के शल्य चिकित्सा करने से भी मना किया गया है। स्पष्ट है कि वैसे नैदानिक परीक्षण जिनसे व्यक्ति का जीवन प्रभावित हो सकता है हिप्पोक्रेटिक शपथ के विरुद्ध है।</s>
<s>[INST]इतिहास बताता है कि जहाँ नैतिकता और अर्थशास्त्र के बीच संघर्ष होता है वहां जीत हमेशा अर्थशास्त्र की होती है। इस कथन का समालोचना पूर्वक विश्लेषण कीजिये।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: कथन का आशय स्पष्ट करें। संबंधित उदाहरणों के द्वारा विचार की पुष्टि करें। प्रस्तुत कथन भारत के महान विचारक डाँ भीमराव अंबेडकर का है। कथन का आशय यह है कि जहाँ पर व्यक्ति को स्वेच्छा से उसके आर्थिक हित एवं नैतिकता में किसी एक का चयन करना होता है सामान्यत: वह वहाँ अपने आर्थिक हितों को ही प्राथमिकता देता है। अंबेडकर का यह कथन बताता है कि सामान्यत: व्यक्ति तभी तक नैतिक बना रहता है, जब तक नैतिकता उसके पक्ष में हो या उसके पास इसके अलावा कोई अन्य विकल्प न हो। भौतिकता के प्रसार से आज इस अवधारणा को हर जगह देखा जा सकता है। उदाहरण के लिये ब्रिटेन अपने आर्थिक हितों को साधने के लिये भारत पर लंबे समय तक शासन करता रहा। ब्रिटिश शासन द्वारा भारत को आजाद तभी किया गया जब उसके पास कोई अन्य विकल्प नहीं बचा था। उसी प्रकार वर्तमान समय में अमेरिका द्वारा फिलिस्तीन के मुद्दे पर इजरायल का पक्ष लिया जाना तथा चीन द्वारा पाकिस्तान के आतंकवादियों के पक्ष में वीटो करना इसके कुछ उदाहरण है। आर्थिक हितों के लिये सघन जनघनत्व वाले प्रदेशों में स्थानीय लोगों की ईच्छा के विरूद्ध नदी घाटी परियोजनाओं का निर्माण भी इसी का एक उदाहरण है। किंतु महान व्यक्ति अर्थशास्त्र की जगह नैतिकता से संचालित होते हैं। महात्मा गांधी, मदर टेरेसा तथा एपीजे अब्दुल कलाम जैसे व्यक्ति ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं। रतन नवल टाटा जैसे लोग नैतिकता का पालन करते हुए भी अर्थशास्त्र की दृष्टि से सफलतम व्यक्तियों में शामिल हैं। उदाहरण के लिये, वैश्विक मंदी के दौरान अर्थशास्त्र की दृष्टि से धारणीय नहीं होने के बाद भी उन्होंने नैतिकता के आधार पर बड़े पैमाने पर अपने कर्मचारियों को नियोजन में बनाए रखा। यह दर्शाता है कि नैतिकता तथा अर्थशास्त्र में द्वंद्व आवश्यक नहीं है।। किंतु ऐसी घटनाएँ इतनी कम हैं कि इन्हें अपवाद माना जा सकता है। वास्तव में व्यवहार में अंबेडकर का यह कथन अत्यंत सही प्रतीत होता है। विश्व के नैतिक उत्कर्ष के लिये ऐसी प्रवृत्तियों से बचना आवश्यक है।</s>
<s>[INST]मैं वह नहीं हूँ जो मैं समझता हूँ कि मैं हूँ; मैं वह भी नहीं हूँ जो तुम समझते हो कि मैं हूँ; मैं वह हूँ जो मैं समझता हूँ कि तुम समझते हो कि मैं हूँ” -इस कथन की व्याख्या करते हुए सामाजिक नैतिकता के निर्धारण में इसके महत्त्व को बताएँ।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: कथन के आशय को स्पष्ट करें। नैतिकता के निर्धारण में कथन के महत्त्व को स्पष्ट करें। समाजशास्त्री चार्ल्स हटन कुले का व्यक्ति की सेल्फ इमेज से संबंधित यह कथन सरल शब्दों में यह बताता है कि कैसे एक व्यक्ति अपने मन में स्वयं के प्रति दूसरों की सोच का अनुमान लगा कर उसके अनुसार ही व्यवहार करता है। ऐसे में यह आवश्यक नहीं कि दूसरा व्यक्ति वास्तव में उसकी सोच के अनुसार ही उसे समझे। उदाहरण के लिये 1943 में गांधीजी के आमरण अनशन को लिया जा सकता है। महात्मा गांधी यह मानते थे कि उनके अनशन से ब्रिटिश सरकार और ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल पर भारत को स्वतंत्र करने का दबाव बढ़ेगा, किंतु वास्तव में चर्चिल को गांधी की मृत्यु की जरा भी चिंता नहीं थी। बाद में इस बात का पता चलने पर गांधीजी की सोच बदली और उन्होंने आमरण अनशन ही समाप्त कर दिया। हमारी नैतिकता हमारे सामाजिक संबंधों तथा हमारे अभिवृत्तियों से प्रभावित होती है और इन दोनों ही तत्त्वों के निर्धारण में यह बात अत्यंत महत्वपूर्ण है कि हम क्या सोचते हैं कि दूसरे हमारे बारे में क्या सोचते हैं। उदाहरण के लिये यदि एक व्यक्ति के मन में यह विश्वास हो कि उसके परिवार वाले तथा उसके दोस्त उससे प्रेम करते हैं, भले ही वास्तव में ऐसा ना हो, तो वह खुश रहेगा और उनके प्रति प्रेम तथा नैतिकता की भावना से भरा रहेगा। किंतु यदि अपने अच्छे दोस्तों के प्रति उसके मन में शक हो तो वह आसानी से उनके प्रति नैतिक नहीं रह पाएगा। स्पष्ट है कि कुले का यह कथन नैतिकता के महत्त्वपूर्ण निर्धारकों में शामिल है।</s>
<s>[INST]लोक सेवा से आप क्या समझते हैं? आप लोक सेवा के लिये किन तरीकों को अपनाएंगे? चर्चा करें।[/INST]उत्तर : लोक सेवा शब्द में लोक शब्द का अर्थ राज्य, सरकार अथवा जनता से है। ऐसे में लोक सेवा का तात्पर्य राज्य अथवा जनता की सेवा से है। व्यवहार में लोक सेवा में जनता की सेवा करने के साथ-साथ सुशासन पर आधारित कानून व्यवस्था तथा प्रशासन को भी नियमित और प्रचालित किया जाता है क्योंकि अप्रत्यक्ष रुप से ये तत्त्व भी लोकसेवा से जुड़े हुए हैं।एक व्यक्ति के रूप में मैं निम्न तरीके से लोक सेवा कर सकता हूँ:- निःस्वार्थ सेवा: इसमें एक व्यक्ति अपने जीवन को औरों के लिए समर्पित कर देता है। महात्मा गांधी, विवेकानंद, नेल्सन मंडेला और मदर टेरेसा जैसे व्यक्ति इसी कोटि के महान लोकसेवकों में शामिल हैं। इसके अलावा निःस्वार्थ रूप से अल्प समय के लिये लोगों की सेवा करने वाले स्वयं सेवक भी इसी कोटि में शामिल हैं। अपने कार्य के रूप में लोक सेवा करना: लोक सेवा का एक तरीका सरकार के सिविल सेवा तथा लोक सेवा के लिये समर्पित निकायों में शामिल होते हुए अपने कार्य के रूप में लोगों तथा राज्य की सेवा करना भी है। भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी तथा गैर सरकारी संगठनों के सदस्य अपने कार्य के रूप में लोक सेवा के कार्य को संचालित करते हैं। इसके अलावा न्यायाधीश के रूप में जनता को न्याय प्रदान करना, एक डॉक्टर के रूप में उचित चिकित्सा प्रदान करना, एक शिक्षक के रूप में उचित शिक्षा प्रदान करना, एक व्यापारी के रूप में ईमानदारी से व्यापार करना और ऐसे विभिन्न क्षेत्रों में अपने कार्य को ईमानदारी से करना भी लोक सेवा का एक तरीका है। ए॰ पी॰ जे॰ अब्दुल कलाम इसके एक उत्कृष्ट उदाहरण हैं। स्पष्ट है कि लोकसेवा कि प्रकृति अत्यंत व्यापक है और कोई भी व्यक्ति नैतिकता, ईमानदारी तथा समर्पण की भावना से कार्य करते हुए लोक सेवा का कार्य कर सकता है।</s>
<s>[INST]आप एक पढ़ी-लिखी और खुले विचारों की महिला हैं। एक बार आप अपने पति और 12 वर्षीय पुत्र के साथ खजुराहो के ऐतिहासिक स्थलों की यात्रा करती हैं। वहाँ कामसूत्र पर आधारित मूर्तियों को देखकर आपका पुत्र आपसे पूछता है कि ये किस प्रकार की मूर्तियाँ हैं। अचानक पूछे गए इस प्रकार के प्रश्न से आप और आपके पति स्तब्ध रह जाते हैं। आप बात को टालने के लिये कहती हैं कि घर चल कर इस बारे में पढ़कर आप उसे अच्छे से बताएंगी। वापस घर आने पर एक बार पुनः वह आपसे वही प्रश्न पूछता है। (a) आपके पास क्या-क्या विकल्प उपलब्ध हैं? आप कौन-से विकल्प का चयन करेंगी और क्यों? (b) उक्त प्रकरण के आधार पर समाज में यौन शिक्षा की आवश्यकता और इसमें विभिन्न वर्गों की भूमिका पर टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : (a) यह एक जटिल सामाजिक एवं पारिवारिक समस्या है तथा उक्त परिस्थिति बच्चों में बढ़ती जागरुकता तथा यौन शिक्षा पर परिवार तथा समाज में फैली बुराइयों के बीच द्वंद्व के वातावरण का निर्माण करती है। बच्चे बड़े हो रहे हैं और आधुनिक शिक्षा सोपानों के साथ आगे बढ़ते हैं, जिसमें उठने वाली जिज्ञासाओं के समाधान के लिये प्रेरित किया जाता है, परंतु दूसरी तरफ यौन विषयों को लेकर चली आ रही आयुर्वेदिक समस्याओं के कारण उन्हें इन विषयों पर सही जानकारी नहीं मिल पाती है। इन द्वंद्वात्मक परिस्थितियों में निम्नलिखित विकल्पों पर विचार किया जा सकता है- बालक के प्रश्नों को किसी प्रकार से टाल दिया जाए। उन्हें परीलोक एवं अलग तरह की बातों से संतुष्ट किया जाए। उन्हें यौन शिक्षा तथा खजुराहो की कला के बारे में बताया जाए। विकल्प 1: इस विकल्प को अपनाने से बचने की कोशिश करनी चाहिये, क्योंकि बालक अन्य स्रोतों से जानकारी हासिल करने का प्रयास करेगा, जो अधिकांश परिस्थितियों में सही एवं उचित नहीं होगा। विकल्प 2: इस विकल्प का प्रयोग करना भी 12 वर्ष के बालक के लिये उचित नहीं होगा, क्योंकि वर्तमान में इंटरनेट तथा हम उम्र से उसे इस बारे में गलत जानकारी मिलने की संभावना अधिक रहती है। विकल्प 3: मेरे अनुसार यह बेहतर विकल्प होगा, क्योंकि इस विकल्प से दो लक्ष्यों को हासिल किया जा सकता है। पहला, शिक्षा के द्वारा अश्लीलता एवं सामाजिक नैतिकता का अंतर पता चल सकेगा। दूसरा, संस्कृति में यौनिकता का प्रयोग हमेशा यौन-कुंठा का रूप नहीं होता है।बच्चों की जिज्ञासा का तार्किक समाधान उन्हें आत्मविश्वास से भरेगा तथा आने वाले समय में अन्य जिज्ञासा एवं समस्याओं को बताने की हिम्मत कर सकेंगे। (b) वर्तमान में बच्चों को यौन शिक्षा दिये जाने का प्रावधान हो रहा है जो अभी भी तार्किक स्तर पर नहीं पहुँचा है। यौन शिक्षा के समक्ष कई चुनौतियाँ हैं, जैसे- यौन शिक्षा देने की न्यूनतम उम्र क्या हो? यौन शिक्षा देने की उच्चतम सीमा क्या हो और यौन शिक्षा के माध्यम से क्या-क्या बताया जाए? यौन शिक्षा किसके द्वारा दी जाए? परिवार द्वारा, समाज द्वारा या स्कूल द्वारा? सूचना प्रौद्योगिकी के युग में जहाँ सूचनाएँ आसानी से प्रेषित हो रही हैं तथा इंटरनेट बच्चों की आसान पहुँच है, ऐसे में उन्हें परिवार स्कूल तथा समाज द्वारा मिलने वाली उचित एवं तथ्यात्मक यौन-शिक्षा चोरी-छिपे व गलत तरीके से हासिल करने से रोकेगी। यौन शिक्षा परिवार, स्कूल तथा समाज तीनों के द्वारा दी जाने दी जा सकती है, परंतु यौन शिक्षा शारीरिक एवं मानसिक बदलाव को अपने में समेटती है, ऐसे में परिवार तथा स्कूल इसे बेहतर तरीके से प्रदान कर सकते हैं। उठाए जाने वाले प्रमुख कदम: बच्चों को उनके शारीरिक बदलाव तब परिवार एवं अन्य व्यक्तियों के द्वारा उस संबंध एवं व्यवहार के बारे में बताकर यौन-शिक्षा दी जा सकती है। किसी अपरिचित व्यक्ति से किस प्रकार का व्यवहार होना चाहिये यह बताकर उन्हें यौन हमलों से सुरक्षित किया जा सकता है। उन्हें अपनी सुरक्षा हेतु सर्वप्रथम मदद के लिये कैसे बनाना चाहिये ताकि इस प्रकार की हरकतें यौन हमले या यौन अपराध की श्रेणी में आती हैं बच्चों को बताकर यौन शिक्षित किया जा सकता है।</s>
<s>[INST]मैक्स वेबर के नौकरशाही के सिद्धांत को बताएँ। वर्तमान में भारतीय नौकरशाही की सफलता के संदर्भ में इसकी समीक्षा कीजिये।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: वेबर के नौकरशाही सिद्धांत को स्पष्ट करें। भारतीय नौकरशाही के सन्दर्भ में इसके गुणों को विश्लेषित करें। मैक्स वेबर सत्ता के वर्गीकरण तथा प्रशासन की गुणवत्ता की दृष्टि से नौकरशाही व्यवस्था को महत्वपूर्ण मानते थे एक अच्छे नौकरशाही के लिये वेबर निम्न गुणों को आवश्यक मानते हैं:- वेबर की नौकरशाही का सिद्धांत वर्तमान समय में भी भारतीय नौकरशाही के लिये महत्वपूर्ण है। इसमें निहित पदसोपान की व्यवस्था और नियम-उन्मुखता के कारण नौकरशाही व्यवस्था में अनुशासन बना रहता है, जबकि योग्यता पर आधारित चयन और कार्यों का स्पष्ट विभाजन व्यक्तियों को कार्योन्मुख बनाता है। यह लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिये आवश्यक है। जहाँ आधिकारिक रिकॉर्ड की व्यवस्था के कारण उनके कार्यों की जवाबदेही तय की जा सकती है, वहीं संवैधानिक व्यवस्था और कार्यकाल की सुरक्षा उन्हें ईमानदारी से कार्य करने के लिये प्रेरित करती है। तटस्थता, अनामिता तथा निर्वैयक्तिकता नौकरशाह को पक्षपात से बचाता है। किंतु इसके कुछ प्रावधानों का दुरुपयोग लोकतांत्रिक तथा लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को कमजोर भी करती हैं। पदसोपान की व्यवस्था उच्च पद-धारको में तानाशाही की भावना को जन्म देती है, वहीं नियम उन्मुखता लालफीताशाही को बढ़ावा देती है, जबकि अनामिता का प्रावधान लोकसेवकों की प्रेरणा को कम भी करता है। इन प्रावधानों के दुरुपयोग को रोक कर इसे और भी प्रासंगिक बनाया जा सकता है ।</s>
<s>[INST]प्रशासनिक रूप से अवैध कार्यों का अपराध होना आवश्यक नहीं है। प्रशासनिक नैतिकता को स्पष्ट करते हुए इस कथन पर विचार करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न की रूपरेखा: प्रशासनिक नैतिकता को स्पष्ट करें तत्कालीन उदाहरण कि सहायता से कथन को स्पष्ट करें। प्रशसनिक नैतिकता का तात्पर्य उन मानदंडों से है जो यह बताते हैं कि नैतिकता की दृष्टि से प्रशासन में कौन सा कार्य किया जाना उचित है और कौन सा उचित नहीं है। उदाहरण के लिये प्रशासनिक नैतिक संहिता की दृष्टि से भ्रष्टाचार करना, किसी व्यक्ति से रिश्वत या उपहार लेना, चुनाव में पक्षपात करना, सार्वजनिक स्थान पर नशे में रहना, दहेज़ लेना तथा अपने प्रभाव से सरकार का आर्थिक नुकसान करवाना अवैध कार्य हैं। कोई भी अनैतिक कार्य तभी अपराध माना जाएगा जब उसे विधि के तहत अपराध माना जाए और उसके पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध हों। साक्ष्यों के अभाव में कोई कार्य अवैध हो कर भी अपराध नहीं होगा। उदाहरण के लिए भारत का बहुप्रसिद्द 2 जी स्कैम घोटाला सरकार के आर्थिक नुकसान से जुड़ा होने के कारण अवैध था, किन्तु साक्ष्यों के अभाव के कारण यह अपराध साबित नहीं हो पाया। यहाँ न्यायाधीश ने मामले पर सुनवाई करते हुए कहा - “ पैसे का लेन-देन साबित नहीं हो सका, इसलिए मैं सभी आरोपियों को बरी कर रहा हूँ।“ तत्कालीन सी.ए.जी. के अनुसार देश का सबसे बड़ा घोटाला मने जाने वाले 2जी स्कैम में आरोपियों का मुक्त हो जाना यह बताता है कि प्रशासनिक रूप से अवैध कार्यों का अपराध साबित होना आवश्यक नहीं है।</s>
<s>[INST]भारतीय मतदाता मतदान करते समय अपना मत नहीं देते बल्कि अपने जातीय उम्मीदवारों को वोट देते हैं। दिये गए कथन की पृष्ठभूमि में अभिवृत्ति और आचरण के संबंध पर चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : कथन को स्पष्ट करें। अभिवृत्ति को स्पष्ट करते हुए इस सन्दर्भ में अभिवृति और व्यवहार के बींच संबंध को स्थापित करें। निष्कर्ष लिखें। उपरोक्त प्रश्न भारत में मतदान व्यवहार से संबंधित है। सामान्यतः भारत में, मतदान करते समय मतदाता व्यक्ति की कार्यकुशलता, नैतिकता, पार्टी,सिद्धांत,चारित्र अदि को महत्त्व देने की बजाय जाति को महत्त्व देते हुए अपने जातीय उम्मीदवारों को वोट देते हैं। यह लोगों में अपनी जाति के प्रति प्रेम और स्वार्थ सिद्धि कि भावना को दर्शाता है। यही रुझान चुनाव के समय वोट में परिवर्तित होता है। अभिवृत्ति और व्यवहार के बीच संबंध- अभिवृत्ति का तात्पर्य किसी मूर्त अथवा अमूर्त वस्तु अथवा व्यवहार के प्रति सकारात्मक या नकारात्मक रुझान से है। सामाजिक मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि अभिवृत्ति और व्यवहार के बीच एक सीधा संबंध है। ऐसे में स्वार्थ सिद्धि तथा प्रेम के कारण व्यक्ति की अभिवृत्ति जातीय उम्मीदवार के पक्ष में होती है और वे उसे ही वोट देतें हैं। व्यवहार का संबंध व्यक्ति के अभिवृत्ति के साथ साथ समाज की बाह्य परिस्थिति तथा घटना की अनुकूलता से भी है। उदाहरण के लिये व्यक्तिगत कारणों या हितों के टकराव के कारण यदि व्यक्ति अपने जाति वाले उम्मीदवार को पसंद नहीं करता तो वह उसे वोट नहीं देगा। स्पष्ट है कि अभिवृत्ति और व्यवहार के बीच एक जटिल संबंध है जो अनेक कारकों पर निर्भर करता है । आमतौर पर व्यक्ति का व्यवहार उसकी अभिवृत्ति को दर्शाता है, लेकिन कुछ परिस्थिति में उसका व्यवहार अभिवृत्ति से भिन्न भी हो सकता है।</s>
<s>[INST]कोई कार्य अपने-आप में महान नहीं होता, केवल वे छोटे कार्य जो महान प्रेम के द्वारा किए जाते हैं महान हो जाते हैं। इस कथन का समालोचना पूर्वक विश्लेषण कीजिये[/INST]उत्तर : मदर टेरसा ने कहा था कि कोई व्यक्ति महान कार्य नहीं करता, पर हर व्यक्ति छोटे-छोटे कार्यों को महान प्रेम के द्वारा कर सकता है। वास्तव में उस व्यक्ति का प्रेम ही साधारण से दिखने वाले कार्य को महान बना देता है। इस कथन को कुछ उदाहरणों के माध्यम से देखा जा सकता है। एक उदाहरण स्वयं मदर टेरेसा का ही है, उन्होंने एक साधारण प्रतीत होने वाले उपचारिका का कार्य महान प्रेम के द्वारा किया और कुष्ट रोगियों की निःस्वार्थ सेवा करके सम्पूर्ण विश्व को प्रेरित किया। उसी प्रकार विवेकानंद जैसे व्यक्तियों ने साधारण सा प्रतीत होने वाले सेवा के कार्य को आधार बना कर सम्पूर्ण विश्व में भारत को एक नई पहचान दी। उसी प्रकार महात्मा गाँधी ने अहिंसा तथा सत्याग्रह जैसी उक्तियों का प्रयोग कर तत्कालीन समय की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति को घुटने टेकने के लिये मजबूर कर दिया। उपचारिका, सेवा का कार्य तथा अहिंसा जैसे कार्य इतने साधारण हैं कि इनका प्रयोग कोई भी व्यक्ति कर सकता है, किन्तु सभी व्यक्ति इन कार्यों को महान प्रेम के साथ नहीं कर पातें और ये कार्य साधारण बन कर रह जाते हैं। हम अपनी कार्य संस्कृति में कार्य से प्रेम को प्रोत्साहित करके बेरोज़गारी, गरीबी जैसी समस्याओं का समाधान कर सकते हैं और विश्व को अधिक खुशहाल बना सकते हैं।</s>
<s>[INST]महात्मा गांधी के शिक्षा संबंधी विचारों पर प्रकाश डालते हुए यह बताएँ कि यह वर्तमान में कहाँ तक उपयोगी हैं?[/INST]उत्तर : आधुनिक भारत के निर्माण में महात्मा गांधी का बहुआयामी योगदान रहा है। गांधीजी की शिक्षा संबंधी विचारधारा उनके नैतिकता तथा स्वाबलंबन संबंधी सिद्धांतों पर आधारित थी। हरिजन पत्रिका तथा वर्धा शिक्षा योजना में निहित उनके विचारों के माध्यम से इसे देखा जा सकता है। गांधीजी के शिक्षा संबंधी विचार गांधीजी ज्ञान आधारित शिक्षा के स्थान पर आचरण आधारित शिक्षा के समर्थक थे। उनके अनुसार शिक्षा प्रणाली ऐसी हो जो व्यक्ति को अच्छे-बुरे का ज्ञान प्रदान कर उसे नैतिक बनने के लिये प्रेरित करे। वे शिक्षा को मानव के सर्वांगीण विकास का सशक्त माध्यम तानते थे। अतः वर्धा योजना में उन्होंने प्रथम सात वर्षों की शिक्षा को निःशुल्क एवं अनिवार्य किये जाने पर बल दिया था। गांधीजी का यह मानना भी था कि व्यक्ति अपनी मातृभाषा में शिक्षा को अधिक रुचि तथा सहजता के साथ ग्रहण कर सकता है। अतः वे आरंभिक शिक्षा व्यक्ति को उसकी मातृभाषा में दिये जाने के पक्षधर थे। अखिल भारतीय स्तर पर भाषायी एकीकरण के लिये वह कक्षा सात तक हिंदी भाषा में ही शिक्षा प्रदान करने के पक्षधर थे। स्वाबलंबन को महत्त्व दिये जाने के कारण गांधीजी का स्पष्ट मानना था कि शिक्षा लोगों में कौशल को बढ़ावा दे, ताकि व्यक्ति लघु एवं कुटीर उद्योगों के माध्यम से स्वाबलंबी बन सके। गांधीजी के शिक्षा संबंधी विचारों की वर्तमान में प्रासंगिकता वर्तमान समय में भारतीय सामाज की समस्याओं का एक बड़ा कारण व्यक्ति की भ्रष्टाचार, बढ़ती हुई स्वार्थवादी प्रवृत्ति और नैतिकता का ह्रास है। ऐसे में शिक्षा द्वारा नैतिकता को बढ़ावा दिये जाने से इन समस्याओं का समाधान हो पाएगा। गांधीजी का आरंभिक शिक्षा में मातृभाषा को महत्त्व देने का विचार भी प्रासंगिक है। इससे बच्चों में शिक्षा के प्रति रुचि बनी रहेगी और नामंकन दर में भी वृद्धि होगी। साथ ही शिक्षा को हस्तशिल्प तथा कौशल से जोड़े जाने से बेरोज़गारी तथा गरीबी की समस्या का समाधान होगा तथा भारत अपनी जनसांख्यकीय लाभांश का लाभ उठा सकेगा। किंतु आठवीं कक्षा के बाद ही शिक्षा को अंग्रेज़ी में प्रदान करने की बाध्यता वर्तमान समय में प्रासंगिक नहीं है, क्योंकि वर्तमान समय में अंग्रेज़ी का महत्त्व बढ़ा है। इसके अलावा कक्षा सात तक हिंदी भाषा में शिक्षा प्रदान करने की बाध्यता गैर-हिंदी क्षेत्र के लोगों के लिये समस्या उत्पन्न कर सकती है। किंतु इन्हें सीमा मान कर गांधीजी के शिक्षा संबंधी विचारों के महत्त्व को कम नहीं किया जा सकता। वास्तव में (इन सीमाओं को हटाने पर) महात्मा गांधी के शिक्षा संबंधी विचार आज न केवल प्रासंगिक हैं, बल्कि आज की आवश्यकता भी हैं।</s>
<s>[INST]“एक आँख के बदले आँख की भावना पूरे विश्व को अंधा बना देगी।“ इस कथन का समालोचना पूर्वक विश्लेषण कीजिये।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: कथन का अर्थ स्पष्ट करें। विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से अपने तर्क की पुष्टि करें। “आँख के बदले आँख का सिद्धांत सारी दुनिया को अंधा कर देगा” – यह महात्मा गांधी का एक प्रसिद्ध कथन है। वस्तुतः आँख के बदले आँख का सिद्धांत बदले की भावना पर आधारित है, ऐसे में इससे बदले की भावना पर आधारित एक कभी न समाप्त होने वाले चक्र का निर्माण होगा और इससे कई लोग प्रभावित होंगे। प्रथम विश्व युद्ध और फिर इसकी प्रतिक्रिया में द्वितीय विश्वयुद्ध, इसका एक उदाहरण है। इससे संपूर्ण विश्व रक्त पात की समस्या से पीड़ित हो गया था। इसी प्रकार स्वतंत्रता प्राप्ति के समय सांप्रदायिकता के कारण होने वाले भीषण रक्तपात का कारण आँख के बदले आँख की अवधारणा में ही छिपा था। वर्तमान समय में सांप्रदायिक घटनाओं, ऑनर किलिंग, हत्या जैसे अपराधों का एक कारण बदले की भावना ही है। उसी प्रकार दक्षिण भारत में उत्तर पूर्वी भारत के छात्रों के उत्पीड़न तथा उसकी प्रतिक्रिया में उत्तरी पूर्वी राज्यों में दक्षिण भारत के छात्रों का उत्पीड़न में भी इसी अवधारणा को देखा जा सकता है। यह दर्शाता है कि यह अवधारणा क्षेत्रीय भेदभाव उत्पन्न कर राष्ट्र की अवधारणा को भी कमजोर करती है। यहाँ ध्यान देना आवश्यक है कि न्यायपालिका के द्वारा किसी व्यक्ति को बुरे कार्य का दंड दिया जाना न्याय की अवधारणा तहत है तथा लोकतंत्र की आवश्यक शर्त है। यहां बदले की भावना के आधार पर इसका विरोध नहीं किया जाना चाहिये। स्पष्ट है कि गांधीजी की यह अवधारणा आज भी महत्त्वपूर्ण तथा प्रासंगिक है।</s>
<s>[INST]प्रभावशीलता के लिये व्यापक प्रबंधकीय विवेकाधिकार की आवश्यकता है, जबकि जवाबदेही के लिये सख्त केंद्रीय नियंत्रण की आवश्यकता है। इसलिये कुशल और प्रभावी सरकार जवाबदेही की सीमा के भीतर असंभव प्रतीत होती है। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? अपने जवाब की औचित्य के साथ व्याख्या कीजिये।[/INST]उत्तर : जवाबदेही जवाबदेह होने की स्थिति या गुणवत्ता है। यह ज़िम्मेदारी स्वीकार करने के कर्त्तव्य को दर्शाती है। प्रभावशीलता वांछित परिणाम के उत्पादन की क्षमता है। बहुत लंबे समय से जवाबदेही और प्रभावशीलता दोनों के सह-अस्तित्व के बारे में बहस चलती आ रही है। कुछ लोगों का मानना है कि जवाबदेही और प्रभावशीलता के बीच बुनियादी फर्क है, क्योंकि जवाबदेही सख्त केंद्रीय नियंत्रण के पक्ष में है जबकि प्रभावशीलता में व्यापक प्रबंधकीय स्वनिर्णय की आवश्यकता है। प्रभावशील संस्था बहुत शक्तिशाली होती है और यह शक्ति जवाबदेही की समस्याएँ पैदा करती है। पारदर्शिता और जनता की भागीदारी बढ़ाने के प्रयास से निर्णय लेने में देरी हो सकती है और इससे संस्था की प्रभावशीलता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। लेकिन जवाबदेही की यह पारंपरिक व्याख्या अक्सर अपर्याप्त और कभी-कभी बहुत अनुचित है क्योंकि यह व्याख्या प्रशासनिक स्वनिर्णय की क्षमता को विनियमित करने की बजाय इसके उपयोग को कम करने के पक्ष में है। कार्यों में परिभाषित प्रक्रिया को दरकिनार करके लिये गए कदम अल्पावधि के लिये प्रभावी हो सकते हैं लेकिन लंबे समय में इसके दुष्परिणाम की संभावना ज्यादा होती है। इसलिये, जवाबदेही के लिये एक अच्छे ढाँचे की रचना करना आवश्यक है जो अधिकारों के दुरुपयोग को रोकने के लिये और प्रभावी उपयोग सुनिश्चित कर सके। जवाबदेही, सत्ता और अधिकारों के दुरुपयोग को रोकती है और यह शासन में प्रभावशीलता लाने में प्रमुख भूमिका निभाती है। इसलिये दोनों अच्छे प्रशासन के लिये विरोधाभासी नहीं, अपितु पूरक हैं। उदाहरण -एक परमाणु ऊर्जा बिजली संयंत्र का निर्माण करने की प्रक्रिया, परामर्श में जवाबदेही की आवश्यकता है और वांछित परिणाम प्राप्त करने के लिये प्रभावशीलता की आवश्यकता है ।</s>
<s>[INST]एम्मानुएल कांट का मानना है कि विवेकशील मनुष्य को अपने आप में एक साध्य के रूप में देखना चाहिये, न कि किसी अन्य के साधन के रूप में। टिप्पणी कीजिये।[/INST]उत्तर : 18 वीं सदी के प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक कांट कका यह विचार आज भी अत्यंत प्रासंगिकहै- “सभी मनुष्य ‘साध्य’ हैं, ‘साधन’ नहीं।” सामान्य शब्दों में इसका अर्थ है कि हमें अपने फायदे के लिये किसी व्यक्ति का इस्तेमाल या शोषण नहीं करना चाहिये; किसी व्यक्ति पर अपने निर्णय थोपने के बजाय उसे स्वयं अपने फैसले करने का अवसर देना चाहिये। यदि कोई व्यक्ति स्वयं में साध्य है तो इससे आशय है कि उसका आंतरिक गुण किसी भी अन्य कारक पर निर्भर नहीं करता है। यह इस तथ्य पर निर्भर नहीं करता है कि कोई व्यक्ति प्रसन्नचित जीवन व्यतीत कर रहा है या दूसरे लोगों के जीवन को बेहतर बनाता है। हम मूर्त रूप में उपस्थित हैं, इसलिये हम गुणसंपन्न हैं। यद्यपि इसमें से अधिकांश लोग इससे सहमत हैं, तथापि इसे स्वीकार करने से झिझकते हैं। हमारी सोच हमें किसी दूसरे व्यक्ति को अपने हित में इस्तेमाल की इज़ाज़त नहीं देती, क्योंकि हमें अपने साध्य के लिये किसी अन्य व्यक्ति को साधन के तौर पर इस्तेमाल नहीं करना चाहिये। यह विचार हमारे लिये भी लागू होता है। हमें अपने साध्य के लिये स्वयं को साधन के रूप में प्रयुक्त नहीं होने देना चाहिये। वस्तुतः हमें अपने अन्तर्निहित गुणों का सम्मान करना चाहिए। इसे इच्छा मृत्यु, आत्महत्या तथा हमारा अहित करने वाले दूसरों के व्यवहार के विरुद्ध एक तर्क के रूप में उपयोग किया जा सकता है।</s>
