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<s>[INST]मुगल चित्रकला भारतीय, फारसी और इस्लामी शैलियों के एक विशेष संयोजन को प्रतिबिंबित करती है। परीक्षण कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद मुगल चित्रकला भारतीय, फारसी और इस्लामी शैलियों का एक विशेष संयोजन कैसे है, स्पष्ट करें। हल करने का दृष्टिकोण प्रभावी भूमिका लिखें। मुगल चित्रकला की विशेषताओं को संक्षेप में स्पष्ट करें। स्पष्ट करें कि यह भारतीय, फारसी और इस्लामी शैलियों का एक विशेष संयोजन कैसे है? प्रभावी निष्कर्ष लिखें। मुगल काल राजनीतिक के साथ-साथ सांस्कृतिक प्रगति के दृष्टिकोण से भी भारतीय इतिहास में काफी महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। कला के क्षेत्र में मुगल शासकों की बेहतर अभिरुचि ने इस काल में कला के विकास को काफी प्रोत्साहन दिया। चित्रकला के क्षेत्र में मुगल शासकों का योगदान प्रशंसनीय है। वस्तुत: मध्यकालीन चित्रकला का विकास मुगल सम्राट के प्रोत्साहन का ही परिणाम है। भारत में मुगल चित्रकला का विकास हुमायूँ के शासनकाल से आरंभ हुआ और यह अकबर तथा जहाँगीर के शासनकाल में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया। वस्तुत: इस काल की चित्रकला पर स्वदेशी भारतीय शैली, ईरानी शैली व फारसी चित्रकला की सफाविद शैली का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। प्रकृति के घनिष्ठ अवलोकन और उत्तम तथा कोमल आरेखण पर आधारित सुनम्य प्रकृतिवाद मुगल शैली की प्रमुख विशेषता है। यह साैंदर्य के उच्च गुणाें से परिपूर्ण तथा प्राथमिक रूप से वैभवशाली प्रकृति की है। मुगल चित्रकला शैली पर ईरानी शैली का प्रभाव निर्णायक ढंग से पड़ा जिसके अंतर्गत चित्रकारों द्वारा राजदरबार के जीवन चरित्र, युद्ध के दृश्य, इत्यादि का चित्रण प्रमुख रूप से किया जाता था। इसके अलावा फूल-पौधे और पशु-पक्षी, वेश-भूषा इत्यादि पर भी ईरानी प्रभाव स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। उल्लेखनीय है कि भारत में ईरानी चित्रकला शैली का प्रभाव सल्तनत काल में भी स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है, जिसका विकसित रूप मुगल काल में देखने को मिला। अकबर के शासनकाल में मुगल चित्रकला शैली पर भारतीय शैली का अत्यधिक प्रभाव पड़ा इसका मुख्य कारण अकबर द्वारा भारत में समन्वित संस्कृति के विकास की नीति का अनुसरण करना था, जिससे भिन्न-भिन्न प्रकार की सांस्कृतिक परंपराएँ एक-दूसरे के संपर्क में आई विशेषतौर पर राजपूत शैली का प्रभाव अत्यधिक पड़ा जहाँ चौड़ी ब्रश की जगह गोल ब्रश का इस्तेमाल, रंगों के प्रयोग में भिन्नता इत्यादि उल्लेखनीय हैं। इस प्रकार मुगल चित्रकला शैली पर ईरानी, फारसी व भारतीय शैली संयोजन का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। बाद के वर्षों में यूरोपीय लोगों के आगमन से यूरोपीय शैली का भी स्पष्ट प्रभाव पड़ा जिसकी दो विशेषताओं यथा-व्यक्ति विशेष का चित्र बनाना और दृश्य में आगे दिखने वाली वस्तुओं को छोटा आकार में बनाने की कला को भारतीय चित्रकारों द्वारा ग्रहण किया गया।</s>
<s>[INST]‘त्रिक जंक्शन’ से आप क्या समझते हैं? विश्व के प्रमुख त्रिक जंक्शनों की चर्चा करते हुए बताएँ कि विनाशकारी भूकंपों का त्रिक जक्शनों से क्या संबंध है? (200 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • त्रिक जंक्शन की चर्चा करनी है तथा भूकंपों से इसके संबंधों को बताना है। हल करने का दृष्टिकोण • त्रिक जंक्शन का तात्पर्य बताइये • विश्व के प्रमुख त्रिक जंक्शनों की चर्चा कीजिये। • विनाशकारी भूकंप एवं त्रिक जंक्शन का संबंध बताइये। त्रिक जंक्शन वह बिंदु होता है जहाँ तीन विवर्तनिक प्लेटें मिलती हैं। त्रिक जंक्शन पर प्रत्येक सीमा कटक (R), ट्रेंच (T) या रूपांतर भ्रंश (F) के रूप में होती है। इस प्रकार त्रिक जंक्शन को प्लेट सीमांत के अनुसार वर्णित किया जाता है। गतिशील सीमांत प्लेटों पर स्थित त्रिक जंक्शन का क्षेत्र विनाशकारी भूकंपों से प्रभावित होता है। वर्तमान में प्लेट विवर्तनिकी विन्यास में छह प्रकार के त्रिक जंक्शन मौजूद हैं। विश्व के प्रमुख त्रिक जंक्शन निम्नलिखित हैं- अफार त्रिक जंक्शन- यह लाल सागर, अदन की खाड़ी तथा पूर्व अफ्रीकी रिफ्ट का जंक्शन है। रॉड्रिग्स त्रिक जंक्शन- यह दक्षिण हिंद महासागर में अफ्रीकी, इंडो-ऑस्ट्रेलियाई और अंटार्कटिक प्लेटस का त्रिक जंक्शन है। गैलापासोगस त्रिक जंक्शन- यहाँ नाज़का, कोकोज़ तथा प्रशांत प्लेट्स मिलती हैं। अज़ोरेस त्रिक जंक्शन- यहाँ पर उत्तर अमेरिकी प्लेट, यूरेशियन प्लेट और अफ्रीकन प्लेट मिलती हैं। बोसो त्रिक जंक्शन- यहाँ ओखेटस्क प्लेट, प्रशांत प्लेट और फिलीपींस प्लेट मिलते हैं। वह त्रिक जंक्शन जहाँ तीनों प्लेटें आपस में मिलती हैं भूकंप की दृष्टि से सक्रिय होता है। विवर्तनिकी हलचल के कारण यहाँ उच्च तीव्रता के भूकंप आने की संभावना होती है। चियापास अपतटीय क्षेत्र जहाँ ग्वाटेमाला, उत्तर अमेरिका और प्रशान्त प्लेट मिलती हैं, में प्राय: भूकंप आते रहते हैं। प्रशांत महासागर में मेंडोकिनो त्रिक जंक्शन तथा बोसो त्रिक जंक्शन भूकंप की दृष्टि से अत्यधिक सक्रिय हैं। इस प्रकार त्रिक जंक्शन और विनाशकारी भूकंपों के मध्य स्पष्ट संबंध पाया जाता है।</s>
<s>[INST]हड़प्पा की संस्कृति आज भी भारत में प्रचलित है। टिप्पणी कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • हड़प्पा के सांस्कृतिक लक्षणों की वर्तमान में भारतीय समाज में उपस्थिति पर चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण • सर्वप्रथम भूमिका लिखें। • हड़प्पाकालीन संस्कृति पर संक्षिप्त चर्चा करें। • वर्तमान भारतीय समाज में इसकी उपस्थिति को स्पष्ट करें। • प्रभावी निष्कर्ष दें। भारतीय संस्कृति प्राचीनता, निरंतरता व चिरस्थायीत्वता स्वरूप में स्पष्ट परिलक्षित होती है। भारतीय सांस्कृतिक इतिहास में हड़प्पा संस्कृति का योगदान उल्लेखनीय रहा है। इसने तत्कालीन भारतीय समाज के साथ-साथ वर्तमान भारतीय समाज को भी प्रभावित किया है। इसका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रभाव हिन्दू धर्म व धार्मिक विश्वासों पर पड़ा है। वर्तमान भारतीय समाज में इस संस्कृति के विद्यमान लक्षणों को विभिन्न रूपों में देख सकते हैं- हड़प्पा सभ्यता मातृ प्रधान सभ्यता थी जहाँ मातृ देवी का पूजन किया जाता था। इसे वर्तमान भारतीय समाज में भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है जहाँ लोगों द्वारा शक्ति देवी, ग्राम देवी इत्यादि के रूप में देवी की पूजा की जाती है। सैंधव सभ्यता से लिंग पूजा के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं तो वर्तमान भारतीय समाज में भी शिव के रूप में लिंग का पूजन किया जाता है। सैंधव सभ्यता में वृक्ष पूजन के प्रमाण मिले हैं। साथ ही, पशुओं की धार्मिक महत्ता के भी साक्ष्य मिले हैं, जो आज भी भारतीय हिन्दू समाज में दृष्टिगोचर होता है। सैंधव मुद्राओं से नाग पूजा के भी प्रमाण प्राप्त होते हैं जो आज भी भारतीय हिन्दू समाज में नाग पूजा की परंपरा के रूप में विद्यमान है। सैंधव सभ्यता के लोग जल को पवित्र मानते थे तथा धार्मिक समारोहों के अवसर पर सामूहिक स्नान आदि का काफी महत्त्व था जैसा कि बृहद स्नानागार से स्पष्ट होता है। यह भावना आज भी हिन्दू धर्म में विद्यमान (गंगा स्नान) है। चूड़ी व सिंदूर के साक्ष्य भी हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त हुए हैं जो आज भी भारतीय हिन्दू समाज में महिलाओं के प्रमुख प्रसाधन की वस्तु है। दुर्ग निर्माण व प्राचीरों के निर्माण की कला भी हमें सैंधव काल से प्राप्त होती है। सुनियोजित ढंग से नगरों बसाने का ज्ञान सैंधव काल की ही देन है। सुरक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता इत्यादि के क्षेत्र में भी सैंधव निवासियों ने बाद की पीढ़ियों को निर्देशित किया। उपरोक्त के अलावा मूर्तिकला, चित्रकला इत्यादि के विकसित रूप कहीं-न-कहीं सैंधव कला से प्रभावित हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि सैंधवकालीन सांस्कृतिक जीवन के लक्षण इस सभ्यता के पतन होने के पश्चात् भी वर्तमान भारतीय समाज में जीवंत रूप में विद्यमान हैं और भारतीय जन-जीवन को इतिहास के गौरव से अवगत करा रहे हैं।</s>
<s>[INST]सुस्पष्ट कीजिये कि उपनिवेशवाद ने किस प्रकार से औपनिवेशिक समाज को मौलिक रूप से परिवर्तित कर दिया एवं उसे विश्व पूंजीवादी व्यवस्था का अभिन्न अंग बना दिया? (150 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • उपनिवेशवाद से औपनिवेशिक भारतीय समाज में होने वाले मौलिक परिवर्तनों को बताना है। • किस प्रकार उपनिवेशवाद से पूंजीवादी व्यवस्था का अभिन्न अंग बना गया? हल करने का दृष्टिकोण • उपनिवेशवाद का संक्षिप्त परिचय दें। • उपनिवेशवाद ने औपनिवेशिक भारतीय समाज को कैसे परिवर्तित किया? • यह विश्व पूंजीवादी व्यवस्था का अंग कैसे बना? • निष्कर्ष। उपनिवेशवाद से तात्पर्य किसी शक्तिशाली एवं विकसित राष्ट्र द्वारा किसी निर्बल एवं अविकसित देश पर उसके संसाधनों का अपने हित में दोहन करने के लिये राजनीतिक नियत्रंण स्थापित करना है। इस क्रम में औपनिवेशिक शक्ति अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये उपनिवेशों पर सामाजिक-आर्थिक एवं सांस्कृतिक नियंत्रण भी स्थापित करती है। इससे औपनिवेशिक समाज में मौलिक परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। जहाँ तक भारतीय औपनिवेशिक समाज की बात है तो उपनिवेशवाद ने इसे निम्नलिखित संदर्भो में मौलिक रूप से परिवर्तित किया जैसे: राजनीतिक स्तर पर स्वतंत्रता, समानता एवं जनतंत्र के विचारों का प्रसार हुआ। फलत: भारतीयों ने भी परंपरागत वंशानुगत शासन प्रणाली के स्थान पर लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में अपनी आस्था व्यक्त की। प्रशासन के स्तर पर भी वंशानुगत एवं कुलीन प्रशासक के स्थान पर योग्यता का महत्त्व स्थापित हुआ। शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत के आधार पर प्रशासन एवं न्याय को अलग-अलग देखा जाने लगा। विधि के शासन का महत्त्व स्थापित हुआ। संचार एवं परिवहन के साधनों के विकास तथा प्रशासनिक एकरूपता के कारण एकीकरण एवं राष्ट्रवाद की भावना के विकास को बढ़ावा मिला, जो अंतत: भारतीय राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण सहायक सिद्ध हुआ। उपनिवेशवाद से पाश्चात्य शिक्षा एवं चितंन का प्रचार-प्रसार हुआ, जिससे तार्किकता एवं मानवतावादी दृष्टिकोण का उदय हुआ। इसके आधार पर परंपरागत रूढ़ियों, धार्मिक एवं जातीय कुरीतियों में सुधार के प्रयास आरंभ हुए। इसी क्रम में राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, रमाबाई एवं सर सैयद अहमद खाँ जैसे समाज सुधारक सामने आए। जहाँ तक विश्व पूंजीवाद व्यवस्था के अंग बनने की बात है तो अंग्रेज़ों ने मातृ देश के हित में कई नीतियाँ लागू कीं, जैसे: अंग्रेज़ों ने भारतीय कृषि को परिवर्तित करने के प्रयास में जमींदारी व्यवस्था का सूत्रपात किया जो मुगल काल में भारत में विद्यमान नहीं थी। ज़मीन को व्यक्तिगत संपत्ति बनाने से इसमें पूंजीवादी तत्त्व जुड़ गए, जो बड़े पैमाने पर स्वतंत्र रूप से खरीदी एवं बेची जाती थी। कृषि के वाणिज्यीकरण से भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ गई तथा कृषि का पूंजीवादी रूपातंरण हुआ। उदाहरण के लिये अमेरिकी क्रांति के दौरान भारत से कपास के निर्यात में वृद्धि हुई। पूंजीवाद से ही प्रभावित होकर ब्रिटिश निवेशकों ने भारत में रेलवे, जूट उद्योग एवं चाय बागानों आदि में निवेश किया। लेकिन पूंजीवाद का यह स्वरूप मुख्यत: औपनिवेशिक शक्ति के ही हित में था तथा यह उपनिवेश के विकास में सहायक की बजाय अवरोधक ही था। इसका कारण औपनिवेशिक शक्ति द्वारा अपने मातृ देश के हित में नीतियाँ बनाना था। इसी का परिणाम था कि भारत विश्व पूंजीवाद का अभिन्न अंग होते हुए भी अपनी स्वतंत्रता के समय विऔद्योगीकरण एवं कृषि में पिछड़े देश के रूप में सामने आया। कह सकते हैं कि उपनिवेशवाद ने औपनिवेशिक भारतीय समाज में राजनीतिक, प्रशासनिक एवं सामाजिक दृष्टि से मौलिक परिवर्तन किया तथा इसे विश्व पूंजीवादी व्यवस्था का अंग बना दिया। इस पूंजीवाद का स्वरूप औपनिवेशिक शक्ति के ही हित में था।</s>
<s>[INST]भारत तलछटीकरण की समस्या से ग्रस्त है। इस संदर्भ में तलछटी बेसिनों का सर्वेक्षण इस समस्या के समाधान के साथ-साथ आर्थिक दृष्टि से किस प्रकार महत्त्वपूर्ण हो सकता है? स्पष्ट कीजिये। (200 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • भारत में तलछटीकरण की समस्या एवं तलछटी बेसिनों के सर्वेक्षण के आर्थिक महत्त्व की चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण • तलछटीकरण का सामान्य परिचय देते हुए एक प्रभावी भूमिका लिखें। • तलछटी बेसिनों के सर्वेक्षण का इस समस्या के समाधान एवं आर्थिक दृष्टिकोण से महत्त्व को बताएँ। • प्रभावी निष्कार्ष लिखें। प्रवाहित जल में उपस्थित अवसादों का ‘गुरुत्व बल’ या ‘अपकेंद्री बल’ के कारण ज़मीन पर बैठ जाना तलछटीकरण कहलाता है। भारत में हिमालयी क्षेत्र तथा प्रायद्वीपीय पठार की अधिकांश नदियाँ तलछटीकरण की समस्या से ग्रस्त हैं। तलछटीकरण विभिन्न जलाशयों, सिंचाई प्रणालियों व जलविद्युत परियोजनाओं के लिये गंभीर चुनौती उत्पन्न कर रहा है। तलछटी बेसिनों के सर्वेक्षण से इन समस्याओं से निपटने में सहायता मिलेगी, साथ ही यह आर्थिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण साबित होगा। भारत में कुल तलछट घाटी क्षेत्र के लगभग 48 प्रतिशत हिस्से का भू-वैज्ञानिक आँकड़ा उपलब्ध नहीं है। जानकारी के अभाव में इस क्षेत्र में भविष्य की खोज और उत्पादन से जुड़ी गतिविधियों का मूल्यांकन करना मुश्किल हो जाता है। हाल ही में भारत सरकार ने भारत की तलछट घाटियों, जिनके बारे में सीमित आँकड़े उपलब्ध हैं, के लिये सिस्मिक डेटा अधिगृहीत करने हेतु महत्त्वपूर्ण परियोजना को मंज़ूरी दी है। तलछटी बेसिनों का सर्वेक्षण निम्नलिखित रूप में आर्थिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हो सकता है- भविष्य की खोज और उत्पादन से जुड़ी गतिविधियाँ शुरू की जा सकेंगी। तेल और गैस के घरेलू उत्पादन के लिये विभिन्न कंपनियों द्वारा सर्वेक्षण किया जा सकेगा। तेल और गैस के घरेलू उत्पादन में निवेश को आकर्षित करने में मदद मिलेगी। विभिन्न परियोजनाओं के शुरू होने से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रोज़गारों का सृजन होगा। नई परियोजनाओं के लिये विभिन्न सेवाओं की आवश्यकता के चलते सहायक उद्योगों का विकास होगा। इस समस्या से सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्रों का चिह्नांकन संभव होगा। समाधान के लिये उपयुक्त उपाय अपनाने में मदद मिलेगी। तलछटी बेसिनों के सर्वेक्षण से क्षेत्र से संबंधित महत्त्वपूर्ण आँकड़े प्राप्त होंगे। इन आँकड़ों की सहायता से इन क्षेत्रों की संभावनाओं का पता लगाया जा सकेगा जिससे भविष्य की खोज और उत्पादकता संबंधी गतिविधियों के लिये प्रभावी योजनाएँ बनाने में मदद मिलेगी।</s>
<s>[INST]“हिमालय प्रदेश में भू-आकृतिकीय परिवर्तन पर्यावरणीय आपदाओं के लिये अधिकांशतः उत्तरदायी हैं।” प्रासंगिक उदाहरणों के साथ टिप्पणी कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न-विच्छेद: हिमालय प्रदेश में भू-आकृतिकीय परिवर्तन। हिमालय प्रदेश में भू-आकृतिकीय परिवर्तनों के कारण उत्पन्न होने वाली पर्यावरणीय आपदाएँ। हिमालय भू-गर्भिक रूप से दुनिया की सबसे अस्थिर पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है एवं अत्यधिक ऊंचाई, खड़े ढ़ाल, बड़ी संख्या में हिमनदों की उपस्थिति इस क्षेत्र को स्वाभाविक रूप से प्राकृतिक आपदाओं के लिये अतिसंवेदनशील बनती हैं। हिमालय प्रदेश में भू-आकृतिकीय परिवर्तन: भूकंप एवं भू-स्खलन के कारण होने वाले भू-आकृतिकीय परिवर्तन। हिमनदों का पिघलने के कारण भू-आकृतिकीय परिवर्तन। मानवीय हस्तक्षेपों से प्रेरित भू-आकृतिकीय परिवर्तन; जैसे कि- बांधों, सड़कों एवं अन्य अवसंरचनाओं का निर्माण। अन्य कारणों से होने वाले भू-आकृतिकीय परिवर्तन; जैसे कि- बादल फटने से प्रेरित भूस्खलन एवं अन्य भू-आकृतिकीय परिवर्तन आदि। हिमालय प्रदेश में भू-आकृतिकीय परिवर्तनों के कारण होने वाली पर्यावरणीय आपदाओं को निम्नलिखित बिन्दुओं के संदर्भ में समझा जा सकता है- हिमालय प्रमुख भूगर्भिक फॉल्ट (Fault) और थ्रस्ट (Thrust) के माध्यम से विभिन्न उपक्षेत्रों में विभाजित है। इन क्षेत्रों का भू-गतिशीलता की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील होने के कारण यहाँ पर्यावरणीय आपदाओं की अधिकता स्वाभाविक है। उदाहरणार्थ- भारत-नेपाल सीमा पर प्रति वर्ष भूकंप की सबसे बड़ी संख्या दर्ज की जाती है। हिमालय में अवस्थित ग्लेशियर एशिया और भारत की अधिकांश नदियों के लिये प्रमुख जल-स्रोत हैं। इन ग्लेशियरों के तेज़ी से पिघलने की वजह से अल्पकालिक रूप से बाढ़ और दीर्घावधि में सूखा एवं पानी की कमी के रूप में दोहरी आपदा की स्थिति पैदा हो जाती है। बिहार में हर वर्ष कोसी नदी में आने वाली बाढ़ को इस संदर्भ में देखा जा सकता है। पर्वतीय क्षेत्रों में ग्लेसिअल लेक आउटबर्स्ट (Glacial Lake Outburst) के कारण अल्पकालिक तीव्र बाढ़ आपदा का रूप ग्रहण कर लेती है। साथ ही इसके कारण भू-स्खलन की समस्या भी प्रबल हो जाती है। कई बार पर्वतीय क्षेत्रों में वनाग्नि आपदा का रूप धारण कर लेती है। उल्लेखनीय है कि भूकंप आदि के कारण चट्टानों के आपस में टकराव से वनों में आग लग जाती है। हिमालय में उच्च-भूकंपीय क्षेत्रों में बांध परियोजनाओं के कारण, भूस्खलन, फ्लैश-बाढ़, भूकंप आदि की तीव्रता और बारंबारता में वृद्धि आसपास के क्षेत्रों एवं परियोजनाओं दोनों के लिये अत्यंत गंभीर है। बांधों के निर्माण के कारण बड़ी मात्रा में अवसादन जहाँ एक ओर भूस्थैतिक असंतुलन पैदा करता है वहीं मैदानी क्षेत्रों में इन नदियों द्वारा स्थानांतरित पोषक तत्त्वों की कमी दीर्घकालिक रूप से कृषि उत्पादन को दुष्प्रभावित करती है। पोषक तत्त्वों में आने वाली इस कमी को पूरा करने के लिये अत्यधिक उर्वरकों के प्रयोग से उक्त क्षेत्रों में अन्य पर्यावर्णीय समस्याएँ उत्पन्न होती हैं जो नई आपदाओं को प्रेरित करती हैं। प्राकृतिक एवं मानवीय कारणों से वनोन्मूलन भूकंपों के विनाशकारी प्रभावों को बढ़ाती है और अधिक भूस्खलन तथा बाढ़ को प्रेरित करती है। यद्यपि इस क्षेत्र में होने वाली अधिकांश भू-आकृतिकीय परिवर्तनों एवं उसकी वजह से घटित पर्यावरणीय आपदाओं का कारण प्राकृतिक हैं किंतु निरंतर बढ़ते मानवीय हस्तक्षेपों ने न केवल इन आपदाओं की तीव्रता बल्कि बारंबारता को भी बढ़ा दिया है।</s>
<s>[INST]आधुनिक काल में चित्रकला के विकास पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • आधुनिक चित्रकला की पृष्ठभूमि लिखिये। • आधुनिक काल में विकसित कुछ चित्रकला की शैलियों का वर्णन कीजिये। • अंततः सारगर्भित निष्कर्ष लिखिये। भारत की सत्ता की चाबी अंग्रेज़ों के हाथ में जाने के साथ ही पहले से कमज़ोर हो चली राजस्थानी, मुगल और पहाड़ी चित्रकला अपने मुहाने पर पहुँच गई। संभवतः इसका कारण सरकारी संरक्षण का अभाव व बढ़ती गरीबी थी। चित्रकारों ने नगरों में रहना प्रारंभ कर दिया और पुरानी चित्रकला शैलियों के चित्रों की नकल करने लगे। फिर भी देश के अलग-अलग क्षेत्रों में स्थानीय शैलियाँ अपने तरीके से काम कर रही थी। इसमें से कुछ शैलियाँ इस प्रकार हैं- कालीघाट के पट्टचित्र: कलकत्ता के मशहूर काली मंदिर के पास कागज़, टाट या कपड़े पर बने चित्र जो कि स्थानीय मांग पर आधारित थे, उन्हें कालीघाट के चित्र कहा गया। ओडिशा के पट्टचित्र: इस शैली के चित्रों में विजयनगर का आकृति विधान, मुगलों का रेखांकन, स्थानीय लोक कला और कालीघाट के प्रभाव दिखते हैं। कपड़े और टाट पर बने इन चित्रों का विषय धार्मिक है। पटना या कंपनी शैली: मुगल कला और यूरोपीय कला के सम्मिश्रण से जो शैली सामने आई उसे उसे कंपनी शैली कहते हैं। ये चित्र पटना में बनाए गए थे, इसलिये इन्हें पटना शैली भी कहा गया। इन चित्रों में छाया के माध्यम से वास्तविकता लाने का प्रयास किया गया तथा प्रकृति का यथार्थवादी चित्रण अलंकारिता के साथ किया गया। मधुबनी शैली के चित्र: यह कला शैली बिहार के मिथिलांचल इलाके के मधुबनी, दरभंगा और नेपाल के कुछ इलाकों में प्रचलित हुई। महिलाओं द्वारा रंगोली बनाने के रूप में शुरू हुई इस शैली को अब कागज़ और भित्तियों में देखा जा सकता है। इसे प्रकाश में लाने का श्रेय डब्ल्यू. जी. आर्चर को जाता है, जिन्होंने वर्ष 1934 में बिहार में आए भूकंप के बाद इलाके का जायज़ा लेने के दौरान इस पेंटिंग को देखा। निष्कर्षतः स्वतंत्रता के पश्चात् वर्ष 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद से भारतीय चित्रकारों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अधिक सराहना मिली है।</s>
<s>[INST]‘लुप्तप्राय भाषाओं की सुरक्षा और संरक्षण के लिये योजना’ (SPEL) के बारे में बताइये तथा लुप्तप्राय भाषाओँ की सुरक्षा हेतु कुछ उपाय सुझाइये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • परिचय में भाषा के बारे में बताइये। • ‘लुप्तप्राय भाषाओं की सुरक्षा और संरक्षण के लिये योजना’ (SPPEL) के बारे में लिखिये। • भाषाओं के पतन के कारण व इसे रोकने के उपाय बताइये। • अंततः निष्कर्ष लिखिये। भाषा वह माध्यम है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचारों और भावनाओं को व्यक्त करता है तथा इसके लिये वह वाचिक ध्वनियों का उपयोग करता है। सामान्यतः भाषा को वैचारिक आदान-प्रदान का माध्यम कहा जा सकता है तथा यह हमारी अस्मिता एवं सामजिक-सांस्कृतिक विकास का माध्यम भी है, किंतु हाल ही में भारत में अनेक भाषाएँ विलुप्ति की कगार पर पहुँच गईं हैं। भारतीय लोकभाषा सर्वेक्षण, 2013 के अनुसार पिछले 50 वर्षों में 220 भाषाएँ लुप्त हो चुकी हैं, जबकि 197 भाषाओं को लुप्तप्राय के रूप में वर्गीकृत किया गया है। लुप्तप्राय भाषाओं की सुरक्षा और संरक्षण के लिये योजना (SPPEL) इसका एकमात्र उद्देश्य देश की ऐसी भाषाओं का दस्तावेजीकरण करना और उन्हें संगृहीत करना है जिनकी निकट भविष्य में लुप्तप्राय या संकटग्रस्त होने की संभावना है। इस योजना के अधीन केन्द्रीय भारतीय भाषा संस्थान देश में 10000 से कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली सभी मातृभाषाओं और भाषाओं की सुरक्षा, संरक्षण एवं प्रलेखन का कार्य करता है। भाषाओं के पतन के कारण : भारत सरकार द्वारा 10,000 से कम लोगों द्वारा प्रयोग की जाने वाली भाषाओं को मान्यता नहीं दी जाती है। समुदायों की प्रवासन एवं आप्रवासन की प्रवृत्ति के कारण पारंपरिक बसावट में कमी आती जा रही है, जिसके कारण क्षेत्रीय भाषाओं को नुकसान पहुँचता है। रोज़गार के प्रारूप में परिवर्तन बहुसंख्यक भाषाओं का पक्षधर है। सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों में परिवर्तन। ‘व्यक्तिवाद’ की प्रवृत्ति में वृद्धि होना, समुदाय के हित से ऊपर स्वयं के हित को प्रथिमकता दिये जाने से भाषाओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। क्या किये जाने की आवश्यकता है? भाषा के अस्तित्व को सुरक्षित रखने का सबसे बेहतर तरीका ऐसे विद्यालयों का विकास करना है जो अल्पसंख्यकों की भाषा (जनजातीय भाषाएँ) में शिक्षा प्रदान करते हैं। यह भाषा के संरक्षण करने तथा उसे समृद्ध बनाने में सक्षम भूमिका निभा सकता है। भारत की संकटग्रस्त भाषाओं के संरक्षण और विकास के लिये प्रोजेक्ट टाइगर की तर्ज पर एक विशाल डिजिटल परियोजना शुरू की जानी चाहिये। ऐसी भाषाओं के महत्त्वपूर्ण पहलुओं जैसे- कथा निरूपण, लोकसाहित्य तथा इतिहास आदि का श्रव्य दृश्य/ऑडियो विज़ुअल प्रलेखन (Documentation) किया जाना चाहिये। इस तरह के प्रलेखन प्रयासों को बढ़ाने के लिये ग्लोबल लैंग्वेज हॉटस्पॉट्स (Global Language Hotspots) जैसी अभूतपूर्व पहल के मौजूदा लेखन कार्यों का इस्तेमाल किया जा सकता है। निष्कर्षतः भारत की विविधता इसकी अद्वितीय विशेषता है, जिसमें भाषाओं का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। अतः सरकार व नागरिकों द्वारा लुप्तप्राय भाषाओं के संरक्षण हेतु कदम उठाए जाने की आवश्यकता है ताकि भारत की विविधता को बनाए रखा जा सके।</s>
<s>[INST]महिलाओं के समक्ष विद्यमान निराशाजनक आर्थिक असमानता के परिदृश्य में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है क्योंकि वे अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक योगदान दे सकती हैं। तर्क दीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण- • भूमिका में महिला श्रम बल की स्थिति का वर्णन कीजिये। • अर्थव्यवस्था में योगदान को लेकर महिलाओं के समक्ष विद्यमान चुनौतियाँ लिखिये। • श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने हेतु उपाय सुझाइये। • अंततः संक्षिप्त निष्कर्ष लिखिये। भारत जैसे देश में महिला श्रम बल भागीदारी को सही मायनों में अर्थव्यवस्था के विकास का इंजन कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार, यदि देश की श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों के बराबर हो जाए तो इससे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 27 प्रतिशत तक की वृद्धि हो सकती है। वर्ष 1977 से 2018 के बीच भारत में महिलाओं की श्रम शक्ति में 6.9% तक गिरावट पाई गई जो विश्व स्तर पर सर्वाधिक गिरावट है। यह श्रम बाज़ार में महिलाओं की भागीदारी की बदतर स्थिति को प्रदर्शित करती है। अर्थव्यवस्था में योगदान को लेकर महिलाओं के समक्ष विद्यमान चुनौतियाँ - संयुक्त राष्ट्र की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, पारंपरिक रूप से विद्यमान लैंगिक असमानता ने महिलाओं को घरेलू कार्यों तक सीमित कर दिया है। विवाह और संतानों की देखभाल जैसी ज़िम्मेदारियों ने महिलाओं को श्रम बाज़ार से दूर कर दिया है। शैक्षणिक योग्यता, प्रजनन दर व विवाह की आयु, आर्थिक विकास/चक्रीय प्रभाव, तकनीक की जानकारी और शहरीकरण जैसे घटक भी श्रम बाज़ार में महिलाओं की श्रम बल में भागीदारी तय करते हैं। कृषि में महिलाओं की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है किंतु न तो उन्हें भूमि पर स्वामित्त्व प्राप्त है और न ही कृषि में उनका प्रतिनिधित्त्व स्वीकार किया जाता है। श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने हेतु उपाय- इसके लिये शैक्षणिक व प्रशिक्षण कार्यक्रमों की पहुँच एवं उपयुक्तता, कौशल विकास, शिशु देखभाल की व्यवस्था, मातृत्व सुरक्षा और सुगम व सुरक्षित परिवहन के साथ-साथ ऐसे विकास प्रारूप को प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है, जो रोज़गार अवसरों का सृजन करे। नीति-निर्माताओं को यह देखना चाहिये कि बेहतर रोज़गार अथवा बेहतर स्वरोज़गार तक महिलाओं की पहुँच है या नहीं और देश के विकास के साथ उभरते नए श्रम बाज़ार अवसरों का लाभ वे उठा पा रही हैं या नहीं। महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहित कर इन्हें सक्षम बनाने वाले नीतिगत ढाँचे का निर्माण किया जाना चाहिये, जहाँ महिलाओं के समक्ष आने वाली लैंगिक बाधाओं के प्रति सक्रिय जागरूकता मौजूद हो। महिलाओं को उपयुक्त कार्य के लिये उपयुक्त अवसर प्रदान करना , जो महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण में योगदान करेगा। निष्कर्षतः महिलाओं के सामने विद्यमान विभिन्न चुनौतियों को दूर कर यदि उन्हें श्रम बल का भाग बनाया जाए तो देश निश्चित ही आर्थिक रूप से सशक्त होगा।</s>
<s>[INST]सिंधुकालीन स्थापत्य कला का वर्णन कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण- • सिंधुकालीन/हड़प्पाकालीन स्थापत्य कला का परिचय दीजिये। • हड़प्पाकालीन स्थापत्य कला की प्रमुख विशेषताएँ बताइये। भारत में सर्वप्रथम हड़प्पा सभ्यता में सुव्यवस्थित स्थापत्य निर्माण के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। हड़प्पा सभ्यता भारतीय संस्कृति की लंबी एवं वैविध्यपूर्ण कहानी का आरंभिक बिंदु है। भारतीय वास्तुकला के प्राचीनतम नमूने हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, रोपड़ आदि से प्राप्त होते हैं। हड़प्पा पूर्व ग्रामीण संस्कृतियों को नगरीय सभ्यता बनने में हज़ार वर्ष से अधिक का समय लगा। अतः हड़प्पा सभ्यता के स्थापत्य की प्रमुख विशेषताओं में इसकी नगर निर्माण योजना शामिल है। हड़प्पाकालीन स्थापत्य कला की प्रमुख विशेषताएँ- नगर स्थापत्य योजना- हड़प्पा सभ्यता के समस्त नगर ग्रिड प्लानिंग के तहत बसाए गए थे, यानी आयताकार खंड में विभाजित नगर, जहाँ सड़कें एक-दूसरे को समकोण पर काटती थीं। भवनों में पक्की और निश्चित आकार की ईटों के अलावा लकड़ी और पत्थर का प्रयोग भी किया जाता था। बरामदा घरों के बीचों बीच बनाया जाता था। जल-मल निकास व्यवस्था सिंधु सभ्यता की एक अद्वितीय विशेषता है। घर के गंदे पानी की निकासी के लिये ढँकी हुई नालियाँ बनाई गई थीं। हड़प्पा सभ्यता के नगरों में सभी प्रकार के भवन मिले हैं किंतु मंदिर का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिला। ईंटो का संदर्भ - हड़प्पा सभ्यता के लोगों ने पहली बार पकी ईटों का निर्माण किया, जो सुडौल, हल्के रंग की तथा निश्चित अनुपात की होती थीं। ईंटों के आकार में समरूपता दिखाई देती है। चाहे वह लोथल में बनी हो या मोहनजोदड़ों में। विशाल स्नानागार- विशाल स्नानागार को हड़प्पा सभ्यता की प्रमुख इमारतों में गिना जाता है। यह मोहनजोदड़ो के गढ़ी क्षेत्र से प्राप्त हुआ है। इसे परिसर इसलिये कहा गया क्योंकि इसमें स्नानागार के साथ-साथ तीन ओर बरामदा है, बरामदे पर ही कमरा, सीढ़ी, तालाब और कुआँ स्थित है। निष्कर्षतः सिंधु सभ्यता की वास्तुकला अत्यंत विकसित थी जिसने वर्तमान की नगरीय स्थापत्य कला को भी दिशा प्रदान की।</s>
<s>[INST]पृथ्वी की आंतरिक संरचना का रेखाचित्र प्रस्तुत करते हुए भूकंपीय तरंगों के आधार पर उसका वर्णन कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद पृथ्वी की आंतरिक संरचना का रेखाचित्र प्रस्तुत करें। भूकंपीय तरंगों के आधार पर आतंरिक संरचना को बताना है। हल करने का दृष्टिकोण भूमिका लिखें। पृथ्वी की आतंरिक संरचना का चित्र बनाएँ। भूकंपीय तरंगों के आधार पर आतंरिक संरचना को बताएँ। पृथ्वी की आंतरिक परिस्थितियों के कारण उसकी आंतरिक संरचना का सटीक अध्ययन संभव नहीं है परंतु प्रत्यक्ष (धरातलीय या खनन से प्राप्त चट्टान और ज्वालामुखी उद्गार) और अप्रत्यक्ष स्रोतों (उल्काएँ, गुरुत्वाकर्षण, चुम्बकीय क्षेत्र एवं भूकंप संबंधी क्रियाएँ) के आधार पर वैज्ञानिकों ने एक अनुमान प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। वर्तमान में भूकंपीय तरंगों के आधार पर आंतरिक संरचना के विवरण को अधिक मान्यता प्राप्त है। भूकंपीय तरंगें ठोस, द्रव और गैस में भिन्न-भिन्न प्रवृत्ति दर्शाती हैं। प्राथमिक तरंगें जहाँ ठोस, द्रव और गैस तीनाें में विचरित होती हैं, वहीं द्वितीयक तरंगें केवल ठोस में संचरित हो सकती हैं। इसके अलावा घनत्व में अंतर के कारण भी इनकी गति परिवर्तित हो जाती है। इन्हीं विशिष्टताओं के आधार पर पृथ्वी की आंतरिक संरचना को तीन वृहत् मंडलों- क्रस्ट, मैंटल तथा कोर में विभाजित किया गया है तथा भूकंप की गति में अंतर के आधार पर इन तीनों प्रमुख मंडलों के उपविभाग किये गए हैं। पृथ्वी की सबसे ऊपरी परत से लेकर बाह्य क्रोड की सीमा (2900 किमी.) तक तरंगों (p और s) की गति के आधार पर पृथ्वी के अंतरतम को दो भागों- ऊपरी मैंटल एवं निम्न मैंटल में विभाजित किया गया है। पृथ्वी की सबसे ऊपरी परत में p और s तरंगों की गति क्रमश: 5.4 किमी./से. तथा 3.3 किमी./से. है, जबकि निचली परत में p और s तरंगों की गति क्रमश: 7.8 किमी./से. तथा 4.35 किमी./से. है। इन दो परतों के मध्य भूकंपीय तरंगों में अंतर के कारण मध्यवर्ती परत का अनुमान लगाया जाता है जो 700 किमी. की गहराई पर है। तरंगों की गति से पता चलता है कि 200 से 700 किमी. की गहराई तक ऊपरी परत की चट्टानें ग्रेनाइट की बनी हैं तथा मध्यवर्ती परत में आग्नेय एवं रूपांतरित शैलें हैं, जबकि निचली परत अधिक घनत्व वाली डूनाइट और पेरिडोटाइट से बनी है। पृथ्वी के बाह्य कोर में p और s तरंगों की गति क्रमश: 13 किमी./से. एवं 9 किमी./से. होती है, जिससे यह पता चलता है कि यह सर्वाधिक धनत्व वाली चट्टानों से बना है। पृथ्वी के अंतरतम में s तरंगें लुप्त हो जाती हैं, जिससे यह पता चलता है कि यह तरल पदार्थ से बना है परंतु p तरंगों की गति के कारण यह अनुमान लगाया जाता है कि यह तरल भाग लोहा और निकल जैसे अधिक घनत्व वाले पदार्थों से निर्मित है।</s>
<s>[INST]“नदी जोड़ो परियोजना एक बड़ी चुनौती तो है, साथ ही यह जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाले जल संबंधी मुद्दों को हल करने का एक अवसर भी है।” इस संदर्भ में अपने विचार व्यक्त कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • नदी जोड़ो परियोजना की पृष्ठभूमि लिखिये। • यह जलवायु परिवर्तन से संबंधित मुद्दों को किस प्रकार हल कर सकती है, इसका वर्णन कीजिये। • नदी जोड़ो परियोजना से संबंधित चुनौतियों का वर्णन कीजिये। • संक्षिप्त एवं संतुलित निष्कर्ष लिखिये। मानसून के सीज़न में हर वर्ष देश के कुछ हिस्से बाढ़ में डूब जाते है तो कुछ क्षेत्रों में सूखे जैसे हालात बने रहते हैं। देश की कुछ नदियों में आवश्यकता से अधिक पानी रहता है तथा अधिकांश नदियाँ ऐसी हैं जो बरसात के मौसम के अलावा वर्षभर सूखी रहती हैं या उनमें पानी की मात्रा बेहद कम रहती है। ब्रह्मपुत्र जैसी नदियाँ जिनमें पानी अधिक रहता है, से लगातार बाढ़ आने का ख़तरा बना रहता है। राष्ट्रीय नदी-जोड़ो परियोजना (NRLP) ‘जल अधिशेष' वाली नदी घाटी (जहाँ बाढ़ की स्थिति रहती है) से जल की ‘कमी’ वाली नदी घाटी (जहाँ जल के अभाव या सूखे की स्थिति रहती है) में अंतर-घाटी जल अंतरण परियोजनाओं के माध्यम से जल के हस्तांतरण की परिकल्पना की गई। संभावित लाभ जलविद्युत उत्पादन सिंचाई संबंधी लाभ वर्षभर नौवहन सुविधा रोज़गार सृजन सूखे और बाढ़ की समस्या का समाधान पारिस्थितिकीय लाभ चुनौतियाँ इस परियोजना के तहत बनाए जाने वाली नहरों एवं जलाशयों के निर्माण से बड़ी मात्रा में निर्वनीकरण की स्थिति उत्पन्न होगी जो पर्यावरण व जैव विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगी।इससे बड़ी संख्या में लोगों का विस्थापन होगा जिनका पुनर्वास करना एक बड़ी चुनौती होगी। सबसे बड़ी बाधा इस परियोजना पर आने वाली अत्यधिक अनुमानित लागत है, जिसकी व्यवस्था करना वर्तमान परिस्थितियों में सरकार के लिये संभव नहीं है। विशेषज्ञों के अनुसार, नदी जोड़ो परियोजना के प्रायद्वीपीय हिस्से पर ही अमल करना अपेक्षाकृत आसान है, क्योंकि हिमालयी नदियों की परियोजनाओं पर अमल करने के लिये पड़ोसी देशों से सहमति और समझौते की ज़रूरत होगी। वस्तुतः नदी जोड़ो परियोजना से संबंधित अनेक चुनौतियों के बावजूद यह आज के समय की माँग बनी हुई है, अतः एकीकृत तरीके से जल संसाधनों का विकास और इसके लिये लघु अवधि और दीर्घावधि के तमाम उपायों को अपनाया जाना चाहिये। इसके अतिरिक्त वर्षा जल संचयन, सूक्ष्म कृषि सिंचाई प्रणाली, लोगों में जल संरक्षण के प्रति जागरूकता आदि प्रयासों द्वारा जल संरक्षण को बढ़ावा दिया जाना चाहिये ताकि नदी जोड़ो जैसी परियोजना की आवश्यकता को कम किया जा सके।</s>
<s>[INST]क्या वैश्विक स्तर पर उदारवाद का अंत हो रहा है? तर्क दीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • उदारवाद के बारे में बताइये। • वर्तमान में वैश्विक स्तर पर उदारवाद की स्थिति को बताइये। • संतुलित निष्कर्ष लिखिये। उदारवाद एक राजनीतिक और नैतिक दर्शन है जो स्वतंत्रता, शासित की सहमति और कानून के समक्ष समानता पर आधारित है। उदारवाद आमतौर पर व्यक्तिगत अधिकारों (नागरिक अधिकारों और मानवाधिकारों सहित), पूंजीवाद (मुक्त बाज़ार ), लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, लिंग समानता, नस्लीय समानता और अंतर्राष्ट्रीयता का समर्थन करता है। प्रबोधन काल के बाद से पश्चिम में दार्शनिकों और अर्थशास्त्रियों के बीच उदारवाद काफी लोकप्रिय हुआ। उदारवाद ने वंशानुगत विशेषाधिकार, राज्य में धार्मिक तंत्र तथा राजाओं के दिव्य अधिकारों जैसे पारंपरिक रूढ़िवादी मानदंडों को प्रतिनिधि लोकतंत्र और कानून के शासन द्वारा परिवर्तित करने की मांग की थी। इस समय तक उदारवाद की सफलता निर्विवाद रही थी और भविष्य में भी उदारवाद का कोई ठोस विकल्प नहीं दिखाई दे रहा था। किंतु हाल ही में G-20 की बैठक से ठीक पहले रूसी राष्ट्रपति का यह कहना कि वैश्विक स्तर पर उदारवाद का अंत हो रहा है, उदारवाद के अस्तित्व पर सवाल उठाता है इसमें अंतर्निहित कारक निम्नानुसार हैं- द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उदारवाद पश्चिम में प्रमुख सामाजिक-राजनीतिक विचारधारा रहा है लेकिन हाल ही में पश्चिम में भी उदारवाद की स्थिति में गिरावट देखी जा रही है। ब्रिटेन में जनता द्वारा ब्रेक्ज़िट का समर्थन और अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की संरक्षणवादी नीतियों का समर्थन यह प्रदर्शित करता है कि पश्चिम के समाज में भी प्रचलित मूल उदारवाद के स्वरूप में अब परिवर्तन आ रहा है। अमेरिका की नई प्रवासी नीतियों के माध्यम से प्रवासियों को अमेरिका में प्रवेश करने से रोका जा रहा है साथ ही जर्मनी द्वारा शरणार्थियों को स्वीकार करने की नीतियों से गलत परिणाम निकलने की संभावना व्यक्त की जा रही है। समलैंगिक विवाह को केवल कुछ देशों द्वारा ही मान्यता दी जा रही है, दूसरी ओर समलैंगिकता हेतु कई देशों में मौत की सज़ा का प्रावधान है। LGBTQ (Lesbian, Gay, Bisexual, Transgender, QUEER) के अधिकारों में बहुत धीमी प्रगति देखी जा रही है, जबकि अब यह सिद्ध हो चुका है कि इस प्रकार के लोगों की शारीरिक संरचना प्रकृति द्वारा निर्धारित होती है। कई देशों द्वारा पर्यावरणीय हित के विरुद्ध नीतियाँ बनाई जा रही हैं इसमें स्वयं के संकीर्ण हितों को वैश्विक जलवायु परिवर्तन से ज़्यादा प्राथमिकता दी जा रही है। हाल ही में ब्राज़ील के वनों में लगी आग हेतु सरकार की नीतियों को ज़िम्मेदार बताया जा रहा है। आज सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण हेतु आवश्यक है कि विश्व वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा अपनाए। वैश्विक स्तर पर संरक्षणवादी नीतियों को त्याग कर उदारीकरण को बढ़ाने की आवश्यकता है ताकि सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों का समावेशी विकास किया जा सके।</s>
