S.No.
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Title
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Chapter
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Verse
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Sanskrit Anuvad
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Hindi Anuvad
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Enlgish Translation
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649
201
Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.40
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति । नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥ ४.४० ॥
विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थसे अवश्य भ्रष्ट हो जाता है। ऐसे संशययुक्त मनुष्यके लिये न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है|
If a person is ignorant of the Knowledge of God, the person who lacks faith in God and the one who is full of doubts in his own self, will undoubtedly be destroyed. If one has doubts, he can never achieve peace and Bliss in the world, nor in the after-world.
202
Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.41
योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम् । आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय ॥ ४.४१ ॥
हे धनञ्जय ! जिसने कर्मयोगकी विधिसे समस्त कर्मोंका परमात्मामें अर्पण कर दिया है और जिसने विवेकद्वारा समस्त संशयोंका नाश कर दिया है, ऐसे वशमें किये हुए अन्तःकरणवाले पुरुषको कर्म नहीं बाँधते|
One who has rid himself of attached Karma by practising Yoga and one who has rid himself of doubts by achieving Gyan, he is a self-realized person and is not bound by attached Karma.
203
Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.42
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः । छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥ ४.४२ ॥
इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन ! तू हृदयमें स्थित इस अज्ञानजनित अपने संशयका विवेकज्ञानरूप तलवारद्वारा छेदन करके समत्वरूप कर्मयोगमें स्थित हो जा और युद्धके लिये खड़ा हो जा|
Hence, be established in yoga by cutting the ignorance born doubt about the self with the sword of knowledge. Stand up, O Bharata.
204
Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.1
अर्जुन उवाच । संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ...
अर्जुन बोले– हे कृष्ण ! आप कर्मोंके संन्यासकी और फिर कर्मयोगकी प्रशंसा करते हैं । इसलिये इन दोनोंमेंसे जो एक मेरे लिये भलीभाँति निश्चित कल्याणकारक साधन हो, उसको कहिये|
Arjuna asked the Great Lord: Dear Krishna, I am still confused. I have heard praise of Yoga as well as of Sannyaas (Holy Pilgrimage), from You. Which one of these two O Lord, is the best path for me?
205
Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.2
श्रीभगवानुवाच । संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥ ५....
श्रीभगवान् बोले- कर्मसंन्यास और कर्मयोग— ये दोनों ही परम कल्याणके करनेवाले हैं, परन्तु उन दोनोंमें भी कर्मसंन्याससे कर्मयोग साधनमें सुगम होनेसे श्रेष्ठ है|
Oh Arjuna, both the paths of Yoga and Sannyaas lead one to supreme bliss and happiness. However, I shall always regard Yoga as the better path to the attainment of supreme peace and unity with Me, than the path of Sannyaas.
206
Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.3
ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति । निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ...
हे अर्जुन! जो पुरुष न किसीसे द्वेष करता है और न किसीकी आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है; क्योंकि राग द्वेषादि द्वन्द्वोंसे रहित पुरुष सुखपूर्वक संसारबन्धनसे मुक्त हो जाता है|
Oh Arjuna a true Sannyaasi is one who has no doubts about anything he does or encounters in his life; who has no enemies whatsoever, and above all, who is free from all desires (for material objects). If he has accomplished all these bondages of the world.
207
Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.4
सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः । एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥ ५.४ ॥
उपर्युक्त संन्यास और कर्मयोगको मूर्खलोग पृथक् पृथक् फल देनेवाले कहते हैं न कि पण्डितजन, क्योंकि दोनोंमेंसे एकमें भी सम्यक् प्रकारसे स्थित पुरुष दोनोंके फलरूप परमात्माको प्राप्त होता है|
Oh Arjuna, in essense, Yoga and Sannyaas are the same because both of these achieve the same goal. Those who consider Yoga and Sannyaas as two different paths leading to the achievement of two different goals, are ignorant.When one is fully absorbed and established in either one of Yoga or Sannyaas, he achieves the results of both of these sacred institutions.
208
Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.5
यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते । एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स: पश्यति ॥ ५.५ ॥
ज्ञानयोगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। इसलिये जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोगको फलरूपमें एक देखता है, वही यथार्थ देखता है|
Yoga or Sannyaas (together known as Sankyoga) both attain the same goal for he who follows either of these paths. Only he who considers Yoga and Sannyaas as one, sees the ultimate Truth (the Lord).
209
Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.6
संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः । योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥ ५.६ ॥
परन्तु हे अर्जुन ! कर्मयोगके बिना संन्यास अर्थात् मन, इन्द्रिय और शरीरद्वारा होनेवाले सम्पूर्ण कर्मोंमें कर्तापनका त्याग प्राप्त होना कठिन है और भगवत्स्वरूपको मनन करनेवाला कर्मयोगी परब्रह्म परमात्माको शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है|
The Blessed Lord spoke in His Divine voice:O my dear Arjuna, in order for one to achieve Sannyaas, he must practise Karmyoga (doing Karma or actions without attachment or desire to see the results of those actions). If one is successful in performing Karmyoga (that is Karma without attachment to results), he shall realize God very quickly.
210
Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.7
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः । सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥ ५.७ ॥
जिसका मन अपने वशमें है, जो जितेन्द्रिय एवं विशुद्ध अन्तःकरणवाला है और सम्पूर्ण प्राणियोंका आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता|
The Lord spoke onwards:The Karmyogi is a purified being who has conquered the self. He does not centre his life around himeself but around the achievement of being one with God.He detaches himeself from his senses, centering all his thoughts on God and achieving everlasting peace and happiness by breaking free of all material bondage to the world.
211
Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.8
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् । पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्\u200cगच्छन्स्वपञ्...
तत्त्वको जाननेवाला सांख्ययोगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आँखोंको खोलता और मूँदता हुआ भी, सब इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थोंमें बरत रही हैं – इस प्रकार समझकर निःसन्देह ऐसा माने कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ|
He who comes to the realization that, although he is physically performing actions such as seeing, hearing, touching, smelling, eating, walking, sleeping, breathing, speaking, receiving, sacrificing, opening and closing eyes, and so on, that he is actually doing nothing, is a Yogi. O Arjuna, the truly wise Yogi knows that in reality, only the senses are acting among their sense objects.