<s>[INST]उत्कृष्टता वह कला है जो प्रशिक्षण और आदत से आती है। हम इसलिये सही कार्य नहीं करते कि हमारे अन्दर अच्छाई या उत्कृष्टता है, बल्कि वह हमारे अन्दर इसलिये है क्योंकि हमने सही कार्य किया है। हम वह हैं जो हम बार-बार करते हैं, इसलिये उत्कृष्टता कोई कार्य नहीं बल्कि एक आदत है। आप इस कथन से क्या समझते हैं?[/INST]उत्तर : दिये गए कथन व्यक्ति को उत्कृष्ट बनने के रास्ते के बारे में हैं। अरस्तू के अनुसार, सद्गुण सुखी जीवन के लिये एक माध्यम है। सद्गुण में नैतिक सद्गुण और बौद्धिक सद्गुण जैसे दो प्रकार होते हैं। बौद्धिक सद्गुण की प्राप्ति के लिये व्यक्ति को सीखना-पढ़ना चाहिये। बौद्धिक सद्गुण व्यक्ति को सही-गलत का परिचय नहीं दिलाता है लेकिन नैतिक सद्गुण व्यक्ति को सही काम करने के लिये प्रोत्साहित करता है। नैतिक सद्गुण प्राप्त करने के लिये सतत् अभ्यास ही एकमात्र तरीका है। इस नैतिक सद्गुण की प्राप्ति के लिये व्यक्ति को इस तरह लगातार अभ्यास करना चाहिये कि वह व्यक्ति की आदत बन जाए। अरस्तू के लिये नैतिक सद्गुण ही वास्तविक सद्गुण है और इन्हें पाने का एकमात्र तरीका सतत् अभ्यास है। हम जो आज बने हैं वह लंबी अवधि में लगातार अभ्यास का फल है। एक बुरे व्यवहार से व्यक्ति बुरा नहीं बनता है लेकिन लगातार बुरे व्यवहार का अभ्यास व्यक्ति को बुरा बना देता है। एक बुरा व्यक्ति प्रशिक्षण के माध्यम से एक अच्छा व्यक्ति बन सकता है। नैतिक सद्गुण प्राप्त व्यक्ति बनने के लिये अच्छे व्यवहार का लगातार अभ्यास करना और उसे अपनी आदत बनाने की आवश्यकता होती है।</s>
<s>[INST]‘नैतिक अभिवृत्ति’ पद से आप क्या समझते हैं? नैतिक अभिवृत्ति पर सामाजिक मीडिया के प्रभावों की चर्चा करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा- नैतिक अभिवृत्ति की अवधारणा की संक्षिप्त में चर्चा करें। नैतिक अभिवृत्ति पर सोशल मीडिया के प्रभावों को बताएँ। नैतिक अभिवृत्ति वे अभिवृत्तियाँ हैं जो हमारी नैतिक प्रतिबद्धता के आधार पर निर्धारित होती हैं और ये लोगों को एक-दूसरे की सही या गलत अवधारणाओं को प्रकट करती हैं। नैतिक अभिवृत्तियाँ नैतिक मान्यताओं की तुलना में काफी दृढ़ होती हैं। उदाहरणस्वरूप, क्रिकेट के प्रति लोगों की अभिवृत्ति का नैतिकता के साथ कुछ लेना-देना नहीं है, शिक्षक के प्रति लोगों की अभिवृत्ति नैतिक विश्वास में निहित है। शिक्षा, परिवार, समाज, धर्म, जाति आदि नैतिक प्रतिबद्धता के गठन में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। टीवी, समाचार पत्र जैसे मास मीडिया, सामाजिक मीडिया से भी नैतिक अभिवृत्ति पर प्रभाव पड़ता है। नैतिक अभिवृत्ति पर सामाजिक मीडिया का प्रभावः सामाजिक मीडिया की बहुत आसान पहुँच होने के कारण यह दोधारी तलवार की तरह है। यह लोगों और समाज पर सकारात्मक तथा नकारात्मक प्रभाव डाल सकती है। इस माध्यम से अच्छे और बुरे दोनों संदेश/जानकारी बहुत आसानी से फैलते हैं और सूचना के प्रकार के आधार पर उसका प्रभाव समाज पर होता है। अगर जानकारी मूल्य, नैतिकता की तरह अच्छी चीज़ों के बारे में है, तो यह सकारात्मक प्रभाव डालती है तथा लोगों और समाज में मज़बूत नैतिक अभिवृत्ति निर्माण करने में मदद करती है। उदाहरणस्वरूप निर्भया मामले में लोगों को जुटाने के और महिलाओं के मुद्दे के प्रति संवेदना व्यक्त करने में सामाजिक मीडिया की भूमिका बहुत बड़ी है। अगर जानकारी धार्मिक उग्रवाद, अश्लीलता, पोर्न वीडियो आदि की तरह गलत है, तो उससे व्यक्ति की नैतिक अभिवृत्ति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। उदाहरणस्वरूप आईएसआईएस सामाजिक मीडिया के माध्यम से युवाओं को आकर्षित करने के लिये अन्य धर्मों के प्रति नफरत के संदेशों का प्रसार और लोगों की भर्ती कर रहा है। इसके अलावा वर्तमान समय में युवाओं को सामाजिक मीडिया के माध्यम से अश्लील फिल्में तथा अश्लीलता परोसी जा रही है। यह युवाओं के व्यवहार की प्रवृत्ति को प्रभावित और गलत चीज़ों की ओर आकर्षित कर रही है। इसलिये सामाजिक मीडिया के माध्यम से नैतिक अभिवृत्ति पर सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। लेकिन सामाजिक मीडिया के माध्यम से नैतिक मूल्यों के बारे में जागरूकता के प्रसार से नैतिक अभिवृत्ति के गठन में एक सकारात्मक तरीके से उपयोग किया जा सकता है।</s>
<s>[INST]आपको महाविद्यालय नियोजन अवसर पर संचालन कार्य का प्रभारी बनाया गया है। आपके साथ दो साथी इस अवसर का प्रचार करने के लिये हैं जो कि इस अवसर के लिये वित्तीय रीढ़ के समान हैं। सुश्री ‘अ’ अपने अंतर्वैयक्तिक कौशल के लिये और कार्य पूरा करा लेने के लिये चर्चित है। बीते वर्ष उन्होंने सर्वोत्तम फ्रेशर पार्टी का संचालन किया था लेकिन उन पर वित्तीय कुप्रबंधन का आरोप लगा था और यह कुछ हद तक सही भी था। वह इन दावों को अस्वीकार भी नहीं करती और इस अवसर को किसी भी कीमत पर सफल बनाने के लिये वो किसी भी सीमा तक जाने को तैयार है चाहे गलत हो या सही। वहीं सुश्री ‘ब’ बहुत ईमानदार और अंतर्मुखी हैं। अपनी ईमानदारी के कारण वे फैकल्टी सदस्यों के मध्य भी सम्मानित हैं लेकिन उन्होंने कभी किसी बड़े स्तर का आयोजन नहीं किया। आपके महाविद्यालय की प्रतिष्ठा दाँव पर है और यह आपके सहकर्मियों के जीवन और पेशेवर कॅरियर का विषय है। इस आयोजन को सफल बनाने के लिये आपके समक्ष बहुत दबाव है।इस परिस्थिति की समीक्षा कीजिये। आप किसे चुनेंगे और क्यों?[/INST]उत्तर : मुद्दाः कुशल और भ्रष्ट बनाम कम कुशल और ईमानदार के मध्य चुनाव का। तथ्यः श्रीमती 'A': कुशल परंतु सत्यनिष्ठा का अभाव श्रीमती 'B': गैर-अनुभवी परन्तु ईमानदार मैं, कालेज रोज़गार (Placement) उत्सव का प्रभारी हूँ। अतः उत्सव के सफल, ईमानदारी पूर्वक क्रियान्वयन हेतु जो कालेज की प्रतिष्ठा हेतु अनिवार्य है, श्रीमती 'B' का चुनाव मार्केटिंग प्रभारी हेतु करूँगा। इस निर्णय के निम्नलिखित कारण हैं। श्रीमती B में यद्यपि अंतर्वैक्तिक कौशल की कमी है परन्तु वह एक ईमानदार महिला है। ऐसा देखा गया है कि किसी व्यक्ति में व्यावहारात्मक या मूल्य प्रणाली को विकसित करना एक कठिन कार्य है। इसकी अपेक्षा अंतर्वैक्तिक कौशल संबंधी क्षमता को अधिक आसानी से विकसित किया जा सकता है। यह श्रीमती B के चुनाव का एक मुख्य कारण है। किसी भी अवस्था में सत्यनिष्ठा को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाना चाहिये, क्योंकि किसी भी मूल्य (Cost) पर भ्रष्टाचार को सहन नहीं किया जा सकता। साथ ही साथ कार्यक्रमों हेतु एक प्रेरणात्मक उदाहरण प्रस्तुत करने हेतु श्रीमती B का चुनाव ही सर्वोत्तम व सर्वथा उचित है। केस स्टडी में कालेज की प्रतिष्ठा को बनाए रखना आवश्यक है। ऐसी दशा में मार्केटिंग प्रभारी के तौर पर एक ईमानदार व्यक्ति का चुनाव ही कालेज के प्रति मेरे उत्तरदायित्व को सुनिश्चित करता है। मेरी ज़िम्मेदारी है कि मैं एक ईमानदार प्रभारी की नियुक्ति करूँ, ताकि किसी प्रकार की भी वित्तीय गड़बड़ी से बचा जा सके। इस प्रकार श्रीमती B के चुनाव से वित्तीय ईमानदारी, सत्यनिष्ठा का मार्ग प्रशस्त होगा। साथ ही भविष्य के कार्यक्रमों हेतु यह मूल्य-आधारित प्रणाली को विकसित करने में सहायता देगा।</s>
<s>[INST]"एक महान व्यक्ति, एक प्रतिष्ठित व्यक्ति से अलग है क्योंकि वह समाज का सेवक बनने के लिये तैयार रहता है।"[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा- महान व्यक्ति व प्रतिष्ठित व्यक्ति के सामाजिक योगदान में अंतर को उल्लेखित करना है। अवतरण को स्पष्ट कर महान व प्रतिष्ठित व्यक्ति के अंतर को उल्लेखित करें। वर्तमान उदाहरण सहित अपने तर्क को बल प्रदान करें। महानता और प्रतिष्ठा दो अलग-अलग मूल्य हैं। किसी व्यक्ति का प्रतिष्ठित होना इस बात का सूचक है कि एक समुदाय विशेष की नजर में वह एक अनुकरणीय व्यक्ति है। इस आलोक में प्रतिष्ठा एक सापेक्षिक मूल्य है। वहीं महान व्यक्ति पूरे समाज के मूल्यों एवं सिद्धांतों की तराजू पर तौला गया व्यक्तित्व होता है। वह समाज के सही मूल्यों की रक्षा करता है, नए मूल्यों के विकास को प्रोत्साहित करता है तथा रूढ़ हो चुके मूल्यों के उन्मूलन के लिये संघर्ष करता है। वह प्रत्येक परिस्थिति में समाज का सेवक बनने के लिये तत्पर रहता है। महानता वह रोशनी है जो समाज को नई दिशा देती है वर्तमान में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिष्ठित व्यक्ति मिल जाते हैं, परंतु महान बनने के लिये जो प्रतिबद्धता और बलिदान की अपेक्षा व्यक्ति से होती है, ऐसा व्यक्तित्व मिलना दुर्लभ होता है। उदाहरण के तौर पर मुकेश अम्बानी एक प्रष्ठित व्यवसायी हैं। देश के अन्य व्यवसायी व महत्त्वाकांक्षी युवा उनका अनुकरण करते हैं परंतु वे महानता की श्रेणी में नहीं आते। बाबा आम्टे को महान कहा जा सकता है क्योंकि वे सदैव सबकी सहायता के लिये तत्पर रहते थे। कुछ व्यक्तित्व ऐसे भी होते हैं जो प्रतिष्ठित भी होते हैं और महान भी; जैसे- बाबा भीमराव अम्बेडकर।</s>
<s>[INST]सामाजिक और पर्यावरणीय जवाबदेही से आप क्या समझते हैं? सार्वजनिक जीवन में इसे लागू करना महत्त्वपूर्ण क्यों है? किसी एक विषय का उदाहरण देकर चर्चा करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा- सामाजिक व पर्यावरणीय उत्तरदायित्व की चर्चा और महत्व को उल्लेखित करें। सामाजिक उत्तरदायित्व का सोदाहरण उल्लेख करें। पर्यावरणीय उत्तरदायित्व का सोदाहरण उल्लेख करें। दोनों के महत्व की सूक्ष्म चर्चा करें। कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी की चर्चा करें। सामाजिक उत्तरदायित्व से आशय एक ऐसा दृष्टिकोण से है जिसके माध्यम से नागरिक भागीदारी द्वारा उत्तरदायित्व निर्माण को प्रोत्साहित किया जाता है। इसके अंतर्गत आम नागरिकों या नागरिक समाज संगठनों द्वारा शासन या प्रशासन की जवाबदेही को सुनिश्चित किया जाता है। जैसे- मनरेगा का सामाजिक अंकेक्षण सामाजिक उत्तरदायित्व को निश्चित करने का एक कदम है। पर्यावरणीय उत्तरदायित्व, वास्तव में सामाजिक उत्तरदायित्व का एक ‘सबसेट’ (Subset) है। इसके अंतर्गत कंपनी की लागत संरचना और पर्यावरण प्रदर्शन पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। यह मुख्यतः किसी संगठन के द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण के मध्य संबंध की तैयारी, प्रस्तुतीकरण और संवाद से संबंधित होता है। जैसे- स्वच्छ विकास तंत्र (Clean Development Mechanism), रेड +, जीसीएफ इत्यादि। सामाजिक व पर्यावरणीय उत्तरदायित्व सार्वजनिक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। इससे संस्थानों की समाज के प्रति जवाबदेही को तय किया जाता है। उदाहरण के तौर पर कंपनियों की ‘व्यावसायिक सामाजिक जिम्मेदारी’ (सीएसआर) तय करने से उन्हें समाज व पर्यावरण के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों को समझना पड़ता है। यह समाज के सतत् व समावेशी विकास के लिये महत्वपूर्ण है। गोवा में सेसा गोवा कंपनी विभिन्न विद्यालयों, अवसंरचनात्मक विकास, खेलों के आयोजन और बंद खानों के ‘रेस्टोरेशन’ के जरिये अपनी सामाजिक-पर्यावरणीय जिम्मेदारी को निभाती है। इससे समाज में समरसता का प्रचार होता है।</s>
<s>[INST]समुदायवादिता (Communitarianism) से आपका क्या अभिप्रायः है? वर्तमान के मुक्त बाजार अर्थव्यवस्थाओं के दौर में यह सिद्धांत कितना प्रासंगिक है?[/INST]उत्तर : समुदायवादिता विचारों का ऐसा प्रवाह है जिसमें मुख्य लक्ष्य समुदाय का हित है तथा इसका दृष्टिकोण व्यक्तिगत चयन सिद्धांत तथा मुक्त बाजार अर्थव्यवस्थाओं के विपरीत है। समुदायवादियों के अनुसार ‘लोक निर्णयन’ का इच्छित लक्ष्य समुदाय है, व्यक्तिगत चयन का अधिकतमीकरण नहीं। प्रायः सरकारों को जिन लक्ष्यों को प्राप्त करना होता है, वे होते हैं- स्वस्थ नागरिक (लोक स्वास्थ्य), पर्यावरण की संरक्षा, अपराधों में कमी करना तथा सामाजिक समरसता बनाये रखना। समुदायवाद इन्हीं लक्ष्यों की प्राप्ति के संदर्भ में शिष्ट वार्तालाप, समस्याओं के तर्कसंगत विश्लेषण तथा निष्पक्ष निजी निर्णयन को महत्त्व देता है। इस सिद्धांत के अनुसार कानून तब ही प्रभावी होंगे जब वे विशिष्ट लक्ष्यों पर केंद्रित नैतिक चेतना पर आधारित होंगे। समुदायवादी किसी भी व्यक्ति को वंशानुगत रूप से समाज में स्थित मानते हैं। समाज में ही लोग अपनी पहचान प्राप्त करते हैं और अपना अस्तित्व महसूस करते हैं। समाज तथा अन्य प्राणी मानवीय जीवन और उसकी प्रसन्नता की पूर्व शर्त हैं। इस प्रकार, समुदायवादी समाज को व्यक्ति से उच्चतर प्राथमिकता देते हैं। समुदायवादिता का विचार बाजारवाद के उस आर्थिक सिद्धांत से बिल्कुल विपरीत है जिसमें व्यक्ति का अपना हित ही एक प्रेरक शक्ति के तौर पर कार्य करता है तथा जिसमें असंख्य व्यक्तिगत निर्णय एक अदृश्य हाथ द्वारा समन्वित होते हैं। मुक्त अर्थव्यवस्था का विचार उन क्षेत्रों को समाहित करने के लिये शासन के न्यूनतम हस्तक्षेप की अनुमति देता है जहाँ बाजार की ताकतें या तो काम नहीं करती या परिणाम देने में असफल रहती हैं। इसके विपरित, समुदायवादी तर्क करते हैं कि दूसरों के लिये सोचना, परोपकारवादिता, समुदाय आधारित सहबद्धता तथा समूह आधारित अन्य भावनाएँ सामाजिक जीवन की नींव में हैं। इस प्रकार हम पाते हैं कि एक कल्याणकारी राज्य तब ही अपने उद्देश्यों को प्रा्रप्त करने में पूर्णतया सफल हो सकता है यदि वह आर्थिक विकास तथा लोगों के कल्याण, दोनों लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु मुक्त अर्थव्यवस्था और समुदायवादिता के सिद्धांतों में पर्याप्त संतुलन बनाए रखे। </s>
<s>[INST]क्या आप सहमत हैं कि बौद्ध आचार नीति अधिक मानवीय तथा पूरी तरह व्यक्तिवादी है?[/INST]उत्तर : बुद्ध ने लोगों की मनःस्थिति एवं उनकी आत्मा की अवस्था के आधार पर अपनी आचार नीति को प्रस्तुत किया। समाज जीव हत्या न करने एवं इसके निवारण के रूप में सजा देने का नियम बना सकता है, लेकिन बुद्ध का मानना है कि लोग तब तक जीव हत्या करना नहीं छोड़ेंगे जब तक कि वे घृणा न करने की सीख को समझ नहीं जाते। बुद्ध ने किसी भी अन्य दार्शनिक की तुलना में घृणा एवं आत्मा के अन्य अवरोधों पर अधिक ध्यान केंद्रित किया। बुद्ध का मानना था कि अधिकांश लोग डर के अभाव में बुराई को अपनाते हैं। उनके अनुसार बुराई, प्राथमिक रूप से बचाव स्वरूप की जाती है, न कि उत्तेजना के रूप में। इस प्रकार की व्यक्तिनिष्ठ आचार नीति बताती है कि जब तक आंतरिक शांति नहीं होगी तब तक बाह्य शांति प्राप्त नहीं होगी। बुद्ध की नैतिक आचार नीति भी अरस्तू के समान सभ्य है। अरस्तू के अनुसार केवल कुछ वर्ग के लोग ही नैतिक सदाचार का वरण करते हैं और एक अच्छे जीवन को प्राप्त करते हैं। बुद्ध की आचार नीति संतुलित और सामंजस्यपूर्ण आत्मा में विश्वास करती है।</s>
<s>[INST]एक उदारीकृत बाज़ार अर्थव्यवस्था में नियामक निकायों पर संतुलित नियंत्रण करना मुश्किल कार्य हो जाता है, क्योंकि व्यावसायिक विशेषता और नियामक की स्वायत्तता प्रभावशीलता के लिये महत्त्वपूर्ण है और राजनैतिक स्तर पर नियुक्त विनियामक में सहज ‘हाँ में हाँ’ मिलाने की प्रवृत्ति होती है। इस कथन के आलोक में द्वंद्वात्मक परिस्थिति की चर्चा करें तथा इस मुद्दे के समाधान के कुछ उपाय सुझाएँ।[/INST]उत्तर : भारत जैसी उदारीकृत बाजार अर्थव्यवस्था में नियामकों जैसे ट्राई (TRAI), सेबी (SEBI), इरडा (IRDA), सीसीआई (CCI) आदि के अध्यक्ष के तौर पर वरिष्ठ सिविल सेवकों की नियुक्ति होती है। सर्वविदित है कि नियामक की दक्षता के लिये स्वायत्तता और व्यावसायिकता अति महत्त्वपूर्ण है। लेकिन, राजनैतिक नियुक्ति का दबाव, दुर्भावनापूर्ण पूछताछ, नकारात्मक अभिवृत्ति व फर्ज़ी शिकायतों के कारण नियामक कार्यवाइयों में पारदर्शिता व दक्षता का अभाव देखा जाता है। इस समस्या के समाधान हेतु निम्न प्रयास किये जा सकते हैं- 1. लघुकालीन समाधान ► जनता को नियामकों के निर्णयों के तार्किक आधार की जानकारी दी जाए। ► अधिकारियों के वेतन को तार्किक बनाया जाए, ताकि उनका मनोबल बढ़ाया जा सके। 2. दीर्घकालीन समाधान ► सूचना के अधिकार अधिनियम का सही क्रियान्वयन हो, ताकि पारदर्शिता को बढ़ाया जा सके। ► जनता को जागरूक बनाया जाना चाहिये। ► सत्यनिष्ठ, ईमानदार, कर्तव्य सेवकों की नियुक्ति की जानी चाहिए। उदहारण के तौर पर सिंगापूर मॉडल को अपनाया जा सकता है। जिसमें सरकार द्वारा श्रेष्ठ छात्रों का चुनाव कर उन्हें प्रशिक्षित किया जाता है। यह नवीनीकरण काँट्रेक्ट पर आधारित होती है अर्थात् यदि कार्य अपेक्षाओं के ► अनुरूप नहीं है तो सेवाकाल समाप्त कर दिया जाता है। ► भ्रष्टाचारियों पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिये। ► अधिक से अधिक डिजीटलीकरण आवश्यक है। इसकी मदद से उपलब्ध जानकारियों को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाया जा सके। सरकार द्वारा ‘ऑप्टिकल फाइबर’ योजना व गूगल की ‘लून परियोजना’ इस दिशा में एक बेहतर प्रयास है। ► नियामकों को स्वतः संज्ञान और पूर्व पहल के माध्यम अधिकारियों में व्यावसायिक नैतिकता, सत्यनिष्ठा, निष्पक्षता जैसे मूल्यों के संवर्द्धन का प्रयास करना चाहिए। इस प्रकार राजनैतिक दबाव व व्यावसायिक कर्त्तव्यों के मध्य में संतुलन बनाना कठिन है, परंतु मुश्किल नहीं। सभी समाधानों को क्रियान्वित करके एक पारदर्शी, जवाबदेह व दक्ष प्रणाली का विकास किया जा सकता है।</s>
<s>[INST]प्रशिक्षण व्यक्ति को तकनीकी समस्याओं को हल करने के लिये सज्जित करता है लेकिन पेशे से जुड़ी सामाजिक, नैतिक और मानवीय समस्याओं के समाधान के लिये नहीं। चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : पेशेवरों में मानवीय मूल्यों के प्रति उदासीनता का कारण उनकी शिक्षा के कार्यक्रमों में नैतिकता और मूल्यों की उपेक्षा है। शैक्षिक संस्थान केवल नवीनतम ज्ञान और कौशल निर्माण पर केंद्रित रहते हैं। लेकिन, कैसे एक नैतिक और ज़िम्मेदार ढंग से इस जानकारी का उपयोग करना है इसका अभाव दिखता है। दार्शनिकों के अनुसार नीतिशास्त्र ‘आचरण का विज्ञान’ है। ऐसे मूल्य, जो हमारा मार्गदर्शन करते हैं कि कैसे हमें व्यवहार करना चाहिये, वे ‘नैतिक मूल्यों’ की श्रेणी में आते हैं जैसे-ईमानदारी, निष्पक्षता आदि। इसलिये एक विश्वसनीय काम के माहौल को बढ़ावा देने के लिये नीतिशास्त्र का प्रशिक्षण अत्यधिक आवश्यक है। कभी-कभी वहाँ अवैध और अनैतिक व्यवहार के बीच अकसर सूक्ष्म अंतर के बारे में भ्रम की स्थिति बन जाती है। उचित प्रशिक्षण प्रत्येक कर्मचारी को सूचनाओं से युक्त रखता है जिससे निर्णयों में त्रुटियों को रोकने में सहायता मिलती है और संगठन को नकारात्मक प्रभाव से बचाता है। एक संगठन की विशेषता है कि यह नैतिकता का एक कोड या आचार संहिता का विकास करता है जैसे- केन्द्रीय सिविल सेवा (आचरण) नियम, 1964 का अस्तित्व है। इसका पालन नैतिक तरीके से कार्य करने में सहायक होता है, जो पेशेवर व्यवहार के सामान्य सिद्धांतों की रूपरेखा बताता है। कार्यस्थल पर प्रत्येक कर्मचारी को इस तरह की आचार संहिता के रूप में सामान्य नैतिक व्यवहार के लिये एक मूर्त और वास्तविक संदर्भ होना चाहिए। नैतिक व्यवहार अचिन्त्य और अनिवार्य होना चाहिए। कर्मचारियों में उचित मनोवृत्ति के विकास का एक प्रभावी तरीका संगठनामत्क भूमिका निभाने में संलग्न करना है। नियमित तौर पर नैतिकता के प्रशिक्षण वीडियो में अच्छे और बुरे व्यवहार के उदाहरण देखकर इन बुनियादी बातों को कर्मचारी सीख सकते हैं। प्रत्येक कार्यस्थल में व्हीसल ब्लोअर के लिये तंत्र विकसित करना चाहिये, जहाँ तन्मयता के साथ वह कार्य कर सके। यह ईमानदार कर्मियों को डर के बिना सत्य प्रकट करने और संदिग्ध, अनैतिक गतिविधि की सूचना देने में मदद करता है। प्रशिक्षण में कुछ परिवर्तन को समायोजित करके, संगठन विभिन्न नैतिक दुविधाओं को हल करने के लिये अपने कर्मचारियों को सशक्त कर सकते हैं।</s>
<s>[INST]एक चीफ इंजीनियर के नेतृत्व में एक पुल का निर्माण किया जा रहा है, जो किसी ठेकेदार के द्वारा बनाया जा रहा है। अचानक पुल की रेलिंग गिरने से कुछ लोग मारे जाते हैं। चीफ इंजीनियर को इसकी सूचना मिलती है किन्तु इसी समय आँधी के साथ बारिश की शुरुआत हो जाती है। ऐसी स्थिति में चीफ इंजीनियर को निम्न में से किस तरह के कदम उठाने चाहिये- 1. घायलों को हॉस्पिटल पहुँचाने के निर्देश देने के साथ बारिश के बावजूद घटनास्थल पर पहुँचकर दुर्घटना के कारणों की जाँच करेंगे। 2. घायलों को हॉस्पिटल पहुँचाने के निर्देश देने के साथ बारिश के रुकने का इंतज़ार करेंगे, तत्पश्चात् घटनास्थल का दौरा करेंगे। 3. घायलों को मुआवज़ा देने की घोषणा के साथ अगले दिन जाने की कोशिश करेंगे। उपरोक्त सभी विकल्पों का मूल्यांकन करें तथा बताएँ कि आप किस विकल्प का चुनाव करेंगे और क्यों? तर्कों के साथ बताएँ।[/INST]उत्तर : प्रथम विकल्प का मूल्यांकन- गुण- घायलों को हॉस्पिटल पहुँचाने का निर्देश जनता के प्रति जवाबदेहिता को दर्शाता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता प्राथमिक है, अतः घायलों को बचाना नैतिक कार्य है। विषम परिस्थितियों के बावज़ूद भी यदि वह वहाँ पहुँच रहा है तो निश्चय ही उसमें संवेदनात्मक भावनाएँ हैं। दूसरों के समक्ष खुद को प्रस्तुत करना कुशल नेतृत्व का प्राथमिक लक्षण होता है, जो यहाँ उसमें दिखता है। दोष- चूँकि वर्षा आँधी के साथ हो रही है, अतः इस स्थिति में उनके साथ कुछ अप्रिय होने की संभावना हो सकती है। ऐसी स्थिति में जहाँ एक तरफ प्रक्रिया की कुशल जाँच में समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं वहीं दूसरी तरफ अन्य सदस्य ग्रुप लीडर की कमी से हतोत्साहित हो सकते हैं और उनका मनोबल टूट सकता है। घायलों को हॉस्पिटल पहुँचाने का निर्देश देना नैतिक भी है और जबावदेहिता का सूचक भी। अतः इस विकल्प में कोई दोष नहीं दिखता। लेकिन जहाँ तक वर्षा रुकने के बाद घर से निकलने का है, उसको दो तरीके से देख सकते हैं- इंतज़ार करना जवाबदेहिता एवं उत्तरदायित्व से मुँह मोड़ने के बराबर है। कनिष्ठ सदस्यों पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। अतः यह नेतृत्व क्षमता की उपेक्षा के करीब दिखता है। लेकिन दूसरी तरफ यह भी ध्यान रखना चाहिये कि ऐसी विषम परिस्थिति में निकलने से खुद संकट में पड़ सकते हैं जिसकी दीर्घकालीन हानि ग्रुप को उठानी पड़ सकती है। घायलों को मुआवज़ा देने की घोषणा के साथ अगले दिन जाना, जहाँ तक इस विकल्प के मूल्यांकन का सवाल है, तो मुआवज़े की घोषणा एवं हॉस्पिटल में घायलों की निःशुल्क चिकित्सा की घोषणा प्रशासनिक तत्परता एवं सूझबूझ को दर्शाता है। साथ ही साथ ऐसा करने से संवेदनशील प्रशासन की छवि जनता के मन में बनेगी और कार्य निष्पादन में जनता का साथ मिलेगा, न कि विरोध। लेकिन अगले दिन घटनास्थल पर पहुँचना प्रशासनिक संवेदनहीनता एवं उदासीनता का द्योतक है। ऐसा करने से एक तो वह अपने ग्रुप सदस्यों का विश्वास खो देंगे, वहीं दूसरी ओर जनता और प्रशासन के बीच भी दूरी बढ़ेगी जो दीर्घकालिक एवं तात्कालिक दोनों ही रूप से प्रशासन के लिये घातक होगा। निश्चय ही उपरोक्त सभी विकल्पों में कुछ न कुछ खामियाँ विद्यमान हैं। ऐसे में किसी विकल्प को चुनना नैतिक नहीं होगा, फलतः हम विकल्प चुनाव में निम्न चरण का पालन करेंगे- घायलों को अस्पताल पहुँचाने का निर्देश एवं उनके लिये निःशुल्क चिकित्सा तथा मृतकों के लिये मुआवज़े की घोषणा करेंगे। प्रशासन से बात कर एक आपदा प्रबंधन टीम को अतिशीघ्र घटनास्थल पर पहुँचने का निर्देश देंगे ताकि दबे हुए लोगों को जल्द से जल्द निकाला जा सके। अंततः जल्द से जल्द घटनास्थल पर पहुँचने की कोशिश करेंगे और घटना की त्वरित जाँच की सार्वजानिक घोषणा करेंगे ताकि दोषियों को जल्द सजा दी जा सके। उपरोक्त प्रक्रिया का अनुपालन करने से एक तरफ जनता का प्रशासन में विश्वास बनाए रख पाना संभव हो सकेगा तो दूसरी तरफ प्रशासनिक संवेदनशीलता का उदाहरण प्रस्तुत कर सकेंगे जिससे अंततः प्रशासन की वैधता एवं धारणीयता सतत बनी रहेगी जो कि नैतिक समाज के निर्माण के लिये आवश्यक है।</s>
<s>[INST]चाणक्य ने अर्थशास्त्र में दर्शाया है कि "राजा संवैधानिक दास होता है।" इस कथन के आलोक में कानून, नियम और विनियम के नैतिक निर्देश के स्रोत के रूप में क्या महत्व है? क्या औपचारिक नियमों और निर्देशों की शासन में कोई सीमा है? मूल्य और नैतिकता किस प्रकार इस अंतराल को भर सकते हैं?[/INST]उत्तर : राजा को संविधान में उल्लेखित दिशा-निर्देशों के अनुसार कार्य करना चाहिये। वह कानून से ऊपर नहीं है क्योंकि ‘कानून राजा है, न कि राजा कानून’। संविधानवाद राजा (शासक) पर बंधन लगाता है और यह शासक का नैतिक दायित्व है कि वह संविधान से बंध कर रहे। इसी परिप्रेक्ष्य में कानून, नियम और विनियम (Law, Rule and Regulation) मार्गदर्शक शक्ति के रूप में कार्य करते हैं। ये स्पष्टता प्रदान करते हैं और अधिकारियों को वैयक्तिक पसंद से इतर निष्पक्षता का पालन कर निर्णय लेने में मदद करते हैं। जैसे- योग्यता के आधार पर नियुक्ति, स्थायी कार्यकारिणी में भाई-भतीजावाद को रोकने में मदद करती है। हालाँकि, कानून, नियम और विनियम की इस परिप्रेक्ष्य में कुछ सीमाएँ हैं- ये मानव के प्रत्येक कार्य और कार्रवाई को निर्देशित नहीं कर सकते हैं। कुछ स्तर पर ‘विवेक’ का प्रयोग आवश्यक है ताकि मानवीय और व्यावहारात्मक पहचान को बनाए रखा जा सके और प्रशासन को मशीन में बदलने से रोका जा सके। अतः कानून, नियम और विनियम को शासन के स्रोत के रूप में प्रयोग करने की एक सीमा है जिसे मूल्यों के आधार पर नियंत्रित कर बेहतर निर्णयन को स्थापित किया जा सकता है। नीतिशास्त्र, शासन में समानुभूति, करुणा को सुनिश्चित करता है जिसे वस्तुनिष्ठ कानून द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिये, एक कार्यालय में किसी सेवानिवृत्त वृद्ध के ऑफिस में 5-10 मिनट देरी से आने के बाद भी उसकी आवश्यकताओं को सुनना। इस प्रकार प्रशासन में अंतर्रात्मा को जोड़ने की आवश्यकता है।</s>