<s>[INST]भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भारतीय संस्कृति का परिचय दीजिये। • इसकी प्रमुख विशेषताओं को लिखिये। • अंत में सारगर्भित निष्कर्ष लिखिये। भारतीय संस्कृति विश्व की सर्वाधिक प्राचीन एवं समृद्ध संस्कृतियों में से एक है। अन्य देशों की संस्कृतियाँ तो समय की धारा के साथ नष्ट हो रही हैं, किंतु भारतीय संस्कृति आदिकाल से ही अपने परंपरागत अस्तित्व के साथ जीवंत बनी हुई है। भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नानुसार हैं- 1. प्राचीनता- भारत में पुरापाषण काल से भीम बैटका में बने हुए चित्र इस संस्कृति की प्राचीनता को दर्शाते हैं। इसी तरह विश्व के प्राचीनतम साहित्य की रचना वेदों के रूप में भारत से जुड़ी हुई है। 2. निरंतरता- भारतीय संस्कृति हजारों वर्षों के बाद भी अपने मूल स्वरूप में जीवित है, वहीं मिस्र, मेसोपोटामिया, सीरिया और रोम की संस्कृतियाँ अपने मूल स्वरूप को विस्मृत कर चुकी हैं। भारत में नदियों, बरगद के पेड़ जैसे वृक्षों, सूर्य तथा अन्य देवी-देवताओं की पूजा का क्रम शताब्दियों से चला आ रहा है और आज भी जारी है। 3. विविधता एवं अनेकता- भारत की भौगोलिक स्थिति, जलवायु एवं उसकी अर्थव्यवस्था क्षेत्रीय विशेषताओं और विविधताओं को उत्पन्न करती है, इसी करण भारत में खानपान से लेकर रहन-सहन, वेशभूषा व रीति-रिवाज़ों में विभिन्नता दिखाई देती है। किंतु फिर भी भारत की सांस्कृतिक विशिष्टताएँ इस प्रकार मिल गईं हैं कि हम उनके मूलस्वरूप में उन्हें साफ-साफ पहचान नहीं सकते। इसलिये कहा गया है, “हमारी एकता के कारण हम शक्तिशाली हैं परन्तु हम अपनी विविधता के कारण और भी शक्तिशाली हैं। 4. सार्वभौमिकता- भारतीय संस्कृति का दृष्टिकोण वैश्विक रहा है तथा वह वसुधैव कुटुम्बकम अर्थात सारा विश्व ही एक परिवार है की अवधारणा में विश्वास करती है। इस प्रकार सहअस्तित्व की अवधारणा केवल भौगोलिक-राजनीतिक सीमाओं में ही नहीं वरन उसके बाहर भी है। 5. अध्यात्म एवं भौतिकता में समन्वय- भारतीय संस्कृति का प्रधान गुण भौतिक और आध्यात्मिक तत्त्वों को साथ-साथ लेकर चलना है। वस्तुतः प्राचीन काल में मनुष्य के 4 पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष तथा 4 आश्रम- ब्रम्हचर्य, ग्रहस्ठ, वानप्रस्थ एवं सन्यास इसी भौतिक एवं अध्यात्मिक पक्ष को प्रमाणित करते हैं। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति स्वयं में अनेकों विशेषताओं को समेटे हुए है जो संपूर्ण भारतीय समाज को आज भी उच्चतम मूल्यों और आदर्शों की चेतना प्रदान कर रही है।</s>
<s>[INST]फ्राँस की राज्य क्रांति विश्व इतिहास की एक अवश्यंभावी घटना थी तथा क्रांति का स्रोत तत्कालीन सामाजिक जीवन के दोषों एवं सरकार की भूलों में निहित था। विवेचना करें। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद ♦ फ्राँस की राज्य क्रांति को विश्व इतिहास की अवश्यंभावी घटना मानने का कारण। ♦ क्रांति के स्रोत के रूप में तत्कालीन राष्ट्रीय जीवन के दोष एवं सरकार की भूलों को दिखाना है। हल करने का दृष्टिकोण ♦ संक्षिप्त परिचय लिखें। ♦ फ्राँस की क्रांति को विश्व इतिहास की अवश्यंभावी घटना मानने के कारण बताएँ। ♦ क्रांति के स्रोत के रूप में तत्कालीन राष्ट्रीय जीवन के दोषों एवं सरकार की भूलों को दिखायें तथा अंत में निष्कर्ष लिखें। एक बात पर विशेष रूप से ध्यान दीजिये कि यह आवश्यक नहीं है कि आपका उत्तर पैराग्राफ में ही लिखा हुआ हो, आप पॉइंट टू पॉइंट लिखने का प्रयास कीजिये। परीक्षा भवन में परीक्षक का जितना ध्यान आपके उत्तर के प्रस्तुतिकरण पर होता है उतना ही ध्यान इस बात पर भी होता है कि आप कम-से-कम शब्दों में (एक अधिकारी की तरह) अपनी बात को समाप्त करें। 1789 की फ्राँसीसी राज्य क्रांति अपने स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व के आदर्श के कारण विश्व जगत के लिये आज भी प्रेरणा स्रोत है। फ्राँस की क्रांति को विश्व की अवश्यंभावी घटना मानने के पीछे मुख्यत: दो कारण माने जा सकते हैं: 1688 की इंग्लैड की गौरवपूर्ण क्रांति जिसके माध्यम से इंग्लैंड में निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी शासन के स्थान पर संसदीय शासन की स्थापना हुई। 1776 की अमेरिकी क्रांति जिसके माध्यम से फ्राँसीसियों में भी स्वतंत्रता एवं समानता को लेकर जागरूकता बढ़ी। उपर्युक्त दोनों घटनाओं एवं इसके परिणामों से यह स्पष्ट हो गया कि निरकुंश एवं शोषणकारी व्यवस्था को समाप्त किया जा सकता है। अत: फ्राँस की क्रांति भी अवश्यंभावी हो गई। इसे तत्कालीन राष्ट्रीय जीवन के दोषों एवं सरकार की भूलों में देखा जा सकता है। तत्कालीन राष्ट्रीय जीवन के दोषों को निम्नलिखित संदर्भों में देखा जा सकता है: राजनीतिक क्षेत्र में निरकुंश राजतंत्र विद्यमान था तथा प्रतिनिधि सभा का अभाव था। शासन प्रणाली जनसमस्याओं के प्रति संवेदनहीन थी। आर्थिक दृष्टि से राजा एवं राज्य के आय-व्यय में कोई अंतर नहीं था। कर प्रणाली दोषपूर्ण थी तथा करों का बोझ वर्ग विशेष (मध्य वर्ग, किसान आदि) पर था। समाज के स्तर पर वर्ग विभाजित और विषमतामूलक थे। मध्य वर्ग आर्थिक रूप से सक्षम होने के बावजूद सामाजिक दृष्टि से निम्न था। पादरी एवं कुलीन वर्ग जनसंख्या का 6 प्रतिशत होने के बावजूद भूमि पर दो-तिहाई मालिकाना हक रखते थे। उपर्युक्त दोषपूर्ण जीवन को सरकार की भूलों ने और जटिल एवं विषम बना दिया, जैसे: लुई 16वें ने सप्तवर्षीय (1756-63) युद्ध में भागीदारी कर वित्तीय बोझ को बढ़ाया। फलत: जनता पर करों के बोझ में वृद्धि हुई, जिससे जनसमस्याएँ और बढ़ गईं। लुई 16वाँ द्वारा अपने वित्तीय सलाहकारों तुर्गो, नेकर आदि के सुधार प्रस्तावों पर ध्यान न देना, जिसके कारण राजतंत्र के दिवालियेपन में और वृद्धि हुई। शासक का मध्य वर्ग द्वारा प्रस्तुत सुधारों को गंभीरता से न लेना। अंतत: विभिन्न अधिकारों की पुनर्व्याख्या तथा कर सुधार के प्रस्ताव को पास करने के लिये बुलाई गई स्टेट जनरल की बैठक से क्रांति की शुरुआत हुई क्योंकि इस समय तक परिस्थितियाँ नियत्रंण से बाहर हो चुकी थीं, जिसे एक दूरदर्शी एवं योग्य शासक द्वारा रोका जा सकता था। निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि फ्राँस की क्रांति एक अवश्यंभावी घटना थी जिसे तत्कालीन परिस्थितियों एवं सरकार की भूलों ने संभव बनाया।</s>
<s>[INST]यह कहना कहाँ तक समीचीन है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बीज हिटलर की विदेश नीति में अंतर्निहित थे? हिटलर की विदेश नीति के सिद्धांतों के आधार पर अपने तर्कों को प्रस्तुत करें। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद ♦ द्वितीय विश्वयुद्ध के लिये ज़िम्मेदार कारणों में हिटलर की विदेश नीति की भूमिका बतानी है। हल करने का दृष्टिकोण ♦ सर्वप्रथम भूमिका लिखें। ♦ हिटलर की विदेश नीति के उद्देश्यों तथा कार्रवाइयों का उल्लेख करें। ♦ द्वितीय विश्व युद्ध के लिये ज़िम्मेदार अन्य कारणों का भी उल्लेख करते हुए निष्कर्ष लिखें। एक बात पर विशेष रूप से ध्यान दीजिये कि यह आवश्यक नहीं है कि आपका उत्तर पैराग्राफ में ही लिखा हुआ हो, आप पॉइंट टू पॉइंट लिखने का प्रयास कीजिये। परीक्षा भवन में परीक्षक का जितना ध्यान आपके उत्तर के प्रस्तुतिकरण पर होता है उतना ही ध्यान इस बात पर भी होता है कि आप कम-से-कम शब्दों में (एक अधिकारी की तरह) अपनी बात को समाप्त करें। प्रथम विश्व युद्ध के बाद उत्पन्न परिस्थितियों से फासिस्ट शक्तियों का उदय हुआ, जिसकी अभिव्यक्ति जर्मनी में हिटलर के नेतृत्व में नाजीवाद के रूप में हुई। हिटलर की विदेश नीति जर्मन साम्राज्य के विस्तार पर आधारित थी, जो अंतत: द्वितीय विश्वयुद्ध का कारण बनी। वस्तुत: हिटलर जर्मनी को विश्व का सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र बनाना चाहता था। इसलिये उसने अपनी विदेश नीति के लिये निम्नलिखित उद्देश्य अपनाए: वर्साय की संधि का उल्लंघन करना। इस संधि के प्रावधान जर्मनी के लिये अपमानजनक थे तथा उस पर आरोपित किये गए थे। अखिल जर्मन साम्राज्य की स्थापना करना। इसके लिये वह विश्व में समस्त जर्मन जातियों को एकसूत्र में संगठित करना चाहता था। साम्यवाद के प्रसार को रोकना। अपनी विदेश नीति की अभिव्यक्ति तथा उसे अमलीजामा पहनाने के लिये कई आक्रामक कदम उठाए, जो अंतत: द्वितीय विश्व युद्ध का कारण बनी, जैसे: 1933 में राष्ट्र संघ से अलग होना। 1935 में राइनलैंड का सैन्यीकरण करना। 1936 में रोम-बर्लिन धुरी का निर्माण करना जिसमें जापान के शामिल होने पर यह रोम-बर्लिन-टोकियो धुरी बन गया। यह साम्यवाद विरोधी गुट था। 1938 में ऑस्ट्रिया पर हमला तथा बाद में चेकोस्लोवाकिया पर नियत्रंण। 1 सितंबर, 1939 को पोलैंड पर आक्रमण जिससे द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत हुई। लेकिन सिक्के के दूसरे पहलू को देखें तो द्वितीय विश्व युद्ध के बीज पेरिस शांति सम्मेलन (1919) में हुई विभिन्न संधियों में ही निहित थे, जिसमें सबसे प्रमुख वर्साय की संधि थी। इस सम्मेलन से असंतुष्ट जर्मनी एवं इटली में फासिस्ट शक्तियों का उदय हुआ, जिन्होंने रोम-बर्लिन गुट का निर्माण किया और द्वितीय विश्व युद्ध के लिये परिस्थितियाँ तैयार कीं। इन परिस्थितियों को तैयार करने में ब्रिटेन एवं फ्राँस की तुष्टीकरण की नीति भी ज़िम्मेदार थी। निष्कर्षत: कह सकते हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध के बीज पेरिस शांति सम्मेलन में ही निहित थे, जिसे पुष्पित-पल्लवित करने में हिटलर की विदेश नीति ने भूमिका निभाई, जिसका फल द्वितीय विश्व युद्ध के रूप में सामने आया।</s>
<s>[INST]विश्लेषित कीजिये कि किस प्रकार प्रथम विश्वयुद्ध ‘रूसी क्रांति’ के लिये एक ऐसी घटना सिद्ध हुई जिसने रूसी जनता को राजनीति से जोड़ा तथा एकतंत्रीय सत्ता के विरोध में सभी राजनीतिक ताकतों को एकसूत्र में पिरो दिया। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद ♦ रूसी क्रांति के लिये ज़िम्मेदार प्रथम विश्व युद्ध से उत्पन्न परिस्थितियों को बताना है। हल करने का दृष्टिकोण सर्वप्रथम भूमिका लिखें। ♦ प्रथम विश्व युद्ध से उत्पन्न परिस्थितियों का उल्लेख करें। ♦ इन परिस्थितियों ने कैसे रूसी जनता को राजनीति से जोड़ा तथा एकतंत्रीय सत्ता के विरोध में सभी राजनीतिक ताकतों को एकसूत्र में पिरो दिया। निष्कर्ष लिखें। वर्ष 1917 की रूसी क्रांति निरकुंश एवं स्वेच्छाचारी शासन, पिछड़ी अर्थव्यवस्था तथा प्रथम विश्व युद्धकालीन परिस्थितियों आदि का सम्मिलित परिणाम थी। इस क्रांति के माध्यम से विश्व में साम्यवादी प्रसार की शुरुआत हुई। प्रथम विश्वयुद्ध रूसी क्रांति के आरंभ के लिये तत्कालीन घटना सिद्ध हुआ, क्योंकि: प्रथम विश्व युद्ध में भागीदारी से रूस की स्थिति आर्थिक एवं सैन्य दृष्टि से कमज़ोर हुई। प्रथम विश्व युद्ध में पराजित होने से राष्ट्रीय असंतोष में वृद्धि हुई तथा राष्ट्रवादी उग्र हुए। युद्ध के समय बड़ी संख्या में सैनिकों की भर्ती की गई लेकिन पर्याप्त युद्ध सामग्री न मिलने के कारण उनमें असंतोष बढ़ा। किसान और मज़दूर भी युद्ध के प्रभावों से नहीं बच पाए। इससे उत्पादन में गिरावट तथा वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि हुई और बेरोज़गारी बढ़ी। फलत: जन असंतोष में और वृद्धि हुई। उपर्युक्त परिस्थितियों ने एकतंत्रीय निरकुंश राजतंत्र के अस्तित्व को ही संकट में डाल दिया। इससे रूसी जनता (सभी वर्ग) राजनीति से जुड़ी। यद्यपि इसकी शुरुआत वर्ष 1905 की क्रांति के माध्यम से ड्यूमा के गठन के द्वारा से हो चुकी थी। लेकिन इस समय इसका दायरा बढ़ गया था, क्योंकि इस समय किसान, मज़दूर, मध्यम वर्ग एवं सैनिक वर्ग भी निरकुंश एकतंत्रीय सत्ता के विरोध में हो गया। अंतत: 8 मार्च को रोटी के लिये पेट्रोगाद की सड़कों पर जुलूस निकाला गया। इसके दमन के लिये जार ने सेना भेजी, लेकिन उन्होंने गोली चलाने से इनकार कर दिया तथा विद्रोहियों से मिल गए। फलत: मज़दूरों एवं सैनिकों ने मिलकर क्रांतिकारी सोवियत परिषद का गठन किया और ड्यूमा के सदस्यों के साथ मिलकर अस्थायी सरकार का गठन किया। इस सरकार के गठन के साथ ही निरकुंश राजतंत्र की समाप्ति हुई। निष्कर्षत: कह सकते हैं कि प्रथम विश्व युद्ध से उत्पन्न सामाजिक-आर्थिक अव्यवस्था ने पहले से असंतुष्ट रूसी जनता को राजनीति से और सक्रिय रूप से जोड़ा तथा एकतंत्रीय निरकुंश सत्ता को समाप्त किया।</s>
<s>[INST]1919 के ‘पेरिस शांति सम्मेलन’ का स्वरूप, 1815 की वियना कॉन्ग्रेस की अपेक्षा अधिक प्रतिनिधि बोधक था तथा इस सम्मेलन की अर्जित सफलता में समय, स्थान, प्रतिनिधि संगठन एवं सम्मेलन की कार्यवाही प्रक्रिया की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। टिप्पणी करें। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद ♦ वियना कॉन्ग्रेस की तुलना में पेरिस शांति सम्मेलन कैसे ज़्यादा प्रतिनिधिबोधक था? ♦ पेरिस शांति सम्मेलन की अर्जित सफलता में समय, स्थान, प्रतिनिधि संगठन एवं सम्मेलन की कार्यवाही का उल्लेख करना है। हल करने का दृष्टिकोण ♦ दोनों सम्मेलनों का संक्षिप्त में परिचय दें। ♦ पेरिस शांति सम्मेलन के अधिक प्रतिनिधिबोधक होने को स्पष्ट करें। ♦ पेरिस शांति सम्मेलन की सफलता में समय, स्थान, प्रतिनिधि संगठन एवं कार्यवाही का उल्लेख करें। ♦ इस सम्मेलन की सफलता एवं असफलता को संक्षेप में बताते हुए निष्कर्ष लिखें। 1815 के वियना कॉन्ग्रेस की प्रतिक्रियावादी अवधारणा के तहत स्वतंत्रता, समानता एवं राष्ट्रवाद जैसे प्रगतिशील विचारों को रोकने तथा पुन: राजवंशीय शासन की स्थापना पर बल दिया। वहीं, पेरिस शांति सम्मेलन प्रथम विश्व युद्ध के बाद शांति स्थापित करने के उद्देश्य से विजयी राष्ट्रों का सम्मेलन था। वियना कॉन्ग्रेस की अपेक्षा पेरिस शांति सम्मेलन का स्वरूप अधिक प्रतिनिधिबोधक था। क्योंकि इसमें राजाओं की जगह देशों का प्रतिनिधित्व चुने हुए प्रतिनिधि (प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति) कर रहे थे। बेल्जियम का राजा एल्बर्ट इसका अपवाद था। ये प्रतिनिधि विश्व की तीन-चौथाई जनसंख्या का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। जहाँ तक समय का प्रश्न है, यह सम्मेलन जर्मनी के साथ किये गए युद्ध विराम समझौते के नौ सप्ताह बाद रखा गया। इसके पीछे ब्रिटेन एवं अमेरिका की आंतरिक राजनीतिक स्थिति का ख्याल रखा गया। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री सम्मेलन से पूर्व संसदीय चुनाव चाहते थे तो अमेरिकी राष्ट्रपति विल्सन ‘कॉन्ग्रेस’ में संघीय राष्ट्र का संदेश पारित करवाना चाहते थे। सम्मेलन को पहले वियना में करवाने का विचार किया लेकिन राष्ट्रपति विल्सन के सुझाव के आधार पर पेरिस को प्राथमिकता दी गई। पेरिस में भारी संख्या में अमेरिकी सेनाएँ तैनात थीं। इसके अतिरिक्त, यह स्थान सेडान युद्ध के बाद हुए सम्मेलन का भी गवाह था, जहाँ पर वर्साय के महल में जर्मन साम्राज्य की घोषणा की गई थी। पेरिस शांति सम्मेलन में विजयी राष्ट्रों के साथ संबद्ध शक्तियाँ भी इसमें प्रतिनिधित्व कर रही थी। अंतिम समझौते में हिस्सेदारी करने के लिये युद्ध के अंतिम दिनों में शामिल होने वाले देशों को संबद्ध शक्तियाँ कहते है। इस सम्मेलन में गैर-संबद्ध शक्तियों, रूस तथा पराजित राष्ट्रों को प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया। जहाँ तक कार्रवाई की बात है तो इस पर अमेरिका, ब्रिटेन एवं फ्राँस का सबसे ज़्यादा प्रभाव था। इटली विजेता राष्ट्र होते हुए भी सम्मेलन को बीच में ही छोड़कर चला गया। जर्मनी पर अपमानजनक वर्साय की संधि आरोपित की गई, जो आगे चलकर द्वितीय विश्व युद्ध का कारण बनी। उपर्युक्त कारणों से पेरिस शांति सम्मेलन तात्कालिक रूप से सफल हुआ और, यूरोप में शांति स्थापित हुई। लेकिन इसमेें मौजूद अंतर्निहित दोषों ने फासिस्ट शक्तियों के उदय को संभव बनाया, जिसे तुष्टीकरण की नीति नेे उर्वर भूमि प्रदान की। अंतत: इस सम्मेलन के बीस वर्ष बाद ही द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत हुई। जो इसे एक असफल सम्मेलन सिद्ध करता है। निष्कर्षत: कह सकते है कि पेरिस शांति सम्मेलन जनप्रतिनिधियों के भाग लेने के कारण ज़्यादा प्रतिनिधि बोधक था। इसकी अर्जित सफलता में समय, स्थान, प्रतिनिधि संगठन तथा कार्यवाही प्रक्रिया की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही, लेकिन सफलता की दृष्टि से दोनों ही सम्मेलन अल्पकालिक सिद्ध हुए थे।</s>
<s>[INST]गांधी-इरविन समझौता वस्तुत: राष्ट्रीय आंदोलन की पलायनवादी मनोवृत्ति का परिचायक न होकर गांधीवादी रणनीति का एक अहम हिस्सा था, जिसे तत्कालीन राष्ट्रवादी धाराओं के अदूरदर्शी दृष्टिकोण द्वारा पहचाना न जा सका। परीक्षण करें। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद ♦ प्रश्न को समझने के लिये आप सबसे पहले इसे दो भागों में विभाजित कीजिये। (i) गांधी-इर्विन समझौते को राष्ट्रीय आंदोलन के पलायनकारी मानने का कारण। (ii) गांधीवादी रणनीति के संदर्भ में इसका मूल्याकंन। हल करने का दृष्टिकोण ♦ अब बात करते हैं इसके उत्तर की शुरुआत की। सबसे पहले गांधी-इर्विन समझौते का संक्षिप्त परिचय दीजिये। ♦ इसके बाद राष्ट्रीय आंदोलन की पलायनकारी मनोवृत्ति के कारणों का उल्लेख कीजिये। ♦ इसके बाद गांधीवादी रणनीति का मूल्यांकन कीजिये और अंत में एक सारगर्भित निष्कर्ष लिखिये। एक बात पर विशेष रूप से ध्यान दीजिये कि यह आवश्यक नहीं है कि आपका उत्तर पैराग्राफ में ही लिखा हुआ हो, आप पॉइंट टू पॉइंट लिखने का प्रयास कीजिये। परीक्षा भवन में परीक्षक का जितना ध्यान आपके उत्तर के प्रस्तुतिकरण पर होता है उतना ही ध्यान इस बात पर भी होता है कि आप कम-से-कम शब्दों में (एक अधिकारी की तरह) अपनी बात को समाप्त करें। 5 मार्च, 1931 को हुए गांधी-इर्विन समझौते के तहत गांधी द्वारा सविनय अवज्ञा आंदोलन को स्थगित करने तथा कॉन्ग्रेस द्वारा द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने का आश्वासन तत्कालीन वायसराय लार्ड इर्विन को दिया गया। गांधी-इर्विन समझौते को राष्ट्रीय आंदोलन की पलायनकारी मनोवृत्ति मानने के निम्नलिखित कारण है: इस समझौते में पूर्ण स्वराज्य का कोई उल्लेख नहीं था, जिसे कॉन्ग्रेस ने अपने लाहौर अधिवेशन (1929) में तय किया था। इस आधार पर विरोध करने वालों में जवाहरलाल नेहरू एवं सुभाष चन्द्र बोस प्रमुख थे। कुछ लोगों ने इसे पूंजीपति वर्ग के दबाव के रूप में देखा और माना कि इसके माध्यम से केवल पूंजीपतियों के हित को ध्यान में रखा गया। वहीं, कुछ युवा क्रांतिकारी भगत सिंह एवं उनके साथियों की सज़ा माफ न करवा पाने में असफल होने पर इसे औपनिवेशिक शासन के समक्ष समर्पण के रूप में देखा। परंतु, गाँधी-इर्विन समझौते को गाँधीवादी रणनीति के निम्नलिखित संदर्भों में देखे जाने की ज़रूरत है: संघर्ष-विराम संघर्ष की रणनीति के तहत यह मान्यता थी कि जनांदोलन लम्बे समय तक नहीं चल सकता क्योंकि जनसामान्य के त्याग करने की सीमा एवं उसकी ऊर्जा सीमित होती है। इस समय तक सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी विरक्तता के लक्षण दिखने लगे थे, विशेषकर उन दुकानदारों एवं व्यापारियों में जिनमें आंदोलन के प्रति अभूतपूर्व उत्साह था। गांधी जी अहिंसात्मक एवं नियंत्रित जनांदोलन में विश्वास करते थे और आंदोलन पर शीर्ष नेतृत्व की पकड़ कमज़ोर होती जा रही थी, जैसे संयुक्त प्रांत में लगान रोको अभियान तथा देश के अन्य भागों में जंगल कानूनों का उल्लघंन। ये सविनय अवज्ञा आंदोलन के कार्यक्रम में निहित नहीं थे। गांधी ने दबाव-समझौता-दबाव की रणनीति अपनाई। इस समझौते के माध्यम से भी गांधी जी ने समुद्र तट की एक निश्चित सीमा के भीतर नमक बनाने की अनुमति, ज़ब्त की गई संपत्ति को वापस करने, शराब की दुकानों के सामने शांतिपूर्ण विरोध की अनुमति आदि को मांगों मनवाया। हालाँकि, आगे गोलमेज सम्मेलन में निराशा हाथ लगने के बाद दुबारा सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने को इसी रणनीति के तहत देखा जा सकता है। वस्तुत: गांधी-इर्विन समझौतो को समग्रता में देखे जाने की ज़रूरत है। इससे यह भी स्पष्ट था कि उपनिवेशी सरकार ने राष्ट्रीय आंदोलन के महत्त्व को स्वीकारा तथा उसके नेतृत्वकर्त्ताओं को बराबरी का दर्जा प्रदान किया।</s>
<s>[INST]भारत में श्रमिक आंदोलनों के उदय में औपनिवेशिक तथा पूंजीवादी शोषण के परस्पर विरोधी तत्त्वों ने किस प्रकार अपनी भूमिका निभाई एवं आरंभिक राष्ट्रवादियों की इस पर क्या प्रतिक्रिया हुई? (250 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद ♦ श्रमिक आंदोलन के उदय में औपनिवेशिक तथा पूंजीवादी शोषण के परस्पर विरोधी तत्त्वों को दिखाना है। ♦ श्रमिक आंदोलनों के संदर्भ में आरंभिक राष्ट्रवादियों की प्रतिक्रिया को बताना है। हल करने का दृष्टिकोण ♦ भूमिका लिखें। ♦ श्रमिक आंदोलनों के उदय में औपनिवेशिक तथा पूंजीवादी शोषण के परस्पर विरोधी तत्त्वों को दिखाना है। ♦ आरंभिक राष्ट्रवादियों की श्रमिक आंदोलनों के संदर्भ में प्रतिक्रिया बतानी है। ♦ संक्षेप में आगे के श्रमिक आंदोलनों एवं राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के संबंधों को बताते हुए उत्तर समाप्त करें। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में भारत में आधुनिक उद्योग धंधों की स्थापना तथा रेलवे, कपास एवं जूट उद्योगों और चाय बगानों आदि के विकास के कारण आधुनिक श्रमिक वर्ग का उदय हुआ। औपनिवेशिक तथा पूंजीवादी शोषण के विरोधी तत्त्वों ने श्रमिक आंदोलनों के उदय में भूमिका निभाई तथा इस पर भारतीय राष्ट्रवादियों की प्रतिक्रिया समय के अनुसार अलग-अलग रही। श्रमिक आंदोलनों के उदय में औपनिविशिक शोषण के अंर्तगत उपनिवेशवादी ब्रिटिश शासक तथा विदेशी पूंजीपतियों को शामिल किया जा सकता है। इन तत्त्वों की उपस्थिति ने पूंजीवादी शोषण एवं कठिनाइयों, जैसे- कम मज़दूरी, कार्य के लंबे घंटे तथा कारखानों में आधारभूत सुविधाओं का अभाव आदि को और अधिक बढ़ा दिया। उपनिवेशवादी शासकों की मदद से विदेशी पूंजीपतियों ने कानून के माध्यम से, विशेषकर बागान मालिकों ने मज़दूरों को कैद करने, सज़ा देने और काम छोड़कर जाने से रोकने के अधिकार प्राप्त कर लिये थे। यहीं कारण है कि मज़दूर वर्ग की पहली संगठित हड़ताल वाली ब्रिटिश स्वामित्व एवं प्रबंधन रेलों में हुई। उदाहरण के लिये ग्रेट इंडिया पेनिन्सुलर रेलवे में हड़ताल। इसे लगभग सभी राष्ट्रवादी अखबारों ने पूर्ण समर्थन दिया। वहीं भारतीय पूंजीपति स्वामित्व वाले कारखानों में भी श्रमिकों की स्थिति दयनीय थी। यहाँ पर भी काम के घंटों, कम मज़दूरी एवं आधारभूत सुविधाओं को लेकर समस्या व्याप्त थी। इस संदर्भ में सरकार ने 1881 एवं 1891 में कारखाना अधिनियम बनाया। लेकिन इसका उद्देश्य ब्रिटिश उत्पादकों के हितों की रक्षा करना था क्योंकि: ब्रिटिश उत्पादकों की भारतीय उत्पादकों से प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पड़ रहा था। भारत में ब्रिटिश उत्पादकों का बाज़ार सिकुड़ता जा रहा था। इसलिये आरंभिक राष्ट्रवादियों ने इन कारखाना अधिनियमों का विरोध किया क्योंकि उनका मानना था कि: भारतीय उद्योग अभी शैशवास्था में है, इसलिये श्रम कानूनों का इस पर विपरीत असर पड़ेगा। श्रम कानूनों से भारतीय उत्पादकों की बाज़ार में बढ़ी हुई प्रतिस्पर्द्धा कम हो जाएगी। इस तरह से यह एक विरोधाभासी स्थिति थी क्योंकि श्रम कानूनों से श्रमिक वर्ग एवं विदेशी पूंजीपतियों को फायदा था वहीं, इससे भारतीय उत्पादकों का नुकसान हो रहा था। इससे भारतीय सूती कपड़ा मिलों में होने वाली श्रमिक हड़तालों को भारतीय राष्ट्रवादियों का समर्थन नहीं मिला। अत: श्रमिक आंदोलनों के प्रति आरंभिक राष्ट्रवादियों की प्रतिक्रिया भी विरोधाभाषों से भरी थी। एक ओर वे ब्रिटिश स्वामित्व वाले कारखानों एवं उद्योगों में होने वाले श्रमिक आंदोलनों का समर्थन करते थे तो वहीं, भारतीय स्वामित्व वाले कारखानों में होने वाली हड़तालों के प्रति निष्क्रिय रहे। प्रारंभिक राष्ट्रवादियों का मानना था कि वर्गीय आधार पर आंदोलनों के समर्थन से राष्ट्रीय आंदोलन पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। वे नहीं चाहते थे कि भारतीय जनता भीतर से किसी भी तरह विभाजित हो। भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के दूसरे अधिवेशन में कॉन्ग्रेस को केवल उन्हीं मुद्दों तक सीमित रहने को कहा गया जिनमें पूरे राष्ट्र की भागीदारी हो तथा जो विभिन्न वर्गों का पारस्परिक समायोजन करता हो। यद्यपि आगे चलकर स्वदेशी आंदोलन तथा रूस की साम्यवादी क्रांति की सफलता के बाद 1920 में आल इंडिया ट्रेड यूनियन की स्थापना से मज़दूर आंदोलनों की मुखरता बढ़ती गई। कॉन्ग्रेस में वामपंथी धारा के विकास के बाद श्रमिक आंदोलन अनिवार्य रूप से राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष का एक हिस्सा बन गया।</s>
<s>[INST]‘बाँटो और राज करो’ की औपनिवेशक नीति ने ही भारत में सांप्रदायिकता का बीज बोया जो कालांतर में वट वृक्ष बन गया और उसने भारत की सदियों पुरानी समरसता को भंग कर दिया, अंतत: इसी की परिणति देश के विभाजन के रूप में परिलक्षित हुई। चर्चा करें। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद ♦ सांप्रदायिकता के विकास में ‘फूट डालो और राज करो’ नीति की भूमिका। ♦ सांप्रदायिकता के परिणाम। हल करने का दृष्टिकोण ♦ संक्षिप्त भूमिका लिखें। ♦ सांप्रदायिकता के विकास के लिये ‘पूट डालो और राज करो’ नीति की भूमिका। ♦ सांप्रदायिकता के विकास में अन्य कारणों को बताते हुए इसके परिणाम का उल्लेख करें। ♦ अंत में निष्कर्ष लिखें। औपनिवेशिक भारत में ब्रिटिश शासकों ने अपने हितों के लिये सांप्रदायिकता का बीज बोया, जिसे तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों ने उर्वर भूमि प्रदान की, जिसका फल भारत विभाजन के रूप में सामने आया। वस्तुत: 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेज़ों को अपनी सत्ता बचाए रखने के लिये पूट डालो और राज करो की नीति ज़्यादा कारगर लगी। इसके लिये उन्होंने निम्नलिखित स्तरों पर कार्य किया: इतिहास के सांप्रदायिक इतिहास लेखन कर प्राचीन भारत को हिन्दू काल तथा मध्यकालीन भारत को मुस्लिम भारत में बाँट दिया। इससे यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया कि दोनों समुदायों के हित अनिवार्य रूप से एक-दूसरे से टकराते हैं। सांप्रदायिक मांगों को स्वीकार कर सांप्रदायिक संगठनों को राजनीतिक मज़बूती प्रदान की। जैसे- 1909 में पृथक निवार्चन मंडल स्वीकार कर, 1932 के कम्यूनल अवॉर्ड में जिन्ना की ज़्यादातर सांप्रदायिक मांगों को स्वीकार किया गया। सांप्रदायकितावादियों को सरकारी संरक्षण और रियायतें प्रदान की गईं। सांप्रदायिक विचारों के प्रसार करने वाली पत्र-पत्रिकाओं पर कोई कार्यवाई नहीं की गई तथा सांप्रदायिक दंगों को रोकने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। उपर्युक्त कारणों के चलते सांप्रदायिकता की शुरुआत हुई लेकिन इसे वट वृक्ष बनाने में अन्य कारणों की भी भूमिका रही है, जैसे- 19वीं शताब्दी में शुरू हुए सामाजिक सुधार आंदोलन। जैसे- बहावी आंदोलन, आर्य समाज द्वारा चलाया गया शुद्धि आंदोलन। उग्र राष्ट्रवाद, जिसकी अभिव्यक्ति के क्रम में शिवाजी महोत्सव एवं गणपति महोत्सव मनाया गया। क्रांतिकारियों द्वारा महाराणा प्रताप एवं अकबर तथा शिवाजी एवं औरंगज़ेब के मध्य संघर्ष को महिमामंडित करना। कॉन्ग्रेस द्वारा 1916 के लखनऊ अधिवेशन में पृथक निर्वाचन मंडल को स्वीकार करना। नेहरू रिपोर्ट के माध्यम से इसे रद्द करना, इसके प्रत्युत्तर में ही जिन्ना ने चौदह सूत्रीय कार्यक्रम की घोषणा की जो अलगाववाद की दिशा में ठोस कदम था। उपर्युक्त सभी कारणों का सम्मिलित परिणाम रहा कि द्वि-राष्ट्र का सिद्धांत अस्तित्व में आया तथा रहमत अली खान ने पाकिस्तान का विचार सामने रखा। जिन्ना ने इस्लाम खतरे में है का नारा दिया तथा 1940 के मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में अलग पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित किया। इसी का परिणाम रहा कि भारत में सांप्रदायिक दंगों की शुरुआत हुई जिसकी चरम अभिव्यक्ति 1946 नोआखली के दंगे में दिखती है। इसने भारत के सर्वधर्म समभाव, जिसकी अभिव्यक्ति अशोक के ‘धम्म’ तथा अकबर के ‘दीन-ए-इलाही’ में हुई, एवं वसुधैव कुटुम्बकम् के माध्यम से चली आ रही सदियों पुरानी समरसता को भंग कर दिया। अंतत: आज़ादी के साथ भारत एवं पाकिस्तान के विभाजन के रूप में फल सामने आया। निष्कर्षत: कह सकते हैं कि बाँटों और राज करो की नीति ने भले ही सांप्रदायिकता का बीज बोया लेकिन उसे वट वृक्ष बनाने में अन्य परिस्थितियाँ भी ज़िम्मेदार रहीं, जिसकी परिणति देश के विभाजन के रूप में परिलक्षित हुई।</s>
<s>[INST]क्या आप मानते हैं कि गदर विचारधारा की प्रकृति मूलत: समतावादी एवं जनतंत्रवादी थी और यह अपने दृष्टिकोण में पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष थी? सोदाहरण अपने तर्कों को प्रस्तुत करें। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद ♦ गदर विचारधारा को समतावादी एवं जनतंत्रवादी मानने का कारण। ♦ इसे धर्मनिरपेक्ष सिद्ध करने वाले तथ्य एवं उदाहरण। हल करने का दृष्टिकोण ♦ संक्षिप्त भूमिका। ♦ इसे समतावादी एवं जनतंत्रवादी मानने के पीछे तथ्य एव तर्क दें। ♦ धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में तथ्य एवं उदाहरण बताते हुए निष्कर्ष लिखें। गदर आंदोलन, गदर पार्टी द्वारा चलाया गया था। इसकी स्थापना सैन फांसिस्को में लाला हरदयाल द्वारा की गई थी। इसका मुख्य उद्देश्य सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से भारत को विदेशी दासता से मुक्त कराना था। गदर विचारधारा की प्रकृति को समतावादी एवं जनतंत्रा वादी मानने के पीछे निम्नलिखित कारण है: इनका उद्देश्य स्वतंत्र गणराज्य की स्थापना करना था। ये किसी भी प्रकार के भेदभाव को नहीं मानते थे। इनके दफ्तरों में सवर्ण हिन्दु, मुस्लिम, अछूत एवं सिख सभी साथ भोजन करते थे। लाला हरदयाल गदर आंदोलन को अंध-राष्ट्रवाद से बचाने के लिये अक्सर आयरिश एवं रूसी क्रांतिकारियों का जिक्र करते रहते थे। ये भारत और शेष दुनिया के बीच स्वतंत्रता, समानता एवं भाईचारे का भी संबंध कायम करना चाहते थे। यद्यपि इनकी हिंसात्मक गतिविधि इनके जनतंत्रवादी होने पर प्रश्नचिह्न भी लगाती है, लेकिन साध्य की दृष्टि से ये जनतंत्रवादी ही थे। इन्होंने साधन की पवित्रता की बजाय साध्य की पवित्रता पर ज़्यादा बल दिया। जहाँ तक गदर आंदोलन के दृष्टिकोण में धर्मनिरपेक्षता की बात है तो इसे निम्नलिखित संदर्भों में देखा जा सकता है- ये धर्म को निजी मामला मानते थे तथा राजनीति को धर्म से अलग किया। नेतृत्व के स्तर पर सभी वर्गों की भागीदारी थी, जैसे: हरदयाल हिन्दू थे तो बर्कातुल्लाह मुसलमान। यद्यपि आंदोलनकारियों में सिखों की बहुलता थी फिर भी उन्होंने ‘सत श्री अकाल’ जैसे धार्मिक नारों की बजाय ‘वंदे मातरम्’ को आंदोलन के नारे के रूप में लोकप्रिय बनाया। गदर साप्ताहिक अखबार में छपने वाली कविताओं में भी धर्मनिरपेक्षता का भाव भरा था।, जैसे: ‘‘न पंडित की ज़रूरत है, न मुल्ला की, न फरियाद, न प्रार्थना गीत गाना है।’’ यद्यपि गदर आंदोलन अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में असफल रहा फिर भी यह कहा जा सकता है कि यह समतावादी एवं जनतंत्रवादी स्वरूप से युक्त था तथा इसने क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों को धर्मनिरपेक्षता की प्रेरणा दी।</s>
<s>[INST]उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में विकासमान ‘मध्यवर्गीय चेतना’ जहाँ लोकप्रिय असंतोषों को संगठित कर राष्ट्रीय चेतना के विकास की महत्त्वपूर्ण कारक सिद्ध हुई, वहीं वायसराय लिटन की प्रतिक्रियावादी नीतियों ने इसे सशक्त बनाया। विवेचना करें। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद ♦ मध्यवर्गीय चेतना के विकास के कारण तथा लोकप्रिय असंतोष को संगठित करने के लिये इसके द्वारा किया गया प्रयास। ♦ लिटन की प्रतिक्रियावादी नीतियाँ। हल करने का दृष्टिकोण ♦ संक्षिप्त भूमिका लिखें। ♦ मध्यवर्गीय चेतना के विकास के कारण बताएँ। ♦ लोकप्रिय असंतोष को संगठित करने के लिये क्या प्रयास किये गए? ♦ लिटन की प्रतिक्रियावादी नीतियों का उल्लेख करते हुए निष्कर्ष लिखें। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक पाश्चात्य चिंतन एवं शिक्षा के प्रचार-प्रसार के कारण एक नवीन शिक्षित भारतीय मध्यवर्ग का उदय हुआ। इसने राष्ट्रीय चेतना एवं राष्ट्रवाद की भावना को आगे बढ़ाने का काम किया। वस्तुत: आधुनिक पाश्चात्य विचारों को अपनाने से भारतीय राजनीतिक चिंतन को एक नई दिशा प्राप्त हुई। नवशिक्षित भारतीय मध्यवर्ग पाश्चात्य उदारवादी विचारधारा के अनुरूप स्वतंत्रता, समानता एवं जनतंत्र जैसे प्रगतिशील मूल्यों के सम्पर्क में आया। इसने औपनिवेशिक शोषण के वास्तविक स्वरूप को समझकर भारतीयों को एकजुट करने का प्रयास प्रारंभ किया। इसी क्रम में 1867 में दादाभाई नौरोजी धन निकासी सिद्धांत का प्रतिपादन कर औपनिवेशिक शासन के वास्तविक चेहरे को सामने लाए। इस नवशिक्षित मध्यवर्ग द्वारा लोकप्रिय असंतोष को संगठित करने के लिये निम्नलिखित राजनीतिक संस्थाएँ स्थापित की गईं, जैसे: 1851 में ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन का गठन। इसने उच्च वर्ग के नौकरशाहों के वेतन में कमी तथा नमक कर, आबकारी कर एवं डाक शुल्क समाप्ति जैसे लोकप्रिय मांगों को लेकर ब्रिटिश संसद को पत्र लिखा। 1866 में दादाभाई नौरोजी ने लदंन में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन की स्थापना की। इसका उद्देश्य भारतीय समस्याओं से ब्रिटिश जनमत को परिचित कराना था। 1852 में बॉम्बे एसोसिएशन की स्थापना करना। इसका उद्देश्य भेदभावपूर्व सरकारी नियमों के विरुद्ध सरकार को सुझाव देना था। इसी तरह 1875 में इंडियन लीग तथा 1876 में इंडियन एसोसिएशन जैसी संस्थाएँ स्थापित की गईं। इनका उद्देश्य राष्ट्रवाद की भावना जाग्रत कर लोगों को एकजुट करना था। उपर्युक्त प्रयासों को लॉर्ड लिटन की निम्न प्रतिक्रियावादी नीतियों ने सशक्त बनाया, जैसे: इंडियन सिविल परीक्षा में आयु सीमा को 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष करना। अकाल के दौरान दिल्ली दरबार का आयोजन करना। वार्नाकुलर प्रेस एक्ट (1878) तथा शस्त्र अधिनियम (1878) आदि। उपर्युक्त नीतियों ने भारतीयों के साथ भेदभाव को दर्शाया तथा भारतीय जन को और असंतुष्ट कर दिया। फलत: 1885 में स्थापित भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस ने उभरते हुए इस राष्ट्रीय चेतना को आगे बढ़ाया और अंतत: भारत को आज़ाद कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।</s>
<s>[INST]सुस्पष्ट कीजिये कि उपनिवेशवाद (Colonialism) ने किस प्रकार से औपनिवेशिक समाज (Colonial society) को मौलिक रूप से परिवर्तित कर दिया एवं उसे विश्व पूंजीवादी व्यवस्था का अभिन्न अंग बना दिया? (250 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद ♦ उपनिवेशवाद से औपनिवेशिक भारतीय समाज में होने वाले मौलिक परिवर्तनों को दिखाना है। ♦ किस प्रकार उपनिवेशवाद से पूंजीवादी व्यवस्था का अभिन्न अंग बना गया? हल करने का दृष्टिकोण ♦ उपनिवेशवाद का संक्षिप्त परिचय दें। ♦ उपनिवेशवाद ने औपनिवेशिक भारतीय समाज को कैसे परिवर्तित किया? ♦ यह विश्व पूंजीवादी व्यवस्था का अंग कैसे बना? ♦ निष्कर्ष। उपनिवेशवाद से तात्पर्य किसी शक्तिशाली एवं विकसित राष्ट्र द्वारा किसी निर्बल एवं अविकसित देश पर उसके संसाधनों को अपने हित में दोहन करने के लिये राजनीतिक नियत्रंण स्थापित करना है। इस क्रम में औपनिवेशिक शक्ति अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये उपनिवेशों पर सामाजिक-आर्थिक एवं सांस्कृतिक नियंत्रण भी स्थापित करती है। इससे औपनिवेशिक समाज में मौलिक परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। जहाँ तक भारतीय औपनिवेशिक समाज की बात है तो उपनिवेशवाद ने इसे निम्नलिखित संदर्भो में मौलिक रूप से परिवर्तित किया जैसे: राजनीतिक स्तर पर स्वतंत्रता, समानता एवं जनतंत्र के विचारों का प्रसार हुआ। फलत: भारतीयों ने भी परंपरागत वंशानुगत शासन प्रणाली के स्थान पर लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में अपनी आस्था व्यक्त की। प्रशासन के स्तर पर भी वंशानुगत एवं कुलीन प्रशासक के स्थान पर योग्यता का महत्त्व स्थापित हुआ। शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत के आधार पर प्रशासन एवं न्याय को अलग-अलग देखा जाने लगा। विधि के शासन का महत्त्व स्थापित हुआ। संचार एवं परिवहन के साधनों के विकास तथा प्रशासनिक एकरूपता के कारण एकीकरण एवं राष्ट्रवाद की भावना के विकास को बढ़ावा मिला, जो अंतत: भारतीय राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण सहायक सिद्ध हुआ। उपनिवेशवाद से पाश्चात्य शिक्षा एवं चितंन का प्रचार-प्रसार हुआ, जिससे तार्किकता एवं मानवतावादी दृष्टिकोण का उदय हुआ। इसके आधार पर परंपरागत रूढ़ियों, धार्मिक एवं जातीय कुरूतियों में सुधार के प्रयास आरंभ हुए। इसी क्रम में राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, रमाबाई एवं सर सैबयद अहमद खाँ जैसे समाज सुधारक सामने आए। जहाँ तक विश्व पूंजीवाद व्यवस्था के अंग बनने की बात है तो अंग्रेज़ों ने मातृ देश के हित में कई नीतियाँ लागू कीं, जैसे: अंग्रेज़ों ने भारतीय कृषि को परिवर्तित करने के प्रयास में जमींदारी व्यवस्था का सूत्रपात किया जो मुगल काल में भारत में विद्यमान नहीं थी। ज़मीन को व्यक्तिगत संपत्ति बनाने से इसमें पूंजीवादी तत्त्व जुड़ गए, जो बड़े पैमाने पर स्वतंत्र रूप से खरीदी एवं बेची जाती थी। कृषि के वाणिज्यीकरण से भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ गई तथा कृषि का पूंजीवादी रूपातंरण हुआ। उदाहरण के लिये अमेरिकी क्रांति के दौरान भारत से कपास के निर्यात में वृद्धि हुई। पूंजीवाद से ही प्रभावित होकर ब्रिटिश निवेशकों ने भारत में रेलवे, जूट उद्योग एवं चाय बगानों आदि में निवेश किया। लेकिन पूंजीवाद का यह स्वरूप मुख्यत: औपनिवेशिक शक्ति के ही हित में था तथा यह उपनिवेश के विकास में सहायक की बजाय अवरोधक ही था। इसका कारण औपनिवेशिक शक्ति द्वारा अपने मातृ देश के हित में नीतियाँ बनाना था। इसी का परिणाम था कि भारत विश्व पूंजीवाद का अभिन्न अंग होते हुए भी अपनी स्वतंत्रता के समय विऔद्योगीकरण एवं कृषि में पिछड़े देश के रूप में सामने आया। निष्कर्षत: कह सकते हैं कि उपनिवेशवाद ने औपनिवेशिक भारतीय समाज में राजनीतिक, प्रशासनिक एवं सामाजिक दृष्टि से मौलिक परिवर्तन किया तथा इसे विश्व पूंजीवादी व्यवस्था का अंग बना दिया। इस पूंजीवाद का स्वरूप औपनिवेशिक शक्ति के ही हित में था।</s>