212
Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.9
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥ ५.९ ॥
तत्त्वको जाननेवाला सांख्ययोगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आँखोंको खोलता और मूँदता हुआ भी, सब इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थोंमें बरत रही हैं – इस प्रकार समझकर निःसन्देह ऐसा माने कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ|
He who comes to the realization that, although he is physically performing actions such as seeing, hearing, touching, smelling, eating, walking, sleeping, breathing, speaking, receiving, sacrificing, opening and closing eyes, and so on, that he is actually doing nothing, is a Yogi. O Arjuna, the truly wise Yogi knows that in reality, only the senses are acting among their sense objects.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.10
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः । लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥ ५.१० ॥
जो पुरुष सब कर्मोंको परमात्मामें अर्पण करके और आसक्तिको त्यागकर कर्म करता है, वह पुरुष जलसे कमलके पत्तेकी भाँति पापसे लिप्त नहीं होता|
The Lord declared: One who leaves all the results of his actions to God and performs Karma without attachment, is immune to all sins of the world in the same way as a lotus leaf remains unmoistened when placed in water.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.11
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि । योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥ ५.११ ॥
कर्मयोगी ममत्वबुद्धिरहित केवल इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीरद्वारा भी आसक्तिको त्यागकर अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये कर्म करते हैं|
O Arjuna, Yogis purify their souls by abolishing any feelings of attachment within themselves by performing Karma through mind, body, intellect, and senses.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.12
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् । अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥ ५.१२ ॥
कर्मयोगी कर्मोंके कर्मोंके फलका त्याग करके भगवत्प्राप्तिरूप शान्तिको प्राप्त होता है और सकाम पुरुष कामनाकी प्रेरणासे फलमें आसक्त होकर बँधता है|
When a Yogi has reached a state of true self-realization by leaving all fruits and results of Karma in the hands of the Lord, he achieves true peace and happiness.However, he who does Karma (actions) for a selfish motive and for the attainment of fruits of his actions, never becomes free of the bondages of desire for material pleasures.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.13
सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी । नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥ ५.१३ ॥
अन्तःकरण जिसके वशमें है ऐसा सांख्ययोगका आचरण करनेवाला पुरुष न करता हुआ और न करवाता हुआ ही नवद्वारोंवाले शरीररूप घरमें सब कर्मोंको मनसे त्यागकर आनन्दपूर्वक सच्चिदानन्दघन परमात्माके स्वरूपमें स्थित रहता है|
A person, having self-control, and mentally freeing himself of all actions (by the uninterest in results of actions), in really performs no actions whatsoever. By mentally detaching himself of all Karma, a man may live in true bliss and peace in his body of nine openings.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.14
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ ५.१४ ॥
परमेश्वर मनुष्योंके न तो कर्तापनकी, न कर्मोंकी और न कर्मफलके संयोगकी ही रचना करते हैं; किन्तु स्वभाव ही बर्त रहा है|
The Lord does not create the performance of actions (or Karma ), nor Karma itself, nor even the result of Karma. It is simply all due to nature performing its function in the world.(However, nature derives its motivation power from God.)
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.15
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ ५.१५ ॥
सर्वव्यापी परमेश्वर भी न किसीके पापकर्मको और न किसीके शुभकर्मको ही ग्रहण करता है; किन्तु अज्ञानके द्वारा ज्ञान ढका हुआ है, उससे सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं|
I, the all pervading Lord receives neither the good nor the bad Karma of anyone. People are from time to time deluded because their Knowledge (Gyan) is Covered up or blinded by ignorance (Agyan).
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.16
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः । तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥ ५.१६ ॥
परन्तु जिनका वह अज्ञान परमात्माके तत्त्वज्ञानद्वारा नष्ट कर दिया गया है, उनका वह ज्ञान सूर्यके सदृश उस सच्चिदानन्दघन परमात्माको प्रकाशित कर देता है|
The Lord continued: People’s achievement of knowledge of their SELF has allowed them to destroy their ignorance or remove their lack of knowledge (Agyan). They soon find that the knowledge they acquire radiates the light of God within them.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.17
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणा: | गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषा:॥ ५.१७...
जिनका मन तद्रूप हो रहा है, जिनकी बुद्धि तद्रूप हो रही है और सच्चिदानन्दघन परमात्मामें ही जिनकी निरन्तर एकीभावसे स्थिति है, ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञानके द्वारा पापरहित होकर अपुनरावृत्तिको अर्थात् परमगतिको प्राप्त होते हैं|
The Lord spoke: O Arjuna, total liberation and everlasting peace is achieved only by those whose mind and intellect constantly dwells on God and who have destroyed all sin by achieving Gyan (Knowledge)
221
Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.18
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ ५.१८ ॥
वे ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मणमें तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डालमें भी समदर्शी ही होते हैं|
The wise men treat everybody as equals O Arjuna, whether it be a learned and cultured Brahman, a cow, an elephant, or a dog and an outcaste. He not differentiate between anybody.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.19
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः । निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥ ५...
जिनका मन समभावमें स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्थामें ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है, क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानन्दघन परमात्मामें ही स्थित हैं|
O Arjuna, those who are even-minded and treat everybody as equals in all respects, have reached the ultimate goal of life and have conquered the whole world because God is perfect, without defect, and makes no distinction also. Therefore, they are,in reality, one with God.
223
Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.20
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् । स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थ...
जो पुरुष प्रियको प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और अप्रियको प्राप्त होकर उद्विग्न न हो, वह स्थिरबुद्धि, संशयरहित, ब्रह्मवेत्ता पुरुष सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मामें एकीभावसे नित्य स्थित है|
One truly becomes established in God when neither good circumstances make him happy, no bad Circumstance make him miserable. When a person reaches this type of balance in intellect and emotion, without a single doubt, with true knowledge of God, becomes eternally fixed in Him.
224
Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.21
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत् सुखम् । स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥ ५.२१ ॥
बाहरके विषयों में आसक्तिरहित अन्तःकरणवाला साधक आत्मामें स्थित जो ध्यानजनित सात्त्विक आनन्द है, उसको प्राप्त होता है; तदनन्तर वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्माके ध्यानरूप योगमें अभिन्नभावसे स्थित पुरुष अक्षय आनन्दका अनुभव करता है|
O Arjuna, a person who has totally detached himself from the material world and is happy and satisfied within his own self, attains eternal peace. When a person is truly established in the Yoga of God (service, devotion and prayers to Him), he experiences true, eternal bliss without a doubt, O Arjuna.