<s>[INST]चयन के पश्चात् A की पहली नियुक्ति एक ज़िले के मुख्य विकास अधिकारी के रूप में हुई। A की ही निगरानी में उस ज़िले के एक अविकसित क्षेत्र में सड़क बनाने का कार्य शुरू हुआ। क्षेत्र की जाँच के पश्चात् सड़क बनाने का कार्य शुरू कर दिया गया। 27 दिनों में 65 प्रतिशत कार्य पूरा हो गया था। अचानक प्रस्तावित मार्ग में एक प्राचीन वट वृक्ष के होने से निर्माण कार्य में व्यवधान पड़ गया। वन विभाग से उस पेड़ को काटने की अनुमति मांगी गई, जिसके फलस्वरूप पेड़ काटने की अनुमति मिल गई। पेड़ काटने के समय ही उस संबंधित क्षेत्र के कुछ लोगों ने क्षेत्र के विधायक के साथ उस वट वृक्ष के पास बैठकर धरना देना शुरू कर दिया। उनका कहना था कि उस पेड़ से उनकी धार्मिक भावना जुड़ी हुई है, अतः उसे न काटा जाए। इससे सड़क निर्माण कार्य को रोकना पड़ा। A सड़क पूरी करना चाहता है, इसके लिये उसने विधायक से धरना बंद कर निर्माण कार्य पुनः शुरू करने के लिये अनुरोध किया, लेकिन बात न बनी। तत्पश्चात् श्चात लोगों के समर्थन में बड़े नेताओं का भी दबाव A पर पड़ने लगा। ऐसे में A को इस तरह के हस्तक्षेप के आलोक में कार्य पूरा करने के लिये क्या करना उचित होगा?[/INST]उत्तर : लोकतंत्र में, नौकरशाही और राजनीतिक हस्तक्षेप साथ-साथ चलते हैं। यह लोकतंत्र की विशिष्टता है। किसी भी देश को चलाने के लिये अनुचित राजनीतिक हस्तक्षेप की ज़रूरत नहीं है, लेकिन राजनीतिक हस्तक्षेप अनिवार्य और अपरिहार्य है अन्यथा लोकतंत्र काम नहीं कर पाएगा। लोकतंत्र में राजनीतिक हस्तक्षेप की ज़रूरत है क्योंकि लोगों को जनप्रतिनिधियों से उम्मीदें होती हैं। इस कारण मुख्य विकास अधिकारी के रूप में A का कर्त्तव्य बनता है कि बिना किसी दबाव में आए निर्माण कार्य हेतु सामूहिक रूप से उचित उपाय को अपनाया जाए। इस सन्दर्भ में A को- सर्वप्रथम एक सौहार्द्रपूर्ण वातावरण बनाना चाहिये। संबंधित क्षेत्र के विधायक और लोगों के साथ बैठकर रोड के निर्माण हेतु एक सार्थक उपाय या समझौते को तलाशने का प्रयास करना चाहिये। साथ ही A को उक्त घटना से अपने उच्च अधिकारियों को भी अवगत कराकर, इसके वैकल्पिक हल के लिये प्रयास करने चाहिये। A को संबंधित क्षेत्र की जनता को इस निर्माण के महत्त्व के सन्दर्भ में जागरूक करना चाहिये। साथ ही बचे निर्माण कार्य में जनभागीदारी को सुनिश्चित करना चाहिये।</s>
<s>[INST]"अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में नैतिकता के बाध्यकारी मानक सुनिश्चित करना संभव नहीं है क्योंकि ये प्रतिमान राष्ट्रों के निजी हितों के संदर्भ में परिवर्तित होते रहते हैं। हाल ही में यूरोप में ‘रिफ्यूजी समस्या’ के आलोक में इस विषय पर अपने मत को प्रस्तुत करें।[/INST]उत्तर : यह सर्वविदित है कि प्रत्येक राष्ट्र अपने राष्ट्रीय हितों के अनुरूप अपनी विदेश नीति का निर्माण करता है। ऐसे में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में किसी बाध्यकारी मानक पर विभिन्न संप्रभु राष्ट्रों की सहमति प्राप्त करना एक मुश्किल कार्य है। उदाहरणस्वरूप ‘परमाणु अप्रसार संधि’ विश्व में परमाणु अस्त्रों व तकनीक के प्रसार को रोकती है परंतु भारत अपनी सुरक्षा चिंताओं व राष्ट्रीय हितों के कारण इस संधि को स्वीकार नहीं करता। हाल के वर्षों में सीरिया, इराक, यमन, अफ्रीका के कई हिस्सों में चल रहे संघर्ष के कारण लाखों लोग अपने घर-बार छोड़कर यूरोपीय राष्ट्रों में बेहतर जीवन की आस में शरण लेना चाहते हैं। परंतु यूरोपीय देश विभिन्न कारणों, यथा- संसाधनों के अभाव, सामाजिक ताने-बाने के बिगड़ने की आशंका, धार्मिकतनाव उभरने की चिंता और अन्य सुरक्षा कारणों का हवाला देकर शरणार्थियों को प्रवेश देने से इनकार कर रहे हैं। कुछ देशों, जैसे- जर्मनी ने अपवादस्वरूप मानवीय आधार पर शरणार्थियों को सीमित संख्या में प्रवेश करने की अनुमति दी है ध्यातव्य है कि इन यूरोपीय देशों के नेतृत्व में द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् अपनी रिफ्यूजी समस्या के समाधान हेतु 1951 में संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी अधिवेशन संपन्न हुआ था। उसके पश्चात 1967 के प्रोटोकॉल में शरणार्थियों के लिये संशोधन के माध्यम से शरणार्थियों के लिये भौगोलिक और अस्थायी सीमाओं को हटा दिया गया। किंतु आज जब पश्चिम एशिया की समस्या सामने आई तो अपने राष्ट्रहितों को तरजीह देते हुए यूरोपीय देश कन्वेंशन के कानूनों का को मानने से इनकार कर रहे हैं। मेरे मत से यह नीतिगत परिवर्तन राष्ट्रहितों के प्रश्न पर ही हुआ है परंतु दोहरे मापदंडों के चलते उनकी नीति अनैतिक है। परंतु ऐसा भी नहीं है कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में कोई भी सर्वसहमति का मूल्य मौजूद नहीं है। आज आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होने की बात हो या जलवायु परिवर्तन से जूझने का मानक हो, हम प्रायः अंतर्राष्ट्रीय मंच पर एकजुट दिखाई देते हैं जहाँ राष्ट्रहित से ऊपर संपूर्ण मानव जाति की सुरक्षा को आगे रखा जाता है।</s>
<s>[INST]"मानव आचरण केवल अभिरुचि या हॉबी से नहीं समझा जा सकता, मनोवृत्तियों और अभिवृत्तियों की मिली-जुली प्रतिक्रियाओं से ही इसे पहचाना जा सकता है।" चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : मानव आचरण केवल अभिरुचि या हॉबी से नहीं समझा जा सकता, बल्कि इसे मनोवृत्तियों और अभिवृत्तियों की मिली-जुली प्रतिक्रियाओं से ही पहचाना जा सकता है- दोनों ही एक संज्ञानात्मक प्रक्रिया के अंग हैं और ये मनुष्य के समस्त व्यवहार और संबंधों को बड़ी गंभीरता से प्रभावित करते हैं। दोनों के उद्गम स्थल मस्तिष्क में एक जैसे ही हैं और दोनों को ही सीखना या प्राप्त करना पड़ता है। ये अपने आप नहीं बनते। दोनों ही मनुष्य के जीवन में लम्बे समय तक बने रहते हैं और समय के साथ आने वाले बदलावों या परिवर्तनों से लड़ते भी रहते हैं। कभी-कभी ये दोनों एक जैसे भी हो सकते हैं और साधारण प्रशासक या औसत इंसान इन दोनों को एक ही समझने की भूल भी कर सकते हैं। मनोवृत्ति (attitude) एक जन्मजात स्थिति है, जिस पर चारों ओर के वातावरण का प्रभाव भी सापेक्ष दृष्टि से कम पड़ता है। इसे एक सीमा के बाद बदला नहीं जा सकता। इसके विपरीत अभिवृत्ति (aptitude) एक मूल्यात्मक स्थिति है, जो बहुत अधिक गहरी और स्थायी होती है। अभिवृत्तियाँ धीरे-धीरे निखर कर परिपक्वता को प्राप्त करती हैं और बहुत सारे प्रभाव उनमें बहुलता का अहसास भी करवाते रहते हैं। इसे भी आसानी से बदला या छोड़ा नहीं जा सकता।</s>
<s>[INST]डॉक्टर सुहास एक अस्पताल में एनेस्थेटिस्ट के रूप में कार्यरत हैं। वे एक वरिष्ठ सर्जन की टीम में शामिल हैं। डॉ. सुहास को अपने वरिष्ठ सर्जन से कुछ मुद्दों पर परेशानी है। पहली तो यह कि वे ऑपरेशन के लिये पुरानी तकनीकों का इस्तेमाल करते हैं, जिसके चलते रोगी को सर्जरी के पश्चात् काफी पीड़ा होती है और उसे ठीक होने में भी ज़्यादा वक्त लगता है। दूसरी समस्या यह है कि ऑपरेशन थियेटर में वे रोगी के संबंध में अशिष्ट चुटकुले सुनाते हैं जिससे उनकी सहयोगी नर्स असहज महसूस करती हैं। उस सर्जन से काफी कनिष्ठ होने के कारण डॉ. सुहास न तो उनकी आलोचना कर सकते हैं और न ही उन्हें ऐसा करने से रोक पा रहे हैं।(a) यदि आप डॉ. सुहास के स्थान पर होते, तो आपके पास क्या-क्या विकल्प होते?(b) प्रत्येक विकल्प का मूल्यांकन करके बताइये कि आप कौन-सा विकल्प चुनेंगे? उसके कारण भी बताइये।[/INST]उत्तर : (a) यदि आप डॉ. सुहास के स्थान पर होते, तो आपके पास क्या-क्या विकल्प होते? यदि मैं डॉ. सुहास के स्थान पर होता तो मेरे पास निन्मलिखित विकल्प होते- मैं सिर्फ अपने काम पर ध्यान देता और वरिष्ठ सर्जन की ‘गुड बुक’ में रहता। वरिष्ठ सर्जन का कृत्य मरीजों के हितों एवं सुरक्षा के साथ समझौता करने जैसा है। मुझे सहयोगी नर्स कर्मचारियों की असहज स्थिति को भी ध्यान में रखते हुए कोई कदम उठाना है। सर्वप्रथम मैं उनको अपने व्यवहार से सांकेतिक अर्थ में अपनी नाखुशी दिखाऊंगा, जैसे- उनके चुटकुलों पर नहीं हँसूंगा। मैं उनसे व्यक्तिगत तौर पर मिलकर एक बार समझाने की कोशिश करूंगा। यदि वह फिर भी अपना व्यवहार नहीं बदलते हैं तो मैं अस्पताल के प्रबंधन से निवेदन करूँगा कि जिन मरीजों का हमारी टीम ने ऑपरेशन किया है, कृपया उनकी ‘फीडबैक’ लें। साथ ही मैं प्रबंधन को सर्जन के व्यवहार के संबंध में भी बताऊँगा। यदि प्रबंधन भी कोई ठोस उचित कदम नहीं उठाता है तो मैं चिकित्सकों को लाइसेंस देने वाली एजेंसी से इस मामले की जाँच का आवेदन करूँगा। (b) प्रत्येक विकल्प का मूल्यांकन करके बताइये कि आप कौन-सा विकल्प चुनेंगे? उसके कारण भी बताइये। मेरे प्रथम विकल्प को चुनने से मैं न केवल उनके अनैतिक व्यवहार में उसका सहयोगी बन जाता हूँ बल्कि यह मरीजों को सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा देने के एक चिकित्सक की शपथ का भी उल्लंघन होता है। ऐसी स्थिति भी आ सकती है कि कोई सहयोगी नर्स उनके व्यवहार की शिकायत कर दे और मेरे भी सहयोगी होने के आरोप से मेरी प्रतिष्ठा धूमिल हो जाए। मैं दूसरे विकल्प को चुनूँगा। इससे मरीज की सुरक्षा भी सुनिश्चित हो पाएगी तथा सहयोगी नर्स कर्मचारी भी सहज महसूस करेंगी।</s>
<s>[INST]क्या निगमित शासन के अंतर्गत निगम सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) परोपकारिता के समान है? उदाहरण के साथ विश्लेषण करें।[/INST]उत्तर : कार्पोरेट सोशल रिसपाँसिबिलिटी (सीएसआर), परोपकार के लक्ष्यों के मामले में समानता रखता है। दोनों का लक्ष्य समाज का हित है परन्तु प्रकृति, उद्देश्य व आयाम को लेकर भिन्नता पाई जाती है। इसे प्रस्तुत चार्ट से समझा जा सकता है- भिन्नता के बिन्दु सीएसआर परोपकार प्रकृति (Nature) कर्त्तव्य व उत्तरदायित्व सेवाभाव उद्देश्य (Purpose) प्राकृतिक-सामाजिक संसाधनों के उपयोग से होने वाले प्रभाव, जो लाभ-हानि की गणना से परे होते हैं, के बदले समाज को कुछ वापस करने के उद्देश्य से किया जाता है। दया और दान के भाव से कमज़ोर वर्गों की सहायता करना। यह मुख्यतः आत्म संतुष्टि हेतु किया जाता है। आयाम (Dimension) सामाजिक-आर्थिक परोपकारी और नैतिक क्षेत्र (Scope) यह प्रायः देश की भौगोलिक सीमा के भीतर होता है। यह किसी क्षेत्रीय बंधन भौगोलिक सीमा से परे होता है। उदाहरण 1. टाटा के द्वारा शुरू की गई जीवन रक्षा पहल(MANSI) 2. भारत पेट्रोलियम द्वारा शुरू किया गया बूंद कार्यक्रम मेलिंडा और गेट्स फाउंडेशन द्वारा विभिन्न देशों जैसे अफ्रीका में स्वास्थ्य सेवा हेतु किये जा रहे प्रयास।</s>
<s>[INST]"मनुष्य अपनी स्वतंत्रता के लिये अभिशप्त है क्योंकि एक बार विश्व में झोंक दिये जाने के बाद वह उस प्रत्येक चीज़ के लिये ज़िम्मेदार होता है जो वह करता है।"[/INST]उत्तर : मेरी राय में इस वक्तव्य का आशय है कि व्यक्ति अपने भाग्य का स्व-निर्माता है, चाहे परिस्थितियाँ और निर्णयात्मक स्थान (decisional niche) कैसा भी हो। यदि कोई व्यक्ति पूर्ण निष्ठावान और दृढ़ प्रतिज्ञ है तो वह किसी भी लक्ष्य को प्राप्त कर मील का पत्थर स्थापित कर सकता है। ध्यातव्य है कि कई बार परिस्थितियाँ और पर्यावरण मानव के पूर्ण नियंत्रण में नहीं होते हैं, लेकिन निर्णय और उसके परिणाम मानव की हद में होते हैं। उदाहरण के तौर पर ‘कैदी की दुविधा’ यह बताती है कि कुल मिलाकर स्थिति कैदी के नियंत्रण में नहीं होती है लेकिन कैदी की पसंद (Choice) पर ही परिणाम आंशिक रूप से निर्भर करता है। हम अपनी पसंद, निर्णय इत्यादि के लिये पूर्णतया स्वतंत्र है परन्तु इन निर्णयों व पसंदों के परिणामों को वहन करने की ज़िम्मेदारी भी हमारी है, फिर चाहे वो परिणाम अच्छे हों या बुरे। इसे वर्तमान समय में भारतीय प्रशासन के संदर्भ में देखा जा सकता है। जहाँ एक ओर नौकरशाही पर यथा स्थिति (status quo) बनाए रखने का आरोप लगता है, क्योंकि राजनैतिक शक्तियाँ और मीडिया का अति सनसनीखेज प्रस्तुतीकरण निर्णय लेने में बाधा उत्पन्न करते हैं। वहीं दूसरी ओर अशोक खेमका, दुर्गाशक्ति नागपाल, हेमंत करकरे और अन्य यह दर्शाते है कि कैसे कठिन परिस्थितियों में भी कार्य का उचित क्रियान्वयन किया जा सकता है। इस परिप्रेक्ष्य में 2009 बैच के आई.ए.एस. अधिकारी Armstrong Pame द्वारा बिना सरकारी सहायता के मणिपुर से नागालैंड को जोड़ने वाली 100 किमी सड़क का निर्माण लोगों के सहयोग से करवाना एक प्रासंगिक उदाहरण है।</s>
<s>[INST]एक कनिष्ठ कर्मचारी अपनी वृद्ध माँ की देखभाल के लिये विशेष छुट्टी के बाद काम पर वापस लौटी है। वित्तीय कारणों से इसे पूर्णकालिक तौर पर काम करने की आवश्यकता है। उसे घर में अपनी माँ की देखभाल के लिये प्रबंधन करने के कारण कठिनाइयाँ हो रही हैं, जिससे उसे मीटिंग (जो प्रायः दिन के समय में आरंभ होती ) से अनुपस्थित रहना पड़ता है और जल्दी ही कार्य बंद कर देना पड़ता है। वह अपने कार्य में बहुत दक्ष है लेकिन उसकी अनुपस्थिति के कारण उस पर दबाव बन रहा है और उसके सहकर्मियों पर काम का बोझ और बढ़ रहा गया है। आप उसके प्रबंधक हैं और आपको ज्ञात हो रहा है कि दैनंदिन काम की गति पर दबाव बन रहा है। उसके एक पुरुष सहकर्मी ने ऐसी टिप्पणी करना भी शुरू कर दिया है कि ‘औरत का स्थान घर में है”, जिससे वह और अधिक तनाव में आ रही है। आप इस परिस्थिति में क्या कदम उठाएंगे? कारण बताइये।[/INST]उत्तर : मुद्दाः सत्यनिष्ठा, गोपनीयता, व्यावसायिक व्यवहार। तथ्यः कनिष्ठ सदस्या के तर्कपूर्ण व्यक्तिगत कारणों का प्रभाव टीम के अन्य सदस्यों पर पड़ना। कार्य का प्रभावित होना और पुरुष सहकर्मी द्वारा अनावश्यक टिप्पणी। हितधारकः मैं, कनिष्ठ सदस्या और उसके सहकर्मी, कार्मिक विभाग में स्टाफ के अन्य सदस्य और व्यापक समाज। कार्रवाईः 1. सर्वप्रथम, मैं सभी प्रासंगिक तथ्यों की जाँच करूँगा। यदि आवश्यक हुआ तो कार्मिक विभाग के साथ कर्मचारियों से संबंधित प्रक्रियाओं को स्पष्ट रूप से जानने का प्रयास करूँगा। 2. मैं, कनिष्ठ सदस्या के साथ इस मामले पर चर्चा करूँगा। इस क्रम में बैठकों के समय को अधिक लचीला बनाने, घर के कार्य करने जैसे विकल्पों पर विचार करूँगा। 3. स्टाफ के अन्य सदस्यों को, कनिष्ठ सदस्या की समस्या के विषय में बताकर उन्हें यथोचित आचरण को अपनाने की सलाह दूँगा। साथ ही कार्यस्थल पर उत्पीड़न संबंधी ‘विशाखा नियमों’ को उल्लेखित करूँगा। साथ ही साथ स्टाफ को गोपनीयता संबंधी व्यावसायिक मूल्य से परिचित करवाऊंगा। 4. इसप्रकार, परिस्थितियों को समझने का प्रयास करते हुए, मैं समस्या का समाधान निकालने का प्रयास करूँगा और कनिष्ठ सदस्या व अन्य सहकर्मियों के मध्य सदैव न्यायसंगत (fair) रहने का प्रयास करूँगा। यह मेरे ‘सत्यनिष्ठा’ रूपी व्यवहार हेतु महत्त्वपूर्ण है। 5. सभी प्रकार के प्रयासों व समझौते के उपरान्त यदि कनिष्ठ सदस्या निर्धारित कार्यों को पूर्ण करने में सफल नहीं होती है तो मैं कार्मिक विभाग को सभी तथ्यों से अवगत करा दूँगा, क्योंकि एक सीमा के बाहर अन्तिम निर्णय का अधिकार उच्च अधिकारियों/मालिकों को होगा। यह कदम मेरे व्यावसायिक व्यवहार को सुनिश्चित करता है। 6. मैं, यह सुनिश्चित करूँगा कि हर समय गोपनीयता को बनाए रखा जाए। इस प्रकार पूरे प्रकरण में मैं निष्पक्षता, वस्तुनिष्ठता जैसे मूल्यों के साथ अपनी भावनात्मक बुद्धिमत्ता का प्रयोग करूँगा। इसके साथ अपने क्षेत्राधिकार में कनिष्ठ सदस्या को सहयोगपूर्ण वातावरण प्रदान कर एक अच्छी कार्यसंस्कृति के विकास का प्रयास करूँगा।</s>
<s>[INST]सार्वजनिक जीवन में अधिकारियों से अपेक्षा की जाती है कि वे सार्वजनिक मामलों से व्यक्तिगत विषयों को अलग रखें। क्या किसी व्यक्ति के लिये यह संभव है कि वह व्यक्तिगत लाभों को पेशेवर हितों से अलग रखे? उदाहरण के साथ व्याख्या करें।[/INST]उत्तर : नौकरशाही का किसी संगठन में कोई स्वामित्व हित (Proprietary Interest) नहीं होता है। नौकरशाही की एक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि उसके द्वारा व्यक्तियों के मध्य संबंधों को आधिकारिक प्रणाली और नियमों के आधार पर नियंत्रित किया जाता है। सरकारी पद निजी भागीदारी, भावनाओं इत्यादि से मुक्त होते हैं। इस प्रकार, निर्णय व्यक्तिगत कारकों के बजाय तर्कसंगत कारकों से संचालित होते हैं। यही कारण है कि निष्पक्षता, सत्यनिष्ठा, वस्तुनिष्ठता को नौकरशाही के महत्त्वपूर्ण मूल्यों में सम्मिलित किया गया है। यह तार्किक नौकरशाही की आवश्यक शर्त है। हाँ, यह संभव है कि व्यक्तिगत लाभों को व्यावसायिक हितों से दूर रखा जा सके। उदाहरण के तौर पर अपने बच्चों को कार्यालय की कार से विद्यालय न छोड़ना, यदि उसका अलग से स्वभुगतान न किया जाता हो। ऐतिहासिक उदाहरण के तौर पर चाणक्य से प्रेरणा ली जा सकती है जिसमें उसके पास दो लैम्प थे। इन लैम्पों में एक का उपयोग वह कोर्ट संबंधित मुद्दों के लिये करता था और दूसरा जो उसका स्वयं का था, का उपयोग व्यक्तिगत मामलों के लिये करता था।</s>
<s>[INST]लोकतंत्र में कुशल सिविल सेवा के लिये कुछ मूल्य अवश्य होने चाहियें, जो इसे अन्य व्यवसायों से अलग करती है। दिये गए बयान के आलोक में सार्वजनिक सेवाओं के लिये मूलभूत मूल्यों की व्याख्या कीजिये।[/INST]उत्तर : लोकतंत्र में सिविल सेवकों के विशेष दायित्व होते हैं, क्योंकि उन्हें सामुदायिक संसाधनों का प्रबंधन करना और समुदायों के लिये सेवाएँ प्रदान करना जैसी प्रमुख ज़िम्मेदारियाँ निभानी होती हैं। स्वाभाविक रूप से नागरिक, सिविल सेवकों से समाज में कुशलता से काम करने के क्रम में कुछ मूल्यों को बनाए रखने की उम्मीद करते हैं। सार्वजनिक सेवाओं के लिये आवश्यक मूलभूत मूल्य- निःस्वार्थता- सार्वजनिक पदधारकों को जनता के हितों के मामलों में पूरी तरह से कार्य करना चाहिये। उन्हें खुद के लिये वित्तीय या अन्य लाभ, अपने परिवार या अपने दोस्तों द्वारा हासिल करने के क्रम में ऐसा नहीं करना चाहिये। वफ़ादारी- सार्वजनिक पद धारकों को उनके सरकारी कर्त्तव्यों के निष्पादन में उन्हें प्रभावित करने की कोशिश हो सकती है, अतः उन्हें बाहर के व्यक्तियों या संगठनों को किसी भी वित्तीय या अन्य दायित्वों के अधीन खुद की जगह नहीं रखना चाहिये। निष्पक्षता- सार्वजनिक पदधारकों को योग्यता के आधार पर विकल्प बनाने चाहिये, सार्वजनिक नियुक्तियों, ठेके देने या पुरस्कार और लाभ के लिये व्यक्तियों के चयन में निष्पक्षता होनी चाहिये। जवाबदेही- सार्वजनिक पदधारक अपने फैसलों और कार्यों के लिये जनता के प्रति जवाबदेह हैं और उनके कार्यालय के लिये उपयुक्त जो कुछ भी जाँच के लिये उपलब्ध हो, स्वयं प्रस्तुत करना चाहिये। खुलापन- सार्वजनिक पदधारकों को लिये गए सभी फैसलों और कार्यों के बारे में संभव रूप में खुला होना चाहिये। उन्हें अपने निर्णय के लिये कारण स्पष्ट रूप से देने चाहियें और जानकारी को सीमित तभी करना चाहिये जब व्यापक सार्वजनिक हित प्रभावित हों। ईमानदारी- सार्वजनिक कार्यालय के पदधारकों के लिये अपने सार्वजनिक कर्त्तव्यों से संबंधित किसी भी निजी हितों की घोषणा करना एक कर्त्तव्य है और यह जनता के हित की रक्षा करता है। नेतृत्व- सार्वजनिक पद धारकों को सार्वजनिक हितों को बढ़ावा देने और कुशल नेतृत्व उदाहरण के द्वारा इस सिद्धांत का समर्थन करना चाहिये।</s>
<s>[INST]आप किसी चिकित्सा महाविद्यालय के डीन हैं। हाल ही में एक शिशु के जन्म के समय गर्भपात की सूचना मिली और शिशु का जन्म अभी होना बाकी ही था। इस शिशु के माता-पिता और उनके परिवार को इससे आशाएँ थीं और वे पिछले 7 वर्षों से एक बच्चे के लिये प्रयासरत थे। उन्होंने प्रसूति के स्तर पर अनियमितता और नजरअंदाजी का आरोप लगाया जिसकी कीमत उनके शिशु को चुकानी पड़ी। कुछ मीडिया समूहों और स्थानीय लोगों ने इस घटना को दुर्भाग्यपूर्ण बताया है। अस्पताल के कर्मचारी चिकित्सक के पक्ष में एकजुट हो गए हैं और चिकित्सक के विरूद्ध कोई भी कदम उठाए जाने की स्थिति में हड़ताल पर जाने को तैयार हैं। निकट भविष्य में शहर में चिकनगुनिया का संक्रमण होने की संभावना की रिपोर्ट आई है और आप इस स्थिति में हड़ताल को वहन नहीं कर सकते। आपके समक्ष कौन-से विकल्प हैं? प्रत्येक के गुण-अवगुण बताएँ। आप क्या करेंगे और क्यों?[/INST]उत्तर : निर्णयात्मक आधारः निर्णय प्रक्रिया को वस्तुनिष्ठ व निष्पक्ष बनाना जो पीड़ित को न्याय प्रदान कर सके। विकल्पः इस केस स्टडी में निम्नलिखित विकल्प उपस्थित हैं- 1. व्यक्तिगत नेतृत्व में इस मामले के लिये एक जाँच प्रक्रिया का प्रारम्भ करना। गुणः यह विकल्प मेरी निष्पक्षता को इंगित करता है। साथ ही ऐसी परिस्थितियों में मेरी नेतृत्व क्षमता को उद्घाटित करता है। इससे तथ्यों की सत्यता के आधार पर निर्णय हो सकेगा। दोषः यह भुक्तभोगी को त्वरित न्याय प्रदान करने में असफल है। 2. चिकित्सक को निलंबित करना व पुनः बहाली के लिये आश्वस्त करना। गुणः इस विकल्प द्वारा चिकित्सक के निलबंन से संभावित अन्य चिकित्सकों की हड़ताल को नियंत्रित किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में यह कार्यवाही भावनात्मक बुद्धिमत्ता संबंधी मूल्य के प्रयोग से संबंधित है। दोषः भविष्य में होने वाली चिकनगुनिया की महामारी को देखते हुए एक डाक्टर को टीम से हटाना एक अदूरदर्शितापूर्ण निर्णय हो सकता है। 3. पीड़ित परिवार के आरोपों को अनसुना करना और परिवार को बताना कि प्रक्रिया में यथोचित परिश्रम (diligence) किया गया है। गुणः भविष्य में चिकनगुनिया की महामारी से बचाव हेतु व्यापक समाज के हित के लिये परिवार के आरोपों को अनसुना किया जा सकता है। यह उपयोगितावादी नैतिकता के सिद्धान्त पर सही प्रतीत होता है। दोषः यह विकल्प मेरी वस्तुनिष्ठता पर प्रश्न खड़े करता है साथ ही भविष्य में होने वाली ऐसी गलतियों के लिये एक अनुचित उदाहरण प्रस्तुत करता है। ऐसे विकल्पों की अवस्था में मेरी कार्यविधि निम्न प्रकार होगी- कार्यविधिः 1. मैं, तथ्यों और रिपोर्ट की सत्यता की जाँच करूँगा ताकि निष्पक्षता को सुनिश्चित की जा सके। 2. मैं, चिकित्सक को अस्थायी तौर पर निलंबित करूँगा, ताकि हितों के टकराव को रोका जा सके। 3. मैं, पीड़ित परिवार और मीडिया से मिलूँगा ताकि अपनी करूणा को व्यक्त कर सकूँ और व्यावसायिक संहिता को सुनिश्चित करूँगा। यदि जांच में किसी प्रकार की लापरवाही सामने आती है तो उचित दंड की व्यवस्था की जाएगी, ताकि जनता व पीड़ित परिवार के विश्वास को बहाल किया जा सके। 4. इन सारी कार्यवाहियों के मध्य मैं अपने स्टाफ की औपचारिक बैठकें आयोजित करूँगा, जिससे उनका मनोबल बढ़ाया जा सके।</s>
<s>[INST]मानवीय मूल्यों का विकास समाज में रहते हुए ही संभव है। आज की भाग-दौड़ भरी ज़िंदगी में एकाकीपन के साथ रहने को अभिशप्त व्यक्ति में ये मूल्य दम तोड़ रहे हैं। इस संबंध में आपका क्या मत है? उदाहरणों से अपने मत को संपुष्ट कीजिये।[/INST]उत्तर : नैतिकता सदैव समाज सापेक्ष होती है। समाज में ही नैतिक मूल्यों का निर्माण होता है और समाज के लोगों की अंतर्क्रिया के फलस्वरूप ही इसका विकास होता है। समय के साथ-साथ समाज की व्यवस्थाओं में परिवर्तन आने पर प्रायः नैतिक प्रगति या अवनति देखी गई है। आज का मनुष्य अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने की दौड़ में एक वस्तु बन गया है। उसकी ज़िंदगी इतनी व्यस्त हो गई है कि समाज की बात तो छोड़िये उसके पास स्वयं के लिये वक्त नहीं है। प्यार, संवेदना, परोपकार, भाईचारा जैसे मूल्य उसकी व्यस्त जिंदगी में कहीं खो गए हैं। वह सड़क पर घायल पड़े व्यक्ति की मदद नहीं करता क्योंकि न तो उसके पास वक्त है और न ही वह पुलिस की कार्रवाई में उलझना चाहता है; वह अपने संबंधियों से मिलने खुशी के मौके पर तो दूर की बात है, मातम की स्थिति में भी नहीं जाता। मानवीय संवेदनाएँ ऐसे एकाकी जीवन में दम तोड़ रही हैं, चाहे इसके मूल में जो भी कारण हों। एक मनुष्य और पशु में मूल अंतर यह है कि एक पशु अपनी इच्छाओं से नियंत्रित होता है और मनुष्य मस्तिष्क से। मनुष्य सोच सकता है और उसने अपनी विचारशक्ति से ही समय के विभिन्न दौरों में नैतिक मूल्यों का निर्माण और विकास किया है। जिनमें सबसे अहम मूल्य मानवता का है। आज आवश्यकता है कि नई पीढ़ी में बचपन से नैतिक मूल्यों के सुदृढ़ीकरण की नींव डाली जाए, ताकि जीवन की परिस्थितियाँ कैसी भी हों, वह उनसे जूझते हुए भी नैतिक मूल्यों को खुद में संजोए रखे।</s>
<s>[INST]चाणक्य ने अर्थशास्त्र में दर्शाया है कि[/INST]उत्तर : राजा को संविधान में उल्लेखित दिशा-निर्देशों के अनुसार कार्य करना चाहिये। वह कानून से ऊपर नहीं है क्योंकि ‘कानून राजा है, न कि राजा कानून’। संविधानवाद राजा (शासक) पर बंधन लगाता है और यह शासक का नैतिक दायित्व है कि वह संविधान से बंध कर रहे। इसी परिप्रेक्ष्य में कानून, नियम और विनियम (Law, Rule and Regulation) मार्गदर्शक शक्ति के रूप में कार्य करते हैं। ये स्पष्टता प्रदान करते हैं और अधिकारियों को वैयक्तिक पसंद से इतर निष्पक्षता का पालन कर निर्णय लेने में मदद करते हैं। जैसे- योग्यता के आधार पर नियुक्ति, स्थायी कार्यकारिणी में भाई-भतीजावाद को रोकने में मदद करती है। हालाँकि, कानून, नियम और विनियम की इस परिप्रेक्ष्य में कुछ सीमाएँ हैं- ये मानव के प्रत्येक कार्य और कार्रवाई को निर्देशित नहीं कर सकते हैं। कुछ स्तर पर ‘विवेक’ का प्रयोग आवश्यक है ताकि मानवीय और व्यावहारात्मक पहचान को बनाए रखा जा सके और प्रशासन को मशीन में बदलने से रोका जा सके। अतः कानून, नियम और विनियम को शासन के स्रोत के रूप में प्रयोग करने की एक सीमा है जिसे मूल्यों के आधार पर नियंत्रित कर बेहतर निर्णयन को स्थापित किया जा सकता है। नीतिशास्त्र, शासन में समानुभूति, करुणा को सुनिश्चित करता है जिसे वस्तुनिष्ठ कानून द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिये, एक कार्यालय में किसी सेवानिवृत्त वृद्ध के ऑफिस में 5-10 मिनट देरी से आने के बाद भी उसकी आवश्यकताओं को सुनना। इस प्रकार प्रशासन में अंतर्रात्मा को जोड़ने की आवश्यकता है।</s>