<s>[INST]स्वतंत्रता के पश्चात् भाषाई आधार पर राज्यों के गठन हेतु कई प्रयास हुए। इन प्रयासों ने भारतीय अखंडता और एकता पर भी प्रभाव डाला। स्पष्ट करें। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : (प्रश्न विच्छेद – यहाँ प्रश्न के दो भाग हैं। अतः उत्तर की व्याख्या में पहले भाषाई आधार पर राज्यों के गठन के प्रयास और तत्संबंधित प्रक्रियाओं पर जानकारी देंगे फिर इन प्रयासों से अखंडता और एकता पर पड़ने वाले प्रभावों पर जानकारी देंगे।) भूमिका- गांधी जी सहित अन्य नेताओं द्वारा सामान्य तौर पर यह स्वीकार कर लिया गया था कि आजाद भारत अपनी प्रशासनिक इकाइयों के सीमा को भाषायी सिद्धांत पर निर्धारित करेगा। लेकिन आजादी के बाद राष्ट्रीय नेतृत्व में यह विचार व्यक्त किया गया कि देश की सुरक्षा, एकता और आर्थिक संपन्नता पर पहले ध्यान दिया जाना चाहिये। 1948 में एस.के.धर के नेतृत्व में बने भाषाई राज्य आयोग तथा जे.वी.पी. समिति ने भी तात्कालिक रूप से भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के विरुद्ध सलाह दी थी। व्याख्या- भाषाई आधार पर राज्य गठन हेतु बनी समितियों के सुझाव के बाद पूरे देश में राज्यों के पुनर्गठन को लेकर व्यापक जनांदोलन शुरू हो गए, जिनमें मद्रास प्रेसीडेंसी से अलग आंध्र राज्य बनाने की मांग सबसे प्रबल थी। अक्तूबर 1952 में पोट्टी श्रीरामलू की आमरण अनशन के चलते मृत्यु हो गई, इसके पश्चात् हुई हिंसा के कारण सरकार को 1953 में आंध्र प्रदेश के रूप में नया राज्य बनाना पड़ा। इसके बाद देश के अन्य क्षेत्रों में भी भाषाई आधार पर राज्यों की माँग जोर पकड़ने के कारण 1956 में ‘राज्य पुनर्गठन आयोग’ की स्थापना की गई। आयोग की रिपोर्ट के आधार पर वर्ष 1956 में पारित राज्य पुर्नगठन अधिनियम द्वारा भाषायी आधार पर 14 राज्यों तथा 6 केंद्रशासित प्रदेशों का गठन हुआ। प्रभाव- भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का कार्य कर राष्ट्रीय नेतृत्व ने राष्ट्रीय एकता के सामने उत्पन्न प्रश्न चिहन को समाप्त कर दिया जो संभवत: विघटनकारी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दे सकता था। जहाँ भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन ने क्षेत्रीय आकांक्षाओं को पूरा किया वहीं उसने जनता की भावनाओं का भी ध्यान और मान रखा। इससे लोगों के अंदर यह भावना बलवती हुई कि स्वतंत्र भारत में उनकी ईच्छाओं, भावनाओं तथा सांस्कृतिक पहलुओं के साथ-साथ उनकी क्षेत्रीय भाषा को भी महत्त्व दिया जा रहा है। इसके अलावा यह भी महत्त्वपूर्ण है कि भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन ने देश के संघीय ढाँचे को प्रभावित नहीं किया तथा केंद्र एवं राज्य के संबंध पूर्ववत बने रहे। हाल ही के वर्षों में इसमें एक नवीन प्रवृत्ति देखने को मिली, जो राज्य भाषा के आधार पर निर्मित हुये थे उनमें भी पुन: राज्य गठन की माँग जोर पकड़ने लगी है। इसी कड़ी में नवीनतम राज्य तेलगांना का निर्माण हुआ। निष्कर्ष- राज्यों के पुनर्गठन ने भारत की एकता को कमजोर नहीं किया बल्कि संपूर्ण रूप से देखा जाए तो मज़बूत ही किया है परंतु यह विभिन्न राज्यों के मध्य सभी विवादों और समस्याओं का समाधान नहीं कर पाया। विभिन्न राज्यों के बीच सीमा विवाद, भाषाई अल्पसंख्यकों की समस्या के साथ-साथ नदी जल बँटवारा की समस्या जैसे प्रश्न अभी भी अनसुलझे पड़े हैं।</s>
<s>[INST]ज्वालामुखी क्रियाओं से निर्मित स्थलाकृतियों के बारे में उदाहरण सहित व्याख्या करें। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : (यहाँ प्रश्न में ज्वालामुखी क्रियाओं से होने वाले निर्माणों में से केवल ‘स्थलाकृतियों’ के बारे में पूछा गया है) ज्वालामुखी उद्गार दो प्रकार के होते है- दरारी उद्गार और केंद्रीय उद्गार, इनसे कई प्रकार की स्थलाकृतियाँ बनती है जो इस प्रकार हैं- दरारी उद्गार द्वारा निर्मित स्थलाकृतियाँ ज्वालामुखी के दरारी उद्भेदन के समय भू-गर्भ से बेसाल्टिक मैग्मा भू-पटल पर चादरीय स्वरूप में प्रकट होता है तथा तरल होने के कारण शीघ्रता से क्षैतिज रूप में धरातल पर जम जाता है। यदि इसकी परत की गहराई अधिक होती है तो उसे ‘लावा पठार’कहते हैं। उदाहरण- भारत का दक्कन का लावा पठार, अमेरिका का कोलंबिया का लावा पठार। किंतु, यदि वृहद् क्षेत्र में फैले लावा की परत की गहराई कम हो तो उसे ‘लावा का मैदान’कहते हैं। उदाहरणार्थ- स्नेक रिवर प्लेन (यूएए), प्री-कैंब्रियन शील्ड (उत्तरी कनाडा) केंद्रीय उद्गार से निर्मित स्थलाकृतियाँ ज्वालामुखी उद्गार के समय निकास नली के चारों ओर लावा के शंक्वाकार रूप में जमने से शंकु का निर्माण हेाता है, जबकि इसका मध्य भाग एक कीपाकार गर्त के रूप में विकसित होता है। इनमें उपस्थित पदार्थों की रासायनिक संरचना एवं संघटन के अनुसार ज्वालामुखी शंकु कई प्रकार के होते हैं, जैसे- सिंडर शंकु, मिश्रित या कंपोजिट शंकु, लावा शंकु, परिपोषित शंकु आदि। ज्वालामुखी लावा के जमाव से निर्मित आंतरिक स्थलाकृतियाँ ज्वालामुखी लावा के जमाव से निर्मित आंतरिक स्थलरूपों में बैथोलिथ, किसी भी प्रकार की चट्टान में मैग्मा का गुम्बदनुमा जमाव है। अपेक्षाकृत कम गहराई पर अवसादी चट्टानों में मैग्मा के अलग-अलग प्रकार से ठंडा होने क्री प्रक्रिया में कई प्रकार के स्थल रूप देखे जाते हैं। इनमें लैकोलिथ उत्तल ढाल वाला एवं लोपोलिथ अवतल बेसिन में लावा जमाव है। फैकोलिथ मोड़दार पर्वतों के अभिनतियों व अपनतियों में अभ्यांतरिक लावा जमाव है। इसी प्रकार सिल व डाइक क्रमश: लावा के क्षैतिज व लंबवत् जमाव हैं। सिल की पतली परत को शीट एवं डाइक के छोटे स्वरूप को स्टॉक कहते हैं। (गीज़र/GEYSER गर्म जलस्रोत होते हैं जिनका ज्वालामुखी के दरारी उद्गार क्रिया से तो संबंध होता है किन्तु ये जलीय प्रकृति का निर्माण है न कि स्थलीय प्रकृति का निर्माण। इसी प्रकार धुआंरा/FUMAROLE गैसीय प्रकृति के उद्गार हैं न कि स्थलीय प्रकृति के निर्माण।) निष्कर्ष- अंत में संक्षिप्त,संतुलित और सारगर्भित निष्कर्ष लिखें। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि ज्वालामुखी के उद्गार और उनसे बनने वाली स्थलाकृतियों में व्यापक भिन्नता पाई जाती है और यह भिन्नता अलग-अलग दशाओं में अलग-अलग परिणाम देती है। यह परिणाम अलग-अलग विशेषताओं के कारण अलग-अलग नामों से जाने जाते हैं।</s>
<s>[INST]‘राष्ट्रवाद की बिकृत होती परिभाषा ने विश्व के समक्ष नई समस्याएँ पैदा कर दी हैं।’ टिप्पणी कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : भूमिका एवं व्याख्या- राष्ट्रवाद के अर्थ को लेकर व्यापक चर्चाएँ होती रही हैं, हालाँकि देखा जाए तो राष्ट्रवाद एक आंतरिक भाव है, जो देश-विशेष के लोगों को एकता के सूत्र में बांधता है। आधुनिक लोकतंत्र की तरह राष्ट्रवाद भी यूरोप की ही देन है। राष्ट्रवाद के प्रतिपादक जॉन गॉटफ्रेड हर्डर थे, जिन्होंने 18वीं सदी में पहली बार इस शब्द का प्रयोग करके जर्मन राष्ट्रवाद की नींव डाली। उस समय यह सिद्धांत दिया गया कि राष्ट्र सिर्फ समान भाषा, नस्ल, धर्म या क्षेत्र से बनता है। किंतु, जब भी इस आधार पर समरूपता स्थापित करने की कोशिश की गई तो तनाव एवं उग्रता को बल मिला। जब राष्ट्रवाद की सांस्कृतिक अवधारणा को ज़ोर-ज़बरदस्ती से लागू करवाया जाता है तो यह ‘अतिराष्ट्रवाद’ या ‘अंधराष्ट्रवाद’ कहलाता है। इसका अर्थ हुआ कि राष्ट्रवाद जब चरम मूल्य बन जाता है तो सांस्कृतिक विविधता के नष्ट होने का संकट उठ खड़ा होता है। आत्मसातीकरण और एकीकरणवादी रणनीतियाँ विभिन्न उपायों द्वारा एकल राष्ट्रीय पहचान स्थापित करने की कोशिश करती हैं, जैसे- संपूर्ण शक्ति को ऐसे मंचों में केंद्रित करना, जहाँ प्रभावशाली समूह बहुसंख्यक हो और जो स्थानीय या अल्पसंख्यक समूहों की स्वायत्तता को मिटाने पर आमादा हो। प्रभावशाली समूह की परंपराओं पर आधारित एकीकृत कानून एवं न्याय व्यवस्था को थोपना। प्रभावशाली समूह की भाषा को ही एकमात्र राजकीय ‘राष्ट्रभाषा’ के रूप में अपनाना और उसके प्रयोग को सभी सार्वजनिक संस्थाओं में अनिवार्य बना देना। प्रभावशाली समूह के इतिहास, शूरवीरों और संस्कृति को सम्मान प्रदान करने वाले राज्य प्रतीकों को अपनाना। राष्ट्रीय पर्व, छुट्टी या सड़कों आदि के नाम निर्धारित करते समय भी इन्हीं बातों का ध्यान रखना। अल्पसंख्यक समूहों और देशज लोगों की ज़मीनें, जंगल एवं जल क्षेत्र छीनकर उन्हें ‘राष्ट्रीय संसाधन’ घोषित कर देना। निष्कर्ष- भारत अपनी सांस्कृतिक विविधता को मिटाकर ऐसे राष्ट्रवाद की मान्यता को ग्रहण नहीं करता है, क्योंकि हमारे देश और पश्चिमी देशों की राष्ट्र संबंधी अवधारणा में अंतर है। पश्चिम का राष्ट्रवाद एक प्रकार का बहुसंख्यकवाद है, जबकि एक राष्ट्र के रूप में भारत अपनी विविध भाषाओं, अनेक धर्मों और भिन्न-भिन्न जातीयताओं का एक समुच्चय है।</s>
<s>[INST]चक्रवात क्या होते हैं? अवस्थिति के आधार पर चक्रवात के प्रकार स्पष्ट करें। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : भूमिका - हवाओं का परिवर्तनशील और अस्थिर चक्र, जिसके केंद्र में निम्न वायुदाब तथा बाहर उच्च वायुदाब होता है, ‘चक्रवात’ कहलाता है। चक्रवात सामान्यत: निम्न वायुदाब का केंद्र होता है, इसके चारों ओर समवायुदाब रेखाएँ संकेंद्रित रहती हैं तथा परिधि या बाहर की ओर उच्च वायुदाब रहता है, जिसके कारण हवाएँ चक्रीय गति से परिधि से केंद्र की ओर चलने लगती हैं। पृथ्वी के घूर्णन के कारण इनकी दिशा उत्तरी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों के चलने की दिशा के विपरीत (वामावर्त) तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों की दिशा (दक्षिणावर्त) में होती है। चक्रवात प्राय: गोलाकार, अंडाकार या ‘V’ आकार के होते हैं। चक्रवात को ‘वायुमंडलीय विक्षोभ’(Atmospheric Disturbance) के अंतर्गत शामिल किया जाता है। चक्रवात के प्रकार (Types of Cyclones)– अवस्थिति के आधार पर चक्रवात दो प्रकार के होते हैं- 1. शीतोष्ण कटिबंधीय या वाताग्री चक्रवात (Temperate Cyclones)- शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की उत्पत्ति तथा प्रभाव क्षेत्र शीतोष्ण कटिबंध अर्थात् मध्य अक्षांशों में होता है। ये चक्रवात उत्तरी गोलार्द्ध में केवल शीत ऋतु में उत्पन्न होते हैं, जबकि दक्षिणी गोलार्द्ध में जलीय भाग के अधिक होने के कारण ये वर्ष भर उत्पन्न होते रहते हैं। ये चक्रवात अंडाकार, गोलाकार, अर्द्ध-गोलाकार तथा ‘V’ आकार के होते हैं, जिस कारण इन्हें ‘निम्न गर्त’या ‘ट्रफ’कहते हैं। ये चक्रवात दोनों गोलार्द्धों में 35° से 65° अक्षांशों के मध्य पाए जाते हैं, जिनकी गति पछुआ पवनों के कारण प्राय: पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर रहती है। ये शीत ऋतु में अधिक विकसित होते हैं। इनकी उत्पत्ति ठंडी एवं गर्म, दो विपरीत गुणों वाली वायुराशियों के मिलने से होती है। शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों के मुख्य क्षेत्र – उत्तरी अटलांटिक महासागर भूमध्य सागर उत्तरी प्रशांत महासागर चीन सागर 2. उष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Tropical Cyclones) उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों के महासागरों में उत्पन्न तथा विकसित होने वाले चक्रवातों को ‘उष्ण कटिबंधीय चक्रवात’कहते हैं। ये 5° से 30° उत्तर तथा 5° से 30° दक्षिणी अक्षांशों के बीच उत्पन्न होते हैं। ध्यातव्य है कि भूमध्य रेखा के दोनों ओर 5° से 8° अक्षांशों वाले क्षेत्रों में न्यूनतम कोरिऑलिस बल के कारण इन चक्रवातों का प्राय: अभाव रहता है। उष्ण कटिबंधीय चक्रवात अत्यधिक विनाशकारी वायुमंडलीय तूफान होते हैं, जिनकी उत्पत्ति कर्क एवं मकर रेखाओं के मध्य महासागरीय क्षेत्र में होती है, तत्पश्चात् इनका प्रवाह स्थलीय क्षेत्र की तरफ होता है। ITCZ के प्रभाव से निम्न वायुदाब के केंद्र में विभिन्न क्षेत्रों से पवनें अभिसरित होती हैं तथा कोरिऑलिस बल के प्रभाव से वृत्ताकार मार्ग का अनुसरण करती हुई ऊपर उठती हैं। फलत: वृत्ताकार समदाब रेखाओं के सहारे उष्ण कटिबंधीय चक्रवात की उत्पत्ति होती है। व्यापारिक पूर्वी पवन की पेटी का अधिक प्रभाव होने के कारण सामान्यत: इनकी गति की दिशा पूर्व से पश्चिम की ओर रहती है। (ये चक्रवात सदैव गतिशील नहीं होते हैं। कभी-कभी ये एक ही स्थान पर कई दिनों तक स्थायी हो जाते हैं तथा तीव्र वर्षा करते हैं।) उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों के प्रमुख क्षेत्र कैरेबियन चीन सागर हिंद महासागर ऑस्ट्रेलिया (ध्यान दें - उष्ण कटिबंधीय चक्रवात के मध्य/केंद्र में शांत क्षेत्र पाया जाता है, जिसे ‘चक्रवात की आँख’कहते हैं, जबकि शीतोष्ण चक्रवात में इसका अभाव रहता है।) (नोट - भूमध्य रेखा के समीप जहाँ दोनों गोलार्द्धों की व्यापारिक पवनें मिलती हैं, उसे ‘अंत:उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र/तल’(ITCZ) कहते हैं। इस अभिसरण क्षेत्र/तल का उत्तरी व दक्षिणी दोनों गोलार्द्धों में विस्थापन होता है। ग्रीष्म ऋतु में ITCZ का विस्थापन भूमध्य रेखा से उत्तरी गोलार्द्ध में होता है। चूँकि, इस अभिसरण तल पर व्यापारिक पवनों का अभिसरण व आरोहण होता है, फलत: सतह पर निम्न वायुदाब का विकास होता है।)</s>
<s>[INST]भारतीय कला, सभ्यता-संस्कृति तथा अन्य महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में योगदान करने वाले व्यक्तियों को भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत किया जाता है। विवरण दें। (250 शब्द)[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s>
<s>[INST]‘‘यूरोपियन प्रतिस्पर्द्धा की दुर्घटनाओं द्वारा अफ्रीका को कृत्रिम रूप से निर्मित छोटे-छोटे राज्यों में काट दिया गया।’’ विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : भूमिका: 1870 के पश्चात् साम्राज्यवाद का नया दौर प्रारंभ हुआ तथा अप्रीका सहित एशिया तथा दक्षिण अमेरिका के देश इसके शिकार बने। यूरोप में यह काल औद्योगिक क्रांति के विस्तार का काल था। यूरोप के कारखानों को सस्ते श्रमिक, कच्चे माल तथा इससे तैयार माल बेचने के लिये एक बड़े बाज़ार की आवश्यकता थी। अप्रीका इसके लिये सबसे उपयुक्त क्षेत्र के रूप में देखा गया और अंतत: यूरोपीय औपनिवेशिक देशों द्वारा अप्रीका को कई छोटे-छोटे कृत्रिम भू-भागों में बाँट दिया गया। विषय-वस्तु अप्रीका में राज्य या राज्यों के सीमांत नहीं हुआ करते थे। सभी साम्राज्यवादी ताकतों के सामने मैदान खुला हुआ था। वे जहाँ तक चाहें अप्रीकी क्षेत्रों पर अपना दावा स्थापित कर सकते थे। इस प्रकार अप्रीका में साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा शुरू हो गई और अब इस प्रतिस्पर्द्धा में जर्मनी और इटली जैसे नवीन साम्राज्यवादी देश भी शामिल हो चुके थे। सर्वप्रथम बेल्जियम के शासक लियोपोल्ड-II ने अप्रीका के संसाधनों से लाभ उठाने के लिये 1876 में ब्रूसेल्स में एक सम्मेलन आयोजित किया। इसके पश्चात् उसके प्रतिनिधियों ने अप्रीका के मध्यवर्ती क्षेत्रों में वहाँ के क्षेत्रीय सरदारों से संधि पत्र पर हस्ताक्षर करवाकर उन पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। इस गतिविधि से अन्य यूरोपीय राष्ट्र जैसे ब्रिटेन और पुर्तगाल ने कांगो नदी पर नियंत्रण के लिये एक संयुक्त आयोग की स्थापना की। 1885 के बर्लिन सम्मेलन में अप्रीका में साम्राज्यवादी प्रसार के संदर्भ में कुछ निर्देश रेखाएँ निर्धारित की गईं। इसके अनुसार जिस यूरोपीय देश के अधिकार में अप्रीका का कोई तटवर्ती क्षेत्र होगा, उसे उस क्षेत्र के भीतरी इलाकों को अधिकृत करने में प्राथमिकता मिलेगी। प्रत्येक देश को अन्य देशों को अधिसूचित करना था कि वह किन इलाकों को अपना अधिग्रहण क्षेत्र मानता है। इस व्यवस्था का परिणाम यह हुआ कि वास्तविक अधिग्रहण के लिये अंधी दौड़ शुरू हो गई। मात्र पंद्रह वर्षों में अप्रीकी महादेश के क्षेत्रों का (कुछ एक अपवादों को छोड़कर) यूरोपीय साम्राज्यवादी राष्ट्रों के मध्य बँटवारा हो गया। इसके बाद प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी एवं उसके सहयोगी देशों की हार के बाद उनके उपनिवेशों का विभाजन एवं अधिग्रहण मित्र देशों द्वारा अप्रीका के नक्शे का लंबवत एवं क्षैतिज रेखाओं द्वारा कर दिया गया। इसी संदर्भ में कहा जाता है कि अप्रीका का विभाजन ‘टेबल पर कैंचियों के सहारे’ कर दिया गया। निष्कर्ष इस प्रकार यूरोपीय साम्राज्यवादी देश अप्रीका के भू-भाग पर कब्जा करके उसे अपनी सुविधानुसार कृत्रिम रूप से बाँटते गए। 20वीं सदी में जब ये उपनिवेश स्वतंत्र हुए तो वे उसी रूप में छोटे-छोटे देशों के रूप में सामने आए और इसी कृत्रिम बँटवारे का ही परिणाम है कि अप्रीका में आज भी जनजातीय संघर्ष विद्यमान है। अत: स्पष्ट है कि यूरोपीय प्रतिस्पर्द्धा की दुर्घटनाओं के परिणामस्वरूप अप्रीका में कृत्रिम रूप से छोटे-छोटे राज्यों का उदय हुआ।</s>
<s>[INST]आरंभिक भारतीय शिलालेखों में अंकित तांडव नृत्य की विवेचना कीजिये। (250 शब्द)[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s>
<s>[INST]क्या भारत सरकार अधिनियम, 1935 ने एक परिसंघीय संविधान निर्धारित कर दिया था? चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : भूमिका: परिसंघीय व्यवस्था ऐसी राजनीतिक प्रणाली होती है, जिसमें विभिन्न राज्य समान उद्देश्यों की पूर्ति के लिये एक साथ संयुक्त होते हैं। इसमें इनकी अपनी कार्यकारिणी तथा विधायिका होती है, परंतु उनकी शक्तियों पर केंद्र की सीमाएँ होती है। विषय-वस्तु परिसंघीय व्यवस्था की उपस्थिति का दावा प्राचीन भारत, रोम एवं ग्रीस में किया जाता है, परंतु उसके स्वरूप को लेकर राजनीतिशास्त्र के विद्वानों में एकमत का अभाव रहा है। आधुनिक युग में संयुक्त राज्य अमेरिका प्रथम एवं आदर्शपरिसंघ के रूप में माना जाता है, जबकि कनाडा एवं भारत को अर्द्ध-परिसंघीय की संज्ञा दी जाती है। किसी भी देश की राजनीतिक व्यवस्था परिसंघीय है अथवा नहीं, इसका निर्णय निम्नलिखित आधारों पर किया जाता है- द्वि स्तरीय सरकार (संघ एवं प्रांत) लिखित संविधान संविधान की सर्वोत्त्यता शक्तियों का बँटवारा संघीय विवाद समाधान हेतु एक स्वतंत्र न्यायपालिका का प्रावधान संघ के स्तर पर राज्यों का प्रतिनिधित्व भारत में संघीय व्यवस्था अपनाने की प्रथम कोशिश भारत सरकार अधिनियम, 1935 के माध्यम से की गई थी। इसके द्वारा एक अखिल भारतीय संघ की स्थापना की संकल्पना का निर्धारण किया गया। राज्य एवं रियासतों को एक इकाई की तरह माना गया। इसके द्वारा प्रांतों में द्वैध शासन समाप्त कर प्रांतीय स्वायत्तता को प्रारंभ किया गया। भारत सरकार अधिनियम, 1935 के कुछ प्रावधानों ने एक परिसंघीय संविधान का प्रारूप निर्धारित कर दिया था, जो निम्नलिखित हैं- इसमें द्विस्तीय सरकार का प्रावधान निर्धारित किया गया था- प्रांतीय स्तर तथा केेंद्र स्तर पर इनके कार्यों के निष्पादन एवं उन्हें सुविधाजनक बनाने हेतु एक लिखित संविधान का निर्माण किया गया, जिसमें 321 अनुच्छेद एवं 10 अनुसूचियाँ तथा हस्तांतरित एवं संरक्षित विषयों का समावेश किया गया। इसके अंतर्गत शक्तियों का बँटवारा राज्य सूची (54), केंद्र सूची (59) तथा समवर्ती सूची (36) में किया गया। प्रांतों को स्वायत्तता, पृथक पहचान, विधि बनाने का दायित्व एवं उसको लागू करने का अधिकार दिया गया। प्रांतीय विषयों का संचालन मंत्रियों के द्वारा किया जाता था, जो मुख्यमंत्री के अधीन कार्य करते थे तथा विधानमंडल के प्रति जाबदेह थे। इसके द्वारा एक संघीय न्यायपालिका की स्थापना की गई। 1935 के अधिनियम के प्रस्तावित संघ में रियासतों का सम्मिलित होना वैकल्पिक था। संघ के अस्तित्व में आने के लिये आवश्यक था कि रियासती प्रतिनिधियों में न्यूनतम आधे प्रतिनिधि चुनने वाली रियासतें शामिल हैं। लेकिन ऐसा हुआ नहीं इसलिये संघ अस्तित्व में नहीं आया। 1935 के अधिनियम के निम्न प्रावधान संघीय भावना के विपरीत थे- गवर्नर जनरल केंद्र में समस्त संविधान का केंद्र बिंदु था, जो परिसंघीय व्यवस्था के भिन्न था। उसे अनुदान मांगों में कटौती करने, विधान मंडल द्वारा अस्वीकार किये गए विधेयक के अनुमोदन, विभिन्न विषयों पर अध्यादेश जारी करने एवं सरकारी कारनों पर रोक लगाने का अधिकार प्राप्त था। इससे अधिनियम के वास्तविक क्रियान्वयन में रूकावटें आई। इसमें संघीय न्यायपालिका के ऊपर प्रिवी कौंसिल में अपील की जा सकती थी, जो परिसंघीय व्यवस्था के विपरीत था। इस अधिनियम के द्वारा एक अनम्य संविधान प्रस्तुत किया गया, जिसमें आंतरिक विकास की कोई संभावना नहीं थी। संविधान संशोधन की शक्ति ब्रिटिश संसद में निहित थी। संघीय बजट का लगभग 80 प्रतिशत भाग ऐसा था, जिस पर विधानमंडल मताधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता था। सबसे महत्त्वपूर्ण बात थी ब्रिटिश हितों को बढावा देना तथा भारतीय संप्रभुता को सीमित रखना। निष्कर्ष अंत में संक्षिप्त, संतुलित एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें- इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि भारत सरकार अधिनियम 1935 ने अप्रत्यक्ष रूप से तो परिसंघीय संधिान की अवधारणा को निरूपित कर दिया था, लेकिन गवर्नर-जनरल की भूमिका एवं ब्रिटिश हितों की प्रमुखता के कारण कभी अपने वास्तविक स्वरूप में नहीं आ पाया।</s>
<s>[INST]भारत के सूखा प्रवण एंव अर्द्धशुष्क प्रदेशों में लघु जलसंभर विकास परियोजनाएँ किस प्रकार जल संरक्षण में सहायक हैं?[/INST]उत्तर : भूमिका: ‘लघु जलसंभर कार्यक्रम’ नदी बेसिन प्रबंधन की लघु स्तरीय इकाई है। इसे कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम के विकल्प के रूप में देखा गया है। पारिस्थितिक संतुलन के लिये इस कार्यक्रम में भूमि, जल व वनों के समन्वित प्रबंधन पर बल दिया जाता है। इसके तहत चैक डैम, कुओं, तालाब, बावड़ी, आहार आदि का निर्माण शामिल है। विषय-वस्तु भारत मौसमी विविधताओं वाला देश है, जहाँ कुछ क्षेत्रों में वर्षा अत्यधिक मात्रा में होती है, वहीं कुछ क्षेत्रों में अल्प। भारत में वर्षा का वितरण असमान है तथा यह केवल मानसूनी दिनों में ही होती है। वर्षा की अनिश्चितता एवं उसके वितरण में क्षेत्रीय असमानता के कारण भारत में शुष्क एवं अर्द्धशुष्क प्रदेशों का विकास हुआ है, जो निम्नवत है- भारत का उत्तरी-पश्चिमी प्रदेश जिसमें पंजाब, हरियाणा, राजस्थान तथा गुजरात शामिल है। झारखंड, उत्तर प्रदेश का कुछ भाग, मध्य प्रदेश का कुछ हिस्सा तथा ओडिशा। पश्चिमी घाट का वृृष्टि छाया प्रदेश इन क्षेत्रों में लघु जलसंभर कार्यक्रम अपनी विशेषताओं के आधार पर जल संरक्षण मं बेहद उपयोगी हो सकता है। लघु जलसंभर की विशेषताएँ लघु जलसंभर कार्यक्रम के अंतर्गत जलद्रोणी की ढाल प्रवणता तथा अन्य भौतिक संरचना का निर्धारण करते हुए परियोजना का निर्माण किया जाता है। जलसंभर विकास कार्यक्रम अपने सफल संचालन के दौरान सूखा एवं अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में निम्न प्रकार से जल संरक्षण कार्यक्रम को सहायता प्रदान कर सकता है- लघु जलसंभर कार्यक्रम के अंतर्गत वर्षा जल के प्रवाह वाले क्षेत्र में जल को एकत्र करने के लिये छोटे-छोटे बाँध तथा चेकडैम बनाए जाते हैं। इन छोटे-छोटे बाँधों में वर्षा जल एकत्र होने से धरातलीय जल रिसकर भूमि के अंदर पहुँचता है तथा भौम जल स्तर को सुधारता है। इसके प्रभाव से भूमि में आर्द्रता का आविर्भाव होता है, जो कृषि प्रणाली में मददगार है। लघु जलसंभर विकास कार्यक्रम के अंतर्गत निर्मित बाँध से छोटी-छोटी नहरें निकाली जाती है, जो अपने प्रवाह क्षेत्रों में सिंचाई प्रदान करने के साथ-साथ भौम जलस्तर में भी वृद्धि करती है। लघु जलसंभर कार्यक्रम से मवेशियों को चारा एवं पेयजल की उपलब्धता सुनिश्चित होने से लोगों को इस कार्यक्रम में भागीदारी से सहायता मिलती है तथा वे जल संरक्षण कार्यक्रम में योगदान देने के लिये तत्पर होते हैं। लघु जलसंभर विकास कार्यक्रम से हरित क्षेत्रों में वृद्धि होती है, इससे वर्षा को प्रोत्साहन मिलता है। लघु जलसंभर विकास कार्यक्रम के चलते प्रवास की समस्या समाप्त होती है, क्योंकि लोगों को कृषिगत कार्यों से आय मिलने लगती है। उपर्युक्त माध्यम से लघु जलसंभर कार्यक्रम सूखा एवं अर्द्धशुष्क प्रदेशों में जल संरक्षण को प्रोत्साहन देता है। हरियाली, नीरू-मीरू, तथा हाल में शुरू नीरांचल जैसी लघु, जल-संभर योजनाएँ, ‘प्रति बूंद ज़्यादा फसल’ की अवधारणा तो पूर्ण होंगी ही, साथ ही पेयजल, मत्स्य पालन एवं पशुपालन में भी सहायक होंगी। निष्कर्ष अंत में संक्षिप्त, संतुलित एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें-</s>
<s>[INST]उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में संपन्न औद्योगिक क्रांति को संभव बनाने में वैज्ञानिक आविष्कारों एवं तकनीकी परिवर्तनों की भूमिका का परीक्षण करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • औद्योगिक क्रांति की सफलता में वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास की भूमिका का उल्लेख करना है। • चूँकि प्रश्न में परीक्षण पूछा गया है, अत: इसके नकारात्मक परिणामों की भी चर्चा की जानी चाहिये। हल करने का दृष्टिकोण • औद्योगिक क्रांति का संक्षिप्त परिचय देते हुए इस समय के विभिन्न अविष्कारों एवं तकनीकी परिवर्तनों की चर्चा करें। • इन आविष्कारों ने किस प्रकार औद्योगिक क्रांति को सफल बनाया, विभिन्न दृष्टिकोणों से चर्चा करें। • इन परिवर्तनों के कुछ नकारात्मक परिणामों का उल्लेख करते हुए निष्कर्ष लिखें। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आर्थिक और तकनीकी क्षेत्र में परिवर्तन ने समाज की सोच में भी परिवर्तन किया। कारखाना पद्धति घरेलू उत्पादन प्रणाली को प्रतिस्थापित करने लगी। शक्ति चालित मशीनों का अधिकाधिक उपयोग प्रारंभ हुआ और आधुनिक व्यापार तंत्र का विकास हुआ। इसके फलस्वरूप व्यापार में अप्रत्याशित वृद्धि हुई। इन्हीं व्यापक परिवर्तनों को इंगित करने के लिये ‘औद्योगिक क्रांति’ शब्द का प्रयोग किया गया। यद्यपि विज्ञान ने औद्योगिक क्रांति में कोई सीधी भूमिका नहीं निभाई, किंतु प्रौ़द्योगिकी ने यह भूमिका अवश्य अदा की। प्रौद्योगिकीय विकास विज्ञान पर ही निर्भर था। विज्ञान की बढ़ी हुई समझ ने ही कृषि, वस्त्र उद्योग, लौह एवं इस्पात उद्योग, परिवहन एवं संचार में सुधार आदि को संभव बनाया। इन सुधारों को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है: कृषि क्रांति के बिना औद्योगिक क्रांति संभव नहीं होती। ‘ड्रिल’ नामक यंत्र की खोज ने खेतों की बुवाई को आसान बनाया। पोटाश, नाइट्रोजन और फास्फोरस के प्रयोग ने कृषि उत्पादकता को बढ़ाया और कृषि को लाभ का कार्य बना दिया। फ्लांइग शटल, वाटर प्रेम, म्यूल आदि अविष्कारों ने वस्त्र उद्योग को नवीन उँचाइयों पर पहुँचा दिया। कम समय और कम लागत में अधिक उत्पादन होने लगा। पत्थर के कोयले (कोक) के प्रयोग ने लौह शुद्धिकरण तकनीक को आसान बनाया। इसके पश्चात् इस्पात के आविष्कार ने भारी उद्योगों को प्रगति दी। बड़ी-बड़ी मशीनों को इस्पात से बनाया जाना आसान हुआ। बढ़े हुए उत्पादन एवं व्यापार ने परिवहन के साधनों में आवश्यक परिवर्तनों को उत्प्रेरित किया। सड़क एवं नहर निर्माण किया जाने लगा। भाप इंजन और कालांतर में गैसोलीन (पेट्रोल) आधारित इंजन के विकास ने मोटर उद्योग की सफलता में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। रबर के टायरों से यात्रा आरामदेह हो गई। डाक-तार के विकास ने संचार के क्षेत्र में आमूल-चूल परिवर्तन किया। इस प्रकार वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास ने औद्योगिक क्रांति को सफल बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। यद्यपि इससे प्रदूषण, श्रमिकों का शोषण, अव्यवस्थित शहरी बस्तियाँ, अमीर-गरीब के मध्य विस्तृत अंतर आदि नकारात्मक कारक भी उत्पन्न हुए। फिर भी वैज्ञानिक अविष्कारों एवं तकनीकी परिवर्तनों ने 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में औद्योगिक क्रांति को सफल बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।</s>
<s>[INST]'ठुमरी’ अर्द्ध-शास्त्रीय भारतीय संगीत की एक विशिष्ट शैली है जो आज भी अपनी जीवंतता को अक्षुण्ण रखे हुए हैं। इस शैली की मौलिक विशेषताओं की चर्चा करते हुए इससे संबंधित प्रमुख कलाकारों का उल्लेख करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद ‘ठुमरी’ की मौलिक विशेषताओं का उल्लेख करते हुए इससे संबंधित कलाकारों को बताना है। हल करने का दृष्टिकोण ‘ठुमरी’ का संक्षिप्त परिचय लिखते हुए इसके विशिष्ट अभिलक्षणों को बिंदुवार बताएँ। इसके प्रमुख कलाकारों का उल्लेख करें। वर्तमान में ‘ठुमरी’ की जीवंतता का उल्लेख करते हुए निष्कर्ष लिखें। ‘ठुमरी’ भारतीय शास्त्रीय संगीत की एक लोकप्रिय गायन शैली है। इस शैली की उत्पत्ति उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग में हुई थी। इसमें भगवान श्रीकृष्ण और राधा के जीवन के प्रसंगों का वर्णन किया जाता है। यह एक मुक्त गायन शैली है, जिसमें कम-से-कम शब्दों के द्वारा अधिकाधिक अर्थों को संगीत के माध्यम से व्यक्त किया जाता है। ठुमरी गायन शैली की चारित्रिक विशेषताओं को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है- यह अपनी संरचना और प्रस्तुति में अधिक गीतात्मक है। ये प्रेमगीत होते हैं, इसलिये शब्द रचना अति महत्त्वपूर्ण होती है। ठुमरी का गायन एक विशिष्ट मनोदशा में होता है। इसी आधार पर इसे खमाज़, काफी, भैरवी आदि रागों में प्रस्तुत किया जाता है। इसमें संगीतात्मक व्याकरण का सख्ती से पालन नहीं किया जाता है। ठुमरी गायन की दो शैलियाँ हैं- पूरब या बनारस शैली, यह धीमी और सौम्य शैली है और पंजाबी शैली, यह अधिक जीवंत है। रसूलन देवी, सिद्धेश्वरी देवी, गौहर जान, बेगम अख्तर, शोभा गुर्टू, नूरजहाँ और प्रभा आत्रे ठुमरी गायन शैली के प्रमुख कलाकार हैं। अक्तूबर 2017 में ठुमरी की रानी कही जाने वाली गिरिजा देवी का निधन हो गया। गिरिजा देवी ने ठुमरी गायन को देश-विदेश में प्रसिद्धि दिलवाई। गिरिजा देवी को पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्म विभूषण आदि पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। निष्कर्षत: ठुमरी शैली आज भी अपनी जीवंतता का अक्षुण्ण बनाए हुए हैं। संबंधित स्रोत: CCRT, इंटरनेट।</s>
<s>[INST]बीसवीं सदी का अंतिम दशक भारतीय सामाजिक-आर्थिक जीवन का एक महाप्रस्थान सिद्ध हुआ, जिसमें वैश्विक चुनौतियों एवं संभावनाओं के साँचे पर सरकार की नीतियों एवं कार्यव्रमों ने आकार ग्रहण किया, जो अपने चारित्रिक लक्षणों में पूर्ववर्ती नीतियों एवं कार्यव्रमों से नितांत भिन्न थे। व्याख्या करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद LPG नीतियों का भारतीय सामाजिक-आर्थिक जीवन पर प्रभाव एवं इसके कारण सरकार की नीतियों में आये परिवर्तन। हल करने का दृष्टिकोण भारतीय सामाजिक-आर्थिक जीवन पर LPG नीतियों का प्रभाव। सामाजिक-आर्थिक जीवन में परिवर्तन के संगत सरकारी नीतियों में बदलाव। पूर्ववर्ती नीतियों तथा समकालीन नीतियों की तुलना करते हुए निष्कर्ष लिखें। स्वतंत्रता के बाद बाह्य हस्तक्षेपों से स्वयं को मुक्त रखने के लिये भारत ने नियंत्रित आर्थिक नीति अपनाई थी परंतु 20वीं सदी के अंतिम दशक में जब भुगतान का संकट नियंत्रण से बाहर हो गया तो सरकार ने आर्थिक सुधारों की एक शृंखला की शुरुआत की जिसे उदारीकरण, निजीकरण तथा वैश्वीकरण (LPG) के नाम से जाना जाता है। इन सुधारों का भारतीय सामाजिक-आर्थिक जीवन पर निम्नलिखित प्रभाव हुआ- भारतीय अर्थव्यवस्था में निर्यात में वृद्धि हुई तथा चालू खाता घाटा कम हो गया, साथ ही विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि हुई, फलस्वरूप भारत में भुगतान की समस्या खत्म हुई। सरकारी नियंत्रण में कमी तथा लाइसेंस राज की समाप्ति के पश्चात् भारत में व्यापार करना आसान हुआ तथा नए रोज़गारों का सृजन हुआ। प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन से भारत में उपभोक्तावाद का प्रसार हुआ। कंपनियों के कुछ विशेष-क्षेत्रों में केंद्रित होने के कारण क्षेत्रीय असंतुलन उत्पन्न हुआ तथा प्रव्रजन में वृद्धि हुई। शिक्षा में निजीकरण के पश्चात् उच्च एवं तकनीकी शिक्षा का विस्तार हुआ परंतु गुणवत्ता एवं रोज़गार योग्यता में अपेक्षित वृद्धि नहीं हुई। संयुक्त परिवार जैसी संस्था कमज़ोर हुई तथा एकल परिवार का प्रचलन बढ़ा। देर से विवाह, तलाक जैसे मामलों में वृद्धि हुई तथा वृद्धाश्रमों की संख्या में भी इजाफा हुआ। भारतीय अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्द्धा में वृद्धि हुई तथा उपभोक्ताओं को अधिक विकल्प मिले। भारत के समक्ष नई वैश्विक चुनौतियाँ तथा संभावनाएँ उभरकर आईं जिसके अनुसार सरकार ने अपनी नीतियों में कई आवश्यक बदलाव भी किये: सरकार ने 1991 में नई आर्थिक नीति की घोषणा की एवं अप्रगतिशील कानूनों को खत्म किया। भारत में निवेश को नियंत्रित करने के लिये सेबी (SEBI), FIPB जैसी संस्थाओं का गठन हुआ ताकि निवेश की अस्थिरता से निपटा जा सके। वैश्विक चुनौतियों एवं संभावनाओं के आलोक में द्वितीय पीढ़ी के सुधार लागू किये गए। प्रदूषण तथा जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक समस्या से निपटने के लिये भारत सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय संधियों के सापेक्ष घरेलू नीतियों को लागू किया है। इसी संदर्भ में जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना अपनाई गई। अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार श्रम कानून लागू किये गए। महिलाओं के अधिकारों तथा अवसरों में वृद्धि करने हेतु विभिन्न स्तर पर महिलाओं को आरक्षण प्रदान किया गया। विकास की क्षेत्रीय विसंगतियाँ दूर करने के लिये गैर-विकसित क्षेत्रों में उद्योग स्थापित करने हेतु प्रोत्साहन दिया गया। जन-जन तक स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच सुनिश्चित करने के लिये राष्ट्रीय स्वास्थ्य अभियान की शुरुआत की गई। वैश्वीकरण के उपरांत भारत में आर्थिक तथा साइबर अपराधों में भी वृद्धि हुई, जिसके लिये भारत ने कार्यबल का गठन किया, साथ ही अंतर्राष्ट्रीय सहयोग पर भी ध्यान दिया। वैश्वीकरण ने भारत के समक्ष नए अवसर भी प्रस्तुत किये हैं, भारत आई.टी. सेवाओं का सर्वप्रमुख निर्यातक देश है। निर्यात को प्रोत्साहन देने के लिये भारत में कई नीतियों को लागू किया गया है। जैसे- विशेष आर्थिक क्षेत्रों का गठन, मेक इन इंडिया जैसे कायक्रमों को लागू करना तथा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की प्रक्रिया का सरलीकरण। वित्तीय क्षमता दुरुस्त रखने के लिये भारत ने FRBM अधिनियम लागू किया है तथा बेसेल प्रतिमान का पालन किया है। अन्य क्षेत्रों में भी आवश्यक पहल की गई है ताकि भारत में सामाजिक-आर्थिक गतिविधियाँ सुचारु रूप से चलें। भारत के सुधारों की राह कठिन थी परंतु भारत ने अवसरों को भुनाया तथा चुनौतियों का बेहतर प्रबंधन किया। भारत जनसांख्यिकीय लाभांश को भुनाकर स्वयं को विश्व की श्रम-शक्ति की राजधानी के रूप में विकसित करने को प्रयासरत है। यद्यपि समाज पर कुछ नकारात्मक प्रभाव पड़े हैं परंतु भारतीय समाज एक न्यायसंगत समाज बनने की ओर अग्रसर हुआ है।</s>
<s>[INST]मैकडोनाल्ड अवॉर्ड सरकार द्वारा सांप्रदायिक एवं संवैधानिक मुद्दों के समाधान की दिशा में एक गंभीर किंतु दूषित पहल थी, जिसने अपने अंतर्निहित दोषों के कारण परस्पर विरोधी हितों के मध्य खाई को और अधिक चौड़ा कर दिया। परीक्षण कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद मैकडोनाल्ड अवार्ड के निहितार्थों की चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण मैकडोनाल्ड अवार्ड के प्रावधानों का संक्षिप्त परिचय देते हुए उत्तर प्रारंभ करें। अवार्ड के नकारात्मक पक्ष का उल्लेख करें। परस्पर विरोधी हितों में टकराव एवं इसके परिणाम की चर्चा करते हुए निष्कर्ष लिखें। गोलमेज सम्मेलन के पश्चात् ब्रिटिश शासन ने भारतीय राजनीतिक और सामाजिक स्थिति को सुधारने के लिये प्रयास किये। इन्हीं प्रयासों का परिणाम मैकडोनाल्ड घोषणा या सांप्रदायिक पंचाट था। इसके प्रावधान निम्नलिखित हैं: प्रांतीय व्यवस्थापिकाओं की सदस्य संख्या बढ़ाकर दुगुनी कर दी गई। अल्पसंख्यकों के लिये अलग निर्वाचन की व्यवस्था की गई। स्त्रियों के लिये भी कुछ स्थान आरक्षित किये गए। दलितों के लिये पृथक निर्वाचन और प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया गया। सरकार ने इस घोषणा के द्वारा दलितों की स्थिति को राजनीतिक प्रतिनिधित्व प्रदान करके सुधारने का प्रयास किया, किंतु इसने राष्ट्रवाद पर गहरा आघात किया। जैसे- इस निर्णय की योजना ही ऐसी बनाई गई थी कि प्रांतों में वास्तविक उत्तरदायी शासन का विकास न हो सके। केंद्रीय व्यवस्थापिका के संगठन में कोई परिवर्तन नहीं किया गया। यह निर्णय पक्षपात पर आधारित था क्योंकि इसमें यूरोपियनों और मुसलमानों को विशेष रियायतें दी गई थीं। अस्पृश्यों के लिये अलग निर्वाचन की व्यवस्था के द्वारा हिंदुओं में पूट डालने का प्रयास किया गया। इस निर्णय से मुस्लिम संाप्रदायिकता को बढ़ावा मिला। इस प्रकार मैक्डोनाल्ड अवार्ड ने हिंदू-मुस्लिम हितों में टकराहट तो उत्पन्न की ही, साथ ही हिन्दुओं में भी सवर्णों और अस्पृश्यों के मध्य हितों के टकराव को जन्म दिया। इसे निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है: मुस्लिम लीग ने मुस्लिमों के लिये अधिक सहूलियतें मांगना प्रारंभ कर दिया। हिंदुओं में अस्पृश्य वर्ग भी अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिये लालायित हो गया। इससे हिंदू समाज में भी हितों का टकराव बढ़ गया। इस प्रकार निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि मैकडोनाल्ड अवॉर्ड के द्वारा ब्रिटिश सत्ता ने दलितों की स्थिति में सुधार हेतु प्रयास किया था किंतु इसके नकारात्मक प्रभाव भारतीय राष्ट्रवाद पर गंभीर रूप से पड़े। इसने भारतीय समाज की विविधता में परस्पर विरोधी हितों के मध्य खाई को अधिक गहरा ही किया। संबंधित स्रोत: NCERT, आर.एल. शुक्ला एवं इंटरनेट।</s>