225
Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.22
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते । आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥ ५.२२ ॥
जो ये इन्द्रिय तथा विषयोंके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले सब भोग हैं, यद्यपि विषयी पुरुषोंको सुखरूप भासते हैं तो भी दुःखके ही हेतु हैं और आदि अन्तवाले अर्थात् अनित्य हैं। इसलिये हे अर्जुन ! । बुद्धिमान् विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता|
When one’s senses make contact with sensual, material goods, Arjuna, these desire-evoking objects are the cause of misery (these objects may appear enjoyable to material pleasure-seekers).These enjoyments are temporary, having a beginning and an end. When one develops a habitual desire for these artificial enjoyments. O Arjuna, he falls into deep misery and irrational behaviour as soon as these pleasures have disappeared from him.
226
Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.23
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् । कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥ ५.२३ ॥
जो पुरुष अन्तरात्मामें ही सुखवाला है, आत्मामें ही रमण करनेवाला है तथा जो आत्मामें ही ज्ञानवाला है, वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्माके साथ एकीभावको प्राप्त सांख्ययोगी शान्त ब्रह्मको प्राप्त होता है|
One who is truly happy, peaceful and enlightened with his Soul, that wise man (Yogi) has combined with the supreme Soul (God) as one and attains freedom from all bondages to the world.
227
Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.24
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः । स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥ ५.२४ ॥
जिनके सब पाप नष्ट हो गये हैं, जिनके सब संशय ज्ञानके द्वारा निवृत्त हो गये हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रत हैं और जिनका जीता हुआ मन निश्चलभावसे परमात्मामें स्थित है, वे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शान्त ब्रह्मको प्राप्त होते हैं|
One who is truly happy, peaceful and enlightened with his Soul, that wise man (Yogi) has combined with the supreme Soul (God) as one and attains freedom from all bondages to the world.
228
Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.25
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः । छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥ ५.२५ ॥
जिनके सब पाप नष्ट हो गये हैं, जिनके सब संशय ज्ञानके द्वारा निवृत्त हो गये हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रत हैं और जिनका जीता हुआ मन निश्चलभावसे परमात्मामें स्थित है, वे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शान्त ब्रह्मको प्राप्त होते हैं|
Those wise men or sages who have abolished and destroyed all their sins with the achievement of true Gyan (Knowledge), and who have devoted themselves to the welfare of other beings, attain supreme and eternal peace.
229
Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.26
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् । अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ॥ ५.२६ ॥
काम-क्रोधसे रहित, जीते हुए चित्तवाले, परब्रह्म परमात्माका साक्षात्कार किये हुए ज्ञानी पुरुषों के लिये सब ओरसे शान्त परब्रह्म परमात्मा ही परिपूर्ण हैं|
O Arjuna, all of those wise men (Yogis) who have learned to control their minds, have learned to conquer and abolish all of the desires and anger within them, and have truly realized God, attain freedom and liberation from worldly ties in all respects.
230
Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.27
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः । प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥ ...
बाहरके विषय-भोगोंको न चिन्तन करता हुआ बाहर ही निकालकर और नेत्रोंकी दृष्टिको भृकुटीके बीचमें स्थित करके तथा नासिकामें विचरनेवाले प्राण और अपानवायुको सम करके, जिसकी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि जीती हुई हैं, ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा, भय और क्रोधसे रहित हो गया है,वह सदा मुक्त ही है|
A person who has totally detached himself from sense objects that give temporary pleasure and enjoyment, he who has learned to control and equalize the number of breaths going outwards and inwards through the nostrils, he who has brought his senses, mind and intellect under full control, and he who is desire less fearless and without anger, is always a free and liberated wise man.
231
Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.28
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः । विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥ ५.२८ ॥
बाहरके विषय-भोगोंको न चिन्तन करता हुआ बाहर ही निकालकर और नेत्रोंकी दृष्टिको भृकुटीके बीचमें स्थित करके तथा नासिकामें विचरनेवाले प्राण और अपानवायुको सम करके, जिसकी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि जीती हुई हैं, ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा, भय और क्रोधसे रहित हो गया है,वह सदा मुक्त ही है|
A person who has totally detached himself from sense objects that give temporary pleasure and enjoyment, he who has learned to control and equalize the number of breaths going outwards and inwards through the nostrils, he who has brought his senses, mind and intellect under full control, and he who is desire less fearless and without anger, is always a free and liberated wise man.
232
Atma-Samyama Yoga
Chapter 5
Verse 5.29
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् । सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥ ५.२९ ॥
मेरा भक्त मुझको सब यज्ञ और तपोंका भोगनेवाला, सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वरोंका भी ईश्वर तथा सम्पूर्ण भूत-प्राणियोंका सुहृद् अर्थात् स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी, ऐसा तत्त्वसे जानकर शान्तिको प्राप्त होता है|
The Lord declared:O Arjuna, he who shall consider ME the enjoyer of sacrifices and all that is internally pure, and who is devoted to ME, the God of all worlds and well-wisher of all beings, attains true, everlasting peace.
233
Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.1
श्रीभगवानुवाच । अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥...
श्रीभगवान् बोले—जो पुरुष कर्मफलका आश्रय न लेकर करनेयोग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है और केवल अग्निका त्याग करनेवाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओंका त्याग करनेवाला योगी नहीं है|
Lord Krishna continued: A Sannyaasi is one who performs action or duty (Karma) without desiring any reward or other results for his actions. One cannot be a Sannyaasi or a Yogi by simply not petorming Karma.
234
Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.2
यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव । न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन ॥ ६.२ ॥
हे अर्जुन ! जिसको संन्यास’ ऐसा कहते हैं, उसीको तू योग’ जान; क्योंकि संकल्पोंका त्याग न करनेवाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता|
O Arjuna, consider Sannyaas and Yoga as one and the same; just as one becomes a Sannyassi by giving up all desires, similarly to be a Yogi one must do the same.
235
Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.3
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते । योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥ ६.३ ॥
योगमें आरूढ़ होनेकी इच्छावाले मननशील पुरुषके लिये योगकी प्राप्तिमें निष्कामभावसे कर्म करना ही हेतु कहा जाता है और योगारूढ़ हो जानेपर उस योगारूढ़ पुरुषका जो सर्वसंकल्पोंका अभाव है, वही कल्याणमें हेतु कहा जाता है|
For one who wishes to establish himself in the divinity of Yoga. O Arjuna, he must follow the method of doing Karma without desires of any sort. For, giving up all worldly thoughts is the path that will lead you to being fully and truly established in Yoga, Dear Arjuna.