<s>[INST]हाल ही में दो राज्यों के मध्य जल विवाद के मुद्दे ने एक विकृत रूप धारण कर लिया। इससे न केवल दोनों राज्यों के मध्य संबंध कमज़ोर हुए बल्कि दोनों राज्यों में आगजनी, एक-दूसरे राज्य के निवासियों के साथ अभद्र व्यवहार और सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान होने जैसी घटनाएँ भी हुईं। एक राज्य के मुख्य सचिव के रूप में इस मुद्दे के समाधान, कानून व्यवस्था के निर्माण तथा आपसी भ्रातृत्व एवं सौहार्द्र को पुनः स्थापित करने के लिये आपके पास कौन-कौन से विकल्प मौजूद हैं? अपने विकल्पों के गुण-दोषों का विवेचन करते हुए सर्वश्रेष्ठ विकल्प बताइये।[/INST]उत्तर : नदियाँ प्राकृतिक रूप से जल जैसी अमूल्य संपत्ति को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाती हैं। जल की मात्रा, समय और दिशा प्रकृति स्वयं निर्धारित करती है। वर्तमान समय में क्षेत्रीय बँटवारे के कारण ऐसे कई राज्य हैं, जो उन नदियों पर आश्रित हैं जिनका उद्गम किसी दूसरे प्रदेश या देश में स्थित है। कृषि क्षेत्र के दबाव एवं आधुनिक उद्योगों में पानी की बढ़ती ज़रूरत के कारण पानी की मांग बढ़ी है। ऐसे में पानी को लेकर खींचतान स्वाभाविक है। हाल ही कावेरी जल मुद्दे पर हुई आगजनी, हिंसा एवं अभद्र व्यवहार से इस मुद्दे की गंभीरता का पता चलता है। सरकार का दायित्व क्षेत्रीय आकांक्षाओं एवं सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को संतुलित तरीके से क्रियान्वित करना है। मेरा स्पष्ट मानना है कि इस मुद्दे पर राज्य सरकारें या तो क्षेत्रीय आकांक्षाओं को समझ नहीं पाईं या विपक्ष इसे मुद्दा बनाकर अपनी राजनीतिक पकड़ मज़बूत करना चाह रहा है। इस मामले की शुरुआत नदियों के जल बँटवारे को लेकर ही शुरू हुई, किंतु बाद में इसने भाषा, संस्कृति एवं क्षेत्रीयता को भी नहीं बख्शा। इसका अर्थ यह है कि ‘जल की समस्या’ वाकई इतनी विकराल है कि लोगों का गुस्सा इस स्तर पर पहुँच चुका है। दूसरा, राजनीतिक एवं असामाजिक तत्त्वों का हाथ होने से भी इनकार नहीं किया जा सकता। राज्य का मुख्य सचिव होने के नाते, यह मेरा दायित्व है कि इसका समाधान जल्द से जल्द करूँ। मेरे पास निम्नलिखित विकल्प हैं- पुलिस बल का प्रयोग करते हुए सभी प्रकार के विरोधों को नियंत्रित करूँ। अपने राज्य के लोगों की मांगों को सही मानकर प्रदर्शन में उनका सहयोग दूँ। दूसरे राज्य के समकक्ष अधिकारी से विमर्श कर स्थिति को सुलझाने की कोशिश करूँ। विकल्पों की समीक्षाः पुलिस बल का प्रयोग करते हुए स्थिति पर तत्काल नियंत्रण तो पाया जा सकता है, परंतु भविष्य में स्थिति और भयावह हो सकती है। ऐसे में नदियों के जल का बँटवारा, एक-दो दिन के लिये नहीं वरन नदी के अस्तित्व तक बना रहेगा। वैसे भी लोकतान्त्रिक मूल्य इस विकल्प की इज़ाज़त नहीं देते। अपने राज्य के लोगों की मांग, सिर्फ उस राज्य के फायदे तक ही सीमित है। ऐसे में यदि उनकी मांग को मान लिया जाए तो संभव है कि दूसरे राज्य में भी इसी तरह का आंदोलन / हिंसा सिर उठा सकती है। चूँकि यह मामला दो राज्यों के बीच का है और प्रत्येक राज्य में लोकतांत्रिक नेतृत्व मौजूद है। ऐसे में, मैं इस प्रकार के हल को वरीयता दूँगा जिस पर दोनों राज्यों का शीर्ष नेतृत्व सहमत हो। मैं मीडिया के माध्यम से शांति की अपील करूँगा, अपराधिक तत्त्वों के खिलाफ पुलिस को सख्ती से पेश आने के निर्देश दूँगा, दूसरे राज्य के निवासियों की सुरक्षा सुनिश्चित करूंगा तथा राजनीतिक प्रमुखों से भी निवेदन करूँगा कि वे जनता में आपसी भाईचारा बनाए रखने की अपील करें। स्पष्ट रूप से, यही विकल्प मेरा समाधान होगा।</s>
<s>[INST]वर्तमान में राजनीतिक परिवारों के युवा राजनीति के प्रति सकारात्मक अभिवृत्ति की अपेक्षा अपने परिवार की महत्त्वाकांक्षाओं के कारण राजनीति में प्रवेश कर रहे हैं, जिससे राजनीति में परिवारवाद को बढ़ावा मिलने से न केवल लोकतंत्र की मूल भावना प्रभावित हो रही है बल्कि राजनीति में नैतिक मूल्यों में भी गिरावट आई है। इस संदर्भ में अपनी सहमति या असहमति को उदाहरण देकर समझाएँ।[/INST]उत्तर : राजनीति में परिवारवाद कोई नई परंपरा नहीं है। जिस प्रकार इतिहास में विभिन्न राजवंश अपनी सबसे योग्य संतान को सत्ता हस्तांतरित करते हुए शासन चलाते रहे हैं वैसे ही लोकतंत्र में भी जनता अमूमन अपने प्रिय राजनेता की संतान को स्वीकारती रही है। कुछ उदाहरणों को छोड़ दें तो भारत की राजनीति में परिवारवाद प्रायः सफल रहा है। कांग्रेस में गांधी परिवार तथा विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियों, जैसे- इंडियन नेशनल लोकदल, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल आदि का उदाहरण इसके परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। परंतु अहम प्रश्न यह है कि क्या इन परिवारों के युवा सचमुच अपनी अभिवृत्ति के अनुरूप ही राजनीति का चुनाव करते हैं? यदि ‘हाँ’ तो यह व्यावहारिक तौर पर कोई विवाद का विषय नहीं है, क्योंकि प्राचीन काल में वर्णव्यवस्था के अंतर्गत परिवार का व्यवसाय संतान ही संभालती थी। इससे कौशल का उत्तरोत्तर हस्तांतरण होता था। परंतु सैद्धांतिक तौर पर लोकतंत्र में यह परंपरा असहज स्थिति उत्पन्न करती है। लोकतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति को उच्च पद पर पहुँचने का अधिकार है, परंतु परिवारवाद के चलते सत्ताधारी और अधिकार संपन्न वर्ग अन्यों को ‘समान अवसर के अधिकार’ से वंचित रखते हैं, जो लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है। दूसरा जब लोकतंत्र में सत्ता एक ही परिवार ममे पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती है तो उस परिवार के सदस्य सत्ता को अपना नैसर्गिक अधिकार समझ धन बल से सदैव सत्ता में बने रहना चाहते हैं, जिससे पुनः लोकतंत्र का मर्म आहात होता है। यदि राजनीतिक परिवार के युवा अपनी अभिवृत्ति के विपरीत पारिवारिक महत्त्वाकांक्षाओं के चलते राजनीति में आते हैं तो यह व्यक्तिगत तौर पर न केवल उस युवा के लिये अहितकर है, बल्कि लोकतंत्र के लिये भी शुभ नहीं है। क्यों कि लोकतंत्र में राजनीतिक निर्णय देश के भविष्य की दशा एवं दिशा तय करते हैं। यदि किसी की मनोवृत्ति राजनीती के अनुकूल नहीं है तो वह सही राजनीतिक फैसले भी नहीं ले पाएगा। मेरा मानना है कि आमतौर पर राजनीतिक परिवार में परवरिश होने के कारण उन परिवारों के युवाओं की मनोवृत्ति राजनीति के अनुकूल हो ही जाती है। बहुत कम ऐसे अपवाद हैं जब कोई जबरदस्ती राजनीति में आया हो।</s>
<s>[INST]"सहिष्णुता एक स्वतंत्र, व्यक्तिगत पसंद है और इसे किसी पर लागू नहीं किया जा सकता।" साथ ही सहिष्णुता को प्रशासनिक व्यवहार में लाने के लिये व्यक्ति में एक भावनात्मक चेतना की आवश्यकता होती है। विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : सहिष्णुता (सहनशीलता या धैर्य) विचारों को कार्य रूप में परिणित करने में सहायता करती है। सहनशीलता मनुष्य की एक विशेषता है, जिससे वह विपरीत परिस्थितियों के बीच भी मुस्करा सकता है। अपने क्रोध और विरोध पर काबू पाकर सहिष्णु व्यक्ति उन व्यक्तियों के मूल्यों को भी समझ सकता है, जिनसे उसका विरोध है। सहिष्णु व्यक्ति विरोधों के बिना प्रतिक्रिया दिये अपने विचारों और विमतियों के साथ सह-अस्तित्व बनाए रख सकता है। यह एक महान गुणों का गुण है जो विवेक और परानुभूति से मिलकर निर्णयों को सामयिक और सही बनाता है। इसलिये यह कहा जा सकता है कि सहिष्णुता एक स्वतंत्र, व्यक्तिगत पसंद है और इसे किसी पर लागू नहीं किया जा सकता। सहिष्णुता बहुत कुछ बचपन के संस्कारों पर निर्भर होती है पर इसे अनुभव और परीक्षण से बढ़ाया जा सकता है। इसलिये सहिष्णुता को प्रशासनिक व्यवहार में लाने के लिये व्यक्ति में एक इमोशनल अवेयरनेस की आवश्यकता होती है। यह प्रशासक में तभी जन्म लेती है और आगे बढ़ती है, जब प्रशासक विरोधों, विपत्तियों और डिसएग्रीमेंट के बीच रहते हुए अपने निर्णय लेने की कला को जानता हो। यह एक अभिवृत्ति है और उन लोगों में कम मात्रा में पाई जाती है जो केवल राज करना चाहते हैं। यह अपने कार्य और जीवन के प्रति एक दृष्टि है। विरोधी को लगे कि वह जीत गया, यह तो एक प्रतिक्रिया है, पर जहर का घूँट पीकर आपने अपने सीनियर या जूनियर को यह समझा दिया कि वह गलत है। यह सहिष्णुता से ही संभव है। यह अहिंसा की तरह दया, क्षमा, साहस और भावनात्मक दुःख को बर्दाश्त करने की एक अपार क्षमता है, जो पशुओं में नहीं होती। सहिष्णु प्रशासक वास्तविकताओं को समझता है, अपनी मजबूरियों को स्वीकार करता है और दूसरों की कमियों को अपनी बताकर संगठन के विरोध अवरोधों को घटाता रहता है, यह नेतृत्व का एक ऐसा गुण है, जो पूरी टीम को एक प्रेरणा देता है और समूह के जीवन में सकारात्मकता लाता है।</s>
<s>[INST]"सच्चाई यही है कि हम अपने दिमाग, शरीर और भावनाओं को दर्द या खुशी में जो चुनते हैं, से तादात्म्य बनाने हेतु शिक्षित कर सकते हैं। हम दर्द या ख़ुशी में जिस से जुड़ते हैं, उसमें बदलाव लाकर अपने व्यवहार में तुरंत बदलाव ला सकते हैं”। टोनी रॉबिन्स के इस विचार का वर्तमान संदर्भ में क्या महत्त्व है?[/INST]उत्तर : ऊपर दिया गया कथन अभिवृत्ति के कार्यों के बारे में जानकारी देता है। प्रत्येक व्यक्ति की अभिवृत्ति के विभिन्न कारण होते हैं। आमतौर पर अभिवृत्ति व्यक्ति के लिये बुनियादी कार्य करती है। कट्ज़ (Katz) के अनुसार अभिवृत्ति अलग-अलग सेवा कार्यों से निर्धारित होती हैं। लोग अपने बुनियादी लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये अभिवृत्ति का उपयोग करते हैं। अभिवृत्ति के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं- वस्तु मूल्यांकन- यह दृष्टिकोण हमारे समाज में वस्तुओं के सकारात्मक और नकारात्मक गुणों को संक्षेप में प्रस्तुत करने के लिये है। अभिवृत्ति फायदेमंद चीजों को अपनाने के लिये और हानिकारक चीजों से बचने के लिये लोगों की मदद करती है। ज्ञान- यह वस्तुओं के बारे में जानकारी को व्यवस्थित करने की क्षमता का प्रतिनिधित्व करती है। यह हमारे आसपास जानकारी की विशाल राशि को समझने में मदद करती है और चीजों को और अधिक प्रबंधनीय और व्यवस्था को उम्मीद के मुताबिक बनाती है। सामाजिक समायोजन- यह अपने पसंदीदा लोगों की पहचान करने और नापसंदीदा लोगों से दूर होने में मदद करती है। अहंकार बचाव की मुद्रा में- यह अभिवृत्ति, हमारे आत्मसम्मान की रक्षा करने में और हमें दोषी महसूस कराने वाले विचारों से बचाती है। यह अभिवृत्ति व्यक्ति के आत्मसम्मान की रक्षा करने के रूप में मौजूद रहती है। मूल्य अभिवृत्ति- यह एक व्यक्ति की स्वयं की अवधारणा और केंद्रीय मूल्यों को अभिव्यक्त करने में मदद करती है। यह अन्य लोगों के साथ पहचान बनाने में मदद करती है। कार्यों के कार्यान्वयन के मनोवैज्ञानिक निहितार्थ हैं। यह व्यक्ति के भीतर की ज़रूरत और बाहरी दुनिया के बीच संतुलन बनाए रखने में मदद करती है। यह इस व्यवहारिक दृष्टिकोण का मूल विचार है।</s>
<s>[INST]विश्व स्वास्थ्य संगठन की हाल ही में आई रिपोर्ट के अनुसार भारत की राजधानी दिल्ली को विश्व के बड़े शहरों में दूसरा सबसे अधिक प्रदूषित शहर पाया गया है। दिल्ली में वायु-प्रदूषण का स्तर ज़्यादा होने के कारण यहाँ के निवासियों में फेफड़ों और दिल की बीमारियाँ होने का खतरा बहुत बढ़ गया है। दिल्ली में प्रदूषण का मुख्य कारण वाहनों से अत्यधिक उत्सर्जन, कूड़े को खुले में जलाना तथा दिल्ली के चारों ओर औद्योगिक इकाइयों की उपस्थिति है। दिल्ली प्रशासन वाहनों की संख्या को नियंत्रित करने के लिये ‘ऑड-ईवन’ योजना भी लागू करके देख चुका है, परंतु उससे वायु की गुणवत्ता में कोई विशेष सुधार परिलक्षित नहीं हुआ। एक प्रशासक के तौर पर कुछ ऐसे नवाचारों और साध्य रणनीतियों की चर्चा कीजिये, जिन्हें लागू किया जा सके तथा जिससे वायु प्रदूषण की इस विकट स्थिति में सुधार लाया जा सके।[/INST]उत्तर : भारत की राजधानी दिल्ली को विश्व के बड़े शहरों में दूसरा सबसे अधिक प्रदूषित शहर पाया जाना निश्चित तौर पर एक चिंता का विषय है। वायु प्रदूषण न केवल बीमारियों को जन्म देता है बल्कि जीवन-प्रत्याशा एवं जीवन की गुणवत्ता दोनों पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। यह तथ्य तो प्रश्न में ही दिया गया है कि वायु प्रदूषण के मुख्य कारण वाहनों से धुएँ का उत्सर्जन, कूड़े को खुले में जलाना और औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाली गैसें हैं। परंतु इनके अतिरिक्त भी वायु प्रदूषण के कुछ अन्य कारण हैं, जैसे- शहर में अत्यधिक मात्रा में मौजूद तंदूर की भट्टियों से निकलने वाला धुआँ, पुराने वाहनों से अधिक मात्रा में निकलने वाला धुआँ, टूटी-फूटी सड़क के कारण वाहनों के गुज़रने से उठने वाली धूल, बिना ढके होने वाले नव-निर्माण से उड़ने वाली सीमेंट व धूल तथा अत्यधिक जाम लगने से होने वाला प्रदूषण आदि हैं। ये बाकी के कारण देखने में मामूली लग रहे हैं परंतु वायु प्रदूषण फैलाने में इनकी भी अहम् भूमिका है। एक प्रशासक के तौर पर मैं प्रदूषण को कम करने के लिये निम्नलिखित कदम उठाऊंगा- शहर के सभी रेस्टोरेंट्स में ‘बिजली के तंदूर’ लगवाने का प्रयास करूँगा। यह कार्य कठिन है, विरोध को भी आमंत्रित करता है परंतु लोगों को समझाऊंगा कि अच्छी सेहत से समझौता करने की बजाय थोड़े स्वाद से समझौता किया जा सकता है। समय-समय पर ‘कृत्रिम वर्षा’ करवाने का प्रबंध करूँगा। यह विकल्प भी थोड़ा महँगा पड़ेगा, परंतु यह निश्चित तौर पर प्रदूषण को कम करेगा। शहर की सभी सड़कें ठीक कराऊंगा ताकि वाहनों के गुज़रने पर धूल न उड़े। किसी भी नवनिर्माण या पुरानी इमारत को तोड़ने की स्थिति में उस स्थान को चारों ओर से ढकने के नियम को सख्ती से लागू करवाना। सीएनजी और इलेक्ट्रिक वाहन खरीदने के लिये लोगों को प्रोत्साहित करूँगा। बदले में उनके बिजली के बिल कम कर देना या किसी टैक्स में छूट देने जैसे लाभ देने की पेशकश करूँगा। भी स्थिति में कूड़े को खुले में न जलाने देना तथा वैज्ञानिक तरीके से उसके निस्तारण का प्रबंध करूँगा। लोगों को मैट्रो या सार्वजनिक परिवहन के अधिक-से-अधिक इस्तेमाल के लिये प्रोत्साहित करूँगा, लेकिन इससे पहले यह सुनिश्चित करूँगा कि यह व्यवस्था सम्यक् तरीके से व्यवस्थित हो। निष्कर्षतः वायु प्रदूषण जैसी समस्या का हल कोई व्यक्ति विशेष के बस की बात नहीं है; इसमें जन-भागीदारी की अहम् भूमिका होती है। इसलिये इस मिशन में लोगों को साथ जोड़ना सबसे अहम्, नवाचारी और साध्य कदम होगा।</s>
<s>[INST]एक लोक सेवक के रूप में अपने दायित्वों को ईमानदारी से निर्वाह करने के बावजूद आपको अनेक बार ऐसे लोगों का सामना करना पड़ता है जो न केवल आपकी कार्यशैली पर प्रश्न उठाते हैं बल्कि आपके बारे में झूठी अफवाहें भी फैलाते हैं। ऐसी स्थिति में आप कैसे अपनी अभिप्रेरणा की निरंतरता को बनाए रख सकते हैं? ऐसे लोगों से कैसे निपटा जा सकता है?[/INST]उत्तर : लोक सेवक के रूप में सबसे बड़ा दायित्व लोकहित होता है। एक लोक सेवक को ईमानदारी से अपने कर्त्तव्यों का निर्वाहन करना चाहिये। ऐसे में यदि कुछ लोग आपकी उत्कृष्ट कार्यशैली के बावजूद आपकी सत्यनिष्ठा पर प्रश्न उठाते हैं या झूठी अफवाहें फैलाते हैं तो स्वाभाविक है कि तनाव बढ़ेगा। ऐसी स्थिति में निम्नलिखित उपाय इस तनाव से निपटने तथा अभिप्रेरणा बनाए रखने में मेरी मदद करेंगे- लोक सेवक के रूप में मेरा दायित्व लोगों के मध्य अपनी अच्छी छवि बनाने का नहीं वरन् लोक कल्याण सुनिश्चित करने का है। लोक कल्याण के कार्य करने के बाद की सुखानुभूति, किसी आलोचना से उत्पन्न कड़वाहट से ज़्यादा मीठी होती है। कार्यशैली पर प्रश्न उठाने वाले के लिये सबसे अच्छा उत्तर कार्य का उत्तम निष्पादन है। यदि मैं अपने लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में सही हूँ और परिणाम पर पूरा भरोसा है, तो कार्यशैली पर प्रश्न उठाने वालों के लिये मेरा परिणाम ही चुप करा सकता है। मैं स्वयं की ऊर्जा को उनके किसी आरोप का जबाव देने में न लगाकर अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित रखूंगा। महात्मा गांधी ने कहा था-“पहले लोग तुम्हें महत्त्व नहीं देंगे, फिर तुम पर हंसेंगे, फिर तुमसे लड़ेंगे और तब तुम जीतोगे।” मेरी किसी भी आलोचना का उत्तर बापू के इसी कथन में निहित है। मेरी जीत लोकसेवा के दायित्वों को क्षमतानुसार सुनिश्चित करने में है, किसी आलोचना से बचने में नहीं है। जहाँ तक सवाल इस प्रकार के लोगों से निपटने का है, कानूनी दायरे में रहते हुए यदि ऐसे तत्वों पर कोई सिविल या आपराधिक मामला बनता है, तो मैं कानून की शरण में अवश्य जाऊंगा। इसके अतिरिक्त उच्चाधिकारियों को यथास्थिति से अवगत कराते हुए अपनी कार्यशैली को स्पष्ट करूँगा। वर्तमान समय में सोशल मीडिया का उपयोग करते हुए मैं अपना पक्ष रख सकता हूँ। ऐसे में यदि ‘लोक समर्थन’ मिले तो वह किसी भी आलोचना को आधारहीन बना देगा।</s>
<s>[INST]“यह आवश्यक नहीं है कि एक अच्छा नागरिक एक अच्छा व्यक्ति भी हो।” इस कथन की व्याख्या करें।[/INST]उत्तर : महान दार्शनिक प्लेटो के अनुसार अच्छे नागरिक और अच्छे व्यक्ति में कोई अंतर नहीं होता, जबकि अरस्तु के अनुसार अच्छे नागरिक और अच्छे व्यक्ति अलग-अलग होते हैं। अच्छे नागरिक केवल स्वामी ही होते हैं, जबकि अच्छे व्यक्ति दास भी हो सकते हैं। अच्छा व्यक्ति होने के लिये आवश्यक है कि कोई व्यक्ति एक अच्छा नागरिक हो, हालाँकि यह आवश्यक नहीं कि एक अच्छा नागरिक भी एक अच्छा व्यक्ति हो। एक अच्छे व्यक्ति के गुण, एक अच्छे नागरिक के गुणों से कहीं अधिक श्रेष्ठ होते हैं। एक अच्छे व्यक्ति का शील ज्ञान पर आधारित होता है, परंतु एक अच्छे नागरिक का शील मत पर आधारित होता है। एक अच्छा नागरिक समुदाय, शहर और देश के लिये जो सबसे उपयुक्त कार्य है, उसे करता है। जब कोई देश के कानून का अनुसरण करता है और अपने आस-पास के लोगों को कोई हानि नहीं पहुँचाता और उनकी भलाई के लिये कार्य करता है तो वह एक अच्छा नागरिक है। एक अच्छा नागरिक अपने देश और सरकार के प्रति वफादार होता है। नागरिक के जो गुण होते हैं, वह उसके संविधान के अनुकूल होते हैं। अलग-अलग संविधान व कानूनों के अनुसार अच्छे नागरिक की अवधारणा भी भिन्न-भिन्न होती है। इस प्रकार नागरिक शासन के सापेक्ष होता है। अच्छे व्यक्ति की अवधारणा सार्वभौमिक रूप से एक ही होती है। एक अच्छे व्यक्ति को कुछ सार्वभौमिक मूल्यों जैसे- दया, करुणा, ईमानदारी, सत्यनिष्ठा आदि से युक्त होना चाहिये। एक अच्छे नागरिक और एक अच्छे व्यक्ति में अंतर कम करने के लिये किसी देश के कानूनों का निर्माण कुछ इस प्रकार होना चाहिये कि वे व्यक्ति को नैतिक बनने में मदद करें। यदि एक अच्छा व्यक्ति अच्छा नागरिक नहीं है तो इससे समाज की हानि होती है और यदि एक अच्छा नागरिक एक अच्छा व्यक्ति नहीं है तो व्यक्ति का विकास रुक जाता है। अतः कानूनों में नैतिकता के समावेश से अच्छे नागरिक को अच्छा व्यक्ति भी बनाया जा सकता है।</s>
<s>[INST]“भय और अधूरी इच्छाएँ ही समस्त दुखों का मूल हैं।[/INST]उत्तर : आधुनिक तकनीकी युग में मानव की उपलब्धियों की व्याख्या उसके द्वारा अर्जित भौतिक संसाधनों की प्राप्ति के रूप में होती है। वह अपनी उपलब्धियों को बढ़ाने की इच्छा से निरंतर प्रेरित रहता है। परंतु उसकी इच्छाएँ दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही हैं। वह अतिशीघ्रता से सभी प्राप्य भौतिक सुखों को पाना चाहता है। ऐसे में स्वाभाविक है कि पहला द्वंद्व सही और गलत रास्ते के चुनाव को लेकर होगा। जल्दबाज़ी में यदि गलत रास्ता चुन लिया तो भय भी उत्पन्न होगा क्योंकि भय की उपस्थिति प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व में बीज रूप में सदैव उपस्थित रहती है। यदि सही रास्ते का चयन किया तो संभव है कि कुछ इच्छाएँ अधूरी रह जाएँ। ऐसे में दोनों रास्ते ऐसी स्थिति में पहुँचाते हैं जो एक सीमा के पश्चात् दुख का कारण बनती है। वर्तमान में व्यक्ति को परिवार, समाज और कार्यस्थल पर विभिन्न प्रकार के निर्णय लेने होते हैं। इन निर्णयों में अनेक बार निजी हित और अन्यों के हितों का टकराव भी होता है, कई निर्णय गलत भी साबित होते हैं और अनेक बार हमारे निर्णय हमारी इच्छाओं की पूर्ति करने में असमर्थ होते हैं। प्रत्येक निर्णय में कुछ-न-कुछ द्वंद्व उपस्थित रहता है। इस द्वंद्व का आधार प्रायः भय और अधूरी इच्छाएँ ही होती हैं जो अंततः दुःख का कारण बनती हैं। परंतु, भय और अधूरी इच्छाओं से जीवन में सकारात्मक परिवर्तन भी संभव है। भय से कई बार मनुष्य अनुचित कार्य के प्रति हतोत्साहित होता है तथा अधूरी इच्छाएँ कई बार मनुष्य को महात्मा बुद्ध की तरह ज्ञान के प्रकाश की ओर भी ले जा सकती है।</s>
<s>[INST]‘नैतिक अभिवृत्ति’ से आप क्या समझते हैं ? नैतिक अभिवृत्ति पर सामाजिक मीडिया के प्रभावों की चर्चा करें।[/INST]उत्तर : नैतिक अभिवृत्ति वे अभिवृत्तियाँ हैं जो हमारी नैतिक प्रतिबद्धता के आधार पर निर्धारित होती हैं और ये लोगों को एक-दूसरे की सही या गलत अवधारणा को प्रकट करती हैं। नैतिक अभिवृत्तियाँ नैतिक मान्यताओं की तुलना में काफी दृढ़ होती हैं। उदाहरणस्वरूप, क्रिकेट के प्रति लोगों की अभिवृत्ति का नैतिकता के साथ कुछ लेना-देना नहीं है, शिक्षक के प्रति लोगों की अभिवृत्ति नैतिक विश्वास में निहित है। शिक्षा, परिवार, समाज, धर्म, जाति आदि नैतिक प्रतिबद्धता के गठन में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। टीवी, समाचार पत्र जैसे मास मीडिया, सामाजिक मीडिया से भी नैतिक अभिवृत्ति पर प्रभाव पड़ता है। नैतिक अभिवृत्ति पर सामाजिक मीडिया का प्रभावः सामाजिक मीडिया की बहुत आसान पहुँच होने के कारण यह दोधारी तलवार की तरह है। यह लोगों और समाज पर सकारात्मक तथा नकारात्मक प्रभाव डाल सकती है। इस माध्यम से अच्छे और बुरे दोनों संदेश/जानकारी बहुत आसानी से फैलते हैं और सूचना के प्रकार के आधार पर उसका प्रभाव समाज पर होता है। अगर जानकारी मूल्य, नैतिकता की तरह अच्छी चीजों के बारे में है, तो यह सकारात्मक प्रभाव डालती है, लोगों और समाज में मजबूत नैतिक अभिवृत्ति निर्माण करने में मदद करती है। उदाहरणस्वरूप निर्भया मामले में लोगों को जुटाने के और महिलाओं के मुद्दे के प्रति संवेदना व्यक्त करने में सामाजिक मीडिया की भूमिका बहुत बड़ी है। अगर जानकारी धार्मिक उग्रवाद, अश्लीलता, पोर्न वीडियो आदि की तरह गलत है, तो उससे व्यक्ति की नैतिक अभिवृत्ति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। उदाहरणस्वरूप आईएसआईएस सामाजिक मीडिया के माध्यम से युवाओं को आकर्षित करने के लिये अन्य धर्मों के प्रति नफरत के संदेशों का प्रसार और लोगों की भर्ती कर रहा है। इसके अलावा वर्तमान समय में युवाओं को सामाजिक मीडिया के माध्यम से अश्लील फिल्में तथा अश्लीलता परोसी जा रही है। यह युवाओं के व्यवहार की प्रवृत्ति को प्रभावित और गलत चीज़ों की ओर आकर्षित कर रही है। इसलिये सामाजिक मीडिया के माध्यम से नैतिक अभिवृत्ति पर सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। लेकिन सामाजिक मीडिया के माध्यम से नैतिक मूल्यों के बारे में जागरूकता के प्रसार से नैतिक अभिवृत्ति के गठन में एक सकारात्मक तरीके से उपयोग किया जा सकता है।</s>
<s>[INST]"आप जो कुछ भी करते हैं वह निरर्थक होगा, लेकिन यह महत्त्वपूर्ण है कि आप इसे करें।" वर्तमान शासन प्रणाली में, जहाँ प्रशासन पर रचनात्मकता और उत्तरदायित्व निर्वहन की कमी का आरोप लगाया जा रहा है, वहाँ इस कथन का क्या महत्त्व है ? आपके विचार से इस समस्या के समाधान के लिये कौन-से कदम उठाए जा सकते हैं ?[/INST]उत्तर : वर्तमान प्रशासन में रचनात्मकता की कमी और यथास्थिति देखने को मिलती है। इसका मुख्य कारण लालफीताशाही, समयाबद्ध सेवा वितरण का न होना, नौकरशाही का राजनीतिकरण, पहल करने के लिये प्रेरणा का अभाव, मीडिया ट्रायल इत्यादि है। इस परिदृश्य में बड़े सुधारों की कमी, युवा अधिकारियों में गिरता मनोबल, धीमी कार्य संस्कृति और मुद्दों से निपटने को कर्म परिवर्तनकारी दृष्टिकोण तथा अधिक वृद्धिशील दृष्टिकोण उभरकर सामने आया है। ऐसी स्थिति में किसी भी डर और निषेध के बिना कार्रवाई करने की आवश्यकता है। इस कारण इस परिदृश्य में वक्तव्य पूर्णतया यही प्रतीत होता है कि भले ही लक्षित जनता कम हो या प्रभाव क्षेत्र कम हो, किसी भी सार्वजनिक अधिकारी को जिम्मेदारी व निर्णय लेने से दूर नहीं भागना चाहिये। इस समस्या के निवारण हेतु निम्न कदम उठाये जा सकते हैंः 1. प्रक्रियात्मक (Procedural): (i) समयबद्ध डिलिवरी, जैसे-तेलंगाना में लोकसेवा विधेयक। (ii) परिणाम आधारित निगरानी। (iii) प्रदर्शन पर आधारित वेतन। (iv) समयाधारित आकलन (Timely Assessment)। 2. नैतिक (Ethical): (i) परस्पर संवादात्मक सेमिनार, जैसे-आईडीएस (Income Declaration Scheme) को जारी करने के पूर्व प्रधानमंत्री ने कर अधिकारियों के साथ ‘राजस्व ज्ञान संगम’ आयोजित किया। (ii) प्रोत्साहन सत्र। (iii) रोल मॉडल अभियानों का आयोजन। (iv) राजनैतिक तटस्थता मूल्य शिक्षण। (v) पारदर्शिता। (vi) भावनात्मक परामर्श। (vii) अधिकारियों द्वारा पहल (initiative) के जोखिम से सुरक्षा प्रदान करने के लिये वास्तविक गलती और दुर्भावनापूर्ण त्रुटि के बीच अंतर हेतु लेखा परीक्षा करना</s>