<s>[INST]क्या आप मानते हैं कि ‘ब्रेस्ट लिटोवस्क की संधि’ लेनिन की एक गंभीर भूल थी? तर्कपूर्ण उत्तर दें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: संधि की पृष्ठभूमि से उत्तर की शुरुआत करें। संधि के सकारात्मक एवं नकारात्मक पक्ष क्या थे। संतुलित निष्कर्ष। ब्रेस्ट लिटोवस्क की संधि 3 मार्च 1918 को सोवियत रूस की बोल्शेविक सरकार तथा केन्द्रीय शक्तियों (जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी, बुल्गारिया तथा ऑटोमन साम्राज्य) के मध्य संपन्न हुई। इस संधि के द्वारा रूस प्रथम विश्वयुद्ध से अलग हो गया। इस संधि को लेकर लेनिन की आलोचना हुई तथा इसे लेनिन की एक गंभीर भूल कहा गया। ब्रेस्ट लिटोवस्क संधि के सकारात्मक पक्ष रूस की अर्थव्यवस्था प्रथम विश्व-युद्ध के दौरान दयनीय हालत में थी और युद्ध जारी रखना रूस के लिये किसी सूरत में लाभप्रद न था, युद्धबंदी के बाद रूस को अर्थव्यवस्था में सुधार का अवसर मिला। सोवियत रूस गृहयुद्ध की समस्या से जूझ रहा था, इस समय उसे मोर्चे पर सैन्य बल की आपूर्ति सुनिश्चित करने में काफी समस्या आ रही थी। बोल्शेविक युद्ध की समाप्ति का वचन (अप्रैल थिसिस) देकर सत्ता में आए थे, अतः युद्ध जारी रखने से सैन्य विद्रोह की आशंका थी, जिसे टाला गया। पूर्वी मोर्चे पर रूस की स्थिति अत्यंत कमजोर थी, हथियारों एवं अन्य संसाधनों का घोर अभाव था। ऐसी स्थिति में अमेरिका की सहायता अपेक्षित थी पर ऐसा नहीं हुआ, अतः सोवियत रूस के लिये युद्धबंदी की घोषणा आवश्यक थी। पुनः बोल्शेविक क्रांति के उपरांत सरकार के दृष्टिकोण में मौलिक परिवर्तन आ गया। अब साम्राज्यवादी आकांक्षा के विपरीत रूस के सामाजिक-आर्थिक विकास की प्रक्रिया को त्वरित करना प्राथमिक लक्ष्य बन गया। संधि के नकारात्मक पक्ष संधि की शर्तें कठोर थीं, रूस को पोलैंड, एस्तोनिया, लातविया, लिथुआनिया, जॉर्जिया तथा फिनलैंड गँवाना पड़ा। इसमें रूस का एक-तिहाई कृषि भूमि, एक-तिहाई जनसंख्या, दो-तिहाई कोयले के खदान तथा आधे भारी उद्योग शामिल थे। यह संधि के लिये काफी ऊँची कीमत थी, अतः रूस की अन्य सभी पार्टियों ने इसका विरोध किया। यह संधि मित्र-राष्ट्रों से सलाह के बिना की गई थी, अतः अंतर्राष्ट्रीय पटल पर रूस को संदेहपूर्ण दृष्टि से देखा जाने लगा। ब्रेस्ट लिटोवस्क संधि ने रूस में व्हाईट तथा रेड के मध्य गृहयुद्ध भड़काने में अहम भूमिका निभाई। इस संधि के बावजूद रूस पर युद्ध का खतरा मंडराता रहा, फ्राँसीसी नौसेना ओडेसा तथा ब्रिटिश सैनिक मरमांस्क और जापानी सेना सुदूर पूर्व में पहुँच चुकी थी। सौभाग्यवश जर्मनी को प्रथम विश्व युद्ध में मित्र राष्ट्रों के हाथों हार का सामना करना पड़ा और सितंबर 1918 में संधि व्यवहारिक रूप से समाप्त कर दी गई। रूस इस संधि के सबसे बुरे परिणामों से बच गया। रूस द्वारा यह संधि शाश्वत उद्देश्य के लिये की गई थी जिसमें अंतर्निहित कांटों की चुभन पूर्व निर्धारित थी फिर भी दीर्घकालिक जनलाभ के लिये उक्त दोष नगण्य थे। अतः इस संधि को लेनिन की गंभीर भूल कहना युक्तिसंगत नहीं है।</s>
<s>[INST]एनाबेटिक एवं कैटाबेटिक पवनों से आप क्या समझते हैं? स्थानीय मौसम पर इनके प्रभाव की सोदाहरण व्याख्या करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद प्रश्न में पवनों, उनके प्रकार और प्रभावों की चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण पवनों का संक्षिप्त परिचय लिखते हुए उत्तर प्रारंभ करें। पवनों के प्रकार बताएँ। स्थानीय मौसम पर पवनों के विभिन्न प्रकार के प्रभावों की चर्चा करें। निष्कर्ष लिखें। पवनें अर्थात् वायु की वे धाराएँ जो निरंतर एक ही दिशा में क्षैतिज रूप से वर्ष भर चलती रहती हैं। पवनें उच्च दाब से न्यून दाब वाले क्षेत्रों की ओर चलती हैं। धरातलीय विषमताओं के कारण इनमें घर्षण उत्पन्न होता है जिससे पवनों की दिशाएँ प्रभावित होती हैं। पृथ्वी का घूर्णन भी पवनों के वेग को प्रभावित करता है। वायुदाब की प्रवणता पवनों की दिशा और गति दोनों को प्रभावित करती है। पृथ्वी पर चलने वाली पवनों को ‘सनातन पवन’ और ‘स्थानीय पवन’ दो वर्गों में वर्गीकृत किया गया है। ‘एनाबेटिक’ और ‘कैटाबेटिक’ पवनें स्थानीय पवन कहलाती हैं। इन्हें क्रमश: ‘घाटी समीर’ और ‘पर्वत समीर’ कहते हैं। दिन के दौरान पर्वतीय प्रदेशों में ढाल गर्म हो जाते हैं और वायु ढाल के साथ-साथ ऊपर उठती है तथा इस स्थान को भरने के लिये वायु घाटी से बहती है। इन पवनों को घाटी समीर या एनाबेटिक पवन कहते हैं। रात्रि के समय पर्वतीय ढाल ठण्डे हो जाते हैं और सघन वायु घाटी में नीचे उतरती है जिसे पर्वतीय पवन या कैटाबेटिक पवन कहते हैं। इन पवनों के स्थानीय मौसम पर प्रभाव को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है- स्थानीय स्तर पर यह तापमान को नियंत्रित रखने में सहायक है। पहाड़ी ढालों पर बाग़ान कृषि में सहायक, जैसे- शिमला आदि स्थानों पर सेबों की कृषि में इन पवनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। पर्वत समीर उच्च पहाड़ी स्थलों पर तापमान को तीव्र रूप से ठण्डा नहीं होने देती। वहीं, घाटी समीर निम्न पर्वतीय क्षेत्रों पर तापमान एवं वायुदाब को नियंत्रित रखती है। यह पर्वतीय क्षेत्रों में चरागाहों के विकास में सहायक सिद्ध होती है। इस प्रकार, निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि एनाबेटिक और कैटाबेटिक पवनें पर्वतीय क्षेत्रों, ढालों एवं उँचाई पर महत्त्वूपर्ण जलवायु परिवर्तक तथा नियंत्रक की भूमिका का निर्वहन करती हैं।</s>
<s>[INST]पवन को अपरदन का एक मुख्य कारक माना जाता है। पवन अपरदन को प्रभावित करने वाली दशाओं पर प्रकाश डालते हुए इसके अपरदनात्मक स्थलरूपों की चर्चा करें।[/INST]उत्तर : भूमिका: पवन का अपरदन संबंधी कार्य प्रमुख रूप से भौतिक या यांत्रिक रूपों में ही संपादित होता है। शुष्क मरुस्थलों में यांत्रिक अपक्षय के कारण चट्टानों के विघटित होने से चट्टानें ढीली पड़ जाती हैं। इन असंगठित चट्टानों को पवन आसानी से अपरदित कर देती है। विषय-वस्तु पवन द्वारा अपरदन का कार्य तीन रूपों यथा अपवाहन, अपघर्षण तथा सन्निघर्षण में संपन्न होता हे। अपवाहन के अंतर्गत यांत्रिक अपक्षय के कारण ढीली तथा असंगठित चट्टानों के ढीले कणों को पवन चट्टानों से अलग करके उड़ा ले जाती है।। अपघर्षण के तहत तीव्र वेग की पवन के साथ रेत तथा धूलकण; जो अपरदनात्मक यंत्र का कार्य करते हैं, पवन मार्ग में पड़ने वाली चट्टानों को रगड़ कर अपरदित करती है। सन्निघर्षण के तहत शैलकण आपस में रगड़ खाकर यांत्रिक ढंग से टूट जाते हैं। अपरदनात्मक स्थलरूप अपवाहन बेसिन या वात गर्त: पवन द्वारा असंगठित तथा ढीले कणों को उड़ा लिये जाने से निर्मित गर्त को अपवाहन बेसिन कहते हैं। चूंकि इन गर्तों का निर्माण पवन द्वारा होता है अत: इन्हें पवन गर्त भी कहते हैं। सहारा के रेगिस्तान, कालाहारी, मंगोलिया तथा संयुक्त राज्य अमेकिरा के पश्चिमी शुष्क भागों में इस प्रकार के अनेक स्थलरूपों के उदाहरण देखने को मिलते हैं। इन्सेलबर्ग: मरुस्थलों में अपव्यय तथा अपरदन के कारण कोमल चट्टानें आसानी से कट जाती है लेकिन कठोर चट्टानों के अवशेष ऊँचे-ऊँचे टीलों के रूप में बच जाता है जिसे इन्सेलबर्ग कहते हैं। छत्रक शिला: मरुस्थली भागों में यदि कठोर चट्टानों के रूप में ऊपरी आवरण के नीचे कोमल चट्टाने लम्बवत रूप में मिलती हैं तो उस पर पवन के अपघर्र्षण के प्रभाव से विभिन्न स्थलरूपों का निर्माण होता है। पवन द्वारा चट्टान के निचले भाग में अत्यधिक अपघर्षण द्वारा उसका आधार कटने लगता है, जबकि उसका ऊपरी भाग अप्रभावित रहता है। साथ ही यदि पवन कई दिशाओं में चलती है तो चट्टान का निचला भाग चारों तरफ से अत्यधिक कट जाने के कारण पतला हो जाता है, जबकि ऊपरी भाग अप्रभावित रहता है। इससे एक छतरीनुमा स्थलरूप का निर्माण होता है, जिसे छत्रक शिला कहते हैं। छत्रक शिला को सहारा के रेगिस्तान में गारा कहते हैं। भूस्तंभ: शुष्क प्रदेश में जहाँ पर असंगठित तथा कोमल चट्टानों के ऊपर कठोर तथा प्रतिरोधी चट्टानों का आवरण होता है, वहाँ इस आवरण के कारण नीचे की कोमल चट्टानों का अपरदन नहीं हो पाता। लेकिन नजदीकी चट्टानों के अपरदन के कारण कठोर चट्टानों के आवरण वाला भाग एक स्तंभ के रूप में सतह पर दिखाई देता है जिसे भू-स्तम्भ कहते हैं। ज्यूजेन: मरुस्थली भाग में यदि कठोर तथा कोमल शैलों की परतें ऊपर-नीचे एक-दूसरे के समानान्तर होती है तो अपक्षय तथा वायु द्वारा अपरदन के कारण विभिन्न स्थलरूपों का निर्माण होता है। इन स्थलरूपों के ऊपरी भाग पर कठोर चट्टानों का आवरण होता है एवं इनका ऊपरी भाग समतल होता है। इन्हें ज्यूजेन कहते हैं। यारडंग: इसकी रचना ज्यूजेन के विपरीत होती है। जब कोमल तथा कठोर चट्टानों के स्तर लम्बवत दिशा में मिलते हैं तो पवन कठोर की अपेक्षा मुलायम चट्टान को आसानी से अपरदित करते हुए उड़ा ले जाती है। इन चट्टानों के पार्श्व में पवन के कटाव द्वारा नालियाँ बन जाती हैं जिन्हें यारडंग कहते हैं। ड्राइकान्टर: पथरीले मरुस्थलों में सतह पर पड़े चट्टानों पर पवन के अपरदन द्वारा खरोंचे पड़ जाती है। यदि पवन कई दिशाओं से होकर बहती है तो इनकी आकृति चतुष्फलक जैसी हो जाती है। इसमें एक फलक भू-पृष्ठ पर होता है एवं बाकी तीन बाहर की ओर होते हैं जिन्हें ड्राइकान्टर कहते हैं। जालीदार शिला: मरुस्थलीय भागों में जब पवनों के सम्मुख विभिन्न संरचना वाली चट्टानें पड़ती है तो कोमल भाग पवन द्वारा उड़ा लिये जाते हैं किन्तु कठोर भाग यथावत बने रहते हैं। इस प्रकार चट्टानों में जाली का निर्माण होता है जिसे जालीदार शैल कहते हैं। पुल तथा खिड़की: जालीदार चट्टान में जब पवन अपरदन के कारण छिद्र हो जाती है तो आगे एक लंबे समय के उपरांत अपरदन के कारण यह छिद्र चट्टान के आर-पार हो जाता है जिसे पवन खिड़की कहते हैं। जब इस खिड़की से होकर अपरदन द्वारा चट्टान का धीरे-धीरे नीचे तक कटाव हो जाता है तो एक महराब की आकृति का निर्माण होात है जिसे पुल कहते हैं। निष्कर्ष अंत में संक्षिप्त, संतुलित एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें- नोट: आप चाहे तो पवन अपरदन धरा निर्मित स्थलाकृतियों का डायग्राम भी दे सकते हैं।</s>
<s>[INST]यूनेस्को के ‘सांस्कृतिक विरासत संरक्षण कार्यक्रम’ के लिये ‘एशिया-प्रशांत अवॉर्ड’ की चर्चा करें। हाल ही में इससे सम्मानित भारतीय स्थापत्य की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद यूनेस्को के ‘एशिया प्रशांत अवार्ड’ का उल्लेख करना है। इससे सम्मानित भारतीय स्थापत्य की चारित्रिक विशेषताओं को बताना है। हल करने का दृष्टिकोण यूनेस्को द्वारा प्रदान किये जाने वाले ‘एशिया-प्रशांत अवॉर्ड’ का उल्लेख करें। इससे सम्मानित भारतीय स्थापत्य कला की विशेषताएँ बताते हुए निष्कर्ष लिखें। ‘एशिया-प्रशांत विरासत पुरस्कार’ वर्ष 2000 से यूनेस्को द्वारा एशिया-प्रशांत क्षेत्र में रणनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु दिया जा रहा है। इस पुरस्कार का उद्देश्य सांस्कृतिक विरासत क्षेत्रों के संरक्षण को बढ़ावा देना है, जिसके प्रयास किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा प्रारंभ किये गए हैं। यह पुरस्कार पाँच श्रेणियों में दिया जाता है: उत्कृष्टता के लिये पुरस्कार। विशिष्टता के लिये पुरस्कार। वरीयता के लिये पुरस्कार। माननीय उल्लेख (Honourable Mention) विरासत के संदर्भ में नए डिज़ाइन के लिये पुरस्कार। वर्ष 2017 का विरासत पुरस्कार भारत के निम्नलिखित स्थापत्य कला को प्राप्त हुआ है- वरीयता के लिये पुरस्कार (Award of Merit) मुंबई का क्राइस्ट चर्च। रॉयल बॉम्बे ऑपेरा हाउस। श्रीरंगम का श्री रंगनाथ स्वामी मंदिर। सम्माननीय उल्लेख (Honourable Mention) वाडिया फाउण्टेन एवं क्लॉक टावर, मुंबई। गोहद किले का प्रवेशद्वारा, गोहद। दिल्ली की धर्मपुरा हवेली। मुंबई का वैलिंगटन फाउण्टेन 182 वर्ष पुराना मुंबई का क्राइस्ट चर्च इण्डो-सारसेनिक स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना है। मुंबई का रॉयल ऑपेरा हाउस भारत का एकमात्र ऑपेरा हाउस है, जिसका निर्माण ब्रिटिश राज के समय हुआ था। श्री रंगनाथ स्वामी मंदिर स्थापत्य कला की तमिल शैली में निर्मित है। इसका निर्माण छठी से नौवीं शताब्दी के मध्य हुआ था। मुंबई का वाडिया और क्लॉक टावर सार्वजनिक क्षेत्र में विरासत क्षेत्राें के संरक्षण के प्रति समर्पण को प्रदर्शित करता है। दिल्ली की धर्मपुरा हवेली रियासतकालीन स्थापत्य का उदाहरण है। इस प्रकार यूनेस्को का ‘एशिया-प्रशांत विरासत अवॉर्ड’ विरासत क्षेत्रों के संरक्षण हेतु किये गए प्रयासों को मान्यता, सराहना एवं प्रोत्साहन देने का एक महत्त्वपूर्ण साधन है।</s>
<s>[INST]मंदिर स्थापत्य की तीन मंदिर शैलियों यथा नागर, द्रविड़ एवं बेसर के तुलनात्मक अध्ययन पर प्रकाश डालें।[/INST]उत्तर : भूमिका: मंदिर निर्माण की प्रक्रिया का आरंभ तो मौर्य काल से ही शुरू हो गया था, किंतु आगे चलकर उसमें सुधार होता गया और गुप्त काल को संरचनात्मक मंदिरों की विशेषता से पूर्ण माना जाता है। विषय-वस्तु छठी शताब्दी ई. तक उत्तर और दक्षिण भारत में मंदिर वास्तुकला शैली लगभग एक समान थी, लेकिन छठी शताब्दी ई. के बाद प्रत्येक क्षेत्र का भिन्न-भिन्न दिशाओं में विकास हुआ। इस प्रकार आगे ब्राह्मण हिंदू धर्म मंदिरों के निर्माण में तीन प्रकार की शैलियों- नागर, द्रविड़ और बेसर शैली का प्रयोग किया। नागर शैली मंदिर स्थापत्य की इस शैली का विकास हिमालय से लेकर विंघ्य क्षेत्र तक हुआ। नागर स्थापत्य के मंदिर मुख्यत: नीचे से ऊपर तक आयताकार रूप में निर्मित होते हैं। सामान्यत: उत्तर भारतीय मंदिर शैली में मंदिर एक वर्गाकार गर्भ-गृह, स्तंभों वाला मंडप तथा गर्भ-गृह के ऊपर एकरेखीय शिखर से संयोजित होता है। नागर शैली में बने मंदिरों के गर्भ-गृह के ऊपर एक रेखीय शिखर होता है। शिखर का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग सबसे ऊपर लगा आमलक होता है, जो उत्तरी भारत के मंदिरों की मुख्य पहचान है। विशेषताएँ: नागर शैली में शिखर अपनी ऊँचाई के व्रम में ऊपर की ओर व्रमश: पतला होता जाता है। मंदिर में सभा भवन और प्रदक्षिणा-पथ भी होता था। शिखर के नियोजन में बाहरी रूपरेखा बड़ी स्पष्ट तथा प्रभावशाली ढंग से उभरती है। अत: इसे रेखा शिखर भी कहते हैं। शिखर पर आमलक की स्थापना होती है। वर्गाकार तथा ऊपर की ओर वव्र होते शिखर इसकी विशेषता है। द्रविड़ शैली 7वीं शताब्दी में द्रविड़ शैली की शुरुआत हुई, परंतु इसका विकसित रूप आठवीं शताब्दी से देखने को मिलता है। कृष्णा नदी से लेकर कन्याकुमारी तक द्रविड़ शैली के मंदिर पाए जाते हैं। द्रविड़ मंदिरों का निचला भाग वर्गाकार और मस्तक गुंबदाकार, छह या आठ पहलुओं वाला होता है। विशेषताएँ प्राकार (चहारदीवारी) गोपुरम (प्रवेश द्वार) वर्गाकार या अष्टकोणीय गर्भ-गृह (रथ) पिरामिडनुमा शिखर मंडप (नंदी मंडप) विशाल संकेंद्रित प्रांगण तथा अष्टकोणीय मंदिर संरचना बेसर शैली नागर और द्रविड़ शैलियों के मिले-जुले रूप को बेसर शैली कहते हैं। इस शैली के मंदिर विंध्याचल पर्वत से लेकर कृष्णा नदी तक पाए जाते हैं। बेसर शैली को ‘चालुक्य शैली’ भी कहते हैं। विशेषताएँ: बेसर शैली के मंदिरों का आकार, आधार से शिखर तक गोलाकार (वृत्ताकार) या अर्द्धगोलाकार होता है। बेसर शेली के उदाहरण के तौर पर वृंदावन के वैष्णव मंदिर में गोपुरम देखने को मिलता है। होयसल शासकों के द्वारा मैसूर के हेलेबिड का होयलेश्वर मंदिर भी बेसर शैली का उदाहरण है। निष्कर्ष अंत में संक्षिप्त, संतुलित एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें-</s>
<s>[INST]अंग्रेज़ों ने जिस प्रक्रिया से भारत को उपनिवेश में बदलकर उसका शोषण किया, उसी प्रक्रिया ने उन कारणों को भी जन्म दिया जो उस सत्ता के विरूद्ध शुरू हुए विभिन्न जन-विद्रोहों के पीछे निहित थे। विवेचना करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद प्रश्न का प्रथम भाग उस प्रक्रिया से संबंधित है जिसका प्रयोग अंग्रेज़ों ने भारतीय उपनिवेश के शोषण में किया था। द्वितीय भाग में जन-विद्रोहों के पीछे इसी प्रक्रिया के उत्तरदायी होने की चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण भारतीय उपनिवेश की स्थापना हेतु अंग्रेज़ों की नीति का उल्लेख करते हुए उत्तर प्रारंभ करें। स्पष्ट करें कि यही नीति किस प्रकार जन-विद्रोहों के लिये भी उत्तरदायी थी? साथ ही निष्कर्ष लिखें। भारतीय उपनिवेश से प्राप्त संसाधनों से अंग्रेज़ी साम्राज्य के अन्य उपनिवेशों को नियंत्रित करना आसान हो गया था। भारतीय उपनिवेश को प्राप्त करने एवं इसे बनाए रखने के लिये अंग्रेज़ों ने अनेक आर्थिक, प्रशासनिक, राजनीतिक और सामाजिक-धार्मिक नीतियों की सहायता ली। किंतु यही कारक कालांतर में अनेक जन-विद्रोहों का कारण भी बने। इन कारकों को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है: ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय समाज में अनेक सामाजिक और धार्मिक परिवर्तन हुए। अंग्रेज़ी को सरकारी भाषा बनाने के कारण फारसी और संस्कृत के ज्ञाता नौकरियों से हाथ धो बैठे। इसके अतिरिक्त, अंग्रेज़ों ने समाज की धार्मिक मान्यताओं पर भी चोट की। अंग्रेज़ों ने अपनी सत्ता को सशक्त करने के लिये एक ऐसी प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना की जो सेना और पुलिस, राजस्व विभाग, नौकरशाही एवं न्यायिक प्रणाली पर आधारित थी। इससे ब्रिटिश शासन की भारतीय उपनिवेश पर पकड़ मज़बूत हुई। अंग्रेज़ों ने भारतीय उपनिवेश पर अपने पैर जमाने के लिये एक सशक्त आर्थिक नीति को अपनाया जिसके तहत भू-राजस्व नीति, कृषि का वाणिज्यीकरण, अनौद्योगिकरण, रेलवे का विकास, आयात-निर्यात नीति आदि को स्वरूप प्रदान किया गया। इसी के तहत उन्होंने स्थानीय कृषकों से राजस्व वसूलना प्रारंभ किया। स्थानीय स्तर पर वसूल किये गए राजस्व से ही अंग्रेज़ों ने अपनी प्रशासनिक व्यवस्था को सुदृढ़ किया। उन्होंने ईसाई मिशनरियों को धर्मांतरण के लिये प्रेरित किया एवं आंग्ल शिक्षा पद्धति को अपनाया। इस प्रकार प्रशासनिक, आर्थिक और सामाजिक कारकों में परिवर्तन करके अंग्रेज़ों ने भारत को उपनिवेश में बदल दिया और उसका शोषण किया। किंतु कालांतर में इसी प्रक्रिया ने विभिन्न जन-विद्रोहों को भी जन्म दिया। जैसे- विभिन्न भू-राजस्व नीतियों एवं आदिवासी क्षेत्रों में हस्तक्षेप के कारण कृषकों एवं आदिवासियों का आर्थिक शोषण किया गया। जिसके परिणास्वरूप कृषकों एवं आदिवासियों ने विद्रोह कर दिया। नव स्थापित न्याय, नौकरशाही और राजस्व व्यवस्था को स्थानीय लोग समझ नहीं पाते थे। वहीं, अंग्रेज़ न्यायाधीश भी स्थानीय समस्याओं को नहीं समझ पाते थे, फलस्वरूप तनाव की स्थिति उत्पन्न हुई जो अंतत: जन-विद्रोहों में परिणत हुई। ब्रिटिश शासकों ने स्थानीय धार्मिक मान्यताओं, रूढ़ियों एवं परंपराओं को परिवर्तित करने का प्रयास किया। शोषकों ने शोषितों के धार्मिक स्थलों को भी क्षति पहुँचाईं परिणामस्वरूप तनाव की स्थिति में विरोध करने वाले व्यक्तियों ने प्रचलित धार्मिक मान्यताओं का प्रयोग किया। इस प्रकार निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जिन सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और प्रशासनिक व्यवस्थाओं में परिवर्तन करके अंग्रेज़ों ने भारत को उपनिवेश में बदला, उन्हीं के चलते उन कारणों का भी जन्म हुआ, जो ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध हुए विभिन्न जन-विद्रोहों के पीछे निहित थे।</s>
<s>[INST]राष्ट्रीय आंदोलन की तपिश में भी भारत-जापान संबंधों में एक निरंतरता बनी रही जिसे जवाहलाल नेहरू के काल में एक नई स्फूर्ति प्राप्त हुई। विवेचना करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारत-जापान संबंधों को बताना है। जवाहरलाल नेहरू के काल में इन संबंधों में आई नई स्फूर्ति का उल्लेख करना है। हल करने का दृष्टिकोण एक संक्षिप्त भूमिका लिखें। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारत-जापान संबंधों का उल्लेख करें। जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में इन संबंधों में आई प्रगाढ़ता को बताते हुए तार्किक निष्कर्ष लिखें। भारत और जापान के संबंध ऐतिहासिक काल से ही मज़बूत रहे हैं, जिसमें सांस्कृतिक संबंधों विशेषकर बौद्ध धर्म ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। ये संबंध राष्ट्रीय आंदोलन से लेकर वर्तमान में ‘जापानी-भारतीय भाईचारा’ तक विस्तृत हो गए हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारत-जापान संबंध: 20वीं सदी के प्रारंभ में जब जापान एक शक्ति के रूप में उभरा तो इसके सकारात्मक प्रभाव देखे गए और इसे एशिया के पुनरुत्थान के रूप में देखा गया। अनेक महत्त्वपूर्ण भारतीयों जैसे- सुरेशचंद्र बन्दोपाध्याय, मन्मथ नाथ घोष ने जापान की यात्रा की और वहाँ के अनुभवों को भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में प्रयोग किया। यद्यपि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन और जापान विरोधी थे किंतु जापान ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में विशेषकर आज़ाद हिन्द फौज के माध्यम से सहयोग प्रदान करने का प्रयास किया। इसके परिणामस्वरूप भारत-जापान संबंधों को बढ़ावा मिला। स्वतंत्रता के पश्चात् जहाँ भारत अनेक समस्याओं से पीड़ित था, वहीं जापान की स्थिति भी द्वितीय विश्व युद्ध के कारण कामोबेश समान थी। ऐसी स्थिति में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संबंधों को प्रगाढ़ करने के लिये विशेष प्रयास किये। भारत और जापान के मध्य आधुनिक संबंधों की शुरुआत भारतीय जज द्वारा सुदूर-पूर्व अंतर्राष्ट्रीय सैन्य न्यायाधिकरण में जापान के पक्ष में फैसला दिये जाने के कारण हुई। भारत ने 1951 में जापान की संप्रभुता और राष्ट्रीय स्वतंत्रता को सीमित किये जाने के प्रयासों के कारण सैन-फ्रांसिस्को शांति सम्मेलन में भाग लेने से इनकार कर दिया था। जापान की संप्रभुता बहाली के बाद भारत और जापान ने 1952 में राजनयिक संबंध स्थापित किये। इसके बाद 1957 में जापानी प्रधानमंत्री ने भारत की यात्रा की। इन्हीं मज़बूत संबंधों का परिणाम था कि जापान ने भारत के विकास को बढ़ावा देने के लिये येन ऋण प्रदान किया। यद्यपि शीत-युद्ध के दौरान जापान, अमेरिकी गठबंधन में शामिल था किंतु भारत ने ‘गुटनिरपेक्ष की नीति’ को स्वीकार किया। इसके बावजूद भारत और जापान संबंध लगातार मज़बूत होते गए। इसे जवाहरलाल नेहरू की कूटनीतिक सफलता ही माना जाएगा। निष्कर्षत: कह सकते हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान स्थापित हुए संबंध वर्तमान में सैन्य एवं समुद्री सुरक्षा, सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक, असैन्य परमाणु समझौता तक विस्तारित हो गए हैं। वर्तमान में क्षेत्रीय और वैश्विक शांति की स्थापना तथा शक्ति संतुलन के लिये भारत-जापान संबंधों का बेहतर होना आवश्यक है जिसके लिये निरंतर प्रयास किया जाना आवश्यक है। संबंधित स्रोत : इंटरनेट, विपिन चंद्र।</s>
<s>[INST]वायसराय लिटन की अफगान नीति नैतिक एवं सांप्रदायिक दोनों दृष्टिकोणों से निंदनीय थी तथा वह साम्राज्यवादी प्रधानमंत्री बेंजामिन डिज़रायली के हाथों की कठपुतली मात्र था। आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • प्रश्न के प्रथम भाग में वायसराय लिटन की अफगान नीति की आलोचना करनी है। • दूसरे भाग में स्पष्ट करना है कि प्रधानमंत्री डिज़रायली का लिटन पर किस प्रकार नियंत्रण था। हल करने का दृष्टिकोण • वायसराय लिटन की अफगान नीति का संक्षिप्त परिचय लिखें। • इस नीति की नैतिक एवं सांप्रदायिक दृष्टिकोण से आलोचना लिखें। • स्पष्ट करें कि क्या प्रधानमंत्री बेंजामिन डिज़रायली वायसराय लिटन को नियंत्रित करते थे। • निष्कर्ष लिखें। लॉर्ड लिटन की अफगान नीति के अंतर्गत अफगानिस्तान के साथ एक अधिक, निश्चित, समानांतर और व्यावहारिक संधि करने का उद्देश्य समाहित था। लिटन तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री बेंजामिन डिज़रायली की रूढ़िवादी सरकार का मनोनीत सदस्य था। लिटन को भारत में निश्चित आदेश देकर भेजा गया था कि वह अफगानिस्तान के साथ गौरवपूर्ण पार्थक्य, वैज्ञानिक सीमाएँ और प्रभाव क्षेत्रों का निर्माण करे। साथ ही, एशिया और यूरोप में रूस की बढ़ती शक्ति को राकने का प्रयास करे। किंतु लिटन की अफगान नीति की सभी लोगों ने नैतिक तथा राजनैतिक कारणों से निंदा की। इसे निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है: लिटन को अफगानी समाज, राजनीति, संस्कृति आदि का लेशमात्र भी ज्ञान नहीं था। उसने इतिहास से शिक्षा प्राप्त नहीं की थी। काबुल में एक स्थायी अंग्रेज़ी दूत रखना अव्यवहारिक था और इसका परिणाम युद्ध ही था। लिटन की अफगान नीति के केवल दो ही परिणाम संभव थे। या तो अफगानिस्तान के टुकड़े हो जाएँ या काबुल की विदेश नीति अंग्रेज़ों के अधीन हो जाए। किंतु इसका अनिवार्य परिणाम युद्ध ही था। कुछ इतिहासकारों का मत है कि लिटन ने रूस के भय को अकारण ही गंभीर समझ लिया। इस प्रकार उपर्युक्त बिंदुओं के आधार पर लिटन की अफगान नीति की आलोचना की जाती थी। कुछ का यह विचार भी है कि लिटन साम्राज्यवादी प्रधानमंत्री बेंजामिन डिज़रायली के हाथों की कठपुतली था, क्योंकि डिज़रायली की सरकार ने ही उसे मनोनीत किया था। डिज़रायली के रूढ़िवादी एवं सांप्रदायिक दृष्टिकोण से वह पूरी तरह आच्छादित था। किंतु यह कहना उचित प्रतीत नहीं होता है क्योंकि डिज़रायली ने स्वयं अनेक अवसरों पर लिटन की आलोचना की थी और कुशल अकर्मण्यता की नीति को अस्वीकार किया। परंतु लिटन ने स्वयं स्थिति को बिगाड़ दिया। निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि लिटन की अफगान नीति अव्यवहारिक, दंभपूर्ण और अदूरदर्शी थी। यद्यपि डिज़रायली ने लिटन को वायसराय नियुक्त किया था, तथापि लिटन ने डिज़रायली की नीति का शब्दश: पालन नहीं किया था। संबंधत स्रोत: आर.एल. शुक्ला।</s>
<s>[INST]कई महत्त्वपूर्ण मोर्चों पर असफल रहने के बावजूद स्थायी बंदोबस्त एक प्रगतिशील व्यवस्था थी। टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद स्थायी बंदोबस्त के नकारात्मक और सकारात्मक पक्षों पर चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण स्थायी बंदोबस्त का संक्षिप्त परिचय लिखते हुए उत्तर प्रारंभ करें। स्थायी बंदोबस्त व्यवस्था के नकारात्मक पक्ष लिखें। इस व्यवस्था के सकारात्मक पक्ष को बताते हुए निष्कर्ष लिखें। भारत में ब्रिटिश राज के सफल होने के पीछे उनके द्वारा लागू की गई भू-राजस्व नीतियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। स्थायी रूप से राजस्व की प्राप्ति और भू-स्वामियों का निष्ठावान वर्ग आदि कारकों ने ही ब्रिटिश सत्ता को सुदृढ़ किया। स्थायी बंदोबस्त या इस्तमरारी व्यवस्था इन भू-राजस्व नीतियों में सबसे महत्त्वपूर्ण थी। यह एक दीर्घकालिक (सामान्यत: 10 वर्ष) व्यवस्था थी। इसमें लगान की दर ज़मींदारों और उनके उत्तराधिकारियों के लिये निश्चित कर दी गई, जो भविष्य में बदली नहीं जा सकती थी। ज़मीदारों को भूमि का स्वामी स्वीकार कर लिया गया और कृषक अब केवल किरायेदार मात्र रह गए। स्थायी बंदोबस्त का शासन तथा जनता पर नकारात्मक और सकारात्मक दोनों प्रभाव पड़े। इन्हें निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है: नकारात्मक प्रभाव: शासन पर: भू-राजस्व स्थायी होने से कंपनी को अधिक उत्पादन की स्थिति में भी निश्चित राजस्व ही प्राप्त होता था और अतिरिक्त आय को भू-स्वामी या बिचौलिये हड़प कर जाते थे। कालांतर में यह स्थिति और भी विकराल हो गई। जब समय के साथ उत्पादन और वसूली तो बढ़ी किंतु कंपनी को इस बढ़े हुए उत्पादन का कोई लाभ नहीं प्राप्त हुआ। जनता पर: बहुत अधिक लगान एवं उसे निर्धारित समय पर न चुकाए जाने के कारण पुराने ज़मींदार भूमि से वंचित किये जाने लगे और किसान कर्ज़ में डूब गए। बिचौलियों का भूमि संबंधी मामलों में प्रवेश हुआ, जिससे उपसामंतीकरण बढ़ा तथा उनके द्वारा कृषकों का शोषण बढ़ता गया। अधिकांश ज़मींदार प्रवासी थे, जो दूरवर्ती शोषणकर्त्ता बन गए। यद्यपि स्थायी बंदोबस्त या इस्तमरारी व्यवस्था के ब्रिटिश शासन एवं आम जनता पर नकरात्मक प्रभाव पड़े, तथापि इसके कुछ सकारात्मक पक्ष भी थे। जैसे- वित्तीय दृष्टि से इसका प्रमुख लाभ यह था कि न्यून उत्पादन की दशा में भी कंपनी की आय घटती नहीं थी। इससे बचत की संभावना बढ़ी। स्थायी प्रबंध हो जाने पर इस व्यवस्था में लगे हुए सरकारी कर्मचारियों की कुछ संख्या शासन संबंधी अन्य कार्यों को करने के लिये मुक्त हो गई। कृषकों के लिये ऐसा माना गया कि इससे उत्पादन बढ़ेगा और अधिकाधिक भूमि जोती जाएगी। ज़मींदारों को कृषि क्षेत्र में नए प्रयोग, उर्वरक का इस्तेमाल तथा फसल बदलने के तरीकों को अपनाने का मौका मिलेगा। निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि स्थायी बंदोबस्त के जहाँ कुछ नकारात्मक पक्ष थे तो वहीं कुछ सकारात्मक पक्ष भी थे। फिर भी सामान्यत: यह व्यवस्था कंपनी हितैषी और कृषक विरोधी थी। इसने कृषकों के शोषण को बढ़ावा दिया। इस व्यवस्था से बंगाल के कृषकों की स्थिति खराब होती गई और स्थायी बंदोबस्त कृषकों के शोषण का साधन बन गया। संबंधित स्रोत: आर.एल. शुक्ला, बी.एल. ग्रोवर।</s>
<s>[INST]पाश्चात्य जगत के लिये स्वामी विवेकानंद भारत के पहले सांस्कृतिक राजदूत थे, जिन्होंने भारत के सांस्कृतिक एकीकरण में अतुल्य योगदान दिया। विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद स्वामी विवेकानंद के सांस्कृतिक एकीकरण में योगदान की चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण स्वामी विवेकानंद का संक्षिप्त परिचय देते हुए स्पष्ट करें कि वह किस प्रकार पाश्चात्य जगत् के लिये प्रथम सांस्कृतिक दूत थे? भारत के सांस्कृतिक एकीकरण में उनके योगदान का उल्लेख करते हुए निष्कर्ष लिखें। स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी, 1863 में कोलकाता में हुआ था। स्वामी जी का मूल नाम नरेंद्र नाथ दत्त था, जिसे कालांतर में श्री रामकृष्ण परमहंस ने बदलकर विवेकानंद कर दिया। स्वामी जी ने अपनी भारत यात्रा में भारत में व्याप्त भुखमरी और गरीबी को देखा। वह पहले ऐसे नेतृत्वकर्त्ता थे जिन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त गरीबी और भुखमरी की मुखर आलोचना की थी। 1893 में शिकागो में आयोजित विश्व धर्म संसद में भाग लेना स्वामी जी के जीवन तथा उनके उद्देश्य को प्राप्त करने की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण चरण था। इसी संसद में दिये गए भाषण ने उन्हें पाश्चात्य जगत् का प्रथम सांस्कृतिक दूत बना दिया। इसे निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है: स्वामी जी ने हिन्दू दर्शन, जीवन शैली और संस्थाओं की व्याख्या पाश्चात्य जगत् में सरलतम शब्दों में की। जिससे कि पाश्चात्य समाज इसे भलीभाँति समझ सके। उन्होंने पाश्चात्य समाज को यह अनुभव करवाया कि वह स्वयं के उद्धार हेतु भारतीय आध्यात्मिकता से बहुत कुछ सीख सकता है। उन्होंने पाश्चात्य विश्व के समक्ष यह सिद्ध किया कि अपनी गरीबी और पिछड़ेपन के बावजूद भी भारत का विश्व संस्कृति को अमूल्य योगदान है। इस प्रकार स्वामी विवेकानंद ने भारत का अन्य विश्व के देशों के साथ सांस्कृतिक अलगाव समाप्त करने का प्रयास किया। वह भारत के प्रथम सांस्कृतिक राजदूत बनकर पाश्चात्य जगत् गए। इसके अतिरिक्त, भारत के सांस्कृतिक एकीकरण में भी विवेकानंद का अभूतपूर्व योगदान है। जैसे- स्वामी जी ने हिन्दू धर्म और दर्शन को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। हिन्दू धर्म के विभिन्न संप्रदायों के मध्य प्रतिस्पर्द्धा एवं विरोध को समाप्त कर एक राष्ट्रीय पहचान के सूत्र में बांधा। स्वामी जी ने पाश्चात्य संस्कृति के सर्वोत्तम तत्त्वों का भारतीय संस्कृति में विलय का कार्य किया। स्वामी जी ने भारतीय दर्शन में स्वयं के चिंतन और अनुभव से मौलिक विचारों को जोड़ा। इस प्रकार निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि स्वामी विवेकानंद ने पाश्चात्य जगत् में भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार तो किया ही, स्वयं के अकाट्य प्रयासों से भारत का सांस्कृतिक एकीकरण भी किया।</s>
<s>[INST]इटली एवं जर्मनी में फासिस्ट शक्तियों का उदय तत्कालीन परिस्थितियों की एक अपरिहार्य परिणति थी। विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में फासीवाद के उदय के कारणों पर चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण फासीवाद का संक्षिप्त परिचय देते हुए उत्तर प्रारंभ करें। फासीवाद के उदय की समकालीन परिस्थितियों का उल्लेख करें। निष्कर्ष। फासीवाद एक राजनीतिक विचारधारा है जिसका उदय मुसोलिनी द्वारा इटली को प्राचीन रोमन साम्राज्य की तरह पुन: महान बनाने की भूख के साथ हुआ। फासीवाद मुख्यत: अतिराष्ट्रवाद पर आधारित है, जिसका ध्यान लोगों को नियंत्रित करने के लिये सैन्य शक्ति के प्रयोग पर केंद्रित है। यह सैन्य आदर्शों पर आधारित है जिसमें साहस, आज्ञाकारिता, अनुशासन और शारीरिक दक्षता सम्मलित है। 1919 के पश्चात् इटली एवं जर्मनी में फासीवाद एवं नाजीवाद के उदय के अनेक कारणों को इंगित किया जा सकता है। जैसे- मुसोलिनी की व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाएँ एवं उसका करिश्माई व्यक्तित्व, पेरिस शांति वार्ता में दोनों देशों की माँंगों का सही प्रतिनिधित्व न होना आदि। किंतु समकालीन यूरोपीय एवं इटली-जर्मनी की परिस्थितियों ने फासिस्ट शक्तियों के उदय को संभव बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन परिस्थितियों को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है: प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् इटली की अर्थव्यवस्था लगभग चौपट हो गई थी। महँगाई और बेरोज़गारी की दर उच्च थी। ऐसे में मुसोलिनी के करिश्माई व्यक्तित्व ने उन्हें समस्याओं से बाहर निकलने की आशा दी। प्रथम विश्व युद्ध के समय इटली को मित्र राष्ट्रों ने अपने पक्ष में करने के लिये अनेक वादे किये। किंतु पेरिस शांति सम्मेलन में इटली के साथ अलगावपूर्ण व्यवहार किया गया। इससे इटली स्वयं को ठगा महसूस करने लगा। फलस्वरूप फासिस्ट शक्ति को उत्प्रेरण मिला। इटली निवासियों के असंतोष को दूर करने तथा साम्राज्य प्रसार के उद्देश्य को लेकर मुसोलिनी ने फासिस्ट दल के नेतृत्व में अधिनायकवादी सत्ता की स्थापना की। राष्ट्र संघ की असफलता ने सामूहिक सुरक्षा प्रणाली को ठेस पहुँचाई। मुसोलिनी ने फासिस्ट दल के नेतृत्व में अबिसीनिया पर आक्रमण किया और राष्ट्रसंघ के आदेशों की अवहेलना की। नि:शस्त्रीकरण के प्रयासों की विफलता ने फासिस्ट दल की शस्त्रीकरण की नीति को बढ़ावा दिया। इंग्लैंड और फ्रांस की तुष्टीकरण की नीति ने फासिस्ट शक्ति को नाज़ी शक्ति के साथ आने का अवसर दिया। इस प्रकार निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि इटली एवं जर्मनी में फासिस्ट शक्तियों के उदय के लिये समकालीन यूरोपीय परिस्थितियाँ उत्तरदायी थीं और इन्हीं परिस्थितियों ने फासिस्ट शक्ति के उदय को अपरिहार्य बना दिया।</s>
<s>[INST]भारतीय राष्ट्रवाद की जो धारा असहयोग एवं खिलाफत आंदोलनों से निकली थी, वह नेहरू रिपोर्ट पर सर्वसहम्मति के अभाव में सतत् नहीं रह सकी। नेहरू रिपोर्ट की अनुशंसाओं के सशक्तीकरण में इसकी भूमिका की विवेचना करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद नेहरू रिपोर्ट की असफलता के भारतीय राष्ट्रवाद पर पड़े प्रभावों की चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण असहयोग और खिलाफत आंदोलनों से भारतीय राष्ट्रवाद पर पड़े प्रभाव की चर्चा से उत्तर प्रारंभ करें। नेहरू रिपोर्ट की चर्चा करते हुए इसकी असफलता के कारण लिखें। नेहरू रिपोर्ट की असफलता से भारतीय राष्ट्रवाद पर पड़े प्रभावाें की चर्चा करते हुए निष्कर्ष लिखें। असहयोग और खिलाफत आंदोलन भारतीय राष्ट्रवाद की यात्रा में महत्त्वपूर्ण चरण हैं। इनके परिणामस्वरूप भारतीय राष्ट्रवाद के चरित्र में बदलाव आया और इसके प्रसार तथा पहुँच का क्षेत्र विस्तृत हुआ। असहयोग आंदोलन के कारण राष्ट्रवाद की भावना महिलाओं, बच्चों, युवाओं, कृषकों आदि तक पहुँची। अभी तक जो भावना उच्च वर्ग या शहरों तक ही सीमित थी, वह अब ग्रामीण क्षेत्रों में भी विस्तृत हुई। वहीं, खिलाफत आंदोलन के परिणामस्वरूप हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रदर्शन हुआ। किंतु राष्ट्रवाद की यह धारा 20वीं शताब्दी के तीसरे दशक के अंत तक छिन्न-भिन्न हो गई। नेहरू रिपोर्ट की असफलता ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई। नेहरू रिपोर्ट में अनेक सिफारिशें की गईं। जैसे- डोमिनियन स्टेट्स का दर्जा देना। अधिकारों की एक ऐसी घोषणा की जाए, जिसमें भारत के सभी नागरिकों के लिये धार्मिक और राजनीतिक स्वतंत्रता का आश्वासन हो। सिंध और उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत, जहाँ मुसलमान बहुसंख्यक हैं, को नए प्रांत बना दिया जाए। इसमें सांप्रदायिक आधार पर अलग निर्वाचक मंडल की मांग को अस्वीकार किया गया था। इसमें सिफारिश की गई कि केवल अल्पमत वाले स्थानों पर ही मुस्लिम वर्ग के लिये स्थान आरक्षित होंगे न कि बहुमत वाले स्थानों पर भी। धर्म का हर प्रकार से राज्य से पृथक्करण। यद्यपि ये प्रगतिशील मांगें थीं किंतु मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम वर्ग ने आरक्षित स्थानों की मांग को नहीं छोड़ा और जिन्ना ने ‘चौदह सूत्री’ मांग पेश की जिसके कारण असहयोग आंदोलन और खिलाफत आंदोलन में स्थापित हुई। हिन्दू-मुस्लिम एकता ने सांप्रदायिक स्वरूप धारण कर लिया। इसके अतिरिक्त असहयोग और खिलाफत आंदोलन के दौरान अहिंसक और उचित तरीकों से स्वराज की मांग का लक्ष्य निर्धारित किया गया किंतु इसमें डोमिनियन स्टेट्स की मांग ने कॉन्ग्रेस के भीतर ही आक्रोश पैदा कर दिया। निष्कर्षत: कह सकते हैं कि ऐसा प्रस्ताव जिसको सभी भारतीयों का व्यापक राजनीतिक समर्थन प्राप्त हो, को तैयार करने के लिये नेहरू रिपोर्ट के रूप में किया गया प्रयास असफल रहा। यद्यपि यह रिपोर्ट स्वयं में प्रगतिशील विचारों (वयस्क मताधिकार, लैंगिक समता, धर्मनिरपेक्षता) को समाहित किये हुए थी किंतु तत्कालीन परिस्थितियों ने इसे असफल बना दिया। इसके परिणामस्वरूप उपजी सांप्रदायिकता अंतत: विकृत रूप धारण कर भारत के विभाजन के रूप में परिलक्षित हुई।</s>
<s>[INST]अभिवृत्ति एवं सिद्धांतों के मध्य संघर्ष ने अमेरिकी समाज को क्रांतिमय बना दिया। टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद अमेरिकी समाज की अभिवृत्ति तथा ब्रिटिश सिद्धांतों के मध्य विरोध को दर्शाना है। यह भी स्पष्ट करें कि किस प्रकार यह सिद्धांत अमेरिकी क्रांति के लिये उत्तरदायी था। हल करने का दृष्टिकोण अमेरिकी क्रांति का संक्षिप्त परिचय देते हुए उत्तर प्रारंभ करें। स्पष्ट करें कि अभिवृत्ति और सिद्धांतों के मध्य संघर्ष किस प्रकार था और इसने कैसे अमेरिकी क्रांति को प्रेरित किया? निष्कर्ष लिखें। अमेरिका की क्रांति उपनिवेशों और मातृ राज्य में मौलिक मतभेदों के कारण हुई। यद्यपि यह संग्राम आर्थिक हितों के संघर्ष के कारण उत्प्रेरित हुआ था, तथापि सामाजिक और राजनीतिक कारक भी समान रूप से उत्तरदायी थे। अभिवृत्ति और सिद्धांत का संघर्ष भी इन्हीं कारकों में से एक था। अमेरिकी उपनिवेश एवं इंग्लैंड की अभिवृत्तियों तथा सिद्धांतों में भिन्नता होना स्वाभाविक था। यहाँ यह धारणा कार्यरत थी कि एक पक्ष (ब्रिटिश संसद) मानता था कि कर लगाना उसका नैसर्गिक अधिकार है, जबकि दूसरा पक्ष (अमेरिकी उपनिवेशवासी) ऐसा मानने को तैयार नहीं था। इस अंतर्विरोध को निम्नलिखित प्रकार से समझा जा सकता है: इंग्लैंड की मान्यता के विपरीत अमेरिकी उपनिवेशवासी इंग्लिश संसद को निरंकुश नहीं मानते थे। उनकी धारणा थी कि संसद भी किसी मौलिक कानून से सीमित हो सकती है। क्राउन जिस प्रकार इंग्लैंड का है, उसी प्रकार उपनिवेशों का भी है, किंतु संसद को उपनिवेशों पर कोई क्षेत्राधिकार प्राप्त नहीं है। जबकि ब्रिटिश अधिकारी यह मानते थे कि संसद की शाही सत्ता उपनिवेशों पर भी अधिकार रखती है। इंग्लैंड को यह विश्वास था कि वह अपने उपनिवेशों को सुरक्षा प्रदान करता है। अत: उपनिवेशों को सुरक्षा हेतु किये गए व्यय का बोझ उठाना चाहिये। किंतु अमेरिकी उपनिवेशों का यह मानना था कि यदि क्राउन को किसी उपनिवेश से धन की आवश्यकता है, तो वह उस धन को अनुदान के रूप में मांग सकता है लेकिन संसद को यह अधिकार नहीं है कि वह स्टाम्प कानून या अन्य कानून बनाकर धन एकत्र करे। उपनिवेशवासियों की सुरक्षा के लिये फौज रखना और चुंगी वसूली की प्रथा को दृढ़ बनाना आदि बातें लंदन में मंत्रिमंडल के लिये साधारण एवं तार्किक प्रतीत होती थी, किंतु इस सिद्धांत के विपरीत अमेरिकी उपनिवेशों की अभिवृत्ति भिन्न थी, वे इसे अतार्किक और अत्याचारपूर्ण मानते थे। इसी का परिणाम था कि अमेरिकी समाज ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध खड़ा हुआ और इसने अमेरिकी क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया।</s>