236
Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.4
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते । सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥ ६.४ ॥
जिस कालमें न तो इन्द्रियोंके भोगोंमें और न कर्मोंमें ही आसक्त होता है, उस कालमें सर्वसंकल्पोंका त्यागी पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है|
When one is no longer attached to sensual objects or to the Karma that he does, and when he has totally rid himself of all desires, at that time, a person is considered to be fully and undoubtedly established in Yoga.
237
Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.5
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ ६.५ ॥
अपने द्वारा अपना संसार- समुद्रसे उद्धार करे और अपनेको अधोगतिमें न डाले; क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है|
Dear Arjuna, one should lift himself through his own efforts. He success or failure in performing his Karma should be the result of his own doing. Should a man fail, he should not degrade himself, O Arjuna, for he is his own true friend as well as his own true enemy.
238
Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.6
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः । अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥ ६.६ ॥
जिस जीवात्माद्वारा मन और इन्द्रियोंसहित शरीर जीता हुआ है, उस जीवात्माका तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियोंसहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिये वह आप ही शत्रुके सदृश शत्रुतामें बर्तता है|
The true self (soul) is only its own friend if it is free from attachment and in control of its own mind, body and senses. However, dear Arjuna, if one’s soul is not in control of mind body and senses, then the soul is its own enemy.
239
Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.7
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः । शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥ ६.७ ॥
सरदी गरमी और सुख दुःखादिमें तथा मान – – और अपमानमें जिसके अन्तःकरणकी वृत्तियाँ भलीभाँति शान्त हैं, ऐसे स्वाधीन आत्मावाले पुरुष ज्ञानमें सच्चिदानन्दघन परमात्मा सम्यक् स्थित है अर्थात् उसके ज्ञानमें परमात्माके सिवा अन्य कुछ है ही नहीं|
One who has truly achieved peace with the self and a balance in cold and heat, joy and sorrow, respect and disrespect, has a purified and liberated soul, God dwells in souls such as these and the soul thereby, becomes truly divine.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.8
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः । युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ॥ ६.८ ॥
जिसका अन्तःकरण ज्ञान विज्ञानसे तृप्त है, – जिसकी स्थिति विकाररहित है, जिसकी इन्द्रियाँ भलीभाँति जीती हुई हैं और जिसके लिये मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण समान हैं, वह योगी युक्त अर्थात् भगवत्प्राप्त है, ऐसे कहा जाता है|
he Lord explained: When one’s mind is at peace and fully contented with the Gyan (Knowledge or wisdom) it has acquired, one whose mind is constantly stable and fixed in God, who has controlled his senses well and considers dirt, stone and gold as one, is said to have achieved unity with God. He is the perfect Yogi, O Arjuna.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.9
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु । साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥ ६.९ ॥
सुहृद्’, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ , द्वेष्य और बन्धुगणोंमें, धर्मात्माओंमें और पापियोंमें भी समानभाव रखनेवाला अत्यन्त श्रेष्ठ है|
One who thinks about and behaves with dear ones, friends, enemies, neutral ones, mediators malicious people, relatives, saints and sinful people, in the same manner, is truly a superior person.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.10
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः । एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥ ६.१० ॥
मन और इन्द्रियोंसहित शरीरको वशमें रखनेवाला, आशारहित और संग्रहरहित योगी अकेला ही एकान्त स्थानमें स्थित होकर आत्माको निरन्तर परमात्मामें लगावे|
Harboring insatiable lust, full of hypocrisy, pride and arrogance, the demoniac cling to their false tenets. Thus illusioned, they are attracted to the impermanent and work with impure resolve.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.11
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः । नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥ ६.११ ॥
शुद्ध भूमिमें, जिसके ऊपर क्रमश: कुशा, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं, जो न बहुत ऊँचा है और न बहुत नीचा, ऐसे अपने आसनको स्थिर स्थापन करके
For proper meditation, the Yogi should seek a clear spot, covered with grass, deer skin and/or clothing, which is neither very high nor very low, to seat himself.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.12
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः । उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥ ६.१२ ॥
उस आसनपर बैठकर चित्त और इन्द्रियोंकी क्रियाओंको वशमें रखते हुए मनको ए करके अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये योगका अभ्यास करे|
He should then practice Yoga for the purpose of purifying his mind and soul, focusing his thoughts on one point (God) at all times, and fully controlling the function of mind and senses.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.13
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः । सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥ ६.१३ ॥
काया, सिर और गलेको समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर, अपनी नासिका अग्रभागपर दृष्टि जमाकर, अन्य दिशाओंको न देखता हुआ|
The Lord instructed Arjuna:While meditating one must keep the head, neck and torso (upper body) as straight and as steady as possible, without even a slight movement.firmly looking at the tip of the nose and looking in no other direction whatsoever.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.14
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः । मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥ ६.१४ ॥
ब्रह्मचारीके व्रतमें स्थित, भयरहित तथा भलीभाँति शान्त अन्तःकरणवाला सावधान योगी मनको रोककर मुझमें चित्तवाला और मेरे परायण होकर स्थित होवे|
It is said the fruit of actions performed in the mode of goodness bestow pure results. Actions done in the mode of passion result in pain, while those performed in the mode of ignorance result in darkness.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.15
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः । शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥ ६.१५ ॥
वशमें किये हुए मनवाला योगी इस प्रकार आत्माको निरन्तर मुझ परमेश्वरके स्वरूपमें लगाता हुआ मुझमें रहनेवाली परमानन्दकी पराकाष्ठारूप शान्तिको प्राप्त होता है|
In this way, the true, self-controlled Yogi. Will inevitably attain eternal peace and be in the highest state of bliss by fixing his mind on Me during (proper) meditation.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.16
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः । न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥ ६.१६ ॥
हे अर्जुन! यह योग न तो बहुत खानेवालेका, न बिलकुल न खानेवालेका, न बहुत शयन करनेके स्वभाववालेका और न सदा जागनेवालेका ही सिद्ध होता है|
There must be a constant balance in everything a Yogi does. Eating too much or eating very little, sleeping too much or sleeping very little, for example, are not methods of succeeding in this Yoga.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.17
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु । युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ ६.१७ ॥
दुःखोंका नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार विहार करनेवालेका, कर्मोंमें यथायोग्य चेष्टा – करनेवालेका और यथायोग्य सोने तथा जागनेवालेका ही सिद्ध होता है|
O Arjuna, only those people who eat, live, work and sleep moderately, and destroy all misery, succeed in this Yoga.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.18
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते । निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥ ६.१८ ॥
अत्यन्त वशमें किया हुआ चित्त जिस कालमें परमात्मामें ही भलीभाँति स्थित हो जाता है, उस कालमें सम्पूर्ण भोगोंसे स्पृहारहित पुरुष योगयुक्त है, ऐसा कहा जाता है|
When one has freed himself of all desires, he will then always be firmly established in Yoga. When one has full control of his mind, he will be fully established in God.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.19
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता । योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥ ६.१९ ॥
जिस प्रकार वायुरहित स्थानमें स्थित दीपक चलाय मान नहीं होता, वैसी ही उपमा परमात्माके ध्यानमें लगे हुए योगीके जीते हुए चित्तकी कही गयी है|
The Almighty explained: Just as the flame of a lamp does not flicker in a place without wind, in the same way the controlled mind of the Yogi does not get distracted by worldly objects or pleasures.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.20
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया । यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥ ६.२० ॥
योगके अभ्याससे निरुद्ध चित्त जिस अवस्थामें उपराम हो जाता है और जिस अवस्थामें परमात्माके ध्यानसे शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धिद्वारा परमात्माको साक्षात् करता हुआ सच्चिदानन्दघन परमात्मामें ही सन्तुष्ट रहता है|
By the practice of Yoga, one’s mind becomes peaceful and calm and the mind that has truly realized God through meditation attains spiritual happiness, enjoyment and bliss only in God.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.21
सुखमात्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् । वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥ ६.२१ ...