<s>[INST]‘प्रवाह’ की स्थितियाँ जैसा कि सकारात्मक मनोविज्ञान में परिभाषित हैं, एक अवस्था है जिसमें चुनौतियाँ और कौशल समान रूप से सुमेलित होती हैं, ये कार्यस्थल पर लोक प्राधिकारियों को अभिप्रेरित करने वाले महत्वपूर्ण कारक हो सकते हैं। (a) इस प्रकार की अवस्था कैसे प्राप्त की जा सकती है और इसके निहितार्थ क्या होंगे? (b) क्या आपको लगता है कि यह सभी कर्मचारियों के लिये समान रूप से उपयोगी है?[/INST]उत्तर : प्रवाह (flow) सकारात्मक मनोविज्ञान में ‘जोन’ (Zone) के नाम से भी जाना जाता है। यह एक ऐसी मानसिक स्थिति है जिसमें व्यक्ति एक गतिविधि (कार्य) को पूर्ण करने में सक्रिय ध्यान एवं पूर्ण भागीदारी से निमग्न हो जाता है तथा इस प्रक्रिया में आनंद का अनुभव करता है। यह एकाग्रता की स्थिति को प्रदर्शित करता है। विभिन्न इकाइयों (सरकारी या प्राइवेट) में कार्यरत कर्मचारियों की कार्यक्षमता संवर्धन हेतु यह एक आवश्यक मानसिक अवस्था है जिसे प्राप्त करने हेतु निम्न परिस्थितियाँ महत्त्वपूर्ण हैं- किसी व्यक्ति को अपने लक्ष्य और प्रगति की स्पष्ट जानकारी होनी चाहिये। यह कार्य करने की दिशा और संरचना को व्यवस्थित करता है। व्यक्ति के द्वारा किये गए कार्य हेतु स्पष्ट व त्वरित फीडबैक होना चाहिये। यह व्यक्ति को प्रदर्शन को समायोजित करने के साथ प्रवाह स्थिति को बनाए रखने में मदद करता है। व्यक्ति को कार्य की चुनौतियों व स्वकौशल का स्पष्ट ज्ञान होना चाहिये। साथ ही कार्य को पूरा करने हेतु स्वक्षमता पर विश्वास होना चाहिये। प्रवाह हेतु आवश्यक परिस्थितियों को देखने पर यह कहा जा सकता है कि आदर्श रूप में इसे सभी कर्मचारियों पर एकसमान रूप से लागू किया जाता है, परंतु व्यावहारिक स्तर पर ऐसा कर पाना संभव नहीं है। स्पष्ट है कि व्यावहारिक स्तर पर लक्ष्यों का स्पष्टीकरण, फीडबैक की तीव्रता और व्यक्तिगत कौशल सबंधी विशेषताओं की प्रत्येक कर्मचारी में भिन्नता पाई जाति है। यदि प्रथम दो परिस्थितियों अर्थात् लक्ष्यों के स्पष्टीकरण व फीडबैक की तीव्रता को सभी कर्मचारियों हेतु एकसमान भी कर लिया जाए तो भी व्यक्तिगत कौशल एक प्राकृतिक कारण के रूप में प्रवाह को चुनौती प्रस्तुत करता है। अतः इकाइयों को कर्मचारियों में प्रवाह की स्थिति को बढ़ाने हेतु अच्छी कार्य-संस्कृति के विकास का प्रयास करना चाहिये।</s>
<s>[INST]चिकित्सा क्षेत्र में विद्यमान विकास की व्यापक संभावनाओं के आलोक में व्यावहारिक नैतिकता के क्षेत्र में ‘जैव नैतिकता’ अत्यधिक रुचिकर क्षेत्र हो गया है। इसकी रूपरेखा को स्पष्ट करते हुए वर्तमान में इसकी प्रासंगिकता की चर्चा करें।[/INST]उत्तर : जैव नैतिकता, मेडिसिन एवं जीव विज्ञान में हुई प्रगति से उत्पन्न नैतिक विवादों का अध्ययन है। यह जैव-प्रौद्योगिकी, औषधि, राजनीति, कानून, जीव विज्ञान, के मध्य उठने वाले नैतिक प्रश्नों से संबंधित है। इसके अंतर्गत प्राथमिक देखभाल और चिकित्सा के अन्य आयामों से जुड़े नैतिक मुद्दों के प्रश्नों को उठाया जाता है। हालाँकि जैव नैतिकता के मुद्दों पर प्राचीन काल से बहस होती आई है परंतु वर्तमान में मानव क्लोनिंग, सरोगेसी, स्टेम सेल, यूथेनेशिया, गर्भपात, दवाइयों के ट्रायल आदि मुद्दों पर जैव नैतिकता का प्रश्न उभर पर सामने आया है। क्लोनिंग, सरोगेसी से लेकर दवाइयों के ट्रायल तक का मुद्दा किसी व्यक्ति या जीव को साधन बनाने पर आधारित है, अर्थात् इन सभी मुद्दों पर प्राप्त साध्य हेतु किसी व्यक्ति जीव को साधन बनाया जाता है। उदाहरण के तौर पर किसी दवा का ट्रायल गरीब व्यक्तियों या पशुओं पर किया जाता है जिसका दुष्प्रभाव इन पर पड़ता है। गर्भपात पर माँ के जीवन अधिकार व अजन्में बच्चे के अधिकार पर नैतिक दुविधा का प्रश्न उभरता है जो भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न कानूनों से दृष्टिगत होता है। यूथेनेशिया पर व्यक्ति के मानव अधिकारों व सक्रिय तथा निष्क्रिय इच्छामृत्यु पर नैतिक आयामों को स्पष्ट देखा जा सकता है। अतः व्यापक समाज के लाभ हेतु किसी को साधन बनाना उपयोगितावादी नैतिकता से साम्यता तो दर्शाता है परंतु साथ ही कांटवादी व गांधीवादी नैतिकता से वैषम्यता दर्शाता है। अतः इस परिप्रेक्ष्य में कानून के दायरे में रहते हुए जैव नैतिकता का पालन अनिवार्य है। ताकि इससे अधिक-से-अधिक मानवाधिकारों व पर्यावरण नैतिकता का समन्वय स्थापित किया जा सके। तकनीकी उन्न्यन को अधिक वस्तुनिष्ठ, न्यायप्रधान, मानवतावादी मूल्यों यथा सत्यनिष्ठा, करुणा, आदि से साम्यता को बनाया जा सके।</s>
<s>[INST]सिविल सेवक, जिन्होंने सरकारी आदेश का पालन करने के लिये स्वेच्छा से सरकार के साथ अनुबंध पर हस्ताक्षर किये हैं, वे उन आदेशों का पालन करने के लिये बाध्य हैं, भले ही वे आदेश उनके अंतःकरण के खिलाफ हों। क्या यह सत्य है? अपने मत के समर्थन में तर्क दीजिये।[/INST]उत्तर : हालाँकि सिविल सेवक सरकारी आदेश की अवज्ञा न करने के सांविधिक दायित्व के अधीन आते हैं, परंतु हमेशा वे अपनी अंतरात्मा के संकट के अधीन नहीं हो सकते, इसलिये जब सरकारी आदेश उनकी अंतरात्मा के खिलाफ जाता है तो उन्हें अपनी अंतरात्मा की आवाज़ का पालन करना पड़ता है। जब तक वे सेवा में रहते हैं उन्हें लगभग सभी मामलों में सही विवेक के अनुसार कार्य करना पड़ता है। विवेक का अर्थः जब हम विवेक की बात करते हैं, इसका अर्थ अच्छाई एवं बुराई के बारे में व्यक्तिगत कृत्य का एक बौद्धिक दृढ़ विश्वास है। जब व्यक्ति विवेक के तहत कार्य करता है वह अखण्डता को बनाए रखता है, इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति अपने विचार तथा कृत्य में एकरूपता बनाए रखता है। विवेक को मोटे तौर पर दो प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है- सच्ची अंतरात्मा या विवेक- यह त्रुटियों से मुक्त एक दृढ़ विश्वास को दर्शाता है। यह एक प्रकार का निर्णय है, जिसका चयन करने पर यह नैतिकता की दृष्टि से नकारात्मक परिणाम में परिणत नहीं होगा। झूठी अंतरात्मा या विवेक- यह गलत विवेक को दर्शाता है। यह एक प्रकार का निर्णय है जिस पर जब काम किया तब यह बुरा या नैतिकता की दृष्टि से नकारात्मक परिणाम में ही परिणत होगा। जब हम यह कहते हैं कि व्यक्तिगत कृत्य उसके ईमानदार विश्वास से संबंधित होना चाहिये, यही अंतरात्मा है और यह एक तर्क प्रक्रिया के माध्यम से प्राप्त किया जाना चाहिये। हम इस सच्चाई से अवगत हैं कि मानव दूसरे प्राणियों से भिन्न है क्योंकि मानव में ही समझदारी का एक अनूठा चरित्र व्याप्त है। इसलिये मानव स्वायत्तता तथा स्वतंत्र विचार का उपभोग करता है और इसके अधीन ही कार्य करता है। इसलिये जब मानव विवेक से कार्य करता है तो इसका परिणाम अच्छा होता है और जब अविवेक से कार्य करता है तब परिणाम बुरा होता है। सिविल सेवक को सच्चे विवेक के तहत कार्य करना चाहिये, इसके लिये उन्हें अविवेक से किये कार्य की जानकारी पहले होनी चाहिये। इसलिये जब वह अच्छे विवेक के अंतर्गत कार्य करेगा तो यह नैतिकता की दृष्टि से वांछनीय होगा। किसी समय कोई निर्णय अविवेक के तहत हो सकता है। उस मामले में सिविल सेवक को विनम्रतापूर्वक स्वीकार करना चाहिये कि उसका निर्णय गलत है और उचित कार्रवाई करनी चाहिये। सिविल सेवक को अपनी अंतरात्मा की आवाज़ की दिशा में कार्य करने से पहले स्वविवेक के करीब पहुँचने के पर्याप्त प्रयास सुनिश्चित करने चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि सिविल सेवक को कार्य करने से पहले स्वविवेक का पर्याप्त अनुभव हासिल कर लेना चाहिये। संदिग्ध विवेक के मामले में सिविल सेवक को कार्रवाई नहीं करनी चाहिये। परंतु जब स्थिति यह हो कि संदेह को हल किया जा सकता है, वहाँ वे इन रणनीतियों का अनुसरण कर सकते हैं-: 1. व्यक्ति बहुत संभव प्रतीत होने वाले निर्णय का चयन कर सकता है, या 2. जो निर्णय ज़्यादा ठोस संभावित प्रतीत होता हो। अगर विवेक अभी भी संदिग्ध प्रतीत होता है, तो विवेक का पालन नहीं करना चाहिये। इन मामलों में कानून का पालन किया जाना चाहिये।</s>
<s>[INST]निम्नलिखित के अंतर स्पष्ट करें – (i) प्रतिमान (मानदण्ड) और मूल्य (ii) भावुकतावाद और व्यक्तिपरकतावाद (iii) दृढ़तामूलक न्याय और वितरणमूलक न्याय (iv) कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व[/INST]उत्तर : (i) प्रतिमान (मानदंड) और मूल्य किसी सामाजिक समूह द्वारा जिन बातों को नैतिक रूप से सही या अच्छा बताया जाता है, उनका समुच्चय ही मूल्य है। उदाहरणः ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, ज़िम्मेदारी मानदंड, समाज द्वारा प्रबंधित व्यवहार के सामान्य स्थापित मानक होते हैं। यह औपचारिक या अनौपचारिक दोनों हो सकता है। जैसे- किसी देश का कानून वहाँ का मानदंड है। (ii) भावुकतावाद और व्यक्तिपरकतावाद कुछ दार्शनिकों का मानना है कि नैतिकता व्यक्तिपरक है। इसके अनुसार नैतिक दावे दो तरह के होते हैं- (क) मात्र हमारी भावनाओं की अभिव्यक्ति होते हैं (ख) हमारी भावनाओं का प्रस्तुतीकरण होते हैं। प्रथम भावुकता के अंतर्गत आता है जबकि द्वितीय आत्मवाद के अंतर्गत आता है। उदाहरणः गांधीजी द्वारा अपने भाई के चुराए सामान को गलत समझना ‘भावुकता’ है, परंतु इस भावना को पत्र लिखकर अपने पिता को बताना और फिर कभी ऐसा न करने का आश्वासन देना आत्मवाद (Subjectivism) है। (iii) दृढ़तामूलक न्याय और वितरणमूलक न्याय दृढ़ न्याय का आशय चीज़ों को उनकी पुरानी स्थिति में पहुँचाने से है अर्थात् जैसी वे पहले थी। इसे सुधारात्मक न्याय भी कहा जाता है। इसमें अपराधी अपने कृत्य हेतु माफी महसूस करता है व इसमें पश्चाताप का भाव होता है। वितरणात्मक न्याय को आर्थिक न्याय के रूप में भी जाना जाता है। यह निष्पक्षता को सुनिश्चित करता है। इसकी जड़े सामाजिक व्यवस्था में हैं और यह समाजवाद का आधार है जिसका मौलिक सिद्धांत समानता है। (iv) कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व कर्त्तव्य किसी चीज़ या व्यक्ति के प्रति नैतिक प्रतिबद्धता है। इसमें कुछ करने की सक्रिय भावना होती है। इसमें व्यक्ति कार्य में बिना किसी निजी हित के सम्मिलित होता है। जैसेः संविधान का समर्थन करना किसी व्यक्ति का कर्त्तव्य है। ज़िम्मेदारी बिना किसी पर्यवेक्षण के अपनी इच्छा पर कार्य करने की क्षमता है। इसमें व्यक्ति कार्य को पूर्ण करने का आत्मदायित्व महसूस करता है।</s>
<s>[INST]नैतिकता की दृष्टि से अपूर्ण माहौल में राजनीति में पूर्णता की उम्मीद करना अवास्तविक एवं एकपक्षीय है। भारतीय राजनीति में नैतिक मूल्यों के क्षरण के क्या कारण हैं? राजनीति में नैतिक मूल्यों में कैसे सुधार लाया जा सकता है?[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा- राजनीति में नैतिकता की आवश्यकता को संक्षेप में व्यक्त करें। राजनीति में नैतिक मूल्यों के क्षरण के कारणों का उल्लेख करें। राजनीति में नैतिक मूल्यों में सुधार के लिये उपाय सुझाएँ। राजनीति में बने कुछ महत्त्वपूर्ण नैतिक मानक, गहराई से शासन के सभी पहलुओं को प्रभावित करते हैं। नागरिक अपने प्रतिनिधियों से उनके पेशेवर और निजी जीवन में उच्च नैतिक मानकों को बनाए रखने की अपेक्षा करते हैं और समाज की अच्छाई के लिये प्रतिबद्धता से काम करने की उम्मीद रखते हैं। लेकिन हाल के दिनों में हमने अपने राजनीतिक प्रतिनिधियों द्वारा अनैतिक प्रथाओं के विभिन्न उदाहरणों को देखा है, इसलिये नैतिकता की दृष्टि से अपूर्ण माहौल में राजनीति में पूर्णता की उम्मीद करना अवास्तविक ही होगा। राजनीति में नैतिक मूल्यों के क्षरण के कारण- धनबल और बाहुबल के आधार पर अनेक अपराधी राजनीति में आ रहे हैं। अपनी राजनीतिक सफलता की वजह से बेईमान और भ्रष्ट लोग जनता के प्रेरणास्रोत बन रहे हैं, इससे समाज की नैतिकता पर असर पड़ रहा है। केवल अच्छे नेता ही विकास और प्रगति की दिशा में लोगों का नेतृत्व कर सकते हैं और वे समाज की बुराइयों के खिलाफ लड़ सकते हैं। भारत में अच्छे नेताओं की काफी कमी है। लोगों की सामाजिक स्थिति को उनकी धन-संपत्ति से मापने की सामाजिक मानसिकता भ्रष्टाचार के लिये प्रोत्साहित करती है। इसीलिये लोग किसी भी माध्यम से अपनी संपत्ति वृद्धि पर ज़ोर देते हैं और इसके लिये भ्रष्टाचार एक आसान माध्यम है। इस भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा शिकार सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं का वितरण है। चुनाव में उम्मीदवार बहुत बड़े पैमाने पर खर्च करता है और जीतने के बाद उस पैसे की प्रतिपूर्ति के लिये लग जाता है। राजनीति में बढ़ता हुआ पक्षपात, भाई-भतीजावाद इत्यादि नैतिक मूल्यों का और क्षरण कर रहे हैं। राजनीति में नैतिक मूल्यों में सुधार करने के लिये सुझाव- सभी राजनीतिक दलों द्वारा भ्रष्टाचार मुक्त समाज बनाने के लिये आचार संहिता को अपनाना, उदाहरण- आपराधिक रिकॉर्ड रखने वाले व्यक्तियों को पार्टी का टिकट न देना। सभी राजनीतिक दलों द्वारा प्रतिवर्ष अपने आय-व्यय खातों का खुलासा करना और सभी पार्टियों को आरटीआई के दायरे में लाना चाहिये।</s>
<s>[INST]प्रायः समाचारों में खबरें आती रहती हैं कि भारतीय सेना में अधिकारियों की बहुत कमी है। देश के युवाओं का सेना से लगाव सोशल मीडिया पर तो दिखाई देता है परंतु सेना में भर्ती होकर देश-सेवा करना उनकी प्राथमिकता नहीं होती। वे क्या कारण हैं जिनके चलते आज के युवाओं की अभिवृत्ति ऐसी हो गई है? आपके विचार से अनिवार्य सैन्य सेवा लागू कर देना, क्या एक उचित कदम होगा?[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा- युवाओं की सेना में कम रुचि होने के कारण लिखें। देश में अनिवार्य सैन्य सेवा पर अपना मत प्रस्तुत करते हुए निष्कर्ष लिखें। वर्तमान में भारतीय सेना के तीनों अंगों में लगभग ग्यारह हजार अधिकारियों की कमी है। ऐसा नहीं है कि भारतीय युवा अपने देश से प्रेम नहीं करते या वे देश सेवा के लिये तत्पर नहीं है। परंतु यह भी सही है कि विभिन्न कारक उन्हें सेना को पेशे के तौर पर अपनाए जाने से रोकते अवश्य हैं, जैसे- सेना में अधिकारियों से कड़े अनुशासन और कठिनतम परिस्थितियों में कार्य करने की अपेक्षा की जाती है, परंतु आज के मेट्रो शहरों में रहने वाले युवा इन कठिन परिस्थितियों में कार्य करने के बजाय कॉरर्पोरेट सेक्टर की आरामदायक नौकरी करना अधिक पसंद करते हैं। निजी क्षेत्र में मिलने वाले वेतन व अन्य सुविधाएँ सेना में दिये जाने वाले वेतन व सुविधाओं से अधिक आकर्षक हैं। अतः युवाओं की अभिवृत्ति निजी क्षेत्र में जाने की रहती है। निजी क्षेत्र में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और योग्यता के अनुरूप पदोन्नति के अवसर भी सेना से अधिक हैं, जबकि सेना में कठोर अनुशासन का पालन किया जाता है और पिरामिड नुमा ढाँचा होने के कारण पदोन्नति के अवसर भी कम हैं। बार-बार स्थानांतरण, परिवार से लंबे समय तक अलगाव, अत्यधिक तनाव युक्त कार्यस्थितियाँ, विवाह के उपरांत कठिन वैवाहिक जीवन आदि वे परिस्थितियाँ हैं जो युवाओं को सेना को एक पेशे के रूप में अपनाने से रोकती हैं। इन सबके बावजूद देश में ऐसे युवाओं की कमी नहीं है जो सेना की कठोर जीवन शैली को स्वीकारते हैं और सेना में शामिल होकर देश की सेवा करते हैं। वैसे ऐसा भी नहीं है कि केवल सेना में शामिल होकर ही देश सेवा की जाती है। युवा अपने मनवांछित क्षेत्रों में श्रेष्ठतम उद्यम करके भी देश की सेवा करते हैं। जहाँ तक अधिकारियों की कमी को पूरा करने के लिये अनिवार्य सैन्य सेवा लागू किये जाने का प्रश्न है तो अभी इसकी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। सातवाँ वेतनमान व वन रैंक वन पेंशन की मांग मान लिये जाने के बाद युवाओं का रूझान सेना को पेशे के तौर पर अपनाने के प्रति निश्चित रूप से बढ़ा है। इसके अतिरिक्त सेना भी अपनी प्रशिक्षण सुविधाओं को तेजी से विस्तारित करते हुए अधिकारियों में 18 प्रतिशत कमी को सन् 2021 तक 12 प्रतिशत पर लाने के लिये कार्य कर रही है।</s>
<s>[INST]"एक संतुष्ट सूअर होने की अपेक्षा असंतुष्ट मनुष्य होना श्रेष्ठ है, संतुष्ट मूर्ख होने की अपेक्षा असंतुष्ट सुकरात होना श्रेष्ठ है।" आपके लिये उपरोक्त अवतरण का वर्तमान संदर्भ में क्या महत्त्व है? स्पष्ट कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रसिद्ध उपयोगितावादी दार्शनिक जे.एस.मिल ने यह प्रसिद्ध कथन अपनी उस मान्यता के परिप्रेक्ष्य में दिया है जिसके अनुसार वो विभिन्न प्रकार के सुखों में न केवल मात्रात्मक अपितु गुणात्मक अंतर भी स्वीकारते हैं। एक पशु की प्रवृत्ति भोग (भोजन) और काम में ही सुख प्राप्त करने की होती है जबकि एक मनुष्य भोग और काम के अलावा खेल, साहित्य, ऐश्वर्य आदि में सुख खोजता है और इस प्रक्रिया में पशु की अपेक्षा कम संतुष्ट रहता है, परंतु उसकी प्रवृत्ति पशु से श्रेष्ठ है। इसी प्रकार एक ज्ञानी, परोपकारी पुरुष सदैव ज्ञान की खोज और दूसरों का भला करने की चाह में प्रायः असंतुष्ट ही रहता है क्योंकि न तो ‘पूर्ण ज्ञानी’ होना संभव है और न ही समस्त संसार के प्राणियों को सुखी बना देना। परंतु, वह ज्ञानी और परोपकारी उस संतुष्ट मूर्ख से श्रेष्ठ है जिसने अपने सुख के सभी साधन जुटा लिये हों तथा अपने ज्ञान को ही पूर्ण ज्ञान समझता हो। वर्तमान परिदृश्य में देखें तो लोग भौतिक सुख की चाह में व्याकुल और विचलित हैं। वे सुखों की उत्कृष्टता एवं निकृष्टता पर गौर करने की बजाय अपने बौद्धिक एवं मानसिक उत्थान की जगह क्षणिक शारीरिक सुखों को प्राप्त करने में अपनी ऊर्जा व्यय कर रहे हैं। उन्हें सुखों की उच्चतर स्थिति का एहसास नहीं है। उदाहरण के तौर पर डॉ.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के जीवन में राष्ट्रपति बनने तक का सफर तय करने के पश्चात् भी एक असंतुष्टी का भाव था, वह असंतुष्ट थे, क्योंकि वे एक शिक्षक के तौर पर अपने ज्ञान का सर्वसार युवाओं पर लुटाना चाहते थे। इस लिहाज़ से वे एक वैभवशाली व विलासितापूर्ण जीवन जीने वाले संतुष्ट इंसान से कहीं श्रेष्ठ थे। महात्मा गांधी ने भी सदा ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ का आदर्श सबके सामने प्रस्तुत किया। उनके जीवन परिचय से ज्ञात होता है कि दूसरों की मदद करने में, सफाई रखने में, साहित्य पढ़ने और लेख लिखने में उन्हें अत्यधिक खुशी मिलती थी। मेरी भी यही अवधारणा है कि हमें श्रेष्ठ प्रवृत्तियों का विकास तथा उच्चतर सुखों की खोज का प्रयास करना चाहिये।</s>
<s>[INST]‘नैतिक सापेक्षतावाद’ और ‘नैतिक वस्तुनिष्ठतावाद’ से आप क्या समझते हैं? क्या आप मानते हैं कि ये अवधारणाएँ भारत जैसे बहुलवादी समाज में सामाजिक विवादों का समाधान करने में सहायक हो सकती हैं?[/INST]उत्तर : नैतिक सापेक्षवाद का आशय व्यक्तिगत मान्यताओं से है। इसके अंतर्गत कोई व्यक्ति सोचता है कि नैतिक रूप से, क्या सही या गलत है। यह दो प्रकार का होता है- 1. व्यक्ति सापेक्षः व्यक्तिगत स्तर पर मान्य सही/गलत ही नैतिक रूप से सही-गलत होता है। यह व्यक्ति सापेक्ष अवधारणा है। इसमें नैतिक तथ्य एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में बदल जाते हैं, जैसे- लिव-इन रिलेशनशिप का मुद्दा। 2. समाज सापेक्षः इसमें नैतिकता समाज व संस्कृति के आधार पर निर्धारित होती है। यह समाज सापेक्ष अवधारणा है, जैसे- माँसाहार जैन समाज के लिये अनैतिक तो अन्य धर्म में नैतिक माना जाता है। नैतिक सापेक्षवाद से इतर नैतिक निष्पक्षतावाद में मूल्य देश, काल, समाज, संस्कृति से निरपेक्ष हैं। यह प्रत्येक स्थिति में एक समान मान्य होते हैं, जैसे- सत्यनिष्ठा, ईमानदारी इत्यादि मूल्य। इसकी दो अवधारणाएँ हैं- परिणाम निरपेक्ष और परिणाम सापेक्ष। मेरी राय में भारत जैसे बहुलतावादी समाज में झगड़ों के समाधान में नैतिक सापेक्षवाद और नैतिक निष्पक्षतावाद दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं। जहाँ राज्य, मीडिया व प्रशासन के स्तर पर प्राथमिक तौर पर नैतिक निष्पक्षतावाद के मूल्यों को समाहित करना महत्त्वपूर्ण है। इससे राज्य, मीडिया व प्रशासन में अपने कार्यों के प्रति निष्पक्षता, वस्तुनिष्ठता, सत्यनिष्ठा, जवाबदेही जैसे मूल्यों को समावेशित करने का भाव बढ़ेगा। साथ ही, सांस्कृतिक विविधता से सामंजस्य बैठाने को नैतिक सापेक्षतावाद का समन्वय महत्त्वपूर्ण है। वहीं व्यक्तिगत व सामाजिक स्तर पर नैतिक सापेक्षवाद के मूल्यों को नागरिकों में समावेशित करना आवश्यक है। इससे नागरिकों में एक-दूसरे की मान्यताओं के प्रति सहिष्णुता का प्रचार होगा जो भारत में सांस्कृतिक समरसता के प्रसार के लिये महत्त्वपूर्ण है। व्यक्तिगत स्तर पर नैतिक निष्पक्षता संबंधी मूल्य जैसे- सत्यनिष्ठा, ईमानदारी, करूणा इत्यदि का होना आवश्यक है। यदि यह नैतिक सापेक्षतावाद और नैतिक निष्पक्षतावाद के मूल्यों का राज्य, प्रशासन व मीडिया और भारतीय जनता में प्रवाह बढ़ जाए तो दंगों, 'lynching', आपसी असद्भाव इत्यादि समस्याओें का व्यापक समाधान हो सकता है जो सशक्त राष्ट्र के निर्माण हेतु वांछनीय है।</s>
<s>[INST]अंततः कानून ही नैतिक शासन के लिये आधार के रूप में कार्य कर सकता है। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? अपने जवाब की औचित्य के साथ व्याख्या करें।[/INST]उत्तर : अंततः कानून ही नैतिक शासन के लिये आधार के रूप में कार्य कर सकता है। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? अपने जवाब की औचित्य के साथ व्याख्या करें। उत्तर- कानून सरकार द्वारा संहिताबद्ध मानदंड है, जो अपने नागरिकों के साथ सिविल सेवक को क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये, को परिभाषित करता है। लोकतंत्र में कानून लोगों के प्रतिनिधियों द्वारा बनाया जाता है, इसलिये परोक्ष रूप से लोगों ने इन कानूनों पर अपना अनुमोदन दिया होता है। अंततः ये कानून वास्तव में देश के लोगों की माँग को पूरा करने के लिये सिविल सेवकों को क्या करना चाहिये, उसे परिभाषित करते हैं। जब तक सिविल सेवक लोगों की माँग को समझ नहीं पायेंगे, तब तक वे ठीक तरह से सेवा नहीं कर पायेंगे। इन परिस्थितियों में कानून जनता के हित में सिविल सेवकों को कर्त्तव्यों का प्रदर्शन करने में उन्हें मदद करते हैं। इस तरह कानून नैतिक शासन लाने के लिये मदद करता है। मानव जीवन का अधिकार, शांति, खुशी का अधिकार जैसे कुछ प्राकृतिक अधिकारों के साथ पैदा होता है और जो कानून इन अधिकारों का उल्लंघन करते हैं वे नैतिक शासन नहीं ला सकते हैं। जो कानून प्राकृतिक अधिकारों की रक्षा करने में विफल होते हैं, उन कानूनों को अनुचित माना जाता है। जो कानून प्राकृतिक कानून के अनुरूप हैं, उन्हें न्यायोचित माना जाता है और अगर वे प्राकृतिक नियम का उल्लंघन करें तो वे नैतिक शासन नहीं ला सकते हैं।</s>
<s>[INST]आप एक ज़िले के किसी महत्त्वपूर्ण सरकारी कार्यालय के प्रमुख हैं। कुछ समय पहले आपके कार्यालय में एक चपरासी की नियुक्ति हुई है। वह अशिक्षित है और उसके पास काम के लिये आवश्यक बुनियादी जानकारी भी नहीं है। वह हमेशा गपशप में लगा रहता है। वह स्टाफ के वरिष्ठ सदस्यों के आदेश का पालन भी नहीं करता है। आप जानते हैं कि कार्यालय में उसकी नियुक्ति उसी कार्यालय में कार्यरत रहे उसके पिता की मृत्यु के बाद अनुकंपा के आधार पर हुई है। उसकी माँ अक्सर बीमार रहती है। एक चपरासी के रूप में उसकी नौकरी ही उसके परिवार के लिये आय का एकमात्र स्रोत है। आप गरीब लोगों के प्रति अपनी सहानुभूति के लिये जाने जाते हैं। अ) इस स्थिति से निपटने के लिये आपके पास कौन-से विकल्प उपलब्ध हैं? ब) आप किस विकल्प का चयन करेंगे और क्यों?[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा- मामले में शामिल नैतिक मुद्दों को ढूँढे और मामले के बारे में संक्षिप्त परिचय दें। फिर विभिन्न विकल्पों का पता लगाएँ और उनके पक्ष और विपक्ष का विवरण दें। अंत में, सभी विकल्पों का परीक्षण कर सबसे अच्छा विकल्प चुनें। उपरोक्त मामले में शामिल नैतिक मुद्दे हैं - चपरासी को अनुकंपा के आधार पर नियुक्त किया गया था, लेकिन कार्यालय की "कार्य-संस्कृति" और अन्य कर्मचारियों की "कार्य कुशलता" उसके कारण प्रभावित हो रही है। हालाँकि यह भी देखा जाना चाहिये कि व्यक्ति निरक्षर है और काम के माहौल से अपरिचित है। इसके अलावा, उसकी गरीब स्थिति को देखते हुए, वह एक सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार का हकदार भी है। उपलब्ध विकल्प: उसे कार्यालय में काम करने दिया जाए और दूसरों के साथ सहयोग करने के लिये प्रोत्साहित किया जाए। यह चपरासी के दृष्टिकोण से अच्छा होगा क्योंकि उसके पास आय का कोई अन्य स्रोत नहीं है और वह घर का एकमात्र आय अर्जक है। लेकिन इससे संगठन की कार्यप्रणाली प्रभावित होगी जिससे कार्यालय के अन्य लोगों पर भी इसका असर पड़ेगा। ज़िले के किसी अन्य कार्यालय में उसका स्थानांतरण कर दिया जाए। यह समस्या का एक अस्थायी समाधान है। यह एक कार्यालय की समस्या का समाधान कर उस कार्यालय की कार्य-संस्कृति को प्रभावित करेगा, जहाँ उसे स्थानांतरित किया जाएगा। अनुशासनात्मक कार्रवाई करना। यह कदम कार्यालय में अनुशासनहीनता के खिलाफ सख्त संदेश देगा, लेकिन यह गरीब चपरासी और उसके परिवार के लिये बड़ी कठिनाई उत्पन्न कर देगा। उसे अपने कौशल को बेहतर बनाने का एक अवसर प्रदान किये बिना किसी व्यक्ति को नौकरी से निकाल देने का यह कदम सही नहीं होगा। व्यवहार परिवर्तन और कौशल प्रशिक्षण के लिये व्यवस्थित करें। चपरासी के काम के लिये ज्यादा तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। उसके व्यवहार की वजह से यहाँ अधिक समस्याएं हैं, अतः सबसे पहले, व्यवहार परिवर्तन के एक सत्र का आयोजन किया जाना चाहिये और उसे कार्यालयीन अनुशासन के बारे में अवगत कराया जाना चाहिये। बी) सबसे उपयुक्त कार्रवाई का विकल्प पहले चौथे विकल्प के लिये जाना है और अगर स्थिति में ज़्यादा सुधार नहीं होता तो उसे हटा दिया जाना चाहिये। यह संभव है कि उस व्यक्ति को परवरिश के दौरान शिष्टाचार सीखने का अवसर ही नहीं मिला हो, अतः उसे सुधरने का एक उचित मौका दिया जाना चाहिये। उपयुक्त प्रशिक्षण, प्रोत्साहन प्रदान करके व्यवहार को बदला जा सकता है। यदि व्यवहार परिवर्तन सत्र और कौशल प्रशिक्षण दोनों का ही प्रभाव न पड़े, तो उसे हटा दिया जाना चाहिये।</s>