<s>[INST]‘भू-चुंबकत्व’ एवं ‘पुरा-चुंबकत्व’ की अवधारणा को स्पष्ट करें। अद्यतन उपग्रहीय डेटा के अनुसार पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में बदलाव होने के कारणों की विवेचना करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • प्रश्न में पृथ्वी के चुम्बकत्व की अवधारणा पर चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण • ‘चुम्बकत्व’ की चर्चा करते हुए उत्तर प्रारंभ करें। • ‘भू-चुम्बकत्व’ एवं ‘पुरा-चुम्बकत्व’ की अवधारणा को समझाएँ। • वर्तमान में पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र में परिवर्तन होने के कारणों की चर्चा करते हुए निष्कर्ष लिखें। चुम्बकत्व वह प्रक्रिया है, जिसमें एक वस्तु दूसरी वस्तु पर आकर्षण या प्रतिकर्षण बल लगाती है। सभी वस्तुएँ न्यूनाधिक मात्रा में चुम्बकीय क्षेत्र की उपस्थिति से प्रभावित होती हैं। पृथ्वी भी चुम्बकीय क्षेत्र प्रदर्शित करती है। इसे ‘भू-चुम्बकत्व’ कहते हैं। पृथ्वी एक विशाल चुम्बक है, जिसका अक्ष लगभग पृथ्वी के घूर्णन अक्ष पर पड़ता है। यह मुख्यत: ‘द्वि-ध्रुवीय’ है और पृथ्वी के आंतरिक क्रोड से उत्पन्न होता है। वहीं, शीतल ज्वालामुखी लावा, जमी हुई तलछट और प्राचीन ईंट प्रेरित चुंबकत्व का अध्ययन ‘पुरा-चुंबकत्व’ कहलाता है। ‘पुरा-चुंबकत्व’ शताब्दियों, सहस्त्राब्दियों और युगों पूर्व के भू-चुंबकीय परिवर्तनों की जानकारी प्रदान करता है। इस रूप में भू-चुम्बकत्व का संबंध पृथ्वी के वर्तमान चुंबकीय क्षेत्र के अध्ययन से है, जबकि पुरा-चुंबकत्व का संबंध पृथ्वी के प्राचीन चुम्बकीय क्रियाओं के अध्ययन से है। यह चट्टानों, ठण्डे ज्वालामुखी लावा आदि में निहित चुम्बकीय प्रेरण को इंगित करता है। हाल ही में अनेक सैटेलाइट डाटा और वैज्ञानिक अध्ययनों ने यह सिद्ध किया है कि पृथ्वी का चुम्बकीय क्षेत्र परिवर्तित हो रहा है। यह चुम्बकीय क्षेत्र पृथ्वी को खतरनाक सौर विकिरणों से बचाता है। हाल के भू-चुम्बकीय क्षेत्र में परिवर्तन के कारणों में मुख्य रूप से पृथ्वी के बाहरी क्रोड में लौह पदार्थों की अवस्थिति में परिवर्तन को माना जा रहा है। इसके अतिरिक्त, पृथ्वी का चुम्बकीय क्षेत्र समय-समय पर बदलता रहता है। यह परिवर्तन पृथ्वी के क्रोड में उपस्थित लौह धातुओं के परिसंचरण एवं गति से होता है। वर्तमान परिवर्तन इसी सामयिक चक्र का हिस्सा है। इस परिवर्तन से पृथ्वी की भौतिकी को समझने में मदद मिलेगी और साथ ही अब तक अनसुलझे चुंबकीय क्षेत्र की प्रक्रिया, कारण आदि को भी अच्छी तरह से समझा जा सकेगा। निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि पृथ्वी का भू-चुम्बकत्व एक विशिष्ट भू-भौतिकी अभिक्रिया है, जिसका पृथ्वी पर जीवन की सफलता में महत्त्वपूर्ण योगदान है। इस प्रक्रिया में वर्तमान-कालिक परिवर्तन पृथ्वी तथा जीवन को प्रभावित करेंगे। यद्यपि ये परिवर्तन अभी आरंभिक चरण में ही हैं, तथापि इनसे भविष्य तथा भूतकाल के पार्थिव रहस्यों पर से पर्दा उठाया जा सकता है।</s>
<s>[INST]अमूमन देखा जाता है कि अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में ताकतवर चक्रवाती तूफान दुर्लभ ही उत्पन्न होते हैं। बंगाल की खाड़ी में ‘तितली’ और अरब सागर में ‘लुबान’ नामक चक्रवाती तूफानों की उत्पत्ति के कारणों की विवेचना के साथ-साथ चक्रवातों के नामकरण की पद्धति पर भी प्रकाश डालें।[/INST]उत्तर : भूमिका: कम वायुमंडलीय दाब के चारों ओर गर्म हवाओं की तेज आँधी को चक्रवात कहा जाता है। दोनों गोलार्द्धों के चक्रवाती तूफानों में अंतर यह है कि उत्तरी गोलार्द्ध में ये चक्रवात घड़ी की सुइयों के विपरीत दिशा में तथा दक्षिण गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों की दिशा में चलते हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में इसे हरिकेन, टाइफून आदि नामों से जाना जाता जाता है। विषय-वस्तु आमतौर पर अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में चक्रवाती तूफान दुर्लभ की उत्पन्न होते हैं। इसके बावजूद अरब सागर में तीव्र चक्रवात ‘लुबान’ को सक्रिय रूप में देखा गया, हालाँकि इसने भारत के किसी भी तट को प्रभावित नहीं किया जबकि ‘तितली’ चक्रवात ओडिशा और उत्तरी आंध्र प्रदेश के तटों पर टकराया था। इन चक्रवातों की उत्पत्ति का कारण सक्रिय अंत: उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (ITCZ) का दक्षिण की तरफ खिसकना माना जा रहा है। समुद्र में हलचल के पीछे भी यही मुख्य कारक था। दोनों चक्रवात इस ITCZ के ही उपशाखा थे। इसके अलावा, मैडेन-जूलियन ऑसीलेशन (MJO) का हिन्द महासागर के निकट होना भी इसकी उत्पत्ति के कारणों में से एक माना जा रहा है। अंत: उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (ITCZ) ITCZ पृथ्वी पर, भूमध्यरेखा के पास वह वृत्ताकार क्षेत्र हैं, जहाँ उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्धों की व्यापारिक हवाएँ, यानि पूर्वोत्तर व्यापारिक हवाएँ तथा दक्षिण-पूर्व व्यापारिक हवाएँ एक जगह मिलती हैं। भूमध्यरेखा पर सूर्य का तीव्र तापमान और गर्म जल ITCZ में हवा को गर्म करते हुए इसकी आर्द्धता को बढ़ा देते हैं जिससे यह उत्प्लावक बन जाता है। व्यापारिक हवाओं के अभिसरण के कारण यह ऊपर की तरफ उठने लगता है। ऊपर की तरफ उठ कर हवा के फैलने से यह ठंडी हो जाती है, जिससे भयावह आंधी तथा भारी बारिश होती है। मैंडन-जूलियन ऑसीलेशन (MJO) मैडेन-जूलियन ऑसीलेशन उष्णकटिबंधीय परिसंचरण और वर्षा में एक प्रमुख उतार-चढाव है जो भूमध्यरेखा के साथ पूर्व की ओर बढ़ता है तथा 30-60 दिनों की अवधि में पूरे ग्लोब की परिक्रमा कर लेता है। इसलिये MJO हवा, बादल और दबाव की एक चलती हुयी प्रणाली है। यह जैसे ही भूमध्यरेखा के चारों ओर घूमती है, वर्षा की शुरूआत हो जाती है। चक्रवातों का नामकरण हिन्द महासागर क्षेत्र के आठ देश (बांग्लादेश, भारत, मालदीव, म्यांमार, ओमान, पाकिस्तान, श्रीलंका तथा थाइलैण्ड) एक साथ मिलकर आने वाले चक्रवातों के नाम तय करते हैं। चक्रवातों के इन आठ देशों के किसी भी हिस्से में पहुँचने पर सूची से अलग या दूसरा सुलभ नाम इस नए चक्रवात को दिया जाता है। इस प्रक्रिया के कारण तूफान को आसानी से पहचाना जा सकता है और बचाव अभियानों में भी मदद मिलती है। किसी भी नाम का दोहराव नहीं होता। भारत में नामकरण करने वाला यह शासी निकाय क्षेत्रीय विशिष्ट मौसम विज्ञान केंद्र (RSMC), नई दिल्ली में स्थित है। वर्ष 2004 से चक्रवातों को RSMC द्वारा अनुमोदित सूची के अनुसार नामित किया जाता है। निष्कर्ष अंत में संक्षिप्त, संतुलित एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखे-</s>
<s>[INST]‘‘अमेरिकी क्रांति वणिकवाद के विरुद्ध एक आर्थिक विद्रोह था।’’ इस कथन की पुष्टि कीजिये।[/INST]उत्तर : भूमिका: वणिकवाद का अर्थ हम सरकार द्वारा आर्थिक जीवन, उद्योग-धंधों तथा व्यापारिक कार्यकलापों के नियमन से लगाते हैं। इसके अंतर्गत बुलियनवाद अर्थात् सरकार द्वारा सोना-चाँदी का संचय भी समाहित था। स्वतंत्र व्यापार के सिद्धांत के प्रचलित होने के कारण वणिकवाद का पतन शुरू हो गया। अमेरिकी क्रांति वणिकवाद अथवा वाणिज्यवाद के विरूद्ध पहला विद्रोह था। विषय-वस्तु 18वीं शताब्दी के मध्य तक इंग्लैंड ने अमेरिका में 13 उपनिवेश स्थापित कर लिये थे। वाणिज्यवादी सिद्धांत के अनुसार इंग्लैण्ड इन अमेरिकी उपनिवेशों के व्यापार पर नियंत्रण रखना चाहता था। इंग्लैण्ड ने अपने लाभ का ध्यान रखते हुए अनेक कानून बनाए, जिनमें नौ संचालन कानून, व्यापारिक कानून तथा औद्योगिक कानून प्रमुख थे। इन कानूनों के तहत अमेरिकी उपनिवेशवासियों को गैर-ब्रिटिश जहाज के प्रयोग की मनाही थी तथा ये अपना सामान केवल इंग्लैण्ड में ही बेच सकते थे। इन सभी औपनिवेशिक और वाणिज्यवादी कानूनों के विरूद्ध उपनिवेशों में असंतोष की भावना विकसित होने लगी। 1764 ई. के शुगर एक्ट तथा 1765 ई. के स्टांप एक्ट से यह असंतोष और भी बढ़ गया। 1773 ई. में सैमुअल एडम्स के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कंपनी के जहाजों से आयात की गई चाय की पेटियों को समुद्र में फेंक दिया गया। इस घटना को ‘बोस्टन चाय पार्टी’ के नाम से जाना जाता है। 1774 ई. में फिलाडेल्फिया में सभी उपनिवेशों के नेताओं की बैठक हुई, जिसमें ब्रिटिश संसद से इस बात की मांग की गई कि उद्योगों और व्यापार पर लगे प्रतिबंधों को हटा लिया जाए। किंतु ब्रिटिश सरकार से वार्त्ता का यह प्रयास विफल हो गया और ब्रिटिश सरकार तथा उपनिवेशवासियों के बीच युद्ध प्रारंभ हो गया। उपनिवेशवासियों ने क्रांति का बिगुल बजाते हुए 4 जुलाई, 1776 ई. को अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी तथा जॉर्ज वाशिंगटन के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना को पराजित कर एक संयुक्त राज्य अमेरिका की स्थापना की। निष्कर्ष अंत में संक्षिप्त, संतुलित एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखे- इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अमेरिकी क्रांति के पीछे ब्रिटिश सरकार की औपनिवेशिक तथा वाणिज्यिवादी नीतियाँ उत्तरदायी थी। अत: यह कहना उचित प्रतीत होता है कि अमेरिकी क्रांति ब्रिटिश वाणिज्यवादी नीतियों के विरूद्ध एक आर्थिक विद्रोह थी।</s>
<s>[INST]लोकदृष्टि से शिव की नटराज मूर्ति को शास्त्रीय नृत्य का प्रतीक मानना इस बात का साक्ष्य है कि भारतीय नृत्यकला का विकास धर्म एवं दर्शन से हुआ है। भरतनाट्यम नृत्य के केंद्र में नटराज मूर्ति एवं मोहनीअट्टम नृत्य के केंद्र में विष्णु की प्रधानता स्वीकार करते हुए इन दोनों नृत्यों की विशेषताओं पर प्रकाश डालें।[/INST]उत्तर : भूमिका: नृत्य ईश्वर एवं मनुष्य के आपसी प्रेम को दर्शाता है। भारतीय परंपरा में नृत्यकला के दो अंग स्वीकार किये गए हैं- तांडव तथा लास्य। तांडव नृत्य में संपूर्ण खगोलीय रचना एवं इसके विनाश की एक लयबद्ध कथा को नृत्य के रूप में दर्शाया गया है। जबकि लास्य नृत्य का आरंभ देवी पार्वती से माना जाता है। विषय-वस्तु विषय वस्तु के पहले भाग में हम नटराज मूर्ति की विशेषताओं पर प्रकाश डालेंगे। तांडव नृत्य में दो भंगिमाएँ होती है- रौद्र रूप एवं आनंद प्रदान करने वाला रूप। रौद्र रूप काफी उग्र होता है और इसे करने वाले रूद्र कहलाए। जबकि तांडव का दूसरा रूप आनंद प्रदान करने वाला है जिसे करने वाले शिव ‘नटराज’ कहलाए। इस रूप में तांडव नृत्य का संबंध सृष्टि के उत्थान एवं पतन दोनों से है। लास्य नृत्य की मुद्राएँ बेहद कोमल, स्वभाविक एवं प्रेमपूर्ण होती हैं तथा इसमें जीवन के श्रृंगारिक पक्षों को विभिन्न प्रतीकों व भावों के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। नटराज, शिव का दूसरा नाम माना जाता है। वस्तुत: नटराज के रूप में शिव एक उत्तम नर्तक तथा सभी कलाओं के आधार स्वरूप हैं। माना जाता है कि शिव के आनंदरूपी तांडव से ही सृष्टि का उत्थान हुआ है तथा उनके इस मनमोहक स्वरूप की अनेक व्याख्याएँ हैं। नटराज की मूर्ति में नृत्य के हाव-भाव एवं मुद्राओं का समावेश है। शास्त्रीय नृत्य मूल रूप से शास्त्रीय पद्धति पर आधारित है। भारतीय नृत्य परंपरा में शास्त्रीय नृत्य की चार शैलियाँ प्रचलित थी- भरतनाट्यम, कथकली, कथक एवं मणिपुरी। बाद में कुचिपुड़ी एवं ओडिसी को मान्यता मिली। उसके बाद मोहिनीअट्टम एवं अंत में सत्रिया को शास्त्रीय नृत्य की मान्यता मिली। विषय-वस्तु के दूसरे भाग में भरतनाट्यम और मोहनीअट्टम की विशेषताओं पर चर्चा करेंगे- भरतनाट्यम नृत्य इस नृत्य शैली का विकास तमिलनाडु में हुआ। भरतनाट्यम तमिल संस्कृति में लोकप्रिय एकल नृत्य है जिसे आरंभ में मंदिर की देवदासियों द्वारा भगवान की मूर्ति के समक्ष किया जाता था और इसे दासीअट्टम के नाम से जाना जाता था। भरतनाट्यम में नृत्य और अभिनय सम्मिलित होता है। इस नृत्य में शारीरिक भंगिमा पर विशेष बल दिया जाता है। इस नृत्य का उदाहरण नटराज की मूर्ति को माना जाता है। भरतनाट्यम में शारीरिक प्रक्रिया को तीन भागों में बांटा जाता है- समभंग, अभंग और त्रिभंग मोहनीअट्टम यह केरल का प्रमुख शास्त्रीय नृत्य है, जिसे एकल महिला द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। 19वीं सदी में त्रावणकोर के राजा स्वाति तिरूनल राय वर्मा के काल में इसका विकास हुआ मान्यता के अनुसार भस्मासुर वध के लिये विष्णु द्वारा मोहिनी रूप धारण करने की कथा से इसका विकास हुआ है। तकनीकी रूप से मोहिनीअट्टम को कथकली एवं भरतनाट्यम के मध्य का माना जाता है। इसमें भावनाओं के प्रवाह के साथ कदमताल, शारीरिक हाव-भाव और संगीत की बारीकियों के बीच संतुलन साधा जाता है। यह एक लास्य प्रधान नृत्य है जिसकी प्रस्तुति नाट्यशास्त्र के सिद्धांतों के अनुसार होती है। निष्कर्ष अंत में संक्षिप्त, संतुलित एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखे-</s>
<s>[INST]हिमानी के समरूप नदियों द्वारा अपरदन तथा निक्षेप प्रव्रियाओं द्वारा निर्मित झीलाें की विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : भूमिका: वितरण की दृष्टि से भूपटल पर हिमनिर्मित या हिमानीकृत झीलें सर्वाधिक संख्या में मिलती हैं। हिमानी के समान ही नदियाँ अपने अपरदन तथा निक्षेप के द्वारा कई प्रकार की झीलों का निर्माण करती हैं परंतु ज्यादातर ये झीलों का विनाश ही करती हैं। विषय-वस्तु विषय वस्तु के पहले भाग में नदी-अपरदन द्वारा निर्मित झीलों का विवरण देंगे- 1. अपरदन द्वारा निर्मित झीलें अवनमन कुण्ड झील: विशाल जलप्रपातों की तलहटी में नदियाँ जलगर्तिका का निर्माण करती हैं। जब जलप्रपात पीछे हट जाते हैं तो जलगर्तिका का विस्तार होता जाता है। इस प्रकार जब इनका विस्तार हो जाता है तो उन्हें अवनमन कुण्ड कहते हैं। इन कुण्डों में जल के भरने से छोटी-बड़ी झीलों का निर्माण होता है। संरचनात्मक झील: नदी के मार्ग में विभिन्न कठोरता वाली चट्टानों की परतें पायी जाती हैं। ऐसी स्थिति में कोमल चट्टानें तो आसानी से कट जाती है लेकिन कठोर चट्टानें यथावत् रह जाती हैं। इन चट्टानों के ऊपर ही छोटी-छोटी झीलों का निर्माण होता है। चापाकर या गोखुर झील: मैदानी भागों में प्रवेश करने के उपरांत नदी क्षैतिज अपरदन के कारण कई घुमावदार मोड़ों से होकर प्रवाहित होती हैं। ये मोड़ ‘नदी विसर्प’ कहे जाते हैं। इन घुमावदार मोड़ों के विस्तृत होने के उपरांत नदी अपने विसर्प को छोड़कर सीधे मार्ग से प्रवाहित होती है। इन विसर्पों में जल भर जाने से निर्मित झील को गोखुर या चापाकार झील कहते हैं। 2. निक्षेप द्वारा निर्मित झील जलोढ़ झील: जब कोई नदी पहाड़ी भाग से उतरकर मैदानी भाग में प्रवेश करती है तो जलोढ़ पंख का निर्माण होता है। जलोढ़ पंख द्वारा नदी के अवरूद्ध हो जाने से अस्थायी झील का निर्माण होता है। डेल्टा झील: डेल्टाई भाग में नदियों का जल कई वितरिकाओं में विभक्त हो जाता है। दो शाखाओं के बीच वाले डेल्टा भाग के निम्न स्थान में जल के एकत्रित होने से झील का निर्माण होता है। बाढ़ के मौदान की झील: बाढ़ के मैदान में, बाढ़ के समय असमान रूप से कांप के निपेक्षण द्वारा छोटे-छोटे गड्डे बन जाते हैं, जिनमें पानी भर जाने से अस्थायी झीलों का निर्माण होता है। रैफ्ट द्वारा निर्मित झील: नदियों के जंगली भागों से होकर प्रवाहित होने के दौरान लकड़ी के टुकड़े भी साथ में बहने लगते हैं। नदी की धारा की दिशा में आड़े रूप से आ जाने के कारण यहाँ तलछट का जमाव होने लगता है और एक स्थायी बांध का निर्माण हो जाता है। निष्कर्ष अंत में संक्षिप्त, संतुलित एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखे-</s>
<s>[INST]कर्नाटक के बादामी या वातापी के ब्राह्मण-हिन्दू धर्म और जैन धर्म से संबंधित प्राचीन चित्रकला और तमिलनाडु के सित्तनवासल गुफाओं की चित्रकला की विशेषताओं पर प्रकाश डालें।[/INST]उत्तर : भूमिका: वाकाटक शासकों के बाद दक्षिण में चालुक्याें का उदय हुआ। इस शासक वंश का राजा मंगलेश कलाओं का महान संरक्षक था। बादामी काल की गुफाएँ कर्नाटक के बागलकोट जिले में बादामी नामक जगह में स्थित है जिसका रचना काल 578-579 ई. माना जाता है। वहीं तमिलनाडु के पटुकोट्टई जिले में सित्तनवासल की गुफाओं में स्थित मंदिरों की दीवारों पर 9वीं सदी के दौरान चित्र बनाए गए है। विषय-वस्तु विषयवस्तु के पहले भाग में हम बादामी चित्रकला की विशेषताओं पर प्रकाश डालेंगे- बादामी या वातापी में ब्राह्मण-हिंदू धर्म, जैनधर्म से संबंधित चित्रकला का प्राचीनतम साक्ष्य है। बादामी चित्रकला की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं- इस कला में चित्र बनाने की प्रविधि बाघ की गुफाओं से मिलती-जुलती हैं। आकृतियों में अनुपात की समस्या दिखती है हालाँकि भावों का समन्वय उचित दिखता है। मुद्राओं, वस्त्र सज्जा और रंग संयोजन में अजंता कला का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। यहाँ एक विशाल हिस्से में राजप्रसाद का दृश्य अंकित है, जिसमें एक आकृति संगीत और नृत्य का आनंद ले रही है और कुछ लोग खिड़कियों से इसे देख रहे हैं। संभवतया यह चित्र इंद्रसभा का है। एक अन्य हिस्से में विश्राम करते हुए राजा और रानी का चित्र अंकित है, जबकि अन्य प्रसिद्ध चित्रों में आकाश में विचरण करते गंधर्व और खंभे का सहारा लिये युवती का चित्र है। अजंता, बाघ एवं बादामी की चित्रकलाएँ उत्तर तथा दक्षिण की शास्त्रीय परंपरा का उत्तम प्रतिनिधित्व करती हैं। विषय-वस्तु के दूसरे भाग में हम सित्तनवासल चित्रकला पर प्रकाश डालेंगे- सित्तनवासल की चित्रकलाएँ जैन विषयों और प्रतीकों से गहरे रूप से जुड़ी हुयी है लेकिन यहाँ अजंता के समान ही मानदंड एवं तकनीकों का प्रयोग हुआ है। सित्तनवासल चित्रकला की निम्नलिखित विशेषताएँ है- यहाँ की चित्रकला अजंता शैली से पूरी तरह प्रभावित है। यहाँ के मंन्दिर की छत्त पर एक कमल वन चित्रित किया गया है और तालाब में मछली, मगरमच्छ आदि दर्शाए गए है। यहाँ के चित्रों में पांड्य राजा-रानी और एक नर्तकी के चित्र को प्रशंसा मिली है। नर्तकी के शरीर के गति का चित्रण दर्शनीय है। निष्कर्ष अंत में संक्षिप्त, संतुलित एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें-</s>
<s>[INST]चक्रवात क्या होते हैं? अवस्थिति के आधार पर चक्रवात के प्रकार स्पष्ट करें। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : भूमिका - हवाओं का परिवर्तनशील और अस्थिर चक्र, जिसके केंद्र में निम्न वायुदाब तथा बाहर उच्च वायुदाब होता है, ‘चक्रवात’ कहलाता है। चक्रवात सामान्यत: निम्न वायुदाब का केंद्र होता है, इसके चारों ओर समवायुदाब रेखाएँ संकेंद्रित रहती हैं तथा परिधि या बाहर की ओर उच्च वायुदाब रहता है, जिसके कारण हवाएँ चक्रीय गति से परिधि से केंद्र की ओर चलने लगती हैं। पृथ्वी के घूर्णन के कारण इनकी दिशा उत्तरी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों के चलने की दिशा के विपरीत (वामावर्त) तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों की दिशा (दक्षिणावर्त) में होती है। चक्रवात प्राय: गोलाकार, अंडाकार या ‘V’ आकार के होते हैं। चक्रवात को ‘वायुमंडलीय विक्षोभ’(Atmospheric Disturbance) के अंतर्गत शामिल किया जाता है। चक्रवात के प्रकार (Types of Cyclones)– अवस्थिति के आधार पर चक्रवात दो प्रकार के होते हैं- 1. शीतोष्ण कटिबंधीय या वाताग्री चक्रवात (Temperate Cyclones)- शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की उत्पत्ति तथा प्रभाव क्षेत्र शीतोष्ण कटिबंध अर्थात् मध्य अक्षांशों में होता है। ये चक्रवात उत्तरी गोलार्द्ध में केवल शीत ऋतु में उत्पन्न होते हैं, जबकि दक्षिणी गोलार्द्ध में जलीय भाग के अधिक होने के कारण ये वर्ष भर उत्पन्न होते रहते हैं। ये चक्रवात अंडाकार, गोलाकार, अर्द्ध-गोलाकार तथा ‘V’ आकार के होते हैं, जिस कारण इन्हें ‘निम्न गर्त’या ‘ट्रफ’कहते हैं। ये चक्रवात दोनों गोलार्द्धों में 35° से 65° अक्षांशों के मध्य पाए जाते हैं, जिनकी गति पछुआ पवनों के कारण प्राय: पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर रहती है। ये शीत ऋतु में अधिक विकसित होते हैं। इनकी उत्पत्ति ठंडी एवं गर्म, दो विपरीत गुणों वाली वायुराशियों के मिलने से होती है। शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों के मुख्य क्षेत्र – उत्तरी अटलांटिक महासागर भूमध्य सागर उत्तरी प्रशांत महासागर चीन सागर 2. उष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Tropical Cyclones) उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों के महासागरों में उत्पन्न तथा विकसित होने वाले चक्रवातों को ‘उष्ण कटिबंधीय चक्रवात’कहते हैं। ये 5° से 30° उत्तर तथा 5° से 30° दक्षिणी अक्षांशों के बीच उत्पन्न होते हैं। ध्यातव्य है कि भूमध्य रेखा के दोनों ओर 5° से 8° अक्षांशों वाले क्षेत्रों में न्यूनतम कोरिऑलिस बल के कारण इन चक्रवातों का प्राय: अभाव रहता है। उष्ण कटिबंधीय चक्रवात अत्यधिक विनाशकारी वायुमंडलीय तूफान होते हैं, जिनकी उत्पत्ति कर्क एवं मकर रेखाओं के मध्य महासागरीय क्षेत्र में होती है, तत्पश्चात् इनका प्रवाह स्थलीय क्षेत्र की तरफ होता है। ITCZ के प्रभाव से निम्न वायुदाब के केंद्र में विभिन्न क्षेत्रों से पवनें अभिसरित होती हैं तथा कोरिऑलिस बल के प्रभाव से वृत्ताकार मार्ग का अनुसरण करती हुई ऊपर उठती हैं। फलत: वृत्ताकार समदाब रेखाओं के सहारे उष्ण कटिबंधीय चक्रवात की उत्पत्ति होती है। व्यापारिक पूर्वी पवन की पेटी का अधिक प्रभाव होने के कारण सामान्यत: इनकी गति की दिशा पूर्व से पश्चिम की ओर रहती है। (ये चक्रवात सदैव गतिशील नहीं होते हैं। कभी-कभी ये एक ही स्थान पर कई दिनों तक स्थायी हो जाते हैं तथा तीव्र वर्षा करते हैं।) उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों के प्रमुख क्षेत्र कैरेबियन चीन सागर हिंद महासागर ऑस्ट्रेलिया (ध्यान दें - उष्ण कटिबंधीय चक्रवात के मध्य/केंद्र में शांत क्षेत्र पाया जाता है, जिसे ‘चक्रवात की आँख’कहते हैं, जबकि शीतोष्ण चक्रवात में इसका अभाव रहता है।) (नोट - भूमध्य रेखा के समीप जहाँ दोनों गोलार्द्धों की व्यापारिक पवनें मिलती हैं, उसे ‘अंत:उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र/तल’(ITCZ) कहते हैं। इस अभिसरण क्षेत्र/तल का उत्तरी व दक्षिणी दोनों गोलार्द्धों में विस्थापन होता है। ग्रीष्म ऋतु में ITCZ का विस्थापन भूमध्य रेखा से उत्तरी गोलार्द्ध में होता है। चूँकि, इस अभिसरण तल पर व्यापारिक पवनों का अभिसरण व आरोहण होता है, फलत: सतह पर निम्न वायुदाब का विकास होता है।)</s>
<s>[INST]भारतीय कला, सभ्यता-संस्कृति तथा अन्य महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में योगदान करने वाले व्यक्तियों को भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत किया जाता है। विवरण दें। (250 शब्द)[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s>
<s>[INST]‘‘यूरोपियन प्रतिस्पर्द्धा की दुर्घटनाओं द्वारा अफ्रीका को कृत्रिम रूप से निर्मित छोटे-छोटे राज्यों में काट दिया गया।’’ विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : भूमिका: 1870 के पश्चात् साम्राज्यवाद का नया दौर प्रारंभ हुआ तथा अप्रीका सहित एशिया तथा दक्षिण अमेरिका के देश इसके शिकार बने। यूरोप में यह काल औद्योगिक क्रांति के विस्तार का काल था। यूरोप के कारखानों को सस्ते श्रमिक, कच्चे माल तथा इससे तैयार माल बेचने के लिये एक बड़े बाज़ार की आवश्यकता थी। अप्रीका इसके लिये सबसे उपयुक्त क्षेत्र के रूप में देखा गया और अंतत: यूरोपीय औपनिवेशिक देशों द्वारा अप्रीका को कई छोटे-छोटे कृत्रिम भू-भागों में बाँट दिया गया। विषय-वस्तु अप्रीका में राज्य या राज्यों के सीमांत नहीं हुआ करते थे। सभी साम्राज्यवादी ताकतों के सामने मैदान खुला हुआ था। वे जहाँ तक चाहें अप्रीकी क्षेत्रों पर अपना दावा स्थापित कर सकते थे। इस प्रकार अप्रीका में साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा शुरू हो गई और अब इस प्रतिस्पर्द्धा में जर्मनी और इटली जैसे नवीन साम्राज्यवादी देश भी शामिल हो चुके थे। सर्वप्रथम बेल्जियम के शासक लियोपोल्ड-II ने अप्रीका के संसाधनों से लाभ उठाने के लिये 1876 में ब्रूसेल्स में एक सम्मेलन आयोजित किया। इसके पश्चात् उसके प्रतिनिधियों ने अप्रीका के मध्यवर्ती क्षेत्रों में वहाँ के क्षेत्रीय सरदारों से संधि पत्र पर हस्ताक्षर करवाकर उन पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। इस गतिविधि से अन्य यूरोपीय राष्ट्र जैसे ब्रिटेन और पुर्तगाल ने कांगो नदी पर नियंत्रण के लिये एक संयुक्त आयोग की स्थापना की। 1885 के बर्लिन सम्मेलन में अप्रीका में साम्राज्यवादी प्रसार के संदर्भ में कुछ निर्देश रेखाएँ निर्धारित की गईं। इसके अनुसार जिस यूरोपीय देश के अधिकार में अप्रीका का कोई तटवर्ती क्षेत्र होगा, उसे उस क्षेत्र के भीतरी इलाकों को अधिकृत करने में प्राथमिकता मिलेगी। प्रत्येक देश को अन्य देशों को अधिसूचित करना था कि वह किन इलाकों को अपना अधिग्रहण क्षेत्र मानता है। इस व्यवस्था का परिणाम यह हुआ कि वास्तविक अधिग्रहण के लिये अंधी दौड़ शुरू हो गई। मात्र पंद्रह वर्षों में अप्रीकी महादेश के क्षेत्रों का (कुछ एक अपवादों को छोड़कर) यूरोपीय साम्राज्यवादी राष्ट्रों के मध्य बँटवारा हो गया। इसके बाद प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी एवं उसके सहयोगी देशों की हार के बाद उनके उपनिवेशों का विभाजन एवं अधिग्रहण मित्र देशों द्वारा अप्रीका के नक्शे का लंबवत एवं क्षैतिज रेखाओं द्वारा कर दिया गया। इसी संदर्भ में कहा जाता है कि अप्रीका का विभाजन ‘टेबल पर कैंचियों के सहारे’ कर दिया गया। निष्कर्ष इस प्रकार यूरोपीय साम्राज्यवादी देश अप्रीका के भू-भाग पर कब्जा करके उसे अपनी सुविधानुसार कृत्रिम रूप से बाँटते गए। 20वीं सदी में जब ये उपनिवेश स्वतंत्र हुए तो वे उसी रूप में छोटे-छोटे देशों के रूप में सामने आए और इसी कृत्रिम बँटवारे का ही परिणाम है कि अप्रीका में आज भी जनजातीय संघर्ष विद्यमान है। अत: स्पष्ट है कि यूरोपीय प्रतिस्पर्द्धा की दुर्घटनाओं के परिणामस्वरूप अप्रीका में कृत्रिम रूप से छोटे-छोटे राज्यों का उदय हुआ।</s>
<s>[INST]आरंभिक भारतीय शिलालेखों में अंकित तांडव नृत्य की विवेचना कीजिये। (250 शब्द)[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s>
<s>[INST]क्या भारत सरकार अधिनियम, 1935 ने एक परिसंघीय संविधान निर्धारित कर दिया था? चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : भूमिका: परिसंघीय व्यवस्था ऐसी राजनीतिक प्रणाली होती है, जिसमें विभिन्न राज्य समान उद्देश्यों की पूर्ति के लिये एक साथ संयुक्त होते हैं। इसमें इनकी अपनी कार्यकारिणी तथा विधायिका होती है, परंतु उनकी शक्तियों पर केंद्र की सीमाएँ होती है। विषय-वस्तु परिसंघीय व्यवस्था की उपस्थिति का दावा प्राचीन भारत, रोम एवं ग्रीस में किया जाता है, परंतु उसके स्वरूप को लेकर राजनीतिशास्त्र के विद्वानों में एकमत का अभाव रहा है। आधुनिक युग में संयुक्त राज्य अमेरिका प्रथम एवं आदर्शपरिसंघ के रूप में माना जाता है, जबकि कनाडा एवं भारत को अर्द्ध-परिसंघीय की संज्ञा दी जाती है। किसी भी देश की राजनीतिक व्यवस्था परिसंघीय है अथवा नहीं, इसका निर्णय निम्नलिखित आधारों पर किया जाता है- द्वि स्तरीय सरकार (संघ एवं प्रांत) लिखित संविधान संविधान की सर्वोत्त्यता शक्तियों का बँटवारा संघीय विवाद समाधान हेतु एक स्वतंत्र न्यायपालिका का प्रावधान संघ के स्तर पर राज्यों का प्रतिनिधित्व भारत में संघीय व्यवस्था अपनाने की प्रथम कोशिश भारत सरकार अधिनियम, 1935 के माध्यम से की गई थी। इसके द्वारा एक अखिल भारतीय संघ की स्थापना की संकल्पना का निर्धारण किया गया। राज्य एवं रियासतों को एक इकाई की तरह माना गया। इसके द्वारा प्रांतों में द्वैध शासन समाप्त कर प्रांतीय स्वायत्तता को प्रारंभ किया गया। भारत सरकार अधिनियम, 1935 के कुछ प्रावधानों ने एक परिसंघीय संविधान का प्रारूप निर्धारित कर दिया था, जो निम्नलिखित हैं- इसमें द्विस्तीय सरकार का प्रावधान निर्धारित किया गया था- प्रांतीय स्तर तथा केेंद्र स्तर पर इनके कार्यों के निष्पादन एवं उन्हें सुविधाजनक बनाने हेतु एक लिखित संविधान का निर्माण किया गया, जिसमें 321 अनुच्छेद एवं 10 अनुसूचियाँ तथा हस्तांतरित एवं संरक्षित विषयों का समावेश किया गया। इसके अंतर्गत शक्तियों का बँटवारा राज्य सूची (54), केंद्र सूची (59) तथा समवर्ती सूची (36) में किया गया। प्रांतों को स्वायत्तता, पृथक पहचान, विधि बनाने का दायित्व एवं उसको लागू करने का अधिकार दिया गया। प्रांतीय विषयों का संचालन मंत्रियों के द्वारा किया जाता था, जो मुख्यमंत्री के अधीन कार्य करते थे तथा विधानमंडल के प्रति जाबदेह थे। इसके द्वारा एक संघीय न्यायपालिका की स्थापना की गई। 1935 के अधिनियम के प्रस्तावित संघ में रियासतों का सम्मिलित होना वैकल्पिक था। संघ के अस्तित्व में आने के लिये आवश्यक था कि रियासती प्रतिनिधियों में न्यूनतम आधे प्रतिनिधि चुनने वाली रियासतें शामिल हैं। लेकिन ऐसा हुआ नहीं इसलिये संघ अस्तित्व में नहीं आया। 1935 के अधिनियम के निम्न प्रावधान संघीय भावना के विपरीत थे- गवर्नर जनरल केंद्र में समस्त संविधान का केंद्र बिंदु था, जो परिसंघीय व्यवस्था के भिन्न था। उसे अनुदान मांगों में कटौती करने, विधान मंडल द्वारा अस्वीकार किये गए विधेयक के अनुमोदन, विभिन्न विषयों पर अध्यादेश जारी करने एवं सरकारी कारनों पर रोक लगाने का अधिकार प्राप्त था। इससे अधिनियम के वास्तविक क्रियान्वयन में रूकावटें आई। इसमें संघीय न्यायपालिका के ऊपर प्रिवी कौंसिल में अपील की जा सकती थी, जो परिसंघीय व्यवस्था के विपरीत था। इस अधिनियम के द्वारा एक अनम्य संविधान प्रस्तुत किया गया, जिसमें आंतरिक विकास की कोई संभावना नहीं थी। संविधान संशोधन की शक्ति ब्रिटिश संसद में निहित थी। संघीय बजट का लगभग 80 प्रतिशत भाग ऐसा था, जिस पर विधानमंडल मताधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता था। सबसे महत्त्वपूर्ण बात थी ब्रिटिश हितों को बढावा देना तथा भारतीय संप्रभुता को सीमित रखना। निष्कर्ष अंत में संक्षिप्त, संतुलित एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें- इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि भारत सरकार अधिनियम 1935 ने अप्रत्यक्ष रूप से तो परिसंघीय संधिान की अवधारणा को निरूपित कर दिया था, लेकिन गवर्नर-जनरल की भूमिका एवं ब्रिटिश हितों की प्रमुखता के कारण कभी अपने वास्तविक स्वरूप में नहीं आ पाया।</s>
<s>[INST]भारत के सूखा प्रवण एंव अर्द्धशुष्क प्रदेशों में लघु जलसंभर विकास परियोजनाएँ किस प्रकार जल संरक्षण में सहायक हैं?[/INST]उत्तर : भूमिका: ‘लघु जलसंभर कार्यक्रम’ नदी बेसिन प्रबंधन की लघु स्तरीय इकाई है। इसे कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम के विकल्प के रूप में देखा गया है। पारिस्थितिक संतुलन के लिये इस कार्यक्रम में भूमि, जल व वनों के समन्वित प्रबंधन पर बल दिया जाता है। इसके तहत चैक डैम, कुओं, तालाब, बावड़ी, आहार आदि का निर्माण शामिल है। विषय-वस्तु भारत मौसमी विविधताओं वाला देश है, जहाँ कुछ क्षेत्रों में वर्षा अत्यधिक मात्रा में होती है, वहीं कुछ क्षेत्रों में अल्प। भारत में वर्षा का वितरण असमान है तथा यह केवल मानसूनी दिनों में ही होती है। वर्षा की अनिश्चितता एवं उसके वितरण में क्षेत्रीय असमानता के कारण भारत में शुष्क एवं अर्द्धशुष्क प्रदेशों का विकास हुआ है, जो निम्नवत है- भारत का उत्तरी-पश्चिमी प्रदेश जिसमें पंजाब, हरियाणा, राजस्थान तथा गुजरात शामिल है। झारखंड, उत्तर प्रदेश का कुछ भाग, मध्य प्रदेश का कुछ हिस्सा तथा ओडिशा। पश्चिमी घाट का वृृष्टि छाया प्रदेश इन क्षेत्रों में लघु जलसंभर कार्यक्रम अपनी विशेषताओं के आधार पर जल संरक्षण मं बेहद उपयोगी हो सकता है। लघु जलसंभर की विशेषताएँ लघु जलसंभर कार्यक्रम के अंतर्गत जलद्रोणी की ढाल प्रवणता तथा अन्य भौतिक संरचना का निर्धारण करते हुए परियोजना का निर्माण किया जाता है। जलसंभर विकास कार्यक्रम अपने सफल संचालन के दौरान सूखा एवं अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में निम्न प्रकार से जल संरक्षण कार्यक्रम को सहायता प्रदान कर सकता है- लघु जलसंभर कार्यक्रम के अंतर्गत वर्षा जल के प्रवाह वाले क्षेत्र में जल को एकत्र करने के लिये छोटे-छोटे बाँध तथा चेकडैम बनाए जाते हैं। इन छोटे-छोटे बाँधों में वर्षा जल एकत्र होने से धरातलीय जल रिसकर भूमि के अंदर पहुँचता है तथा भौम जल स्तर को सुधारता है। इसके प्रभाव से भूमि में आर्द्रता का आविर्भाव होता है, जो कृषि प्रणाली में मददगार है। लघु जलसंभर विकास कार्यक्रम के अंतर्गत निर्मित बाँध से छोटी-छोटी नहरें निकाली जाती है, जो अपने प्रवाह क्षेत्रों में सिंचाई प्रदान करने के साथ-साथ भौम जलस्तर में भी वृद्धि करती है। लघु जलसंभर कार्यक्रम से मवेशियों को चारा एवं पेयजल की उपलब्धता सुनिश्चित होने से लोगों को इस कार्यक्रम में भागीदारी से सहायता मिलती है तथा वे जल संरक्षण कार्यक्रम में योगदान देने के लिये तत्पर होते हैं। लघु जलसंभर विकास कार्यक्रम से हरित क्षेत्रों में वृद्धि होती है, इससे वर्षा को प्रोत्साहन मिलता है। लघु जलसंभर विकास कार्यक्रम के चलते प्रवास की समस्या समाप्त होती है, क्योंकि लोगों को कृषिगत कार्यों से आय मिलने लगती है। उपर्युक्त माध्यम से लघु जलसंभर कार्यक्रम सूखा एवं अर्द्धशुष्क प्रदेशों में जल संरक्षण को प्रोत्साहन देता है। हरियाली, नीरू-मीरू, तथा हाल में शुरू नीरांचल जैसी लघु, जल-संभर योजनाएँ, ‘प्रति बूंद ज़्यादा फसल’ की अवधारणा तो पूर्ण होंगी ही, साथ ही पेयजल, मत्स्य पालन एवं पशुपालन में भी सहायक होंगी। निष्कर्ष अंत में संक्षिप्त, संतुलित एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें-</s>
<s>[INST]उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में संपन्न औद्योगिक क्रांति को संभव बनाने में वैज्ञानिक आविष्कारों एवं तकनीकी परिवर्तनों की भूमिका का परीक्षण करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • औद्योगिक क्रांति की सफलता में वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास की भूमिका का उल्लेख करना है। • चूँकि प्रश्न में परीक्षण पूछा गया है, अत: इसके नकारात्मक परिणामों की भी चर्चा की जानी चाहिये। हल करने का दृष्टिकोण • औद्योगिक क्रांति का संक्षिप्त परिचय देते हुए इस समय के विभिन्न अविष्कारों एवं तकनीकी परिवर्तनों की चर्चा करें। • इन आविष्कारों ने किस प्रकार औद्योगिक क्रांति को सफल बनाया, विभिन्न दृष्टिकोणों से चर्चा करें। • इन परिवर्तनों के कुछ नकारात्मक परिणामों का उल्लेख करते हुए निष्कर्ष लिखें। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आर्थिक और तकनीकी क्षेत्र में परिवर्तन ने समाज की सोच में भी परिवर्तन किया। कारखाना पद्धति घरेलू उत्पादन प्रणाली को प्रतिस्थापित करने लगी। शक्ति चालित मशीनों का अधिकाधिक उपयोग प्रारंभ हुआ और आधुनिक व्यापार तंत्र का विकास हुआ। इसके फलस्वरूप व्यापार में अप्रत्याशित वृद्धि हुई। इन्हीं व्यापक परिवर्तनों को इंगित करने के लिये ‘औद्योगिक क्रांति’ शब्द का प्रयोग किया गया। यद्यपि विज्ञान ने औद्योगिक क्रांति में कोई सीधी भूमिका नहीं निभाई, किंतु प्रौ़द्योगिकी ने यह भूमिका अवश्य अदा की। प्रौद्योगिकीय विकास विज्ञान पर ही निर्भर था। विज्ञान की बढ़ी हुई समझ ने ही कृषि, वस्त्र उद्योग, लौह एवं इस्पात उद्योग, परिवहन एवं संचार में सुधार आदि को संभव बनाया। इन सुधारों को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है: कृषि क्रांति के बिना औद्योगिक क्रांति संभव नहीं होती। ‘ड्रिल’ नामक यंत्र की खोज ने खेतों की बुवाई को आसान बनाया। पोटाश, नाइट्रोजन और फास्फोरस के प्रयोग ने कृषि उत्पादकता को बढ़ाया और कृषि को लाभ का कार्य बना दिया। फ्लांइग शटल, वाटर प्रेम, म्यूल आदि अविष्कारों ने वस्त्र उद्योग को नवीन उँचाइयों पर पहुँचा दिया। कम समय और कम लागत में अधिक उत्पादन होने लगा। पत्थर के कोयले (कोक) के प्रयोग ने लौह शुद्धिकरण तकनीक को आसान बनाया। इसके पश्चात् इस्पात के आविष्कार ने भारी उद्योगों को प्रगति दी। बड़ी-बड़ी मशीनों को इस्पात से बनाया जाना आसान हुआ। बढ़े हुए उत्पादन एवं व्यापार ने परिवहन के साधनों में आवश्यक परिवर्तनों को उत्प्रेरित किया। सड़क एवं नहर निर्माण किया जाने लगा। भाप इंजन और कालांतर में गैसोलीन (पेट्रोल) आधारित इंजन के विकास ने मोटर उद्योग की सफलता में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। रबर के टायरों से यात्रा आरामदेह हो गई। डाक-तार के विकास ने संचार के क्षेत्र में आमूल-चूल परिवर्तन किया। इस प्रकार वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास ने औद्योगिक क्रांति को सफल बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। यद्यपि इससे प्रदूषण, श्रमिकों का शोषण, अव्यवस्थित शहरी बस्तियाँ, अमीर-गरीब के मध्य विस्तृत अंतर आदि नकारात्मक कारक भी उत्पन्न हुए। फिर भी वैज्ञानिक अविष्कारों एवं तकनीकी परिवर्तनों ने 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में औद्योगिक क्रांति को सफल बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।</s>