इन्द्रियोंसे अतीत, केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धिद्वारा ग्रहण करनेयोग्य जो अनन्त आनन्द है; उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है और जिस अवस्थामें स्थित यह योगी परमात्माके स्वरूपसे विचलित होता ही नहीं |
O Arjuna, the limitless and everlasting joy and bliss that a true Yogi feels cannot be perceived by the ordinary senses, but can only be felt by a person who has a subtle, keen and clever intellect. When this Yogi has discovered this true happiness, he will never stray or move away from the Truth, Arjuna.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.22
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः । यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥ ६.२२ ॥
परमात्माकी प्राप्तिरूप जिस लाभको प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मप्राप्तिरूप जिस अवस्थामें स्थित योगी बड़े भारी दुःखसे भी चलायमान नहीं होता|
Having achieved this divine state of bliss, Dear Arjuna, the Yogi realizes that no other state or condition could be greater, thus even the most intense pains will never lead the Yogi astray from Truth or devotion to Me, the Supreme Soul.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.23
तं विद्याद्\u200cदुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् ॥ ६.२३ ॥
जो दुःखरूप संसारके संयोगसे रहित है तथा जिसका नाम योग है; उसको जानना चाहिये । वह योग न उकताये हुए अर्थात् धैर्य और उत्साहयुक्त चित्तसे निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है|
Yoga is the means to liberate (free) one from all miseries of the world. Yoga should always be practical with a fixed mind and determination.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.24
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा । संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः मनसैवेन्द्रि...
संकल्पसे उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण कामनाओंको नि: शेषरूपसे त्यागकर और मनके द्वारा इन्द्रियोंके समुदायको सभी ओरसे भलीभाँति रोककर
Once one has completely given up all desires created from his imagination and once one has learned to mentally control all of his senses, one slowly and gradually becomes peaceful. A true Yogi with a steady intellect fixes his mind only on God and thinks of nothing else but the Lord.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.25
शनैः शनैरुपरमेद्\u200cबुद्ध्या धृतिगृहीतया । आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥ ६.२५ ॥
क्रम-क्रमसे अभ्यास करता हुआ उपरतिको प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धिके द्वारा मनको परमात्मामें स्थित करके परमात्माके सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे|
Once one has completely given up all desires created from his imagination and once one has learned to mentally control all of his senses, one slowly and gradually becomes peaceful. A true Yogi with a steady intellect fixes his mind only on God and thinks of nothing else but the Lord.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.26
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् । ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥ ६.२६ ॥
यह स्थिर न रहनेवाला और चञ्चल मन जिस जिस शब्दादि विषयके निमित्तसे संसारमें विचरता है, उस उस विषयसे रोककर यानी हटाकर इसे बार बार परमात्मामें ही निरुद्ध करे|
The unsteady, wandering and constantly distracted mind should always be controlled and fixed in God.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.27
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् । उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥ ६.२७ ॥
क्योंकि जिसका मन भली प्रकार शान्त है, जो पापसे रहित है और जिसका रजोगुण शान्त हो गया है, ऐसे इस सच्चिदानन्दघन ब्रह्मके साथ एकीभाव हुए योगीको उत्तम आनन्द प्राप्त होता है |
Lord Krishna explained:The true Yogi has a peaceful mind, is free from sin and all evils of the world, becomes and eternal bliss.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.28
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः । सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥ ६.२८ ॥
वह पापरहित योगी इस प्रकार निरन्तर आत्माको परमात्मामें लगाता हुआ सुखपूर्वक परब्रह्म परमात्माकी प्राप्तिरूप अनन्त आनन्दका अनुभव करता है|
The sinless Yogi is constantly engaged in Yoga, and experiences no difficulty in achieving the greatest bliss and happiness of all, O Arjuna. That is, uniting and being one with Me, the Lord.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.29
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥ ६.२९ ॥
सर्वव्यापी अनन्त चेतनमें एकीभावसे स्थितिरूप योगसे युक्त आत्मावाला तथा सबमें समभावसे देखनेवाला योगी आत्माको सम्पूर्ण भूतोंमें स्थित और सम्पूर्ण भूतोंको आत्मामें कल्पित देखता है|
he wiseman who is forever engaged in performing Yoga, never discriminates against anybody because he sees his own self in all beings, and all beings within his own self.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.30
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति । तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥ ६.३० ॥
जो पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें सबके आत्मरूप मुझ वासुदेवको ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको मुझ वासुदेवके अन्तर्गत देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता|
The Lord explained: O Arjuna, he who truly sees Me everywhere he looks, sees me in everything. I am always there within his sight and he is also always within my sight.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.31
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः । सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥ ६.३१ ॥
जो पुरुष एकीभावमें स्थित होकर सम्पूर्ण भूतोंमें आत्मरूपसे स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेवको भजता है, वह योगी सब प्रकारसे बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है|
The Lord proclaimed: O Arjuna, I am present in all beings. He who worships me with a steady, peaceful and undistracted mind, is a true Yogi and he dwells within Me in My heart always.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.32
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥ ६.३२ ॥
अर्जुन ! जो योगी अपनी भाँति सम्पूर्ण भूतोंमें सम देखता है और सुख अथवा दुःखको भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है|
Dear Arjuna, the Yogi who looks upon all beings as his own self, treats all beings equally, and considers happiness and misery as the same, is truly a great being himself.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.33
अर्जुन उवाच । योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थि...