<s>[INST]निम्नलिखित के बीच विभेद करें। (i)अंतःकरण एवं इच्छा शक्ति (ii) आचार संहिता और आचरण संहिता (iii) दृढ़ता और धारण (Perseverance and Persuasion) (iv) नैतिक दुविधा एवं नैतिक चिंता[/INST]उत्तर : i) अंतःकरण एवं इच्छा शक्ति अंतःकरण को व्यक्ति के गलत और सही के नैतिक भाव के रूप में देखा जाता है। उचित-अनुचित के मध्य विभेद की नैतिक शक्ति जो व्यक्ति के व्यवहार को निर्धारित करती है या दिशा देती है, उसे अंतःकरण के रूप में देखा जाता है। बटलर के अनुसार, अंतःकरण के दो पक्ष हैं- ज्ञानात्मक पक्ष, जो बताता है कि किसी विशिष्ट स्थिति में कौन-सा नियम या कर्म नैतिक है और कौन- सा अनैतिक है तथा अधिकारात्मक पक्ष जो व्यक्ति पर दबाव बनाता है कि वह अंतःकरण के निर्णय को स्वीकारे और उसी के अनुरूप आचरण करे। ‘इच्छा शक्ति’ से तात्पर्य व्यक्ति की मानसिक शक्ति से है जिसके बल पर वह अपनी अंतरात्मा के निर्णयों एवं नैतिक फैसलों को दृढ़ता से लागू करने की कोशिश करता है। प्रायः मज़बूत इच्छा शक्ति के अभाव में अंतःकरण की आवाज़ दबकर रह जाती है। (ii) आचार संहिता और आचरण संहिता आचार संहिता और आचरण संहिता दोनों का संबंध प्रशासन एवं प्रबंधन में नैतिकता की स्थापना से है। व्यावहारिक तौर पर इन्हें पूर्णतः अलग करना संभव नहीं है किंतु सैद्धांतिक तौर पर इनमें अंतर किया जा सकता है। इन दोनों में आचार संहिता मूल आधार है, जिसमें कुछ नैतिक मूल्यों को शामिल किया जाता है, जबकि आचरण संहिता आचार संहिता पर आधारित एक दस्तावेज़ होता है जो निश्चित कार्यों या आचरणों के बारे में स्पष्ट करता है कि वे किये जाने चाहिये या नहीं। (iii) दृढ़ता और धारण ‘दृढ़ता का अर्थ है- किसी दूरगामी तथा कठिन उद्देश्य की प्राप्ति होने तक धैर्य और आंतरिक प्रेरणा बनाए रखना। बीच-बीच में आने वाली चुनौतियों तथा बाधाओं से हतोत्साहित करने वाली परिस्थितियों से अपनी आशावादी मानसिकता के साथ संघर्ष करते रहना। ‘धारण’ या ‘अनुनयन’ एक विशेष प्रकार का संप्रेषण या अभिव्यक्ति है जिसका प्रयोग किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह की अभिवृत्ति परिवर्तित करने के लिये किया जाता है। यह उद्देश्यपूर्ण होता है। (iv) नैतिक दुविधा एवं नैतिक चिंता नैतिक दुविधा सामान्यतः उस स्थिति को कहते हैं जब किसी व्यक्ति के पास दो या दो से अधिक विकल्प हों और किसी एक विकल्प को चुनना अनिवार्य हो (निर्णय को टाला न जा सकता हो), परंतु वे सभी विकल्प अलग-अलग नैतिक मूल्यों पर आधारित हों तथा विकल्प ऐसे हों कि किसी भी एक को चुनकर पूर्ण संतुष्टि मिलना संभव न हो। जबकि ऐसा कोई कार्य या स्थिति जिसमें किसी नैतिक पक्ष का उल्लंघन हुआ हो या होने की संभावना हो, बेशक अभी कर्त्ता के मन में नैतिक दुविधा उत्पन्न न हुई हो या वह स्थिति उस कर्मचारी या संगठन के लिये कुछ अन्य लाभ ही क्यों न पैदा करती हो, नैतिक चिंता कहलाती है।</s>
<s>[INST]चर्चा करें कि नैतिक शासन और जवाबदेही कैसे जुड़े हैं। इसके अलावा प्रशासन में नैतिक जवाबदेही के लिये बाधाओं पर भी चर्चा करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा- शासन और उसके घटकों में जवाबदेही के महत्त्व को स्पष्ट करें। जवाबदेही और नैतिक शासन के बीच लिंक पर चर्चा करें। प्रशासन में जवाबदेही सुनिश्चित करने में चुनौतियों का वर्णन करें। निष्कर्ष जवाबदेही की अवधारणा के दो बुनियादी अर्थ हैं: जवाबदेही और प्रवर्तन। उत्तरदायित्व, सरकार तथा उसकी एजेंसियों और सार्वजनिक अधिकारियों के दायित्वों को संदर्भित करता है कि वे अपने फैसलों और कार्यों के बारे में जनता को जानकारी प्रदान करें और उनके औचित्य को जनता के सामने प्रकट करें। जवाबदेही और नैतिक शासन: जवाबदेही और नैतिक शासन निकटता से संबंधित है। जवाबदेही, शक्ति का दुरुपयोग नियंत्रित करती है और यह सुनिश्चित करती है कि कार्य-निष्पादन मानदंडों के अनुरूप होगा। दूसरी तरफ, प्रभावी जवाबदेही, प्रशासन प्रणाली में नैतिक मानकों की उपलब्धि में मदद करती है। नैतिकता को "स्व-जवाबदेही" या प्रशासकों पर आंतरिक जाँच के रूप में माना जा सकता है। "व्यवहार में नैतिकता का स्तर जितना अधिक होगा, जवाबदेही सुनिश्चित कराने वाले बाहरी साधनों की ज़रूरत कम पड़ेगी। हालाँकि, नैतिक जवाबदेही के समक्ष कुछ बाधा डालने वाले कारक भी हैं, जो कि निम्नलिखित हैं- विशेष कौशल और सूचना नौकरशाहों तक सीमित होती है। विभागों के बीच समन्वय का अभाव अत्यधिक सुरक्षा (उदाहरण के लिये भारत में आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम) भ्रष्टाचार ( शक्ति का दुरुपयोग) तकनीकी पक्षों पर अधिक बल दिया जाता है, जबकि विकास प्रक्रियाओं के दौरान मानव मूल्यों की उपेक्षा की जाती है। अधिकारी समूह और कर्मचारी यूनियन खराब कार्य निष्पादन वाले सरकारी कर्मचारियों के गलत कामों पर पर्दा डालते हैं। अतः जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिये प्रशासन में हितधारकों की भागीदारी और पारदर्शितापूर्ण कार्य-निष्पादन ज़रूरी है।</s>
<s>[INST]राजनय (डिप्लोमेसी) में नैतिकता की क्या आवश्यकता है? उन सिद्धांतों का उल्लेख करें जो वैश्विक कानूनों और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को प्रशासित करते हैं।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा- उदाहरण के माध्यम से कूटनीति या राजनय में नैतिकता की आवश्यकता को समझाएँ। वैश्विक कानूनों और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को प्रशासित करने वाले सिद्धांतों का उल्लेख करें। निष्कर्ष आज हम सभी आपस में जुड़े हुए एक विश्व में रहते हैं। दुनिया के एक हिस्से में होने वाली घटना विश्व के सभी हिस्सों को प्रभावित करती है। इससे पहले भी, यूरोप में औद्योगिक क्रांति ने विश्व स्तर पर पूंजी, श्रम और पर्यावरण को प्रभावित किया। एक देश में गृह युद्ध सीमा पार पलायन (क्रॉस बॉर्डर माइग्रेशन) का कारण बन गया है। हालिया उदाहरण सीरियाई संकट और अरब संकट का है। शरणार्थी समस्या एक देश तक ही सीमित नहीं है, जैसा कि म्याँमार में रोहिंग्या के मामले में देखा जा सकता है। एक देश में मानवाधिकारों के उल्लंघन ने वैश्विक चिंता को उभारा है। इन उदाहरणों के माध्यम से कूटनीति में नैतिकता की आवश्यकता का औचित्य सिद्ध किया गया है। इस प्रकार वैश्विक कानून की उपस्थिति और साथ ही दुनिया भर में मानवाधिकारों के संरक्षण में शक्तिशाली देशों के हस्तक्षेप की आवश्यकता होती है। हालाँकि इन हस्तक्षेपों को कुछ सिद्धांतों के आधार पर और अधिक नैतिक होना चाहिये, जैसे- राष्ट्रों की सार्वभौमिक समानता। देशों की क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करना। अन्य देशों के घरेलू मामलों में राजनीतिक स्वतंत्रता और गैर-हस्तक्षेप। लोगों के आत्मनिर्णय का अधिकार। मानव अधिकारों के विषय में नागरिकों का अधिकार। शांतिपूर्ण समाधान का अधिकार। गंभीर खतरों के अलावा और अकारण हथियारों का उपयोग न करना। संधियों के तहत अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों का पालन करना। इस प्रकार अंतर्राष्ट्रीय संबंध और वैश्विक कानूनों को एक आदर्श और समृद्ध विश्व व्यवस्था के लिये उपरोक्त सिद्धांतों का पालन करना चाहिये।</s>
<s>[INST]मेडिकल एथिक्स से क्या अभिप्राय है? इससे जुड़े नैतिक पहलू कौन-कौन से हैं?[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा- मेडिकल एथिक्स की परिभाषा दें। चिकित्सकीय आचार-शास्त्र से जुड़े पहलुओं का उल्लेख करें। निष्कर्ष लिखें। नीतिशास्त्र की वह शाखा जिसके अंतर्गत हम चिकित्सा-प्रणाली एवं चिकित्सकों के व्यवहार से जुड़े मुद्दों का नैतिक मूल्यांकन करते हैं, चिकित्सा आचार-शास्त्र या मेडिकल एथिक्स कहलाता है। इसमें मुख्यतः चिकित्सकों के चिकित्सा व्यवहार का नैतिक मूल्यांकन किया जाता है तथा उनके कार्यों को नैतिक संदर्भ में उचित या अनुचित ठहराया जाता है। चिकित्सकों के आचार-शास्त्र से जुड़े नैतिक पहलू निम्नलिखित हैं – एक चिकित्सक का प्रमुख उद्देश्य मानवता की सेवा होना चाहिये। उसे धन या पुरस्कार की चाह को गौण रखते हुए चरित्र को ऊँचा रखना चाहिये। किसी भी चिकित्सक को कानून में प्रतिबंधित कार्यों को करने से बचना चाहिये, जैसे- जन्म पूर्व भ्रूण लिंग परीक्षण आदि। चिकित्सक को अपने व्यवसाय के उद्देश्य और मानवता की सेवा के लिये हर उस रोगी का इलाज करने की चेष्टा करनी चाहिये, जिसके रोग का इलाज करने में वह सक्षम हो। एक चिकित्सक को चाहिये कि वह रोगी के हित को सर्वोपरि रखकर परामर्श दे और अनावश्यक परामर्श देने से हमेशा बचे। उदाहरण के तौर पर देखा गया है कि चिकित्सक मौद्रिक लाभ के लिये अपने रोगियों को अनावश्यक जाँचों की सलाह दे देते हैं। एक चिकित्सक को महामारी और संक्रामक रोगों की रोकथाम के लिये प्रशासन की मदद करनी चाहिये, साथ ही उसे स्वास्थ्य निधि और संसाधनों के गलत इस्तेमाल को रोकने की कोशिश करनी चाहिये। चिकित्सा व्यवसाय से जुड़े कुछ अनैतिक कार्यों जैसे- मरीज़ों को लुभाने वाले विज्ञापन, स्वयं ही दवा की बिक्री करना, अनैतिक तरीके से कमीशन लेना, अंगों की तस्करी जैसे घृणित कार्य, दवा कंपनियों आदि से धन या उपहार स्वीकार करना आदि से एक चिकित्सक को बचना चाहिये। हम अक्सर अखबारों या मीडिया के अन्य माध्यमों से चिकित्सकों द्वारा शल्य-क्रिया, नसबंदी या अन्य चिकित्सा शिविरों के दौरान लापरवाही के तथा मौद्रिक लाभ कमाने के लिये उनके द्वारा किये गए निकृष्टतम कार्यों के बारे में पढ़ते-सुनते रहते हैं। ऐसी घटनाओं के कारण समाज के सबसे प्रतिष्ठित पेशे पर से लोगों का विश्वास कमज़ोर होता है। जिसकी परिणति आए दिन चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े लोगों के साथ होने वाली हिंसा के रूप में नज़र आती है। स्वास्थ्य एक प्रकार का मानवाधिकार ही है, अतः चिकित्सकों तथा अन्य चिकित्सा पेशेवरों को मेडिकल एथिक्स के सिद्धांतों का गंभीरता से पालन करना चाहिये।</s>
<s>[INST]“एक सिविल सेवक को राजनीतिक रूप से असंबद्ध होना चाहिये, लेकिन यह उसके लिये संभव नहीं है।” विश्लेषण करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा- राजनीतिक असंबद्धता को संक्षिप्त में परिभाषित करें। सिविल सेवकों में राजनीतिक असंबद्धता की आवश्यकता को समझाएँ। वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में राजनीतिक असंबद्धता की स्थिति बताएँ। निष्कर्ष सिविल सेवा में राजनीतिक असंबद्धता से तात्पर्य किसी भी राजनीतिक दल या उसकी विचारधारा से प्रभावित हुए बिना तटस्थ एवं निष्पक्ष रहते हुए अपने कर्त्तव्य का पालन करना है। यह संभव है कि सरकार से जुड़े राजनीतिक दल की कोई विशेष विचारधारा हो और किसी सिविल सेवक की विचारधारा बिल्कुल विपरीत हो, तो इस परिस्थिति में उससे अपेक्षा की जाती है कि किसी भी विचारधारा से प्रभावित हुए बिना वह अपने परामर्शों में ईमानदारी और तटस्थता बरते। राजनीतिक असंबद्धता की आवश्यकता क्यों है – किसी भी राजनीतिक विचारधारा के प्रति असंबद्धता राजनीतिक तटस्थता को बनाए रखना सुनिश्चित करती है, जो कि नौकरशाही की कार्य कुशलता के लिये महत्त्वपूर्ण अवयव है। एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि नौकरशाही का अस्तित्व निरंतर है, जबकि विभिन्न राजनीतिक दलों की सरकारों में लगातार परिवर्तन होता रहता है। राजनीतिक तटस्थता को बनाए रखकर ही सिविल सेवक नीतियों के वांछित परिणाम प्राप्त कर सकते हैं। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में वोट बैंक की राजनीति के चलते किसी राजनीतिक दल का किसी समुदाय विशेष के प्रति झुकाव हो सकता है। ऐसे में एक राजनीतिक रूप से तटस्थ सिविल सेवक नीति निर्माण और उनके क्रियान्वयन के समय गैर-भेदभावपूर्ण परामर्शों से सभी के लिये न्याय सुनिश्चित कर पाएगा। राजनीतिक संबद्धता नौकरशाही और राजनीतिक नेताओं के बीच गठजोड़ का कारण बनती है, जिसका परिणाम भ्रष्टाचार के रूप में सामने आता है, जो कि देश के समाज और अर्थव्यवस्था के लिये घातक प्रवृत्ति है। राजनीतिक रूप से असंबद्ध नौकरशाही की मौजूदगी से जनता का प्रशासन पर विश्वास बना रहता है। आदर्श स्थिति में तो एक सिविल सेवक को राजनीतिक तटस्थता को हर हाल में बनाए रखना चाहिये, लेकिन आज के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में सिविल सेवकों की राजनीतिक तटस्थता संदिग्ध हो गई है। इसे निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है- ऐसे कई उदाहरण देखे गए हैं जहाँ सिविल सेवक स्थानांतरण या महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति के बदले अपनी तटस्थता को शिथिल होने देते हैं। यह प्रवृत्ति अन्य सिविल सेवकों को भी ऐसा ही करने के लिये प्रेरित करती है। नीतियों के क्रियान्वयन के साथ-साथ सिविल सेवक नीतियों के निर्माण की प्रक्रिया से भी जुड़े होते हैं। ऐसे में सरकार से जुड़े राजनीतिक दल की विचारधारा से न्यूनाधिक प्रभावित होना स्वाभाविक है। सिविल सेवक का धर्म, जाति या समुदाय भी उसकी राजनीतिक तटस्थता को प्रभावित करने वाले कारक हैं। आज समाज के विभिन्न वर्ग कई माध्यमों से आपस में इतने जुड़े हुए हैं कि व्यक्ति का किसी-न-किसी विचारधारा के प्रभाव में आना स्वाभाविक है। सिविल सेवकों के लिये स्थानांतरण और पदोन्नति के लिये पूर्व निर्धारित दिशा-निर्देशों को आधार बनाया जाना चाहिये। साथ ही नौकरशाही में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित की जानी चाहिये। नौकरशाही देश के प्रशासन का महत्त्वपूर्ण ढाँचा है, इसमें कोई भी त्रुटि एक बुरे प्रशासन के रूप में परिलक्षित होगी। अतः नौकरशाहों और राजनीतिक दलों दोनों की यह ज़िम्मेदारी है कि शासन-प्रशासन के वास्तविक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये एक गैर-पक्षपाती सिविल सेवा का होना सुनिश्चित करें।</s>
<s>[INST]“भारत में सूचना का अधिकार अधिनियम पारित हुए एक दशक से भी अधिक समय बीत गया है, किंतु इसके अप्रभावी क्रियान्वयन के कारण पारदर्शिता एवं जवाबदेहिता खतरे में हैं।” मूल्यांकन करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा- सूचना के अधिकार का संक्षिप्त परिचय दें। इसमें निहित समस्याओं का उल्लेख करें। निष्कर्ष सूचना का अधिकार अधिनियम,२००५ लागू हुए १० वर्ष पूरे हो चुके हैं। एक दृष्टि से इस अधिनियम को क्रांतिकारी अधिनियम कहा जा सकता है, क्योंकि इसमें नागरिकों को लोक प्राधिकारियों के कार्यों के बारे में जानने के व्यापक अधिकार दिये गए हैं तथा लोक प्राधिकारियों के क्रिया-कलापों में पारदर्शिता के कई प्रावधान रखे गए हैं। इस कानून के सहयोग से सूचना प्राप्त कर भ्रष्टाचार के कई मामले उजागर हुए हैं। इसके दायरे में सभी सरकारी विभागों के साथ गैर-सरकारी संगठन आदि को भी लाया गया। बावजूद इसके इस कानून के समक्ष कई समस्याएँ हैं, जो कि निम्नलिखित हैं- व्यापक प्रचार के अभाव में आज भी इस कानून की जानकारी बहुत कम लोगों के पास है। सूचना के अधिकार का प्रचार-प्रसार स्वयंसेवी संस्थाओं या फिर कुछ कार्यकर्त्ताओं द्वारा ही किया जा रहा है। सरकार इस अधिकार के प्रचार-प्रसार में कोई रुचि नहीं ले रही है। सूचना आयोग में भी अदालतों की तरह लंबित मामलों का ढेर लगा हुआ है। इस विभाग में भी मानव संसाधन की कमी एक बड़ी समस्या है। केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोगों के सूचना आयुक्तों को भी अर्द्ध न्यायिक तरीके से द्वितीय अपील एवं शिकायतों का निपटारा करना होता है। इन सभी में से कई अधिकारी ऐसे हैं, जिन्हें न्यायिक पृष्ठभूमि नहीं होने के कारण, न्याय दृष्टान्तों को समझने या सही ढंग से उनका निर्वचन करने में कठिनाई आ रही है,जिसके कारण उनसे त्रुटियाँ होना संभावित है। इस कानून का दुरूपयोग भी हो रहा है। कुछ लोग सरकारी पदाधिकारी या किसी अन्य को ब्लेकमेल करने के उद्देश्य से इस कानून का उपयोग कर रहे हैं। सूचना अधिकारी द्वारा तय समय-सीमा में अगर सूचना उपलब्ध नहीं कराई जाती है, तो आयोग द्वारा ज़िम्मेदार अधिकारी पर जुर्माना लगाए जाने का प्रावधान है, लेकिन ऐसे बहुत कम मामलो में जुर्माना लगाया जाता है, जिसके कारण कार्यालयों में सूचना देने में टालमटोल का रवैया अपनाया जाता है। इस कानून की धारा 4 के तहत कुछ सूचनाएँ सभी विभागों को स्वयं सार्वजनिक कर देनी चाहिये, ताकि आम लोगों को आवेदन देने की ज़रूरत ना पड़े, लेकिन इसका भी पालन अधिकतर विभागों द्वारा नहीं किया जा रहा है। न्यायपालिका और राजनीतिक दलों का इस कानून के दायरे से बाहर होना इसके औचित्य पर ही प्रश्न चिह्न खड़े करता है, क्योंकि आज इन दोनों से जुड़ा भ्रष्टाचार एक बड़ी समस्या के रूप में उभरा है। उपरोक्त खामियों के बावज़ूद यह कहा जा सकता है कि सही मायने में सूचना के अधिकार ने प्रशासन में लोगों की भागीदारी को सुनिश्चित किया है। यह लोकतंत्र को मज़बूत करने वाला एक प्रभावी उपकरण है। इस कानून के क्रियान्वयन के बाद से भ्रष्टाचार के मामलों में कमी आई है। सूचना के अधिकार कानून के क्रियान्वयन से जुड़ी समस्याओं के निराकरण द्वारा इस कारगर कानून की प्रभाविता को बढ़ाया जा सकता है।</s>
<s>[INST]अभिरुचि और रुचि में क्या संबंध है? एक सिविल सेवक में कौन-सी अभिरुचियों का होना वांछनीय है ?[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा- रुचि की संक्षिप्त परिभाषा दें। रुचि व अभिरुचि में संबंध को समझाएँ। एक सिविल सेवक के लिये ज़रूरी अभिरुचियों का उल्लेख करें। निष्कर्ष रुचि का अर्थ है कि विकल्पों की उपस्थिति में व्यक्ति किस विकल्प का चयन करता है, जैसे- पढ़ने, खेलने या सोने में से यदि कोई खेलने को चुनता है तो खेलना उसकी रुचि है। रुचि से यह तय नहीं होता कि कार्य विशेष में व्यक्ति के निष्पादन का स्तर क्या होगा। अभिरुचि और रुचि में निम्नलिखित संबंध हो सकते हैं- किसी व्यक्ति में किसी क्षेत्र के प्रति अभिरुचि का स्तर अधिक हो पर रुचि बिल्कुल न हो, जैसे- किसी में शतरंज खेलने के लिये आवश्यक ऊँची तार्किक क्षमता हो, किंतु उसे शतरंज में ही रुचि न हो। किसी व्यक्ति में क्षेत्र विशेष के प्रति रुचि हो, परंतु आवश्यक अभिरुचि न हो। यदि न ही अभिरुचि हो और न ही रुचि हो, जैसे- एक वकील को न तो पहाड़ पर चढ़ने की रुचि है न अभिरुचि । ऐसे में सफलता की संभावना ही नहीं है। सबसे बेहतर स्थिति है उच्च रुचि तथा उच्च अभिरुचि की एक साथ उपस्थिति। जिन व्यक्तियों में यह संयोग मिलता है वे अपने क्षेत्र में अतिशय सफल होते हैं, जैसे- सचिन तेंदुलकर, ए.पी.जे. अब्दुल कलाम आदि। एक अच्छे सिविल सेवक में निम्नलिखित अभिरुचियाँ होनी चाहियें- भाषा पर सूक्ष्म पकड़- सिविल सेवा में निर्णय की संपूर्ण प्रक्रिया नोटिंग और ड्राफ्टिंग के माध्यम से होती है। इसके अलावा सिविल सेवक को बहुत सारे प्रतिवेदन लिखने और पढ़ने पड़ते हैं। यदि कोई व्यक्ति शब्दों के गलत प्रयोग के माध्यम से सिविल सेवक को बहकाने में सफल हो जाए तो एक गलत निर्णय देश को हानि पहुँचा सकता है। इसलिये जटिल-से-जटिल कथनों का सटीक अर्थ समझने की क्षमता और कठिन तथा उलझी हुई बातों को सरल व पारदर्शी भाषा में लिखने की क्षमता अच्छे सिविल सेवक के लिये आवश्यक है। उच्च तार्किक क्षमता- जटिल परिस्थितियों को समझना, विभिन्न क्षेत्रों के तथ्यों को आपस में जोड़ना तथा उनका विश्लेषण करना आदि कार्य करने होते हैं। इसके लिये उच्च तार्किक क्षमता होनी चाहिये। सिविल सेवक के सेवाकाल में कई ऐसे मौके आते हैं जब उसे कठिन निर्णय लेने होते हैं और उसके निर्णय में थोड़ी-सी भी चूक कई व्यक्तियों के जीवन पर भारी पड़ सकती है। सही निर्णय पर पहुँचने के लिये सिविल सेवक में सकारात्मक और सुलझा हुआ दृष्टिकोण होना आवश्यक है। सिविल सेवक से गणित का गहरा ज्ञान अपेक्षित नहीं है, परंतु उसे गणित की आधारभूत धारणाएँ समझने में तथा सामान्य गणनाएँ करने में समस्या नहीं होनी चाहिये। एक अच्छे सिविल सेवक से आशा की जाती है कि वह समाज को उचित नेतृत्व दे सके। इसके अलावा उसे बहुत सारे कर्मचारियों का प्रबंधन करना होता है। अतः एक लोक सेवक में दूसरे की भावनाओं, बातों और विचारों को समझने की अपनी बात को सटीक तरह से समझाने की क्षमता होनी चाहिये। संघ लोक सेवा आयोग ने कुछ वर्ष पूर्व एक सुधारात्मक कदम उठाते हुए निर्धारित किया कि सिविल सेवा के प्रारंभिक चरण में ही उम्मीदवारों की अभिरुचि का परीक्षण किया जाए। इसके लिये आवश्यक दक्षताओं के आधार पर CSAT नामक विशेष अभिरुचि परीक्षण विकसित किया गया, हालाँकि इसे एक अलग प्रश्न-पत्र के रूप में रखा जाता है। सामान्य रूप में एक सिविल सेवक बनने के लिये व्यक्ति में अपने आस-पास तथा विश्व की घटनाओं और स्थितियों व समस्याओं को जानने व समझने की आदत होनी चाहिये।</s>
<s>[INST]आप किसी ज़िले में ज़िला आपूर्ति अधिकारी के पद पर तैनात हैं। एक दिन आपको सूचना मिलती है कि आपके ज़िले में मिड-डे-मील का खाना खाकर सैकड़ों बच्चे गंभीर रूप से बीमार हो गए हैं। ज़िले के जिस क्षेत्र में यह घटना हुई है, वहाँ का स्थानीय राजनेता, जो सत्तापक्ष का बाहुबली नेता है, आप पर संबंधित विद्यालय के बारे में कोई भी नकारात्मक रिपोर्ट न बनाने के लिये दबाव डालता है। ऐसी स्थिति में आप क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे?[/INST]उत्तर : ज़िला आपूर्ति अधिकारी के रूप में मेरा कर्त्तव्य बनता है कि बिना किसी दबाव में आए निष्पक्ष जाँच करूँ। विषाक्त भोजन अपने-आप में एक गंभीर मामला है, परंतु जब अपराध बच्चों के प्रति होता है तो मामले की गंभीरता और भी बढ़ जाती है। इस स्थिति में मेरी प्रतिक्रिया इस प्रकार होगी- त्वरित कार्रवाई करते हुए घटना स्थल से सबूत इकट्ठे करना ताकि लापरवाही बरतने वाले को सबूत नष्ट करने का मौका न मिल पाए। मिड-डे-मील का भोजन उपलब्ध कराने वाली पूरी श्रृंखला का निरीक्षण करना। प्राचार्य, ग्राम प्रधान, भोजन सामग्री का सप्लायर, रसोइया सभी से कड़ी पूछताछ ताकि सच सामने लाया जा सके। राजनीतिक दबाव से निपटने के लिये उच्च अधिकारियों को दबाव के विषय में जानकारी दूँगा, साथ ही बिना राजनेता का नाम लिये मीडिया में भी राजनीतिक दबाव का उल्लेख करूँगा। गलती किस स्तर पर हुई है इसका पता लगाकर कड़ी अनुशासनात्मक कार्रवाई की अनुशंसा करूँगा तथा प्रक्रिया में सुधार का सुझाव भी दूँगा। प्रयास करूँगा कि सोशल ऑडिट की व्यवस्था सुचारु रूप से स्थापित हो जाए ताकि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो।</s>
<s>[INST]किसी कर्म को नैतिक या अनैतिक सिद्ध करने वाले निर्धारक तत्त्व कौन-से हैं ?[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा- किसी कृत्य को नैतिक, अनैतिक या निर्नैतिक माने जाने की आवश्यकता को संक्षिप्त में समझाएँ। कर्म को नैतिक या अनैतिक सिद्ध करने वाले निर्धारक तत्त्वों को बिंदुवार लिखें। प्रायः सभी समाजों में दण्ड की व्यवस्था नैतिक सिद्धांतों के आलोक में लागू की जाती रही है। किसी मनुष्य का कृत्य नैतिक है, अनैतिक है या निर्नैतिक, इसकी सुनिश्चितता के उपरांत ही प्रायः दण्ड संबंधी निर्णय लिये जाते रहे हैं। निर्नैतिक कृत्यों में प्रायः अनैच्छिक कर्म और बच्चों द्वारा किये गए कार्य शामिल किये जाते हैं। किसी कर्म को नैतिक या अनैतिक सिद्ध करने वाले निर्धारक तत्त्वों में विभिन्न समाजों और कालों के दौरान बदलाव होता रहा है, लेकिन मुख्य रूप से माने गए निर्धारक तत्त्व निम्नलिखित हैं- कृत्य- कई बार समाज कुछ कृत्यों को स्पष्ट तौर पर अनैतिक घोषित कर देता है। वह कृत्य चाहे किसी के भी द्वारा या कैसी भी परिस्थितियों में ही क्यों न किया गया हो, अनैतिक ही समझा जाता है। कर्त्ता- निश्चित तौर पर किसी कृत्य के नैतिक या अनैतिक होने के निर्धारण में कर्त्ता की एक बड़ी भूमिका होती है। मान लीजिये किसी व्यक्ति ने चोरी जैसा अनैतिक कृत्य किया परंतु ऐसा उसने अपनी गरीबी से तंग आकर किया। ऐसी स्थिति में इस व्यक्ति का कृत्य उस अमीर व्यक्ति के कृत्य से कम अनैतिक समझा जाएगा जिसने ऐशो-आराम के लिये कोई बैंक घोटाला किया हो। पीड़ित/ लाभार्थी- किसी कृत्य को नैतिक या अनैतिक कहे जाने में पीड़ित या लाभार्थी को भी देखा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर किसी गरीब की ज़मीन पर कब्ज़ा करना, किसी अमीर व्यक्ति की कीमती वस्तु हथियाने से ज़्यादा अनैतिक है। इसी प्रकार किसी वृद्ध को आजीविका का साधन प्रदान करना, किसी युवा को यह सुविधा देने से ज़्यादा नैतिक है। इरादा/ प्रयोजन- इरादे की भूमिका समाज में किसी कृत्य के नैतिक या अनैतिक होने के निर्धारण में बहुत महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। परिस्थितियाँ- किन परिस्थितियों में कोई कृत्य हुआ है, यह उस कृत्य के नैतिक या अनैतिक होने के निर्धारण में निर्णायक भूमिका निभाता है। उदाहरण के तौर पर हत्या कारण अनैतिक है, परंतु कोई महिला बलात्कार की कोशिश करने वाले व्यक्ति की हत्या अपने बचाव के लिये कर दे, तो उसे अनैतिक नहीं माना जाएगा। परिणाम- परिणाम के आधार पर किसी कृत्य को नैतिक या अनैतिक कहने के परिप्रेक्ष्य में एक प्रसिद्ध सिद्धांत है- दोहरे प्रभाव का सिद्धांत। जैसे- अच्छे इरादे से किये गए कृत्य के बाद प्राथमिक परिणाम सकारात्मक और द्वितीयक प्रभाव के रूप में कुछ अवांछित परिणाम पाते हैं, तो उस कृत्य को सिर्फ द्वितीयक प्रभाव के आधार पर अनैतिक नहीं कहा जा सकता। आधुनिक समाज एवं न्याय व्यवस्था भी प्रयोजन एवं परिस्थिति को परिणाम से प्राथमिक मानती है।</s>