<s>[INST]'ठुमरी’ अर्द्ध-शास्त्रीय भारतीय संगीत की एक विशिष्ट शैली है जो आज भी अपनी जीवंतता को अक्षुण्ण रखे हुए हैं। इस शैली की मौलिक विशेषताओं की चर्चा करते हुए इससे संबंधित प्रमुख कलाकारों का उल्लेख करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद ‘ठुमरी’ की मौलिक विशेषताओं का उल्लेख करते हुए इससे संबंधित कलाकारों को बताना है। हल करने का दृष्टिकोण ‘ठुमरी’ का संक्षिप्त परिचय लिखते हुए इसके विशिष्ट अभिलक्षणों को बिंदुवार बताएँ। इसके प्रमुख कलाकारों का उल्लेख करें। वर्तमान में ‘ठुमरी’ की जीवंतता का उल्लेख करते हुए निष्कर्ष लिखें। ‘ठुमरी’ भारतीय शास्त्रीय संगीत की एक लोकप्रिय गायन शैली है। इस शैली की उत्पत्ति उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग में हुई थी। इसमें भगवान श्रीकृष्ण और राधा के जीवन के प्रसंगों का वर्णन किया जाता है। यह एक मुक्त गायन शैली है, जिसमें कम-से-कम शब्दों के द्वारा अधिकाधिक अर्थों को संगीत के माध्यम से व्यक्त किया जाता है। ठुमरी गायन शैली की चारित्रिक विशेषताओं को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है- यह अपनी संरचना और प्रस्तुति में अधिक गीतात्मक है। ये प्रेमगीत होते हैं, इसलिये शब्द रचना अति महत्त्वपूर्ण होती है। ठुमरी का गायन एक विशिष्ट मनोदशा में होता है। इसी आधार पर इसे खमाज़, काफी, भैरवी आदि रागों में प्रस्तुत किया जाता है। इसमें संगीतात्मक व्याकरण का सख्ती से पालन नहीं किया जाता है। ठुमरी गायन की दो शैलियाँ हैं- पूरब या बनारस शैली, यह धीमी और सौम्य शैली है और पंजाबी शैली, यह अधिक जीवंत है। रसूलन देवी, सिद्धेश्वरी देवी, गौहर जान, बेगम अख्तर, शोभा गुर्टू, नूरजहाँ और प्रभा आत्रे ठुमरी गायन शैली के प्रमुख कलाकार हैं। अक्तूबर 2017 में ठुमरी की रानी कही जाने वाली गिरिजा देवी का निधन हो गया। गिरिजा देवी ने ठुमरी गायन को देश-विदेश में प्रसिद्धि दिलवाई। गिरिजा देवी को पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्म विभूषण आदि पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। निष्कर्षत: ठुमरी शैली आज भी अपनी जीवंतता का अक्षुण्ण बनाए हुए हैं। संबंधित स्रोत: CCRT, इंटरनेट।</s>
<s>[INST]बीसवीं सदी का अंतिम दशक भारतीय सामाजिक-आर्थिक जीवन का एक महाप्रस्थान सिद्ध हुआ, जिसमें वैश्विक चुनौतियों एवं संभावनाओं के साँचे पर सरकार की नीतियों एवं कार्यव्रमों ने आकार ग्रहण किया, जो अपने चारित्रिक लक्षणों में पूर्ववर्ती नीतियों एवं कार्यव्रमों से नितांत भिन्न थे। व्याख्या करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद LPG नीतियों का भारतीय सामाजिक-आर्थिक जीवन पर प्रभाव एवं इसके कारण सरकार की नीतियों में आये परिवर्तन। हल करने का दृष्टिकोण भारतीय सामाजिक-आर्थिक जीवन पर LPG नीतियों का प्रभाव। सामाजिक-आर्थिक जीवन में परिवर्तन के संगत सरकारी नीतियों में बदलाव। पूर्ववर्ती नीतियों तथा समकालीन नीतियों की तुलना करते हुए निष्कर्ष लिखें। स्वतंत्रता के बाद बाह्य हस्तक्षेपों से स्वयं को मुक्त रखने के लिये भारत ने नियंत्रित आर्थिक नीति अपनाई थी परंतु 20वीं सदी के अंतिम दशक में जब भुगतान का संकट नियंत्रण से बाहर हो गया तो सरकार ने आर्थिक सुधारों की एक शृंखला की शुरुआत की जिसे उदारीकरण, निजीकरण तथा वैश्वीकरण (LPG) के नाम से जाना जाता है। इन सुधारों का भारतीय सामाजिक-आर्थिक जीवन पर निम्नलिखित प्रभाव हुआ- भारतीय अर्थव्यवस्था में निर्यात में वृद्धि हुई तथा चालू खाता घाटा कम हो गया, साथ ही विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि हुई, फलस्वरूप भारत में भुगतान की समस्या खत्म हुई। सरकारी नियंत्रण में कमी तथा लाइसेंस राज की समाप्ति के पश्चात् भारत में व्यापार करना आसान हुआ तथा नए रोज़गारों का सृजन हुआ। प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन से भारत में उपभोक्तावाद का प्रसार हुआ। कंपनियों के कुछ विशेष-क्षेत्रों में केंद्रित होने के कारण क्षेत्रीय असंतुलन उत्पन्न हुआ तथा प्रव्रजन में वृद्धि हुई। शिक्षा में निजीकरण के पश्चात् उच्च एवं तकनीकी शिक्षा का विस्तार हुआ परंतु गुणवत्ता एवं रोज़गार योग्यता में अपेक्षित वृद्धि नहीं हुई। संयुक्त परिवार जैसी संस्था कमज़ोर हुई तथा एकल परिवार का प्रचलन बढ़ा। देर से विवाह, तलाक जैसे मामलों में वृद्धि हुई तथा वृद्धाश्रमों की संख्या में भी इजाफा हुआ। भारतीय अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्द्धा में वृद्धि हुई तथा उपभोक्ताओं को अधिक विकल्प मिले। भारत के समक्ष नई वैश्विक चुनौतियाँ तथा संभावनाएँ उभरकर आईं जिसके अनुसार सरकार ने अपनी नीतियों में कई आवश्यक बदलाव भी किये: सरकार ने 1991 में नई आर्थिक नीति की घोषणा की एवं अप्रगतिशील कानूनों को खत्म किया। भारत में निवेश को नियंत्रित करने के लिये सेबी (SEBI), FIPB जैसी संस्थाओं का गठन हुआ ताकि निवेश की अस्थिरता से निपटा जा सके। वैश्विक चुनौतियों एवं संभावनाओं के आलोक में द्वितीय पीढ़ी के सुधार लागू किये गए। प्रदूषण तथा जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक समस्या से निपटने के लिये भारत सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय संधियों के सापेक्ष घरेलू नीतियों को लागू किया है। इसी संदर्भ में जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना अपनाई गई। अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार श्रम कानून लागू किये गए। महिलाओं के अधिकारों तथा अवसरों में वृद्धि करने हेतु विभिन्न स्तर पर महिलाओं को आरक्षण प्रदान किया गया। विकास की क्षेत्रीय विसंगतियाँ दूर करने के लिये गैर-विकसित क्षेत्रों में उद्योग स्थापित करने हेतु प्रोत्साहन दिया गया। जन-जन तक स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच सुनिश्चित करने के लिये राष्ट्रीय स्वास्थ्य अभियान की शुरुआत की गई। वैश्वीकरण के उपरांत भारत में आर्थिक तथा साइबर अपराधों में भी वृद्धि हुई, जिसके लिये भारत ने कार्यबल का गठन किया, साथ ही अंतर्राष्ट्रीय सहयोग पर भी ध्यान दिया। वैश्वीकरण ने भारत के समक्ष नए अवसर भी प्रस्तुत किये हैं, भारत आई.टी. सेवाओं का सर्वप्रमुख निर्यातक देश है। निर्यात को प्रोत्साहन देने के लिये भारत में कई नीतियों को लागू किया गया है। जैसे- विशेष आर्थिक क्षेत्रों का गठन, मेक इन इंडिया जैसे कायक्रमों को लागू करना तथा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की प्रक्रिया का सरलीकरण। वित्तीय क्षमता दुरुस्त रखने के लिये भारत ने FRBM अधिनियम लागू किया है तथा बेसेल प्रतिमान का पालन किया है। अन्य क्षेत्रों में भी आवश्यक पहल की गई है ताकि भारत में सामाजिक-आर्थिक गतिविधियाँ सुचारु रूप से चलें। भारत के सुधारों की राह कठिन थी परंतु भारत ने अवसरों को भुनाया तथा चुनौतियों का बेहतर प्रबंधन किया। भारत जनसांख्यिकीय लाभांश को भुनाकर स्वयं को विश्व की श्रम-शक्ति की राजधानी के रूप में विकसित करने को प्रयासरत है। यद्यपि समाज पर कुछ नकारात्मक प्रभाव पड़े हैं परंतु भारतीय समाज एक न्यायसंगत समाज बनने की ओर अग्रसर हुआ है।</s>
<s>[INST]मैकडोनाल्ड अवॉर्ड सरकार द्वारा सांप्रदायिक एवं संवैधानिक मुद्दों के समाधान की दिशा में एक गंभीर किंतु दूषित पहल थी, जिसने अपने अंतर्निहित दोषों के कारण परस्पर विरोधी हितों के मध्य खाई को और अधिक चौड़ा कर दिया। परीक्षण कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद मैकडोनाल्ड अवार्ड के निहितार्थों की चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण मैकडोनाल्ड अवार्ड के प्रावधानों का संक्षिप्त परिचय देते हुए उत्तर प्रारंभ करें। अवार्ड के नकारात्मक पक्ष का उल्लेख करें। परस्पर विरोधी हितों में टकराव एवं इसके परिणाम की चर्चा करते हुए निष्कर्ष लिखें। गोलमेज सम्मेलन के पश्चात् ब्रिटिश शासन ने भारतीय राजनीतिक और सामाजिक स्थिति को सुधारने के लिये प्रयास किये। इन्हीं प्रयासों का परिणाम मैकडोनाल्ड घोषणा या सांप्रदायिक पंचाट था। इसके प्रावधान निम्नलिखित हैं: प्रांतीय व्यवस्थापिकाओं की सदस्य संख्या बढ़ाकर दुगुनी कर दी गई। अल्पसंख्यकों के लिये अलग निर्वाचन की व्यवस्था की गई। स्त्रियों के लिये भी कुछ स्थान आरक्षित किये गए। दलितों के लिये पृथक निर्वाचन और प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया गया। सरकार ने इस घोषणा के द्वारा दलितों की स्थिति को राजनीतिक प्रतिनिधित्व प्रदान करके सुधारने का प्रयास किया, किंतु इसने राष्ट्रवाद पर गहरा आघात किया। जैसे- इस निर्णय की योजना ही ऐसी बनाई गई थी कि प्रांतों में वास्तविक उत्तरदायी शासन का विकास न हो सके। केंद्रीय व्यवस्थापिका के संगठन में कोई परिवर्तन नहीं किया गया। यह निर्णय पक्षपात पर आधारित था क्योंकि इसमें यूरोपियनों और मुसलमानों को विशेष रियायतें दी गई थीं। अस्पृश्यों के लिये अलग निर्वाचन की व्यवस्था के द्वारा हिंदुओं में पूट डालने का प्रयास किया गया। इस निर्णय से मुस्लिम संाप्रदायिकता को बढ़ावा मिला। इस प्रकार मैक्डोनाल्ड अवार्ड ने हिंदू-मुस्लिम हितों में टकराहट तो उत्पन्न की ही, साथ ही हिन्दुओं में भी सवर्णों और अस्पृश्यों के मध्य हितों के टकराव को जन्म दिया। इसे निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है: मुस्लिम लीग ने मुस्लिमों के लिये अधिक सहूलियतें मांगना प्रारंभ कर दिया। हिंदुओं में अस्पृश्य वर्ग भी अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिये लालायित हो गया। इससे हिंदू समाज में भी हितों का टकराव बढ़ गया। इस प्रकार निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि मैकडोनाल्ड अवॉर्ड के द्वारा ब्रिटिश सत्ता ने दलितों की स्थिति में सुधार हेतु प्रयास किया था किंतु इसके नकारात्मक प्रभाव भारतीय राष्ट्रवाद पर गंभीर रूप से पड़े। इसने भारतीय समाज की विविधता में परस्पर विरोधी हितों के मध्य खाई को अधिक गहरा ही किया। संबंधित स्रोत: NCERT, आर.एल. शुक्ला एवं इंटरनेट।</s>
<s>[INST]क्या आप मानते हैं कि ‘ब्रेस्ट लिटोवस्क की संधि’ लेनिन की एक गंभीर भूल थी? तर्कपूर्ण उत्तर दें।[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा: संधि की पृष्ठभूमि से उत्तर की शुरुआत करें। संधि के सकारात्मक एवं नकारात्मक पक्ष क्या थे। संतुलित निष्कर्ष। ब्रेस्ट लिटोवस्क की संधि 3 मार्च 1918 को सोवियत रूस की बोल्शेविक सरकार तथा केन्द्रीय शक्तियों (जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी, बुल्गारिया तथा ऑटोमन साम्राज्य) के मध्य संपन्न हुई। इस संधि के द्वारा रूस प्रथम विश्वयुद्ध से अलग हो गया। इस संधि को लेकर लेनिन की आलोचना हुई तथा इसे लेनिन की एक गंभीर भूल कहा गया। ब्रेस्ट लिटोवस्क संधि के सकारात्मक पक्ष रूस की अर्थव्यवस्था प्रथम विश्व-युद्ध के दौरान दयनीय हालत में थी और युद्ध जारी रखना रूस के लिये किसी सूरत में लाभप्रद न था, युद्धबंदी के बाद रूस को अर्थव्यवस्था में सुधार का अवसर मिला। सोवियत रूस गृहयुद्ध की समस्या से जूझ रहा था, इस समय उसे मोर्चे पर सैन्य बल की आपूर्ति सुनिश्चित करने में काफी समस्या आ रही थी। बोल्शेविक युद्ध की समाप्ति का वचन (अप्रैल थिसिस) देकर सत्ता में आए थे, अतः युद्ध जारी रखने से सैन्य विद्रोह की आशंका थी, जिसे टाला गया। पूर्वी मोर्चे पर रूस की स्थिति अत्यंत कमजोर थी, हथियारों एवं अन्य संसाधनों का घोर अभाव था। ऐसी स्थिति में अमेरिका की सहायता अपेक्षित थी पर ऐसा नहीं हुआ, अतः सोवियत रूस के लिये युद्धबंदी की घोषणा आवश्यक थी। पुनः बोल्शेविक क्रांति के उपरांत सरकार के दृष्टिकोण में मौलिक परिवर्तन आ गया। अब साम्राज्यवादी आकांक्षा के विपरीत रूस के सामाजिक-आर्थिक विकास की प्रक्रिया को त्वरित करना प्राथमिक लक्ष्य बन गया। संधि के नकारात्मक पक्ष संधि की शर्तें कठोर थीं, रूस को पोलैंड, एस्तोनिया, लातविया, लिथुआनिया, जॉर्जिया तथा फिनलैंड गँवाना पड़ा। इसमें रूस का एक-तिहाई कृषि भूमि, एक-तिहाई जनसंख्या, दो-तिहाई कोयले के खदान तथा आधे भारी उद्योग शामिल थे। यह संधि के लिये काफी ऊँची कीमत थी, अतः रूस की अन्य सभी पार्टियों ने इसका विरोध किया। यह संधि मित्र-राष्ट्रों से सलाह के बिना की गई थी, अतः अंतर्राष्ट्रीय पटल पर रूस को संदेहपूर्ण दृष्टि से देखा जाने लगा। ब्रेस्ट लिटोवस्क संधि ने रूस में व्हाईट तथा रेड के मध्य गृहयुद्ध भड़काने में अहम भूमिका निभाई। इस संधि के बावजूद रूस पर युद्ध का खतरा मंडराता रहा, फ्राँसीसी नौसेना ओडेसा तथा ब्रिटिश सैनिक मरमांस्क और जापानी सेना सुदूर पूर्व में पहुँच चुकी थी। सौभाग्यवश जर्मनी को प्रथम विश्व युद्ध में मित्र राष्ट्रों के हाथों हार का सामना करना पड़ा और सितंबर 1918 में संधि व्यवहारिक रूप से समाप्त कर दी गई। रूस इस संधि के सबसे बुरे परिणामों से बच गया। रूस द्वारा यह संधि शाश्वत उद्देश्य के लिये की गई थी जिसमें अंतर्निहित कांटों की चुभन पूर्व निर्धारित थी फिर भी दीर्घकालिक जनलाभ के लिये उक्त दोष नगण्य थे। अतः इस संधि को लेनिन की गंभीर भूल कहना युक्तिसंगत नहीं है।</s>
<s>[INST]एनाबेटिक एवं कैटाबेटिक पवनों से आप क्या समझते हैं? स्थानीय मौसम पर इनके प्रभाव की सोदाहरण व्याख्या करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद प्रश्न में पवनों, उनके प्रकार और प्रभावों की चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण पवनों का संक्षिप्त परिचय लिखते हुए उत्तर प्रारंभ करें। पवनों के प्रकार बताएँ। स्थानीय मौसम पर पवनों के विभिन्न प्रकार के प्रभावों की चर्चा करें। निष्कर्ष लिखें। पवनें अर्थात् वायु की वे धाराएँ जो निरंतर एक ही दिशा में क्षैतिज रूप से वर्ष भर चलती रहती हैं। पवनें उच्च दाब से न्यून दाब वाले क्षेत्रों की ओर चलती हैं। धरातलीय विषमताओं के कारण इनमें घर्षण उत्पन्न होता है जिससे पवनों की दिशाएँ प्रभावित होती हैं। पृथ्वी का घूर्णन भी पवनों के वेग को प्रभावित करता है। वायुदाब की प्रवणता पवनों की दिशा और गति दोनों को प्रभावित करती है। पृथ्वी पर चलने वाली पवनों को ‘सनातन पवन’ और ‘स्थानीय पवन’ दो वर्गों में वर्गीकृत किया गया है। ‘एनाबेटिक’ और ‘कैटाबेटिक’ पवनें स्थानीय पवन कहलाती हैं। इन्हें क्रमश: ‘घाटी समीर’ और ‘पर्वत समीर’ कहते हैं। दिन के दौरान पर्वतीय प्रदेशों में ढाल गर्म हो जाते हैं और वायु ढाल के साथ-साथ ऊपर उठती है तथा इस स्थान को भरने के लिये वायु घाटी से बहती है। इन पवनों को घाटी समीर या एनाबेटिक पवन कहते हैं। रात्रि के समय पर्वतीय ढाल ठण्डे हो जाते हैं और सघन वायु घाटी में नीचे उतरती है जिसे पर्वतीय पवन या कैटाबेटिक पवन कहते हैं। इन पवनों के स्थानीय मौसम पर प्रभाव को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है- स्थानीय स्तर पर यह तापमान को नियंत्रित रखने में सहायक है। पहाड़ी ढालों पर बाग़ान कृषि में सहायक, जैसे- शिमला आदि स्थानों पर सेबों की कृषि में इन पवनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। पर्वत समीर उच्च पहाड़ी स्थलों पर तापमान को तीव्र रूप से ठण्डा नहीं होने देती। वहीं, घाटी समीर निम्न पर्वतीय क्षेत्रों पर तापमान एवं वायुदाब को नियंत्रित रखती है। यह पर्वतीय क्षेत्रों में चरागाहों के विकास में सहायक सिद्ध होती है। इस प्रकार, निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि एनाबेटिक और कैटाबेटिक पवनें पर्वतीय क्षेत्रों, ढालों एवं उँचाई पर महत्त्वूपर्ण जलवायु परिवर्तक तथा नियंत्रक की भूमिका का निर्वहन करती हैं।</s>
<s>[INST]पवन को अपरदन का एक मुख्य कारक माना जाता है। पवन अपरदन को प्रभावित करने वाली दशाओं पर प्रकाश डालते हुए इसके अपरदनात्मक स्थलरूपों की चर्चा करें।[/INST]उत्तर : भूमिका: पवन का अपरदन संबंधी कार्य प्रमुख रूप से भौतिक या यांत्रिक रूपों में ही संपादित होता है। शुष्क मरुस्थलों में यांत्रिक अपक्षय के कारण चट्टानों के विघटित होने से चट्टानें ढीली पड़ जाती हैं। इन असंगठित चट्टानों को पवन आसानी से अपरदित कर देती है। विषय-वस्तु पवन द्वारा अपरदन का कार्य तीन रूपों यथा अपवाहन, अपघर्षण तथा सन्निघर्षण में संपन्न होता हे। अपवाहन के अंतर्गत यांत्रिक अपक्षय के कारण ढीली तथा असंगठित चट्टानों के ढीले कणों को पवन चट्टानों से अलग करके उड़ा ले जाती है।। अपघर्षण के तहत तीव्र वेग की पवन के साथ रेत तथा धूलकण; जो अपरदनात्मक यंत्र का कार्य करते हैं, पवन मार्ग में पड़ने वाली चट्टानों को रगड़ कर अपरदित करती है। सन्निघर्षण के तहत शैलकण आपस में रगड़ खाकर यांत्रिक ढंग से टूट जाते हैं। अपरदनात्मक स्थलरूप अपवाहन बेसिन या वात गर्त: पवन द्वारा असंगठित तथा ढीले कणों को उड़ा लिये जाने से निर्मित गर्त को अपवाहन बेसिन कहते हैं। चूंकि इन गर्तों का निर्माण पवन द्वारा होता है अत: इन्हें पवन गर्त भी कहते हैं। सहारा के रेगिस्तान, कालाहारी, मंगोलिया तथा संयुक्त राज्य अमेकिरा के पश्चिमी शुष्क भागों में इस प्रकार के अनेक स्थलरूपों के उदाहरण देखने को मिलते हैं। इन्सेलबर्ग: मरुस्थलों में अपव्यय तथा अपरदन के कारण कोमल चट्टानें आसानी से कट जाती है लेकिन कठोर चट्टानों के अवशेष ऊँचे-ऊँचे टीलों के रूप में बच जाता है जिसे इन्सेलबर्ग कहते हैं। छत्रक शिला: मरुस्थली भागों में यदि कठोर चट्टानों के रूप में ऊपरी आवरण के नीचे कोमल चट्टाने लम्बवत रूप में मिलती हैं तो उस पर पवन के अपघर्र्षण के प्रभाव से विभिन्न स्थलरूपों का निर्माण होता है। पवन द्वारा चट्टान के निचले भाग में अत्यधिक अपघर्षण द्वारा उसका आधार कटने लगता है, जबकि उसका ऊपरी भाग अप्रभावित रहता है। साथ ही यदि पवन कई दिशाओं में चलती है तो चट्टान का निचला भाग चारों तरफ से अत्यधिक कट जाने के कारण पतला हो जाता है, जबकि ऊपरी भाग अप्रभावित रहता है। इससे एक छतरीनुमा स्थलरूप का निर्माण होता है, जिसे छत्रक शिला कहते हैं। छत्रक शिला को सहारा के रेगिस्तान में गारा कहते हैं। भूस्तंभ: शुष्क प्रदेश में जहाँ पर असंगठित तथा कोमल चट्टानों के ऊपर कठोर तथा प्रतिरोधी चट्टानों का आवरण होता है, वहाँ इस आवरण के कारण नीचे की कोमल चट्टानों का अपरदन नहीं हो पाता। लेकिन नजदीकी चट्टानों के अपरदन के कारण कठोर चट्टानों के आवरण वाला भाग एक स्तंभ के रूप में सतह पर दिखाई देता है जिसे भू-स्तम्भ कहते हैं। ज्यूजेन: मरुस्थली भाग में यदि कठोर तथा कोमल शैलों की परतें ऊपर-नीचे एक-दूसरे के समानान्तर होती है तो अपक्षय तथा वायु द्वारा अपरदन के कारण विभिन्न स्थलरूपों का निर्माण होता है। इन स्थलरूपों के ऊपरी भाग पर कठोर चट्टानों का आवरण होता है एवं इनका ऊपरी भाग समतल होता है। इन्हें ज्यूजेन कहते हैं। यारडंग: इसकी रचना ज्यूजेन के विपरीत होती है। जब कोमल तथा कठोर चट्टानों के स्तर लम्बवत दिशा में मिलते हैं तो पवन कठोर की अपेक्षा मुलायम चट्टान को आसानी से अपरदित करते हुए उड़ा ले जाती है। इन चट्टानों के पार्श्व में पवन के कटाव द्वारा नालियाँ बन जाती हैं जिन्हें यारडंग कहते हैं। ड्राइकान्टर: पथरीले मरुस्थलों में सतह पर पड़े चट्टानों पर पवन के अपरदन द्वारा खरोंचे पड़ जाती है। यदि पवन कई दिशाओं से होकर बहती है तो इनकी आकृति चतुष्फलक जैसी हो जाती है। इसमें एक फलक भू-पृष्ठ पर होता है एवं बाकी तीन बाहर की ओर होते हैं जिन्हें ड्राइकान्टर कहते हैं। जालीदार शिला: मरुस्थलीय भागों में जब पवनों के सम्मुख विभिन्न संरचना वाली चट्टानें पड़ती है तो कोमल भाग पवन द्वारा उड़ा लिये जाते हैं किन्तु कठोर भाग यथावत बने रहते हैं। इस प्रकार चट्टानों में जाली का निर्माण होता है जिसे जालीदार शैल कहते हैं। पुल तथा खिड़की: जालीदार चट्टान में जब पवन अपरदन के कारण छिद्र हो जाती है तो आगे एक लंबे समय के उपरांत अपरदन के कारण यह छिद्र चट्टान के आर-पार हो जाता है जिसे पवन खिड़की कहते हैं। जब इस खिड़की से होकर अपरदन द्वारा चट्टान का धीरे-धीरे नीचे तक कटाव हो जाता है तो एक महराब की आकृति का निर्माण होात है जिसे पुल कहते हैं। निष्कर्ष अंत में संक्षिप्त, संतुलित एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें- नोट: आप चाहे तो पवन अपरदन धरा निर्मित स्थलाकृतियों का डायग्राम भी दे सकते हैं।</s>
<s>[INST]यूनेस्को के ‘सांस्कृतिक विरासत संरक्षण कार्यक्रम’ के लिये ‘एशिया-प्रशांत अवॉर्ड’ की चर्चा करें। हाल ही में इससे सम्मानित भारतीय स्थापत्य की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद यूनेस्को के ‘एशिया प्रशांत अवार्ड’ का उल्लेख करना है। इससे सम्मानित भारतीय स्थापत्य की चारित्रिक विशेषताओं को बताना है। हल करने का दृष्टिकोण यूनेस्को द्वारा प्रदान किये जाने वाले ‘एशिया-प्रशांत अवॉर्ड’ का उल्लेख करें। इससे सम्मानित भारतीय स्थापत्य कला की विशेषताएँ बताते हुए निष्कर्ष लिखें। ‘एशिया-प्रशांत विरासत पुरस्कार’ वर्ष 2000 से यूनेस्को द्वारा एशिया-प्रशांत क्षेत्र में रणनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु दिया जा रहा है। इस पुरस्कार का उद्देश्य सांस्कृतिक विरासत क्षेत्रों के संरक्षण को बढ़ावा देना है, जिसके प्रयास किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा प्रारंभ किये गए हैं। यह पुरस्कार पाँच श्रेणियों में दिया जाता है: उत्कृष्टता के लिये पुरस्कार। विशिष्टता के लिये पुरस्कार। वरीयता के लिये पुरस्कार। माननीय उल्लेख (Honourable Mention) विरासत के संदर्भ में नए डिज़ाइन के लिये पुरस्कार। वर्ष 2017 का विरासत पुरस्कार भारत के निम्नलिखित स्थापत्य कला को प्राप्त हुआ है- वरीयता के लिये पुरस्कार (Award of Merit) मुंबई का क्राइस्ट चर्च। रॉयल बॉम्बे ऑपेरा हाउस। श्रीरंगम का श्री रंगनाथ स्वामी मंदिर। सम्माननीय उल्लेख (Honourable Mention) वाडिया फाउण्टेन एवं क्लॉक टावर, मुंबई। गोहद किले का प्रवेशद्वारा, गोहद। दिल्ली की धर्मपुरा हवेली। मुंबई का वैलिंगटन फाउण्टेन 182 वर्ष पुराना मुंबई का क्राइस्ट चर्च इण्डो-सारसेनिक स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना है। मुंबई का रॉयल ऑपेरा हाउस भारत का एकमात्र ऑपेरा हाउस है, जिसका निर्माण ब्रिटिश राज के समय हुआ था। श्री रंगनाथ स्वामी मंदिर स्थापत्य कला की तमिल शैली में निर्मित है। इसका निर्माण छठी से नौवीं शताब्दी के मध्य हुआ था। मुंबई का वाडिया और क्लॉक टावर सार्वजनिक क्षेत्र में विरासत क्षेत्राें के संरक्षण के प्रति समर्पण को प्रदर्शित करता है। दिल्ली की धर्मपुरा हवेली रियासतकालीन स्थापत्य का उदाहरण है। इस प्रकार यूनेस्को का ‘एशिया-प्रशांत विरासत अवॉर्ड’ विरासत क्षेत्रों के संरक्षण हेतु किये गए प्रयासों को मान्यता, सराहना एवं प्रोत्साहन देने का एक महत्त्वपूर्ण साधन है।</s>
<s>[INST]मंदिर स्थापत्य की तीन मंदिर शैलियों यथा नागर, द्रविड़ एवं बेसर के तुलनात्मक अध्ययन पर प्रकाश डालें।[/INST]उत्तर : भूमिका: मंदिर निर्माण की प्रक्रिया का आरंभ तो मौर्य काल से ही शुरू हो गया था, किंतु आगे चलकर उसमें सुधार होता गया और गुप्त काल को संरचनात्मक मंदिरों की विशेषता से पूर्ण माना जाता है। विषय-वस्तु छठी शताब्दी ई. तक उत्तर और दक्षिण भारत में मंदिर वास्तुकला शैली लगभग एक समान थी, लेकिन छठी शताब्दी ई. के बाद प्रत्येक क्षेत्र का भिन्न-भिन्न दिशाओं में विकास हुआ। इस प्रकार आगे ब्राह्मण हिंदू धर्म मंदिरों के निर्माण में तीन प्रकार की शैलियों- नागर, द्रविड़ और बेसर शैली का प्रयोग किया। नागर शैली मंदिर स्थापत्य की इस शैली का विकास हिमालय से लेकर विंघ्य क्षेत्र तक हुआ। नागर स्थापत्य के मंदिर मुख्यत: नीचे से ऊपर तक आयताकार रूप में निर्मित होते हैं। सामान्यत: उत्तर भारतीय मंदिर शैली में मंदिर एक वर्गाकार गर्भ-गृह, स्तंभों वाला मंडप तथा गर्भ-गृह के ऊपर एकरेखीय शिखर से संयोजित होता है। नागर शैली में बने मंदिरों के गर्भ-गृह के ऊपर एक रेखीय शिखर होता है। शिखर का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग सबसे ऊपर लगा आमलक होता है, जो उत्तरी भारत के मंदिरों की मुख्य पहचान है। विशेषताएँ: नागर शैली में शिखर अपनी ऊँचाई के व्रम में ऊपर की ओर व्रमश: पतला होता जाता है। मंदिर में सभा भवन और प्रदक्षिणा-पथ भी होता था। शिखर के नियोजन में बाहरी रूपरेखा बड़ी स्पष्ट तथा प्रभावशाली ढंग से उभरती है। अत: इसे रेखा शिखर भी कहते हैं। शिखर पर आमलक की स्थापना होती है। वर्गाकार तथा ऊपर की ओर वव्र होते शिखर इसकी विशेषता है। द्रविड़ शैली 7वीं शताब्दी में द्रविड़ शैली की शुरुआत हुई, परंतु इसका विकसित रूप आठवीं शताब्दी से देखने को मिलता है। कृष्णा नदी से लेकर कन्याकुमारी तक द्रविड़ शैली के मंदिर पाए जाते हैं। द्रविड़ मंदिरों का निचला भाग वर्गाकार और मस्तक गुंबदाकार, छह या आठ पहलुओं वाला होता है। विशेषताएँ प्राकार (चहारदीवारी) गोपुरम (प्रवेश द्वार) वर्गाकार या अष्टकोणीय गर्भ-गृह (रथ) पिरामिडनुमा शिखर मंडप (नंदी मंडप) विशाल संकेंद्रित प्रांगण तथा अष्टकोणीय मंदिर संरचना बेसर शैली नागर और द्रविड़ शैलियों के मिले-जुले रूप को बेसर शैली कहते हैं। इस शैली के मंदिर विंध्याचल पर्वत से लेकर कृष्णा नदी तक पाए जाते हैं। बेसर शैली को ‘चालुक्य शैली’ भी कहते हैं। विशेषताएँ: बेसर शैली के मंदिरों का आकार, आधार से शिखर तक गोलाकार (वृत्ताकार) या अर्द्धगोलाकार होता है। बेसर शेली के उदाहरण के तौर पर वृंदावन के वैष्णव मंदिर में गोपुरम देखने को मिलता है। होयसल शासकों के द्वारा मैसूर के हेलेबिड का होयलेश्वर मंदिर भी बेसर शैली का उदाहरण है। निष्कर्ष अंत में संक्षिप्त, संतुलित एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें-</s>
<s>[INST]अंग्रेज़ों ने जिस प्रक्रिया से भारत को उपनिवेश में बदलकर उसका शोषण किया, उसी प्रक्रिया ने उन कारणों को भी जन्म दिया जो उस सत्ता के विरूद्ध शुरू हुए विभिन्न जन-विद्रोहों के पीछे निहित थे। विवेचना करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद प्रश्न का प्रथम भाग उस प्रक्रिया से संबंधित है जिसका प्रयोग अंग्रेज़ों ने भारतीय उपनिवेश के शोषण में किया था। द्वितीय भाग में जन-विद्रोहों के पीछे इसी प्रक्रिया के उत्तरदायी होने की चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण भारतीय उपनिवेश की स्थापना हेतु अंग्रेज़ों की नीति का उल्लेख करते हुए उत्तर प्रारंभ करें। स्पष्ट करें कि यही नीति किस प्रकार जन-विद्रोहों के लिये भी उत्तरदायी थी? साथ ही निष्कर्ष लिखें। भारतीय उपनिवेश से प्राप्त संसाधनों से अंग्रेज़ी साम्राज्य के अन्य उपनिवेशों को नियंत्रित करना आसान हो गया था। भारतीय उपनिवेश को प्राप्त करने एवं इसे बनाए रखने के लिये अंग्रेज़ों ने अनेक आर्थिक, प्रशासनिक, राजनीतिक और सामाजिक-धार्मिक नीतियों की सहायता ली। किंतु यही कारक कालांतर में अनेक जन-विद्रोहों का कारण भी बने। इन कारकों को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है: ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय समाज में अनेक सामाजिक और धार्मिक परिवर्तन हुए। अंग्रेज़ी को सरकारी भाषा बनाने के कारण फारसी और संस्कृत के ज्ञाता नौकरियों से हाथ धो बैठे। इसके अतिरिक्त, अंग्रेज़ों ने समाज की धार्मिक मान्यताओं पर भी चोट की। अंग्रेज़ों ने अपनी सत्ता को सशक्त करने के लिये एक ऐसी प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना की जो सेना और पुलिस, राजस्व विभाग, नौकरशाही एवं न्यायिक प्रणाली पर आधारित थी। इससे ब्रिटिश शासन की भारतीय उपनिवेश पर पकड़ मज़बूत हुई। अंग्रेज़ों ने भारतीय उपनिवेश पर अपने पैर जमाने के लिये एक सशक्त आर्थिक नीति को अपनाया जिसके तहत भू-राजस्व नीति, कृषि का वाणिज्यीकरण, अनौद्योगिकरण, रेलवे का विकास, आयात-निर्यात नीति आदि को स्वरूप प्रदान किया गया। इसी के तहत उन्होंने स्थानीय कृषकों से राजस्व वसूलना प्रारंभ किया। स्थानीय स्तर पर वसूल किये गए राजस्व से ही अंग्रेज़ों ने अपनी प्रशासनिक व्यवस्था को सुदृढ़ किया। उन्होंने ईसाई मिशनरियों को धर्मांतरण के लिये प्रेरित किया एवं आंग्ल शिक्षा पद्धति को अपनाया। इस प्रकार प्रशासनिक, आर्थिक और सामाजिक कारकों में परिवर्तन करके अंग्रेज़ों ने भारत को उपनिवेश में बदल दिया और उसका शोषण किया। किंतु कालांतर में इसी प्रक्रिया ने विभिन्न जन-विद्रोहों को भी जन्म दिया। जैसे- विभिन्न भू-राजस्व नीतियों एवं आदिवासी क्षेत्रों में हस्तक्षेप के कारण कृषकों एवं आदिवासियों का आर्थिक शोषण किया गया। जिसके परिणास्वरूप कृषकों एवं आदिवासियों ने विद्रोह कर दिया। नव स्थापित न्याय, नौकरशाही और राजस्व व्यवस्था को स्थानीय लोग समझ नहीं पाते थे। वहीं, अंग्रेज़ न्यायाधीश भी स्थानीय समस्याओं को नहीं समझ पाते थे, फलस्वरूप तनाव की स्थिति उत्पन्न हुई जो अंतत: जन-विद्रोहों में परिणत हुई। ब्रिटिश शासकों ने स्थानीय धार्मिक मान्यताओं, रूढ़ियों एवं परंपराओं को परिवर्तित करने का प्रयास किया। शोषकों ने शोषितों के धार्मिक स्थलों को भी क्षति पहुँचाईं परिणामस्वरूप तनाव की स्थिति में विरोध करने वाले व्यक्तियों ने प्रचलित धार्मिक मान्यताओं का प्रयोग किया। इस प्रकार निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जिन सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और प्रशासनिक व्यवस्थाओं में परिवर्तन करके अंग्रेज़ों ने भारत को उपनिवेश में बदला, उन्हीं के चलते उन कारणों का भी जन्म हुआ, जो ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध हुए विभिन्न जन-विद्रोहों के पीछे निहित थे।</s>
<s>[INST]राष्ट्रीय आंदोलन की तपिश में भी भारत-जापान संबंधों में एक निरंतरता बनी रही जिसे जवाहलाल नेहरू के काल में एक नई स्फूर्ति प्राप्त हुई। विवेचना करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारत-जापान संबंधों को बताना है। जवाहरलाल नेहरू के काल में इन संबंधों में आई नई स्फूर्ति का उल्लेख करना है। हल करने का दृष्टिकोण एक संक्षिप्त भूमिका लिखें। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारत-जापान संबंधों का उल्लेख करें। जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में इन संबंधों में आई प्रगाढ़ता को बताते हुए तार्किक निष्कर्ष लिखें। भारत और जापान के संबंध ऐतिहासिक काल से ही मज़बूत रहे हैं, जिसमें सांस्कृतिक संबंधों विशेषकर बौद्ध धर्म ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। ये संबंध राष्ट्रीय आंदोलन से लेकर वर्तमान में ‘जापानी-भारतीय भाईचारा’ तक विस्तृत हो गए हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारत-जापान संबंध: 20वीं सदी के प्रारंभ में जब जापान एक शक्ति के रूप में उभरा तो इसके सकारात्मक प्रभाव देखे गए और इसे एशिया के पुनरुत्थान के रूप में देखा गया। अनेक महत्त्वपूर्ण भारतीयों जैसे- सुरेशचंद्र बन्दोपाध्याय, मन्मथ नाथ घोष ने जापान की यात्रा की और वहाँ के अनुभवों को भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में प्रयोग किया। यद्यपि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन और जापान विरोधी थे किंतु जापान ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में विशेषकर आज़ाद हिन्द फौज के माध्यम से सहयोग प्रदान करने का प्रयास किया। इसके परिणामस्वरूप भारत-जापान संबंधों को बढ़ावा मिला। स्वतंत्रता के पश्चात् जहाँ भारत अनेक समस्याओं से पीड़ित था, वहीं जापान की स्थिति भी द्वितीय विश्व युद्ध के कारण कामोबेश समान थी। ऐसी स्थिति में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संबंधों को प्रगाढ़ करने के लिये विशेष प्रयास किये। भारत और जापान के मध्य आधुनिक संबंधों की शुरुआत भारतीय जज द्वारा सुदूर-पूर्व अंतर्राष्ट्रीय सैन्य न्यायाधिकरण में जापान के पक्ष में फैसला दिये जाने के कारण हुई। भारत ने 1951 में जापान की संप्रभुता और राष्ट्रीय स्वतंत्रता को सीमित किये जाने के प्रयासों के कारण सैन-फ्रांसिस्को शांति सम्मेलन में भाग लेने से इनकार कर दिया था। जापान की संप्रभुता बहाली के बाद भारत और जापान ने 1952 में राजनयिक संबंध स्थापित किये। इसके बाद 1957 में जापानी प्रधानमंत्री ने भारत की यात्रा की। इन्हीं मज़बूत संबंधों का परिणाम था कि जापान ने भारत के विकास को बढ़ावा देने के लिये येन ऋण प्रदान किया। यद्यपि शीत-युद्ध के दौरान जापान, अमेरिकी गठबंधन में शामिल था किंतु भारत ने ‘गुटनिरपेक्ष की नीति’ को स्वीकार किया। इसके बावजूद भारत और जापान संबंध लगातार मज़बूत होते गए। इसे जवाहरलाल नेहरू की कूटनीतिक सफलता ही माना जाएगा। निष्कर्षत: कह सकते हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान स्थापित हुए संबंध वर्तमान में सैन्य एवं समुद्री सुरक्षा, सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक, असैन्य परमाणु समझौता तक विस्तारित हो गए हैं। वर्तमान में क्षेत्रीय और वैश्विक शांति की स्थापना तथा शक्ति संतुलन के लिये भारत-जापान संबंधों का बेहतर होना आवश्यक है जिसके लिये निरंतर प्रयास किया जाना आवश्यक है। संबंधित स्रोत : इंटरनेट, विपिन चंद्र।</s>
<s>[INST]वायसराय लिटन की अफगान नीति नैतिक एवं सांप्रदायिक दोनों दृष्टिकोणों से निंदनीय थी तथा वह साम्राज्यवादी प्रधानमंत्री बेंजामिन डिज़रायली के हाथों की कठपुतली मात्र था। आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • प्रश्न के प्रथम भाग में वायसराय लिटन की अफगान नीति की आलोचना करनी है। • दूसरे भाग में स्पष्ट करना है कि प्रधानमंत्री डिज़रायली का लिटन पर किस प्रकार नियंत्रण था। हल करने का दृष्टिकोण • वायसराय लिटन की अफगान नीति का संक्षिप्त परिचय लिखें। • इस नीति की नैतिक एवं सांप्रदायिक दृष्टिकोण से आलोचना लिखें। • स्पष्ट करें कि क्या प्रधानमंत्री बेंजामिन डिज़रायली वायसराय लिटन को नियंत्रित करते थे। • निष्कर्ष लिखें। लॉर्ड लिटन की अफगान नीति के अंतर्गत अफगानिस्तान के साथ एक अधिक, निश्चित, समानांतर और व्यावहारिक संधि करने का उद्देश्य समाहित था। लिटन तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री बेंजामिन डिज़रायली की रूढ़िवादी सरकार का मनोनीत सदस्य था। लिटन को भारत में निश्चित आदेश देकर भेजा गया था कि वह अफगानिस्तान के साथ गौरवपूर्ण पार्थक्य, वैज्ञानिक सीमाएँ और प्रभाव क्षेत्रों का निर्माण करे। साथ ही, एशिया और यूरोप में रूस की बढ़ती शक्ति को राकने का प्रयास करे। किंतु लिटन की अफगान नीति की सभी लोगों ने नैतिक तथा राजनैतिक कारणों से निंदा की। इसे निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है: लिटन को अफगानी समाज, राजनीति, संस्कृति आदि का लेशमात्र भी ज्ञान नहीं था। उसने इतिहास से शिक्षा प्राप्त नहीं की थी। काबुल में एक स्थायी अंग्रेज़ी दूत रखना अव्यवहारिक था और इसका परिणाम युद्ध ही था। लिटन की अफगान नीति के केवल दो ही परिणाम संभव थे। या तो अफगानिस्तान के टुकड़े हो जाएँ या काबुल की विदेश नीति अंग्रेज़ों के अधीन हो जाए। किंतु इसका अनिवार्य परिणाम युद्ध ही था। कुछ इतिहासकारों का मत है कि लिटन ने रूस के भय को अकारण ही गंभीर समझ लिया। इस प्रकार उपर्युक्त बिंदुओं के आधार पर लिटन की अफगान नीति की आलोचना की जाती थी। कुछ का यह विचार भी है कि लिटन साम्राज्यवादी प्रधानमंत्री बेंजामिन डिज़रायली के हाथों की कठपुतली था, क्योंकि डिज़रायली की सरकार ने ही उसे मनोनीत किया था। डिज़रायली के रूढ़िवादी एवं सांप्रदायिक दृष्टिकोण से वह पूरी तरह आच्छादित था। किंतु यह कहना उचित प्रतीत नहीं होता है क्योंकि डिज़रायली ने स्वयं अनेक अवसरों पर लिटन की आलोचना की थी और कुशल अकर्मण्यता की नीति को अस्वीकार किया। परंतु लिटन ने स्वयं स्थिति को बिगाड़ दिया। निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि लिटन की अफगान नीति अव्यवहारिक, दंभपूर्ण और अदूरदर्शी थी। यद्यपि डिज़रायली ने लिटन को वायसराय नियुक्त किया था, तथापि लिटन ने डिज़रायली की नीति का शब्दश: पालन नहीं किया था। संबंधत स्रोत: आर.एल. शुक्ला।</s>
<s>[INST]कई महत्त्वपूर्ण मोर्चों पर असफल रहने के बावजूद स्थायी बंदोबस्त एक प्रगतिशील व्यवस्था थी। टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद स्थायी बंदोबस्त के नकारात्मक और सकारात्मक पक्षों पर चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण स्थायी बंदोबस्त का संक्षिप्त परिचय लिखते हुए उत्तर प्रारंभ करें। स्थायी बंदोबस्त व्यवस्था के नकारात्मक पक्ष लिखें। इस व्यवस्था के सकारात्मक पक्ष को बताते हुए निष्कर्ष लिखें। भारत में ब्रिटिश राज के सफल होने के पीछे उनके द्वारा लागू की गई भू-राजस्व नीतियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। स्थायी रूप से राजस्व की प्राप्ति और भू-स्वामियों का निष्ठावान वर्ग आदि कारकों ने ही ब्रिटिश सत्ता को सुदृढ़ किया। स्थायी बंदोबस्त या इस्तमरारी व्यवस्था इन भू-राजस्व नीतियों में सबसे महत्त्वपूर्ण थी। यह एक दीर्घकालिक (सामान्यत: 10 वर्ष) व्यवस्था थी। इसमें लगान की दर ज़मींदारों और उनके उत्तराधिकारियों के लिये निश्चित कर दी गई, जो भविष्य में बदली नहीं जा सकती थी। ज़मीदारों को भूमि का स्वामी स्वीकार कर लिया गया और कृषक अब केवल किरायेदार मात्र रह गए। स्थायी बंदोबस्त का शासन तथा जनता पर नकारात्मक और सकारात्मक दोनों प्रभाव पड़े। इन्हें निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है: नकारात्मक प्रभाव: शासन पर: भू-राजस्व स्थायी होने से कंपनी को अधिक उत्पादन की स्थिति में भी निश्चित राजस्व ही प्राप्त होता था और अतिरिक्त आय को भू-स्वामी या बिचौलिये हड़प कर जाते थे। कालांतर में यह स्थिति और भी विकराल हो गई। जब समय के साथ उत्पादन और वसूली तो बढ़ी किंतु कंपनी को इस बढ़े हुए उत्पादन का कोई लाभ नहीं प्राप्त हुआ। जनता पर: बहुत अधिक लगान एवं उसे निर्धारित समय पर न चुकाए जाने के कारण पुराने ज़मींदार भूमि से वंचित किये जाने लगे और किसान कर्ज़ में डूब गए। बिचौलियों का भूमि संबंधी मामलों में प्रवेश हुआ, जिससे उपसामंतीकरण बढ़ा तथा उनके द्वारा कृषकों का शोषण बढ़ता गया। अधिकांश ज़मींदार प्रवासी थे, जो दूरवर्ती शोषणकर्त्ता बन गए। यद्यपि स्थायी बंदोबस्त या इस्तमरारी व्यवस्था के ब्रिटिश शासन एवं आम जनता पर नकरात्मक प्रभाव पड़े, तथापि इसके कुछ सकारात्मक पक्ष भी थे। जैसे- वित्तीय दृष्टि से इसका प्रमुख लाभ यह था कि न्यून उत्पादन की दशा में भी कंपनी की आय घटती नहीं थी। इससे बचत की संभावना बढ़ी। स्थायी प्रबंध हो जाने पर इस व्यवस्था में लगे हुए सरकारी कर्मचारियों की कुछ संख्या शासन संबंधी अन्य कार्यों को करने के लिये मुक्त हो गई। कृषकों के लिये ऐसा माना गया कि इससे उत्पादन बढ़ेगा और अधिकाधिक भूमि जोती जाएगी। ज़मींदारों को कृषि क्षेत्र में नए प्रयोग, उर्वरक का इस्तेमाल तथा फसल बदलने के तरीकों को अपनाने का मौका मिलेगा। निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि स्थायी बंदोबस्त के जहाँ कुछ नकारात्मक पक्ष थे तो वहीं कुछ सकारात्मक पक्ष भी थे। फिर भी सामान्यत: यह व्यवस्था कंपनी हितैषी और कृषक विरोधी थी। इसने कृषकों के शोषण को बढ़ावा दिया। इस व्यवस्था से बंगाल के कृषकों की स्थिति खराब होती गई और स्थायी बंदोबस्त कृषकों के शोषण का साधन बन गया। संबंधित स्रोत: आर.एल. शुक्ला, बी.एल. ग्रोवर।</s>