अर्जुन बोले—हे मधुसूदन ! जो यह योग आपने समभावसे कहा है, मनके चञ्चल होनेसे मैं इसकी नित्य स्थितिको नहीं देखता हूँ|
Arjuna asked Shri Krishna: Dear Lord, I simply cannot regard the Yoga of even-mindedness as a firm and stable exercise because of the instability of the mind itself.
266
Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.34
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्\u200cदृढम् । तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥ ६.३४ ॥
क्योंकि हे श्रीकृष्ण ! यह मन बड़ा चञ्चल, प्रमथन स्वभाववाला, बड़ा दृढ़ और बलवान् है । इसलिये उसका वशमें करना मैं वायुको रोकनेकी भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ|
Dear Krishna, the mind is truly very unstable, forceful and strong. It is just as difficult to control as the flow of the wind.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.35
श्रीभगवानुवाच । असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ ६.३५...
हे महाबाहो ! निःसन्देह मन चञ्चल और कठिनतासे वशमें होनेवाला है; परन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! यह अभ्यास और वैराग्यसे वशमें होता है|
Lord Krishna divinely replied: Dear Arjuna, undoubtedly, the mind, as you say, is difficult to control, yet with paractice, determination and detachment, it can be controlled.
268
Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.36
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः । वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥ ६.३६ ॥
जिसका मन वशमें किया हुआ नहीं है, ऐसे पुरुषद्वारा योग दुष्प्राप्य है और वशमें किये हुए मनवाले प्रयत्नशील पुरुषद्वारा साधनसे उसका प्राप्त होना सहज है – यह मेरा मत है|
Lord Krishna continued: In my opinion, O Arjuna, without a controlled mind, it is difficult for one to attain Yoga (attaining God). However, with a reasonable effort, the Yoga of even-mindedness (path to achieving the Lord) can be achieved by a person who has learned to control his senses.
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.37
अर्जुन उवाच । अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥ ६.३...
अर्जुन बोले—हे श्रीकृष्ण ! जो योगमें श्रद्धा रखनेवाला है; किन्तु संयमी नहीं है, इस कारण जिसका मन अन्तकालमें योगसे विचलित हो गया है, ऐसा साधक योगकी सिद्धिको अर्थात् भगवत्साक्षात्कारको न प्राप्त होकर किस गतिको प्राप्त होता है|
Arjuna asked the Lord: Dear Lord Krishna, what becomes of a man who has a firm belief in Yoga and has set foot on the path of Yoga, but allows his mind to deviate or stray from this path which leads to perfection?
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Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.38
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति । अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥ ६.३८ ॥
हे महाबाहो ! क्या वह भगवत्प्राप्तिके मार्गमें मोहित और आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न बादलकी भाँति दोनों ओरसे भ्रष्ट होकर नष्ट तो नहीं हो जाता ?
Arjuna continued: What happens to a man who can no longer continue on this path leading to the attainment of God (Yoga)? Is he destroyed and does he lose both worlds of Yoga (God-realization) and that of worldly enjoyment just as the clouds are scattered by the winds?
271
Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.39
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः । त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ॥ ६.३९ ॥
हे श्रीकृष्ण ! मेरे इस संशयको सम्पूर्णरूपसे छेदन करनेके लिये आप ही योग्य हैं, क्योंकि आपके सिवा दूसरा इस संशयका छेदन करनेवाला मिलना सम्भव नहीं है|
Lord Krishna, this is one of the doubts I have in my mind. You can remove it entirely. If anybody can remove all my doubts Krishna, it is You, and only You. Nobody else can clear My doubts completely.
272
Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.40
श्रीभगवानुवाच । पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते न हि कल्याणकृत्कश्चिद्\u200cदुर्गतिं तात ग...
श्रीभगवान् बोले– हे पार्थ ! उस पुरुषका न तो इस लोकमें नाश होता है और न परलोकमें ही । क्योंकि हे प्यारे ! आत्मोद्धारके लिये अर्थात् भगवत्प्राप्तिके लिये कर्म करनेवाला कोई भी मनुष्य दुर्गतिको प्राप्त नहीं होता
Lord Krishna replied: Dear Arjuna, the answer to your question is quite simple. A person who strives for God-realization (Yoga) never suffers deterioration or destruction. He is never destroyed in this world or in the other world regardless of whether he realizes Me fully or not.
273
Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.41
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः । शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥ ६.४१ ॥
योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानोंके लोकोंको अर्थात् स्वर्गादि उत्तम लोकोंको प्राप्त होकर, उनमें बहुत वर्षोंतक निवास करके फिर शुद्ध आचरणवाले श्रीमान् पुरुषोंके घरमें जन्म लेता है|
The unsuccessful person in Yoga, Dear Arjuna, achieves an abode or home in heaven, the place of pious, pure. He stays there for a long time and after a while, takes birth in the house of noble people of good conduct.
274
Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.42
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् । एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम् ॥ ६.४२ ॥
अथवा वैराग्यवान् पुरुष उन लोकोंमें न जाकर ज्ञानवान् योगियोंके ही कुलमें जन्म लेता है । परन्तु इस प्रकारका जो यह जन्म है, सो संसारमें निःसन्देह अत्यन्त दुर्लभ है|
Dear Arjuna, if he does not take birth in a noble family of good conduct, then he will be born into a family of wise yogis.Such a birth in the world is difficult to find and can only be achieved if your actions are pious, good-natured and unsinful.
275
Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.43
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम् । यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥ ६.४३ ॥
वहाँ उस पहले शरीरमें संग्रह किये हुए बुद्धि संयोगको अर्थात् समबुद्धिरूप योगके संस्कारोंको अनायास ही प्राप्त हो जाता है और हे कुरुनन्दन! उसके प्रभावसे वह फिर परमात्माकी प्राप्तिरूप सिद्धिके लिये पहलेसे भी बढ़कर प्रयत्न करता है|
When a man takes birth in his next life, he attains the wisdom he had achieved from the pious actions he performed in the pious actions of his past life, he tries harder once more to achieve true eternal peace and happiness in God through Yoga.