<s>[INST]भ्रष्टाचार निवारण में नागरिकों की भागीदारी बढ़ाने के लिये किस प्रकार के तंत्र की आवश्यकता है? टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा- भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में जनभागीदारी की अपरिहार्यता को संक्षिप्त में बताएँ। जनभागीदारी को बढ़ाने के लिये आवश्यक तंत्र का उदाहरणों के साथ उल्लेख करें। निष्कर्ष भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में जितना महत्त्व निगरानी तंत्र, संस्थाओं और कानूनों का है, उससे भी कहीं अधिक आवश्यकता इसमें लोगों की भागीदारी बढ़ाने की है। भ्रष्टाचार के खिलाफ जब तक आम जनता जागरूक नहीं होगी, भ्रष्ट गतिविधियों का विरोध नहीं करेगी, तब तक केवल कानूनों के माध्यम से भ्रष्टाचार को समाप्त नहीं किया जा सकता है। एक सुदृढ़ और सतर्क सिविल समाज भ्रष्टाचार पर प्रभावी निगरानी रख सकता है। इसके लिये सबसे बेहतर उदाहरण जापान का है, जहाँ पर भ्रष्ट अधिकारियों का सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता है। एक अन्य प्रमुख उदाहरण हांगकांग की आईसीएसी (Independent commission against corruption) का है, जिसने लोगों की इस मान्यता को बदल कर रख दिया है कि भ्रष्टाचार तो जीवन का अहम् हिस्सा है। इस संस्था ने जनभागीदारी के माध्यम से भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक सख्त आंदोलन चलाया। टी.वी. विज्ञापनों में भ्रष्टाचार की शिकायतों के लिये दूरभाष नंबर दिये गए और शिकायतकर्त्ता की पूर्ण सुरक्षा का भी आश्वासन दिया गया। स्कूली बच्चों के बीच भ्रष्टाचार के दुष्प्रभावों से चित्रित सामग्री वितरित की गई। भारत में सूचना के अधिकार अधिनियम ने नागरिकों को भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई से जोड़ा अवश्य है,परंतु एक ऐसे ‘व्हिसिल ब्लोअर अधिनियम’ की आवश्यकता है, जो इस लड़ाई में भागीदार नागरिकों को मानसिक और शारीरिक सुरक्षा प्रदान कर सके। भारत के आम जनमानस में भ्रष्टाचार की जो एक सामाजिक स्वीकार्यता बन चुकी है, उसे बदले जाने की आवश्यकता है। इसमें मीडिया के विभिन्न माध्यमों से लेकर स्कूली और विश्वविद्यालय स्तरीय शिक्षा के माध्यम से प्रभावी ढंग से बदलाव लाया जा सकता है। जब तक आम जनमानस में यह धारणा पुष्ट नहीं की जाएगी कि भ्रष्ट व्यवस्था को बनाए रखने के मुकाबले इसे उखाड़ने वाले प्रोत्साहन अधिक हैं, तब तक भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त नहीं किया जा सकता है। महत्त्वपूर्ण सरकारी संस्थानों और कार्यालयों में नैतिकता का आकलन तथा उसे बनाए रखने की प्रक्रिया में नागरिकों को भी शामिल किया जाना चाहिये। सेवा स्तर का निर्धारण करके नागरिकों के चार्टर को भी और अधिक असरदार बनाया जा सकता है।</s>
<s>[INST]मंत्रियों के लिये नैतिक संहिता पर द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग के विचार और इसके लिये की गई सिफारिशें कौन-सी हैं?[/INST]उत्तर : उत्तर की रेखा- मंत्रियों की नैतिक संहिता पर द्वितीय प्रशासनिक आयोग के विचारों को बिंदुवार लिखें। इस विषय पर आयोग ने जो सिफारिशें की हैं, उनको लिखें। निष्कर्ष मंत्रियों से प्रशासन के नेतृत्व तथा मार्गदर्शन की आशा की जाती है। ऐसे में मंत्रियों के भी आचार और व्यवहार को नियंत्रित किये जाने की आवश्यकता है। दूसरे प्रशासनिक आयोग ने मंत्रियों के लिये नैतिक तथा आचरण संहिता पर निम्नलिखित विचार प्रस्तुत किये हैं- मंत्रियों को सामूहिक नेतृत्व का पालन करते हुए नैतिकता के सर्वोच्च मानक बनाए रखने चाहिये। अपने विभाग की नीतियों, निर्णयों और कार्यों की जानकारी संसद या विधायिका को देना मंत्रियों का कर्त्तव्य है। मंत्रियों को हितों के टकराव से बचना चाहिये। उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिये कि उनके कार्यालयीन कर्त्तव्यों और निजी हितों के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न न हो। मंत्रियों को अपने राजनीतिक या दलीय तथा निजी हितों की पूर्ति के लिये सरकारी संसाधनों का प्रयोग नहीं करना चाहिये। मंत्रियों को सिविल सेवकों की राजनीतिक निष्पक्षता को बनाए रखने में सहयोग करना चाहिये। सरकारी निधि का उपयोग उचित ढंग से किया जाना सुनिश्चित करना चाहिये। मंत्रियों को अपनी कार्यशैली में वस्तुनिष्ठता, ईमानदारी, निष्पक्षता, समानता आदि का समावेश और अभ्यास करना चाहिये। उपरोक्त बिंदुओं के आलोक में आयोग ने निम्नलिखित सिफारिशें की हैं – मंत्रियों के लिये आचरण संहिता के साथ-साथ नैतिक संहिता भी होनी चाहिये। प्रधानमंत्री तथा मुख्यमंत्रियों को नैतिक तथा आचरण संहिता के पालन को सुनिश्चित करने के लिये अपने-अपने कार्यालयों में विभिन्न इकाइयों की स्थापना करनी चाहिये। नैतिक संहिता और आचार संहिता को साझा सरकारों पर भी लागू होना चाहिये। इन संहिताओं के संबंध में एक वार्षिक प्रतिवेदन बनाया जाना चाहिये, तथा उसमें सहिंता के उल्लंघन के मामले और उन पर की गई कार्रवाही का उल्लेख भी होना चाहिये। नैतिक संहिता, आचार संहिता और इनके पालन से संबंधित वार्षिक रिपोर्ट को जनता के बीच विमर्श के लिये रखा जाना चाहिये। अतः द्वितीय प्रशासनिक आयोग की इन अनुशंसाओं पर ज़रूरी कदम उठाए जाने चाहिये।</s>
<s>[INST]जंगलों के संकुचन और वन्यजीवों के आवास विखंडन के परिणामस्वरूप मानव-पशु संघर्ष में बढ़ोतरी देखने को मिलती है। हाल ही में एक अधेड़ उम्र की व्यक्ति को एक बाघ ने उस समय मार दिया जब वह अपने पशुओं को पास के आरक्षित वन के समीप चराने ले गया था। इस घटना से क्षुब्ध होकर ग्रामीणों ने वन-विभाग के खिलाफ जमकर विरोध प्रदर्शन किया और बाघ को मार गिराने की मांग की। यदि एक भूखे बाघ ने अपनी क्षुधा की तृप्ति के लिये किसी व्यक्ति को मार दिया तो क्या इसके बदले में मनुष्य द्वारा बाघ को मार गिराए जाने की मांग नैतिक है? आलोचनात्मक टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा उत्तर के परिचय के रूप में मानव व पशु के बीच के विभेद को समझाएँ। बाघ को मारने की मांग की आलोचनात्मक विवेचन प्रस्तुत करें। निष्कर्ष में मानव-पशु सामंजस्य के उपायों की चर्चा करें। मानव और पशु कई तरह से एक-दूसरे से भिन्न हैं। यद्यपि दोनों की भौतिक ज़रूरतें एक हो सकती हैं, लेकिन मानव का मस्तिष्क पशु की तुलना में काफी विकसित होता है और सक्रिय विवेकी शक्ति उसे और भी विशिष्ट बनाती है। इन्हीं विशेषताओं के कारण वह मानवोचित गुणों को धारण करता है। खाद्य पिरामिड में बाघ और मानव एक ही वर्ग में शामिल हैं, जबकि मैस्लो के आवश्यकता पिरामिड के अनुसार मानव ही वह प्राणी है जो स्वयं वास्तवीकरण (Self actualization) के स्तर तक पहुँच सकता है। पशु के हिंसात्मक व्यवहार को उसका मूल व्यवहार नहीं माना जाता है। वह किसी को तभी मारता है जब वह भूखा रहता है या डरा हुआ रहता है या फिर खुद पर आक्रमण महसूस करता है। इस प्रकार बाघ द्वारा रक्षात्मक कार्रवाई के रूप में हिंसात्मक व्यवहार को अपनाया जाता है। इसके लिये मनुष्यों द्वारा बाघ को मारने की मांग – यह एक प्रतिशोध से भरी प्रतिक्रिया का ही रूप है। यद्यपि वन्यजीव संरक्षण कानून विशेष परिस्थितियों जैसे ‘जीवन पर खतरा’ की स्थिति में संरक्षित जीवों को अपवाद के रूप में मारने की इजाज़त देता है। लेकिन उपर्युक्त परिस्थिति में यह दुविधा उत्पन्न होती है कि यहाँ स्वयं मानव द्वारा ही खतरा को उत्पन्न किया गया था। बाघों के आवासों पर खुद हमला करना या फिर बाघों के आवासों के आस-पास टहलना उसके बाद बाघ द्वारा शिकार होने का दावा करना किसी तेज़ गति से चल रही ट्रेन के आगे कूद जाने के बाद यह कहना कि ट्रेन ने एक व्यक्ति को धक्का दे दिया के समान ही प्रतीत होता है। उपर्युक्त परिस्थिति में मनुष्य को किसी जीव का प्राण हरण करने का अधिकार नहीं है, क्योंकि वह ईश्वर या प्रकृति प्रदत्त है। उपर्युक्त प्रकरण में यह कहा जा सकता है कि भावनात्मक होकर बाघ को मारने की जगह एक दीर्घकालीन सामंजस्यपूर्ण दृष्टिकोण को विकसित करने की मांग होनी चाहिये। उदाहरण के लिये, संरक्षित क्षेत्र के इर्द-गिर्द बाड़ लगाना, पशुओं के लिये हरे-भरे चारागाह की व्यवस्था कराना, ट्रिंक्वीलाइज़र जैसे उपकरणों का इस्तेमाल करना आदि। इस तरह मनुष्य-प्रकृति संतुलन को स्थापित कर ही हम सही अर्थों में मानव कहलाने योग्य होंगे, अन्यथा हमारी सक्रिय बुद्धि व्यर्थ हो जाएगी।</s>
<s>[INST]प्रतिस्पर्द्धा सेवा प्रदाताओं और ग्राहकों को किस प्रकार प्रभावित करती है ? उदाहरण सहित टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा- प्रतिस्पर्द्धा क्या होती है, उसकी विशेषता या लक्षण संक्षिप्त में लिखें। प्रतिस्पर्द्धा के लाभों को बिंदुवार लिखें। निष्कर्ष प्रतिस्पर्द्धा किसी क्षेत्र में एकाधिकार को समाप्त करने का उत्तम उपकरण है। यह सेवा प्रदाता और हित-ग्राहकों दोनों के लिये लाभदायक है। प्रतिस्पर्द्धा का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लक्षण बड़ी संख्या में सेवा प्रदाताओं और ग्राहकों की उपस्थिति है। प्रतिस्पर्द्धा स्वस्थ और विनाशकारी दोनों हो सकती है। जब दो प्रतिस्पर्द्धी किसी भी कीमत पर एक-दूसरे से जीतने का प्रयास करें, तो ऐसी प्रतिस्पर्द्धा विनाशकारी होती है। लेकिन रचनात्मक प्रतिस्पर्द्धा, प्रतिस्पर्द्धियों के प्रदर्शन में सुधार के लिये प्रेरक होती है। प्रतिस्पर्द्धा के लाभ- प्रतिस्पर्द्धा नवाचार को प्रेरित करती है। यह सृजनात्मक सोच को बढ़ावा देती है। प्रतिस्पर्द्धा में अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिये नवीन विचारों का होना अनिवार्य है। कई प्रकार की नई प्रौद्योगिकियाँ और नई व्यावसायिक रणनीतियाँ प्रतिस्पर्द्धा से प्रेरित नवाचार के कारण ही जन्म लेती हैं। अधिक ग्राहकों को आकर्षित करने और बाज़ार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिये प्रतिस्पर्द्धा, कंपनियों को अपने उत्पादों और सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार करने के लिये प्रोत्साहित करती है। प्रतिस्पर्द्धा उपभोक्ता को चयन के लिये काफी सारे विकल्प देती है। इससे ग्राहक अपनी आवश्यकता और पसंद के अनुसार गुणवत्ता वाली सामग्री वाज़िब कीमत पर खरीद सकता है। प्रतिस्पर्द्धा से संगठनों को उनकी वास्तविक क्षमता और कमज़ोरियों का पता चलता है। सामान्यतः किसी क्षेत्र में एकाधिकार रखने वाला संगठन अपनी कमियों पर ध्यान नहीं देता है। प्रदर्शन और गुणवत्ता में सुधार प्रतिस्पर्द्धा की मांग है, जिसके लिये अपनी कमियों का आभास होना ज़रूरी है। प्रतिस्पर्द्धा में जीवित रहने के लिये विभिन्न नई तकनीकों और रणनीतियों को अपनाना पड़ता है। इससे संगठन के कर्मचारियों के कौशल में वृद्धि होती है। कई वर्षों पहले भारत में विभिन्न क्षेत्रों में सरकारी या सार्वजनिक कंपनियों का एकाधिकार था। इन क्षेत्रों में जैसे ही निजी कंपनियों का प्रवेश हुआ, वैसे ही एक प्रतिस्पर्द्धी माहौल बना और पाया गया कि जहाँ खुली प्रतिस्पर्द्धा है, वहाँ सरकारी क्षेत्र कमज़ोर दिखाई पड़ता है। उदाहरण के लिये टेलीकॉम क्षेत्र में निजी कंपनियों को लाइसेंस मिलते ही सेवाओं की लागत में गिरावट आई और भ्रष्टाचार के मामलों में भी कमी देखने को मिली। लगभग ऐसा ही विमानन क्षेत्र, बैंकिंग क्षेत्र आदि में भी देखने को मिला। रिलायंस जिओ ने मुफ्त कॉल और इंटरनेट सेवा प्रदान करके ग्राहकों को तो संतुष्ट कर दिया, लेकिन इस कदम ने प्रतिस्पर्द्धा की मूल भावना को चोट पहुँचाई है। प्रतिस्पर्द्धा आक्रामक नहीं, रचनात्मक होनी चाहिये। अतः स्पष्ट है कि स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा सेवा प्रदाताओं और ग्राहकों दोनों के लिये लाभदायक होती है।</s>
<s>[INST]क्या स्वामी विवेकानंद के विचार आज भी प्रासंगिक हैं? टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा- वर्तमान में विश्व की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक विसंगतियों का संक्षिप्त विवरण दें। स्वामी विवेकानंद के विभिन्न मुद्दों पर विचारों को बिंदुवार लिखें। निष्कर्ष आज के मुक्त अर्थव्यवस्था वाले गतिशील विश्व में जहाँ सभी राष्ट्र विकास की दौड़ में एक-दूसरे से नैतिक-अनैतिक तरीकों से प्रतिस्पर्द्धा कर रहे हैं, जहाँ समूचे वैश्विक समाज में नैतिक मानदंडों के पालन में ज़बरदस्त गिरावट देखने को मिल रही है, जहाँ प्रतिक्षण पूरी मानव जाति पर परमाणु युद्धों का खतरा बना हुआ है, जहाँ घोर असमानता और गरीबी व्याप्त है, जहाँ युवा पीढ़ी के पथभ्रष्ट होने के लक्षण दिखाई दे रहे हों, ऐसे विश्व में स्वामी विवेकानंद के विचारों के औचित्य की पड़ताल हम निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से कर सकते हैं- विश्व बंधुत्त्व- शिकागो की धर्म सभा में स्वामी जी ने कहा था कि जैसे विभिन्न धाराएँ, विभिन्न दिशाओं से बहते हुए आकर एक ही समुद्र में मिलती हैं, वैसे ही मनुष्य जो मार्ग चुनता है, चाहे वे अलग-अलग प्रतीत होते हों, सभी एक ही सर्वशक्तिमान ईश्वर की ओर ले जाते हैं। “वसुधैव कुटुंबकम” का संदेश देते हुए वे सारे विश्व को एक परिवार मानने की शिक्षा देते हैं। युवाओं के लिये – युवाओं के लिये उनका सर्वाधिक प्रभावी कथन है कि-“ उठो, जागो और अपने लक्ष्य की प्राप्ति तक मत रुको।” वे चाहते थे कि युवा आत्मविश्वास से भरे हों। जीवन की बाधाओं से लड़ने के लिये आज युवाओं को स्वामी विवेकानंद के विचारों को आत्मसात करने की आवश्यकता है। परोपकार- जहाँ आज सारा समाज धन-वैभव के पीछे भाग रहा है, वहाँ धन के उचित उपयोग पर स्वामी जी का विचार है कि-“अगर धन दूसरों की भलाई करने में मदद करे, तो इसका कुछ मूल्य है, अन्यथा यह सिर्फ बुराई का एक ढेर है।” शिक्षा- स्वामी जी का विचार था कि भारत की समस्त समस्याओं का मूल कारण अशिक्षा है। उनका विचार था कि शिक्षा को उच्च वर्ग के एकाधिकार से मुक्त कराकर उसे समाज के प्रत्येक हिस्से तक पहुँचाया जाना चाहिये। भारत के लिये उचित शिक्षा प्रणाली पर भी उनका एक दृष्टिकोण था। वे मात्र करियर निर्माण पर आधारित शिक्षा की बजाय आत्मविश्वास में वृद्धि करने वाली और चरित्र का निर्माण करने वाली सच्ची शिक्षा के पक्षधर थे। वंचित वर्गों पर – स्वामी जी का विचार था कि हम वेदांत पर चर्चा करने को तो तैयार है, परंतु वंचित-दलित वर्ग के बारे में विचार करने को भी तैयार नहीं हैं। हमें न सिर्फ दलितों का आत्मसम्मान लौटाना चाहिये, बल्कि उन्हें आगे बढ़ने के लिये सहायता करनी चाहिये। महिल मुक्ति- स्वामी जी का विचार था कि महिलाओं को उनके निर्णय स्वयं लेने की अनुमति दी जाए। वे नारी-शिक्षा पर ज़ोर देते थे और उनको यह विश्वास था कि शिक्षित नारी ही सारे समाज का कल्याण कर सकती है। वे महिलाओं को आत्मरक्षा के तरीके सिखाने पर भी ज़ोर दिया करते थे। प्रेम – स्वामी जी के अनुसार –“प्रेम विस्तार है, स्वार्थ संकुचन है इसलिये प्रेम जीवन का सिद्धांत है। वह जो प्रेम करता है जीता है, वह जो स्वार्थी है मर रहा है। इसलिये प्रेम के लिए प्रेम करो, क्योंकि जीने का यही एक मात्र सिद्धांत है। अतः स्पष्ट है कि युवाओं, महिलाओं, समाज और संस्कृति, राष्ट्रों तथा पूरे विश्व के कल्याण के लिये स्वामी विवेकानंद के विचार वर्तमान में तो प्रासंगिक है ही, अपने कालजयी स्वरूप में ये विचार अगली कई सदियों तक मानव जाति को सन्मार्ग दिखाते रहेंगे।</s>
<s>[INST]समर्पण से आप क्या समझते हैं? एक सिविल सेवक में ऐसे कौन-से लक्षण होने चाहिये, जो जनसेवा के प्रति उसके समर्पण को प्रदर्शित करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा – समर्पण को परिभाषित करें। समर्पित सिविल सेवक के लक्षणों को लिखें। समर्पण (dedication) का अर्थ है किसी व्यक्तिगत या सामाजिक उद्देश्य के प्रति प्रतिबद्धता की ऊँची तीव्रता वाली मनःस्थिति। यह मनःस्थिति उद्देश्य के प्रति तीव्र भावनाएँ पैदा करती है, जो व्यक्ति के व्यवहारों को नियंत्रित करती हैं। ब्रिटिश साम्राज्य ने जो सिविल सेवा बनाई थी, वह अभिजात तथा रूढ़िवादी थी और ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठा रखती थी। भारत के कल्याणकारी राज्य बनने के बाद ऐसे सिविल सेवकों की ज़रूरत थी जो राष्ट्रीय विकास तथा जन कल्याण में सक्रिय एजेंट की भूमिका निभा सकें। अगर किसी सिविल सेवक में लोकसेवा के प्रति समर्पण की भावना है तो उसमें निम्नलिखित लक्षण दिखाई देंगे- काम को 9 से 6 बजे की नौकरी न समझना, बल्कि ज़रूरत होने पर उत्साहपूर्वक उसके पहले और बाद में भी काम करना। वंचित वर्गों की सहायता करने में गहरा संतोष महसूस करना। अपने अधिकारों का प्रयोग इस तरह करना कि ज़्यादा-से-ज़्यादा संसाधन उन वर्गों पर खर्च हों, जिन्हें उनकी अधिकतम ज़रूरत है। यदि कोई व्यक्ति सरकारी सेवाएँ लेने के लिये औपचारिकताएँ पूरी नहीं कर पा रहा है तो आगे बढ़कर उसकी सहायता करना। अगर अधिकार क्षेत्र में शामिल हो, तो औपचारिकताओं में ढील दे देना। ज़्यादा ध्यान नियमों पर नहीं सकारात्मक परिणामों पर देना।</s>
<s>[INST]“व्यापारिक नैतिकता” से क्या अभिप्राय है ? व्यापार में नैतिकता की क्या आवश्यकता है?[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा- व्यापारिक नैतिकता की परिभाषा लिखें। विभिन्न तर्कों के माध्यम से समझाएँ कि व्यवसाय में नैतिकता की आवश्यकता क्यों है। निष्कर्ष व्यापारिक नैतिकता व्यावहारिक नीतिशास्त्र की वह शाखा है, जिसके अंतर्गत किसी व्यापार प्रतिष्ठान या कॉर्पोरेट प्रतिष्ठान के व्यापारिक कार्यकलापों, प्रक्रियाओं, निर्णयों तथा अपने कर्मचारियों एवं उपभोक्ताओं से संबंधों का नैतिक मूल्यों और सिद्धांतों के धरातल पर मूल्यांकन तथा उनसे जुड़े विभिन्न नैतिक मुद्दों का अध्ययन किया जाता है। व्यापार में नैतिकता की आवश्यकता क्यों है ? कुछ व्यवसायी अनुचित व्यापारिक तरीकों, जैसे- कालाबाज़ारी, कृत्रिम उच्च-मूल्य निर्धारण, वज़न और नाप में गड़बड़ी, नकली और हानिकारक उत्पादों की बिक्री तथा जमाखोरी आदि के ज़रिये व्यापार करते हैं। इस तरह के व्यावसायिक कदाचार के कारण उपभोक्ताओं का हित बाधित होता है। व्यापारिक नैतिकता, व्यवसाय में इस कदाचार को रोकने में सहयोग करती है। उत्पादों की गुणवत्ता, मात्रा व मूल्य आदि को लेकर उपभोक्ताओं का भरोसा जीतने में व्यापारिक नैतिकता लाभप्रद है। व्यावसायिक नैतिकता के नियमों का पालन करने वाले व्यापारियों पर उपभोक्ताओं का विश्वास बना रहता है। व्यवसाय के अस्तित्व को बनाए रखने के लिये व्यापारिक नैतिकता ज़रूरी है। ये संभव है कि नैतिकता का पालन नहीं करके अल्पकाल के लिये लाभ कमा लिया जाए, परंतु दीर्घकाल में यह व्यवसाय के लिये हानिकारक ही होगा। बाज़ार में बने रहने के लिये उपयुक्त व्यापारिक नैतिकता का पालन करना ही होगा। उपभोक्ता के पास कई तरह के अधिकार होते हैं, जैसे – स्वास्थ्य और सुरक्षा का अधिकार, सूचना पाने का अधिकार, चयन का अधिकार, सुनवाई का अधिकार व निवारण का अधिकार आदि। उपभोक्ता के इन अधिकारों की रक्षा के लिये व्यापार में नैतिकता की आवश्यकता होती है। कर्मचारियों, शेयरधारकों, प्रतिस्पर्द्धियों, डीलरों, आपूर्तिकर्त्ताओं आदि के हितों की रक्षा के लिये व्यावसायिक नैतिकता आवश्यक है। व्यापारिक नैतिकता किसी व्यवसाय से जुड़े विभिन्न प्रतिस्पर्द्धियों के बीच एक स्वस्थ स्पर्द्धा का वातावरण बनाए रखती है। इससे सभी पक्षों को व्यापार में समान अवसर मिलता है और व्यापार में किसी का एकाधिकार नहीं हो पाता। व्यापारिक नैतिकता से श्रम का महत्त्व स्थापित होता है। व्यावसायिक नैतिकता का पालन करने वाला नियोक्ता अपने कर्मचारियों को उचित वेतन और अच्छी कामकाज़ी परिस्थितियाँ उपलब्ध कराता है। एक कंपनी, जो अपने व्यावसायिक प्रबंधन में नैतिकता का ध्यान रखती है, वहाँ पर निर्णय केवल मौद्रिक लाभ को नहीं वरन् उपभोक्ताओं के हितों को ध्यान में रखकर लिये जाते हैं। ऐसे में हितधारक स्वयं को कंपनी का एक हिस्सा ही मानते हैं और ऐसी कंपनियाँ या व्यावसायिक प्रतिष्ठान अपने क्षेत्र में ख्याति अर्जित करते हैं।</s>
<s>[INST]“व्यापारिक नैतिकता” से क्या अभिप्राय है ? व्यापार में नैतिकता की क्या आवश्यकता है?[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा- व्यापारिक नैतिकता की परिभाषा लिखें। विभिन्न तर्कों के माध्यम से समझाएँ कि व्यवसाय में नैतिकता की आवश्यकता क्यों है। निष्कर्ष व्यापारिक नैतिकता व्यावहारिक नीतिशास्त्र की वह शाखा है, जिसके अंतर्गत किसी व्यापार प्रतिष्ठान या कॉर्पोरेट प्रतिष्ठान के व्यापारिक कार्यकलापों, प्रक्रियाओं, निर्णयों तथा अपने कर्मचारियों एवं उपभोक्ताओं से संबंधों का नैतिक मूल्यों और सिद्धांतों के धरातल पर मूल्यांकन तथा उनसे जुड़े विभिन्न नैतिक मुद्दों का अध्ययन किया जाता है। व्यापार में नैतिकता की आवश्यकता क्यों है ? कुछ व्यवसायी अनुचित व्यापारिक तरीकों, जैसे- कालाबाज़ारी, कृत्रिम उच्च-मूल्य निर्धारण, वज़न और नाप में गड़बड़ी, नकली और हानिकारक उत्पादों की बिक्री तथा जमाखोरी आदि के ज़रिये व्यापार करते हैं। इस तरह के व्यावसायिक कदाचार के कारण उपभोक्ताओं का हित बाधित होता है। व्यापारिक नैतिकता, व्यवसाय में इस कदाचार को रोकने में सहयोग करती है। उत्पादों की गुणवत्ता, मात्रा व मूल्य आदि को लेकर उपभोक्ताओं का भरोसा जीतने में व्यापारिक नैतिकता लाभप्रद है। व्यावसायिक नैतिकता के नियमों का पालन करने वाले व्यापारियों पर उपभोक्ताओं का विश्वास बना रहता है। व्यवसाय के अस्तित्व को बनाए रखने के लिये व्यापारिक नैतिकता ज़रूरी है। ये संभव है कि नैतिकता का पालन नहीं करके अल्पकाल के लिये लाभ कमा लिया जाए, परंतु दीर्घकाल में यह व्यवसाय के लिये हानिकारक ही होगा। बाज़ार में बने रहने के लिये उपयुक्त व्यापारिक नैतिकता का पालन करना ही होगा। उपभोक्ता के पास कई तरह के अधिकार होते हैं, जैसे – स्वास्थ्य और सुरक्षा का अधिकार, सूचना पाने का अधिकार, चयन का अधिकार, सुनवाई का अधिकार व निवारण का अधिकार आदि। उपभोक्ता के इन अधिकारों की रक्षा के लिये व्यापार में नैतिकता की आवश्यकता होती है। कर्मचारियों, शेयरधारकों, प्रतिस्पर्द्धियों, डीलरों, आपूर्तिकर्त्ताओं आदि के हितों की रक्षा के लिये व्यावसायिक नैतिकता आवश्यक है। व्यापारिक नैतिकता किसी व्यवसाय से जुड़े विभिन्न प्रतिस्पर्द्धियों के बीच एक स्वस्थ स्पर्द्धा का वातावरण बनाए रखती है। इससे सभी पक्षों को व्यापार में समान अवसर मिलता है और व्यापार में किसी का एकाधिकार नहीं हो पाता। व्यापारिक नैतिकता से श्रम का महत्त्व स्थापित होता है। व्यावसायिक नैतिकता का पालन करने वाला नियोक्ता अपने कर्मचारियों को उचित वेतन और अच्छी कामकाज़ी परिस्थितियाँ उपलब्ध कराता है। एक कंपनी, जो अपने व्यावसायिक प्रबंधन में नैतिकता का ध्यान रखती है, वहाँ पर निर्णय केवल मौद्रिक लाभ को नहीं वरन् उपभोक्ताओं के हितों को ध्यान में रखकर लिये जाते हैं। ऐसे में हितधारक स्वयं को कंपनी का एक हिस्सा ही मानते हैं और ऐसी कंपनियाँ या व्यावसायिक प्रतिष्ठान अपने क्षेत्र में ख्याति अर्जित करते हैं।</s>
<s>[INST]शक्ति को लोगों के पास अंतरित करने के लिये क्या किया जाना चाहिये, जिससे निर्णय लेने का शक्ति-बिंदु (power point) लोगों के नज़दीक हो सके ? क्या इससे जवाबदेही बढ़ेगी?[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा- शासन की शक्ति का लोगों तक अंतरण करने के उपाय सुझाएँ। यह भी बताएँ कि क्या इससे प्रशासन में जवाबदेही में वृद्धि होगी। निष्कर्ष गांधी जी ने विकेंद्रीकृत शासन पद्धति में ही देश की स्वतंत्रता और विकास को समाहित किया था। उनके अनुसार नीति-निर्माण की प्रक्रिया में जनभागीदारी को सुनिश्चित किये जाने के साथ-साथ शासन की शक्ति का जन-जन तक वितरण आवश्यक है। शासन की शक्ति को लोगों तक अंतरित करने के लिये निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं- सेवा-स्तरों का निर्धारण करके नागरिक चार्टरों को और असरदार बनाया जाए और इन स्तरों पर खरे न उतरने की स्थिति में जनजागरूकता और प्रशिक्षण आदि के द्वारा उसमें सुधार के उपाय किये जाएँ। महत्त्वपूर्ण सरकारी संस्थानों और कार्यालयों में नैतिकता का आकलन करने की प्रक्रिया में नागरिकों को शमिल किया जाए। भ्रष्टाचार के विरुद्ध पहल करने वाले नागरिकों को प्रोत्साहन स्वरूप पुरस्कार दिये जाएँ। स्कूल-स्तर पर जागरूकता को अमल में लाया जाना चाहिये। जिससे बच्चों को शुरूआत से ही नैतिकता का महत्त्व सिखाया जा सके और भ्रष्टाचार के विरुद्ध खड़े होने के लिये प्रेरित किया जा सके। भारत में अधिकतर लोक कार्यालयों में शिकायत निरीक्षण प्रणाली सुस्त है। सिंगापुर में शिकायत पर 24 घंटे के भीतर ही संज्ञान लेकर जांच दो महीने के अंदर ही पूर्ण कर ली जाती है। हमें भी ऐसी ही प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है। भ्रष्टाचार को उजागर करने वाले व्हिसिल ब्लोअर्स को प्रोत्साहित किये जाने की आवश्यकता है, तभी जन भागीदारी बढ़ेगी। सूचना के अधिकार अधिनियम तथा नागरिक चार्टर को और अधिक सशक्त बनाकर न केवल प्रशासन को और अधिक जवाबदेह बनाया जा सकता है, बल्कि इससे भ्रष्टाचार को भी कम करने में सहायता मिलेगी और साथ ही इससे नीति निर्माण के शक्ति-बिंदु को आम लोगों के नज़दीक भी पहुँचाया जा सकता है।</s>