<s>[INST]पाश्चात्य जगत के लिये स्वामी विवेकानंद भारत के पहले सांस्कृतिक राजदूत थे, जिन्होंने भारत के सांस्कृतिक एकीकरण में अतुल्य योगदान दिया। विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद स्वामी विवेकानंद के सांस्कृतिक एकीकरण में योगदान की चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण स्वामी विवेकानंद का संक्षिप्त परिचय देते हुए स्पष्ट करें कि वह किस प्रकार पाश्चात्य जगत् के लिये प्रथम सांस्कृतिक दूत थे? भारत के सांस्कृतिक एकीकरण में उनके योगदान का उल्लेख करते हुए निष्कर्ष लिखें। स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी, 1863 में कोलकाता में हुआ था। स्वामी जी का मूल नाम नरेंद्र नाथ दत्त था, जिसे कालांतर में श्री रामकृष्ण परमहंस ने बदलकर विवेकानंद कर दिया। स्वामी जी ने अपनी भारत यात्रा में भारत में व्याप्त भुखमरी और गरीबी को देखा। वह पहले ऐसे नेतृत्वकर्त्ता थे जिन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त गरीबी और भुखमरी की मुखर आलोचना की थी। 1893 में शिकागो में आयोजित विश्व धर्म संसद में भाग लेना स्वामी जी के जीवन तथा उनके उद्देश्य को प्राप्त करने की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण चरण था। इसी संसद में दिये गए भाषण ने उन्हें पाश्चात्य जगत् का प्रथम सांस्कृतिक दूत बना दिया। इसे निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है: स्वामी जी ने हिन्दू दर्शन, जीवन शैली और संस्थाओं की व्याख्या पाश्चात्य जगत् में सरलतम शब्दों में की। जिससे कि पाश्चात्य समाज इसे भलीभाँति समझ सके। उन्होंने पाश्चात्य समाज को यह अनुभव करवाया कि वह स्वयं के उद्धार हेतु भारतीय आध्यात्मिकता से बहुत कुछ सीख सकता है। उन्होंने पाश्चात्य विश्व के समक्ष यह सिद्ध किया कि अपनी गरीबी और पिछड़ेपन के बावजूद भी भारत का विश्व संस्कृति को अमूल्य योगदान है। इस प्रकार स्वामी विवेकानंद ने भारत का अन्य विश्व के देशों के साथ सांस्कृतिक अलगाव समाप्त करने का प्रयास किया। वह भारत के प्रथम सांस्कृतिक राजदूत बनकर पाश्चात्य जगत् गए। इसके अतिरिक्त, भारत के सांस्कृतिक एकीकरण में भी विवेकानंद का अभूतपूर्व योगदान है। जैसे- स्वामी जी ने हिन्दू धर्म और दर्शन को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। हिन्दू धर्म के विभिन्न संप्रदायों के मध्य प्रतिस्पर्द्धा एवं विरोध को समाप्त कर एक राष्ट्रीय पहचान के सूत्र में बांधा। स्वामी जी ने पाश्चात्य संस्कृति के सर्वोत्तम तत्त्वों का भारतीय संस्कृति में विलय का कार्य किया। स्वामी जी ने भारतीय दर्शन में स्वयं के चिंतन और अनुभव से मौलिक विचारों को जोड़ा। इस प्रकार निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि स्वामी विवेकानंद ने पाश्चात्य जगत् में भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार तो किया ही, स्वयं के अकाट्य प्रयासों से भारत का सांस्कृतिक एकीकरण भी किया।</s>
<s>[INST]इटली एवं जर्मनी में फासिस्ट शक्तियों का उदय तत्कालीन परिस्थितियों की एक अपरिहार्य परिणति थी। विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में फासीवाद के उदय के कारणों पर चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण फासीवाद का संक्षिप्त परिचय देते हुए उत्तर प्रारंभ करें। फासीवाद के उदय की समकालीन परिस्थितियों का उल्लेख करें। निष्कर्ष। फासीवाद एक राजनीतिक विचारधारा है जिसका उदय मुसोलिनी द्वारा इटली को प्राचीन रोमन साम्राज्य की तरह पुन: महान बनाने की भूख के साथ हुआ। फासीवाद मुख्यत: अतिराष्ट्रवाद पर आधारित है, जिसका ध्यान लोगों को नियंत्रित करने के लिये सैन्य शक्ति के प्रयोग पर केंद्रित है। यह सैन्य आदर्शों पर आधारित है जिसमें साहस, आज्ञाकारिता, अनुशासन और शारीरिक दक्षता सम्मलित है। 1919 के पश्चात् इटली एवं जर्मनी में फासीवाद एवं नाजीवाद के उदय के अनेक कारणों को इंगित किया जा सकता है। जैसे- मुसोलिनी की व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाएँ एवं उसका करिश्माई व्यक्तित्व, पेरिस शांति वार्ता में दोनों देशों की माँंगों का सही प्रतिनिधित्व न होना आदि। किंतु समकालीन यूरोपीय एवं इटली-जर्मनी की परिस्थितियों ने फासिस्ट शक्तियों के उदय को संभव बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन परिस्थितियों को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है: प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् इटली की अर्थव्यवस्था लगभग चौपट हो गई थी। महँगाई और बेरोज़गारी की दर उच्च थी। ऐसे में मुसोलिनी के करिश्माई व्यक्तित्व ने उन्हें समस्याओं से बाहर निकलने की आशा दी। प्रथम विश्व युद्ध के समय इटली को मित्र राष्ट्रों ने अपने पक्ष में करने के लिये अनेक वादे किये। किंतु पेरिस शांति सम्मेलन में इटली के साथ अलगावपूर्ण व्यवहार किया गया। इससे इटली स्वयं को ठगा महसूस करने लगा। फलस्वरूप फासिस्ट शक्ति को उत्प्रेरण मिला। इटली निवासियों के असंतोष को दूर करने तथा साम्राज्य प्रसार के उद्देश्य को लेकर मुसोलिनी ने फासिस्ट दल के नेतृत्व में अधिनायकवादी सत्ता की स्थापना की। राष्ट्र संघ की असफलता ने सामूहिक सुरक्षा प्रणाली को ठेस पहुँचाई। मुसोलिनी ने फासिस्ट दल के नेतृत्व में अबिसीनिया पर आक्रमण किया और राष्ट्रसंघ के आदेशों की अवहेलना की। नि:शस्त्रीकरण के प्रयासों की विफलता ने फासिस्ट दल की शस्त्रीकरण की नीति को बढ़ावा दिया। इंग्लैंड और फ्रांस की तुष्टीकरण की नीति ने फासिस्ट शक्ति को नाज़ी शक्ति के साथ आने का अवसर दिया। इस प्रकार निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि इटली एवं जर्मनी में फासिस्ट शक्तियों के उदय के लिये समकालीन यूरोपीय परिस्थितियाँ उत्तरदायी थीं और इन्हीं परिस्थितियों ने फासिस्ट शक्ति के उदय को अपरिहार्य बना दिया।</s>
<s>[INST]भारतीय राष्ट्रवाद की जो धारा असहयोग एवं खिलाफत आंदोलनों से निकली थी, वह नेहरू रिपोर्ट पर सर्वसहम्मति के अभाव में सतत् नहीं रह सकी। नेहरू रिपोर्ट की अनुशंसाओं के सशक्तीकरण में इसकी भूमिका की विवेचना करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद नेहरू रिपोर्ट की असफलता के भारतीय राष्ट्रवाद पर पड़े प्रभावों की चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण असहयोग और खिलाफत आंदोलनों से भारतीय राष्ट्रवाद पर पड़े प्रभाव की चर्चा से उत्तर प्रारंभ करें। नेहरू रिपोर्ट की चर्चा करते हुए इसकी असफलता के कारण लिखें। नेहरू रिपोर्ट की असफलता से भारतीय राष्ट्रवाद पर पड़े प्रभावाें की चर्चा करते हुए निष्कर्ष लिखें। असहयोग और खिलाफत आंदोलन भारतीय राष्ट्रवाद की यात्रा में महत्त्वपूर्ण चरण हैं। इनके परिणामस्वरूप भारतीय राष्ट्रवाद के चरित्र में बदलाव आया और इसके प्रसार तथा पहुँच का क्षेत्र विस्तृत हुआ। असहयोग आंदोलन के कारण राष्ट्रवाद की भावना महिलाओं, बच्चों, युवाओं, कृषकों आदि तक पहुँची। अभी तक जो भावना उच्च वर्ग या शहरों तक ही सीमित थी, वह अब ग्रामीण क्षेत्रों में भी विस्तृत हुई। वहीं, खिलाफत आंदोलन के परिणामस्वरूप हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रदर्शन हुआ। किंतु राष्ट्रवाद की यह धारा 20वीं शताब्दी के तीसरे दशक के अंत तक छिन्न-भिन्न हो गई। नेहरू रिपोर्ट की असफलता ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई। नेहरू रिपोर्ट में अनेक सिफारिशें की गईं। जैसे- डोमिनियन स्टेट्स का दर्जा देना। अधिकारों की एक ऐसी घोषणा की जाए, जिसमें भारत के सभी नागरिकों के लिये धार्मिक और राजनीतिक स्वतंत्रता का आश्वासन हो। सिंध और उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत, जहाँ मुसलमान बहुसंख्यक हैं, को नए प्रांत बना दिया जाए। इसमें सांप्रदायिक आधार पर अलग निर्वाचक मंडल की मांग को अस्वीकार किया गया था। इसमें सिफारिश की गई कि केवल अल्पमत वाले स्थानों पर ही मुस्लिम वर्ग के लिये स्थान आरक्षित होंगे न कि बहुमत वाले स्थानों पर भी। धर्म का हर प्रकार से राज्य से पृथक्करण। यद्यपि ये प्रगतिशील मांगें थीं किंतु मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम वर्ग ने आरक्षित स्थानों की मांग को नहीं छोड़ा और जिन्ना ने ‘चौदह सूत्री’ मांग पेश की जिसके कारण असहयोग आंदोलन और खिलाफत आंदोलन में स्थापित हुई। हिन्दू-मुस्लिम एकता ने सांप्रदायिक स्वरूप धारण कर लिया। इसके अतिरिक्त असहयोग और खिलाफत आंदोलन के दौरान अहिंसक और उचित तरीकों से स्वराज की मांग का लक्ष्य निर्धारित किया गया किंतु इसमें डोमिनियन स्टेट्स की मांग ने कॉन्ग्रेस के भीतर ही आक्रोश पैदा कर दिया। निष्कर्षत: कह सकते हैं कि ऐसा प्रस्ताव जिसको सभी भारतीयों का व्यापक राजनीतिक समर्थन प्राप्त हो, को तैयार करने के लिये नेहरू रिपोर्ट के रूप में किया गया प्रयास असफल रहा। यद्यपि यह रिपोर्ट स्वयं में प्रगतिशील विचारों (वयस्क मताधिकार, लैंगिक समता, धर्मनिरपेक्षता) को समाहित किये हुए थी किंतु तत्कालीन परिस्थितियों ने इसे असफल बना दिया। इसके परिणामस्वरूप उपजी सांप्रदायिकता अंतत: विकृत रूप धारण कर भारत के विभाजन के रूप में परिलक्षित हुई।</s>
<s>[INST]इंडो-इस्लामिक कला के विकास क्रम में फतेहपुर सीकरी एक मील का पत्थर है, यह इस्लामी और हिंदू स्थापत्य का सुंदर सामंजस्य है। कथन की तथ्यात्मक पुष्टि करें।[/INST]उत्तर : भूमिका: हिंदू-इस्लामी या इंडो-इस्लामिक शैली के बारे में बताते हुए उत्तर प्रारंभ करें- सल्तनतकाल में ही भारतीय तथा इस्लामी शैलियों की विशेषताओं से युक्त स्थापत्य का विकास हुआ, जिसे हिंदू-इस्लामी या इंडो-इस्लामिक शैली कहा जाता है। इसी का विकास-क्रम मुगलकालीन स्थापत्य फतेहपुर सीकरी में देखने को मिलता है। विषय-वस्तु विषय-वस्तु के पहले भाग में हम इंडो-इस्लामिक शैली एवं मुगल वास्तुकला का परिचय देंगे- इंडो-इस्लामिक शैली की प्रमुख विशेषताओं में भारतीय शहतीरी शिल्प कला और मेहराबी कला का समन्वय, इमारतों की साज-सज्जा में भारतीय अलंकरण और इस्लामी सादगी का समन्वय तथा जोड़ने के लिये अच्छे गारे का इस्तेमाल और डॉटदार पत्थरों का प्रयोग शामिल है। मुगल वास्तुकला इंडो-इस्लामिक शैली का अंतिम पड़ाव है, जिसकी मीलों घेरा वाला शहर तथा घुमावदार, कोणदार और रंगीन मेहराब का इस्तेमाल, पित्रादूरा तकनीक आदि प्रमुख विशेषताएँ हैं। फतेहपुर सीकरी का किला इंडो-इस्लामिक स्थापत्य का बेहतरीन उदाहरण है। विषय-वस्तु के दूसरे भाग में हम फतेहपुर सीकरी की विशेषताओं पर ज़ोर देंगे- आगरा से 36 किलोमीटर पश्चिम में स्थित लाल बलुआ पत्थर से निर्मित फतेहपुर सीकरी अकबर की महत्त्वाकांक्षी वास्तुकलात्मक परियोजनाओं का प्रतिबिंब है। यहाँ दो श्रेणी के भवन हैं- धार्मिक एवं लौकिक। धार्मिक भवनों, जैसे- जामा मस्जिद और बुलंद दरवाज़ा में इस्लामी प्रभाव ज़्यादा दृष्टिगोचर होते हैं, जबकि लौकिक या धर्मनिरपेक्ष भवनों (प्रशासनिक भवन, महल या विविध) में भारतीय तत्त्वों की अधिकता है। जोधाबाई के महल में हिंदू एवं जैन मंदिरों की विशेषता देखने को मिलती है। पंचमहल की सपाट छत को सहारा देने के लिये विभिन्न स्तंभों का इस्तेमाल किया गया है, जो मंदिरों एवं विहारों की शैली को दर्शाता है। पाँच मंजिला पंचमहल या हवामहल मरियम-उल-जमानी द्वारा सूर्य को अर्घ्य देने के लिये बनवाया गया था जहाँ से अकबर की मुसलमान बेगमें ईद का चाँद देखती थीं। जोधा का महल प्राचीन घरों जैसा बनवाया गया था। इसके बनवाने तथा सजाने में अकबर ने अपनी रानी की हिंदू भावनाओं का विशेष ख्याल रखा। भवन के अंदर आँगन में तुलसी का चौरा है और सामने दालान में एक मंदिर के चिह्न हैं। दीवारों में मूर्तियों के लिये आले बने हैं। कहीं-कहीं दीवारों पर कृष्णलीला के चित्र हैं, जो बहुत फीके पड़ गए हैं। इसी प्रकार टोडरमल के महल या तानसिंह के महल में हिंदू प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। निष्कर्ष अंत में संक्षिप्त, संतुलित एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें- इस प्रकार फतेहपुर सीकरी के स्थापत्य में अकबर के ‘सुलह-ए-कुल’ की नीति का बिंब हिंदू-मुस्लिम स्थापत्य के सामंजस्य के रूप में देखा जा सकता है।</s>
<s>[INST]भारतीय संदर्भ में मानसून के निवर्तन की ऋतु को स्पष्ट करें। साथ ही मानसूनी वर्षा की विशेषताओं पर चर्चा करें।[/INST]उत्तर : भूमिका में: मानसून के निवर्तन की ऋतु के बारे में बताते हुए उत्तर प्रारंभ करें- अक्तूबर और नवंबर के महीनों को मानसून के निवर्तन की ऋतु कहा जाता है। विषय-वस्तु विषय-वस्तु के पहले भाग में भारतीय प्रायद्वीप में सूर्य की स्थिति और वायुदाब की पेटियों पर चर्चा करते हुए मानसून के निवर्तन की ऋतु के बारे में बताएँ- सितंबर के अंत में सूर्य के दक्षिणायन होने की स्थिति में गंगा के मैदान पर स्थित निम्न वायुदाब की पेटी भी दक्षिण की ओर खिसकना आरंभ कर देती है। फलस्वरूप दक्षिण-पश्चिमी मानसून कमज़ोर पड़ने लगता है। सितंबर के पहले सप्ताह में मानसून पश्चिमी राजस्थान से लौटना शुरू होता है एवं अंत तक राजस्थान, गुजरात, पश्चिमी गंगा मैदान तथा मध्यवर्ती उच्चभूमियों से लौट जाता है। गौरतलब है कि अक्तूबर के आरंभ में मानसून बंगाल की खाड़ी के उत्तरी भागों में स्थित रहता है तथा नवंबर के शुरू में कर्नाटक और तमिलनाडु की ओर बढ़ जाता है। मानसून के निवर्तन की ऋतु में उत्तरी भारत में मौसम सूखा होता है, जबकि प्रायद्वीप के पूर्वी भागों में वर्षा होती है। दिसंबर के मध्य तक निम्न वायुदाब का केंद्र प्रायद्वीप से संपूर्ण रूप से हट जाता है। मानसून के निवर्तन की ऋतु की विशेषता यह है कि इस समय आकाश स्वच्छ रहता है और तापमान बढ़ने लगता है एवं भूमि में नमी मौजूद होती है। यह कार्तिक मास की ऊष्मा कहलाती है। अंतत: अक्तूबर माह के उत्तरार्द्ध में तापमान तेज़ी से गिरने लगता है जिसे उत्तरी भारत में विशेष रूप से महसूस किया जा सकता है। इस ऋतु की व्यापक वर्षा का संबंध चव्रवातीय अवदाबों के कारण माना जाता है जो अंडमान समुद्र में पैदा होते हैं और दक्षिणी प्रायद्वीप के पूर्वी तट को पार करते हैं। विषय-वस्तु के दूसरे भाग में हम मानसूनी वर्षा की विशेषताओं पर चर्चा करेंगे- दक्षिण-पश्चिमी मानसून से होने वाली वर्षा मौसमी होती है जो जून से सितंबर माह के दौरान होती है। मानसूनी वर्षा मुख्य रूप से उच्चावच अथवा भूआकृति द्वारा नियंत्रित होती है। समुद्र से दूरी बढ़ने के साथ ही मानसूनी वर्षा की मात्रा भी घटती जाती है। मानसूनी वर्षा के आर्द्र दौरों के मध्य कुछ सूखे अंतराल भी आते हैं जिन्हें विच्छेद कहा जाता है। ग्रीष्मकालीन वर्षा मूसलाधार होती है जिससे मृदा अपरदन होता है। देश में होने वाली कुल वर्षा का तीन-चौथाई भाग दक्षिण-पश्चिमी मानसून की ऋतु के दौरान प्राप्त होता है। मानसूनी वर्षा का स्थानिक वितरण भी असमान है (12cm. से 250 cm. से अधिक वर्षा के मध्य) कई बार पूरे देश में या इसके एक भाग में वर्षा का आरंभ काफी देर से होता है। कई बार वर्षा सामान्य समय से पहले समाप्त हो जाती है। निष्कर्ष :अंत में संक्षिप्त, संतुलित एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें-</s>
<s>[INST]लॉर्ड डलहौजी ने अपनी सृजनात्मकता के बल पर आधुनिक भारत की नींव रखी। चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : भूमिका में: लॉर्ड डलहौजी की उपलब्धियों को बताते हुए उत्तर आरंभ करें- लॉर्ड डलहौजी ने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार का कोई अवसर नहीं खोया। साथ ही अपनी सृजनात्मक क्षमता के बल पर आधुनिक भारत की नींव रखी। विषय-वस्तु विषय-वस्तु के मुख्य भाग में लॉर्ड डलहौजी द्वारा किये गए सृजनात्मक कार्यों पर विस्तार से चर्चा करें- 1803 में प्रथम रेलवे लाइन बिछाई गई तथा शीघ्र ही समस्त भारत को रेलवे लाइनों द्वारा जोड़ा गया। डलहौजी द्वारा आरंभ की गई रेलवे लाइन बिछाने की यह योजना भारत में रेलवे के भावी प्रसार का आधार बनी। इससे भौगोलिक दूरी में कमी आई तथा भौगोलिक एकता की स्थापना हुई। डलहौजी ने शिक्षा में सुधार के लिये चार्ल्स वुड की अध्यक्षता में प्राथमिक से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक की शिक्षा हेतु एक व्यापक योजना बनाई। यही योजना आधुनिक शिक्षा प्रणाली की आधारशिला रही जिसमें ज़िलों में एंग्लो-वर्नाकुलर स्कूल तथा लीगे प्रेसिडेंसी नगरों में लंदन विश्वविद्यालय के आदर्श पर एक-एक विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। लॉर्ड डलहौजी के समय पहली बार सार्वजनिक निर्माण विभाग की स्थापना की गई। इसके द्वारा सार्वजनिक महत्त्व के कई कार्याें के लिये धन व्यय किया जाने लगा। सार्वजनिक निर्माण विभाग की स्थापना के बाद नहरों, पुलों एवं ग्रांड ट्रंक रोड के निर्माण में तेज़ी आई। वाणिज्य संबंधी सुधार के कार्य भी डलहौजी के समय किये गए। कराची, बंबई और कलकत्ता के बंदरगाहों का विकास किया गया तथा बहुत से प्रकाश स्तंभों का निर्माण कराया गया। टेलीग्राफ का प्रारंभकर्ता भी डलहौजी को ही माना जाता है, उसने कलकत्ता से लेकर पेशावर, बंबई तथा मद्रास तक देश के भिन्न-भिन्न भागों को टेलीग्राफ व्यवस्था से जोड़ दिया। आधुनिक डाक व्यवस्था की आधाराशिला भी डलहौजी के समय ही रखी गई। 1854 में पारित पोस्ट ऑफिस एक्ट के द्वारा देश में कहीं भी निश्चित शुल्क की दर पर पत्र भेजा जा सकता था। देश में पहली बार डलहौजी के समय डाक टिकटों का प्रचलन आरंभ हुआ। निष्कर्ष अंत में संतुलित, संक्षिप्त एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें- इस प्रकार डलहौजी के आधुनिकीकरण के प्रयास औपनिवेशिक हितों से प्रेरित थे, लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि उसके प्रयासों ने नए भारत के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।</s>
<s>[INST]भारतीय राष्ट्रवाद की जो धारा असहयोग एवं खिलाफत आंदोलनों से निकली थी, वह नेहरू रिपोर्ट पर सर्वसहमति के अभाव में सतत् नहीं रह सकी। नेहरू रिपोर्ट की अनुशंसाओं के आधार पर कथन की विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : उत्तरः असहयोग और खिलाफत आंदोलन भारतीय राष्ट्रवाद की यात्र में महत्त्वपूर्ण चरण हैं। इनके परिणामस्वरूप भारतीय राष्ट्रवाद के चरित्र में बदलाव आया और इसके प्रसार तथा पहुँच का क्षेत्र विस्तृत हुआ। असहयोग आंदोलन के कारण राष्ट्रवाद की भावना महिलाओं, बच्चों, युवाओं, कृषकों आदि तक पहुँची। अभी तक जो भावना उच्च वर्ग या शहरों तक ही सीमित थी, वह अब ग्रामीण क्षेत्रें में भी विस्तृत हुई। वहीं, खिलाफत आंदोलन के परिणामस्वरूप हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रदर्शन हुआ। किंतु राष्ट्रवाद की यह धारा 20वीं शताब्दी के तीसरे दशक के अंत तक छिन्न-भिन्न हो गई। नेहरू रिपोर्ट की असफलता ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई। नेहरू रिपोर्ट में अनेक सिफारिशें की गईं। जैसे- डोमिनियन स्टेट्स का दर्जा देना। अधिकारों की ऐसी घोषणा की जाए, जिसमें भारत के सभी नागरिकों के लिये धार्मिक और राजनैतिक स्वतंत्रता का आश्वासन हो। सिंध और उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत, जहाँ मुसलमान बहुसंख्यक हैं, को नए प्रांत बना दिया जाए। इसमें सांप्रदायिक आधार पर अलग निर्वाचक मंडल की मांग को अस्वीकार किया गया था। इसमें सिफारिश की गई कि केवल अल्पमत वाले स्थानों पर ही मुस्लिम वर्ग के लिये स्थान आरक्षित होंगे न कि बहुमत वाले स्थानों पर भी। धर्म का हर प्रकार से राज्य से पृथक्करण। यद्यपि ये प्रगतिशील मांगें थीं किंतु मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम वर्ग ने आरक्षित स्थानों की मांग को नहीं छोड़ा और जिन्ना ने ‘चौदह सूत्री’ मांग पेश की जिसके कारण असहयोग आंदोलन और खिलाफत आंदोलन में स्थापित हुई। हिन्दू-मुस्लिम एकता ने सांप्रदायिक स्वरूप धारण कर लिया। इसके अतिरिक्त असहयोग और खिलाफत आंदोलन के दौरान अहिंसक और उचित तरीकों से स्वराज की मांग का लक्ष्य निर्धारित किया गया किंतु इसमें डोमिनियन स्टेट्स की मांग ने कॉन्ग्रेस के भीतर ही आक्रोश पैदा कर दिया। निष्कर्षतः कह सकते हैं कि ऐसा प्रस्ताव जिसको सभी भारतीयों का व्यापक राजनीतिक समर्थन प्राप्त हो, को तैयार करने के लिये नेहरू रिपोर्ट के रूप में किया गया प्रयास असफल रहा। यद्यपि यह रिपोर्ट स्वयं में प्रगतिशील विचारों (वयस्क मताधिकार, लैंगिक समता, धर्मनिरपेक्षता) को समाहित किये हुए थी किंतु तत्कालीन परिस्थितियों ने इसे असफल बना दिया। इसके परिणामस्वरूप उपजी सांप्रदायिकता अंततः विकृत रूप धारण कर भारत के विभाजन के रूप में परिलक्षित हुई।</s>
<s>[INST]‘मीमांसा दर्शन तर्कपूर्ण चिंतन, विवेचन तथा अनुप्रयोग की कला है।’ कथन को स्पष्ट करते हुए इस दर्शन के प्रमुख तत्त्वों की चर्चा करें।[/INST]उत्तर : भारत के छः आस्तिक दर्शनों में मीमांसा दर्शन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके प्रवर्तक जैमिनी हैं। मीमांसा शब्द का वास्तविक अर्थ तर्क-पूर्ण चिंतन, विवेचन तथा अनुप्रयोग की कला है। यह विचार पद्धति वैदिक साहित्य के भाग रहे संहिता तथा ब्राह्मणों के विश्लेषण पर केंद्रित थी। मीमांसा दर्शन के अनुसार वेदों में शाश्वत सत्य निहित है तथा यदि व्यक्ति को धार्मिक श्रेष्ठता, स्वर्ग और मुक्ति प्राप्त करनी है, तो उसे वेदों द्वारा नियत सभी कर्तव्य पूरे करने होंगे। इस दर्शन के अनुसार मुक्ति अनुष्ठानों के निष्पादन से ही संभव है। साथ ही, मुक्ति के उद्देश्य से किये जा रहे अनुष्ठानों को पूर्णता से संपन्न करने के लिये उनमें निहित तर्क को समझना भी आवश्यक है। मीमांसा दर्शन के अनुसार व्यक्ति के कर्म अपने गुण दोषों के लिये उत्तरदायी होेते हैं तथा गुणयुक्त कर्मों के प्रभाव की अवधि तक व्यक्ति स्वर्ग का आनंद प्राप्त कर सकता है, किंतु वे जन्म और मृत्यु से मुक्त नहीं होंगे। मुक्ति को प्राप्त करने के पश्चात् वे इस अनंत चक्र से छूट जाएंगे। मीमांसा में महासृष्टि तथा खंडसृष्टि नाम से दो सृष्टियों का उल्लेख है, जबकि प्रलय, महाप्रलय और खंडप्रलय नाम से तीन प्रलयों का उल्लेख है। किसी स्थल विशेष का भूकंप आदि से विनाश होना खंडप्रलय तथा वहाँ नए जीवन का उदय खंडसृष्टि है। महासृष्टि में परमाणुओं से द्वयणुकादि द्वारा पंचमहाभूत पर्यंत नवग्रहादिकों की सृष्टि होती है। विद्वानों ने अनुमान सिद्ध ईश्वर का निराकरण किया है तथा वेद सिद्ध ईश्वर को स्वीकार किया है। पदार्थ विवेचना की चार कोटियाँ मानी गई हैं- ♦ प्रमाणः जिसके विषय का निश्चयात्मक ज्ञान हो और विषय का निर्धारण हो। ♦ प्रमेयः प्रमाण के द्वारा जिसका ज्ञान हो। ♦ प्रमितीः प्रमाण के द्वारा जिस किसी भी विषय का निश्चयात्मक ज्ञान हो। ♦ प्रमाताः जो प्रमाण के द्वारा प्रमेय ज्ञान को जानता है। यद्यपि मीमांसा तर्क-पूर्ण चिंतन को प्रोत्साहित करती है परंतु साथ ही यह समाज में वर्ग विभेद को भी बढ़ावा देती है। चूँकि यह मुक्ति के लिये अनुष्ठानों को आवश्यक मानती है, जिसकी उचित समझ सामान्य लोगों को नहीं होती। अतः उन्हें पुरोहितों की सहायता लेनी पड़ती है, जो कि स्पष्ट रूप से ब्राह्मणाें के वर्चस्व को स्थापित करता है।</s>
<s>[INST]चार्टिस्ट आंदोलन राजनीतिक सुधारों के वेश में सामाजिक क्रांति का प्रयत्न था। व्याख्या करें।[/INST]उत्तर : 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में इंग्लैंड में मजदूर वर्ग के हितों के संरक्षण के लिये चलाया गया आंदोलन ही चार्टिस्ट आंदोलन कहलाता है। औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप इंग्लैंड में अनेक नवीन औद्योगिक केंद्रों की स्थापना हुई जिससे ब्रिटेन के विभिन्न क्षेत्रें से लोग यहाँ आकर बसने लगे। किंतु सामाजिक-आर्थिक विषमता के कारण श्रमिकों की स्थिति गंभीर से गंभीरतम होती गई। इसी दुरावस्था को दूर करने के लिये श्रमिक वर्ग ने संसद के समक्ष अपनी मांगें रखीं। चूँकि ये मांगें एक चार्टर के रूप में थीं, अतः यह आंदोलन चार्टिस्ट आंदोलन कहलाया। आंदोलनकारियों ने मांगों का एक दस्तावेज तैयार किया, जिसे ‘जनता का आज्ञापत्र’ कहा गया। इसमें छः मांगें थीं। सभी को वयस्क मताधिकार प्राप्त हो। निचले सदन की सदस्यता के लिये न्यूनतम संपत्ति की शर्त समाप्त हो। संसद का वार्षिक चुनाव हो। मतदान गुप्त हो। संसद सदस्यों को वेतन दिया जाए। संसद क्षेत्र समान हों। उपर्युक्त मांगों से यह पूर्णतया स्पष्ट हो गया कि यह एक राजनीतिक कार्यक्रम था। किंतु इन राजनीतिक सुधारों की मांग के पीछे आर्थिक और सामाजिक विषमता ही उत्तरदायी थी। चूँकि नगरीय क्रांति के फलस्वरूप स्थापित औद्योगिक नगरों में मज़दूर वर्ग अनेक समस्याओं से ग्रसित था। अतः वयस्क मताधिकार और निचले सदन की सदस्यता प्राप्त कर वे अपने अधिकारों को सुनिश्चित कर सकते थे। राजनीतिक हिस्सेदारी के माध्यम से समाज विशेषकर मजदूर वर्ग में जागरूकता आती और उनमें समता (संसद क्षेत्र समान हो) की भावना स्थापित होती। इससे सामाजिक क्रांति का आविर्भाव होता है। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि चार्टिस्ट आंदोलन एक ऐसा प्रयत्न था, जिसके अंतर्गत राजनैतिक सुधारों के माध्यम से सामाजिक क्रांति लाने का उद्देश्य निहित था। इसका उद्देश्य समाज में आमूल-चूल परिवर्तन करके मजदूरों की दशा में सुधार करना था। यद्यपि यह आंदोलन असफल रहा तथापि इसके दूरगामी परिणाम रहे।</s>
<s>[INST]पश्चिम और दक्षिण भारत में धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आंदोलनों का प्रसार तथा उनका स्वरूप उत्तर भारत से काफी हद तक भिन्नता दर्शाता है। कथन की सकारण विवचेना करें।[/INST]उत्तर : 19वीं शताब्दी के धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलनों का भारतीय इतिहास में विशेष स्थान है। यह आंदोलन बहुमुखी स्वरूप और व्यापकता लिये हुए था, इसी कारण इसने देश में व्याप्त तत्कालीन जड़ता को समाप्त करने और आम जन-जीवन को बदलने का प्रयास किया। इसके पथ प्रदर्शकों ने जहाँ एक ओर धार्मिक एवं सामाजिक सुधाराें का आह्नान किया, वहीं दूसरी ओर, इसने भारत के अतीत को उजागर करके भारतवासियों के मन में आत्मसम्मान एवं आत्मगौरव जगाने का प्रयास किया। इन आंदोलनों के पीछे दो शक्तियाँ कार्य कर रही थीं_ प्रथम, अंग्रेजी शिक्षा और संस्कृति के प्रभाव से अवतरित हुई थी तो दूसरी, ईसाई मिशनरियों के कार्यों के विरुद्ध तीखी प्रतिक्रिया के रूप में हिंदुओं में उत्पन्न हुई। 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में ही इनका आविर्भाव हो चुका था, जो शताब्दी के अंत होते-होते संपूर्ण भारत (पश्चिम एवं दक्षिण) में फैल गया। किंतु उत्तर भारत के सुधार आंदोलन दक्षिण या पश्चिम भारत की तुलना में काफी भिन्नता लिये हुए था। इसे निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है। उत्तर भारत में धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आंदोलनों का प्रसार एवं स्वरूपः उत्तर एवं पूर्वी भारत में सुधारकों ने किताबी आदर्शवाद को यथार्थ बनाने का प्रयास किया (यंग बंगाल आंदोलन)। इनके आदर्श और सामाजिक यथार्थता में कोई मेल नहीं था। बंगाल में सुधारकों ने अंग्रेजी भाषा को प्रधानता दी न कि स्थानीय भाषा को। दक्षिण के विपरीत बंगाल में कुशल नेतृत्व उपलब्ध था। इस कारण इस क्षेत्र के सुधार आंदोलन सतत् एवं दूरगामी थे। पश्चिम एवं दक्षिण भारत में प्रसार एवं स्वरूपः पश्चिम भारत में बंगाल की तुलना में सुधारक अधिक व्यावहारिक और यथार्थवादी थे। पश्चिम भारत में सुधारकों ने देशी भाषाओं का प्रयोग किया जिस कारण यह अधिक लोकप्रिय हुआ एवं जनता के निकट पहुँचा। दक्षिण भारत में बंगाल के विपरीत आधुनिक शिक्षा की गति धीमी थी। दक्षिण भारत में ब्राह्मण ही प्रमुख उच्च पदों पर आसीन थे। ऐसे में वे सामाजिक ढाँचे में परिवर्तन लाकर स्वयं की सर्वोच्चता को क्षीण नहीं करना चाहते थे। इस प्रकार निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि उत्तर भारत के धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलन पश्चिम एवं दक्षिण भारत के आंदोलनों से मौलिक रूप से कुछ भिन्न थे। यहाँ तक कि पश्चिम एवं दक्षिण के आंदोलनों में भी भिन्नता देखी जा सकती है। किंतु सभी का लक्ष्य तत्कालीन सामाजिक जड़ता को समाप्त करके समाज को प्रगतिशील बनाना था।</s>
<s>[INST]‘थाट’ से आप क्या समझते हैं? ‘थाट’ एवं ‘राग’ की मौलिक विशेषताओं पर तुलनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत कीजिये।[/INST]उत्तर : ‘थाट’ (संगीत) हिन्दुस्तानी संगीत की एक विधा है, जिसमें सदैव सात भिन्न अलाप होते हैं। इन्हें स्वर कहा जाता है। जैसे- सा, रे, गा, मा आदि। ‘थाट’ कला हिन्दुस्तानी संगीत का आधार है। भारतीय संगीत की प्रमुख पुस्तक ‘संगीत रत्नाकार’ में तत्कालीन संगीत की कुछ तकनीकी शब्दावलियों का प्रयोग किया गया है। जैसे ‘ग्राम’ और ‘मूर्घना’। 11वीं शताब्दी के पश्चात् भारतीय संगीत पर मध्य और पश्चिम एशिया का प्रभाव पड़ने लगा। 15वीं शताब्दी तक यह प्रभाव स्पष्ट हो गया। फलस्वरूप ‘ग्राम’ और ‘मूर्घना’ का स्थान ‘थाट’ ने ले लिया। ‘थाट’ संगीत की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैंः इसमें सात स्वर होते हैं। (सा रे गा मा पा धा नि) यह आधुनिक राग बिलावल का मेल आरोह है। वर्तमान में उक्त सात स्वरों के अतिरिक्त पाँच अन्य स्वर भी प्रचलित हैं। ‘राग’ ‘थाट’ की अपेक्षा मौलिक संगीत विधा है। इस रूप में ‘राग’ और ‘थाट’ में समानताओं और विषमताओं को निम्नलिखित प्रकार से समझा जा सकता है- सभी ज्ञात ‘राग’ 12 ‘थाट’ स्वरों का ही समूह है। इस रूप में ‘थाट’ व्युत्पन्न है, जबकि ‘राग’ मौलिक है। जनजातियों और लोकगीतों ने अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति को रागों में व्यक्त किया है। इन्हीं रागों को कालांतर में संगीत विज्ञानियों ने स्वरग्राम या सरगम (थाट) में वर्गीकृत किया। विभिन्न रागों पर विदेशी प्रभाव पड़ने से ही ‘थाट’ का आविर्भाव हुआ इस प्रकार ‘थाट’ और ‘राग’ संगीत विधा में भेद किया जा सकता है। ‘थाट’ संगीत विधा विशुद्ध रूप से भारतीय नहीं है किंतु यह भारतीय कला में इतनी रच गई कि अब भारत की पहचान बन गई है और हिन्दुस्तानी संगीत की महत्त्वपूर्ण विधा है।</s>
<s>[INST]1967 का आम चुनाव कई मामलों में विशिष्ट था, जिसमें कुछ ऐसी नई प्रवृत्तियों का जन्म हुआ जिन्होंने भारतीय राजनीति पर मूलगामी एवं गहरी छाप छोड़ी। विवेचना करें।[/INST]उत्तर : 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्र होने के पश्चात् संघीय ढाँचे के तहत भारत में संसदीय लोकतंत्र की स्थापना हुई। शुरुआती दौर में कॉन्ग्रेस पार्टी का केंद्र एवं राज्य सरकारों पर एकाधिकार रहा, क्योंकि लोग कॉन्ग्रेस को भारतीय स्वतंत्रता का मूल कारक मानते थे। पंरतु 1967 का आम चुनाव जवाहरलाल नेहरू तथा लाल बहादुर शास्त्री जैसे नेताओं की मृत्यु के बाद हो रहा था। कॉन्ग्रेस के भीतर भी सत्ता के लिये आपसी खींच-तान चल रही थी। 1967 का आम-चुनाव ‘नेहरू के बाद कौन’ का भी उत्तर देने जा रहा था। इस चुनाव के उपरांत नई प्रवृत्तियों का जन्म हुआ जिनका भारतीय राजनीति के ऊपर दूरगामी प्रभाव पड़ा, इनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैंः 1967 के चुनाव में लोकसभा में कॉन्ग्रेस की सीटों की संख्या घटकर 284 रह गई थी तथा 8 राज्यों में गैर-कॉन्ग्रेसी सरकारों की स्थापना हुई। यह भारतीय राजनीति के ऊपर कॉन्ग्रेस के एकाधिकार के खत्म होने शुरुआत थी। जिन राज्यों में गैर-कॉन्ग्रेसी सरकार की स्थापना हुई थी वहाँ कोई विशेष दल स्पष्ट बहुमत नहीं पा सका था, अतः गठबंधन सरकारों की स्थापना एवं गठबंधन हेतु विपरीत विचारधारा के दल भी साथ आए। सत्ता के लालच में दल-बदल की प्रवृत्ति का जन्म हुआ। विधायकों की स्वामी-भक्ति स्थायी नहीं रही तथा अल्पकालिक सरकारों की स्थापना हुई। 1967-70 के मध्य बिहार में सात तथा उत्तर प्रदेश में चार सरकारों का गठन किया गया। इस पर 1986 के दलबदल निषेध अधिनियम के बाद लगाम लगाई जा सकी। कॉन्ग्रेस के भीतर भी शक्ति का निर्णय इस चुनाव के द्वारा हो गया था। सिंडीकेट गुट के नेता के- कामराज सहित उनके सभी सहयोगी चुनाव हार गए तथा इंदिरा निर्विवाद रूप से कॉन्ग्रेस की नेता के रूप में उभर कर सामने आई। 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया से अलग होकर सीपीएम ने नक्सली आंदोलन की शुरुआत की थी। सीपीएम ने 1967 के चुनावों में हिस्सा लिया तथा पश्चिम बंगाल में गठबंधन सरकार की स्थापना की। सीपीएम ने अपने बागी नेताओं के विरोध के दमन के लिये सरकारी मशीनरी का उपयोग किया परंतु यह नक्सली आंदोलन अन्य राज्यों में भी फैल गया, जो आज भी एक बड़ी समस्या है। 1967 के आम चुनाव में 61ः वोटिंग हुई थी जो कि अब तक सर्वाधिक थी। 1962 में चीन तथा 1965 में पाकिस्तान के साथ युद्ध, खाद्यान्न संकट तथा नेहरू जैसे सर्वमान्य नेता की मृत्यु आदि बड़ी समस्याओं से जूझने के बावजूद भारत में लोकतंत्रत्मक प्रणाली अक्षुण्ण रही। यद्यपि कॉन्ग्रेस का प्रभुत्व कम हुआ था परंतु कमजोर विपक्ष के कारण अब भी यह सर्वाधिक प्रभावशाली पार्टी थी तथा ‘नेहरू के बाद कौन’ का उत्तर इंदिरा गांधी के रूप में मिल चुका था।</s>
<s>[INST]प्रथम विश्व युद्ध के उपरांत सामाजिक संरचना में मौलिक परिवर्तन दर्ज किये गए, जिनमें कला एवं साहित्य के क्षेत्र में हुए परिवर्तन उल्लेखनीय थे। स्पष्ट करें।[/INST]उत्तर : प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम इतने व्यापक और प्रभावकारी थे कि इनके साथ ही एक युग का अंत हो गया। विश्व युद्ध के पश्चात् 19वीं शताब्दी की अनेक प्रवृत्तियाँ पुरानी पड़ गईं और मानव समाज उनसे आगे निकल गया था। राष्ट्रीयता की भावना क्षीण होने लगी थी और नवीन विचारधाराएँ सामाजिक संगठन को एक नए रूप में बांध रही थी। परिणामस्वरूप सामाजिक संरचना में मौलिक परिवर्तन दर्ज किये गए। इन मौलिक परिवर्तनों को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है- प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् विदेशों में रह रहे अल्पसंख्यकों की समस्या के समाधान का प्रयत्न किया गया। स्त्रियाँ कार्यालयों, कारखानों आदि में काम करने लगीं, जिससे उनकी स्थिति में सुधार हुआ। नस्लों की समानता की भावना उत्कृष्ट हुई। इस विचार द्वारा विश्व में अंतर्राष्ट्रीयता की भावना को बल मिला। धार्मिक सर्वोच्चता का स्थान राष्ट्रीय सर्वोच्चता ने ले लिया। विज्ञान के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण उन्नति दर्ज की गई। साथ ही शिक्षा के प्रसार ने समाज को तार्किक बनाया। सामाजिक संरचना में उपर्युक्त परिवर्तनाें के साथ कला और साहित्य के क्षेत्र में भी अद्वितीय परिवर्तन हुए। ये परिवर्तन निम्नलिखित हैः कला के क्षेत्र मेंः संगीत के क्षेत्र में एडवर्ड मैकडोनल, रिचर्ड स्ट्रास, जासिकाल्यूज आदि संगीतकारों ने संगीत को नई दिशा दी। वास्तुशिल्प का विकास इस काल की पम्रुख घटना है। अमेरिका, इंग्लंडै आदि स्थानों पर बने चच र्आधुनिकता का एहसास करवाते हैं। चित्रकला को पाब्लो पिकासो, आनरे मातेस, ग्रांड वुड और जॉर्ज बिलोज आदि ख्याति प्राप्त कलाकारों ने आगे बढ़ाया। साहित्य के क्षेत्र मेंः इस काल का साहित्य 18वीं एवं 19वीं शताब्दी के साहित्य से भिन्न हो गया। साहित्य की विषय-वस्तु उच्च और धनी मध्यम वर्ग के स्थान पर निम्न वर्ग हो गया। ख्याति प्राप्त नाटककार जॉर्ज बनार्ड शॉ और ओ नील के नाम भी साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय हैं। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि प्रथम विश्व युद्ध के नकारात्मक परिणामों के साथ सामाजिक परिवर्तन के सकारात्मक पक्ष ने आने वाली पीढि़यों को महत्त्वपूर्ण रूप से बदला। इस सकारात्मक पक्ष में कला और साहित्य में हुए परिवर्तन विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।</s>
<s>[INST]नदी द्वारा निर्मित रचनात्मक स्थलरूपों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण डेल्टा के निर्माण की आवश्यक दशाएँ बताते हुए उसके वर्गीकरण को सोदाहरण समझाएँ।[/INST]उत्तर : भूमिका में: नदी के निक्षेपात्मक स्थलरूपों के बारे में जानकारी देते हुए उत्तर आरंभ करें- नदी के निक्षेप द्वारा विभिन्न प्रकार के स्थलरूपों का निर्माण होता है, जिन्हे रचनात्मक स्थलरूप कहते है। जलोढ़ पंख, जलोढ़ शंकु, बालुका तट, प्राकृतिक तटबंध, बाढ़ का मैदान और डेल्टा इनके कुछ प्रमुख निक्षेपात्मक स्थलरूप के उदाहरण है। विषय-वस्तु में: विषय-वस्तु के पहले भाग में हम नदी डेल्टा का सामान्य परिचय देते हुए उसके निर्माण हेतु आवश्यक दशाएँ बताएंगे- जब नदी का वेग घटता है तो यह अपने साथ लाये पदार्थ यथा शैलखण्ड, रेत और गाद संबंधी भार को जमा करना प्रारंभ कर देती है। जब नदी सागर अथवा झील में प्रवेश करती है तो उसके प्रवाह में अवरोध एवं वेग में कमी के कारण नदी के मुहाने पर बड़ी मात्रा में रेत और गाद का निक्षेपण या जमाव होने लगता है। इस प्रकार से निर्मित स्थलरूप डेल्टा कहलाता है। डेल्टा के निर्माण हेतु आवश्यक दशाएँ- डेल्टा के निक्षेप हेतु उचित स्थान का होना आवश्यक नदी का आकार तथा आयतन अधिक हो एवं उसका मार्ग भी लंबा हो ताकि वह अपने साथ अधिक पदार्थों का परिवहन मुहाने तक कर सके मुहाने के पास नदी का वेग अत्यन्त मन्द होना चाहिये। जिस सागर में नदी गिरती है, उसकी सागरीय लहरों का वेग कम होना चाहिये। विषय-वस्तु के दूसरे भाग में हम नदी डेल्टा के वर्गीकरण पर प्रकाश डालेंगे- आकृति के अनुसार डेल्टा का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया जाता है- चापाकार डेल्टा इसका निर्माण उस समय होता है जब नदी की मुख्य धारा द्वारा पदार्थों का निक्षेप बीच में अधिक होता है। इससे बीच का भाग निकला हुआ एवं किनारे का भाग संकरा होता है। इस प्रकार के डेल्टा का आकार वृत्त के चाप या धनुष के समान होता है। उदाहरण- गंगा नदी का डेल्टा, राइन नदी का डेल्टा, नील नदी एवं हवांगहो, सिंधु, मीकांग नदियों का डेल्टा। पंजाकार डेल्टा इस प्रकार का डेल्टा प्राकृतिक नदी तटबंधों के जलीय भाग में मनुदय की उंगलियों के आकार में धारा की शाखाओं के बंटने से निर्मित होता है। इनका आकार पक्षियों के पैरों के पंजा से मिलता है। उदाहरण- मिसीसीपी नदी का डेल्टा ज्वारनदमुख डेल्टा नदियों की एस्चुअरी के भर जाने से निर्मित लम्बे तथा संकरे डेल्टा को ज्वारनदमुख डेल्टा कहते है। उदाहरण- भारत में नर्मदा तथा तापी नदियों द्वारा बनाया गया डेल्टा तथा मैकेन्जी, एल्ब, ओब, हडसन आदि नदियों के डेल्टा। अग्रवर्धी (दन्त आकार) डेल्टा यह एक सममित (Symmetrical) डेल्टा है जो अक्सर सागर की सीधी तट रेखा पर नदी के प्रवेश से बनता है। इसमें अवसादी पदार्थ नदी के मुहाने के दोनों ओर समान रूप से जमा होता है। उदाहरण- इटली की टाइबर नदी द्वारा बनाया गया डेल्टा निष्कर्ष अंत में संतुलित, संक्षिप्त एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें। नोट- आप चाहे तो डेल्टा के वर्गीकरण में डायग्राम भी बना सकतें है।</s>