276
Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.44
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः । जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥ ६.४४ ॥
वह श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट पराधीन हुआ भी उस पहलेके अभ्याससे ही निःसन्देह भगवान्की ओर आकर्षित किया जाता है, तथा समबुद्धिरूप योगका जिज्ञासु भी वेदमें कहे हुए सकाम कर्मोंके फलको उल्लंघन कर जाता है|
As a result of the religious practices of his past life, he remains free of attachments and is attracted towards God by constantly practising Yoga although he may be under bad and unfavourable influences.
277
Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.45
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः । अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ॥ ६.४५ ॥
परन्तु प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करनेवाला योगी तो पिछले अनेक जन्मोंके संस्कारबलसे इसी जन्ममें संसिद्ध होकर सम्पूर्ण पापोंसे रहित हो फिर तत्काल ही परमगतिको प्राप्त हो जाता है|
After practicing Yoga during many births, there by destroying all sins and totally purifying the Self, the Yoga attains the supreme state, i.e. Salvation (total liberation from the world).
278
Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.46
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः । कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥ ६.४६ ॥
योगी तपस्वियोंसे श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानियोंसे भी श्रेष्ठ माना गया है और सकाम कर्म करनेवालोंसे भी योगी श्रेष्ठ है; इससे हे अर्जुन ! तू योगी हो|
Lord Krishna stated: O Arjuna, the Yogi is superior to all those who perform religious sacrifices and superior to those who read holy scriptures and, of course, to those who perform attached Karma. Therefore, Arjuna, you should strive to be a Yogi.
279
Atma-Samyama Yoga
Chapter 6
Verse 6.47
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना । श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥ ६.४७ ॥
सम्पूर्ण योगियोंमें भी जो श्रद्धावान् योगी मुझमें लगे हुए अन्तरात्मासे मुझको निरन्तर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है|
Of all the Yogis, the one who has complete faith in Me, whose mind is attached to Me only, and who continually worships Me, is absolutely the superior among all Yogis.
280
Jnana-Vijnana Yoga
Chapter 7
Verse 7.1
श्रीभगवानुवाच । मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥...
श्रीभगवान् बोले-हे पार्थ ! अनन्यप्रेमसे मुझमें आसक्तचित्त तथा अनन्यभावसे मेरे परायण होकर योगमें लगा हुआ तू जिस प्रकार से सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि गुणोंसे युक्त, सबके आत्मरूप मुझको संशयरहित जानेगा, उसको सुन|
Lord Krishna further explained: Dear Arjuna, with your mind fully absorbed in thoughts of Me and in the practice of Yoga as well, with total reliance on Me alone, listen to the secret of how to really know Me in entirety.
281
Jnana-Vijnana Yoga
Chapter 7
Verse 7.2
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः । यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥ ७.२ ॥
मैं तेरे लिये इस विज्ञानसहित तत्त्वज्ञानको सम्पूर्णतया कहूँगा, जिसको जानकर संसारमें फिर और कुछ भी जाननेयोग्य शेष नहीं रह जाता|
After I divulge this secret to you, the knowledge you will have attained from this secret of the Supreme (God) will make all other knowledge seem worthless for you, O Arjuna.
282
Jnana-Vijnana Yoga
Chapter 7
Verse 7.3
मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्र्चिद्यतति सिद्धये । यततामपि सिद्धानां कश्र्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ॥ ७.३ ...
हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करता है और उन यत्न करनेवाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्त्वसे अर्थात् यथार्थरूपसे जानता है |
It is very difficult to know Me fully in reality, dear Arjuna. Out of thousands of people, only a few special ones (Yogis or divine devotees) try to realize Me. Even out of those perfect people trying to realize Me, only a few succeed in doing so. Hardly anybody know My reality.
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Jnana-Vijnana Yoga
Chapter 7
Verse 7.4
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥ ७.४ ॥
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार भी — इस प्रकार यह आठ प्रकारसे विभाजित मेरी – प्रकृति है । यह आठ प्रकारके भेदोंवाली तो अपरा अर्थात् मेरी जड़ प्रकृति है और हे महाबाहो ! इससे दूसरीको, जिससे यह सम्पूर्ण जगत् धारण किया जाता है, मेरीजीवरूपा परा अर्थात् चेतन प्रकृति जान
My nature,dear Arjuna, is formed by eight elements, namely, earth, fire, wind, water, sky, mind, intellect and ego. O Arjuna, understand that the elements I have just mentioned to you are only part of My lower nature. The other part of Me is My higher nature, which preserves the universe.
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Jnana-Vijnana Yoga
Chapter 7
Verse 7.5
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् । जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥ ७.५ ॥
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार भी — इस प्रकार यह आठ प्रकारसे विभाजित मेरी – प्रकृति है । यह आठ प्रकारके भेदोंवाली तो अपरा अर्थात् मेरी जड़ प्रकृति है और हे महाबाहो ! इससे दूसरीको, जिससे यह सम्पूर्ण जगत् धारण किया जाता है, मेरीजीवरूपा परा अर्थात् चेतन प्रकृति जान
My nature,dear Arjuna, is formed by eight elements, namely, earth, fire, wind, water, sky, mind, intellect and ego. O Arjuna, understand that the elements I have just mentioned to you are only part of My lower nature. The other part of Me is My higher nature, which preserves the universe.
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Jnana-Vijnana Yoga
Chapter 7
Verse 7.6
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय । अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥ ७.६ ॥
हे अर्जुन ! तू ऐसा समझ कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियोंसे ही उत्पन्न होनेवाले हैं और मैं सम्पूर्ण जगत्का प्रभव तथा प्रलय हूँ अर्थात् सम्पूर्ण जगत्का मूलकारण हूँ|
The Lord spoke solemnly: O Arjuna, you must understand that I have created all beings in these two aspects of my nature. Arjuna, Know Me as both the creator and the destroyer of the world.
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Chapter 7
Verse 7.7
मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय । मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥ ७.७ ॥
हे धनञ्जय! मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत् सूत्रमें सूत्रके मनियोंके सदृश मुझमें गुँथा हुआ है|
Arjuna, there is in reality absolutely nothing else but Me, I am all there is in this whole universe and everything is threaded into Me like the pearls in a necklace.
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Chapter 7
Verse 7.8
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः । प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥ ७.८ ॥
हे अर्जुन ! मैं जलमें रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्यमें प्रकाश हूँ, सम्पूर्ण वेदोंमें ओंकार हूँ, आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ|
Dear Arjuna, I am the essence (the life) of water. I am the light in the Moon and the Sun; I am the “OM” in all of the Vedas (Holy Scriptures of the Hindu Religion). I am the sound and vibrations in the sky and the manliness in all men.