<s>[INST]‘नैतिक चिंता’ और ‘नैतिक दुविधा’ में क्या अंतर है? सार्वजनिक तथा निजी संस्थाओं से जुड़ी कुछ नैतिक चिंताओं का उल्लेख करते हुए उनके समाधान के उपायों पर विचार कीजिये।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा- नैतिक चिंता और नैतिक दुविधा को परिभाषित करें। सार्वजनिक संस्थानों से जुड़ी चिंताओं का उल्लेख करें। निजी संस्थाओं से जुड़ी चिंताओं का उल्लेख करें। नैतिक चिंताओं के समाधान के उपाय सुझाएँ। नैतिक चिंता- ऐसा कोई कार्य या स्थिति जिसमें किसी नैतिक पक्ष का उल्लंघन हुआ हो या होने की संभावना हो, बेशक अभी तक कर्त्ता के मन में नैतिक दुविधा उत्पन्न न हुई हो या वह स्थिति उस कर्मचारी या संगठन के लिये कुछ लाभ ही क्यों न पैदा करती हो, नैतिक चिंता कहलाती है। नैतिक दुविधा- सामान्यतः दुविधा उस स्थिति को कहते हैं जब किसी व्यक्ति के पास दो या अधिक विकल्प हों और विकल्प एक-दूसरे से पूर्णतः अलग हों अर्थात् उन्हें साथ-साथ न चुना जा सकता हो, परन्तु किसी एक विकल्प को चुनना अनिवार्य हो अर्थात् निर्णय को टाला न जा सकता हो और सारे विकल्प ऐसे हों कि किसी को भी चुनकर पूर्ण संतुष्टि मिलनी संभव न हो। सभी दुविधाएँ नैतिक दुविधाएँ नहीं होतीं। नैतिक दुविधा के विकल्पों में से कम-से-कम एक पक्ष नैतिकता से संबंधित होता है और ऐसा भी हो सकता है कि दोनों विकल्प अलग-अलग मूल्यों पर आधारित हों। सार्वजनिक संस्थाओं से जुड़ी नैतिक चिंताएँ कहीं सरकार जनता पर आवश्यकता से अधिक नियंत्रण तो नहीं लगा रही है क्योंकि सरकार को व्यक्ति की स्वतंत्रता पर सिर्फ उतना नियंत्रण लगाने का नैतिक हक है, जिसके बिना शांतिपूर्ण तरीके से व्यवस्था नहीं चल सकती। सरकारी संपत्ति की चोरी या दुरुपयोग, जैसे- कोयला घोटाला, 2G स्पेक्ट्रम घोटाला। गोपनीय सूचनाओं का रहस्योद्घाटन करना आदि। निजी संस्थाओं से जुड़ी कुछ नैतिक चिंताएँ सरकार पर नीति बदलने के लिये दबाव डालना। कर्मचारियों से भेदभाव। राजनीतिक संपर्कों की मदद से बड़े मामलों में धोखाधड़ी करना। वेतन के अतिरिक्त कुछ अन्य आवश्यक सुविधाओं का अभाव आदि। नैतिक चिंताओं के समाधान के उपाय नैतिक संहिता और आचरण संहिता सही तरीके से बनाई जाएँ और उनका पालन गंभीरता से हो। नियुक्ति के समय नैतिक मूल्यों की परीक्षा मनोवैज्ञानिक परीक्षणों के माध्यम से होनी चाहिये। प्रशिक्षण के दौरान सिविल सेवा मूल्यों पर अधिक बल दिया जाए, जैसे- गाँवों से संपर्क, वंचित वर्गों से संपर्क। भ्रष्टाचार को फौजदारी अपराध घोषित किया जाए, आर्थिक नुकसान की भरपाई ज़रूरी हो। नैतिक चिंताओं के समाधान का स्थायी आधार है- समुचित कार्य संस्कृति का विकास।</s>
<s>[INST]आप के पड़ोस में एक व्यक्ति ओम प्रकाश रहता है। आप उसकी गतिविधियों को देखते हैं तो यह पाते हैं कि कुछ दिनों से वह अक्सर ही अपने 11 वर्षीय बेटे हर्ष से भारत में लोकतंत्र के बदले अधिनायकवादी व्यवस्था की स्थापना की वकालत करता रहता है। वह व्यक्ति कुछ धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों को मिलने वाली विशेष सुविधाओं के भी विरोध में है। उसका मानना है कि वे लोग इस देश के निवासी नहीं हैं और उन्हें भारत में रहने का अधिकार नहीं है। उन्हें उनके अपने देशों में वापस भेज दिया जाना चाहिये ताकि भारत में शांति व्यवस्था कायम हो सके। उपर्युक्त परिस्थिति में हर्ष के पिताजी के दृष्टिकोण पर टिप्पणी कीजिये।[/INST]उत्तर : हर्ष के पिता का दृष्टिकोण अधिनायकवाद की अल्प समझ से ऊपजे कथित लाभों पर आधारित प्रतीत होता है। अस्वीकृति और निराशा के भाव से परिपूर्ण उनका यह दृष्टिकोण लोकतंत्र की बीमारियों जैसे- तुष्टिकरण की राजनीति, धीमी निर्णयन की प्रक्रिया, असहमतियों के संघर्ष और आज़ादी के 70 वर्षों के दौरान होने वाले अत्यल्प विकासात्मक गतिविधियों के कारण ही उनका दृष्टिकोण तानाशाही व्यवस्था की ओर झुका हुआ प्रतीत होता है। लेकिन ओम प्रकाश जी का यह झुकाव आइडिया ऑफ इंडिया की भावना के विपरीत है। साथ ही यह हमारे स्वतंत्रता सेनानियों व संविधान निर्माताओं के आदर्शों और विविधता भरे समाज से मेल नहीं खाता है। उल्लेखनीय है कि लोकतंत्र लोगों की सहमति और कानून के शासन के आधार पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता, विविधता के साथ नागरिक और व्यक्तिगत अधिकारों को बढ़ावा देता है जो किसी व्यक्ति को अधिकतम क्षमता के लिये आवश्यक है। इसके विपरीत अधिनायकवादी शासन प्रणाली में ये सुविधाएँ नहीं उपलब्ध होती हैं। धार्मिक अल्पसंख्यकों को लेकर उनका विचार निश्चित ही व्याकुल करने वाला है और उनके द्वारा इन विचारों को अपने बेटे को प्रेषित करना भविष्य के लिये खतरनाक साबित हो सकता है। इस उम्र में बच्चे में इन भावनाओं को भरने से उसका दृष्टिकोण प्रभावित होगा और आगे चलकर वह सहिष्णुता, बंधुत्व और विविधता जैसे मूल्यों का सम्मान करने में खुद को असमर्थ पाएगा। इस संदर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि एक व्यक्ति या परिवार के स्तर पर निहित यह भाव बताता है कि हम सामूहिक रूप से धार्मिक भेदभाव को दूर करने में असमर्थ रहे हैं। धार्मिक अल्पसंख्यकों को देश से बाहर करने और उसके बाद शांति स्थापना जैसे विचार इतिहास और भारत के ‘सर्वधर्म समभाव’ जैसे मूल्यों को लेकर उनकी अज्ञानता को उज़ागर करते हैं। वस्तुतः भारत में विभिन्न धर्मों का सह-अस्तित्व कोई नई बात नहीं है, विविधता हमारी धरोहर के साथ प्राथमिक मूल्य के रूप में स्थापित है। अतः श्रीमान ओमप्रकाश से मुलाकात कर मैं यह बताना चाहूँगा कि भारत को दुनिया में एक सफल लोकतंत्र के रूप में शुमार किया जाता है। यद्यपि बदलते परिदृश्य के साथ इसमें सुधार की आवश्यकता है लेकिन लोकतंत्र के बदले तानाशाही व्यवस्था को अपनाना इसका समाधान नहीं है, बल्कि प्रगतिशील विचारों को अंगीकृत करने और समस्याओं को लेकर सार्वजनिक भागीदारी सुनिश्चित करने से इसका </s>
<s>[INST]भावनात्मक बुद्धिमत्ता से संबंधित डेनियल गोलमेन के मॉडल पर टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा- डेविड गोलमेन के अनुसार भावनात्मक बुद्धिमत्ता की परिभाषा। गोलमेन के भावनात्मक बुद्धिमत्ता के मॉडल को बिंदुवार लिखें। डेनियल गोलमेन एक लोकप्रिय मनोवैज्ञानिक हैं। गोलमेन का ज़्यादा बल भावनात्मक बुद्धिमत्ता के व्यावहारिक पक्ष पर है। उन्होंने स्पष्ट रूप से भावनात्मक बुद्धिमत्ता को योग्यता या गुण के रूप में परिभाषित नहीं किया है। उनका मानना है कि भावनात्मक बुद्धिमत्ता एक अर्जित की जाने वाली योग्यता या क्षमता है, किंतु उसकी परिधि हमारी जैविक संरचनाओं से भी प्रभावित होती है। गोलमेन ने भावनात्मक बुद्धिमत्ता को 5 योग्यताओं या क्षमताओं का समूह माना है- स्व-जागरूकता (Self Awareness) – इसका अर्थ है अपनी भावनाओं, अनुभूतियों, स्वभाव, मूल्यों, उद्देश्यों, क्षमताओं व कमज़ोरियों का स्पष्ट ज्ञान। व्यक्ति के निर्णय तभी सही होंगे जब वह अपने मूल व्यक्तित्व से परिचित होगा। खुद को ठीक से न समझने वाले व्यक्ति के निर्णय बाहरी दबावों या तात्कालिक प्रलोभनों पर आधारित होंगे और ऐसा हर निर्णय बाद में गलत साबित होता है। आत्मनियमन (Self Regulation)- इसका अर्थ है अपनी भावनाओं का स्वभाव, उनकी तीव्रता और उनकी अभिव्यक्ति को प्रबंधित करना। इसके तीन पक्ष हैं- 1. यदि भावना की प्रकृति उचित नहीं है तो उसे अभिव्यक्त होने से रोक देना। जैसे- क्रोध के फलस्वरूप मन में आए हिंसा के भाव को रोक देना। 2. यदि भावना सही है, किंतु उसकी तीव्रता गलत है तो उस तीव्रता को संतुलन के स्तर पर ले जाना। 3. भावनाओं को अभिव्यक्त करते समय ध्यान रखना कि अभिव्यक्ति की अधिकता स्वयं एक समस्या बन सकती है। आत्म अभिप्रेरण (Self Motivation)- इसका अर्थ है कि जब व्यक्ति का उद्देश्य काफी दूर हो और बाहरी अभिप्रेरणाएँ उपलब्ध न हो पा रही हों तो उसमें यह क्षमता होनी चाहिये कि वह स्वयं को प्रेरित कर सके। समानुभूति (Empathy)- इसका अर्थ है दूसरों की भावनाओं और अनुभूतियों को सटीक रूप से पढ़ने की क्षमता, चाहे वह व्यक्ति अपनी भावना को छिपाना चाहता हो। सामाजिक दक्षता (Social Skill)- इसे अंतर्वैयक्तिक दक्षता भी कहा जाता है। इसका अर्थ है कि व्यक्ति को अन्य व्यक्तियों के साथ संबंध इस तरह से बनाकर रखना चाहिये कि उन संबंधों से उसे तथा सभी को लाभ हो।</s>
<s>[INST]अहिंसा की धारणा महावीर के दर्शन में है और गांधी के चिंतन में भी। दोनों की धारणाओं में अंतर स्पष्ट करते हुए बताइए कि आप स्वयं को किसके नज़दीक पाते हैं?[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा- महावीर के अनुसार अहिंसा की अवधारणा स्पष्ट करें। गांधी के अनुसार अहिंसा की अवधारणा स्पष्ट करें। दोनों अवधारणाओं की तुलना करें। दोनों में से अपने विकल्प का चुनाव कर उत्तर का निष्कर्ष लिखें। अहिंसा का मूल्य महावीर के दर्शन (जैन-दर्शन) और गांधी के चिंतन दोनों के केंद्र में है। अहिंसा का नकारात्मक अर्थ है- मन, कर्म, वचन से किसी को भी कष्ट न पहुँचाना। सकारात्मक अर्थ में अहिंसा के अंतर्गत सभी प्राणियों के प्रति प्रेम, दया, सहानुभूति और सेवाभाव रखना शामिल है। जैन धर्म में अहिंसा सभी कर्तव्यों से ऊँची है। अणुव्रत में कहा गया है कि खेती करते समय यदि पूरी सावधानी के बावज़ूद हिंसा हो जाए तो क्षम्य है। जान-बूझकर की गई अहिंसा अक्षम्य है। इसी आधार पर गर्भपात को अनैतिक माना गया है। जैन-दर्शन में अहिंसा से जुड़े कुछ अन्य नियम हैं-सूर्यास्त के बाद भोजन न करना, प्याज,लहसुन व ज़मीन के अंदर की अधिकांश सब्जियाँ, जैसे- आलू, मूली, गाज़र आदि न खाना, मुँह पर कपडा बाँधना ताकि बोलते समय साँस लेने में कोई जीव न मर जाए, पानी भी छान कर पीना आदि। गांधी के अनुसार अहिंसा नैतिक जीवन जीने का मूलभूत तरीका है। यह सिर्फ आदर्श नहीं, बल्कि यह मानव जाति का प्राकृतिक नियम है। हिंसा से किसी समस्या का तात्कालिक और एकपक्षीय समाधान हो सकता है, किंतु स्थायी और सर्वस्वीकृत समाधान सिर्फ अहिंसा से ही संभव है। गांधी के अनुसार अहिंसा बहुत ऊँचे नैतिक व आध्यात्मिक बल पर टिकी होती है। गांधी के चिंतन में अहिंसा की धारणा महावीर के दर्शन की तुलना में लचीली और व्यावहारिक है। उनके अनुसार हिंसक पशुओं, रोग के कीटाणुओं, फसलों के कीटों, असहनीय दर्द झेल रहे जीवों को मारने के लिये अहिंसा के नियम का उल्लंघन किया जाना उचित है। चिकित्सक द्वारा शल्य चिकित्सा के लिये की जाने वाली हिंसा उचित है, यदि वह केवल मरीज़ के हित में की जाए। गांधी के अनुसार यदि हिंसा और कायरता में से एक को चुनना हो तो हिंसा को चुनना उचित है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन दर्शन में अहिंसा का विचार महात्मा गांधी के अहिंसा संबंधी विचार की तुलना में कठोर है क्योंकि गांधी ने अहिंसा के अपवाद स्वीकार किये हैं, परंतु जैन-दर्शन प्रायः अहिंसा को निरपेक्ष रूप में लेता है। मैं अपने आप को गांधी के चिंतन में जो अहिंसा की अवधारणा है, उसके ज्यादा नजदीक पाता हूँ। हालांकि महावीर के दर्शन में भी अणुव्रतों के अंतर्गत अहिंसा के नियमों में ढील दी गई है, परंतु फिर भी वे नियम अपेक्षाकृत कठोर हैं। मेरी यही अवधारणा है कि अहिंसा की धारणा को अपवादों के साथ अपनाया जाना चाहिये।</s>
<s>[INST]मूल्यों के विकास में परिवार, समाज और शिक्षण संस्थाओं की क्या भूमिका होती है?[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा- मूल्यों के विकास में परिवार की भूमिका को समझाएँ। इसी प्रकार समाज की भूमिका लिखें। अंत में मूल्य विकास में शिक्षण संस्थानों की भूमिका को बतलाएँ। मूल्य हमारे व्यवहार या नैतिक आचार संहिता का महत्त्वपूर्ण अवयव है। ये मूल्य ऐसे आदर्श या मानक होते हैं जो किसी समाज या संगठन या फिर व्यक्ति के लिये दिशानिर्देश के रूप में कार्य करते हैं। विभिन्न संस्थाओं के माध्यम से विकसित ये मूल्य हमारे मन में गहराई तक बैठे होते हैं। मूल्यों के विकास में परिवार की भूमिका- मूल्यों के विकास में परिवार वह पहली सीढ़ी है जिस पर चढ़कर मानवीयता के लक्ष्य को पाना आसान लगता है। इसलिये परिवार कब, कैसे, कितना और किस प्रकार के मूल्यों को देना चाहता है, यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण हो जाता है। 6 वर्ष तक की आयु एक ऐसा पायदान है जब बच्चा दूसरों के आचरण से सबसे अधिक प्रभावित होता है, इसलिये प्राथमिक स्तर पर मूल्य इसी उम्र में निर्धारित होते हैं। हालाँकि बाद में भी मूल्य विकसित होते हैं, लेकिन प्रभाव का स्तर धीरे-धीरे कम हो जाता है। प्रशिक्षण, प्रोत्साहन, निंदा व दंड कुछ ऐसे उपकरण हैं, जिनसे ये मूल्य विकसित किये जा सकते हैं। यह भी ध्यान देने योग्य है कि परिवार एकल है या संयुक्त। संभव है एकल परिवार से वैयक्तिक होने का मूल्य प्राप्त हो और संयुक्त परिवार से साथ रहने का। परिवार का शैक्षणिक स्तर और आर्थिक स्तर भी मूल्यों की पृष्ठभूमि तय करने में सहायक होते हैं। मूल्यों के विकास में समाज की भूमिका- समाज की असली भूमिका वैसे तो विद्यालय जाने के साथ शुरू होती है किंतु उससे पूर्व 6 वर्ष तक समाज और परिवार मूल्य विकास में बराबर भागीदार होते हैं। आरंभ में मूल्यों का विकास कम होता है, लेकिन समाज से ज्यों-ज्यों संपर्क बढ़ता है, मूल्यों का विकास भी उत्तरोत्तर होता जाता है। मीडिया, सामाजिक समूहों से वार्तालाप,सह-शिक्षा विद्यालय(Co-education schools) आदि से समाज के नैतिक मानदंड,सामाजिक गतिशीलता, परिवर्तन जैसे विचारों का प्रभाव पड़ता है। विभिन्न धर्मों, जातियों और क्षेत्रों के लोगों के साथ संपर्क से धैर्य, सहिष्णुता जैसे मूल्यों को विकसित करना आसान होता है। ध्यातव्य है कि जो जितना सामाजिक होगा, उस पर समाज का उतना ही प्रभाव पड़ेगा। मूल्यों के विकास में शिक्षण संस्थानों की भूमिका- शिक्षण संस्थान दो स्तरों पर मूल्य विकास में योगदान देते हैं- आधारभूत शिक्षा के स्तर पर व उच्च शिक्षा के स्तर पर। आधारभूत मूल्यों का प्रभाव ज़्यादा होता है, जबकि उच्च शिक्षण संस्थान प्रायोगिक मूल्यों का विकास कर पाते हैं। व्यक्तित्व परिवर्तन की संभावना उच्च स्तर पर ज़्यादा होती है। विभिन्न विचारधाराओं के संपर्क में आने का क्रम भी उच्च शिक्षण संस्थानों से ही शुरू होता है। विभिन्न पाठ्यक्रमों द्वारा स्वतंत्रता, समानता, अहिंसा, नैतिक शिक्षा का प्रभाव भी मूल्य विकास में सहायक होता है। इस प्रक्रिया में अध्यापक और छात्र समूह भी अहम योगदान देते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि मूल्यों के विकास में परिवार, समाज और शिक्षा की बड़ी महती भूमिका होती है।</s>
<s>[INST]क्या अभिवृत्तियों के निर्माण में आनुवंशिक कारकों की कोई भूमिका होती है? चर्चा करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा – अभिवृत्तियों के निर्माण के लिये आनुवंशिक कारकों की भूमिका के समर्थन में तर्क लिखें। निष्कर्ष प्रायः ऐसा माना जाता है कि हमारी सारी अभिवृत्तियाँ समाजीकरण की प्रक्रिया में ही सीखी जाती हैं और उनमें से कोई भी जन्मजात नहीं होती। किंतु 1990 के आस-पास सामाजिक मनोविज्ञान में कुछ ऐसे अनुसंधान हुए, जो संकेत करते हैं कि सीमित मात्रा में आनुवंशिक कारक भी अभिवृत्ति के विकास में भूमिका निभा सकते हैं। इन अनुसंधानों से कुछ निष्कर्ष निकले गए हैं जो कि इस प्रकार हैं – आनुवंशिक कारकों का प्रभाव उन्हीं अभिवृत्तियों पर पड़ता है, जिनका संबंध आतंरिक प्रेरणाओं से है, जैसे-किसी विशेष संगीत या भोजन के प्रति सकारात्मक या नकारात्मक अभिवृत्ति। आनुवंशिक कारकों का संबंध उन विषयों से नहीं होता, जिनके लिये विशेष ज्ञान या सचेतता की आवश्यकता होती है। आनुवंशिक कारणों से निर्धारित होने वाली अभिवृत्तियों में परिवर्तन, सीखी गई अभिवृत्तियों में परिवर्तन की तुलना में कठिन होता है। सीखी गई अभिवृत्तियों की तुलना में आनुवंशिक अभिवृत्तियों का व्यवहार पर ज़्यादा गहरा और तीव्र प्रभाव होता है। आनुवंशिक कारकों से प्रायः केवल यह होता है कुछ व्यक्ति आमतौर पर सकारात्मक मनःस्थिति में होते हैं, जबकि कुछ आमतौर पर नकारात्मक मनःस्थिति में। यही सामान्य सकारात्मकता और नकारात्मकता आगे चलकर उनकी विशेष मनःस्थितियों को निर्मित करती है। उपरोक्त निष्कर्षों के बावजूद इस सबंध में कोई भी निश्चित दावा करना गलत होगा किंतु इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता थोड़ी बहुत मात्रा में हमारी अभिवृत्तियाँ आनुवंशिक कारकों से प्रभावित होती हैं।</s>
<s>[INST]भोजन अथवा खाद्य पदार्थों की बर्बादी कौन-सी नैतिक समस्याओं को जन्म देती है ? भारत के लिये यह कितना गंभीर मुद्दा है? चर्चा करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा- भोजन का महत्त्व और विश्व में भुखमरी की स्थिति। भोजन की बर्बादी से जुड़ी नैतिक समस्याएँ। भारत में भोजन की बर्बादी और भुखमरी का संक्षिप्त विवरण। निष्कर्ष। भोजन, वस्त्र और आवास मानवीय अस्तित्व के लिये तीन न्यूनतम आवश्यकताएँ हैं। इन तीनों में से किसी एक का भी अभाव मानव जीवन को दुष्कर कर देता है। लेकिन इन तीनों में से भी भोजन के अभाव का मुद्दा सबसे ज़्यादा गंभीर है। विश्व में प्रतिवर्ष जितना भोजन पैदा किया किया जाता है, उसका एक-तिहाई बर्बाद कर दिया जाता है। भोजन की इस मात्रा से दो अरब लोगों का पेट भरा जा सकता है। यह एक विडंबना है कि एक तरफ विश्व में करोड़ों लोग भुखमरी के शिकार हैं, वहीं रोज़ाना लाखों टन खाद्य पदार्थ बर्बाद कर दिया जाता है। भोजन की बर्बादी से जुड़ी नैतिक समस्याएँ- खाद्य पदार्थों की बर्बादी, मानव अस्तित्व के लिये ज़रूरी हक “भोजन के अधिकार” का उल्लंघन है। भोजन की बर्बादी विश्व के करोड़ों लोगों की सामाजिक सुरक्षा की उपेक्षा करती है। भोजन की बर्बादी दुनिया के करोड़ों बच्चों के कुपोषण के लिये भी ज़िम्मेदार है। पोषण के अधिकार का बाधित होना, बच्चों के शिक्षा और आगे चलकर आजीविका के अधिकार को भी बाधित करता है। खाद्य पदार्थों की बर्बादी संसाधनों के दुरुपयोग की ओर इंगित करती है। धन के साथ-साथ अनाज, जल, खाद्योत्पादन में लगी ऊर्जा आदि का दुरुपयोग भी इसी में निहित है। विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) द्वारा जारी एक रिपोर्ट में खाद्य अपव्यय का अध्ययन पर्यावरणीय दृष्टिकोण से करते हुए बताया गया है कि भोजन के अपव्यय से जल, ज़मीन और जलवायु के साथ-साथ जैव विविधता पर भी नकारात्मक असर पड़ता है। सड़ा हुआ भोजन मीथेन गैस उत्पन्न करता है, जो कि प्रमुख प्रदूषणकारी गैस है। भुखमरी के कारण समुदायों का पलायन उन इलाकों की ओर होता है जहाँ इनकी प्रचुरता है। अत्यधिक पलायन समुदायों में संघर्ष और सामाजिक असंतुलन पैदा कर देता है। भारत के परिप्रेक्ष्य में बात करें तो वैश्विक भुखमरी सूचकांक 2016(Global Hunger Index) में भारत 118 देशों की सूची में 97वें स्थान पर है। भारत में रोज़ लगभग 19 करोड़ लोग भूखे पेट सोते हैं। भारत में शादी-समारोहों, दावतों और होटलों में खाने की बर्बादी एक आम बात है। कोल्ड स्टोरेज की कमी, परिवहन और वितरण के उचित संसाधनों की कमी के चलते भी भारत में खाद्य पदार्थों की एक बड़ी मात्रा उपभोग के लायक नहीं रह जाती है। इस अपव्यय का दुष्प्रभाव हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ रहा है। हमारा देश पानी की कमी से जूझ रहा है और अपव्यय किये जाने वाले इस भोजन को पैदा करने में बड़ी मात्रा में पानी व्यर्थ चला जाता है। हालाँकि भोजन की बर्बादी को लेकर कुछ सकारात्मक कदम उठाए गए हैं, जैसे-जम्मू कश्मीर सरकार ने शादियों और समारोहों में होने वाली भोजन की बर्बादी के विरुद्ध एक कानून बनाया है। सुप्रीम कोर्ट ने 2001 में भोजन के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी है। प्रधानमंत्री ने भी “मन की बात” कार्यक्रम में भारत में होने वाली भोजन की बर्बादी पर चिंता व्यक्त की है। कुछ स्वयं सेवी संगठन भी व्यर्थ जाने भोजन को इकट्ठा कर ज़रूरतमंदों तक पहुँचाने का काम कर रहे हैं। परंतु ये प्रयास काफी नहीं है। हमें भोजन की बर्बादी को रोकने के लिये व्यापक स्तर पर प्रयास करने होंगे। हमें ये याद रखना होगा कि भोजन की बर्बादी न केवल एक मानवीय त्रासदी है, बल्कि संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है। यह मानव जाति के विरुद्ध एक अपराध है।</s>
<s>[INST]प्रतिबद्धता से क्या अभिप्राय है? क्या लोक सेवकों को प्रतिबद्ध होना चाहिये ? चर्चा करें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा- प्रतिबद्धता को परिभाषित करें। लोक सेवक को प्रतिबद्ध होना चाहिये या नहीं , तर्क के साथ लिखें। लोक सेवक को किसके प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिये, बिंदुवार लिखें। निष्कर्ष प्रतिबद्धता एक आतंरिक गुण है। प्रतिबद्धता व्यक्ति,विचारधारा या मूल्यों के प्रति हो सकती है। प्रतिबद्धता में संज्ञानात्मक व भावनात्मक पक्ष तो होता ही है, प्रायः व्यवहारात्मक पक्ष भी होता है। 1968 में इंदिरा गांधी ने एक प्रतिबद्ध नौकरशाही की मांग की थी। इस पर उनकी यह कहकर आलोचना की गई कि वे एक कठपुतली जैसी नौकरशाही चाहती हैं। लेकिन प्रश्न अवश्य खड़ा हो गया कि क्या नौकरशाही को प्रतिबद्ध होना चाहिये? यदि हाँ तो यह प्रतिबद्धता किसके प्रति होनी चाहिये? किसी कल्याणकारी राज्य की लोक-प्रक्रियाओं में सिविल सेवक महत्त्वपूर्ण एजेंट होते हैं। यदि इन सिविल सेवकों का रवैया लोक कल्याण के प्रति उदासीन रहेगा तो हमारे संवैधानिक उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हो सकेगी। इसलिये लोक सेवकों को प्रतिबद्ध तो अवश्य होना चाहिये परंतु उनकी प्रतिबद्धता किसके प्रति होनी चाहिये, इसके लिये निम्नलिखित निष्कर्ष महत्त्वपूर्ण हैं – लोक सेवकों की प्रतिबद्धता मूलतः संविधान के प्रति होनी चाहिये एवं इसे निरपेक्ष रूप में होना चाहिये। अर्थात् अगर व्यक्ति की विचारधारा और संवैधानिक विचारधारा में टकराव हो तो भी प्राथमिकता संविधान को दी जानी चाहिये। सामाजिक न्याय व कल्याणकारी उद्देश्यों के प्रति प्रतिबद्धता होनी चाहिये। इसके लिये लोक सेवक को वंचित वर्गों के प्रति करुणावान और संवेदनशील होना चाहिये। संसद द्वारा पारित विधानों और कानूनों के प्रति भी सामान्यतः उसे प्रतिबद्ध होना चाहिये। यदि किसी संसदीय नीति की नैतिकता पर गहरा विवाद है और वह सर्वोच्च न्यायलय में प्रश्नगत है, तो कुछ समय के लिये उस नीति के प्रति तटस्थ रहा जा सकता है। लोक सेवक को अपनी आचरण संहिता (code of conduct) और नीति संहिता (code of ethics) के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिये। किसी लोक सेवक को किसी राजनीतिक दल, उसकी विचारधारा या उसके किसी नेता के प्रति प्रतिबद्ध नहीं होना चाहिये। अतः स्पष्ट है कि लोक सेवक को प्रतिबद्ध होना चाहिये, परंतु उसकी प्रतिबद्धता जनकल्याण और संवैधानिक मूल्यों के प्रति होनी चाहिये।</s>
<s>[INST]साधन-साध्य संबंध पर व्यक्त विभिन्न नैतिक विचारों का उल्लेख करें। इस विषय पर गांधी जी के विचार किस प्रकार भिन्न हैं?[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा – साधन-साध्य संबंधों पर विभिन्न विचारकों के विचार। साधन-साध्य संबंधों पर गांधी जी के विचार । निष्कर्ष साधन–साध्य संबंध में नैतिक प्रश्न यह है कि साधन का नैतिक मूल्य साध्य से स्वतंत्र है या साध्य पर निर्भर करता है। इस विषय पर विभिन्न नैतिक विचार निम्नलिखित हैं- कुछ विचारकों का मानना है कि साध्य का नैतिक होना साधन को भी नैतिक बना देता है। मैकियावेली ने कहा है कि “ प्रिंस जो कुछ भी करेगा वह नैतिक माना जाएगा।” मार्क्स ने विषमता को समाप्त करने के लिये हिंसक क्रांति को नैतिक माना है। उपयोगितावादी (Utilitarian) मानते हैं कि अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख को साधने के लिये यदि कुछ व्यक्तियों को कुछ कष्ट उठाना पड़े तो यह अनैतिक नहीं है। स्पेंसर का तर्क है कि समाज की रक्षा के लिये कुछ व्यक्तियों की बलि दी जा सकती है। हीगल और ब्रेडले ने भी समाज और व्यक्ति को शरीर तथा अंगों के रूप में देखते हुए इस सिद्धांत को उचित माना है। प्राचीन भारतीय दर्शन में चाणक्य और चार्वाक का विचार भी साध्य को ही महत्त्व देता है। गांधी जी इन सभी विचारों को नकारते हैं। उनका दावा है कि साध्य अपने आप में चाहे कितना भी पवित्र हो, वह साधन को पवित्र नहीं बना सकता। इसी दृष्टि पर चलते हुए गांधी जी ने स्वाधीनता संग्राम को अहिंसक सत्याग्रह का रूप दिया। गांधी जी ने समाजवाद के आदर्श को अच्छा मानते हुए भी सोवियत संघ के समाजवाद का समर्थन नहीं किया था क्योंकि हिंसा और तानाशाही जैसे साधनों को समाजवाद का उद्देश्य भी पवित्र नहीं बना सकता। गांधी जी मानते थे कि मनुष्य के स्वभाव में दुर्बलताएँ होती हैं और वह हमेशा उत्कृष्ट व्यवहार नहीं कर सकता। वे यह भी मानते थे कि अत्यंत विरल परिस्थितियों में अशुभ साधन को चुनना ज़रूरी हो सकता है किंतु ऐसे साधनों से प्राप्त होने वाले साध्य को पूर्णतः नैतिक नहीं माना जा सकता। गांधी जी के अतिरिक्त स्वामी विवेकानंद का भी कहना है कि हम जितना साध्य पर ध्यान देते हैं, उससे अधिक हमें साधन पर ध्यान देना चाहिये। गांधी जी ने साध्य और साधन की एकता की शर्त रखी। बुरे साधनों से प्राप्त साध्य भी उनके अनुसार भ्रष्ट है। यदि साधन हिंसात्मक हैं, तो शांति का लक्ष्य कभी प्राप्त नहीं हो सकता। साध्य और साधन की पवित्रता और एकरूपता पर ही सिद्धि का भवन खड़ा होता है।</s>