<s>[INST]संगम साहित्य से दक्षिण भारत की राजनीतिक स्थिति की अपेक्षा सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति के विषय में अधिक जानकारी मिलती है। चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : भूमिका में: संगम साहित्य का ऐतिहासिक स्रोत के रूप में उसके महत्त्व को बताते हुए जानकारी दें- संगम साहित्य दक्षिण भारत का इतिहास जानने का प्रमुख स्रोत है। इसका संकलन लगभग 30 ई.पू. से 200 ई.पू. के मध्य किया गया। इस साहित्य से राजनीतिक क्षेत्र में राज्य के गठन के विषय में जानकारी मिलती है, जिसमें मात्र सेना के दल होते थे। परंतु कर प्रणाली, संग्रह प्रणाली तथा न्याय व्यवस्था के विषय में बहुत कम जानकारी मिलती है। राजाओं का अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन मिलता है, जबकि पुरातात्त्विक साक्ष्यों द्वारा राजनीतिक वर्णन की पुष्टि बहुत कम होती है। विषय-वस्तु में: विषय-वस्तु के पहले भाग में हम तत्कालीन अर्थव्यवस्था के बारे में संगम साहित्य द्वारा प्राप्त जानकारी पर चर्चा करेंगे- राजनीतिक इतिहास के विपरीत संगम साहित्य में तत्कालीन समाज, धर्म, अर्थव्यवस्था के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। इन ग्रंथों में युद्धों तथा लूट-पाट की चर्चा मिलती है। ऐसा प्रतीत होता है कि व्यापार तथा लूट राज्य की आय के मुख्य साधन रहे होंगे। लेकिन कालांतर में इनके स्थान पर कृषि को महत्त्व दिया जाने लगा। कावेरी नदी डेल्टा वाला प्रदेश अपनी उर्वरता के लिये प्रसिद्ध था। कृषि आय द्वारा ही प्रशासनिक तथा सैन्य व्यय की पूर्ति की जाती थी। वस्त्र उद्योग का विकास हुआ, विदेशी व्यापार के माध्यम से भारी मात्रा में सोना प्राप्त होता था, जो दक्षिण भारत की समृद्धि का महत्त्वपूर्ण कारण था। संगम काल में नियमित कर प्रणाली के अभाव के बावजूद काली मिर्च, रेशम, हाथी दाँत आदि के निर्यात ने राजाओं को धनी बना दिया। विषय-वस्तु के दूसरे भाग में हम संगम साहित्य में वर्णित सामाजिक स्थिति पर चर्चा करेंगे- शिल्प्पादिकारम तथा मणिमेखलै जैसी रचनाओं में तत्कालीन सामाजिक स्थिति के विषय में जानकारी मिलती है। संगमकालीन समाज में वर्ण एवं जाति व्यवस्था बहुत सख्त नहीं थी फिर भी ब्राह्मणों को प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त था। वैदिक यज्ञों का प्रचलन था। ब्राह्मणों के पश्चात् वेल्लार वर्ग का स्थान था और इन्हें प्रशासनिक पदों पर नियुक्त किया जाता था। धनी वर्ग पक्के, जबकि निर्धन कच्चे मकानों में रहते थे। सामाजिक विषमता के विरुद्ध कहीं भी विरोध की भावना नहीं थी। महिलाओं को जीवन साथी चुनने की स्वतंत्रता थी किंतु विधवाओं की स्थिति सोचनीय थी। दास प्रथा का उल्लेख नहीं मिलता है। मृत्यु के पश्चात् अग्निदाह तथा समाधिकरण दोनों प्रथाओं का प्रचलन था। निष्कर्ष अंत में संतुलित, संक्षिप्त एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें। इस प्रकार संगम साहित्य राजनीतिक स्थिति की अपेक्षा तत्कालीन समाज की सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति की अधिक महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है।</s>
<s>[INST]विश्व की दो बड़ी पर्वत शृंखलाओं के बारे में बताते हुए पर्वतों के वर्गीकरण को सोदाहरण स्पष्ट करें।[/INST]उत्तर : भूमिका में: पर्वत श्रेणी का सामान्य परिचय देने के साथ विश्व की दोनों बड़ी शृंखलाओं का संक्षिप्त परिचय देते हुए उत्तर प्रारंभ करें- जब विभिन्न युगों में अलग-अलग प्रकार से निर्मित लंबे और संकरे पर्वतों का विस्तार समानांतर रूप में पाया जाता है तो उसे पर्वत शृंखला कहा जाता है। इन्हें पर्वतमाला के नाम से भी जाना जाता है। विश्व की दो बड़ी पर्वत शृंखलाओं के अंतर्गत, उत्तर अमेरिका और दक्षिण अमेरिका प्लेटों के पश्चिमी किनारों के पर्वत श्रेणी अर्थात् कोर्डिलेरा तंत्र और एशिया तथा उत्तरी भारत के पर्वत जो यूरोपियन हिमालय तंत्र की रचना करते हैं, आते हैं। विषय-वस्तु: विषय-वस्तु के प्रथम भाग के तहत दोनों तंत्रों को थोड़ा विस्तार देंगे- विश्व में पाई जाने वाली दो बड़ी पर्वत शृंखलाओं के तहत एक है कार्डिलेरा तंत्र जो उत्तर अमेरिका और दक्षिण अमेरिका प्लेटों के सहारे नवीन पर्वतों की शृंखला है। ये दक्षिण अमेरिका के दक्षिणी सिरे पर स्थित टियराडेल फ्यूगो से आरंभ होकर अलास्का की ऊँची चोटियों तक पैले हुए हैं। दक्षिण एशिया और उत्तरी भारत के पर्वत एक मेखला में ऊपरी मध्य पूर्व से होते हुए यूरोप तथा यूरोपियन आल्पस तक यूरेशियन हिमालय तंत्र की रचना करते हैं। इनमें पिरेनीथ, एपीनाइन, बालकन, टारस, काकेशस, एलबुर्ज, त्यानशान, अल्टाई, हिन्दुकुश, कुनलुन, नानशान, हिमालय, अराकान योमा, पीगूयोमा तथा तनासरीम योमा शामिल हैं। विषय-वस्तु के दूसरे भाग में हम पर्वतों के वर्गीकरण को सोदाहरण बताएंगे- सभी पर्वतों का निर्माण समान रूप से नहीं होता क्योंकि पर्वतों के निर्माण तथा विकास में संपीडन शक्ति, खिंचाव बल, ज्वालामुखी उद्गार, अपरदन आदि का सहयोग होता है। पर्वत के निर्माण में एक से अधिक कारकों का योगदान संभव है परंतु कोई एक कारक सर्वाधिक प्रबल होता है। इनका वर्गीकरण इसी पर आधारित होता है- 1. वलित पर्वत- जब चट्टानों में पृथ्वी की आंतरिक शक्तियों के कारण मोड़ या वलन पड़ता है तो उसे वलित या मोड़दार पर्वत कहते हैं। ये विश्व के सबसे युवा, ऊँचे तथा सर्वाधिक विस्तृत पर्वत हैं। ये महाद्वीपीय किनारों पर या फिर उत्तर से दक्षिण या पश्चिम से पूर्व दिशा में पाए जाते हैं। हिमालय, अल्पाइन पर्वत समूह, रॉकी, एंडीज, अपलेशियन, एटलस काकेशस, एलबुर्ज, हिन्दुकुश आदि वलित पर्वतों के प्रमुख उदाहरण हैं। 2. ब्लाक पर्वत- ब्लाक या अवरोधी पर्वतों का निर्माण तनाव या खिंचाव की शक्तियों द्वारा होता है। खिंचाव के कारण धरातलीय भागों में दारारें या भ्रंश पड़ जाते हैं, जिससे धरातल का कुछ भाग ऊपर उठ जाता है और कुछ भाग नीचे धँस जाता है। इस प्रकार दरारों के समीप ऊँचे उठे भाग को ब्लाक पर्वत कहते हैं। दरार या भ्रंश के कारण अवरोधी पर्वतों का निर्माण होने से इन्हें भ्रंशोत्थ पर्वत भी कहा जाता है। ब्लाक पर्वत का आकार मेज़ के समान होता है। यूरोप महाद्वीप में वासजेस तथा ब्लैक फारेस्ट, पाकिस्तान की ‘साल्टरेंज’ एवं कैलिफिोर्निया की सियरा नेवादा ब्लाक पर्वत के प्रमुख उदाहरण हैं। 3. गुंबदाकार पर्वत जब पृथ्वी के धरातलीय भाग में चाप के आकार में उभार होने से धरातलीय भाग ऊपर उठ जाता है तो उसे ‘गुंबदाकार’ पर्वत कहा जाता है। दक्षिण डकोटा की ‘ब्लैक पहाड़ियाँ’ और न्यूयार्क का एडिरॉन्डाक पर्वत गुंबदाकार पर्वत के उदाहरण है। 4. अवशिष्ट पर्वत- अपरदन शक्तियों द्वारा पर्वतों के अत्यधिक अपरदन के कारण ये कटकर नीचे हो जाते हैं, इसलिये इन्हें घर्षित या अवशिष्ट पर्वत कहते हैं। वर्तमान समय के वलित पर्वत भी आगे चलकर नदी, हिमनद, वायु तुषार द्वारा कटकर तथा घिसकर निम्न पर्वत का रूप धारण कर लेते हैं। भारत के विंध्याचल, अरावली, सतपुड़ा, महादेव, पारसनाथ आदि अवशिष्ट पर्वत के ही उदाहरण हैं। 5. ज्वालामुखीय पर्वत ज्वालामुखी के उद्गार से निस्तृत लावा, राखचूर्ण के संग्रह से ज्वालामुखी पर्वत का निर्माण होता है। ज्वालामुखी पर्वतों का ढाल मुख्य रूप से लावा के स्वभाव तथा विखंडित पदार्थों की मात्रा पर आधारित होता है। किलमंजारों (अफ्रीका), कोटापेक्सी (एंडीज), माउंट रेनियर, हुड और शास्ता (संयुक्त राज्य अमेरिका), फ्यूजीयामा (जापान), विसूवियस (इटली), एकनागुआ (चिली) ज्वालामुखीय पर्वतों के उदाहरण हैं। निष्कर्ष अंत में संक्षिप्त, सारगर्भित एवं संतुलित निष्कर्ष लिखें।</s>
<s>[INST]ताशकंद समझौते के पीछे निहित परिस्थितियों पर प्रकाश डालते हुए समझौते के महत्त्वपूर्ण बिंदुओं पर चर्चा करें।[/INST]उत्तर : भूमिका में: ताशकंद समझौते पर सामान्य चर्चा करते हुए उत्तर प्रारंभ करें- ताशकंद समझौता भारत और पाकिस्तान के बीच 1966 में किया गया एक शांति समझौता था। इसके अनुसार, भारत और पाकिस्तान अपनी शक्ति का प्रयोग एक-दूसरे के खिलाफ नहीं करेंगे और अपने झगड़ों को शांतिपूर्ण ढंग से हल करेंगे। विषय-वस्तु में: विषय-वस्तु के पहले भाग में ताशकंद समझौते की पूर्ववर्ती परिस्थितियों पर चर्चा करते हुए उसके मुख्य बिंदुओं को बताएंगे- भारत-पाकिस्तान के बीच 1965 में हुए युद्ध के समय चीन तथा अमेरिका का झुकाव पाकिस्तान तथा सोवियन संघ का झुकाव भारत की ओर था, इसकी झलक स्पष्ट रूप से देखने को मिली। कालांतर में सोवियत संघ, अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र महासभा के दबाव में दोनों पक्ष युद्ध विराम के लिये तैयार हुए। युद्ध विराम के बाद सोवियत संघ की मध्यस्थता से पाकिस्तान के जनरल अयूब खान तथा भारतीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के मध्य ताशकंद समझौता हुआ। इसके महत्त्वपूर्ण बिंदु निम्नलिखित थे- भारत तथा पाकिस्तान आपसी विवादों को हल करने के लिये बल का प्रयोग न करके शांतिपूर्ण समाधान की कोशिश करेंगे। 1961 के वियना अभिसमय का पालन करेंगे तथा राजनयिक संबंधों को बहाल करेंगे। दोनों देश युद्ध से पूर्व की सीमा रेखा का पालन करेंगे। दोनाें देशों के मध्य आंतरिक मामलों में संबंध, गैर-हस्तक्षेप के सिद्धांत पर आधारित होंगे। दोनों देश एक-दूसरे को लेकर दुर्भावनापूर्ण प्रचार नहीं करेंगे। विषय-वस्तु के दूसरे भाग में इस समझौते के प्रभावों पर चर्चा करेंगे- उपर्युक्त के अतिरिक्त दोनों देश आपसी संबंधों को बेहतर बनाने की प्रतिबद्धता हेतु सभी अधिगृहीत इलाकों से हटकर युद्ध-पूर्व की स्थिति कायम करने पर सहमत हुए। भारत के लिये इसका अर्थ सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कश्मीर के हाजी-पीर दर्रे से हट जाना था, जिसके माध्यम से घुसपैठिये फिर कश्मीर में प्रवेश कर सकते थे। भारतीय प्रधानमंत्री युद्धबंदी हेतु इस शर्त को भी मानने को तैयार हो गए। दूसरी ओर, भारत को यह भय भी था कि कहीं इस शर्त को न मानने पर भारत संयुक्त राष्ट्र संघ में सोवियत संघ का समर्थन न खो दे और साथ ही तकनीकी तथा सैन्य सहायता हेतु भी सोवियत संघ मना न कर दे। निष्कर्ष अंत में संक्षिप्त, सारगर्भित एवं संतुलित निष्कर्ष लिखें। यद्यपि भारत इस समझौते के प्रति सदैव प्रतिबद्ध रहा किंतु पाकिस्तान इन शर्तों का उल्लंघन कर कश्मीर व अन्य क्षेत्रों में आतंकी गतिविधियाँ फैलाता रहा जिसका परिणाम 1971 तथा 1999 में पुन: युद्ध के रूप में सामने आया।</s>
<s>[INST]भूदान तथा ग्रामदान आंदोलनों की चर्चा करें। ये अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में किस सीमा तक सफल रहे। आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये।[/INST]उत्तर : भूमिका में: विनोबा भावे द्वारा शुरू किये गए भूदान तथा ग्रामदान आंदोलनों की पृष्ठभूमि को बताते हुए उत्तर की शुरुआत करें। स्वतंत्रता के पश्चात् कृषि जोतों में असमानता से उत्पन्न आर्थिक विषमता के कारण कृषकों की दशा अत्यंत दयनीय हो गई। भूमिहीन कृषकों की दशा सुधारने हेतु विनोबा भावे ने 1951 में भूदान तथा ग्रामदान आंदोलनों की शुरुआत वर्तमान तेलंगाना के पोचमपल्ली गाँव से की, जिससे भूमिहीन निर्धन किसान समाज की मुख्य धारा से जुड़कर गरिमामय जीवनयापन कर सकें। विषय-वस्तु में: विषय-वस्तु में हम भूदान तथा ग्रामदान आंदोलनों के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे- स्वतंत्रता के बाद लगभग 57 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि कुछ ज़मींदारों के पास थी। विनोबा भावे का मानना था कि भूमि का वितरण सरकार कानून बनाकर न करे अपितु देश भर में एक ऐसा आंदोलन चलाया जाए जिससे ऐसे ज़मींदार जिनके पास आवश्यकता से अधिक भूमि है, स्वेच्छा से ज़रूरतमंद किसानों को दे दें। विनोबा भावे गांधीवादी थे, अत: उन्होंने विभिन्न राज्यों में पदयात्राएँ कीं तथा ज़मींदार एवं भू-स्वामियों से मिलकर आवश्यकता से अधिक भूमि को गरीब किसानों में बाँटने हेतु आग्रह किया। भूदान आंदोलन में पाँच करोड़ एकड़ ज़मीन दान में हासिल करने का लक्ष्य रखा गया। कुछ ज़मींदार जो कई गाँवों के मालिक थे, उन्होंने पूरा-का-पूरा गाँव भूमिहीनों को देने की पेशकश की जिसे ग्रामदान कहा गया। इन गाँवों की भूमि पर लोगों का सामूहिक स्वामित्व स्वीकार किया गया। इसकी शुरुआत ओडिशा से हुई। जहाँ एक तरफ यह आंदोलन काफी हद तक सफल रहा वहीं दूसरी ओर, कुछ ज़मींदारों ने भूमि सीमांकन से बचने के लिये इसका गलत लाभ उठाया। विषय-वस्तु के दूसरे भाग में हम इन आंदोलनों का आलोचनात्मक परीक्षण करेंगे- आरंभ में यह आंदोलन काफी लोकप्रिय हुआ किंतु 1960 के बाद यह कमज़ोर पड़ गया क्योंकि आंदोलन की रचनात्मक क्षमताओं का इस्तेमाल सही दिशा में नहीं किया गया। दान में मिली 45 एकड़ भूमि में से बहुत कम ही भूमिहीन किसानों के काम आ सकी, क्योंकि अधिक बंजर भूमि ही दान में प्राप्त हुई थी। इसके अलावा लोगों ने ऐसी भूमि भी दान कर दी जो कानूनी मुकदमें में फँसी हुई थी। जहाँ एक ओर इन आंदोलनों ने भूमि वितरण कर असमानता को दूर करने का प्रयास किया, वहीं दूसरी ओर, जिन क्षेत्रों के लोगों की आकांक्षाएँ पूरी न हो सकी वहाँ नक्सलवाद जैसे आंदोलनों की नींव पड़ गई जिससे वर्ग संघर्ष तथा हिंसा में वृद्धि हुई। निष्कर्ष अंत में संक्षिप्त, सारगर्भित एवं संतुलित निष्कर्ष लिखें। हम पाते हैं कि अंतत: भूदान तथा ग्रामदान आंदोलन अपने उद्देश्यों तथा प्रयासों में तो महान आंदोलन था किंतु इसे अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी। किंतु भूमि सुधार की इस रक्तहीन क्रांति ने कानूनी रूप से ‘भूमि सुधारों’ को आधार अवश्य प्रदान किया।</s>
<s>[INST]‘स्वच्छता’ को स्वतंत्रता के लिये ज़रूरी कदम मानते हुए गांधी जी ने इसे 18 रचनात्मक कार्यक्रमों की सूची में शामिल किया था। इसकी प्रासंगिकता को वर्तमान के लिये भी ज़रूरी समझते हुए सरकार ने स्वच्छता को न्यू इंडिया (नए भारत) की परिकल्पना का अभिन्न अंग माना है। टिप्पणी कीजिये।[/INST]उत्तर : भूमिका में: स्वच्छता के संबंध में गांधी जी के दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए उत्तर प्रारंभ करें- गांधी जी के लिये स्वच्छता सिर्फ जैविक आवश्यकता नहीं बल्कि जीवनशैली और सत्य की अनुभूति करने का एक अहम भाग है। राष्ट्रपिता के रूप में उन्होंने राष्ट्र निर्माण में स्वच्छता की अनिवार्यता को महसूस किया और स्वच्छता की तुलना ईश्वर भक्ति से की। महात्मा गांधी के लिये स्वच्छता स्वराज्य यज्ञ के बराबर थी इसलिये उन्होंने स्वच्छता जैसे रचनात्मक कार्यक्रम और स्वतंत्रता संग्राम के बीच अटूट संबंध बनाया। विषय-वस्तु में: विषय-वस्तु के पहले भाग में हम अपर्याप्त स्वच्छता का देश के आर्थिक विकास पर प्रभाव एवं विश्व बैंक की रिपोर्ट पर चर्चा करते हुए स्वच्छ भारत अभियान के बारे में बताएंगे। साथ में इसे महात्मा गांधी की 150वीं जयंती से भी जोड़ेंगे- भारत में आर्थिक विकास में लगातार बढ़ोत्तरी के बावजूद सफाई और स्वास्थ्य की हालत अच्छी नहीं होने के कारण बड़े पैमाने पर आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है। स्वच्छता की बेहतर स्थिति न होने के कारण खराब सेहत, शिक्षा में नुकसान और सकल उत्पादकता पर प्रतिकूल असर देखने को मिलता है। विश्व बैंक ने भी इस संबंध में अपनी रिपोर्ट जारी की है। इन सभी को देखते हुए स्वच्छ भारत अभियान शुरू किया गया जिसका लक्ष्य महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर राष्ट्रीयता को श्रद्धांजलि के रूप में 2019 तक भारत को स्वच्छ और खुले में शौच से मुक्त बनाना है। विषय-वस्तु के दूसरे भाग में हम प्रधानमंत्री की ‘न्यू इंडिया’ की परिकल्पना के बारे में बताते हुए उसे स्वच्छता से जोड़ेंगे- 1942 में देश के स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’ की प्रतिज्ञा लेने के बाद 1947 में भारत को आज़ादी मिली। इसी तर्ज़ पर भारत छोड़ो आंदोलन की 75वीं वर्षगाँठ पर प्रधानमंत्री ने 2022 तक ‘नए भारत’ के निर्माण हेतु सभी से एक साथ प्रतिज्ञा लेने की अपील की। इसे ‘संकल्प से सिद्धि’ नाम दिया गया है। इसमें स्वच्छ भारत, गरीबी मुक्त भारत, भ्रष्टाचार मुक्त भारत, आतंकवाद मुक्त भारत, सांप्रदायिकता मुक्त भारत, जातीयता मुक्त भारत के लिये संकल्प लेने की बात शामिल है और इसकी अवधि 2017-2022 तय की गई है। न्यू इंडिया मूवमेंट 2017-2022 का उद्देश्य सुशासन और तकनीकी के इस्तेमाल से भारत को गरीबी, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, सांप्रदायिकता, जातीयता और गंदगी से मुक्त करते हुए पूरे देश को एकजुट करना है। इसके लिये देश में स्वच्छता का आधारभूत ढाँचा खड़ा किया गया है जिसके तहत शौचालय बनाए गए हैं और कूड़े-करकट के प्रबंधन की व्यवस्था की गई है। इसके साथ ही लोगों को रोजमर्रा की जिंदगी में साफ-सफाई की आदतों को अपनाने के लिये लगातार जागस्रूकता अभियान चलाए गए हैं। इसी के तहत 2015 में नमामि गंगे कार्यक्रम शुरू किया गया ताकि गंगा से प्रदूषण को हटा कर उसे निर्मल बनाया जा सके। परिवहन को किफायती एवं पर्यावरण की दृष्टि से अनुकूल बनाने के लिये जलमार्गों के उपयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है। साथ ही पर्यावरण अनुकूल ‘हरित बंदरगाहों’ के निर्माण पर ध्यान केंद्रित किया गया है। गाँवों के विकास में भी स्वच्छता एक प्रमुख घटक है। स्वच्छ भारत से मानव जीवन अधिक स्वच्छ, स्वस्थ और उन्नत बनेगा। कोई भी समुदाय और समाज तब तक सफल नहीं हो सकता, जब तक कि वह स्वच्छ न हो। शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी उन्मूलन, मानव विकास से संबंधित लक्ष्य स्वच्छता के अभाव में प्राप्त नहीं किये जा सकते। इस प्रकार राष्ट्र के आर्थिक विकास में भी स्वच्छता का विशेष योगदान है। इसे ध्यान में रखते हुए स्वच्छता को नए भारत के निर्माण के लिये आवश्यक माना गया। निष्कर्ष अंत में प्रश्नानुसार संक्षिप्त, सारगर्भित एवं संतुलित निष्कर्ष लिखें। भारत में स्वच्छता और आरोग्य के महात्मा गांधी के सपने को साकार करना सरकार के लिये बड़ी प्रतिबद्धता है। इसे देखते हुए हमारे प्रधानमंत्री ने स्वच्छता को ‘नए भारत’ की परिकल्पना का अभिन्न अंग बनाया और इसे राष्ट्रीय प्राथमिकता दी। भारत के नागरिक के रूप में यह हमारा सामाजिक दायित्व है कि हम स्वच्छ भारत की गांधी जी की परिकल्पना को वर्ष 2019 में उनकी 150वीं जयंती तक साकार करने में सहयोग दें तभी नए भारत का सपना सच हो सकेगा।</s>
<s>[INST]भारत की मध्यपाषाण शिला-कला न केवल उस काल के सांस्कृतिक जीवन की बल्कि आधुनिक चित्रकला से तुलनीय परिष्कृत सौंदर्य बोध को भी प्रतिबिंबित करती है। इस टिप्पणी का समलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये।[/INST]उत्तर : भूमिका में: चित्रकला का सामान्य परिचय देते हुए एवं उसकी प्रागैतिहासिक पृष्ठभूमि के बारे में बताते हुए उत्तर आंरभ करें- चित्रकला, कला के सर्वाधिक कोमल रूपों में एक है। प्रागैतिहासिक काल में जब मानव गुफाओं में रहता था तब उसने अपनी सौंदर्यपरक सृजनात्मक प्रेरणा की अभिव्यक्ति के लिये शैलाश्रय चित्रों का सहारा लिया। विषय-वस्तु में: विषय-वस्तु के प्रथम भाग में हम मध्यपाषाण काल की चित्रकला के बारे में बताएंगे- मध्यपाषाण काल की चित्रकला के साक्ष्य मध्य भारत की कैमूर एवं विंध्य पहाड़ियों, कर्नाटक के कडप्पा ज़िला एवं उत्तर प्रदेश के कुछ स्थानों की गुफाओं से प्राप्त हुए हैं। इनसे प्राप्त चित्र अपरिष्कृत लेकिन यथार्थवादी हैं जिनमें वन्यजीवों, युद्ध एवं शिकार के दृश्यों का चित्रण है। यह काल शिला कला के लिये एक गौरवशाली अध्याय माना गया। इन शैल चित्रों की प्रमुख विशेषता चित्रांकित दृश्यों की विविधता है, जिसमें मानव जीवन के विविध पक्षों का सूक्ष्मता से चित्रांकन किया गया है। इनमें मुख्यत: शिकार, सामूहिक नृत्य, रेखांकित मानव चित्र, पशु-पक्षी, बालक के जन्म, पोषण व भरण, उत्सव तथा युद्ध का चित्रण किया गया है। उन सभी दृश्यों के चित्रांकन के लिये गेरुआ, लाल, सफेद, हरा व पीला प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार ये शैल चित्र मध्यपाषाण के लोगों के रहन-सहन जिसमें आखेटक एवं असुरक्षित जीवन शामिल है, सीमित रंगों के प्रयोग, भावी पीढ़ी की जीवन की क्रियाओं व यथार्थवादी दृष्टिकोण से परिचित कराते हैं। इससे यह स्पष्ट पता चलता है कि मध्यपाषाणकालीन मनुष्यों ने सौंदर्यपरक बोध का विकास कर लिया था, क्याेंकि इनके ज़्यादातर चित्रों के केंद्र में मनुष्य के चारों ओर प्रकृति को रखकर दिखाया गया है। विषय-वस्तु के दूसरे भाग में हम मध्यपाषाणकालीन चित्रकला और आधुनिक चित्रकला के तुलनात्मक अध्ययन के बारे में बतलाएंगे- यद्यपि भारत की आधुनिक चित्रकला जिसमें राजा रवि वर्मा, अमृता शेरगिल, नंदलाल बोस, अबिंद्रनाथ टैगोर आदि के द्वारा बनाए गए चित्रों में व्यापक सांस्कृतिक और परिष्कृत, सौंदर्यबोध के दर्शन होते हैं तथापि इनकी तुलना मध्यपाषणिक चित्रों से की जा सकती है। जहाँ मध्यपाषाणिक चित्रकला जीवन के विभिन्न पक्षों एवं आदर्शों की व्याख्या करती है, यानी लोगों की दिनचर्या, सामाजिक जीवन के बारे में बताती है, वहीं आधुनिक चित्रकला जीवन के विभिन्न पक्षों की तुलना में सौंदर्य पक्ष पर विशेष ध्यान देती है। आधुनिक चित्रकला के विभिन्न नियमों से बंधे रहने के कारण, जहाँ इसकी स्वयं की मौलिकता समाप्त हो जाती है, वहीं मध्यपाषाण काल की चित्रकला नियमों से न बंधी होकर उन्मुक्त प्रवृत्ति की थी। निष्कर्ष अंत में प्रश्नानुसार संक्षिप्त, संतुलित एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें। यह स्वाभाविक है कि आधुनिककालीन चित्रकला अत्यधिक विकसित और परिष्कृत है लेकिन इसमें प्रकृति संबंधी पक्षों का अभाव पाया जाता है। वहीं, मध्यपाषाणिक कला सीमित संसाधनों में बेहतर कौशल का परिचय कराती हुई उस समय के जीवन-दर्शन को प्रतिबिंबित करती है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण, भीमबेटका के गुफा शैल-चित्रों का लगभग 1200 वर्षों तक जीवंत बने रहना है।</s>
<s>[INST]अंतर्वेधी आकृतियों (Intrusive forms) से आप क्या समझते है? विभिन्न अंतर्वेधी आकृतियों का संक्षेप में वर्णन करें।[/INST]उत्तर : भूमिका में: भूमिका में हम ज्वालामुखी उद्गार से बनी आकृतियों के बारे में बताते हुए उत्तर आरंभ करेंगे- ज्वालामुखी उद्गार से निकला लावा जब भूपटल के अंदर ही ठंडा हो जाता है तो इस प्रव्रिया में कई आकृतियों का निर्माण होता है जो अंतर्वेधी आकृतियाँ कहलाती हैं। विषय-वस्तु में: विषय-वस्तु में हम आग्नेय शैलों का निर्माण और उनके वर्गीकरण को स्पष्ट करते हुए अंतर्वेधी आकृतियों के बारे में बताएंगे- ज्वालामुखी उद्गार से निकलने वाले लावा के ठंउा होने से आग्नेय शैल का निर्माण होता है। यह लावा या तो धरातल पर पहुँचकर ठंडा और जमा होता है या धरातल तक पहुँचने से पहले भूपटल के नीचे ही ठंडा हो जाता है। लावा के ठंडा होने के स्थान के आधार पर आग्नेय शैलें- ज्वालामुखी शैलों (धरातल के ऊपर) और पाताली शैलों (धरातल के नीचे) में वर्गीकृत की गई हैं। जब यह लावा धरातल के नीचे ठंडा होता है तो कई आकृतियों का निर्माण होता है जिन्हें अंतर्वेधी आकृतियाँ कहते हैं। कुछ अंतर्वेधी शैलें निम्नलिखित हैं- बैथोलिथ- ये ग्रेनाइट के बने पिंड होते हैं जिनका निर्माण मैग्मा भंडारों के जमाव से होता है। यदि मैग्मा का बड़ा भाग भूपर्पटी में अधिक गहराई पर ठंडा हो जाए तो यह एक गुंबद के आकार में विकसित हो जाता है। कालांतर में अनाच्छादन प्रव्रियाओं द्वारा इनके ऊपर के पदार्थों के हटने से धरातल पर ये प्रकट होते हैं। उदाहरण- कैलिफोर्निया का सियरा नेवादा लैकोलिथ- ये गुंबद के आकार की विशाल अंतर्वेधी चट्टानें हैं जो गहराई में पाई जाती हैं। इनका तल सपाट और एक नली द्वारा नीचे से जुड़ा होता है। उदाहरण- ऊटा (Utah) का हेनरी पर्वत लैपोलिथ, फैकोलिथ व सिल ऊपर उठते हुए लावा का कुछ भाग जब क्षैतिज रूप में पाए जाने वाले कमज़ोर धरातल में चला जाता है तो अलग-अलग आकृतियों का निर्माण होता है। यदि यह तश्तरी के आकार में जम जाए तो लैपोलिथ कहलाता है और अगर अंतर्वेधी आग्नेट चट्टानों की मोड़दार अवस्था में लावा का जमाव होता है तो ये फैकोलिथ कहलाती हैं। अंतर्वेधी आग्नेय चट्टानों का क्षैतिज तल में एक चादर के रूप में ठंडा होना सिल या शीट कहलाता है। कम मोटाई वाले जमाव ‘शीट’ एवं घने मोटाई वाले जमाव ‘सिल’ कहलाते हैं। उदाहरण- उत्तरी इंग्लैंड का विन-सिल डाइक- जब दरारों में धरातल के समकोण पर लावा का प्रवाह होता है और अगर यह इसी स्थिति में ठंडा हो जाए तो दीवार की भाँति एक संरचना का निर्माण होता है। इसे ही डाइक कहा जाता है। उदाहरण के तौर पर हम देखते हैं कि पश्चिम महाराष्ट्र क्षेत्र की अंतर्वेधी आग्नेय चट्टानों में यह आकृति काफी पाई जाती है। निष्कर्ष अंत में प्रश्नानुसार सारगर्भित, संक्षिप्त एवं संतुलित निष्कर्ष लिखें- नोट: आप चाहें तो अपने उत्तर को बेहतर बनाने के लिये प्रत्येक प्रतिरूप के नीचे उसका डायग्राम भी बना सकते हैं।</s>
<s>[INST]क्या भाषायी राज्यों के गठन ने भारतीय एकता के उद्देश्य को मज़बूती प्रदान की है?[/INST]उत्तर : भूमिका में: स्वतंत्रता पश्चात् राज्यों के पुनर्गठन में आने वाली समस्याओं का जिक्र करते हुए उत्तर आरंभ करें- स्वतंत्रता के पश्चात् ही भारत के सामने भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का सवाल आ खड़ा हुआ। यह राष्ट्र की एकता और समेकन का महत्त्वपूर्ण पहलू था। गांधी जी सहित अन्य नेताओं द्वारा कमोबेश यह स्वीकार कर लिया गया था कि आज़ाद भारत अपनी प्रशासनिक इकाइयों के सीमा निर्धारण को भाषायी सिद्धांत के आधार पर करेगा लेकिन आज़ादी के बाद राष्ट्रीय नेतृत्व में यह विचार व्यक्त किया गया कि इस समय देश की सुरक्षा, एकता और आर्थिक संपन्नता पर पहले ध्यान दिया जाना चाहिये। विषय-वस्तु में: विषय-वस्तु के पहले भाग में हम भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की पृष्ठभूमि बताएंगे- 1948 में एस.के. धर के नेतृत्व में बने भाषायी राज्य आयोग तथा जे.वी.पी. समिति ने भी तात्कालिक रूप से भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के विरुद्ध सलाह दी। हालाँकि इसके बाद पूरे देश में राज्यों के पुनर्गठन के लिये व्यापक जनांदोलन शुरू हो गए, जिनमें मद्रास प्रेसीडेंसी से अलग आंध्र राज्य बनाने की मांग सबसे प्रबल थी। अक्तूबर 1952 में पोट्टी श्रीरामलू की आमरण अनशन के चलते मृत्यु हो गई, इसके पश्चात् हुई हिंसा के कारण सरकार को 1953 में आंध्र प्रदेश के रूप में नया राज्य बनाना पड़ा। इसके बाद देश के अन्य क्षेत्रों में भी भाषायी आधार पर राज्यों की मांग के जोर पकड़ने के कारण 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना की गई। आयोग की रिपोर्ट के आधार पर वर्ष 1956 में पारित राज्य पुनर्गठन अधिनियम द्वारा भाषायी आधार पर 14 राज्यों तथा 6 केंद्रशासित प्रदेशों का गठन हुआ। विषय-वस्तु के दूसरे भाग में हम, भाषायी आधार पर राज्यों के गठन ने किस प्रकार भारतीय एकता को मज़बूती प्रदान की, इस पर चर्चा करेंगे- भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का कार्य कर राष्ट्रीय नेतृत्व ने राष्ट्र की एकता के सामने उत्पन्न प्रश्नचिह्न को समाप्त कर दिया जो संभवत: विघटनकारी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दे सकता था। अत: भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन एक तरह से राष्ट्रीय एकीकरण का आधार माना गया क्योंकि जहाँ भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन ने क्षेत्रीय आकांक्षाओं को पूरा किया वहीं, उसने जनता की भावनाओं का भी मान रखा। इससे लोगों के अंदर यह भावना बलवती हुई कि स्वतंत्र भारत में उनकी इच्छाओं, भावनाओं तथा सांस्कृतिक अस्मिता के साथ-साथ उनकी क्षेत्रीय भाषा को भी महत्त्व दिया जा रहा है। इसके अलावा यह भी महत्त्वपूर्ण है कि भाषायी राज्यों के पुनर्गठन ने देश के संघीय ढाँचे को प्रभावित नहीं किया, केंद्र एवं राज्य के संबंध पूर्ववत बने रहे। भाषा के आधार पर राज्यों के गठन तथा राज्य भाषा की अवधारणा ने लोगों को मातृभाषा में सरकार से संपर्क स्थापित करने तथा प्रशासनिक कार्यों को पूर्ण करने की सहूलियत प्रदान की। इसके अतिरिक्त त्रि-भाषा सिद्धांत ने हिंदी व अंग्रेज़ी के प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसने संपूर्ण भारतीयों के बीच संचार की सुविधा तो प्रदान की ही, आर्थिक विकास में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। विषय-वस्तु के तीसरे भाग में हम राज्यों के गठन के आधार संबंधित कारणों में आए परिवर्तन पर चर्चा करेंगे- समय के साथ-साथ भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की मांग कमज़ोर पड़ती गई तथा उसका आधार प्रशासनिक शिथिलता तथा आर्थिक विषमता हो गई। इसके आधार पर पूर्वोत्तर के राज्यों के साथ-साथ झारखंड, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड राज्यों का गठन हुआ। हाल ही के वर्षों में इसमें एक नवीन प्रवृत्ति देखने को मिली, जो राज्य भाषा के आधार पर निर्मित हुए थे उनमें भी पुन: राज्य के गठन की मांग ज़ोर पकड़ने लगी है। इसी कड़ी में नवीनतम राज्य तेलंगाना का निर्माण हुआ। निष्कर्ष अंत में प्रश्नानुसार संक्षिप्त, संतुलित एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें। इस प्रकार देखा जाए तो राज्यों के पुनर्गठन ने भारत की एकता को कमज़ोर नहीं किया बल्कि संपूर्ण रूप से देखा जाए तो मज़बूत ही किया है परंतु यह विभिन्न राज्यों के मध्य सभी विवादों और समस्याओं का समाधान नहीं कर पाया। विभिन्न राज्यों के बीच सीमा विवाद, भाषायी अल्पसंख्यकों की समस्या के साथ-साथ नदी जल बँटवारे की समस्या जैसे प्रश्न अभी भी अनसुलझे पड़े हैं।</s>
<s>[INST]पवन को अपरदन का एक मुख्य कारक माना जाता है। पवन अपरदन को प्रभावित करने वाली दशाओं पर प्रकाश डालते हुए इसके अपरदनात्मक स्थलरूपों की चर्चा करें।[/INST]उत्तर : भूमिका: पवन का अपरदन संबंधी कार्य प्रमुख रूप से भौतिक या यांत्रिक रूपों में ही संपादित होता है। शुष्क मरुस्थलों में यांत्रिक अपक्षय के कारण चट्टानों के विघटित होने से चट्टानें ढीली पड़ जाती हैं। इन असंगठित चट्टानों को पवन आसानी से अपरदित कर देती है। विषय-वस्तु पवन द्वारा अपरदन का कार्य तीन रूपों यथा अपवाहन, अपघर्षण तथा सन्निघर्षण में संपन्न होता हे। अपवाहन के अंतर्गत यांत्रिक अपक्षय के कारण ढीली तथा असंगठित चट्टानों के ढीले कणों को पवन चट्टानों से अलग करके उड़ा ले जाती है।। अपघर्षण के तहत तीव्र वेग की पवन के साथ रेत तथा धूलकण; जो अपरदनात्मक यंत्र का कार्य करते हैं, पवन मार्ग में पड़ने वाली चट्टानों को रगड़ कर अपरदित करती है। सन्निघर्षण के तहत शैलकण आपस में रगड़ खाकर यांत्रिक ढंग से टूट जाते हैं। अपरदनात्मक स्थलरूप अपवाहन बेसिन या वात गर्त: पवन द्वारा असंगठित तथा ढीले कणों को उड़ा लिये जाने से निर्मित गर्त को अपवाहन बेसिन कहते हैं। चूंकि इन गर्तों का निर्माण पवन द्वारा होता है अत: इन्हें पवन गर्त भी कहते हैं। सहारा के रेगिस्तान, कालाहारी, मंगोलिया तथा संयुक्त राज्य अमेकिरा के पश्चिमी शुष्क भागों में इस प्रकार के अनेक स्थलरूपों के उदाहरण देखने को मिलते हैं। इन्सेलबर्ग: मरुस्थलों में अपव्यय तथा अपरदन के कारण कोमल चट्टानें आसानी से कट जाती है लेकिन कठोर चट्टानों के अवशेष ऊँचे-ऊँचे टीलों के रूप में बच जाता है जिसे इन्सेलबर्ग कहते हैं। छत्रक शिला: मरुस्थली भागों में यदि कठोर चट्टानों के रूप में ऊपरी आवरण के नीचे कोमल चट्टाने लम्बवत रूप में मिलती हैं तो उस पर पवन के अपघर्र्षण के प्रभाव से विभिन्न स्थलरूपों का निर्माण होता है। पवन द्वारा चट्टान के निचले भाग में अत्यधिक अपघर्षण द्वारा उसका आधार कटने लगता है, जबकि उसका ऊपरी भाग अप्रभावित रहता है। साथ ही यदि पवन कई दिशाओं में चलती है तो चट्टान का निचला भाग चारों तरफ से अत्यधिक कट जाने के कारण पतला हो जाता है, जबकि ऊपरी भाग अप्रभावित रहता है। इससे एक छतरीनुमा स्थलरूप का निर्माण होता है, जिसे छत्रक शिला कहते हैं। छत्रक शिला को सहारा के रेगिस्तान में गारा कहते हैं। भूस्तंभ: शुष्क प्रदेश में जहाँ पर असंगठित तथा कोमल चट्टानों के ऊपर कठोर तथा प्रतिरोधी चट्टानों का आवरण होता है, वहाँ इस आवरण के कारण नीचे की कोमल चट्टानों का अपरदन नहीं हो पाता। लेकिन नजदीकी चट्टानों के अपरदन के कारण कठोर चट्टानों के आवरण वाला भाग एक स्तंभ के रूप में सतह पर दिखाई देता है जिसे भू-स्तम्भ कहते हैं। ज्यूजेन: मरुस्थली भाग में यदि कठोर तथा कोमल शैलों की परतें ऊपर-नीचे एक-दूसरे के समानान्तर होती है तो अपक्षय तथा वायु द्वारा अपरदन के कारण विभिन्न स्थलरूपों का निर्माण होता है। इन स्थलरूपों के ऊपरी भाग पर कठोर चट्टानों का आवरण होता है एवं इनका ऊपरी भाग समतल होता है। इन्हें ज्यूजेन कहते हैं। यारडंग: इसकी रचना ज्यूजेन के विपरीत होती है। जब कोमल तथा कठोर चट्टानों के स्तर लम्बवत दिशा में मिलते हैं तो पवन कठोर की अपेक्षा मुलायम चट्टान को आसानी से अपरदित करते हुए उड़ा ले जाती है। इन चट्टानों के पार्श्व में पवन के कटाव द्वारा नालियाँ बन जाती हैं जिन्हें यारडंग कहते हैं। ड्राइकान्टर: पथरीले मरुस्थलों में सतह पर पड़े चट्टानों पर पवन के अपरदन द्वारा खरोंचे पड़ जाती है। यदि पवन कई दिशाओं से होकर बहती है तो इनकी आकृति चतुष्फलक जैसी हो जाती है। इसमें एक फलक भू-पृष्ठ पर होता है एवं बाकी तीन बाहर की ओर होते हैं जिन्हें ड्राइकान्टर कहते हैं। जालीदार शिला: मरुस्थलीय भागों में जब पवनों के सम्मुख विभिन्न संरचना वाली चट्टानें पड़ती है तो कोमल भाग पवन द्वारा उड़ा लिये जाते हैं किन्तु कठोर भाग यथावत बने रहते हैं। इस प्रकार चट्टानों में जाली का निर्माण होता है जिसे जालीदार शैल कहते हैं। पुल तथा खिड़की: जालीदार चट्टान में जब पवन अपरदन के कारण छिद्र हो जाती है तो आगे एक लंबे समय के उपरांत अपरदन के कारण यह छिद्र चट्टान के आर-पार हो जाता है जिसे पवन खिड़की कहते हैं। जब इस खिड़की से होकर अपरदन द्वारा चट्टान का धीरे-धीरे नीचे तक कटाव हो जाता है तो एक महराब की आकृति का निर्माण होात है जिसे पुल कहते हैं। निष्कर्ष अंत में संक्षिप्त, संतुलित एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें- नोट: आप चाहे तो पवन अपरदन धरा निर्मित स्थलाकृतियों का डायग्राम भी दे सकते हैं।</s>
<s>[INST]यूनेस्को के ‘सांस्कृतिक विरासत संरक्षण कार्यक्रम’ के लिये ‘एशिया-प्रशांत अवॉर्ड’ की चर्चा करें। हाल ही में इससे सम्मानित भारतीय स्थापत्य की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद यूनेस्को के ‘एशिया प्रशांत अवार्ड’ का उल्लेख करना है। इससे सम्मानित भारतीय स्थापत्य की चारित्रिक विशेषताओं को बताना है। हल करने का दृष्टिकोण यूनेस्को द्वारा प्रदान किये जाने वाले ‘एशिया-प्रशांत अवॉर्ड’ का उल्लेख करें। इससे सम्मानित भारतीय स्थापत्य कला की विशेषताएँ बताते हुए निष्कर्ष लिखें। ‘एशिया-प्रशांत विरासत पुरस्कार’ वर्ष 2000 से यूनेस्को द्वारा एशिया-प्रशांत क्षेत्र में रणनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु दिया जा रहा है। इस पुरस्कार का उद्देश्य सांस्कृतिक विरासत क्षेत्रों के संरक्षण को बढ़ावा देना है, जिसके प्रयास किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा प्रारंभ किये गए हैं। यह पुरस्कार पाँच श्रेणियों में दिया जाता है: उत्कृष्टता के लिये पुरस्कार। विशिष्टता के लिये पुरस्कार। वरीयता के लिये पुरस्कार। माननीय उल्लेख (Honourable Mention) विरासत के संदर्भ में नए डिज़ाइन के लिये पुरस्कार। वर्ष 2017 का विरासत पुरस्कार भारत के निम्नलिखित स्थापत्य कला को प्राप्त हुआ है- वरीयता के लिये पुरस्कार (Award of Merit) मुंबई का क्राइस्ट चर्च। रॉयल बॉम्बे ऑपेरा हाउस। श्रीरंगम का श्री रंगनाथ स्वामी मंदिर। सम्माननीय उल्लेख (Honourable Mention) वाडिया फाउण्टेन एवं क्लॉक टावर, मुंबई। गोहद किले का प्रवेशद्वारा, गोहद। दिल्ली की धर्मपुरा हवेली। मुंबई का वैलिंगटन फाउण्टेन 182 वर्ष पुराना मुंबई का क्राइस्ट चर्च इण्डो-सारसेनिक स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना है। मुंबई का रॉयल ऑपेरा हाउस भारत का एकमात्र ऑपेरा हाउस है, जिसका निर्माण ब्रिटिश राज के समय हुआ था। श्री रंगनाथ स्वामी मंदिर स्थापत्य कला की तमिल शैली में निर्मित है। इसका निर्माण छठी से नौवीं शताब्दी के मध्य हुआ था। मुंबई का वाडिया और क्लॉक टावर सार्वजनिक क्षेत्र में विरासत क्षेत्राें के संरक्षण के प्रति समर्पण को प्रदर्शित करता है। दिल्ली की धर्मपुरा हवेली रियासतकालीन स्थापत्य का उदाहरण है। इस प्रकार यूनेस्को का ‘एशिया-प्रशांत विरासत अवॉर्ड’ विरासत क्षेत्रों के संरक्षण हेतु किये गए प्रयासों को मान्यता, सराहना एवं प्रोत्साहन देने का एक महत्त्वपूर्ण साधन है।</s>
<s>[INST]मंदिर स्थापत्य की तीन मंदिर शैलियों यथा नागर, द्रविड़ एवं बेसर के तुलनात्मक अध्ययन पर प्रकाश डालें।[/INST]उत्तर : भूमिका: मंदिर निर्माण की प्रक्रिया का आरंभ तो मौर्य काल से ही शुरू हो गया था, किंतु आगे चलकर उसमें सुधार होता गया और गुप्त काल को संरचनात्मक मंदिरों की विशेषता से पूर्ण माना जाता है। विषय-वस्तु छठी शताब्दी ई. तक उत्तर और दक्षिण भारत में मंदिर वास्तुकला शैली लगभग एक समान थी, लेकिन छठी शताब्दी ई. के बाद प्रत्येक क्षेत्र का भिन्न-भिन्न दिशाओं में विकास हुआ। इस प्रकार आगे ब्राह्मण हिंदू धर्म मंदिरों के निर्माण में तीन प्रकार की शैलियों- नागर, द्रविड़ और बेसर शैली का प्रयोग किया। नागर शैली मंदिर स्थापत्य की इस शैली का विकास हिमालय से लेकर विंघ्य क्षेत्र तक हुआ। नागर स्थापत्य के मंदिर मुख्यत: नीचे से ऊपर तक आयताकार रूप में निर्मित होते हैं। सामान्यत: उत्तर भारतीय मंदिर शैली में मंदिर एक वर्गाकार गर्भ-गृह, स्तंभों वाला मंडप तथा गर्भ-गृह के ऊपर एकरेखीय शिखर से संयोजित होता है। नागर शैली में बने मंदिरों के गर्भ-गृह के ऊपर एक रेखीय शिखर होता है। शिखर का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग सबसे ऊपर लगा आमलक होता है, जो उत्तरी भारत के मंदिरों की मुख्य पहचान है। विशेषताएँ: नागर शैली में शिखर अपनी ऊँचाई के व्रम में ऊपर की ओर व्रमश: पतला होता जाता है। मंदिर में सभा भवन और प्रदक्षिणा-पथ भी होता था। शिखर के नियोजन में बाहरी रूपरेखा बड़ी स्पष्ट तथा प्रभावशाली ढंग से उभरती है। अत: इसे रेखा शिखर भी कहते हैं। शिखर पर आमलक की स्थापना होती है। वर्गाकार तथा ऊपर की ओर वव्र होते शिखर इसकी विशेषता है। द्रविड़ शैली 7वीं शताब्दी में द्रविड़ शैली की शुरुआत हुई, परंतु इसका विकसित रूप आठवीं शताब्दी से देखने को मिलता है। कृष्णा नदी से लेकर कन्याकुमारी तक द्रविड़ शैली के मंदिर पाए जाते हैं। द्रविड़ मंदिरों का निचला भाग वर्गाकार और मस्तक गुंबदाकार, छह या आठ पहलुओं वाला होता है। विशेषताएँ प्राकार (चहारदीवारी) गोपुरम (प्रवेश द्वार) वर्गाकार या अष्टकोणीय गर्भ-गृह (रथ) पिरामिडनुमा शिखर मंडप (नंदी मंडप) विशाल संकेंद्रित प्रांगण तथा अष्टकोणीय मंदिर संरचना बेसर शैली नागर और द्रविड़ शैलियों के मिले-जुले रूप को बेसर शैली कहते हैं। इस शैली के मंदिर विंध्याचल पर्वत से लेकर कृष्णा नदी तक पाए जाते हैं। बेसर शैली को ‘चालुक्य शैली’ भी कहते हैं। विशेषताएँ: बेसर शैली के मंदिरों का आकार, आधार से शिखर तक गोलाकार (वृत्ताकार) या अर्द्धगोलाकार होता है। बेसर शेली के उदाहरण के तौर पर वृंदावन के वैष्णव मंदिर में गोपुरम देखने को मिलता है। होयसल शासकों के द्वारा मैसूर के हेलेबिड का होयलेश्वर मंदिर भी बेसर शैली का उदाहरण है। निष्कर्ष अंत में संक्षिप्त, संतुलित एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें-</s>