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Jnana-Vijnana Yoga
Chapter 7
Verse 7.9
पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ । जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥ ७.९ ॥
मैं पृथ्वीमें पवित्र गन्ध और अग्निमें तेज हूँ तथा सम्पूर्ण भूतोंमें उनका जीवन हूँ और तपस्वियोंमें तप हूँ|
I am the aroma (fragrance) in the earth, the radiance in the fire. I am “life” in all beings, and I represent the sacrifice in all religious and sacrificial ceremonies.
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Jnana-Vijnana Yoga
Chapter 7
Verse 7.10
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् । बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ॥ ७.१० ॥
हे अर्जुन! तू सम्पूर्ण भूतोंका सनातन बीज मुझको ही जान। मैं बुद्धिमानोंकी बुद्धि और तेजस्वियोंका तेज हूँ|
Arjuna, know Me; I am the core of all beings. I am the intelligence in the intelligent, and I represent the valour in the valiant men of this world.
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Jnana-Vijnana Yoga
Chapter 7
Verse 7.11
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् । धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥ ७.११ ॥
हे भरतश्रेष्ठ ! मैं बलवानोंका आसक्ति और कामनाओंसे रहित बल अर्थात् सामर्थ्य हूँ और सब भूतोंमें धर्मके अनुकूल अर्थात् शास्त्र के अनुकूल काम हूँ|
Arjuna, my dear devotee, I am the strength in those that are strong and who are free from desire and attachment. I am the controlled, passion in all beings not contrary to Dharma.
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Chapter 7
Verse 7.12
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये । मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥ ७.१२ ॥
और भी जो सत्त्वगुणसे उत्पन्न होनेवाले भाव हैं और जो रजोगुणसे तथा तमोगुणसे होनेवाले भाव हैं, उन सबको तू ‘मुझसे ही होनेवाले हैं’ ऐसा जान, परन्तु वास्तवमें* उनमें मैं और वे मुझमें नहीं हैं|
Arjuna, I am also all the thoughts borne out of Sattvik (pure), Rajasik (high activity) and Tamasik (evil) elements that surround this world. Consider them all as created by Me. However, always remember, I am neither in them, nor are they in me.
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Jnana-Vijnana Yoga
Chapter 7
Verse 7.13
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् । मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥ ७.१३ ॥
गुणोंके कार्यरूप सात्त्विक, राजस और तामस – – इन तीनों प्रकारके भावोंसे यह सारा संसार – प्राणिसमुदाय मोहित हो रहा है, इसीलिये इन तीनों गुणोंसे परे मुझ अविनाशीको नहीं जानता|
The whole universe, o Son of Kunti, is deluded by the Sattvik, Rajasik, and Tamasik Gunas (Components or Parts of nature). However,the truth is that I, the Supreme, Imperishable God, am above all of these Gunas.
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Chapter 7
Verse 7.14
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥ ७.१४ ॥
क्योंकि यह अलौकिक अर्थात् अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है; परन्तु जो पुरुष केवल मुझको ही निरन्तर भजते हैं, वे इस मायाको उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसार से तर जाते हैं|
Because My divine nature (many) consisting of these three parts, is very powerful,only those who continuously worship me, rise above these three Gunas (parts of nature) and cease to be deluded by them.
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Chapter 7
Verse 7.15
न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः । माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ॥ ७.१५ ॥
मायाके द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है ऐसे आसुर-स्वभावको धारण किये हुए, मनुष्योंमें नीच, दूषित कर्म करनेवाले मूढ़लोग मुझको नहीं भजते|
Those who have lost their Gyan (wisdom) because of the pursuit of power (maya) and those who are evil in nature and are constantly engaged in evil deeds, do not worship Me, O Arjuna.
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Jnana-Vijnana Yoga
Chapter 7
Verse 7.16
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन । आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥ ७.१६ ॥
हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! उत्तम कर्म करनेवाले अर्थार्थी’, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी – ऐसे चार – प्रकारके भक्तजन मुझको भजते हैं|
In this world there are only four types of pure and divine (pious) people who worship Me,dear Arjuna; those in distress, the seekers of knowledge and wisdom, the wise (Yogis) and those who desire material wealth.
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Chapter 7
Verse 7.17
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते । प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥ ७.१७ ॥
उनमें नित्य मुझमें एकीभावसे स्थित अनन्य प्रेमभक्तिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है, क्योंकि मुझको तत्त्वसे जाननेवाले ज्ञानीको मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय है|
Among all of these, O Arjuna, only the wise who are always thinking of Me with true love and devotion, are special and dear to Me, and I am dear to them as well.
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Chapter 7
Verse 7.18
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् । आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥ ७.१८ ॥
ये सभी उदार हैं, परन्तु ज्ञानी तो साक्षात् मेरा स्वरूप ही है – ऐसा मेरा मत है; क्योंकि वह मद्गत मन-बुद्धिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम गतिस्वरूप मुझमें ही अच्छी प्रकार स्थित है|
Although all of those who worship Me,Arjuna, are dear and sublime to Me, But because I regard a Gyani (man of wisdom) or Yogi to be of my own image, that Yogi will always reside in Me, the Almighty.
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Chapter 7
Verse 7.19
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते । वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥ ७.१९ ॥
बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है – इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है|
A Gyani or wise man who worship Me with great love and devotion during many or all of his birth, truly realizes Me as the “be-all” and the “end-all”. And he is considered by Me to be a great sage.
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Chapter 7
Verse 7.20
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः । तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥ ७.२० ॥
उन-उन भोगोंकी कामनाद्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, वे लोग अपने स्वभावसे प्रेरित होकर उस उस नियमको धारण करके अन्य देवताओं – भजते हैं अर्थात् पूजते हैं|
Driven by the desires which exist in their nature, ignorant people worship other Deities with rituals.
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Chapter 7
Verse 7.21
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति । तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ॥ ७.२१ ॥
जो जो सकाम भक्त जिस-जिस देवताके स्वरूपको – श्रद्धासे पूजना चाहता है, उस-उस भक्तकी श्रद्धाको मैं उसी देवताके प्रति स्थिर करता हूँ|
Whichever god (deity) a person wishes to worship with faith, O Arjuna, I am the one who establishes or builds his faith in that deity.